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कीट नियंत्रण

मसूर की फसल में रोग एवं कीट नियंत्रण की जानकारी

मसूर की फसल में रोग एवं कीट नियंत्रण की जानकारी

मसूर एक ऐसी दलहनी फसल है, जिसकी खेती भारत के लगभग सभी राज्यों में की जाती है । मसूर दोमट एवं भारी मिट्टी में होने वाली दलहनी फसल है। इसे बरसात के दिनों में संरक्षित नमी में ही किया जा सकता है। इसकी बिजाई मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर तक की जा सकती है। चावल के साथ अरहर के बाद प्रयोग में लाई जाने वाली यह प्रमुख दलहन है।  मसूर की में मेहनत व लागत दोनों कम लगती हैं। इसकी खेती धान के खाली पड़े खेतों या परती जमीन में भी की जा सकती है। राजस्थान में बाजारा की कटाई के बाद इसकी फसल लगाई जाती है। मसूर की खेती के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 बार जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए। अगर रोटावेटर या पावर हैरो से जुताई की जा रही है, तो 1 बार जुताई करना ही काफी होता है।  मसूर की समय से बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 40-60 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। बोआई समय से न करने की हालत में 65-80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है। बीज को खेत में बोने से पहले उपचारित किया जाना जरूरी होता है। मसूर बीज का उपचार राइजोबियम कल्चर से किया जाना ज्यादा सही होता है। 10 किलोग्राम बीज के उपचार के लिए 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर की जरूरत पड़ती है। किसी खेत में मसूर की खेती पहली बार की जा रही हो, तो बीजोपचार से पहले बीज का रासायनिक उपचार भी किया जाना चाहिए। चूंकि मसूर की जड़ों में राइजोबियम गांठें होती हैं, इसलिए इस की फसल में ज्यादा उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर सामान्य तरीके से खाली खेत में मसूर की बोआई की जा रही हो, तो प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिए। अगर धान की कटाई के बाद खेत में मसूर की बोआई करनी है, तो 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से टापड्रेसिंग करना चाहिए। इसके बाद 30 किलोग्राम फास्फोरस का छिड़काव 2 बार फूल आने पर व फलियां बनते समय करना चाहिए। ये भी पढ़े: घर पर करें बीजों का उपचार, सस्ती तकनीक से कमाएं अच्छा मुनाफा मसूर की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर बोआई के समय नमी न हो तो फली बनते समय सिंचाई करनी चाहिए। इससे पहले फूल आने पर भी सिंचाई जरूरी होती है। मसूर की बोआई के 20-25 दिनों बाद खरपतवार निकाल देने चाहिए।

मसूर की फसल में रोग

masoor ki kheti मसूर की बोआई से पहले उस के बीज को 2.5 ग्राम थीरम या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा या 1 ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति किलोग्राम की बीज की दर से उपचारित करने पर बीमारियां लगने का खतरा काफी कम हो जाता है। फिर भी मसूर की फसल में अक्सर उकठा, गेरुई गलन रोग, ग्रीवा गलन व मूल विगलन रोग का असर दिखाई पड़ता है। ये भी पढ़े: अचानक कीट संक्रमण से 42 प्रतिशत आम की फसल हुई बर्बाद अगर खेत में उकठा या गेरुई रोग का प्रकोप हो तो मसूर की रोग प्रतिरोधी प्रजातियों जैसे नरेंद्र मसूर 1 जिसके पकने की अवधि 140 दिन व उत्पादन 22 कुंतल प्रति हैक्टेयर, पंत मसूर 4, पंत मसूर 5, डीपीएल 15, एल 4076, पूसा वैभव, के 75, एचयूएल 57, केएलएस 218, आईपीएल 406, शेखर 2 और 3, प्रिया, वैभव जैसी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए। अगर ग्रीवा गलन या मूल विगलन जैसे रोगों से फसल को बचाना है तो बीज का फफूंदनाशक से उपचार आवश्यक है। भूमि शोधन के लिए ट्राईकोडर्मा को गोबर की खाद में मिलाकार एक हफ्ते बाद खेत में डालें। खेत की गर्मी की गहरी जुताई करें। साथ ही जिस खेत में पिछले सालों में मसूरी की फसल ली गई है उसमें फसल न लगाएं। अन्यथा पूर्व का संक्रमण भी प्रभावी हो सकता है।

मसूर की फसल में कीट नियंत्रण

mahu keet podhe माहू कीट पौधे के कोमल भागों का रस चूस कर पौधे का विकास रोकता हैैै। वहीं फलीछेदक कीट फली के दानों को खा कर उत्पादन घटाता है। ऐसे में मिथाइल ओ डिमटोन 25 र्इ्सी की एक लीटर मात्रा, क्यूनालफास की 1 लीटर मात्रा या मेलाथियान 50 र्इ्सी की दो लीटर मात्रा का प्रति हैक्टेयर उचित पानी में मिलाकार ​छिड़काव करें। छिड़काव तीनों में से किसी एक दवा का करना है।

कटाई व भंडारण

  masur fali मसूर की फलियां जब सूख कर भूरे रंग की हो जाएं, तो फसल की कटाई कर के उस में अल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति मीट्रिक टन के हिसाब से डाल कर भंडारित करें।
जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट नियंत्रण के नुस्खों को अपना कर आप अपनी कृषि लागत को कम कर सकते है

जैविक पध्दति द्वारा जैविक कीट नियंत्रण के नुस्खों को अपना कर आप अपनी कृषि लागत को कम कर सकते है

जैविक कीट एवं व्याधि नियंजक के नुस्खे विभिन्न कृषकों के अनुभव के आधार पर तैयार कर प्रयोग किये गये हैं, जो कि इस प्रकार हैं-

