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भारत सरकार ने मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किये तीन नए उत्कृष्टता केंद्र

भारत सरकार ने मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किये तीन नए उत्कृष्टता केंद्र

भारत दुनिया में मोटे अनाजों (Coarse Grains) का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, इसलिए भारत इस चीज के लिए तेजी से प्रयासरत है कि दुनिया भर में मोटे अनाजों की स्वीकार्यता बढ़े। 

इसको लेकर भारत ने साल 2018 को मिलेट्स ईयर के तौर पर मनाया था और साथ ही अब साल 2023 को संयुक्त राष्ट्र संघ इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (आईवायओएम/IYoM-2023) के तौर पर मनाएगा। इसका सुझाव भी संयुक्त राष्ट्र (United Nations) संघ को भारत सरकार ने ही दिया है, जिस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने सहमति जताई है।

इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स (IYoM) 2023 योजना का सरकारी दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें देश के भीतर मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भारत सरकार ने देश में तीन नए उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किये हैं, जो देश में मोटे अनाजों के उत्पादन को बढ़ाने में सहायक होंगे, साथ ही ये उत्कृष्टता केंद्र देश में मोटे अनाजों के प्रति लोगों को जागरूक भी करेंगे।

  • इन तीन उत्कृष्टता केंद्रों में से पहला केंद्र बाजरा (Pearl Millet) के लिए  चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (Chaudhary Charan Singh Haryana Agricultural University, Hisar) में स्थापित किया गया है। यह केंद्र पूरी तरह से बाजरे की खेती के लिए, उसके उत्पादन के लिए तथा उसके प्रचार प्रसार के लिए बनाया गया है, इसके साथ ही यह केंद्र लोगों के बीच बाजरे के फायदों को लेकर जागरूक करने का प्रयास भी करेगा।
  • इसी कड़ी में सरकार ने दूसरा उत्कृष्टता केंद्र भारतीय कदन्न अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद (Indian Institute of Millets Research (IIMR)) में स्थापित किया है। यह केंद्र ज्वार (Jowar) की खेती को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है। यह केंद्र देश भर में ज्वार की खेती के प्रति लोगों को जागरूक करेगा, साथ ही लोगों के बीच ज्वार से होने वाले फायदों को लेकर जागरूकता फैलाएगा।
  • इनके साथ ही तीसरा उत्कृष्टता केंद्र कृषि विज्ञान विश्विद्यालय, बेंगलुरु (University of Agricultural Sciences, GKVK, Bangalore) में स्थापित किया गया है। यह उत्कृष्टता केंद्र छोटे मिलेट्स जैसे कोदो, फॉक्सटेल, प्रोसो और बार्नयार्ड इत्यादि के उत्पादन और प्रचार प्रसार के लिए बनाया गया है।
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मोटे अनाजों में मुख्य तौर पर ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, फिंगर बाजरा और अन्य कुटकी जैसे कोदो, फॉक्सटेल, प्रोसो और बार्नयार्ड इत्यादि आते हैं, इन सभी को मिलाकर भारत में मोटा अनाज या मिलेट्स (Millets) कहते हैं। 

इन अनाजों को ज्यादातर पोषक अनाज भी कहा जाता है क्योंकि इन अनाजों में चावल और गेहूं की तुलना में 3.5 गुना अधिक पोषक तत्व पाए जाते हैं। मोटे अनाजों में पोषक तत्वों का भंडार होता है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद फायदेमंद होते हैं। 

मिलेटस में मुख्य तौर पर बीटा-कैरोटीन, नाइयासिन, विटामिन-बी6, फोलिक एसिड, पोटेशियम, मैग्नीशियम, जस्ता आदि खनिजों के साथ विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। 

इन अनाजों का सेवन लोगों के लिए बेहद फायदेमंद होता है, इनका सेवन करने वाले लोगों को कब्ज और अपच की परेशानी होने की संभावना न के बराबर होती है। 

ये अनाज बेहद चमत्कारिक हैं क्योंकि ये अनाज विपरीत परिस्तिथियों में भी आसानी से उग सकते हैं, इनके उत्पादन के लिए पानी की बेहद कम आवश्यकता होती है। 

साथ ही प्रकाश-असंवेदनशीलता और जलवायु परिवर्तन का भी इन अनाजों पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए इनका उत्पादन भी ज्यादा होता है और इन अनाजों का उत्पादन करने से प्रकृति को भी ज्यादा नुकसान नहीं होता। 

आज के युग में जब पानी लगातार काम होता जा रहा है और भूमिगत जल नीचे की ओर जा रहा है ऐसे में मोटे अनाजों का उत्पादन एक बेहतर विकल्प हो सकता है क्योंकि इनके उत्पादन में चावल और गेहूं जितना पानी इस्तेमाल नहीं होता। 

