जलवायु परिवर्तन किस प्रकार से कृषि को प्रभावित करता है ?
आजकल जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा बनकर सामने आ रहा है। जलवायु परिवर्तन किसी देश विशेष या राष्ट्र से संबंधित अवधारणा नहीं है। जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक अवधारणा है, जो समस्त पृथ्वी के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है।
जलवायु परिवर्तन से भारत समेत संपूर्ण विश्व में बाढ़, सूखा, कृषि संकट एवं खाद्य सुरक्षा, बीमारियां, प्रवासन आदि का खतरा बढ़ा है। परंतु, भारत का एक बड़ा तबका (लगभग 60 प्रतिशत आबादी) आज भी कृषि पर निर्भर है, और इसके प्रभाव के प्रति सहज है। इसलिए कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को देखना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।
सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित दस शीर्ष देशों में शम्मिलित है। जलवायु की बदलती परिस्थितियां कृषि को सर्वाधिक प्रभावित कर रहीं हैं। क्योंकि, दीर्घ काल में ये मौसमी कारक जैसे वर्षा, तापमान, आर्द्रता आदि पर निर्भर करती है।
अतः इस लेख में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि जलवायु परिवर्तन कृषि को कैसे प्रभावित करता है।
जलवायु परिवर्तन कृषि को निम्नलिखित तरह से प्रभावित कर सकता है
कृषि उपज में गिरावट
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से विश्व कृषि इस सदी में गंभीर गिरावट का सामना कर रही है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) के मुताबिक, वैश्विक कृषि पर जलवायु परिवर्तन का कुल प्रभाव नकारात्मक होगा।
हालांकि कुछ फसलें इससे काफी लाभान्वित होंगी किन्तु फसल उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का कुल प्रभाव सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक होगा।
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भारत में 2010-2039 के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण लगभग 4.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत के बीच उत्पादन के गिरने की आशंका है। एक शोध के मुताबिक, अगर वातावरण का औसत तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है, तो इससे गेहूं का उत्पादन 17 प्रतिशत तक कम हो सकता है।
इसी प्रकार 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन भी 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम होने की संभावना है।
कृषि के अनुकूल परिस्थितियों में कमी
जलवायु परिवर्तन के चलते तापमान के उच्च अक्षांश (high latitude) की ओर खिसकने से निम्न अक्षांश (low latitude) प्रदेशों में कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
भारत के जल स्रोत तथा भंडार बड़ी तीव्रता से सिकुड़ रहे हैं, जिससे किसानों को परंपरागत सिंचाई के तौर तरीका छोडकर पानी की खपत कम करने वाले आधुनिक तरीके एवं फसलों का चयन करना होगा।
ग्लेशियर के पिघलने से विभिन्न बड़ी नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र में दीर्घावधिक तौर पर कमी आ सकती है, जिससे कृषि एवं सिंचाई में जलाभाव से गुजरना पड़ सकता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने से पृथ्वी के तीन चौथाई भूमि भाग की गुणवत्ता कम हो गई है।
जलवायु परिवर्तन से औसत तापमान में वृद्धि
जलवायु परिवर्तन की वजह से पिछले कई दशकों में तापमान में इजाफा हुआ है। औद्योगीकरण की शुरुआत से अब तक पृथ्वी के तापमान में तकरीबन 0.7 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो चुकी है।
कुछ ऐसे पौधे होते हैं, जिन्हें एक विशेष तापमान की जरूरत होती है। वायुमंडल का तापमान बढ़ने पर उनकी पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जैसे जौ, आलू, गेंहू और सरसो आदि इन फसलों को कम तापमान की जरूरत होती है।
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वहीं, तापमान में इजाफा होना इनके लिए काफी हानिकारक होता है। इसी तरह ज्यादा तापमान बढ़ने से मक्का, ज्वार और धान इत्यादि फसलों का क्षरण हो सकता है।
क्योंकि, ज्यादा तापमान की वजह से इन फसलों में दाना नहीं बनता या कम बनता है। इस तरह तापमान की वृद्धि इन फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
वर्षा के काल चक्र में परिवर्तन
भारत का दो तिहाई कृषि क्षेत्र बरसात पर आश्रित है और कृषि की उत्पादकता वर्षा एवं इसकी मात्रा पर निर्भर होती है। वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन से मृदा क्षरण और मृदा की नमी पर असर पड़ता है।
जलवायु की वजह तापमान में वृद्धि से वर्षा में गिरावट होती है, जिससे मिट्टी में नमी खत्म होती जाती है। इसके अलावा तापमान में कमी और वृद्धि होने का असर वर्षा पर पड़ता है, जिसके कारण भूमि में अपक्षय और सूखे की संभावनाएँ अधिक हो जाती हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव कुछ वर्षों से गहन रूप से प्रभावित कर रहे हैं। मध्य भारत 2050 तक शीत वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक कमी का अनुभव करेगा।
पश्चिमी अर्धमरुस्थलीय क्षेत्र द्वारा सामान्य वर्षा की अपेक्षा ज्यादा वर्षा प्राप्त करने की संभावना है। इसी प्रकार मध्य पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि एवं वर्षा में कमी से चाय की फसल में कमी हो सकती है।
कार्बन डाइऑक्साइड में बढ़ोतरी
कार्बन डाइऑक्साइड गैस वैश्विक तापमान में करीब 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी करती है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी से व तापमान में वृद्धि से पेड़-पौधों तथा कृषि पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
पिछले 30-50 वर्षों के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा करीब 450 पीपीएम (प्वाइंट्स पर मिलियन) तक पहुँच गयी है। हालांकि, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि कुछ फसलों जैसे गेहूं तथा चावल के लिए लाभदायक है।
क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तीव्र करती है और वाष्पीकरण के द्वारा होने वाली हानियों को कम करती है। परंतु, इसके बावजूद भी कुछ मुख्य खाद्यान्न फसलें जैसे गेंहू की पैदावार में काफी गिरावट आई है, जिसका कारण कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि यानी तापमान में वृद्धि ही है।
कीट एवं रोगों का संकट बढ़ना
जलवायु परिवर्तन की वजह से कीटों और रोगाणुओं में वृद्धि होती है। गर्म जलवायु में कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता काफी बढ़ जाती है, जिससे कीटों की तादात काफी बढ़ जाती है और इसका कृषि पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ता है।
साथ ही, कीटों और रोगाणुओं को रोकने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल भी कहीं ना कहीं कृषि फसल के लिए हानिकारक ही होता है।
हालांकि, कुछ ज्यादा सूखा-सहिष्णु फसलों को जलवायु परिवर्तन से लाभ हुआ है। ज्वार की उपज, जिसका खाद्यान्न के रूप में उपयोग दुनिया में विकासशील भारत के अधिकांश लोग करते हैं।
1970 के दशक के पश्चात पश्चिमी, दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में तकरीबन 0.9% फीसद की वृद्धि हुई है। उप सहारा अफ्रीका में 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
वहीं, यदि कुछ फसलों को छोड़ दिया जाए तो, कुल फसल उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नकारात्मक ही पड़ता है।