गौ-मूत्र

गौमूत्र, कांच की शीशी में भरकर धूप में रख सकते हैं। जितना पुराना गौमूत्र होगा उतना अधिक असरकारी होगा। 12-15 मि.मी. गौमूत्र प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रेयर पंप से फसलों में बुआई के 15 दिन बाद, प्रत्येक 10 दिवस में छिड़काव करने से फसलों में रोग एवं कीड़ों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है जिससे प्रकोप की संभावना कम रहती है। ये भी देखें:
गौमूत्र से बना ब्रम्हास्त्र और जीवामृत बढ़ा रहा फसल पैदावार

नीम के उत्पाद

नीम भारतीय मूल का पौघा है, जिसे समूल ही वैद्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। इससे मनुष्य के लिए उपयोगी औषधियां तैयार की जाती हैं तथा इसके उत्पाद फसल संरक्षण के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं। नीम पत्ती का घोल नीम की 10-12 किलो पत्तियॉ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोंयें। पानी हरा पीला होने पर इसे छानकर, एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करने से इल्ली की रोकथाम होती है। इस औषधि की तीव्रता को बढ़ाने हेतु बेसरम, धतूरा, तम्बाकू आदि के पत्तों को मिलाकर काड़ा बनाने से औषधि की तीव्रता बढ़ जाती है और यह दवा कई प्रकार के कीड़ों को नष्ट करने में यह दवा उपयोगी सिध्द है। नीम की निबोली नीम की निबोली 2 किलो लेकर महीन पीस लें इसमें 2 लीटर ताजा गौ मूत्र मिला लें। इसमें 10 किलो छांछ मिलाकर 4 दिन रखें और 200 लीटर पानी मिलाकर खेतों में फसल पर छिड़काव करें। नीम की खली जमीन में दीमक तथा व्हाइट ग्रब एवं अन्य कीटों की इल्लियॉ तथा प्यूपा को नष्ट करने तथा भूमि जनित रोग विल्ट आदि के रोकथाम के लिये किया जा सकता है। 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से अंतिम बखरनी करते समय कूटकर बारीक खेम में मिलावें।

आइपोमिया पत्ती घोल

आइपोमिया की 10-12 किलो पत्तियॉ, 200 लीटर पानी में 4 दिन तक भिगोंये। पत्तियों का अर्क उतरने पर इसे छानकर एक एकड़ की फसल पर छिड़काव करें इससे कीटों का नियंत्रण होता है।

मटठा

मट्ठा, छाछ, मही आदि नाम से जाना जाने वाला तत्व मनुष्य को अनेक प्रकार से गुणकारी है और इसका उपयोग फसलों मे कीट व्याधि के उपचार के लिये लाभप्रद हैं। मिर्ची, टमाटर आदि जिन फसलों में चुर्रामुर्रा या कुकड़ा रोग आता है, उसके रोकथाम हेतु एक मटके में छाछ डाकर उसका मुॅह पोलीथिन से बांध दे एवं 30-45 दिन तक उसे मिट्टी में गाड़ दें। इसके पश्चात् छिड़काव करने से कीट एवं रोगों से बचत होती । 100-150 मि.ली. छाछ 15 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से कीट-व्याधि का नियंत्रण होता है। यह उपचार सस्ता, सुलभ, लाभकारी होने से कृषकों मे लोकप्रिय है।

मिर्च/लहसुन

आधा किलो हरी मिर्च, आधा किलो लहसुन पीसकर चटनी बनाकर पानी में घोल बनायें इसे छानकर 100 लीटर पानी में घोलकर, फसल पर छिड़काव करें। 100 ग्राम साबुन पावडर भी मिलावे। जिससे पौधों पर घोल चिपक सके। इसके छिड़काव करने से कीटों का नियंत्रण होता है। ये भी देखें: कीटनाशक दवाएं महंगी, मजबूरी में वाशिंग पाउडर छिड़काव कर रहे किसान

लकड़ी की राख

1 किलो राख में 10 मि.ली. मिट्टी का तेल डालकर पाउडर का छिड़काव 25 किलो प्रति हेक्टर की दर से करने पर एफिड्स एवं पंपकिन बीटल का नियंत्रण हो जाता है ।

ट्राईकोडर्मा

ट्राईकोडर्मा एक ऐसा जैविक फफूंद नाशक है जो पौधों में मृदा एवं बीज जनित बीमारियों को नियंत्रित करता है।
बीजोपचार में 5-6 ग्राम प्रति किलोगाम बीज की दर से उपयोग किया जाता है। मृदा उपचार में 1 किलोग्राम ट्राईकोडर्मा को 100 किलोग्राम अच्छी सड़ी हुई खाद में मिलाकर अंतिम बखरनी के समय प्रयोग करें। कटिंग व जड़ उपचार- 200 ग्राम ट्राईकोडर्मा को 15-20 लीटर पानी में मिलाये और इस घोल में 10 मिनिट तक रोपण करने वाले पौधों की जड़ों एवं कटिंग को उपचारित करें। 3 ग्राम ट्राईकोडर्मा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 10-15 दिन के अंतर पर खड़ी फसल पर 3-4 बार छिड़काव करने से वायुजनित रोग का नियंत्रण होता है।
मूंग की खेती में लगने वाले रोग एवं इस प्रकार से करें उनका प्रबंधन

मूंग की खेती में लगने वाले रोग एवं इस प्रकार से करें उनका प्रबंधन

इन दिनों देश में जायद मूंग की बुवाई चल रही है। कुछ दिनों में ही यह ग्रीष्मकालीन मूंग खेतों में लहलहाने लगेगी। पौधों के बढ़ने के साथ ही मूंग की खेती में कई प्रकार के रोग लगना प्रारंभ हो जाते हैं जिनके कारण फसल बुरी तरह से प्रभावित होती है। इसलिए आज हम आपको बताने जा रहे हैं  मूंग की फसल में लगने वाले रोगों के बारे में। साथ ही रोगों का प्रबंधन किस प्रकार से किया जाए ताकि फसल को नुकसान न हो, इसके बारे में भी जानकारी दी जाएगी।