यह अनाज कम पानी में भी उगाये जा सकते हैं जो पर्यावरण के लिए बेहद अनुकूल हैं। मोटे अनाजों का उपयोग मानव अपने खाने के साथ-साथ जानवरों के खाने के लिए भी कर सकता है, इन अनाजों का उपयोग भोजन के साथ-साथ, पशुओं के लिए और पक्षियों के चारे के रूप में भी किया जाता है। ये अनाज हाई पौष्टिक मूल्यों वाले होते हैं जो कुपोषण से लड़ने में सहायक होते हैं।

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मोटे अनाजों का उत्पादन देश में कर्नाटक, राजस्थान, पुद्दुचेरी, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों में ज्यादा किया जाता है, क्योंकि यहां की जलवायु मोटे अनाजों के उत्पादन के लिए अनुकूल है और इन राज्यों में मिलेट्स को आसानी से उगाया जा सकता है, 

इसके साथ ही इन राज्यों के लोग अब भी मोटे अनाजों के प्रति लगाव रखते हैं और अपनी दिनचर्या में इन अनाजों को स्थान देते हैं। इसके अलावा इन अनाजों का एक बहुत बड़ा उद्देश्य पशुओं के लिए चारे की आपूर्ति करना है। मोटे अनाजों के पेड़ों का उपयोग कई राज्यों में पशुओं के चारे के रूप में किया जाता है, 

इनके पेड़ों को मशीन से काटकर पशुओं को खिलाया जाता है, इस मामले में हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश टॉप पर हैं, जहां मोटे अनाजों का इस उद्देश्य की आपूर्ति के लिए बहुतायत में उत्पादन किया जाता है। 

मोटे अनाजों के कई गुणों को देखते हुए सरकार लगतार इसके उत्पादन में वृद्धि करने का प्रयास कर रही है। जहां साल 2021 में 16.93 मिलियन हेक्टेयर में मोटे अनाजों की बुवाई की गई थी, 

वहीं इस साल देश में 17.63 मिलियन हेक्टेयर में मोटे अनाजों की बुवाई की गई है। अगर वर्तमान आंकड़ों की बात करें तो देश में हर साल 50 मिलियन टन से ज्यादा मिलेट्स का उत्पादन किया जाता है।

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इन मोटे अनाजों में मक्के और बाजरे का शेयर सबसे ज्यादा है। ज्यादा से ज्यादा किसान मोटे अनाजों की खेती की तरफ आकर्षित हों इसके लिए सरकार ने लगभग हर साल मोटे अनाजों के सरकारी समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की है। इन अनाजों को सरकार अब अच्छे खासे समर्थन मूल्य के साथ खरीदती है। 

जिससे किसानों को भी इस खेती में लाभ होता है। बीते कुछ सालों में इन अनाजों के प्रचलन का ग्राफ तेजी से गिरा है। आजादी के पहले देश में ज्यादातर लोग मोटे अनाजों का ही उपयोग करते थे, लेकिन अब लोगों के खाना खाने का तरीका बदल रहा है, 

जिसके कारण लोगों की जीवनशैली प्रभावित हो रही है और लोगों को मधुमेह, कैंसर, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां तेजी से घेर रही हैं। इन बीमारियों की रोकथाम के लिए लोगों को अपनी थाली में मोटे अनाजों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए, जिसके लिए सरकार लगातार प्रयासरत है। 

मोटे अनाजों के फायदों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन्हें 'सुपरफूड' बताया है। अब पीएम मोदी दुनिया भर में इन अनाजों के प्रचार के लिए ब्रांड एंबेसडर बने हुए हैं। 

"अंतर्राष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष 2023 की समयावधि तक कृषि मंत्रालय ने पूर्व में शुरू किए गए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन और प्राचीन तथा पौष्टिक अनाज को फिर से खाने के उपयोग में लाने पर जागरूकता फैलाने की पहल" से सम्बंधित सरकारी प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) रिलीज़ का दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें । 

पीएम नरेंद्र मोदी ने हाल ही में उज्बेकिस्तान के समरकंद में आयोजित हुए शंघाई सहयोग संगठन की बैठक को सम्बोधित करते हुए मोटे अनाजों को 'सुपरफूड' बताया था। 

उन्होंने अपने सम्बोधन में इन अनाजों से होने वाले फायदों के बारे में भी बताया था। पीएम मोदी ने शंघाई सहयोग संगठन के विभिन्न नेताओं के बीच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिलेट्स फूड फेस्टिवल के आयोजन की वकालत की थी। 

उन्होंने बताया था की इन अनाजों के उत्पादन के लिए कितनी कम मेहनत और पानी की जरुरत होती है। इन चीजों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार लगातार मोटे अनाजों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए और प्रचारित करने के लिए प्रयासरत है।

