गेहू की फसल में मुख्य कार्य उर्वरक प्रबंधन एवं सिंचाई का रहता है। ज्यादातर इलाकों में गेहूं में तीसरे एवं चौथे पानी की तैयारी है। तीसरे पानी का काम ज्यादातर राज्यों में पिछले दिनों हुई बरसात से हो गया है। गेहूं में झुलसा रोग से बचाव के लिए डायथेन एम 45 या जिनेब की 2.5 किलोग्राम मात्रा का पर्याप्त पानी में घोलकर छिड़काव करेंं। गेरुई रोग से बचाव के लिए प्रोपिकोनाजोल यानी टिल्ट नामक दवा की 25 ईसी दवा को एक एमएल दवा प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर छिडकाव करें। टिल्ट का छिडकाव दानों में चमक एवं वजन बढ़ाने के साथ फसल को फफूंद जनित रोगों से बचाता है। छिडकाव कोथ में बाली निकलने के समय होना चाहिए। फसल को चूहों के प्रकोप से बचाने के लिए एल्यूमिनियम फास्फाइड का प्रयोग करें।
जौ की फसल में कंडुआ जिसे करनाल बंट भी कहा जाता है लग सकता है। यह रोग संक्रमित बीज वाली फसल में हो सकता है। बचाव के लिए किसी प्रभावी फफूंदनाशक दवा या टिल्ट नामक दवा का छिड़काव करें।
चने की खेती में दाना बनने की अवस्था में फली छेदक कीट लगने शुरू हो जाते हैं। बचाव हेतु बीटी एक किलोग्राम या फेनवैलरेअ 20 प्रतिशत ईसी की एक लीटर मात्रा का 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करेंं।
मटर में इस सयम पाउड्री मिल्डयू रोग लगता है। रोकथाम के लिए प्रति हैक्टेयर दो किलोग्राम घुलनशील गंधक या कार्बेन्डाजिम नामक फफूंदनाशक की 500 ग्राम मात्रा 500 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करेंं।
सरसों की फसल में इस समय तक फूल झड़ चुका होता है। इस समय माहूू कीट से फसल को बचाने के लिए मिथाइल ओ डिमोटान 25 ईसी प्रति लीटर दवा पर्याप्त पानी में घोलकर छिडकाव करेंं।
रबी मक्का में सिंचाई का काम मुख्य रहता है । लिहाजा तीसरा पानी 80 दिन बाद एवं चौथा पानी 110 दिन बाद लगाएं। यह समय बसन्तकालीन मक्का की बिजाई के लिए उपयुक्त होने लगता है।
गन्ने की बसंत कालीन किस्मों को लगाने के समय आ गया है। मटर, आलू, तोरिया के खाली खेतों में गन्ने की फसल लगाई जा सकती है। गन्ने की कोशा 802, 7918, 776, 8118, 687, 8436 पंत 211 एवं बीओ 91 जैसी अनेक नई पुरानी किस्में मौजूद हैं। कई नई उन्नत किस्तें गन्ना संस्थानों ने विकसित की हैं। इनकी विस्तृत जानकारी लेकर इन्हें लगाया जा सकता है।
नीबू वर्गीस सिट्रस फल वाले मौसमी, किन्नू आदि के पौधों में विषाणु जनित रोगों के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोरोपिड 3 एमएल प्रति 10 लीटर पानी में, कार्बरिल 20 ग्राम 10 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। नाशपाती एवं सतालू आदि सभी फलदार पौधों के बागों में सड़ी गोबर की खाद, मिनरल मिक्चर आदि तापमान बढ़ने के साथ ही डालें ताकि पौधों का समग्र विकास हो सके। आम के खर्रा रोग को रोकने के लिए घुलनशील गंधक 80 प्रतिशत डब्ल्यूपी 0.2 प्रतिशत दवा की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करें। इसके अलावा अन्य प्रभावी फफूंदनाशक का एक छिडकाव करें। कीड़ों से पौधों को सुरक्षत रखने के लिए इमिडाक्लोरोपिड का एक एमएल प्रति तीन लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।