पीला मोज़ेक रोग

यह मूंग की फसल में लगने वाला विषाणु जनित रोग है, जो तेजी से फैलता है। यह सबसे ज्यादा सफेद मक्खियों के कारण फैलता है। इसकी वजह से फसल कई बार पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। जब पौधों में इसका अटैक होता है तो पत्तियों में पीले धब्बे पड़ जाते हैं। कुछ समय बाद पत्तियां पूरी तरह से पीली होकर सूख जाती हैं। जिन पेड़ों में इसका ज्यादा असर होता है उनमें फलियों और बीजों पर भी पीले धब्बे दिखाई देते हैं। ये भी पढ़े: फायदे का सौदा है मूंग की खेती, जानिए बुवाई करने का सही तरीका

इस प्रकार से पाएं इस रोग से छुटाकारा

इस रोग से निपटने के लिए बुवाई एक समय ऐसी किस्मों का चयन करें जिनमें इस रोग का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए बुवाई के लिए मूंग की टी.जे.एम.-3, के-851, पंत मूंग -2, पूसा विशाल, एच.यू.एम. -1 जैसी किस्मों को ले सकते हैं। इसके अलावा यदि प्रारम्भिक अवस्था में ही रोग लगना शुरू हो गया है तो पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें। साथ ही बाजार में उपलब्ध कीटनाशकों का प्रयोग भी कर सकतें हैं।

श्याम वर्ण रोग

यह एक खतरनाक रोग है जिसके कारण उत्पादन में 25 से लेकर 60 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। अगर आसमान में बादल छाए हुए है तो फसल में यह रोग आसानी से लग सकता है। इस रोग के कारण पेड़ की पत्तियों में गंभीर धब्बे दिखाई देते हैं। इससे पत्तियों में छेद हो जाते हैं और अंततः पत्तियां झड़ जाती हैं। पेड़ों के तनों पर गहरे और गंभीर घाव बन जाते है और अंततः नए पौधे मर जाते हैं। ये भी पढ़े: चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

इस प्रकार से करें इस रोग का प्रबंधन

पेड़ों में लक्षण दिखाई देने पर 15 दिनों के अंतराल पर जिऩेब या थीरम का छिडक़ाव करें। इसके पहले बुवाई के पहले भी बीजों को उपचारित करें, इसके उपरांत बुवाई करें। साथ ही कार्बेन्डाजिम या मेनकोजेब का छिड़काव भी इस रोग को जल्द ही खत्म कर देता है।

चूर्णी फफूंद रोग

यह वायु द्वारा परपोषी पौधों के द्वारा फैलने वाला रोग है जो गर्मी और शुष्क वातावरण में फैलता है। अपनी उग्र अवस्था में यह रोग फसल का 21% हिस्सा नष्ट कर सकता है। इस रोग के कारण मूंग के पौधों की पत्तियों ने निचले हिस्सों में गहरे रंग के धब्बे प्रकट होते हैं। इसके साथ ही छोटी-छोटी बिंदियां भी दिखाई देने लगती हैं। समय के साथ ही इन बिंदियों और धब्बों का आकार बढ़ने लगता है और यह रोग पत्तियों के साथ पौधों के तनों पर भी फैल जाता है। इससे अंततः पौधे पूरी तरह से सूख जाते हैं। ये भी पढ़े: मध्य प्रदेेश में एमएसपी (MSP) पर 8 अगस्त से इन जिलों में शुरू होगी मूंग, उड़द की खरीद

इस प्रकार से करें चूर्णी फफूंद रोग का प्रबंधन

फसल में इस रोग से निपटने के लिए  कवकनाशी जैसे कार्बेन्डाजिम या केराथेन के घोल का छिड़काव कर सकते हैं। इनका छिड़काव रोग के लक्षण दिखते ही शुरू कर दें। इसके बाद 15-20 दिन के अंतराल में इनका छिड़काव करते रहें।

सर्कोस्पोरा पर्णदाग रोग

यह एक कवक रोग है जो मूंग की फसल में बरसात के मौसम में तथा शुष्क मौसम में फैलता है। गर्म तापमान, लगातार वर्षा, और उच्च आर्द्रता के कारण यह रोग मूंग के पौधे को अपनी जद में ले लेता है। इस रोग के कारण आमतौर पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं जो लाल बाहरी किनारों से घिरे होते हैं। जब यह रोग फसल में ज्यादा फैल जाता है तो मूंग के पेड़ों की शाखाओं और तने पर भी धब्बे दिखाई देते हैं।

सर्कोस्पोरा पर्णदाग रोग का प्रबंधन

संक्रमित फसल अवशेषों को नष्ट करने के साथ ही खेत की सफाई से यह रोग नियंत्रित होता है। बुवाई से पहले कवकनाशी कैप्टान या थीरम से बीज को उपचारित कर लें। इसके साथ ही मेन्कोजेब 75 डब्ल्यू. पी. और कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. के घोल का छिड़काव करने से भी इस रोग के प्रसार में नियंत्रण पाया जा सकता है।

लीफ कर्ल

यह एक विषाणु जनित रोग है जो मक्खियों के कारण या बीजों के कारण फैलता है। इस रोग के कारण पौधे की पत्तियों में झुर्रियां आने लगती हैं। इसके साथ ही पत्तियां जरूरत से ज्यादा बड़ी होने लगती हैं। इससे पौधे का विकास रुक जाता है और पौधे में नाम मात्र की फलियां आती है। बुवाई के 4 से 5 सप्ताह के भीतर ही पौधों में ये लक्षण दिखाई देने लग जाते हैं। इस रोग से संक्रमित पौधों को खेत में दूर से ही पहचाना जा सकता है। ये भी पढ़े: इस राज्य के किसान फसल पर हुए फफूंद संक्रमण से बेहद चिंतित सरकार से मांगी आर्थिक सहायता