‘सुपर काऊ’ से फिर फेमस हुआ चीन, इस मामले में छोड़ा दुनिया को पीछे

‘सुपर काऊ’ से फिर फेमस हुआ चीन, इस मामले में छोड़ा दुनिया को पीछे

सुपर काऊ का नामा सुनते ही सभी के जहन में गाय से जुड़ा कोई ना कोई ख्याल जरूर आ रहा हो होगा. तो आपको बता दें कि, आपका यह ख्याल कुछ हद तक सही भी है. लेकिन आप उस जगह तक सोच भी नहीं सकते जिस जगह तक चीन ने कर दिखाया है. क्योंकि इस मामले में चीन ने दुनिया को पीछे छोड़ दिया है. चीनी साइंटिस्ट ने तीन सुपर काऊ का एक अनोखा क्लोन बनाया है, जो सोच से भी ज्यादा दूध देगी. हालांकि चीन ने अपने डेयरी उद्योग को बढ़ाने कजे लिए इस क्लोन को बनाया है. जानकारी के मुताबिक इस क्लोन को नार्थ वेस्ट यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड फॉरेस्ट्री साइंस एंड टेक्नोलॉजी के साइंटिस्टों ने बनाया है. इस क्लोन से लगभग तीन बछिया का जन्म नये साल से पहले निंग्जिया क्षेत्र में हुआ. साइंटिस्टों के मुताबिक यह सभी बछियाँ जब मां बनेंगे तो कम से कम 16 से 18 टन तक दूध देंगे. यानियो यह तीनों बछियाँ सुपर काऊ बनकर अपनी पूरे जीवन में सौ टन दूध देंगे. बताया जा रहा है कि, क्लोन किये गये इन बछियों में से सबसे पहली बछिया 30 दिसंबर को ऑपरेशन के जरिये हुआ था. जिसका वजह आम बछियों की तुलना में ज्यादा था.

आसान नहीं इन्हें पालना

जानकारी के मुताबिक साइंटिस्टों ने ज्यादा दूध देने वाली गायों के कानों की कोशिकाओं की मदद से कुल 120 भ्रूण बनाए. जिसके बाद उन्हें सेरोगेट गायों में रखा गया. हालांकि साइंटिस सुपर काऊ के जन्म को सक्सेस बता रहे हैं. जो चीन में डेयरी उत्पादकों को बढ़ाएंगे ही साथ में मालामाल भी कर देंगे. सुपर काऊ का प्रजनन जल्दी बंद हो जाता है. जिसके बाद उन्हें पलना मुश्किल हो सकता है. ये भी देखें: बिना गाय और भैंस पालें शुरू करें अपना डेयरी सेंटर

सुपर काऊ का बनेगा झुंड

चीन में आधे से ज्यादा डेयरी गायों को विदेश से मंगाया जाता है. ऐसे में विदेशी गायों पर निर्भरता कम करने के लिए सुपर काऊ का क्लोन बनाया गया है. ऐसे में चीन सुपर काऊ का झुंड बनाने की तैयारी कर रहा है, जिसमें एक हजार से ज्यादा सुपर काऊ शामिल होंगी. इतना ही नहीं चीन आने वाले दो से तीन सालों में ऐसा करने में सफल भी हो जाएगा. जानकारी के लिए बता दें कि, अमेरिका समेत कई देशों में ज्यादा दूध के उत्पादन के लिए जानवरों के साथ क्लोन को पैदा करते हैं. लेकिन चीन ने पिछले कुछ सालों में जानवरों के क्लोन में बड़ी उपलब्धी हासिल की है. इससे पहले चीन ने पहला क्लोन आर्कटिक भेड़िया भी बनाया था. चीन में क्लोन जानवरों की वजह से कईदेशों के जानवरों को खतरा हो सकता है, इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता.
KITS वारंगल ने विकसित किया स्वचालित ट्रैक्टर, लागत और मेहनत करेगा कम

