Published on: 10-Dec-2020
हमारा अन्नदाता सड़कों पर है और 14 दिन हो चुके हैं सरकार और किसानों की कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है लेकिन अभी तक कोई भी निष्कर्ष नहीं निकला है. इस कानून से किसानों को कितना फायदा होगा या कितना नुकसान होगा इसको हम अभी कुछ नहीं कह सकते लेकिन किसान अपनी जिद पर अड़े हुए हैं और सरकार अपनी जिद पर कि हम यह कृषि कानून वापस नहीं लेंगे. और किसान किसी भी कीमत पर इस कृषि कानूनों के साथ आगे जाने के लिए तैयार नहीं दिखते हैं अब इसका निष्कर्ष तो वक्त के साथ ही निकलेगा कि यह कितने फायदेमंद होंगे कितने नुकसानदायक होंगे. किसानों की अलग समस्याएं हैं उनकी अलग डिमांड है देखेंगे कि इस बिल से कितना नुकसान है और कितना फायदा है.
आज 10 तारीख हो गई और आज तक किसानों ने अपने सभी कोशिशें की हैं कि वह कैसे भी सरकार तक अपनी बात पहुंचाएँ.और कई दौर की बातचीत हो भी चुकी है, लेकिन उनका कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया है किसानों की बातचीत कृषि मंत्री जी के साथ, माननीय गृह मंत्री जी के साथ हो चुकी हैं लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकल पाया है.अब देखते हैं कि आगे किसानों का कौन सा एक्शन आता है. 8 दिसंबर को किसानों ने भारत बंद बुलाया था. जिसका करीब करीब 24 राजनीतिक दलों ने समर्थन किया था. राजनीतिक समर्थन होने के नाते विरोध सिर्फ किसानों का नहीं रह गया है. अब लोग यह भी कहने लगे हैं कि यह अब राजनीतिक विरोध बन गया है. पक्ष विपक्ष दो खेमों में यह आंदोलन बैठ गया है जो पक्ष वाले हैं वह इसको अनैतिक आंदोलन बता रहे हैं और जो विपक्ष वाले हैं वह इसको किसानों का आंदोलन. लेकिन मेरा किसान भाइयों से भी निवेदन है जितने भी आंदोलन हुए भारत के अंदर चाहे वह जाट आंदोलन हो गुर्जर आंदोलन हो किसी भी आंदोलन में भारत के खिलाफ नहीं बोला गया. लेकिन इस किसान आंदोलन में भारत विरोधी बातें होना पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगना खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगना खालिस्तान के झंडे लहराना? अब कैसे इसको किसानों का आंदोलन कह सकते हैं आप देखिए भारत के बाहर भी आंदोलन का समर्थन किया जा रहा है और वह सही समर्थन है जहां पर हमारे एंबेसी हैं उन के बाहर हंगामा किया जा रहा है. उनकी सुरक्षा के लिए खतरा हो रहा है यह क्या किसान आंदोलन है? क्या वहां पर भी किसान हैं? या जो लोग बाहर रह रहे हैं उनको किसानों की इतनी ही फिक्र है ? या वह अपनी राजनीतिक रोटियां चमकाना चाहते हैं ? मेरे विचार से किसानों को खुले मन से बोलना चाहिए किसी भी सरकार की किसी भी विपक्ष की किसी भी पार्टी की हमें जरूरत नहीं है हम अपना हक अपने आप लेना जानते हैं. हमें कोई जरूरत नहीं है विपक्षी दल आकर हमें सपोर्ट करें हम किसान इतने कैपेबल हैं कि अपना आंदोलन खुद चलाना जानते हैं और हां जितने भी लोग विपक्षी या पार्टी वाले आकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना चाहते हैं इस आंदोलन को बदनाम ना करें.