लीफ कर्ल रोग का प्रबंधन

इस रोग को नियंत्रित करने के लिए बुवाई से पहले बीज को इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करना चाहिए। इसके साथ ही बुवाई के 15 दिनों के बाद इमिडाक्लोप्रिड को पानी में घोलकर छिड़काव भी करना चाहिए। इससे लीफ कर्ल रोग को फसल पर प्रकोप कम हो सकता है।
जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

जानिए कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में क्या-क्या अंतर होते हैं

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि कीट नियंत्रण एक उपचार है। लेकिन कीट प्रबंधन कीट संक्रमण से पूर्व ही किया जा सकता है। इस लेख में हमने कीट नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन के मध्य अंतराल को विस्तृत रूप से बताया है। खेती-बाड़ी में आम तौर पर दो शब्द कीट नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन सुनने को मिलता है। परंतु, क्या आपको पता है, कि इन दोनों में कोई खास ज्यादा अंतर नहीं होता है। कीट से जुड़े इन दोनों ही शब्दों का अर्थ काफी बड़ा होता है। क्योंकि इनके इस्तेमाल से आपकी फसल एवं कृषि क्षेत्र पर भी इसका असर पड़ता है। अब ऐसी स्थिति में हम आपके लिए इन दोनों में अंतराल समेत इनके महत्व के संदर्भ में जानकारी देने वाले हैं।

कीट नियंत्रण क्या होता है

कीट नियंत्रण कीट में शामिल किस्मों का प्रबंधन है। यह खेत में उपस्थित अवांछित कीड़ों को कम करने, प्रबंधित करने और नियंत्रित करने व हटाने की प्रक्रिया है। कीट नियंत्रण के दृष्टिकोण में एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) शम्मिलित हो सकता है। खेती किसानी में कीटों को सांस्कृतिक, जैविक, रासायनिक और यांत्रिक तरीकों से संरक्षण किया जाता है। बिजाई से पूर्व खेत की जुताई एवं मिट्टी की जुताई करने से कीटों का भार घटता है। वहीं, फसल चक्रण से निरंतर होने वाले कीट प्रकोप को कम करने में काफी सहयोग मिलता है। कीट नियंत्रण तकनीक में फसलों का निरीक्षण, कीटनाशकों का इस्तेमाल एवं सफाई जैसी विभिन्न चीजें शम्मिलित हैं।

आखिर कीट नियंत्रण का महत्व क्या होता है

मानव स्वास्थ्य का संरक्षण: यह मच्छरों, टिक्स एवं कृन्तकों जैसे कीटों द्वारा होने वाली बीमारियों के प्रकोप को कम कर मानव स्वास्थ्य की रक्षा करने में सहयोग करता है। संपत्ति का संरक्षण: कीटों को नियंत्रित करके फसलों, संरचनाओं एवं संग्रहीत उत्पादों को क्षति से बचाता है। संपत्ति को संक्रमण से जुड़े विनाश से बचाता है। खाद्य सुरक्षा: कृषि प्रणाली में फसल पैदावार को बनाए रखना एवं भोजन की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कीट नियंत्रण उपाय जरूरी है। आर्थिक प्रभाव: प्रभावी कीट नियंत्रण क्षतिग्रस्त फसलों एवं संपत्ति के नुकसान की वजह से होने वाली वित्तीय हानियों को रोक सकता है।

कीट प्रबंधन होता क्या है

कीट प्रबंधन को अवांछित कीटों का खात्मा करने एवं हटाने की एक विधि के तौर पर परिभाषित किया गया है, जिसमें रासायनिक उपचारों का इस्तेमाल शम्मिलित हो सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है। प्रभावी कीट प्रबंधन का उद्देश्य कीटों की तादात को एक सीमा तक कम करना है।

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कीट प्रबंधन का महत्व क्या होता है

रसायनों पर कम निर्भरता: यह जैविक नियंत्रण एवं सांस्कृतिक प्रथाओं जैसे वैकल्पिक तरीकों के इस्तेमाल पर बल देता है। रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करने के साथ उनके संभावित नकारात्मक प्रभावों को भी कम करता है। पर्यावरणीय स्थिरता: कीट प्रबंधन पारिस्थितिक संतुलन बरकरार रखने एवं स्थिरता को प्रोत्साहन देने की कोशिश करता है। एकीकृत कीट प्रबंधन: कीट प्रबंधन में निगरानी, ​​निवारक उपाय एवं जरूरत पड़ने पर कीटनाशकों का लक्षित इस्तेमाल शम्मिलित है, जिससे ज्यादा प्रभावशाली एवं टिकाऊ कीट नियंत्रण होता है। दीर्घकालिक रोकथाम: कीट प्रबंधन का उद्देश्य कीट संबंधित परेशानियों की मूल वजहों को दूर करना है। साथ ही, आने वाले समय में होने वाले संक्रमण को न्यूनतम करने के लिए निवारक उपायों को इस्तेमाल करना है, जिससे निरंतर एवं गहन कीट नियंत्रण उपचार की जरूरतें कम हो जाती हैं।

कीट नियंत्रण और कीट प्रबंधन में फर्क बताने हेतु निम्नलिखित बिंदु

लक्ष्य के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कई सारे तरीकों से कीटों का खत्मा करना अथवा नियंत्रित करना कीट प्रबंधन- पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य को होने वाली हानि को कम करते हुए अथवा उनकों ध्यान में रखते हुए कीटों की रोकथाम करना