KITS वारंगल ने विकसित किया स्वचालित ट्रैक्टर, लागत और मेहनत करेगा कम

आज के आधुनिक और मशीनीकरण युग में नित नए अविष्कार हो रहे हैं। सभी क्षेत्रों में अच्छे खासे बदलाव देखने को मिल रहे हैं। इसी कड़ी में KITS वारंगल द्वारा स्वचालित ट्रेक्टर विकसित किया है, जिसका फिलहाल चौथा ट्राइल भी सफलता पूर्वक तरीके से संपन्न हो गया है। बतादें, कि यह ट्रेक्टर लागत प्रभावी है, जो आधुनिक तरीके से किसानों की आमदनी को बढ़ाएगा। आधुनिक तकनीकों एवं मशीनों द्वारा तकरीबन हर क्षेत्र में क्रांति का उद्घोष हो चुका है। महीनों तक विलंबित पड़े कार्य फिलहाल चंद मिनटों में पूर्ण हो जाते हैं। खेती-किसानी के कार्यों को भी सुगम एवं सुविधाजनक करने हेतु बहुत सारे यंत्र, टूल्स एवं वाहन तैयार किए जा रहे हैं। जो कि लागत को प्रभावी होने के साथ-साथ किसानों की आमदनी को दोगुना करने में सहायक हैं। इसी ओर काकतीय इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस, वारंगल (KITS-W) ने किसानों के लिए एक ड्राइवरलैस ऑटोमैटिक ट्रैक्टर तैयार किया है, जिसका चौथा ट्राइल भी सफलतापूर्ण ढंग से संपन्न हो चुका है।

इस स्वचालित ट्रैक्टर की क्या-क्या विशेषताएं हैं

KITS, वारंगल के कंप्यूटर विज्ञान और इंजीनियरिंग विभाग (CSE) के प्रोफेसर डॉ. पी निरंजन ने बताया है, कि ड्राइवरलैस स्वचालित ट्रैक्टर के लिए 41 लाख रुपये की परियोजना राशि मुहैय्या कराई गई थी। इसी कड़ी में इस ट्रेक्टर की विशेषताओं को लेकर इस प्रोजेक्ट के हैड अन्वेषक एमडी शरफुद्दीन वसीम ने जानकारी दी है, कि यह स्वचालित ट्रैक्टर किसानों को सुविधाजनक तरीके से खेतों की जुताई करने में सहायता करेगा। उन्होंने कहा है, कि यह लागत प्रभावी ट्रेक्टर खेती में किसानों की लागत के साथ-साथ समय की भी बचत होगी। साथ ही, किसानों की आमदनी को अधिक करने में भी सहायक भूमिका निभाएगी। ये भी पढ़े: भारत में लॉन्च हुए ये 7 दमदार नए ट्रैक्टर विशेषज्ञों के कहने के मुताबिक, इस स्वचालित ट्रैक्टर को विकसित करने का प्रमुख लक्ष्य खेती में मानव परिश्रम को कम करना है। इस ट्रैक्टर को बिल्कुल उसी प्रकार डिजाइन किया गया है। किसान भाई एक रिमोट द्वारा नियंत्रित उपकरण से इस ट्रैक्टर का सफल संचालन कर कृषि कार्य कर सकते हैं।

इस तरह संचालित होगा यह ट्रैक्टर

सीएसई के प्रोफेसर निरंजन रेड्डी का कहना है, कि स्वचालित ऑटोमैटिक ट्रेक्टर को कंप्यूटर गेम की भांति ही एक एंड्रॉइड एप्लीकेशन की सहायता से संचालित कर सकते हैं। इस स्वचलित ट्रेक्टर में लाइफ फील्ड से डेटा एकत्रित करने हेतु विशेषज्ञों ने सेंसर भी स्थापित किए हैं, जो कि किसी जगह विशेष पर कार्य करने हेतु तापमान एवं मृदा की नमी का भी पता करने में सहायता करेंगे। इससे मृदा की खामियों के विषय में भी जाँच करके डेटा एकत्रित करने में भी सुगमता रहेगी।
मधुमक्खी के डंक से किसान जल्द हो सकते हैं अमीर, 70 लाख रुपये है कीमत

मधुमक्खी के डंक से किसान जल्द हो सकते हैं अमीर, 70 लाख रुपये है कीमत

मधुमक्खी से प्राप्त शहद के साथ ही अब मधुमक्खी का डंक भी बिकने के लिए तैयार है। बाजार में इसकी कीमत 70 लाख रुपये प्रति किलो तक हो सकती है। इसके लिए मध्य प्रदेश में डंक के प्रोसेसिंग के लिए एक यूनिट की स्थापना की जा रही है। यह यूनिट मुरैना के महात्मा गांधी सेवा आश्रम में लगाई जा रही है। जिस पर चार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। यहां पर शहद की गुणवत्ता की जांच की जाएगी, साथ ही उसकी पैकिंग और ब्रांडिग भी की जाएगी। मुरैना में शहद की यूनिट लगने से सबसे ज्यादा मधुमक्खी पालकों को फायदा होने वाला है। इस यूनिट के माध्यम से ही मधुमक्खी पालकों को प्रशिक्षित किया जाएगा। साथ ही एक विशेष मशीन के माध्यम से मधुमक्खियों के डंक निकालने का काम भी किया जाएगा। भारतीय बाजार में मधुमक्खियों के डंक की कीमत 70 लाख रुपये प्रति किलो तक बताई जा रही है। मशीन के माध्यम से मधुमक्खी का डंक निकालने से मधुमक्खी को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होगी। साथ ही मधुमक्खी पालन से प्राप्त होने वाले शहद से लेकर गोंद तक की बाजार में भारी डिमांड रहती है। इनका उपयोग दवा बनाने के साथ ही कई अन्य चीजों में किया जाता है।

