चने की खेती कई राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। इसकी खेती के लिए दोमट, भारी दोमट, मार एवं पड़वा भूमि जहां जल निकासी की व्यवस्था अच्छी हो ठीक रहती है।
अच्छे उत्पादन के लिए ध्यान देने योग्य बातें
चने की खेती के लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई करके पाटा लगा दें। सिंचित अवस्था में बीज दर 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखते हैं वही सामान्य दाने वाली किस्मों में बीज दर 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखते हैं। मोटे दाने वाली बारानी अवस्था में बोई जाने वाली किस्म का बीज 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए वही सामान्य दाने वाली किस्मों का बीज 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग में लेना चाहिए। लाइन से लाइन की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर एवं बीज की गहराई 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। मोबाइल मध्य अक्टूबर से नवंबर के पहले हफ्ते तक कर लेनी चाहिए।
उर्वरक संबंधी जरूरतें
किसी फसल के लिए उर्वरक का प्रबंधन बेहद आवश्यक होता है। चने की खेती के लिए नाइट्रोजन फास्फोरस गंधक एवं चिन्ह 20, 50, 20 और 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
यदि बरसात न हो तो चने की खेती में पहली सिंचाई 45 दिन के बाद एवं दूसरी सिंचाई 75 दिन के बाद करनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम पेंडामेथालिन दवा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर मोबाइल के बाद और अंकुरण से पूर्व यानी कि 36 घंटे के अंदर खेत में छिड़काव करने से खरपतवार नहीं उगते।
चने की उन्नत किस्में
पूसा 2085 चने की काबुली किसमें है जो उत्तरी भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दिल्ली के लिए संस्तुत की गई है।सिंचित अवस्था में यह किस्म 20 क्विंटल तक प्रति हेक्टेयर में उत्पादन देती है।इसके दानी एक समान आकर्षक चमकीले व हल्के भूरे रंग के होते हैं बड़े आकार वाले दाने होने के कारण यह चना बेहद खूबसूरत लगता है। प्रोटीन की मात्रा अधिक है । अन्य लोगों को भी इसमें कम लगते हैं। यह किस्म मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है।
पूसा की दूसरी किस्म हरा चना 112 नंबर है। सिंचित अवस्था में समय पर बोली जाने वाली एप्स 23 कुंटल तक उपज देती है। यह किस्म विभिन्न तरह के दबाव को झेलने में सक्षम है इसके चलते सीमांत किसानों के लिए यह बेहद लाभकारी है।
पूसा 5023 काबली श्रेणी का चना है। सिंचित अवस्था में यह 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देता है। इसका दाना अत्यधिक मोटा है और उकठा बीमारी के प्रति यह मध्यम अब रोधी है।
पूसा 5028 देसी सिंचित अवस्था में 27 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देने वाली किस्मे पूसा 547 देसी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में बोली जाने योग्य किसमें है। सिंचित अवस्था में पछेती दुबई के लिए यह किसने उपयुक्त है और 18 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है। पकने की अवधि 135 दिन है। यह किस जंड गलन, वृद्धि रोधी रोगों, फली छेदक के प्रति सहिष्णु है।
पूसा चमत्कार किस्म दिल्ली हरियाणा पंजाब राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश में सिंचित अवस्था में पाए जाने पर 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है। यह मर्दा जनित रोगों को लेकर प्रतिरोधी है। पकने में 145 से 150 दिन का समय लेती है।
पूसा 362 देसी किस्म उत्तर भारत में सामान्य पछेती बुवाई के लिए संस्कृत की गई है और इससे 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है। यह किसने सूखे के प्रति सहिष्णु है तथा पकाने के लिए बहुत अच्छी है । पकने में 155 दिन का समय लेती है।
