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दलहन की कटाई: मसूर चना [Dalhan ki katai: Masoor, Chana]

दलहन की कटाई: मसूर चना [Dalhan ki katai: Masoor, Chana]

दलहन

दलहन वनस्पतियों की दुनिया में दलहन प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत माना जाता है। dalhan द्वारा ही हम  प्रोटीन को सही ढंग से प्राप्त कर पाते हैं। दलहन का अर्थ दाल होता है। 

dalhan fasal में कई तरह की दाल की खेती होती है: जैसे राजमा, उड़द की दाल, मूंग की दाल, मसूर की दाल, मटर की दाल, चने की दाल, अरहर की दाल, कुलथी आदि। 

दलहन की बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए इसके दामों में भी काफी इजाफा हो रहे हैं। दलहन के भाव आज भारतीय बाजारों में आसमान छू रहे हैं। इस लेख में आप दलहन क्या है? और इनके खेती के बारे में जानेगे। 

दाल में मौजूद प्रोटीन:

कई तरह के दलहन [dalhan fasal] दालों में लगभग 50% प्रोटीन मौजूद होते हैं तथा 20% कार्बोहाइड्रेट और करीबन 48% फाइबर की मात्रा मौजूद होती है इसमें सोडियम सिर्फ एक पर्सेंट होता है। 

इसमें कोलेस्ट्रोल ना के बराबर पाया जाता है। वेजिटेरियन के साथ नॉनवेजिटेरियन को भी दाल खाना काफी पसंद होता है।

दाल हमारी पाचन क्रिया में भी आसानी से पच जाती है ,तथा पकाने में भी आसान होती है, डॉक्टर के अनुसार दाल कहीं तरह से हमारे शरीर के लिए फायदेमंद है।

दलहन क्या है? 

आइये जानते है आखिर दलहन क्या है। दोस्तों यह प्रोटीन युक्त पदार्थ है दाल पूर्व  रूप से खरीफ की फसल है। हर तरह की दालों को लेगयूमिनेसी कुल की फसल कहा जाता है।   

दालों  की जड़ों में आपको राइजोबियम नामक जीवाणु मिलेंगे। जिसका मुख्य कार्य वायुमंडल में मौजूद नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदलना होता है तथा मृदा की उर्वरता को बढ़ाता है।

मसूर की दाल कौन सी फसल होती है:

मसूर की दाल यानी (lentil )यह रबी के मौसम में उगाने वाली दलहनी फसल है। मसूर दालों के क्षेत्र में मुख्य स्थान रखती है। यह मध्य प्रदेश के असिंचित क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसल है।

मसूर दाल की खेती का समय:

मसूर दलहन [dalhan - masoor dal ki kheti] मसूर दाल की खेती करने का महीना अक्टूबर से दिसंबर के बीच का होता है।जब इस फसल की बुआई होती है रबी के मौसम में, इस फसल की खेती के लिए दो मिट्टियों का उपयोग किया जाता है:

  • दोमट मिट्टी
  • लाल लेटराइट मिट्टी

खेती करने के लिए लाल मिट्टी बहुत ही ज्यादा लाभदायक होती है, उसी प्रकार लाल लेटराइट मिट्टी द्वारा आप अच्छी तरह से खेती कर सकते हैं।

मसूर दाल का उत्पादन करने वाला प्रथम राज्य :

मसूर dalhan को उत्पाद करने वाला सबसे प्रथम क्षेत्र मध्य प्रदेश को माना गया है।आंकड़ों के अनुसार लगभग 39. 56% तथा 5.85 लाख हेक्टेयर में इस दाल की बुवाई की जाती है। 

जिसके अंतर्गत यह प्रथम स्थान पर आता है। वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश व बिहार दूसरी श्रेणी में आता है। जो लगभग 34.360% तथा 12.40% का उत्पादन करता है। 

मसूर dalhan fasal का उत्पादन उत्तर प्रदेश में 36.65% और (3.80लाख टन) होता है। मध्यप्रदेश में करीब 28. 82% मसूर दाल का उत्पादन करते हैं। 

चना:

Chana चना एक दलहनी फसल है।चना देश की सबसे महत्वपूर्ण कही जाने वाली दलहनी फसल है। इसकी बढ़ती उपयोगिता को देखते हुए इसे दलहनो का राजा भी कहा जाता है। चने में बहुत तरह के प्रोटीन मौजूद होते हैं। इसमें प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, जैसे तत्व मौजूद होते हैं।

चने की खेती का समय

चने की खेती को अक्टूबर के महीने में बोया जाता है। इसकी खेती अक्टूबर के शुरू महीने में करनी चाहिए , जहां पर सिंचाई की संभावना अच्छी हो, उन क्षेत्रों में इसको 30 अक्टूबर से बोना शुरू कर दिया जाता है। अच्छी फसल पाने के लिए इसकी इकाइयों को अधिक बढ़ाना चाहिए।

चना कौन सी फसल है

चना रबी की dalhan fasal  है। इसको उगाने के लिए आपको गर्म वातावरण की जरूरत पड़ती है। रबी की प्रमुख dalhan फसलों में से चना भी एक प्रमुख फसल है।

चने की फसल सिंचाई

किसानों द्वारा हासिल की गई जानकारी के अनुसार चने की फसल बुवाई करने के बाद 40 से 60 दिनों के बाद इसकी सिंचाई करनी चाहिए। फसल में पौधे के फूल आने से पूर्व यह सिंचाई की जाती है। दूसरी सिंचाई किसान पत्तियों में दाना आने के समय करते हैं।

चने की फसल में डाली जाने वाली खाद;