मधुमक्खी पालन से किसानों को होते हैं ये फायदे

मधुमक्खी पालन किसानों के लिए अतिरिक्त आय का स्रोत है, इससे किसानों की आय में तेजी से वृद्धि होती है। साथ ही किसानों की फसल का उत्पादन भी बढ़ जाता है, क्योंकि मधुमक्खियां फसलों का परागकण निकालती हैं, जिससे फसलों की गुणवत्ता में सुधार होता है और लगभग 15 से 30 प्रतिशत तक उत्पादन बढ़ जाता है। मधुमक्खियों के माध्यम से शहद का उत्पादन किया जाता है। इसके साथ ही मधुमक्खी के छत्तों से रायल जेली भी प्राप्त की जाती है। यह जेली मानव शरीर के लिए बेहद लाभप्रद मानी जाती है क्योंकि इसमें उत्तम पौष्टिक पदार्थ पाए जाते हैं। मधुमक्खी पालन के माध्यम से मोम का भी उत्पादन भी किया जाता है। जिसका उपयोग कॉस्मेटिक सामग्री तैयार करने में और मोमी बेस शीट बनाने में किया जाता है।

भारत में मधुमक्खियों की प्रमुख प्रजातियां

भारत में मधुमक्खियों की प्रमुख तौर पर 4 प्रजातियां पाई जाती हैं।

एपिस डोरसेटा (भंवर मधुमक्खी): इसे सब्स ज्यादा गुस्सैल मधुमक्खी माना जाता है। यह आकर में बड़ी होती है तथा लोगों पर खतरनाक रूप से हमला करती है। यह मधुमक्खी एक साल में 20 से 25 किलो शहद देती है। यह भी पढ़ें: मधुमक्खी पालन को बनाएं आय का स्थायी स्रोत : बी-फार्मिंग की सम्पूर्ण जानकारी और सरकारी योजनाएं एपिस मेलिफेरा (इटालियन मधुमक्खी): यह भी आकर में बड़ी होती है। इसकी रानी मधुमक्खी अन्य मधुमक्खियों की अपेक्षा ज्यादा अंडे दे सकती है। इसलिए यह शहद का उत्पादन भी ज्यादा करती है। अगर इसे दो खण्ड के बक्सों में पाला जाए तो यह एक साल में 80 किलो तक शहद का उत्पादन कर सकती है। एपिस फलोरिया (उरम्बी मधुमक्खी): यह बेहद छोटे आकर की मधुमक्खी होती है। यह सुरक्षित जगहों पर अपना छत्ता बनाती है। यह मधुमक्खी साल में 2 किलो तक शहद का उत्पादन कर सकती है। एपिस सेराना इण्डिका (भारतीय मधुमक्खी): यह एक ऐसी मधुमक्खी होती है जो वीरान इलाकों में अपना छत्ता बनाती है, इसके छत्ते ज्यादातर पेडों व गुफाओं में होते हैं। यह पहाड़ी इलाकों में पाई जाती है। यह साल में 6 किलो तक शहद का उत्पादन कर सकती है।

भारत में मधुमक्खी पालन का उपयुक्त समय

चूंकि मधुमक्खी पालन में सबसे ज्यादा महत्व फूलों का होता है, क्योंकि मधुमक्खियां फूलों से मकरंद व पराग एकत्रित करती हैं, जिससे शहद बनता है। इसलिए मधुमक्खी पालन का सबसे उचित समय अक्टूबर से लेकर दिसम्बर तक होता है।
भारत में पाई जाने वाली मृदाओं और उनमें उगाई जाने वाली फसलें

भारत में पाई जाने वाली मृदाओं और उनमें उगाई जाने वाली फसलें

भारत में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है, माटी की काया है एक दिन माटी में ही मिल जाएगी। यह कहावत मिट्टी की महत्व को दर्शाती है। कैल्शियम, सोडियम, एल्युमिनियम, मैग्नीशियम, आयरन, क्ले एवं मिनरल ऑक्साइड के अवयवों से मिलकर बनी मिट्टी वातावरण को संशोधित भी करती है। बतादें, कि घर निर्माण से लेकर फसल उत्पादन तक हमारी जिंदगी के तकरीबन हर कार्य में मृदा कहीं न कहीं आवश्यक होती है। किसी भी क्षेत्र में कौन-सी फसल बेहतर ढ़ंग से हो सकती है, यह बात काफी हद तक उस क्षेत्र की मृदा पर आश्रित रहती है। इकोसिस्टम में मिट्टी पौधे की उन्नति के लिए एक जरिए के तौर पर कार्य करती है। यहां हम आपको बताएंगे कि भारत के कौन-से इलाकों में कौन-सी मिट्टी होती है और उसमें कौन-सी फसलें उत्पादित की जा सकती हैं।

