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बीमारी

गुणवत्ता युक्त किस्मों पर होगा काम, गेहूं की उच्च क्वालिटी किस्म हो रही तैयार : डा. ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह

गुणवत्ता युक्त किस्मों पर होगा काम, गेहूं की उच्च क्वालिटी किस्म हो रही तैयार : डा. ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह

करनाल स्थित राष्ट्रीय गेहूं अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Wheat and Barley Research (IIWBR)) की पांच किस्मों को मध्यप्रदेश के ग्वालियर में अनुमोदित किया गया है। करनाल संस्थान की 5 किस्मों का अनुमोदन पहली बार हुआ है। यह जानकारी संस्थान के निदेशक डा. ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह ने दी। उन्होंने बताया कि आने वाले साल में गेहूं उत्पादन का टारगेट 12 मिलियन एमटी का है। बाजार में कंपनियों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए देश के वैज्ञानिक तैयार हैं। करनाल में बंटास बीमारी से मुक्त जौ (Barley) बनाने की दिशा में अनुसंधान हो रहा हैं। अब उत्पादन से अधिक गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाएगा। राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर (मध्य प्रदेश) एवं -भारतीय गेहूँ एवं जो अनुसंधान संस्थान, करनाल के संयुक्त तत्वाधान में अखिल भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधानकर्ताओं की 61 वीं संगोष्ठी का आयोजन ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में किया गया। देश के विभिन्न क्षेत्रों से गेहूँ और जौ के वैज्ञानिकों ने इसमें भाग लिया। 2021-22 के दौरान हुई प्रगति की समीक्षा करने और 2022-23 के लिए अनुसंधान गतिविधियों खाका तैयार करने के लिए यह बैठक आयोजित की गई। इस कार्यशाला के एक विशेष सत्र के दौरान भारतीय गेहूँ एवं जो अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ. ज्ञानेन्द्र प्रताप सिंह ने प्रजाति पहचान समिति [वेराइटल आइडेंटिफिकेशन कमेटी (वीआईसी)] की अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस कमेटी की अध्यक्षता डॉ टी.आर. शर्मा, उप-महानिदेशक (फसल विज्ञान), भाकृअनुप, नई दिल्ली ने की। समिति ने सभी 27 प्रस्तावों (1 क्षेत्रफल विस्तार सहित) पर विचार किया और सर्वसम्मति से उनमें से 24 को मंजूरी दी गई। उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए कुल 9 किस्मों की पहचानी गई तथा एक किस्म का क्षेत्र विस्तार किया गया। गेहूं की किस्मों में उच्च उर्वरता एवं अगेती बुवाई के लिए डीबीडब्ल्यू 370, डीबीडब्ल्यू 371, डीबीडब्ल्यू 372, पीवीडब्ल्यू 872, सिंचित एवं समय से बुवाई के लिए पीबीडब्ल्यू 826, सीमित सिंचाई एवं समय से बुवाई के लिए एचडी 3369, एचआई 1653, एचआई 1654 तथा जैव प्रोद्योगिकी के एमएबीबी तकनीक से विकसित एचडी 3406 (सिंचित दशा - समय से बुवाई) की भी पहचान की गयी।


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वहीं भाकृअनुप-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल द्वारा विकसित डीबीडब्ल्यू 303 को मध्य क्षेत्र में उच्च उर्वरता अगेती बुआई के लिए क्षेत्रफल विस्तार के लिए प्रस्तावित किया गया है। तीन दिनों तक चले इस संगोष्ठी में देश- विदेश से लगभग 400 प्रतिभागियों ने भाग लिया और इस कार्यक्रम को और सुदृढ़ बनाने पर मंथन किया। किसानों के लिए गेहूँ की उच्च गुणवत्ता वाली किस्मों के तेजी से विकास के लिए और गहनता से कार्य करने की आवश्यकता पर बल दिया गया साथ ही निर्यात के मानदंडों के अनुरूप गेहूँ उत्पादन को बढ़ावा देने तथा किसानों को जागरूक करने पर बल दिया गया।
भारत के इन क्षेत्रों में केले की फसल को पनामा विल्ट रोग ने बेहद प्रभावित किया है