  • किसान चने की फसल के लिए डीएपी खाद का इस्तेमाल करते हैं जो खेती के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी साबित होती है।
  • इस खाद का प्रयोग चने की फसल लगाने से पहले किया जाता है।खाद को फसल उगाने से पहले खेत में छिड़का जाता है। 
  • डीएपी खाद से फसल को सही मात्रा में नाइट्रोजन प्राप्त होता है।
  • खाद के द्वारा फसल को नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की प्राप्ति होती है।
  • इसके उपयोग के बाद यूरिया की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है। dalhan fasal को कम नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है क्युकी ये वातवरण की  नाइट्रोजन को धरती में 

चने की अधिक पैदावार के लिए क्या करना होता है:

Chane ki kheti चने की अधिक पैदावार के लिए किसान 3 वर्षों में एक बार ग्रीष्मकालीन की अच्छी तरह से गहरी जुताई करते हैं जिससे फसल की पैदावार ज्यादा हो। 

किसान प्यूपा को नष्ट करने का कार्य करते हैं। अधिक पैदावार की प्राप्ति के लिए पोषक तत्व की मात्रा में मिट्टी परीक्षण किया जाता है। जब खेत में फूल आते हैं तो किसान T आकार की खुटिया लगाता है।

फूल निकलते ही सारी खुटिया को निकाल दिया जाता है। अच्छी खेती के लिए  फेरोमेन ट्रैप्स इस्तेमाल करें।जब फसल की ऊंचाई 15 से 20 सेंटीमीटर तक पहुंच जाए, तो आप खेत की कुटाई करना शुरू कर दें, शाखाएं निकलने व फली आने पर खेत की अच्छे से सिंचाई करें। 

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निष्कर्ष

dalhan की कटाई मसूर ,चना से जुड़ी सभी सभी प्रकार की जानकारिया जो आपके लिए फायदेमंद होगी। हमने अपनी इस पोस्ट के जरिए दी है, यदि आपको हमारी पोस्ट के जरिए दी गई जानकारी पसंद आई हो, तो आप ज्यादा से ज्यादा हमारे इस आर्टिकल को सोशल मीडिया पर शेयर करें।

लुटेरों के आतंक से परेशान किसान, डर के मारे छोड़ी चना और मसूर की खेती

लुटेरों के आतंक से परेशान किसान, डर के मारे छोड़ी चना और मसूर की खेती

मध्य प्रदेश के सागर में किसान लुटेरों के आतंक से इस कदर परेशान हैं, कि कई किसान चना और मसूर की खेती करना छोड़ चुके हैं. इतना ही नहीं फसलों के लुटेरों की वजह से गेहूं की खेती करना भी किसानों के लिए मुश्किल भरा हो सकता है. किसानों ने जिला प्रशासन से लेकर सीएम हेल्पलाइन तक में शिकायत कर चुके हैं, लेकिन उनकी समस्या का समाधान अब तक नहीं हो सका है. आपको बता दें जिले के जो भी गांव जंगल से जुड़े हुए हैं, उस इलाके के किसान खासा जानवरों से सबसे ज्यादा परेशान हैं. फसलों के लुटेरे यानि की जंगली जानवरों से किसान इस कदर परेशान हैं कि वो अब अपनी खेती तक को छोड़ने पर मजबूर हो गये हैं. फसलों पर हमेशा बन्दर, हिरण, नीलगाय और सूअर जैसे जंगली जनवरों का ही राज रहता है. इतना ही नहीं अगर किसान कुछ देर के लिए खेतों से बाहर निकट है, वैसे ही ये फसलों के लुटेरे अपना काम शुरू कर देते हैं. इतना ही नहीं सागर के कुछ ऐसे गांव भी हैं, जहां बंदरों का आतंक लगातार बढ़ रहा है. इनसे परेशान होकर किसानों ने चने की खेती करना ही छोड़ दिया है. किसानों की मानें तो, उनकी परेशानी कम होने का नाम नहीं ले रही है. किसानों के सामने पहले फसलों से जुड़ी समस्याएं हुआ करती थीं, लेकिन अब जंगली जानवरों से अपनी फसलों को बचाने की भी चुनौती सिर पर खड़ी हो चुकी है. उन्हें अपने बच्चे खेतों में अकेले भेजने पर भी डर लगता है. खेती किसानी के साथ साथ किसानों को अपना अलग से समय खेतों की रखवाली करने के लिए निकालना पड़ता है.

आपसी सहमती से बंद कर दी चने की खेती

किसानों की मानें तो, जब भी वो चने की खेती करते थे, तब बंदरों का आतंक इस कदर बढ़ जाता था, कि कुछ ही देर में चने की फसलों को चट कर जाते थे. इसलिए किसानों ने आपसी सहमती से यह बड़ा कदम उठाया और चने की खेती करना ही बंद कर दिया. लेकिन समस्या का हल तब भी नहीं हुआ. जब किसानों ने गेहूं की खेती करना शुरू की तो बन्दर गेहूं की फसलें भी तबाह कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इलाके में पानी की काफी कमी है. जिस वजह से किसान चना, मसूर, सरसों की खेती करते थे, जिससे उनके खेत में कुछ ना कुछ फसलें रह सकें. ताकि उन्हें अपना गुजर बसर करने में आराम रहे. लेकिन कभी मौसम की मार तो कभी सूखे का कहर, किसान हर तरफ से पेशान है. किसानों की इस परेशानी को और भी बढ़ाने के लिए जंगली जानवरों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है.