दोमट या जलोढ़ मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं

जलोढ़ मिट्टी भारत में सबसे बड़े पैमाने पर पाई जाने वाली और सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी समूह है। भारत के कुल भूमि रकबे का लगभग 15 लाख वर्ग किमी अथवा 35 प्रतिशत भाग में यही मिट्टी है। भारत की तकरीबन आधी कृषि जलोढ़ मिट्टी पर होती है। जलोढ़ मृदा वह मृदा होती है, जिसे नदियां बहा कर लाती हैं। इस मृदा में नाइट्रोजन एवं पोटाश की मात्रा कम होती है। परंतु, फॉस्फोरस एवं ह्यूमस की अधिकता होती है। जलोढ़ मृदा उत्तर भारत के पश्चिम में पंजाब से लेकर पूरे उत्तरी विशाल मैदान से चलते हुए गंगा नदी के डेल्टा इलाकों तक फैली है। इस मृदा की यह विशेषता है, कि इसमें उवर्रक क्षमता काफी हद तक अच्छी होती है। पुरानी जलोढ़ मृदा को बांगर एवं नई को खादर कहा जाता है। जलोढ़ मृदा में काला चना, हरा चना, सोयाबीन, मूंगफली, सरसों, तिल, जूट, मक्का, तंबाकू, कपास, चावल, गेहूं, बाजरा, ज्वार, मटर,
लोबिया, काबुली चना, तिलहन फसलें, सब्जियों और फलों की खेती इस मृदा में होती है।

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काली मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन से फसल की जा सकती हैं

काली मिट्टी बेसाल्ट चट्टानों (ज्वालामुखीय चट्टानें) के टूटने और इसके लावा के बहने से निर्मित होती है। इस मिट्टी को रेगुर मिट्टी और कपास की मिट्टी भी कहा जाता है। इसमें आयरन, मैग्नेशियम, लाइम और पोटाश होते हैं। परंतु, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और कार्बनिक पदार्थ इसमें कम पाए जाते हैं। इस मृदा का काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट और जीवांश (ह्यूमस) की वजह से होता है। यह मृदा डेक्कन लावा के रास्ते में पड़ने वाले इलाकों जैसे कि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में होती है। नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और ताप्ती नदियों के किनारों पर यह मिट्टी पाई जाती है। जानकारी के लिए बतादें कि काली मिट्टी में होने वाली प्रमुख फसल कपास है। हालाँकि, इसके अतिरिक्त गन्ना, गेहूं, ज्वार, सूरजमुखी, अनाज की फसलें, चावल, खट्टे फल, सब्ज़ियां, तंबाकू, मूंगफली, अलसी, बाजरा व तिलहनी फसलें होती हैं।

लाल और पीली मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं

यह मिट्टी दक्षिणी पठार की पुरानी मेटामार्फिक चट्टानों के टूटने से बनती है। भारत के अंदर यह मृदा ओड़िशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के पूर्वी इलाकों, छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के उत्तरी पश्चिम जिलों, मेघालय की गारो खासी और जयंतिया के पहाड़ी क्षेत्रों, नागालैंड, राजस्थान में अरावली के पूर्वी क्षेत्र, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में पाई जाती है। यह मृदा कुछ रेतीली होती है और इसमें अम्ल एवं पोटाश की मात्रा ज्यादा होती है जबकि इसके अंदर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम और ह्यूमस की कमी होती है। लाल मिट्टी का लाल रंग आयरन ऑक्साइड की मौजूदगी की वजह से होता है। परंतु, जलयोजित तौर पर यह पीली दिखाई पड़ती है। चावल, गेहूं, गन्ना, मक्का, मूंगफली, रागी, आलू, तिलहनी व दलहनी फसलें, बाजरा, आम, संतरा जैसे खट्टे फल व कुछ सब्ज़ियों की खेती अच्छी सिंचाई व्यवस्था करके उगाई जा सकती हैं।

लैटेराइट मिट्टी कहाँ पाई जाती है और इसमें कौन-कौन सी फसल की जा सकती हैं

लैटेराइट मृदा पहाड़ियों एवं ऊंची चट्टानों की चोटी से निर्मित होती है। मानसूनी जलवायु के शुष्क एवं नम होने का जो बदलाव होता है, उससे इस मृदा को निर्मित होने में सहायता मिलती है। मृदा में अम्ल एवं आयरन अधिक होता है। वहीं फॉस्फोरस, नाइट्रोजन, कैल्शियम और ह्यूमस की कमी होती है। इस मृदा को गहरी लाल लैटेराइट, सफेद लैटेराइट एवं भूमिगत जलवायी लैटेराइट में विभाजित किया जाता है। लैटेराइट मृदा केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में पाई जाती है। लैटेराइट मृदा अत्यधिक उपजाऊ नहीं होती है। परंतु दलहन, चाय, कॉफी, रबड़, नारियल, काजू, कपास, चावल और गेहूं की खेती इस मिट्टी में होती है। इस मिट्टी में आयरन की भरपूर मात्रा होती है। इस वजह से ईंट तैयार करने में भी इस मृदा का इस्तेमाल किया जाता है।
हजारों साल पहले से भारत से वियतनाम पहुँचता रहा है मसाला

