सॉयल हेल्थ कार्ड योजना को भारतीय सरकार द्वारा 19 फरवरी 2015 में शुरू किया गया. इस योजना का मुख्य उद्देश्य मिट्टी के पोषक तत्वों की जांच करना है. यदि किसानों को पता होगा कि उन्हें फसल की देखभाल कैसे करनी है तो किसानों को कम खर्च में ज्यादा पैदावार मिलेगी और इन सब के लिए मिट्टी के पोषक तत्वों की जांच करवाना आवश्यक है. साथ ही इस योजना मुख्य उद्देश्य किसानों को अच्छी खाद और पोशाक तत्त्वों के इस्तमाल के लिए जागरुक करना है.
सॉयल हेल्थ कार्ड योजना की शुरुआत हमारे देश के प्रधानमंत्री जी ने इसलिए शुरू की ताकि खेती के लिए उपजाऊ जमीन की पहचान कर उसमे खेती लायक पोशाक तत्वों की जांच कर पता लगाया जा सके की किस हिसाब से फसल को देखभाल की जाए. जिस वजह से पैदावार अच्छी होगी.
मिट्टी के पोषक तत्वों के जांच की क्या जरूरत
मिट्टी के पोषक तत्वों के जांच से कौन सी जमीन कितनी उपजाऊ है और उसमे कितने पोषक तत्वों की जरूरत है. यदि हम ये बिना पता किए कि जमीन में कितने पोषक तत्व है, उसमे पोषक तत्वों को डालते है तो संभव है कि हम खेत में आवश्यकता से अधिक या कम खाद डाल दे. कम खाद डालने पर कम पैदावार होगी वहीं ज्यादा खाद डालने पर खाद और पैसों का नुकसान ही होगा और ये अगली बार की पैदावार में भी असर करेगा.
नमूने के जांच हेतु आप किसी नजदीकी कृषि विभाग के दफ्तर या स्थानीय कृषि पर्यवेक्षक में जमा करवा सकते है. यदि आपके निकट कोई मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला हो तो आप वहां पर भी जाकर इसकी जांच मुफ्त में करवा सकते है. जिला स्तर पर प्रयोगशाला कहां पर स्थित है उसकी जानकारी farmer.gov.in पोर्टल पर जाकर राज्यवार ली जा सकती है। अतः अपना समय और पैसा बचाने के लिए और अच्छी पैदावार के लिए मिट्टी का परीक्षण जरूर करवाएं.
काली मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन से फसल की जा सकती हैं
काली मिट्टी बेसाल्ट चट्टानों (ज्वालामुखीय चट्टानें) के टूटने और इसके लावा के बहने से निर्मित होती है। इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी और कपास की मिट्टी भी कहा जाता है। इसमें आयरन, मैग्नेशियम, लाइम और पोटाश होते हैं। परंतु, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और कार्बनिक पदार्थ इसमें कम पाए जाते हैं। इस मृदा का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश (ह्यूमस) की वजह से होता है। यह मृदा डेक्कन लावा के रास्ते में पड़ने वाले इलाकों जैसे कि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में होती है। नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और ताप्ती नदियों के किनारों पर यह मिट्टी पाई जाती है। जानकारी के लिए बतादें कि काली मिट्टी में होने वाली प्रमुख फसल कपास है। हालाँकि, इसके अतिरिक्त गन्ना, गेहूं, ज्वार, सूरजमुखी, अनाज की फसलें, चावल, खट्टे फल, सब्ज़ियां, तंबाकू, मूंगफली, अलसी, बाजरा व तिलहनी फसलें होती हैं।
लाल और पीली मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं
यह मिट्टी दक्षिणी पठार की पुरानी मेटामार्फिक चट्टानों के टूटने से बनती है। भारत के अंदर यह मृदा ओड़िशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के पूर्वी इलाकों, छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी पश्चिम जिलों, मेघालय की गारो खासी और जयंतिया के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैंड, राजस्थान में अरावली के पूर्वी क्षेत्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में पाई जाती है। यह मृदा कुछ रेतीली होती है और इसमें अम्ल एवं पोटाश की मात्रा ज्यादा होती है जबकि इसके अंदर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम और ह्यूमस की कमी होती है। लाल मिट्टी का लाल रंग आयरन ऑक्साइड की मौजूदगी की वजह से होता है। परंतु, जलयोजित तौर पर यह पीली दिखाई पड़ती है। चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, मूंगफली, रागी, आलू, तिलहनी व दलहनी फसलें, बाजरा, आम, संतरा जैसे खट्टे फल व कुछ सब्ज़ियों की खेती अच्छी सिंचाई व्यवस्था करके उगाई जा सकती हैं।
लैटेराइट मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं
लैटेराइट मृदा पहाड़ियों एवं ऊंची चट्टानों की चोटी से निर्मित होती है। मानसूनी जलवायु के शुष्क एवं नम होने का जो बदलाव होता है, उससे इस मृदा को निर्मित होने में सहायता मिलती है। मृदा में अम्ल एवं आयरन अधिक होता है। वहीं फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, कैल्शियम और ह्यूमस की कमी होती है। इस मृदा को गहरी लाल लैटेराइट, सफेद लैटेराइट एवं भूमिगत जलवायी लैटेराइट में विभाजित किया जाता है। लैटेराइट मृदा केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में पाई जाती है। लैटेराइट मृदा अत्यधिक उपजाऊ नहीं होती है। परंतु दलहन, चाय, कॉफी, रबड़, नारियल, काजू, कपास, चावल और गेहूं की खेती इस मिट्टी में होती है। इस मिट्टी में आयरन की भरपूर मात्रा होती है। इस वजह से ईंट तैयार करने में भी इस मृदा का इस्तेमाल किया जाता है।