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कहीं से नहीं मिल रही मदद

जिले के कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां किसानों को पानी की कोई समस्या नहीं, और वो खेती तो कर रहे हैं, लेकिन जानवरों के आतंक से पूरी फसलें बर्बाद हो जाती हैं. इस कारण जब फसलें बिछ जाती हैं, और फिर उन्हें सम्भालना मुश्किल हो जाता है. किसानों ने मामले की शिकायत सीएम हेल्पलाइन से लेकर कई जगहों पर कर चुके हैं. लेकिन उनकी समस्या का कोपी समाधान नहीं हो सका है. जिसके बाद हारे किसानों ने सारी उम्मीदों को छोड़ दिया है. जिसके बाद वो शिकायत करने के साथ साथ चने की खेती करना भी छोड़ चुके हैं.
फरवरी के कृषि कार्य: जानिए फरवरी माह में उगाई जाने वाली फसलें

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गेहू की फसल में मुख्य कार्य उर्वरक प्रबंधन एवं सिंचाई का रहता है। ज्यादातर इलाकों में गेहूं में तीसरे एवं चौथे पानी की तैयारी है। तीसरे पानी का काम ज्यादातर राज्यों में पिछले दिनों हुई बरसात से हो गया है। गेहूं में झुलसा रोग से बचाव के लिए डायथेन एम 45 या जिनेब की 2.5 किलोग्राम मात्रा का पर्याप्त पानी में घोलकर छिड़काव करेंं। गेरुई रोग से बचाव के लिए प्रोपिकोनाजोल यानी टिल्ट नामक दवा की 25 ईसी दवा को एक एमएल दवा प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर छिडकाव करें। टिल्ट का छिडकाव दानों में चमक एवं वजन बढ़ाने के साथ फसल को फफूंद जनित रोगों से बचाता है। छिडकाव कोथ में बाली निकलने के समय होना चाहिए। फसल को चूहों के प्रकोप से बचाने के लिए एल्यूमिनियम फास्फाइड का प्रयोग करें।

जौ

jau ki kheti

जौ की फसल में कंडुआ जिसे करनाल बंट भी कहा जाता है लग सकता है। यह रोग संक्रमित बीज वाली फसल में हो सकता है। बचाव के लिए किसी प्रभावी फफूंदनाशक दवा या टिल्ट नामक दवा का छिड़काव करें।

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चना

chana ki kheti

चने की खेती में दाना बनने की अवस्था में फली छेदक कीट लगने शुरू हो जाते हैं। बचाव हेतु बीटी एक किलोग्राम या फेनवैलरेअ 20 प्रतिशत ईसी की एक लीटर मात्रा का 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करेंं।

मटर

matar ki kheti

मटर में इस सयम पाउड्री मिल्डयू रोग लगता है। रोकथाम के लिए प्रति हैक्टेयर दो किलोग्राम घुलनशील गंधक या कार्बेन्डाजिम नामक फफूंदनाशक की 500 ग्राम मात्रा 500 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करेंं।

राई सरसों

सरसों की फसल में इस समय तक फूल झड़ चुका होता है। इस समय माहूू कीट से फसल को बचाने के लिए मिथाइल ओ डिमोटान 25 ईसी प्रति लीटर दवा पर्याप्त पानी में घोलकर छिडकाव करेंं।

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मक्का

makka ki kheti

रबी मक्का में सिंचाई का काम मुख्य रहता है । लिहाजा तीसरा पानी 80 दिन बाद एवं चौथा पानी 110 दिन बाद लगाएं। यह समय बसन्तकालीन मक्का की बिजाई के लिए उपयुक्त होने लगता है।

गन्ना

sugarcane farming

गन्ने की बसंत कालीन किस्मों को लगाने के समय आ गया है। मटर, आलू, तोरिया के खाली खेतों में गन्ने की फसल लगाई जा सकती है। गन्ने की कोशा 802, 7918, 776, 8118, 687, 8436 पंत 211 एवं बीओ 91 जैसी अनेक नई पुरानी किस्में मौजूद हैं। कई नई उन्नत किस्तें गन्ना संस्थानों ने विकसित की हैं। इनकी विस्तृत जानकारी लेकर इन्हें लगाया जा सकता है।

फल वाले पौधे

नीबू वर्गीस सिट्रस फल वाले मौसमी, किन्नू आदि के पौधों में विषाणु जनित रोगों के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोरोपिड 3 एमएल प्रति 10 लीटर पानी में, कार्बरिल 20 ग्राम 10 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। नाशपाती एवं सतालू आदि सभी फलदार पौधों के बागों में सड़ी गोबर की खाद, मिनरल मिक्चर आदि तापमान बढ़ने के साथ ही डालें ताकि पौधों का समग्र विकास हो सके। आम के खर्रा रोग को रोकने के लिए घुलनशील गंधक 80 प्रतिशत डब्ल्यूपी 0.2 प्रतिशत दवा की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करें। इसके अलावा अन्य प्रभावी फफूंदनाशक का एक छिडकाव करें। कीड़ों से पौधों को सुरक्षत रखने के लिए इमिडाक्लोरोपिड का एक एमएल प्रति तीन लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

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फूल वाली फसलें

गुलदाउूजी के कंद लगाएं। गर्मी वाले जीनिया, सनफ्लावर, पोर्चलुका, कोचिया के बीजों को नर्सरी में बोएं ताकि समय से पौध तैयार हो सके।