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दृष्टिकोण के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कीटों के तत्काल उन्मूलन पर ध्यान केंद्रित करना कीट प्रबंधन- लम्बे समय तक नियंत्रण एवं रोकथाम रणनीतियों पर बल देना

तरीकों के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- कीटनाशकों पर काफी ज्यादा निर्भरता कीट प्रबंधन- जैविक नियंत्रण, सांस्कृतिक प्रथाओं एवं रासायनिक नियंत्रण समेत कई सारी तकनीकों का उपयोग करना

दायरे के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- विशेष रूप से वर्तमान में कीट संक्रमणों को कम करना अथवा उनका खत्मा करना कीट प्रबंधन- वर्तमान संक्रमण एवं भावी संभावित खतरों दोनों का खत्मा अथवा कम करना।

वहनीयता के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- पर्यावरण एवं गैर-लक्षित किस्मों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। कीट प्रबंधन- पारिस्थितिक संतुलन बरकरार रखने एवं स्थिरता को प्रोत्साहन देने की कोशिश करता है।

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एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- स्वाभाविक रूप से एक आईपीएम दृष्टिकोण नहीं है। कीट प्रबंधन- आम तौर पर सभी उपलब्ध कीट प्रबंधन तकनीकों पर विचार करते हुए आईपीएम के सिद्धांतों का पालन करता है।

पारिस्थितिकी तंत्र के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- समस्त पारिस्थितिकी तंत्र के लिए कम विचार कीट प्रबंधन- पारिस्थितिक संदर्भ एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर कीट प्रबंधन क्रियाओं के प्रभाव पर विचार करना

निगरानी के आधार पर अंतर

कीट नियंत्रण- सीमित निगरानी या कुछ निगरानी प्रणाली पर ध्यान कीट प्रबंधन- कीटों का पता लगाने और प्रबंधन रणनीतियों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए निरंतर निगरानी और नियमित निरीक्षण पर निर्भरता।
येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

येलो मोजेक वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पपीते की खेती को भारी नुकसान

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। यहां लगभग 3000 हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बाग इस वायरस की चपेट में हैं। इसकी वजह से किसानों का परिश्रम और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो गई है। किसानों ने सरकार से मांगा मुआवजा। सोयाबीन की खेती को बर्बाद करने के पश्चात फिलहाल येलो मोजेक वायरस का प्रकोप पपीते की खेती पर देखने को मिल रहा है। इसकी वजह से पपीता की खेती करने वाले किसान काफी संकट में हैं। इस वायरस ने एकमात्र नंदुरबार जनपद में 3 हजार हेक्टेयर से ज्यादा रकबे में पपीते के बागों को प्रभावित किया है, इससे किसानों की मेहनत और लाखों रुपये की लागत बर्बाद हो चुकी है। महाराष्ट्र के विभिन्न जिलों में देखा जा रहा है, कि मोजेक वायरस ने सोयाबीन के बाद पपीते की फसल को बर्बाद किया है, जिनमें नंदुरबार जिला भी शामिल है। जिले में पपीते के काफी बगीचे मोजेक वायरस की वजह से नष्ट होने के कगार पर हैं।

सरकार ने मोजेक वायरस से क्षतिग्रस्त सोयाबीन किसानों की मदद की थी

बतादें, कि जिस प्रकार राज्य सरकार ने मोजेक वायरस की वजह से सोयाबीन किसानों को हुए नुकसान के लिए सहायता देने का वादा किया था। वर्तमान में उसी प्रकार पपीता किसानों को भी सरकार से सहयोग की आशा है। महाराष्ट्र एक प्रमुख फल उत्पादक राज्य है। परंतु, उसकी खेती करने वालों की समस्याएं कम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं। इस वर्ष किसानों को अंगूर का कोई खास भाव नहीं मिला है। बांग्लादेश की नीतियों की वजह से एक्सपोर्ट प्रभावित होने से संतरे की कीमत गिर गई है। अब पपीते पर प्रकृति की मार पड़ रही है।

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पपीते की खेती में कौन-सी समस्या सामने आई है

पपीते पर लगने वाले विषाणुजनित रोगों की वजह से उसके पेड़ों की पत्तियां शीघ्र गिर जाती हैं। शीर्ष पर पत्तियां सिकुड़ जाती हैं, इस वजह से फल धूप से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। व्यापारी ऐसे फलों को नहीं खरीदने से इंकार कर देते हैं, जिले में 3000 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल में पपीता इस मोज़ेक वायरस से अत्यधिक प्रभावित पाया गया है। हालांकि, किसानों द्वारा इस पर नियंत्रण पाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के उपाय किए जा रहे हैं। परंतु, पपीते पर संकट दूर होता नहीं दिख रहा है। इसलिए किसानों की मांग है, कि जिले को सूखा घोषित कर सभी किसानों को तत्काल मदद देने की घोषणा की जाए।

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पपीता पर रिसर्च सेंटर स्थापना की आवश्यकता

नंदुरबार जिला महाराष्ट्र का सबसे बड़ा पपीता उत्पादक जिला माना जाता है। प्रत्येक वर्ष पपीते की फसल विभिन्न बीमारियों से प्रभावित होती है। परंतु, पपीते पर शोध करने के लिए राज्य में कोई पपीता अनुसंधान केंद्र नहीं है। इस वजह से केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह जरूरी है, कि वे नंदुरबार में पपीता अनुसंधान केंद्र शुरू करें और पपीते को प्रभावित करने वाली विभिन्न बीमारियों पर शोध करके उस पर नियंत्रण करें, जिससे किसानों की मेहनत बेकार न जाए।