गुलदाउूजी के कंद लगाएं। गर्मी वाले जीनिया, सनफ्लावर, पोर्चलुका, कोचिया के बीजों को नर्सरी में बोएं ताकि समय से पौध तैयार हो सके।
आलू की पछेती फसल को झुलसा रोग से बचाने के लिए मैंकोजेब या साफ नामक दवा की उचित मात्रा छिडकाव करें। प्याज एवं लहसुन में संतुलित उर्वरक प्रबधन करें। खादों के अलावा शूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग करें। फफूंद जनित रोगों से बचाव एवं थ्रिप्स रोग से बचाव के लिए कारगर दवाओं का प्रयोग करें। भिन्डी के बीजों की बिजाई करें। बोने से पहले बीजों को 24 घण्टे पूर्व पानी में भिगोलें। कद्दू वर्गीय फसलों की अगेती खेती के लिए पॉलीहाउस, छप्पर आदि में अगेती पौध तैयार करें।
पशुओं की बदलते मौसम में विशेष देखभाल करें। रात के समय जल्दी पशुओं को बाडे में बांधें। पशुओं को दाने के साथ मिनरल मिक्चर आवश्यक रूप से दें।
इस साल पड़ने वाली जोरों की ठंड ने सभी को परेशान किया है। अब घर में पाले के बाद ओले से किसान बेहद परेशान हो रहे हैं। मध्य प्रदेश के छतरपुर व अन्य जिलों में चना, मटर, गेहूं, सरसों की फसलों को अच्छा खासा नुकसान पहुंचा है। किसानों ने मुआवजे की मांग की है। किसानों का संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। पहले सूखे के कारण बिहार, छत्तीसगढ़ में किसानों की फसलें ही सूख गई थीं। इनके आस पड़ोस के राज्यों में बाढ़ ने कहर बरपाया। वहीं खरीफ सीजन के आखिर में तेज बारिश ने धान समेत अन्य फसलों को बर्बाद कर दिया। पिछले कुछ दिनों से किसान पाले को लेकर बहुत ज्यादा परेशान हैं। इस बार बारिश और उसके साथ पड़े ओले ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। किसान मुश्किल से ही अपनी फसलों का बचाव कर पा रहे हैं। बारिश से पड़ने वाले पानी से तो किसान जैसे-तैसे बचाव कर लेते हैं। लेकिन ओलों से कैसे बचा जाए।
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छत्तीसगढ़ राज्य गठन के उपरान्त पिछले 20 वर्षों में प्रदेश में दलहनी फसलों के रकबे में 26 प्रतिशत, उत्पादन में 53.6 प्रतिशत तथा उत्पादकता में 18.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके बावजूद प्रदेश में दलहनी फसलों के विस्तार एवं विकास की असीम संभावनाएं हैं। इसी के तहत देश में दलहनी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान एवं विकास हेतु कार्य योजना एवं रणनीति तैयार करने, देश के विभिन्न राज्यों के 100 से अधिक दलहन वैज्ञानिक, 17 एवं 18 अगस्त को कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में जुटेंगे। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के सहयोग से यहां दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला एवं वार्षिक समूह बैठक का आयोजन किया जा रहा है। कृषि महाविद्यालय रायपुर के सभागृह में आयोजित इस कार्यशाला का शुभारंभ प्रदेश के कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे करेंगे। शुभारंभ समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रदेश के कृषि उत्पादन आयुक्त डॉ. कमलप्रीत सिंह, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के उप महानिदेशक डॉ. टी.