नए कृषि कानून से किसानों की चिंताएं :
इस कानून से किसानों को सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को वापस नहीं लिया तो आने वाले वक्त में उन्हें उनकी उपज के ओने पौने दाम मिला करेंगे.खेती की लागत भी नहीं निकल पाएगी. जो फसल में लागत लगती है वह भी नहीं निकल पाएगी तो किसान की हालत और भी ज्यादा ख़राब हो जाएगी. इसके साथ ही किसानों को यह भी आशंका है कि जो एमएसपी होती है मिनिमम सपोर्ट प्राइस वह भी आगे जाकर खत्म हो जाएगी, अगर यह कानून लागू रहा तो. जून महीने में इस बिल को अध्यादेश लाया गया था और संसद के मानसून सत्र में इसे ध्वनिमत से पारित कर दिया गया.जबकि विपक्षी पार्टियां इस कानून के खिलाफ थी और सबसे बड़ी बात हमारी माननीय मंत्री इस कानून के सपोर्ट में थी. जो की उसी पंजाब से हैं और जब यह कानून लागू हो गया तो इसके विरोध में हो गई.
द फार्मर प्रोड्यूस ट्रेड एंड कामर्स उनके मुताबिक 2020 कानून के मुताबिक किसान अपनी उपज एपीएमसी मार्केट कमेटी की ओर से अधिसूचित मंडियों से बाहर बिना दूसरे राज्य का टैक्स दे सकते हैं .
दूसरा कानून है फार्मर एंपावरमेंट एंड प्रोटक्शन इंश्योरेंस एंड सर्विस कानून 2020 इसके अनुसार किसान अनुबंध वाली खेती कर सकते हैं और सीधे उसकी मार्केटिंग कर सकते हैं यानी फसल के बोने से पहले आपका कॉन्ट्रैक्ट हो जाएगा जिससे आपकी फसल की जो कीमत लगने वाली है वह पहले से ही फिक्स हो जाएगी तो आपको नुकसान होने की गुंजाइश बहुत कम होती है.
तीसरा कानून है इसेंसियल कमोडिटी अमेंडमेंट कानून 2020 इसमें उत्पादन स्टोरेज के अलावा अनाज दाल खाने का तेल प्याज की बिक्री को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण मुक्त कर दिया गया है आपात स्थितियां होती हैं असाधारण परिस्थितियां वह होती हैं अगर देश में युद्ध का माहौल है और कोई प्राकृतिक आपदा पड़ी हुई है. जैसे अभी कोरोनावायरस महामारी है. कोरोनावायरस में सरकार ने लोगों को स्टॉक करने से रोका है इसमें अगर युद्ध नहीं है और कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है तो आप स्टोर कर सकते हैं अदर वाइज आप स्टोर तो नहीं कर सकते. इसके साथ ही कृषि बाजार प्रोसेसिंग और आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा किसानों को नई चिंता है. क्या किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएचपी मिलेगा? एमएसपी किसानों के विरोध प्रदर्शन में सबसे बड़ा दर्द उभर कर आया है. वह यह है कि ऐसा ना हो कि जो सरकार MSP देती है उसकी कोई वैल्यू ही ना रहे. वह निष्प्रभावी हो जाए. मेरे विचार से एमएसपी सरकार कुछ भी दे दे और उस पर खरीद न करें तो उस एमएसपी का क्या ही होगा? सरकार हर फसल की एक एमएसपी तय करती है. जिस पर खरीदने की व्यवस्था भी सरकारी करती है कि इस एमएसपी रेट पर हम फसल खरीदेंगे. एमएसपी और एमआरपी में डिफरेंस होता है ऐसी होती है जो मिनिमम सपोर्ट प्राइस होता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य और रिटेल प्राइस किसानों को मिनिमम सपोर्ट मिलता है कि कम से कम इतना तो देना ही चाहिए. यह भी गवर्नमेंट का एहसान होता है की MSP तो दे दिया खरीद बस पंजाब और हरियाणा में कराती है. सरकार 23 फसलों का एमएसपी करती है बड़ी मात्रा में धान गेहूं और कुछ खास दालें ही खरीदती है