येलो मोजेक रोग के क्या-क्या लक्षण हैं

येलो मोजेक रोग मुख्य तौर पर सोयाबीन में लगता है। इसकी वजह से पत्तियों की मुख्य शिराओं के पास पीले धब्बे पड़ जाते हैं। ये पीले धब्बे बिखरे हुए अवस्था में दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे पत्तियां बढ़ती हैं, उन पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। कभी-कभी भारी संक्रमण की वजह पत्तियां सिकुड़ और मुरझा जाती हैं। इसकी वजह से उत्पादन प्रभावित हो जाता है।

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येलो मोजेक रोग की रोकथाम का उपाय

कृषि विभाग ने येलो मोजेक रोग को पूरी तरह खत्म करने के लिए रोगग्रस्त पेड़ों को उखाड़कर जमीन में गाड़ने या नीला व पीला जाल लगाने का उपाय बताया है। इस रोग की वजह से उत्पादकता 30 से 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है। इसके चलते कृषि विभाग ने किसानों से समय रहते सावधानी बरतने की अपील की है।
आम, अमरूद ,लीची सहित अन्य फल के बागों में जाला बनाने वाले (लीफ वेबर) कीड़े को समय प्रबंधित नही किया गया तो होगा भारी नुकसान

आम, अमरूद ,लीची सहित अन्य फल के बागों में जाला बनाने वाले (लीफ वेबर) कीड़े को समय प्रबंधित नही किया गया तो होगा भारी नुकसान

Dr AK Singhडॉ एसके सिंह
प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी, प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार 
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विगत दो तीन सालों से वातावरण में भारी नमी की वजह से यह कीट एक मुख्य कीट के तौर पर उभर रहा है।इससे फल के बागों को भारी नुकसान पहुंच रहा है। सामान्यतः आम,अमरूद एवं लीची के पत्तों वाले वेबर (ओरथागा यूरोपड्रालिस) के कारण होता है। पहले यह कीट कम महत्त्व पूर्ण कीट माना जाता था, लेकिन विगत दो तीन वर्ष से यह कीट बिहार में एक प्रमुख कीट बन गया है। यह कीट वर्ष में जुलाई महीने से ही अति सक्रिय होता है और दिसंबर तक नुकसान पहुंचाता रहेगा। लीफ वेबर कीट पत्तियों पर अंडे देता है, जो एक सप्ताह के समय में हैचिंग पर एपिडर्मल सतह को काटकर पत्तियों को खाता है, जबकि दूसरे इंस्टा लार्वा पत्तियों को बंद करना शुरू कर देते हैं और पूरे पत्ते को खाते हैं जो मिडरिब और नसों को पीछे छोड़ते हैं। यह कीट उन बागों में ज्यादा देखने को मिलते है ,जो ठीक से प्रबंधित नही होते है।जिनमे कटाई छटाई नही होती है।

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रोग व कीटों से जुड़ी समस्त समस्याओं के हल हेतु हेल्पलाइन नंबर जारी हुआ आम, अमरूद और लीची में पत्ती वेबर कीटों के प्रबंधन के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जिसमें निवारक और उपचारात्मक दोनों उपाय शामिल होते हैं। लीफ वेबर आम कीट हैं जो इन फलों के पेड़ों की पत्तियों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे फलों की गुणवत्ता और उपज कम हो जाती है। लीफ वेबर कीट कीटों का एक समूह है जो विभिन्न परिवारों से संबंधित हैं, जिनमें पाइरालिडे और क्रैम्बिडे परिवार शामिल हैं। वे फलों के पेड़ों की पत्तियों पर जाल जैसी संरचना बनाने की अपनी आदत के लिए कुख्यात हैं, जिससे आश्रय के भीतर पत्ती के ऊतकों की खपत होती है। इन कीड़ों के लार्वा मुख्य रूप से क्षति के लिए जिम्मेदार होते हैं, क्योंकि वे पत्तियों को खाते हैं और अगर अनियंत्रित छोड़ दिया जाए तो वे पेड़ को नष्ट कर सकते हैं। आम, अमरूद और लीची के पेड़ विशेष रूप से इन कीटों के संक्रमण के प्रति संवेदनशील होते हैं।

लीफ वेबर कीड़ों की पहचान

प्रबंधन रणनीतियों में गहराई से जाने से पहले, आपके फलों के पेड़ों को प्रभावित करने वाली विशिष्ट पत्ती वेबर प्रजातियों की सटीक पहचान करना आवश्यक है। वेबर्स की विभिन्न प्रजातियाँ आम, अमरूद और लीची को प्रभावित कर सकती हैं, और उनकी उपस्थिति और जीवन चक्र भिन्न हो सकते हैं। लीफ वेबर संक्रमण के सामान्य लक्षणों में पत्तियों पर रेशमी जाले की उपस्थिति और पत्तियों का गिरना शामिल है। आपको जाले के अंदर छोटे, हरे रंग के कैटरपिलर भी मिल सकते हैं।

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निवारक उपाय

कटाई छंटाई और घनापन कम करना आम, अमरूद और लीची के पेड़ों की नियमित कटाई छंटाई से वायु परिसंचरण और सूर्य के प्रकाश के प्रवेश में सुधार होता है, जिससे पत्तियों के जाल के लिए वातावरण कम अनुकूल हो जाता है।

पेड़ों के बीच उचित दूरी

पेड़ों के बीच उचित दूरी बनाए रखने से बाग में घनापन कम करने में मदद मिलती है और संक्रमण का फैलाव भी कम होता है।

संक्रमित पत्तियों को हटाना

कीटों के प्रसार को रोकने के लिए वेबर संक्रमण वाली पत्तियों को तुरंत हटा दें और नष्ट कर दें।

जैविक नियंत्रण

प्राकृतिक शिकारियों को प्रोत्साहित करें प्राकृतिक शिकारियों जैसे लेडीबग्स, लेसविंग्स और परजीवी ततैया को आकर्षित करें और उनकी रक्षा करें जो लीफ वेबर लार्वा को खाते हैं।