भारत के इन क्षेत्रों में केले की फसल को पनामा विल्ट रोग ने बेहद प्रभावित किया है

भारत के अंदर केले का उत्पादन गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है। पनामा विल्ट रोग से प्रभावित इलाके बिहार के कटिहार एवं पूर्णिया, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, बाराबंकी, महाराजगंज, गुजरात के सूरत और मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जनपद हैं। भारत में केले की खेती काफी बड़े पैमाने पर की जाती है। साथ ही, यह देश विश्व के सबसे बड़े केले उत्पादकों में से एक है। भारत विभिन्न केले की किस्मों की खेती के लिए जाना जाता है, जिनमें लोकप्रिय कैवेंडिश केले के साथ-साथ रोबस्टा, ग्रैंड नैने एवं पूवन जैसी अन्य क्षेत्रीय प्रजातियां भी शम्मिलित हैं। प्रत्येक किस्म की अपनी अलग विशेषताएं हैं। ऐसी स्थिति में यदि केले की फसल को कुछ हो जाए तो इसका प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव किसानों की आमदनी पर पड़ता है। साथ ही, देशभर के केला किसानों के लिए पनामा विल्ट रोग एक नई समस्या के रूप में आया है। यह बीमारी उनकी लाखों की फसल को बर्बाद कर रही है।

पनामा विल्ट रोग

यह एक कवक रोग है। इस संक्रमण से केले की फसल पूर्णतय बर्बाद हो सकती है। पनामा विल्ट फुसैरियम विल्ट टीआर-2 नामक कवक की वजह से होता है, जिससे केले के पौधों का विकास बाधित हो जाता है। इस रोग के लक्षणों पर नजर डालें तो केले के पौधे की पत्तियां भूरी होकर गिर जाती हैं। साथ ही, तना भी सड़ने लग जाता है। यह एक बेहद ही घातक बीमारी मानी जाती है, जो केले की संपूर्ण फसल को चौपट कर देती है। यह फंगस से होने वाली बीमारी है, जो विगत कुछ वर्षों में भारत के अतिरिक्त अफ्रीका, ताइवान, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया सहित विश्व के बहुत सारे देशों में देखी गई। इस बीमारी ने वहां के किसानों की भी केले की फसल पूर्णतय चौपट कर दी है। वर्तमान में यह बीमारी कुछ वर्षों से भारत के किसानों के लिए परेशानी का कारण बन गई है।

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पनामा विल्ट रोग की इस तरह रोकथाम करें

पनामा विल्ट रोग की रोकथाम के संबंध में वैज्ञानिकों एवं किसानों की सामूहिक कोशिशों से इस बीमारी का उपचार किया जा सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है, कि पनामा विल्ट बीमारी की अभी तक कोई कारगर दवा नहीं मिली है। हालाँकि, CISH के वैज्ञानिकों ने ISAR-Fusicant नाम की एक औषधी बनाई है। इस दवा के इस्तेमाल से बिहार एवं अन्य राज्यों के किसानों को काफी लाभ हुआ है। सीआईएसएच विगत तीन वर्षों से किसानों की केले की फसल को बचाने की कोशिश कर रहा है। इस वजह से भारत भर के किसानों तक इस दवा को पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।

पनामा विल्ट रोग का इन राज्यों में असर हुआ है

हमारे भारत देश में केले का उत्पादन बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं मध्य प्रदेश में किया जाता है। पनामा विल्ट रोग से प्रभावित बिहार के कटिहार और पूर्णिया, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, बाराबंकी, महाराजगंज, गुजरात के सूरत और मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जनपद हैं। ऐसी स्थिति में यहां के कृषकों के लिए यह बेहद आवश्यक है, कि वो अपने केले की फसल का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए उसे इस बीमारी से बचालें।
केले की खेती करने वाले किसान दें ध्यान, नही तो बढ़ सकती है मुसीबत: वैज्ञानिक