सब्जी वाली फसलें

aloo ki kheti

आलू की पछेती फसल को झुलसा रोग से बचाने के लिए मैंकोजेब या साफ नामक दवा की उचित मात्रा छिडकाव करें। प्याज एवं लहसुन में संतुलित उर्वरक प्रबधन करें। खादों के अलावा शूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग करें। फफूंद जनित रोगों से बचाव एवं थ्रिप्स रोग से बचाव के लिए कारगर दवाओं का प्रयोग करें। भिन्डी के बीजों की बिजाई करें। बोने से पहले बीजों को 24 घण्टे पूर्व पानी में भिगोलें। कद्दू वर्गीय फसलों की अगेती खेती के लिए पॉलीहाउस, छप्पर आदि में अगेती पौध तैयार करें।

पशुधन

पशुओं की बदलते मौसम में विशेष देखभाल करें। रात के समय जल्दी पशुओं को बाडे में बांधें। पशुओं को दाने के साथ मिनरल मिक्चर आवश्यक रूप से दें।

संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

संतुलित आहार के लिए पूसा संस्थान की उन्नत किस्में

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली जिसे पूसा संस्थान के नाम से जाना जाता है ने अपने 115 वर्षों के सफर में देश की कृषि को सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हरित क्रांति के जनक के रूप में पूसा संस्थान में विभिन्न फसलों की बहुत सारी किस्में निकाली हैं जिनसे हम अपने देश की जनता को संतुलित आहार दे सकते हैं और अपने किसानों के लिए खेती को लाभदायक बना सकते हैं। दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए पूसा सस्थान द्वारा निकाली गई कुछ फसलों की मुख्य किस्में व उनकी विशेषताओं के विषय में हम आपको बता रहे हैं।

संतुलित आहार की उन्नत किस्में

धान

Dhan ki kheti 1-पूसा बासमती 1 जिस की पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। 2-पूसा बासमती 1121 जिसकी पैदावार 50 कुंतल प्रति हेक्टेयर है एवं 140  दिन में पक जाती है। पकाने के दौरान चावल 4 गुना लंबा हो जाता है। 3-पूसा बासमती 6 की पैदावार 55 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। आप पकने में 150 दिन का समय लेती है। 4-पूसा बासमती 1509 का उत्पादन 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है. यह पत्नी है 120 दिन का समय लेती है. जल्दी पकने के कारण बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. 5-पूसा बासमती 1612 का उत्पादन 51 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है . पकने में 120 दिन का समय लेती है . यह ब्लास्ट प्रतिरोधी किस्म है। 6-पूसा बासमती 1592 का उत्पादन 47.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है .यह पकने में 120 दिन का समय लेती है .बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है. ये भी पढ़े: धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है 7-पूसा बासमती 1609 का उत्पादन 46 कुंटल पकने का समय 120 दिन व बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रति प्रतिरोधी है। 8-पूसा बासमती 1637 का उत्पादन 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अवधि 130 दिन है । यह ब्लाइट प्रतिरोधी है. 9-पूसा बासमती 1728 का उत्पादन 41.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकाव  अवधि 140 दिन है। वह किसी भी बैक्टीरियल ब्लाइट के प्रति प्रतिरोधी है। 10-पूसा बासमती 1718 का उत्पादन 46.4 कुंटल प्रति हेक्टेयर बोकारो अवधि 135 दिन है। यह किस्म बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रति प्रतिरोध ही है। 11-पूसा बासमती 1692 का उत्पादन 52.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। यह पकने में 115 दिन का समय लेती है। उच्च उत्पादन जल्दी पकने वाली किस्म है।

 गेहूं

gehu ki kheti 1-एचडी 3059 का उत्पादन 42.6 कुंतल प्रति हेक्टेयर व पकाव अवधि 121 दिन है। यह पछेती की किस्में है। 2-एचडी 3086 का उत्पादन 56.3 कुंटल एवं पकाव अवधि 145 दिन है। 3-एचडी 2967 का उत्पादन 45.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर। वह पकने में 145 से लेती है। 4-एच डी सीएसडब्ल्यू 18 का उत्पादन 62.8 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। पीला रतुआ प्रतिरोधी 150 दिन में पकती है। 5-एचडी 3117 से 47.9 कुंटल उत्पादन 110 दिन में मिल जाता है । यह किस्म करनाल बंट रतुआ प्रतिरोधी पछेती किस्म है। 6-एचडी 3226 से 57.5 कुंटल उत्पादन 142 दिन में मिल जाता है। 7-एचडी 3237 से 4 कुंतल उत्पादन 145 दिन में मिलता है। ये भी पढ़े: सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल 8-एच आई 1620 से 49.1 कुंदन उत्पादन के 40 दिन में मिलता है। यह कंम पानी वाली किस्म है। 9-एच आई 1628 से 50.4 कुंतल उत्पादन 147 में मिलता है। 10-एच आई 1621 से 32.8 कुंतल उत्पादन 102 दिन में मिल जाता है यह पछेती किस्म है। 11-एचडी 3271 किस्म से कुंतल उत्पादन 104 दिन में मिलता है यह अति पछेती किस्म है पीला रतुआ प्रतिरोधी है। 12-एचडी 3298 से 39 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 104 दिन में मिल जाता है।

मक्का

Makka ki kheti 1-पूसा एच एम 4 संकर किस्म से 64.2 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है । यह पकने में 87 दिन का समय देती है और इसमें प्रोटीन अत्यधिक है। 2-पूसा सुपर स्वीट कॉर्न संकर सै 93 कुंतल उत्पादन 75 दिन में मिल जाता है। 3-पूसा एचक्यूपीएम 5 संकर 64.7 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन 92 दिन में मिलता है। बाजरा (खरीफ) 1-पूसा कंपोजिट 701 से , 80 दिन में 23.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 1201 संकर से 28.1 कुंतल उत्पादन 80 दिन में मिलता है।