पूसा 372 देसी किस्म दिल्ली पंजाब हरियाणा राजस्थान उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश बिहार महाराष्ट्र और गुजरात में सिंचित व बारानी क्षेत्रों में पछेती बुवाई के लिए संस्तुत की गई है। इससे पछेती बुवाई पर 18 से 22 क्विंटल एवं सामान्य बुवाई की दशा में 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है।
ऊषा सुभ्रा 128 मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड तथा राजस्थान के सीमावर्ती देशों में भूमि योग्य है।यह सिंचित अवस्था में पक्षी की बुवाई के लिए है और 17 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। मृदा जनित बीमारियों से मध्यम प्रतिरोधी है।मशीनी कटाई के लिए उपयुक्त है 110 से 15 दिन में पक्का तैयार हो जाती है।
पूसा धारवाड़ प्रगति बीजीडी बेहतर किस्म मध्य प्रदेश महाराष्ट्र गुजरात उत्तर प्रदेश बुंदेलखंड एवं राजस्थान में होने योग्य है। बारानी क्षेत्रों में यह किस में 22 से 28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। सूखा प्रतिरोधी यह किस मोटे दाने वाली और 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।
पूसा काबुली 2024 सिंचित अवस्था को बारानी क्षेत्रों में 25 से 28 कुंटल उपस्थिति है 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा 1108 काबुली सिंचित अवस्था में समय पर बुवाई करने पर 25 से 30 कुंटल उपज देती है और अधिकतम डेढ़ सौ दिन में पक जाती है।
पूसा काबली 1105 किस्म सिंचित अवस्था में सामान्य बुवाई के लिए है और 25 से 30 क्विंटल तक उपज देती है। दक्षिण भारत में 120 दिन तथा उत्तर भारत में 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है।
पूसा 1103 देसी किस्म पछेती बुवाई के लिए है और 20 से 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और पकने में 130 से 140 दिन का समय लेती है। उत्तर भारत में धान आधारित फसल चक्र के लिए यह उपयोगी है।
पूसा 1128 काबुली 12 न्यू सिंचित क्षेत्र में बुवाई के लिए है अभी से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। मृदा जनित रोग प्रतिरोधी है, उच्च सूखा शहष्णु व 140 दिन में पक जाती है।
अमरोदी कृष्ण संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। यह 25 से 30 क्विंटल उपज देती है।
के डब्ल्यू आर 108 भी संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। यह 135 दिन में पक्के 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
के आंसू 50 किस्म संपूर्ण मैदानी क्षेत्र के लिए है। ऊपज 25 से 30 क्विंट देती है।
डब्लू सीजी1 किस्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 25 से 30 क्विंटल उपज देती है और 145 दिन में पकती है।
एचके 94-134 किस्म संपूर्ण उत्तर प्रदेश में बोई जाने वाली काबुली चने की किस्में है। यह पृथ्वी से 30 क्विंटल उपज देती है और 145 दिन में पकती है।
खरीफ के मौसम की दलहनी फसलें
मूंग, उड़द एवं ज्वार की फसल खरीफ सीजन में लगाई जाती है। भारत में कई स्थानों पर उड़द एवं मूंग जायद के सीजन में भी लगाई जाती है।
चने की खेती बंजर एवं पथरीली जमीन पर भी हो जाती है। इसकी फसल के लिए सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता नहीं होती है। न हीं किसान भाइयों को इसकी खेती के लिए अधिक मेहनत ही करनी पड़ती है लेकिन इस की खेती की निगरानी अवश्य ही अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक करनी होती है। आइये जानते हैं कि चने की बुआई किस प्रकार से की जाती है।