केले की खेती करने वाले किसान दें ध्यान, नही तो बढ़ सकती है मुसीबत: वैज्ञानिक

विगत कुछ सालों से किसान केले की खेती (Banana Farming) पर काफी ध्यान दे रहे हैं, क्यूंकि केले की खेती ने किसानों की आय बढ़ा दी है। आपको बता दें की केले की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार भी अभी काफी ध्यान दी हुई है, इसके लिए सरकार के द्वारा बहुत सारी योजनाएं भी बनायी गयी हैं। इसके तहत किसानों को कम दर पर ऋण भी उपलब्ध कराया जा रहा है,और सब्सिडी भी उपलब्ध करायी जा रही है, जिससे किसानों का भी ध्यान काफी बढ़ा है केले की खेती पर। वैज्ञानिकों के अनुसार केले की खेती के साथ साथ अभी किसान एक मिक्स्ड क्रोप्पिंग (Mixed Cropping) या सहफसली खेती या मिश्रित खेती कर दुगुना लाभ ले रहे हैं। मिक्स्ड क्रोप्पिंग में किसान एक ही खेत में एक ही समय में दो फसल उगा कर काफी मुनाफा कमा रहे हैं। लेकिन हाल के दिनों में केले में लगने वाले अलग अलग तरह के रोग किसानों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। आज कल केले में होने वाली बीमारी जिसका नाम श्रोट चॉकिंग (गला घुटना) है, ने तमाम किसानों की चिंता को बढ़ा दिया है। गौरतलब हो की उत्तर भारत के बिहार एवं उत्तरप्रदेश में केला ज्यादातर सितम्बर के महीने में लगया जाता है। सितम्बर में रोपाई के बाद केला में इस बिमारी का विकराल रूप देखने को मिलता है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा की यह बीमारी केले के लम्बे प्रजाति के अपेक्षा बौने प्रजाति में सामान्यतः देखने को मिलती है।


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पुरे भारत में केले की खेती की जाती है। किसानों के जानकारी के लिए थ्रोट चॉकिंग (गला घोंटना; throat choking) नामक बीमारी में केले का फल का गुच्छा कुछ सामान्य तरीके से न निकल कर, असमान्य तरीके से तने को फाड़ते हुए निकलने लगता है। वरिष्ट फल वैज्ञानिकों के अनुसार, किसान को इस समय इस बीमारी से बचने के लिए केले की लम्बी प्रजाति के किस्मों का चयन करना चाहिए, क्यूंकि लम्बे प्रजाति में यह बीमारी कम पायी जाती है। वैज्ञानिकों की माने तो लम्बे प्रजाति के किस्म जैसे, चंपा, चीनी चंपा, मालभोग, कोठिय, बत्तिसा, अल्पान का प्रयोग करें और समय पर केले की रोपाई भी करें।

किसान और क्या दें ध्यान

किसानों को केले के खेत में कम से कम जलजमाव हो इसका खास ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए केले के खेत में जल निकासी का उत्तम प्रबंध भी करना चाहिए। केले के खेती में बेहतर खाद और उर्वरक का प्रयोग भी करना चाहिए, विशेषतः गर्मी के मौसम में किसानों को केले के खेत में ससमय सिंचाई भी करनी चाहिए, जिससे इसकी पैदावार अच्छी हो। किसानों का कहना है की अभी जिस तरह ये बिमारी फैल रही है, उस पर सरकार को विशेष ध्यान देकर किसानों को इससे निजात दिलाना चाहिए। अन्यथा किसान को इससे काफी नुक्सान का सामना करना पड़ेगा, थ्रोट चॉकिंग (गला घोंटना) नामक बिमारी से केले की पैदावार में काफी कमी आई है जो की किसानों के लिए चिता का विषय बना हुआ है।
आलू की पछेती झुलसा बीमारी एवं उनका प्रबंधन

आलू की पछेती झुलसा बीमारी एवं उनका प्रबंधन

मनोज कुमार1, मेही लाल1, एव संजीव शर्मा2 
1आई सी ए आर-केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान क्षेत्रीय केंद्र, मोदीपुरम, मेरठ
2आई सी ए आर- केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान,शिमला, हिमाचल प्रदेश
आलू भारतवर्ष की एक प्रमुख सब्जी की फसल है। इस फसल का उत्पादन भारत में लगभग 53.0 मिलियन टन, 2.25 मिलियन हेक्टयर क्षेत्र से होता है। आलू की फसल मे बीमारी मुख्तया कवक, बीजाणु, विषाणु, नेमटोड आदि के द्वारा होती है। पछेती झुलसा बीमारी फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टान्स नामक फफूंद जैसे जीव द्वारा होती है। पछेती झुलसा का अतिक्रमण आयरलैंड में 1845-1846 के बीच हुआ था, जो इतिहास में आयरिश फेमीन के नाम से जानी जाती है, जिसके फलस्वरूप 2 मिलियन जनसंख्या मर गयी थी और 1.2 मिलियन जनसंख्या दूसरे देश में पलायन कर गये थे।