आर. शर्मा, सहायक महानिदेशक डॉ. संजीव शर्मा, भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, कानपुर के निदेशक डॉ. बंसा सिंह तथा भारतीय धान अनुसंधान संस्थान हैदराबाद के निदेशक डॉ. आर.एम. सुंदरम भी उपस्थित रहेंगे। समारोह की अध्यक्षता इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. गिरीश चंदेल करेंगे। इस दो दिवसीय रबी दलहन कार्यशाला में चना, मूंग, उड़द, मसूर, तिवड़ा, राजमा एवं मटर का उत्पादन बढ़ाने हेतु नवीन उन्नत किस्मों के विकास एवं अनुसंधान पर विचार-मंथन किया जाएगा।
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ये भी देखें: जैविक खाद का करें उपयोग और बढ़ाएं फसल की पैदावार, यहां के किसान ले रहे भरपूर लाभपरमाकल्चर के सबसे बेहतरीन बात यह है, कि इसके लिए किसी प्रकार का अतिरिक्त निवेश नहीं किया जाता है। विशेषरूप से किसानों के समीप गांव में हर तरह के संसाधन उपलब्ध होते हैं। परमाकल्चर की सहायता से किसान को कम व्यय में भिन्न-भिन्न प्रकार का उत्पादन (उत्पादन में विविधता) एवं अधिकाँश मात्रा में उत्पादन अर्जन करने में काफी सहायता प्राप्त होती है। परमाकल्चर को पैसा बचाकर, पैसा कमाने वाला सिस्टम भी कहा जाता है, क्योंकि पशुओं के अवशिष्ट द्वारा खाद-उर्वरक निर्मित किए जाते हैं, जिससे कि रसायनिक उर्वरकों पर किए जाने वाला व्यय बच जाता है। जिससे पशुओं को खेत से बहुत सारी फसलों के अवशेष खाने हेतु मिल जाते हैं, जो दूध के उत्पादन में भूमिका निभाता है। जल का समुचित प्रबंधन करने से सिंचाई हेतु किए जाने वाला व्यय बच जाता है। साथ ही, इसी जल के अंदर मछली पालन भी किया जा सकता है। जिसके हेतु खेत के एक भाग में तालाब निर्मित किया जाता है, जहां बारिश का जल इकत्रित किया जाता है। इस कृषि पद्धति से कोई हानि नहीं होती है। अगर किसान खेत को परमाकल्चर के जरिए सृजन करें तो पर्यावरण सहित किसान की प्रत्येक जरूरत खेत की चारदीवारी में ही पूर्ण हो सकती है।
ये भी देखें: तर वत्तर सीधी बिजाई धान : भूजल-पर्यावरण संरक्षण व खेती लागत बचत का वरदान (Direct paddy plantation)आपको जानकारी के लिए बतादें कि परमाकल्चर की भाँति कृषि भारत में युगों-युगों से चलती आ रही है। इस कृषि में किसान परंपरागत विधि से उत्पादन करते हैं। पर्यावरण संतुलन हेतु खेत के चारों तरफ वृक्ष लगाए जाते हैं। पशुओं को पाला जाता है, जिनसे खेतों में जुताई की जा सके। इन पशुओं को खेतों से उत्पन्न चारा खिलाया जाता है, बदले में पशु दूध व गोबर प्रदान करते हैं। दूध का किसान अपने व्यक्तिगत कार्य में उपयोग करते हैं अथवा बेचकर धन कमाते हैं वहीं दूसरी तरफ गोबर का उपयोग खेती करने हेतु खाद निर्माण में किया जाता है। इस प्रकार से एक-दूजे की जरूरतें पूर्ण होती रहती हैं, वो भी किसी बाहरी अतिरिक्त व्यय के बिना ही। साथ ही, आपस में संतुलन भी कायम रहता है। आजकल कृषि करने हेतु बीज खरीदने के चलन में वृद्धि हुई है, जो कि जलवायु परिवर्तन के अनुरूप है। जबकि प्राचीन काल में फसल द्वारा बीजों को बचाकर आगामी बुवाई हेतु एकत्रित करके रखा जाता था, यही वजह है, कि पौराणिक काल से ही कृषि एक संतुलन का कार्य था ना कि किसी खर्च का।