हजारों साल पहले से भारत से वियतनाम पहुँचता रहा है मसाला

शोध रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने कहा है, कि ओसी ईओ में पाए जाने वाले समस्त मसालों की खेती यहां पर नहीं होती होगी। क्योंकि यहां की जलवायु इन मसालों के लिए उपयुक्त नहीं है। मसालों के बिना हम स्वादिष्ट व्यंजनों की कल्पना तक भी नहीं कर सकते हैं। ये ऐसे खाद्य उत्पाद हैं, जो खाने को स्वादिष्ट और लजीज बनाते हैं। ऐसे भी दुनिया में सबसे ज्यादा मसालों का उत्पादन भारत में होता है। भारत से पूरी दुनिया में मसालों की आपूर्ति होती है। खास बात यह है, कि भारत से विदेशों में मसालों का निर्यात कोई हाल के वर्षों में आरंभ नहीं हुआ। यह सैंकड़ों साल पहले से चलता आ रहा है। साथ ही, अब एक नए शोध से ज्ञात हुआ है, कि मसालों का व्यापार तकरीबन 2,000 साल प्राचीन है।

करी बनाने के लिए मसाला इस्तेमाल किया जाता था

साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस बात का प्रसार हुआ है। इस रिपोर्ट में दक्षिण पूर्व एशिया की सबसे पुरानी ज्ञात करी के इस्तेमाल के प्रमाण मिले हैं। विशेष बात यह है, कि भारत के बाहर मसालों के इस्तेमाल का यह सबसे पुराणा साक्ष्य है। शोधार्थियों ने दक्षिणी वियतनाम में खुदाई में निकले मसालों के ऊपर शोध किया है। ये मसालों दक्षिणी वियतनाम स्थित ओसी ईओ पुरातात्विक परिसर में खुदाई के चलते निकले थे। यहां पर आठ अन्य मसालों के इस्तेमाल के भी सुबूत मिले हैं। कहा जा रहा है, कि इन मसालों का इस्तेमाल करी बनाने में किया जाता होगा। ये भी पढ़े: सब्जियों के साथ-साथ मसालों के बढ़ते दामों से लोगों की रसोई का बिगड़ा बजट

पहले से ही संग्रहालय में उपस्थित थी

शोधकर्ताओं की टीम का शोध प्रारंभ में करी पर केंद्रित नहीं था। इस वजह से टीम ने पत्थर से बने उन यंत्रों का भी विश्लेषण किया, जिनका इस्तेमाल कभी मसाले को पीसने के लिए किया जाता था। विशेष बात यह है, कि ये सारे उपकरण ओसी ईओ साइट से खुदाई में ही निकले हैं। साल 2017 से 2019 तक चली खुदाई के चलते ज्यादातर उपकरण निकले थे। जबकि, कुछ पहले से ही संग्रहालय में उपस्थिति थे।

लगभग 40 उपकरणों का किया विश्लेषण

शोधकर्ताओं की टीम ने ओसीईओ पुरातात्विक परिसर में स्टार्च के दाने की कोशिकाओं के अंतर्गत पाई जाने वाली छोटी संरचनाओं पर भी अध्यन किया। यहां पर टीम ने 40 उपकरणों का विश्लेषण किया, जिसमें फिंगररूट, गैलंगल, जायफल, लौंग, दालचीनी, हल्दी, रेत और अदरक समेत विभिन्न प्रकार के मसाले के अवशेष शम्मिलित हैं। यह समस्त मसाले खुदाई के अंतर्गत ही निकले थे। इससे यह साबित होता है, कि ओसी ईओ पुरातात्विक परिसर में रहने वाले लोग भोजन में मसालों का इस्तेमाल करते होंगे। ये भी पढ़े: बीजीय मसाले की खेती में मुनाफा ही मुनाफा

मसाले 2000 साल पहले वैश्विक स्तर पर आदान प्रदान की जाने वाली कीमती खाद्य सामग्री थी