आलू की पछेती झुलसा रोग एवं उपाय

भारत में इस रोग का आगमन 1870-1880 के बीच नीलगिरी पहाड़ी पर हुआ था, तदुपरांत यह बीमारी लगभग सभी आलू उत्पादन करने वाले क्षेत्र में कम या ज्यादा तीव्र रूप में दिखती रहती है और ज्यादा तीव्र होने पर लगभग 75 प्रतिशत तक उपज में कमी आ जाती है, यद्यपि यह उगायी जाने वाली किस्म विशेष, अपनाये गये फसल सुरक्षा उपायों, एवं रोग की तीव्रता पर निर्भर करता है। यदि मौसम बीमारी के बहुत ही अनुकूल है, तो बीमारी पूरे खेत को 3-5 दिनों मे बहुत ज्यादा नुकसान कर देती और किसान की आर्थिक स्थिति पर प्रभाव डालती है। आजकल विशेष रूप से उतर भारत मे वर्षा एक दिन के अंतराल या लगातार हो रही है, और आगे आने वाले दिनों मे भी वर्षा होने का पूर्वानुमान मौसम विभाग दवारा लगाया जा रहा है। साथ ही साथ वर्षा के कारण वातावरण का पछेती झुलसा के अनुकूल बन रहा है। इस अवस्था मे पछेती झुलसा आने की संभावना और अधिक बढ़ जाती है। अत: किसानो एव आलू उत्पादको को इस समय और अधिक
आलू की खेत की निगरानी बढ़ा देनी चाहिए।

बीमारी के लक्षणः

इस बीमारी के लक्षण पत्तियो, तनो एवं कन्दो पर दिखाई देते है। पत्तियों पर छोटे, हल्के पीले-हरे अनियमित धब्बे दिखाई देते हैं। शुरू में ये धब्बे पत्तियों के सिरे तथा किनारों पर पाये जाते हैं। जो शीघ्र ही बढ़कर बड़े गीले धब्बे बन जाते हैं। बाद में पत्तियों की निचली सतह पर धब्बों के चारों ओर रूई सी बारीक सफेद फफूंद दिखाई देती है। मौसम में आर्द्रता की कमी होने पर पत्तियों का गीला भाग सूखकर भूरे रंग का हो जाता है। डण्ठलों पर बीमारी के प्रकोप होने पर हल्के भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बाद में लम्बाई में बढ़कर डण्ठल के चारों ओर फैल जाते हैं। पिछेता झुलसा बीमारी से प्रभावित कन्दों पर छिछला, लाल-भूरे रंग का शुष्क गलन देखा जा सकता है, जो असंयमित रूप में कन्द की सतह से कन्द के गूदे में पहुंच जाता है। इससे प्रभावित हिस्से सख्त हो जाते हैं तथा कन्द का गूदा बदरंग हो जाता है।

झुलसा बीमारी के प्रकट होने के लिये मौसम:

इस बीमारी का प्रकट होना एवं फैलाव पूरी तरह मौसम की अनुकूलता पर निर्भर करता है। यदि वातावरण का तापमान 10 से 20 डिग्री सेल्सियस, सापेक्षिक नमी 85 प्रतिशत से अधिक हो, बादल छाये हो, हल्की एवं रूक-रूक कर वर्षा हो रही हो साथ ही कोहरा छाया रहे तो समझना चाहिये कि बीमारी प्रकट होने की सम्भावना है।

बीमारी का फैलावः

मैदानी इलाकों के शीतगृहों में भंडारित रोगी कन्दों पर रोग कारक जीवित रहते हैं जो ग्रसित बीज कन्दों द्वारा स्वस्थ पौधे पर अनूकूल मौसम आते ही बीमारी के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बीमारी के लक्षण डण्ठल के निचले भाग और निचली पत्तियों पर सर्वप्रथम प्रकट होते हैं। रोगकारक के बीजाणु हवा अथवा वर्षा के जल/सिचाई द्वारा एक पौधे से दूसरे पौधे या एक खेत से दूसरे खेत तक पहुंच जाते हैं। ये भी पढ़े: इस तरह करें अगेती आलू की खेती