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लाभकारी कीड़ों को छोड़ें

ट्राइकोग्रामा ततैया जैसे लाभकारी कीड़ों के प्रयोग करने पर विचार करें जो वेबर अंडों में अपने अंडे देते हैं, जिससे उनकी आबादी नियंत्रित होती है।

रसायन-मुक्त विकल्प

नीम का तेल: नीम का तेल एक प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में कार्य करता है और पत्ती के जाले को रोकने के लिए इसे पत्तियों पर स्प्रे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। लहसुन और मिर्च स्प्रे: लहसुन और मिर्च मिर्च से बना एक घरेलू घोल पत्ती के जाले को दूर करने में मदद कर सकता है। यदि व्यवस्थित रूप से प्रबंधित बाग है, तो बी.थुरुंगीन्सिस का स्प्रे करने की सलाह दी जाती है।

रासायनिक नियंत्रण

यदि निवारक उपाय और जैविक नियंत्रण विधियां पर्याप्त नहीं हैं, तो आपको रासायनिक नियंत्रण विकल्पों का सहारा लेने की आवश्यकता होती है। सुरक्षा दिशानिर्देशों का पालन करते हुए और उनके संभावित पर्यावरणीय प्रभाव पर विचार करते हुए कीटनाशकों का विवेकपूर्ण उपयोग करना महत्वपूर्ण है। सबसे उपयुक्त रासायनिक नियंत्रण विधियों को चुनने पर मार्गदर्शन के लिए स्थानीय कृषि अधिकारियों या कीटविज्ञानी से परामर्श लें।

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कीटनाशक

चयनात्मक कीटनाशक: ऐसे कीटनाशकों का उपयोग करें जो लाभकारी कीड़ों को बचाते हुए विशेष रूप से पत्ती वेबर कीटों को लक्षित करते हैं। प्रणालीगत कीटनाशक: कुछ प्रणालीगत कीटनाशकों को मिट्टी या तने पर लगाया जा सकता है, जिससे पेड़ रसायन को अवशोषित कर सकता है और लीफ वेबर लार्वा को रोक सकता है। किसी भी उपकरण का उपयोग करके जाले को समय समय पर काटकर उसे जलाने से कीट की उग्रता में कमी आती है। यह कार्य नियमित अंतराल पर करते रहना चाहिए। इसके बाद, लैम्बाडायशोथ्रिन 5 ईसी (2 मिली / लीटर पानी) का छिड़काव करें। पहले स्प्रे के 15-20 दिनों के बाद दूसरा स्प्रे या तो लैम्ब्डासीलोथ्रिन 5 ईसी (2 मिली / लीटर पानी) या क्विनालफॉस 25 ईसी (1.5 मिली / लीटर पानी) के साथ छिड़काव करना चाहिए।

आवेदन का समय

बेहतर नियंत्रण के लिए पत्ती वेबर संक्रमण के प्रारंभिक चरण के दौरान कीटनाशकों का प्रयोग करें।

कीटनाशक प्रतिरोध के विकास को रोक

कीटनाशक प्रतिरोध के विकास को रोकने के लिए, आवश्यकता पड़ने पर विभिन्न रासायनिक वर्गों का उपयोग बारी-बारी से करें।

एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम)

एकीकृत कीट प्रबंधन एक दृष्टिकोण है जो पर्यावरण और गैर-लक्षित प्रजातियों पर प्रभाव को कम करते हुए पत्ती वेबर कीटों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए विभिन्न रणनीतियों को जोड़ता है। आईपीएम में निरंतर निगरानी, ​​कीट सीमा के आधार पर निर्णय लेना और विभिन्न कृषि उपाय, जैविक और रासायनिक नियंत्रण विधियों के संयोजन का उपयोग शामिल है।

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निगरानी और निर्णय लेना

निगरानी के तरीके पत्तों में जाल और लार्वा जैसे संक्रमण के लक्षणों के लिए पेड़ों का नियमित रूप से निरीक्षण करें। वयस्क वेबर आबादी की निगरानी के लिए फेरोमोन जाल का उपयोग करें।

कीट सीमाएँ

यह निर्धारित करने के लिए कि हस्तक्षेप कब आवश्यक है, कीट सीमाएँ स्थापित करें। यह सुनिश्चित करता है कि आप नियंत्रण उपाय केवल तभी लागू करें जब कीटों की आबादी एक निश्चित स्तर तक पहुंच जाए, जिससे अनावश्यक कीटनाशकों के उपयोग को रोका जा सके।

रिकॉर्ड रखना

कीटों की आबादी, मौसम की स्थिति और लागू किए गए नियंत्रण उपायों का विस्तृत रिकॉर्ड रखें। यह डेटा भविष्य में कीट प्रबंधन के लिए निर्णय लेने में मदद करता है।

निष्कर्ष

आम, अमरूद और लीची के पेड़ों में पत्ती वेबर कीटों के प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो कल्चरल(कृषि उपाय), जैविक, रासायनिक और एकीकृत कीट प्रबंधन रणनीतियों को जोड़ती है। निवारक उपायों को लागू करके, प्राकृतिक शिकारियों को बढ़ावा देकर, और रासायनिक नियंत्रण विकल्पों का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करके, आप अपने फलों के पेड़ों को पत्ती वेबर संक्रमण से प्रभावी ढंग से बचा सकते हैं। स्थापित कीट सीमा के आधार पर नियमित निगरानी और निर्णय लेना सफल लीफ वेबर प्रबंधन के आवश्यक हैं। अपने पेड़ों को प्रभावित करने वाली विशिष्ट लीफ वेबर प्रजातियों के बारे में जानें और अपने क्षेत्र में सबसे उपयुक्त प्रबंधन उपायों के लिए स्थानीय कृषि विशेषज्ञों से परामर्श लें। इन दिशानिर्देशों का पालन करके, आप अपने बगीचे में स्वस्थ और उत्पादक फलों के पेड़ सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं।
बगैर दवा के कैसे करें कीट नियंत्रण