साथ ही, शोध रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने बताया है कि ओसी ईओ में पाए जाने वाले समस्त मसालों की खेती यहां पर नहीं होती होगी। क्योंकि यहां की जलवायु इन मसालों के उपयुक्त नहीं है। ऐसी स्थिति में भारत अथवा चीन से इन मसालों का निर्यात हुआ होगा। तब प्रशांत महासागर अथवा हिन्द महासागर को पार कर के ही व्यापारी दक्षिणी वियतनाम पहुंचें होंगे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि 2000 साल पहले मसाले वैश्विक स्तर पर आदान-प्रदान की जाने वाली सबसे कीमती खाद्य सामाग्री थी। विशेष बात यह है, कि ओसीईओ में पाए जाने वाले समस्त मसाले इस क्षेत्र में प्राकृतिक तौर पर उपलब्ध नहीं रहे होंगे।
जानें फॉक्सग्लोव फूल की खासियत और इसके नुकसान के बारे में

जानें फॉक्सग्लोव फूल की खासियत और इसके नुकसान के बारे में

फॉक्सग्लोव फूल जितना सुंदर नजर आता है, उससे कई गुना ज्यादा यह खतरनाक भी है। दरअसल, कोई भी इसका सेवन करता है, तो उसको अचानक से कभी भी हार्ट अटैक (Heart Attack) आ सकता है। क्योंकि, इसके अंतर्गत कार्डियक ग्लाइकोसाइड्स नामक शक्तिशाली कंपाउंड होता है। फूल की खूबसूरती एवं उसकी सुगंध हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित करती है, जिसकी वजह से बाजार में इसकी मांग काफी ज्यादा होती है। हमारे भारत में ऐसे विभिन्न प्रकार के फूलों की खेती की जाती है, जो नजर आने में अत्यंत ज्यादा सुंदर होते हैं। परंतु उसके बने उत्पाद काफी ज्यादा खतरनाक होते हैं। ऐसे ही एक फूल के विषय में आज हम आपको जानकारी देने जा रहे हैं, जो दिखने में बेहद ही ज्यादा सुंदर है। परंतु, यह जितना सुंदर है, उतना ही हानिकारक भी है। दरअसल, हम जिस फूल की बात कर रहे हैं, उसका फूल का नाम फॉक्सग्लोव (Foxglove) है। इस फूल पर जब वैज्ञानिकों ने शोध किया तो देखा गया कि इस फूल से निर्मित उत्पादों का सेवन करने से हार्ट अटैक का संकट बढ़ जाता है। क्योंकि, इस फूल के अंदर कार्डियक ग्लाइकोसाइड्स नाम का पावरफुल कंपाउंड उपस्थित होता है। बतादें, कि फॉक्सग्लोव फूल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हर्बल चिकित्सा (Herbal Medicine) में किया जाता है।

फॉक्सग्लोव फूल के अंदर विष विघमान होता

मीडिया खबरों के अनुसार, फॉक्सग्लोव फूल में कार्डियक ग्लाइकोसाइड्स नाम का काफी शक्तिशाली कंपाउंड पाया जाता है। जोकि हमारे शरीर के लिए विष के समान है। इसका सेवन करने से हृदय संबंधित बीमारी भी हो सकती है। इस फूल की वजह से व्यक्ति को अचानक से हार्ट अटैक भी आ सकता है। ऐसा कहा जा रहा है, कि इस फूल से वेंट्रिकुलर फाइब्रिलेशन जैसी परिस्थिति भी उत्पन्न हो सकती है।

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यह फूल कब काम आता है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस फूल की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह उस समय उपयोग किया जाता है, जब समस्त प्रकार की औषधियां काम करना बंद कर देती हैं। ऐसी स्थिति में इस फूल के पौधे से बनी दवा का सेवन कराया जाता है, ताकि वह बच सकें। बतादें, कि शोध में पाया गया है, कि यह फूल हार्ट की मांसपेशियों पर सीधे कार्य करता है। किसी आदमी का ह्रदय कार्य करना बंद कर देता है, तो ऐसे में फॉक्सग्लोव फूल संजीवनी का भी कार्य करता है। यह मानव के संपूर्ण शरीर में ब्लड पंप करता है।

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किस वजह से ना करें फॉक्सग्लोव फूल का सेवन

बतादें, कि हार्ट फेलियर रोगियों के लिए तो यह फॉक्सग्लोव फूल बेहद सहायक है। लेकिन, उधर यदि अन्य कोई व्यक्ति गलती से भी इस फूल के पौधे को अपने मुंह में रख लेता है, तो उसे तुरंत अपने आसपास के चिकित्सक को दिखाना चाहिए। अन्यथा वो इस जहरीले पौधे से अपनी जान तक को गवा सकता है। इसका सेवन करने से व्यक्ति को उल्टी, चक्कर आना, मतली, त्वचा में जलन, सिरदर्द, दस्त, धुंधलापन दिखना पेशाब से जुड़ी दिक्कत परेशानियों का सामना करना पड़ता है।