खाद कई प्रकार की होती है। पुराने लोग ढेंचा,सनई जैसी अनेक फसलों को हरी खाद के लिए लगाया करते थे लेकिन उपज की अंधी दौड़ में हमने इन्हें बिसार दिया है। उत्पादन तो बढ़ा है लेकिन न तो उचित कीमत मिल रही है और ना पोषण से भरपूर अन्न रह गया है। हरी खाद से जमीन की जल धारण क्षमता से लेकर उपज क्षमता तक बढ़ाती है। अधिकांश इलाकों में तीन से चार माह का समय ऐसा आता है जबकि खेतों में कोई फसल नहीं होती। इस समय को खेत की सेहत सुधारने और हरी खाद उगाने के लिए काम में लिया जा सकता है। वर्षा आधारित इलाकों में इस काम को खेती के एक एक हिस्से को हरी खाद के लिए खाली छोडकर बाकी में फसल लेकर मिट्टी की सेहत सुधारी जा सकती है। मिट्टी से लगातार दोहन के चलते उसमें पौधों की बढ़वार के कारण तत्व खत्म हो जाते है। इन्हें हरी खाद से बढ़ाया जा सकता है। इसके आलवा धान-गेहूं फसल चक्र वाले इलाकों में यदि एक दहलनी फसल का चक्र किसाान भाई बना लें तो भी मिट्टी की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। जैविक खादों से तैयार उत्पादन सेहत के लिए फायदेमंद होने के अलावा रासायनिक खादों के मुकाबले स्वादिष्ठ होता है। जैविक खादों से तैयार उत्पाद खाने से स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे को काफी कम किया जा सकता है। हरी खाद का प्रयोग करने से रासायनिक खादों पर होने वाले खर्चे कम करने के अलावा सामान्य रूप से रोगों से लड़ने में सक्षम फसल तैयार की जा सकती है। हरी खाद बनाने केि लिए गेंहू काटने के बाद का 60 से 70 दिन का समय मुफीद रहता है। हरी खादों के लिए ढ़ेंचे की बिजाई की जाती है। इसे तकरीबन 60 दिन का होने पर हैरों से खेत में ही कतर दिया जाता है। इसके बाद यदि उपलब्ध हो तो खेत में पानी लगाने से कतरन जल्दी गल सड़कर खेत की मिट्टी में घुल मिल जाती है। इसके अलावा सनई, दहलनी मूंग, उरद, अरहर आदि की जड़ों से भी जैविक खाद मिलता है।