साल 2015 में शांता कुमार कमेटी ने नेशनल सैंपल सर्वे का जो डाटा इस्तेमाल किया था उसके मुताबिक केवल 6 फ़ीसदी किसान ही एमएसपी की दर पर अपनी उपज बेच पाते हैं केंद्र सरकार के इन तीनों ने कानूनों से एमएसपी सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होती हम एसपी से अधिसूचित सरकारी खरीद केंद्र पंजाब हरियाणा और कुछ अन्य राज्यों में हैं मैं उत्तर प्रदेश से बिलोंग करता हूं मेरे यहां भी एमएसपी फिक्स तो होती है लेकिन खरीद शादी होती है सरकार के अलग रोने होते हैं बारदाना ही नहीं है गोदाम में जगह ही नहीं है खरीदे कहां से तो एमएसजी मिली नहीं पाती खैर बाकी पंजाब हरियाणा महाराष्ट्र इन में शायद मिलती हो उसका मुझे अंदाजा नहीं है किसानों को डर है कि एमएसपी के बाहर टैक्स मुक्त कारोबार के कारण सरकारी खरीद प्रभावित होगी और धीरे-धीरे यह व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी यानी ऐसा ना हो कि कल को बोल दिया जाए कि आपका माल कहीं भेजा जा सकता है एमएसपी की जरूरत ही नहीं है किसानों का सबसे बड़ा डर यही है और किसानों की मांग है कि एमएसपी को सरकारी मंडी से लेकर प्राइवेट मंडी तक अनिवार्य बनाया जाए ताकि सभी तरह के खरीदार चाहे वह सरकारी हो या नीचे से नीचे खरीद पाए जैसे अभी पंजाब ने एक कानून पास किया है कि 80 से नीचे खरीदना कानूनी जुर्म होगा सेम कानून हरियाणा सॉरी राजस्थान सरकार ने भी किया है उसके लिए भी कुछ हाथ बंधे होते हैं सरकारों के देखते हैं अभी कितना वह कानून बन पाता है या नहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य की जरूरत क्या है सरकार जो ऊपर खरीदती है सबसे बड़ा हिस्सा पंजाब और हरियाणा से आता है पिछले 5 साल का आंकड़ा देखें तो सरकार द्वारा चाहे गेहूं हो या चावल सबसे ज्यादा खरीद पंजाब और हरियाणा से हुई है इस पर भारत सरकार खर्च करती है इसे दुनिया के सबसे महंगे सरकारी खरीद कार्यक्रमों में से एक माना गया है खेती की लागत की घटना करने के बाद राज्य सरकार द्वारा संचालित कृषि लागत और मूल्य आयोग acp1 बेंच मार्क सेट करने के लिए 22 से अधिक फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करता है
सरकार एमएसपीटी फसलों पर देती है लेकिन सरकार जो खरीदती है वह गेहूं और धान खरीदती है जिसको बाद में एफसीआई गोदाम में रखा जाता है वहां से सरकार राशन के द्वारा गरीबों में बैठ जाती है किसान को एक सपोर्ट प्राइस मिलता है लेकिन सरकार का इसमें बहुत नुकसान होता है कई बार क्या होता है इससे किसान गेहूं और धान ही ज्यादा करता है और उसको रखने के लिए भी गोदामों में जगह नहीं मिल पाती भंडारण की बहुत बड़ी समस्या हमारे देश में बनी हुई है यह भी एक बहुत बड़ा कारण है सरकार के लिए जो बजट घाटा बनता है सरकार जितना निर्यात कर सकती है करती है लेकिन फिर भी एफसीआई के गोदामों में नई फसल आने के समय पर भी अन्य रखने की जगह नहीं होती एफसीआई मॉडल से किसानों को कीमत की जो गारंटी मिलती है उससे सबसे ज्यादा फायदा पंजाब और हरियाणा के बड़े किसानों को होता है जबकि बिहार उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के छोटे किसानों को इसका फायदा नहीं होता पंजाब और हरियाणा के संपन्न किसानों को देखकर लोगों की माइंडसेट बनता है कि किसान बहुत पैसे वाले होते हैं जबकि अन्य राज्यों में स्थितियां इससे बहुत ही विपरीत है आप देखो कितनी न्यूज़ आप देखते होगे की किसान ने आत्महत्या कर ली ऐसे ही तो कोई आत्महत्या नहीं करता ना किसानों का जीवन स्तर बहुत ही निम्न है इस को संभालने के लिए सरकारों को बहुत काम करना पड़ेगा और मोदी सरकार ने प्लान भी किया है कि किसानों की आय दोगुनी कैसे की जाए अभी तक तो लग नहीं रहा आगे देखते हैं
