सूरन में फफूंद एवं बैक्टेरिया जनित रोग लगते हैं, इनसे बचाव के तरीकों के विषय में जानने के लिए आप इस लेख को अवश्य पढ़ें। सूरन की खेती भारत के काफी इलाकों में की जाती है।
इसे खाने के साथ-साथ एक औषधीय फसल के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। भारत के कुछ हिस्सों में इसे ओल के नाम से भी जाना जाता है। इस फसल से अच्छी उपज पाने के लिए पौधों का विशेष ख्याल रखने की आवश्यकता होती है।
सामान्यतः ऐसी फसलों में विभिन्न प्रकार के रोगों और बीमारियों के लगने का संकट रहता है। यह रोग फसल की पैदावार को काफी हद तक प्रभावित करते हैं।
हम इस लेख के जरिए से आपको सूरन में लगने वाले रोग और उनके बचाव की प्रक्रिया के विषय में बताने जा रहे हैं।
कुछ दिन के पश्चात पत्तियां गिरने लगती हैं और पौधों की उन्नति रुक जाती है। इससे संरक्षण के लिए सूरन के पौधे पर इंडोफिल और बाविस्टीन के घोल को समुचित मात्रा मे पौधों की पत्तियों पर छिड़काव करते रहना चाहिए।
इकट्ठा होने वाला पानी पेड़ो की जड़ों में गलन पैदा करता है, जिस वजह से पौधे कमजोर होकर नीचे गिरने लगते हैं। पौधे के तने को सड़ने से बचाने के लिए इसकी जड़ों पर कैप्टन नाम की दवा का छिड़काव करना चाहिए।
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इन कीटों के लगने का समय जून से जुलाई माह के मध्य होता है। सूरन के पौधों पर लगने वाले इस रोग से संरक्षण हेतु मेन्कोजेब, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड एवं थायोफनेट की समुचित मात्रा में छिड़काव करना चाहिए।
सूरन की फसल बुआई के तकरीबन आठ से नौ माह में तैयार होती है। जब इन पौधों की पत्तियाँ सूख कर पीली पड़ने लगें तो इसकी खुदाई की जाती है।
सूरन को जमीन से निकालने के उपरांत बेहतर ढ़ंग से मृदा तैयार कर दे और दो से चार दिन के लिए धूप में सूखा लें। धूप लगने से सूरन की जीवनावधि बढ़ जाती है। आप इसे किसी हवादार स्थान पर रख कर अगले 6 से 7 महीने तक इस्तेमाल कर सकते हैं।