चना

chana ki kheti 1-पूसा 372 से 125 दिन में 19 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है। 2-पूसा 547 से 130 दिन में 18 कुंतल उत्पादन मिलता है।

अरहर

arhar ki kheti 1-अरहर की पूसा 991 किस्म 142 दिन में तैयार होती है व 16.5 कुंदन उत्पादन मिलता है। 2- पूसा 2001 से 18.7 कुंतल उत्पादन 140 दिन में मिलता है। 3- पूसा 2002 किस्म से 143 दिन में 17.7 कुंतल उपज मिलती है। 4-पूसा अरहर 16 से 120 दिन में 19.8 कुंतल उपज मिलती है।

मूंग (खरीफ)

Mung ki kheti 1-पूसा विशाल 65 दिन में 11.5 कुंतल उपज देती है। यह किस्मत एक साथ पकने वाली है। 2- पूसा 9531 से 65 दिन में 11.5 कुंटल उत्पादन मिलता है। यह भी एक साथ पकने वाली किस्म है। 3- पूसा 1431 किस्म से 66 दिन में 12.9 कुंतल प्रति हेक्टेयर उत्पादन मिलता है।

मसूर

masoor ki dal 1- एल 4076 किस्म 125 दिन में पकने वाली है । इससे 13.5 कुंतल उत्पादन मिलता है। 2- एवं 4147 से ,125 दिन में 15 कुंतल उपज मिलती है। दोनों किस्म  फ्म्यूजेरियम बिल्ट रोग प्रतिरोधी है।

सरसों(रबी)

sarson ki kheti 1-जल्द पकने वाली पीएम 25 किस्म से 105 दिन में 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। 2-प्रीति बाई के लिए उपयुक्त पीएम 26 किस्म से 126 दिन में 16.4 कुंतल तक उपज मिलती है। 3-41.5% की उच्च तेल मात्रा वाली पीएम 28 किस्म 107 दिन में 19.9 कुंतल तक उपज दे जाती है। 4-कुछ तेल प्रतिशत वाली पीएम 3100 किस्म से 23.3  कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है ।यह पकने में 142 दिन का समय लेती है। 5- पीएम 32 किस्म से 145 दिन में 27.1 कुंतल उपज दे ती है।

सोयाबीन (खरीफ)

soybean 1-पुसा सोयाबीन 9712 किस्म पीला मोजेक प्रतिरोधी है। 115 दिन में 22.5 कुंतल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। 2-पूसा 12 किस्म 128 दिन मैं 22.9 कुंतल उपज देती है।

लेखक

राजवीर यादव, फिरोज हुसैन, देवेंद्र के यादव एवं अशोक के सिंह
दलहन की फसलों की लेट वैरायटी की है जरूरत

दलहन की फसलों की लेट वैरायटी की है जरूरत

भारत में हमेशा से ही दालों की कीमत खाद्यान्नों में सबसे अधिक रही है। इसके बावजूद उसका उत्पादन नहीं बढ़ता है। कम उत्पादन और बढ़ती मांग के कारण दालों की कीमतें फिर से तेजी से बढ़ी हुईं हैं। इसका प्रमुख कारण यह माना जा रहा है कि दलहन की फसल की लेट वैरायटी नहीं है। इसलिये जो किसान भाई दलहन की फसल की लेट वैरायटी करना भी चाहें तो उन्हें यह सुविधा नहीं मिल पाती है। इस वजह से दलहन की फसल के लिये समय का पालन करना पड़ता है।

Content

  1. क्या है समस्या
  2. क्यों है लेट वैरायटी की जरूरत
  3. चना व मसूर की लेट वैरायटी के मिले हैं संकेत
  4. अब दिसम्बर में भी बोया जा सकेगा चना
  5. चने की कुछ अन्य लेट वैरायटियां
  6. मसूर की लेट वैरायटी
  7. अभी काफी शोध की है जरूरत
  8. किसान भाइयों को हो सकता है ये लाभ

क्या है समस्या ?

दलहन की फसल यदि लेट बोई जाये तो उसके कई नुकसान हैं। उसमें मौसम के हिसाब से रोग व कीट लगते हैं तथा पकने से पहले ही पौधे तापमान को नहीं वर्दाश्त कर पाते हैं। नतीजा यह होता है कि आधे-अधूरे दाने ही पक जाते हैं, जो पूर्णतया फसल को खराब कर देते हैं।

क्यों है लेट वैरायटी की जरूरत ?

किसान भाइयों जैसे गेहूं, जौं आदि की फसलों की लेट वैरायटी आ गयी है। वैसे ही दलहन की फसल की लेट वैरायटी भी आने की सख्त जरूरत है। जो किसान भाई किसी कारण से फसलें लेने में लेट हो गये हैं और वे चाहते हैं कि दालों की फसल लेकर अधिक आय अर्जित करें या लेट के कारण हो रहे नुकसान की भरपाई कर सकें या उनके क्षेत्र की मिट्टी ही ऐसी है जिसमें दलहन की फसल ली जा सकती है। इसके अलावा मौसमी हालात कुछ ऐसे बन गये कि दलहन का सही समय था वो निकल गया और जब मौसम सही हुआ है तो दलहन की बुआई का समय ही निकल गया है तो फिर क्या करें। इन समस्याओं के लिए लेट वैरायटी होना ही चाहिये।