आखिर पंजाब और हरियाणा के किसान ही क्यों इतने आक्रामक हैं इन कानूनों का असर तो पूरे देश में पड़ने वाला है चाहे वह अच्छा हो या बुरा यह वक्त बताएगा उसका कारण है पंजाब में होने वाले 85% गेहूं चावल और हरियाणा के करीब 75% गेहूं चावल खरीदें जाते हैं इसी वजह से इन राज्यों के किसानों को डर है कि कहीं एमएसपी व्यवस्था खत्म हुई तो उनकी भी हालत यूपी-बिहार एमपी जैसे किसानों की हो जाएगी क्योंकि वहां एमएसपी की खरीद होती ही नहीं है और होती भी है तो बहुत कम होती है पूरे देश में 6% किसान ऐसे हैं जिनको एमएसपी का फायदा मिलता है और 95 परसेंट कह सकते हो किसान हरियाणा और पंजाब से हैं और इन्हीं राज्यों में एपीएमसी सबसे ज्यादा निवेश किया गया है और राज्य में सबसे ज्यादा इनका बहुत बढ़िया नेटवर्क बना हुआ है यह एक व्यवस्थित सिस्टम है जिसके जरिए किसान अपनी फसल बेचते हैं लेकिन किसानों का डर है कि नए कानूनों का इस पर असर पड़ेगा हर साल पंजाब और हरियाणा के किसान अच्छी तरह से विकसित मंडी व्यवस्था के जरिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर एफसीआई को अपनी पूरी पाते हैं और अन्य राज्य ऐसा नहीं कर पाते क्योंकि वहां इस तरह की व्यवस्था है ही नहीं इसके अलावा बिहार के गरीब किसानों को प्रभावशाली किसान समुदाय यह सुनिश्चित करता है कि उनके राज्यों से ही चावल और गेहूं की सबसे बड़ी मात्रा में खरीद जारी रखें यानी पंजाब और हरियाणा के किसान इतने पावरफुल हैं राजनैतिक और अप्रोचेबल अपनी तरह से मंडी को चलाते हैं और वही बात करें आप उत्तर प्रदेश की बिहार की किसानों को तो अपना बाहर प्राइवेट बाजार में बेचना पड़ता है आज भी 1925 की एमएसपी है गेहूं की
आप यूपी और बिहार में 14:00 सौ से लेकर 15 सो रुपए क्विंटल के हिसाब से कितना भी गेहूं खरीद लो जबकि एमएसपी तो 1925 की है लेकिन उसमें कोई खरीद नहीं रहा है उनको तो 20 30 40 परसेंट तक डाउन रेट पर बेचना पड़ता है जब एमएसपी का उन्हें कोई लाभ ही नहीं मिलता है यूपी-बिहार राजस्थान इसके किसानों ने कोई विरोध नहीं किया और हकीकत तो यह है कि किसानों को इस कानून के बारे में पता ही नहीं है न बीजेपी सरकार के किसी मंत्री ने किसानों को समझाने की जहमत उठाई और ना ही किसी विपक्ष ने किसानों को इस कानून के नुकसान के नए विरोध करने के लिए हरियाणा और पंजाब हैं यूपी के भी कुछ किसानों में हैं जो विरोध पर हैं लेकिन ना तो विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी निभाई और सत्तापक्ष ने तो किसान को कुछ समझा ही नहीं किसानों की अन्य चिंताएं राज्य सरकारें मंडी टैक्स में गिरावट की संभावना को लेकर चिंतित हैं गैर बीजेपी शासित प्रदेशों ने खुलकर कहा है कि इन कानूनों से उन्हें टैक्स का घाटा होगा भारत के विभिन्न राज्यों में मंडी टैक्स 1 से लेकर 8 पॉइंट 5 तक है जो राज्य सरकारों के खाते में जाता है आर्थिक मामलों के जानकार और कृषि विशेषज्ञ कहते हैं कि पंजाब और राजस्थान से संबंधित कानून लाने पर भी विचार कर रहे हैं वह पहले ही ला चुके भारत में 7000 एपीएमसी मार्केट हैं और कृषि उत्पादन के अधिकांश खरीदी होती है खरीद मंडी के बाहर ही होती है
जब MSP पर खरीदना ही नहीं है तो MSP कितना भी हो क्या फर्क पड़ता है. MSP पर सबसे ज्यादा खरीद पंजाब और हरयाणा में होती है तो वही किसान ज्यादा आक्रामक है इस कानून को लेकर. किसान अपनी जिद पर है और सर्कार अपनी जिद पर. देखना है की इसका क्या रिजल्ट आता है.किसान की हालत सुधारने के प्रयास सर्कार को करने चाहिए