बगैर दवा के कैसे करें कीट नियंत्रण

तरीके हर तरह के ईजाद हो चुके हैं लकिन जरूरत उनका अनुपालन करने की है। कीट नियंत्रण के लिए जैविक और रासायनिक, दोनों में से किसी तरह के तत्वों का प्रयोग किए बगैर भी कीट नियंत्रण हो सकता है। इनमें कई तरह की तकनीक वैज्ञानिकों द्वारा ईजाद की गई हैं वहीं कुछ परंपरागत तरीके किसान भी जानते हैं। 

फेरामोन प्रपंच

इसमें मादा पतंगों के यौन स्नव की गंध से मिलता जुलता संश्लेषित रसायन प्रयोग करते हैं। जो नर पतंगों को संभोग करने हेतु आकर्षित करता है, जिससे उस क्षेत्र के नर पतंगे भ्रमवश यह समझकर कि जाल के अंदर मादा वयस्क है, आकर्षित होकर एकत्रित हो जाते हैं। इस प्रकार नर पतंगों की जाल में उपस्थिति से चना भेदक, बैगन, टमाटर व धान के तना छेदक के खेत में अण्डा देने की स्थिति का पूर्वज्ञान हो जाता है जिससे उपयुक्त कीट प्रबंधन प्रणाली अपनाई जा सकती है।

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यौन रसायन आकर्षण जाल मुख्यत:

दो प्रकार के होते हैं. जाल (ट्रैप)- यह एक टिन अथवा प्लास्टिक की कीप के आकार का होता है। जिसे डंडे से बाधंकर फसल में दो फीट की ऊंचाई पर खेत में लगा देते है। इसमें नीचे पॉलीथीन का थैला लगा रहता है जिसमें नर पतंगे एकत्र होते रहते हैं। यौन रसायन संतृप्त गुटका (फेरोमोन सेप्टा)- मादा पतंगा, नर पतंगा को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए यौनांगों से एक विशेष प्रकार की गंध छोड़ती है जिससे नर पतंगा मादा की ओर आकर्षित होकर प्रजनन क्रिया को सम्पन्न करते हैं। इस प्राकृतिक जैव रसायन से मिलता-जुलता कृत्रिम सश्लेषित रसायन तैयार किया जाता है । यह रसायन यौन आकर्षण जाल का प्रमुख अवयव है। इसको फेरोमोन ट्रैप के बीच में बने गड्ढे में अथवा तार के फंदे में फंसाकर रख देते हैं जिससे नर पतंगे आकर्षित होकर कीप के नीचे पॉलीथीन के थैले में इकट्ठा होते रहते हैं। 

प्रयोग करने की विधि

चना, अरहर, बैगन, टमाटर, धान के एक हैक्टेयर क्षेत्र में 3-4 जाल लगाने चाहिए। जाल में फंसे नर वयस्कों की नियमित निगरानी रखनी चाहिए। शीतवृत (दिसम्बर-फरवरी) के दिनों में जाल में कम पतंगे आते हैं। फरवरी के बाद जैसे-जैसे तापमान बढ़ता जाता है, जाल में पकड़े गए पतंगों की संख्या भी बढ़ती जाती है। जैसे ही 3 से 5 नर पतंगे यौन रसायन आकर्षण जाल में 3-4 दिन लगातार आने लगें तो किसानों को अपनी फसल को बचाने के लिए जैविक कीटनाशकों के छिड़काव/भुरकाव अथवा नियंत्रण विधि के लिए तैयार हो जाना चाहिए, क्योंकि 6 से 10 दिन बाद मादा पतंगे अंडे देने लगते हैं, जिनसे निकली सूड़ियां फसल को हानि पहुंचाती हैं।

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सावधानी

यौन रसायन संतृप्त गुटका (फेरोमोन सेप्टा) को 25 से 28 दिनों के बाद बदल देना चाहिए क्योंकि इसका रसायन हवा में उड़कर खत्म हो जाता है। उपयोग न करने के समय फेरोमोन सेप्टा को ठंडे स्थान में बंद डिब्बे में रखें, जिसमें हवा प्रवेश न कर पाए। यदि प्रशीतन संयत्र उपलब्ध है तो उसमें बंद डिब्बे में रखकर रखें। लागत- यौन रसायन आर्कषण जाल में प्रयुक्त जाल या ट्रैप को क्षेत्रीय स्तर पर बनवा सकते हैं अथवा बना बनाया खरीद सकते हैं। फेरोमोन सेप्टा 25-28 दिनों बाद तक कारगर रहता है। इस प्रकार बहुत कम लागत में चना फली भेदक के प्रकोप का पूर्वानुमान कर सकते है। चूंकि यह सूचना पूरे ग्राम या क्षेत्र के लिए एक जैसी होती है। इसलिए यदि सम्बंधित किसान इसकी लागत को आपस में बांट लें तो खर्च बहुत ही कम हो जाएगा। यदि यौन रसायन आर्कषण जाल का प्रयोग न किया जाए तो कीट प्रकोप की जानकारी सूंडी व गिड़ार दिखाई पड़ने लायक आकार की होन पर होती है। तब तक 5- 7 प्रतिशत की क्षति हो चुकी होती है। फलस्वरूप अंडारोपण के समय से ही सावधान या सचेत हो जाना चाहिए। उपयुक्त तो यह होगा कि पौध की रोपाई के बाद से ही जैविक कीटनाशकों का छिड़काव प्रारम्भ कर देना चाहिए।