चना व  मसूर की लेट वैरायटी के मिले हैं संकेत

chana or masoor ki dal दलहन की लेट वैरायटी के बारे में चने की लेट वैरायटी तो खोजी जा चुकी है।  मसूर की लेट वैरायटी के बारे में भी शुरुआती जानकारी मिल रही है ।  अभी तक इन वैरायटियों के बारे में उत्साहजनक नतीजे आने बाकी है।  फिर भी अनुसंधान संस्थानों ने इन वैरायटियों के बारे में अच्छी-अच्छी बातें बतायीं हैं। किसान भाइयों की उम्मीदों पर यदि ये बातें खरी उतरतीं हैं तो खेती के लिए यह अच्छी बात होगी।

दिसम्बर में भी बोया जा सकेगा चना

chana कृषि वैज्ञानिकों ने दस साल की कड़ी मशक्कत के बाद चने की एक ऐसी किस्म खोजी है जिसकी बुवाई दिसम्बर माह में की जा सकती है। इस किस्म से अच्छी फसल भी ली जा सकती है तथा इसमें कीट का असर भी नहीं होता है। इस वैरायटी की फसल में एक या दो पानी की जरूरत होती है और एक वैरायटी तो ऐसी है कि यदि आपने धान के बाद चने की फसल ले रहे हैं तो आपको एक बार भी पानी की आवश्यकता नहीं पड़ने वाली। इन लेट वैरायटियों की खास बात यह भी है कि आप चने की फसल की अपेक्षा ये नई वैरायटियों की फसलें फरवरी मार्च की गर्मी को आसानी से सहन कर सकतीं हैं। कृषि वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार इन लेट वैरायटी की फसल का उत्पादन भी 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होंगा।

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चने की लेट वैरायटियां

चने की लेट वैरायटी में दो नई किस्में आयीं हैं। आरजीवी 202 (RGV 202) और आरजीवी 203 (RGV 203) ऐसी किस्में हैं जो 90 दिन से लेकर 120 दिन के बीच तैयार हो जाती है। इन दोनों किस्मों की फसल की बुआई नवंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के दूसरे सप्ताह तक की जा सकती है।

चने की कुछ अन्य लेट वैरायटियां

किसान भाइयों कृषि वैज्ञानिक लेट फसल लेने के लिए जेजी 11, जेजी 16, जेजी 63, जेजी 14 अ किस्मों की भी सलाह देते हैं। इनकी फसल दो बार की सिंचाई में तैयार हो जाती हैं। इन वैरायटियों की फसल 90 दिन में तैयार हो जाती है। कम पानी वाले क्षेत्र में जेजी 11 सबसे अच्छी वैरायटी है। इस वैरायटी की खास बात यह है कि यदि धान के बाद इसकी फसल ली जाये तो इसमें पानी की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

मसूर की लेट वैरायटी

masoor ki dal मसूर की लेट फसल की एकमात्र वैरायटी का पता चला है। इस वैरायटी का राम राजेन्द्र मसूर 1 बताया गया है। इस मसूर को 2352 नाम से भी पहचाना जाता है। इस वैरायटी को 1996 में स्वीकृति मिल चुकी है। इस वैरायटी को गामा किरणों (100 GY) के साथ विकिरण द्वारा विकसित किया गया है। इस नयी किस्म का मुख्य गुण कम तापमान को सहन करना और जल्दी पकना है। इसलिये इस वैरायटी को लेट बुआई में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका लैटिन नाम लेन्स कालिनारिस मेडिक है।

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अभी बहुत शोध की है जरूरत (Need of research)

ये चने और मसूर की लेट वैरायटी हैं, इनके बारे में अधिक प्रचार प्रसार इसलिये नहीं हो पाया है क्योंकि एक विशेष क्षेत्र तक ही इनकी खेती की जा सकती है।  इसलिये अभी दलहन क्षेत्र की लेट वैरायटी के बारे में काफी शोध की जरूरत है। कम से कम देश के विभिन्न भागों में खेती करने के लिए उपयुक्त लेट वैरायटियां होनी चाहिये। इस बारे में दलहन अनुसंधान संस्थान को रिसर्च करनी चाहिये। तभी दलहन का उत्पादन बढ़ सकेगा।

किसान भाइयों को हो सकता है यह लाभ

यदि दलहन की फसल की लेट वैरायटी की उपलब्धता हो जाये तो किसान भाइयों को बहुत लाभ हो सकते हैं। जैसे किसान भाई किसी अन्य पछैती फसल के साथ इन दलहनों को अंतरवर्तीय फसल के रूप में बोना चाहे तो उसके साथ बुआई करके अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं। सरकारों को चाहिये कि वे इस बारे में किसानों की मदद करें। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों को आवश्यक दिशानिर्देश दें। इससे देश की सम्पन्नता बढ़ेगी। दलहनों का आयात कम होगा और देश को फायदा होगा।
जल्द ही शुरू होगी चना की बुवाई, जानिए बुवाई से लेकर कटाई तक की जानकारी

जल्द ही शुरू होगी चना की बुवाई, जानिए बुवाई से लेकर कटाई तक की जानकारी

देश में खरीफ का सीजन समाप्त होने की ओर है। इसके बाद जल्द ही रबी का सीजन प्रारम्भ होने वाला है, जिसमें रबी की फसलों की बुवाई शुरू कर दी जायेगी। कई राज्यों में मध्य अक्टूबर से रबी की फसलों की बुवाई शुरू कर दी जाती है, तो कई राज्यों में दिसंबर तक जारी रहती है। आज हम आपको ऐसी ही खेती के बारे में बताने जा रहे हैं जिसको भारत में बड़ी मात्रा में किया जाता है और किसान इसकी खेती करना बेहद पसंद भी करते हैं। यह एक दलहनी फसल है जिसे हम चना (chana; bengal gram; chickpea) के नाम से जानते हैं। भारत सरकार लगातार दलहनी फसलों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रयासरत है। इसको लेकर सरकार समय-समय पर कई माध्यमों से किसानों को दलहनी फसलों के उत्पादन को बढ़ाने को लेकर प्रोत्साहित करती रहती है। चने की खेती एक फायदे की खेती होती है, जिसे करने से किसान ज्यादा रुपये कमा सकते हैं, क्योंकि इसका भाव अन्य फसलों के मुकाबले बेहतर रहता है। चने का उपयोग भारत में अंकुरित फ़ूड से लेकर कई व्यंजनों में किया जाता है। इसकी फसल मुख्यतः मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में की जाती है। वर्तमान में भारत चना उत्पादन के मामले में दुनिया में प्रथम स्थान रखता है।

चने की कौन-कौन सी उन्नत किस्में किसानों को पहुंचा सकती हैं फायदा ?