रबी के सीजन की यह फसल असिंचित क्षेत्रों में अधिक की जाती है जबकि सिंचित क्षेत्रों में चने की खेती कम की जाती है। सिंचित क्षेत्र में काबुली चने की खेती अधिक की जाती है। शरदकालीन फसल होने की वजह से से इसकी खेती कम वर्षा वाले तथा हल्की ठंडक वाले क्षेत्रों में की जा सकती है। चने की खेती के लिए दोमट व मटियार भूमि सबसे उत्तम मानी जाती है लेकिन दोमट, भारी दोमट मार, मडुआ, पड़आ, पथरीली, बंजर भूमि पर भी चने की खेती की जा सकती है। काबुली चना के लिए अच्छी भूमि चाहिये। दक्षिण भारत में मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में काबुली चने की फसल की जाती है। इस तरह की मिट्टी में नमी अधिक और लम्बे समय तक रहती है। ढेलेदार मिट्टी में भी देशी चने की फसल ली जा सकती है। इसलिये देश के सूखे पठारीय क्षेत्रों में चने की खेती अधिकता से की जाती है। चने की खेती वाली जमीन के लिए यह देखना होता है कि खेत में पानी तो नहीं भरा रहता है। जलजमाव वाले खेतों में चना की खेती नहीं की जा सकती है। ढलान वाले खेतों में भी चने की खेती की जा सकती है। खेत को तैयार करने के लिए किसान भाइयों को चाहिये कि पहली बार जुताई मिट्टी को पलटने वाले हल से करनी चाहिये। उसके बाद क्रास जुताई करके पाटा लगायें। चने की फसल के बचाव हेतु दीपक एवं कटवर्म के रोधी कीटनाशक का इस्तेमाल अंतिम जुताई के समय करें। उस समय हैप्टाक्लोर चार प्रतिशत या क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत अथवा मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत अथवा एन्डोसल्फॉन 1.5 प्रतिशत चूर्ण को 25 किलो मिट्टी में में अच्छी प्रकार से मिलाएं फिर खेत में फैला दें।
चने की बुआई के समय की बात करें तो उत्तर भारत में चने की बुआई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में होती है। वैसे देश के मध्य भाग में इससे पहले भी चने की बुआई शुरू हो जाती है। सिंचित क्षेत्र में चने का बीज प्रति हेक्टेयर 60 किलो तक लगता है। काबुली चना का बीज 80 से 90 किलो प्रति हेक्टेयर लगता है तथा छोटे दानों वाली चने की किस्मों की खेती में असिंचित क्षेत्र के लिए 80 किलो तक बीज बुआई में लगता है। अधिक पैदावार लेने के लिए तथा पछैती फसल के लिए 20 से 25 प्रतिशत तक अधिक बीज का उपयोग करना होगा।
चने की खेती को अनेक प्रकार के कीट व रोग नुकसान पहुंचाते हैं। इस नुकसान से पहले चने की बुआई से पहले बीज का उपचार व शोधन करना होगा। किसान भाइयों सबसे पहले चने के बीज को फफूंदनाशी, कीटनाशी और राजोबियम कल्चर से उपचारित करें। चने की खेती को उखटा व जड़ गलन रोग से बचाव करने के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम या मैन्कोजेब या थाइरम की 2 ग्राम से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। दीपक व अन्य भूमिगत कीटों से बचाने के लिए क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 8 मिलीलीटर मात्रा से प्रतिकिलो बीज को उपचारित करें। इसके बाद राइजोबियम कल्चर के तीन व घुलनशील फास्फोरस जीवाणु के तीन पैकेटों से बीजों को उपचारित करें। बीज को उपचारित करने के लिए 250 ग्राम गुड़ को एक लीटर पानी में गर्म करके घोले और उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस के घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार से मिलाकर बीज उपचारित करें। उपचार करने के बाद बीजों को छाया में सुखायें।
किसान भाई चने की बुआई करते समय पौधों का अनुपात सही रखें तो फसल अच्छी होगी। अधिक व कम पौधों से फसल प्रभावित हो सकती है। सही अनुपात के लिए बीज की लाइन से लाइन की दूरी एक से डेढ़ फुट की होनी चाहिये तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिये। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 सेंटीमीटर अच्छी मानी जाती है और सिंचित क्षेत्र के लिए ये गहराई 5 से 7 सेंटी मीटर ही अच्छी मानी जाती है।
चने की खेती की देखभाल कैसे करें
सबसे पहले किसान भाइयों को चने की खेती की बुआई के बाद खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान देना होगा क्योंकि खरपतवार से 60 प्रतिशत तक फसल खराब हो सकती है। बुआई के तीन दिन बाद खरपतवार नासी डालें। उसके 10 दिन बाद फिर खेत का निरीक्षण करें यदि खरपतवार दिखता है तो उसकी निराई गुड़ाई करें। इस दौरान पौधों की उचित दूरी का अनुपात भी सही कर लें। अधिक घने पौधे हों तो पौधों को निकालकर उचित दूरी बना लें। साथ ही गुड़ाई कर लें ताकि चने के पौधों की जड़ें मजबूत हो जायें।
सिंचाई प्रबंधन
चने की फसल का अधिक पानी भी दुश्मन होता है। अधिक पानी से पौधों की बढ़वार अधिक लम्बी हो जाती है, जिससे चने कम आते हैं और हवा आदि से पेड़ गिरकर नष्ट भी हो जाते हैं। इसके अलावा खेत में यदि पानी भरता हो तो बरसात होने के समय सावधानी बरतें और जितनी जल्दी हो सके पानी को खेत से निकालें। चने की फसल में बहुत जरूरत होने पर एक सिंचाई कर दें। यदि वर्षा हो जाये तब जमीन की नमी को परखें उसके बाद ही सिंचाई करें।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
आम तौर पर चने की खेती के लिए 40 किलो फास्फोरस, 20 किलो पोटाश, 20 किलो गंधक, 20 किलो नाइट्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है। जिन क्षेत्रों की मिट्टी में बोरान अथवा मोलिब्डेनम की मात्रा कम हो तो वहां पर किसान भाइयों को 10 किलोग्राम बोरेक्स पाउडर या एक किलो अमोनियम मोलिब्डेट का इस्तेमाल करना चाहिये। असिंचित क्षेत्रों में नमी में कमी की स्थिति में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव फली बनने के समय करें।
कीट नियंत्रण के उपाय करें
चने की फसल में मुख्य रूप से फली छेदक कीट लगता है। पछैती फसलों में इसका प्रकोप अधिक होता है। इसके नियंत्रण के लिए इण्डेक्सोकार्ब, स्पाइनोसैड, इमाममेक्टीन बेन्जोएट में से किसी एक का छिड़काव करें। नीम की निबौली के सत का भी प्रयोग कर सकते हैं। इसके अलावा दीमक, अर्द्धकुण्डलीकार, सेमी लूपर कीट लगते हैं। इनका उपचार समय रहते करना चाहिये।
रोग एवं रोकथाम
1.चने की खेती में उकठा या उकड़ा रोग लगता है। यह एक तरह का फफूंद है और यह मिट्टी या बीज से जुड़ी बीमारी है। इस बीमारी से पौधे मरने लगते हैं। इससे बचाव के लिए समय पर बुआई करें। बीज को गहराई में बोयें।
2.ड्राई रूट रॉट का रोग मिट्टी जनित रोग है। इइस बीमारी के प्रकोप से पौधों की जड़ें अविकसित एवं काली होकर सड़ने और टूट जाती है। इस तरह से पूरा पौधा ही नष्ट हो जाता है। बाद में पौधा भूसे के रूप में बदल जाता है।
3.कॉलर रॉट रोग से पौधे पीले होकर मर जाते हैं। यह रोग बुआई के डेढ़ माह बाद ही लगना शुरू हो जाता है। कांबूडाजिम के या बेनोमिल के घोल से छिड़काव करें।
इसके अलावा चांदनी, धूसर फफूंद, हरदा रोग, स्टेम फिलियम ब्लाइट, मोजेक बौना रोग चने की फसल को नुकसान पहुंचाती है।
चने की कौन-कौन सी उन्नत किस्में किसानों को पहुंचा सकती हैं फायदा ?
चने की अच्छी पैदावार के लिए उन्नत किस्में के साथ उन्नत बीजों का चयन करना बेहद आवश्यक है। चना मुख्यतया तीन प्रकार का होता है, जिसे हम काला चना या देशी चना, काबुली चना और हराचना के नाम से जानते हैं।
[caption id="attachment_11162" align="alignnone" width="750"] हराचना, काबुली चना और काला चना या देशी चना[/caption]
इन तीन प्रकार के चनों की कई किस्में बाजार में उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए -
काला चना या देशी चना में वैभव, जेजी-74, उज्जैन 21, राधे, जे. जी. 315, जे. जी. 11, जे. जी. 130, बीजी-391, जेएकेआई-9218, विशाल जैसी किस्में बाजार में उपलब्ध हैं।
काबुली चने में काक-2, श्वेता (आई.सी.सी.व्ही.- 2), जेजीके-2, मेक्सीकन बोल्ड जैसी किस्में बाजार में आसानी से मिल जाती हैं।
हरे चने में जे.जी.जी.1, हिमा जैसी किस्में बाजार में किसानों को बेहद आसानी से प्राप्त हो जाएंगी।
चने की खेती के लिए मिट्टी का चयन किस प्रकार से करें ?