चने की अच्छी पैदावार के लिए उन्नत किस्में के साथ उन्नत बीजों का चयन करना बेहद आवश्यक है। चना मुख्यतया तीन प्रकार का होता है, जिसे हम काला चना या देशी चना, काबुली चना और हराचना के नाम से जानते हैं। [caption id="attachment_11162" align="alignnone" width="750"]काला चना या देशी चना, काबुली चना और हराचना हराचना, काबुली चना और काला चना या देशी चना[/caption] इन तीन प्रकार के चनों की कई किस्में बाजार में उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए -
  • काला चना या देशी चना में वैभव, जेजी-74, उज्जैन 21, राधे, जे. जी. 315, जे. जी. 11, जे. जी. 130, बीजी-391, जेएकेआई-9218, विशाल जैसी किस्में बाजार में उपलब्ध हैं।
  • काबुली चने में काक-2, श्वेता (आई.सी.सी.व्ही.- 2), जेजीके-2, मेक्सीकन बोल्ड जैसी किस्में बाजार में आसानी से मिल जाती हैं।
  • हरे चने में जे.जी.जी.1, हिमा जैसी किस्में बाजार में किसानों को बेहद आसानी से प्राप्त हो जाएंगी।

चने की खेती के लिए मिट्टी का चयन किस प्रकार से करें ?

वैसे तो भारत में चने की खेती हर तरह की मिट्टी में की जाती है। लेकिन इस फसल की खेती के लिए रेतीली और चिकनी मिट्टी, अन्य मिट्टियों की अपेक्षा बेहतर मानी गई है। इन मिट्टियों में चने की पैदावार होने की संभावना अन्य मिट्टियों की अपेक्षा ज्यादा है। चने की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.5 से लेकर 7 के बीच होना चाहिए। साथ ही जल निकासी की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि खेत में पानी भरने पर फसल को सड़ने से बचाया जा सके। अगर किसान बुवाई के पहले मिट्टी का प्रायोगिक परीक्षण करवाते हैं तो बेहतर होगा। इससे खेती में लगने वाली लागत को कम करने में मदद मिल सकती है।

चने की बुवाई किस प्रकार से करें ?

चने की बुवाई के पहले खेत को जुताई करके अच्छे से तैयार कर लिया जाता है। उसके बाद सीड ड्रिल की मदद से बीज के साथ उर्वरक मिलाकर चने की बुवाई की जाती है। अगर हम देसी चने की बात करें तो 15 से 18 किलो प्रति एकड़ की दर से चने के बीजों की बुवाई करनी चाहिए। वहीं अगर काबुली चने की बात करें तो बुवाई के लिए बीज की मात्रा 37 किलो प्रति एकड़ तक ठीक रहेगी। इसके अतिरिक्त यदि देसी चने की बुवाई लेट होती है, तो 15 नवंबर के बाद 27 किलो प्रति एकड़ और 15 दिसंबर के आस पास 36 किलो प्रति एकड़ की दर से चने की बुवाई करना चाहिए। बुवाई करते वक़्त 13 किलो यूरिया और 50 किलो सुपर फासफेट प्रति एकड़ की दर से चने के साथ मिक्स कर सकते हैं।

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किस प्रकार से करें चने की फसल की देखभाल ?

चने की फसल में बेहद सावधानी बरतने की जरुरत होती है, क्योंकि इस फसल में जलवायु परिवर्तन का असर बहुत जल्दी होता है। इसके साथ ही इस फसल में कीटों का प्रकोप भी बहुत तेजी के साथ फैलता है, जिससे फसल बहुत जल्दी खराब हो सकती है। इसलिए किसान भाइयों को समय-समय पर चने की फसल की निगरानी करते रहना चाहिए। Chane ki kheti चने की फसलों में खरपतवार को हटाने के लिए खरपतवार नाशी का उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा हरे चारे तथा खरपतवार को हाथों से उखाड़कर समाप्त किया जा सकता है। चने की फसल में कीटों का प्रकोप बहुत जल्दी फैलता है। इसको देखते हुए 1 लीटर पैंडीमैथालीन को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ के हिसाब से बुवाई के 3 दिन बाद छिड़काव करें, जिससे फसल में कीटों के प्रकोप की संभावना पहले से ही खत्म हो जाएगी। अगर सिंचाई की बात करें तो चने की फसल में मौसम और जमीन के हिसाब से सिंचाई की आवश्यकता होती है। अगर जमीन बहुत ज्यादा शुष्क है तो इस फसल के लिए 2 सिंचाई पर्याप्त हैं। पहली सिंचाई बुवाई के 45 दिन बाद और दूसरी सिंचाई 75 दिनों बाद की जा सकती है।