वैसे तो भारत में चने की खेती हर तरह की मिट्टी में की जाती है। लेकिन इस फसल की खेती के लिए रेतीली और चिकनी मिट्टी, अन्य मिट्टियों की अपेक्षा बेहतर मानी गई है। इन मिट्टियों में चने की पैदावार होने की संभावना अन्य मिट्टियों की अपेक्षा ज्यादा है।
चने की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से लेकर 7 के बीच होना चाहिए। साथ ही जल निकासी की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि खेत में पानी भरने पर फसल को सड़ने से बचाया जा सके।
अगर किसान बुवाई के पहले मिट्टी का प्रायोगिक परीक्षण करवाते हैं तो बेहतर होगा। इससे खेती में लगने वाली लागत को कम करने में मदद मिल सकती है।
चने की बुवाई किस प्रकार से करें ?
चने की बुवाई के पहले खेत को जुताई करके अच्छे से तैयार कर लिया जाता है। उसके बाद सीड ड्रिल की मदद से बीज के साथ उर्वरक मिलाकर चने की बुवाई की जाती है।
अगर हम देसी चने की बात करें तो 15 से 18 किलो प्रति एकड़ की दर से चने के बीजों की बुवाई करनी चाहिए। वहीं अगर काबुली चने की बात करें तो बुवाई के लिए बीज की मात्रा 37 किलो प्रति एकड़ तक ठीक रहेगी।
इसके अतिरिक्त यदि देसी चने की बुवाई लेट होती है, तो 15 नवंबर के बाद 27 किलो प्रति एकड़ और 15 दिसंबर के आस पास 36 किलो प्रति एकड़ की दर से चने की बुवाई करना चाहिए। बुवाई करते वक़्त 13 किलो यूरिया और 50 किलो सुपर फासफेट प्रति एकड़ की दर से चने के साथ मिक्स कर सकते हैं।
चने की फसल में बेहद सावधानी बरतने की जरुरत होती है, क्योंकि इस फसल में जलवायु परिवर्तन का असर बहुत जल्दी होता है। इसके साथ ही इस फसल में कीटों का प्रकोप भी बहुत तेजी के साथ फैलता है, जिससे फसल बहुत जल्दी खराब हो सकती है। इसलिए किसान भाइयों को समय-समय पर चने की फसल की निगरानी करते रहना चाहिए।
चने की फसलों में खरपतवार को हटाने के लिए खरपतवार नाशी का उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा हरे चारे तथा खरपतवार को हाथों से उखाड़कर समाप्त किया जा सकता है।
चने की फसल में कीटों का प्रकोप बहुत जल्दी फैलता है। इसको देखते हुए 1 लीटर पैंडीमैथालीन को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के 3 दिन बाद छिड़काव करें, जिससे फसल में कीटों के प्रकोप की संभावना पहले से ही खत्म हो जाएगी।
अगर सिंचाई की बात करें तो चने की फसल में मौसम और जमीन के हिसाब से सिंचाई की आवश्यकता होती है। अगर जमीन बहुत ज्यादा शुष्क है तो इस फसल के लिए 2 सिंचाई पर्याप्त हैं। पहली सिंचाई बुवाई के 45 दिन बाद और दूसरी सिंचाई 75 दिनों बाद की जा सकती है।
चने की फसल में पैदावार
चने की फसल 110-120 दिनों में पूरी तरह से तैयार हो जाती है। चने की फसल तैयार होने के साथ ही पौधा सूख जाता है, पत्तियां पीली होकर झड़ने लगती है। जिसके बाद चने को काटकर तेज धूप में 5 दिनों तक सुखाया जाता है। इसके बाद चने की फसल की थ्रेसिंग की जाती है। थ्रेसिंग के बाद किसानों को इसकी खेती में 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार प्राप्त हो सकती है। इसके साथ ही पशु चारा भी प्राप्त होता है, जिसे भूसा कहा जाता है। यह पशुओं के खिलाने के काम आता है।