चने की फसल में पैदावार

चने की फसल 110-120 दिनों में पूरी तरह से तैयार हो जाती है। चने की फसल तैयार होने के साथ ही पौधा सूख जाता है, पत्तियां पीली होकर झड़ने लगती है। जिसके बाद चने को काटकर तेज धूप में 5 दिनों तक सुखाया जाता है। इसके बाद चने की फसल की थ्रेसिंग की जाती है। थ्रेसिंग के बाद किसानों को इसकी खेती में 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार प्राप्त हो सकती है। इसके साथ ही पशु चारा भी प्राप्त होता है, जिसे भूसा कहा जाता है। यह पशुओं के खिलाने के काम आता है।
दालों की कीमतों में उछाल को रोकने के लिए सरकार ने उठाया कदम

दालों की कीमतों में उछाल को रोकने के लिए सरकार ने उठाया कदम

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि त्योहारों को देखते हुए बाजार में दाल के भावों में विगत दो हफ्तों से बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। चना की दाल का खुदरा मूल्य 60 रुपये से बढ़कर 90 रुपये प्रति किलो तक पहुंच चुका है। वहीं, उड़द की दाल 100 रुपये प्रति किलो को पार कर चुकी है। साथ ही, इसी प्रकार तुअर दाल 150 रुपये से 160 रुपये प्रति किलो पर बेची जा रही है। दाल के मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए सरकार की तरफ से बड़ा कदम उठाया गया है। त्योहारी सीजन में बाजार में दाल के मूल्यों में विगत दो सप्ताह से बढ़ोतरी दर्ज की जा रहा है। चना की दाल का खुदरा भाव 60 रुपये से बढ़कर 90 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गया है। उड़द की दाल 100 रुपये प्रति किलो को पार कर गई है। साथ ही, इसी प्रकार तुअर दाल 150 रुपये से 160 रुपये प्रति किलो पर बेची जा रही है। मांग में उछाल आने की वजह से आने वाले दिनों में दालों के भावों में बढ़ोतरी की संभावना है। इसकी वजह से केंद्र सरकार ने आयातकों के लिए उड़द तथा तूर दाल की स्टॉक लिमिट को बढ़ा दिया है। बतादें, कि बाजार में दाल की सप्लाई में बढ़ोतरी होगी, जिसके परिणाम में कीमतों को काबू करने में सहायता मिलेगी।


 

दाल की भंडारण सीमा को लेकर नए निर्देश

उपभोक्ता मामलों के विभाग ने नोटिफिकेशन जारी किया है, जिसमें आयातकों, छोटे-बड़े खुदरा विक्रेताओं एवं मिल स्वामियों के लिए दाल की भंडारण सीमा को लेकर नवीन निर्देश जारी किए गए हैं। नोटिफिकेशन में बताया गया है, कि सरकार ने तूर दाल और उड़द दाल के थोक विक्रेताओं को दालों का भंडारण पूर्व के 50 मीट्रिक टन से बढ़ाकर 200 मीट्रिक टन करने की मंजूरी दी है। सरकार ने उस समय सीमा को भी दोगुना कर दिया है, जिसके लिए आयातक क्लीयरेंस के पश्चात अपने भंडार को 60 दिनों तक रख सकते हैं।

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स्टॉक धारण क्षमता में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं हुआ

नोटिफिकेशन के मुताबिक, छोटे खुदरा विक्रेताओं के लिए स्टॉक धारण क्षमता में किसी तरह का बदलाव नहीं हुआ है। बतादें, कि छोटे खुदरा विक्रेताओं के लिए भंडारण सीमा 5 मीट्रिक टन है। वहीं, बड़ी चेन के खुदरा विक्रेता 50 मीट्रिक टन से वृद्धि कर 200 मीट्रिक टन प्रति डिपो तक का भंडार रख सकते हैं।साथ ही, यह भी बताया गया है, कि मिलर्स विगत तीन माहों के उत्पादन अथवा वार्षिक स्थापित पूंजी का 25% प्रतिशत जो भी ज्यादा हो, भंडार कर सकते हैं। वहीं इसे पहले महज 10% तक सीमित किया गया था।


 

दाल मिल एसोसिएशन के मुताबिक निर्णय से आपूर्ति में बढ़ोतरी होगी

आंकड़ों के मुताबिक, ऑल-इंडिया दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश अग्रवाल का कहना है, कि केंद्र सरकार की तरफ से दी गई इस छूट से उद्योग को बाजार में तूर और उड़द दालों की सप्लाई बढ़ाने में सहायता मिलेगी। उन्होंने बताया है, कि उद्योग जगत ने अधिकारियों के साथ अपनी विगत बैठक में इसकी सिफारिश की थी। बाजार में दाल की पर्याप्त मात्रा की उपलब्धता बढ़ने से मांग को पूर्ण किया जा सकेगा। साथ ही, कीमतों को काबू करने में भी काफी सहयोग मिलेगा।

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बाजार में 60 रुपये से 90 रुपये पहुँचा चना दाल का भाव

उधर, चना की दाल की कीमत विगत 15 दिनों के चलते 60 रुपये प्रतिकिलो से 85-90 रुपये प्रति किलो पहुंच चुकी है। महंगी चना दाल से सहूलियत देने के लिए सरकार सहकारी समितियों नेफेड एवं एनसीसीएफ के माध्यम से बाजार भाव से लगभग 30 रुपये सस्ती चना दाल विक्रय कर रही है। विगत 6 नवंबर को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने नेफेड की 100 वैन जारी की हैं। इसके माध्यम से 60 रुपये प्रति किलो मूल्य पर चना दाल, 25 रुपये प्रति किलो में प्याज एवं 27.50 रुपये प्रति किलो में आटे को विक्रय किया जा रहा है।