प्रबन्धनः

आई सी ए आर- केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान (सी.पी.आर.आई.) द्वारा 2000 में पछेती झुलसा के पूर्वानुमान के लिए “झुल्साकास्ट” नामक मॉडल विकसित किया गया था, जो कि केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए था। बाद में इसी को आधार रखते हुए पंजाब, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के लिए भी मॉडल बनाये गए। लेकिन ये सभी मॉडल क्षेत्रिय आधार पर है। वर्ष 2013 में सी०पी०आर०आई द्वारा “इंडोब्लटकास्ट” नामक मॉडल विकसित किया गया है जो पूरे भारतवर्ष में कार्य कर रह है। इससे आलू उत्पादक व किसान को समय -समय पर बीमारी आने से पहले सूचना मिल जाती है और वे समयानुसार उचित प्रबंधन कर सकते है।

बीमारी के प्रकोप से बचने हेतु सावधानियां:

सदैव रोग मुक्त स्वस्थ बीज आलू का ही प्रयोग करे और इसकी बीजाई का कार्य अक्टूबर माह में पूरा कर लें। गूलों को उंचा बनायें ताकि कन्द मिट्टी से अच्छी तरह ढ़के रहे ताकि फफूंद कन्दां तक न पहुंच पाये। आकाश में बादल छाये हों तो सिंचाई बन्द कर दें। साथ ही रोगरोधी किस्मों की बीजाई करें। जैसे ही आस-पास के क्षेत्रों में बीमारी आने की सूचना प्राप्त हो तो मैन्कोजैब/प्रोपीनेब/क्लारोथैलोनील युक्त फफूदनाशक दवा 0.2 प्रतिशत का सुरक्षात्मक छिड़काव करने की व्यवस्था करें ताकि आपके खेतों में बीमारी का प्रकोप न हो सके। यदि 85 प्रतिशत से अधिक संक्रमण हो जाये तो डण्ठलों की कटाई् कर दे ताकि कन्दों में संक्रमण न होने पाये। यह भी सावधानी रखनी चाहिए है कि आलू की खुदाई पश्चात ढेर की छंटाई करते समय पछेती झुलसा बीमारी से ग्रसित कन्दों की छंटाई करके उन्हें गड्ढों में दबा दें इससे शीत भण्डार में रखें जाने वाले आलू बीज कन्द बीमारी से मुक्त रहेंगे तथा बीज की शुद्धता बनी रहेगी।

बीमारी के प्रति रोगरोधी किस्मेः

देश के अलग-अलग क्षेत्रों में उगाने हेतु पछेती झुलसा रोग के प्रति रोगरोधी किस्में विकसित की जा चुकी हैं। मैदानी क्षेत्रों हेतु रोग रोधी किस्मों में कुफरी बादशाह, कुफरी ज्योती, कुफरी सतलज, कुफरी गरिमा, कुफ़री मोहन, कुफरी ख्याति, कुफरी चिप्सोना-1, कुफरी चिप्सोना-2, कुफरी चिप्सोना-3 कुफरी चिप्सोना-4,एवं कुफ़री फ्राईओम प्रमुख किस्में हैं। हिमाचल एवं उत्तराखंड की पहाड़ियों हेतु कुफरी शैलजा, कुफरी हिमालनी, कुफ़री कर्ण एंव कुफरी गिरधारी और नीलगिरी की पहाड़ियों हेतु कुफरी स्वर्णा, कुफरी थैन्मलाई एवं कुफ़री सहादरी। दार्जलिंग की पहाड़ियों हेतु कुफरी कंचन और खासी पहाड़ियों हेतु कुफरी मेघा, कुफरी हिमालनी तथा कुफरी गिरधारी प्रमुख रोगरोधी किस्में हैं। ये भी पढ़े: सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल

बीमारी से फसल को बचाने के लिये फफूंदनाशक दवा का छिड़कावः

पछेती झुलसा प्रबंधन हेतु लगभग २5 फफूंदनाशक केन्द्रीय इन्सेक्टीसाइड बोर्ड एव रेजिस्ट्रेशन कमेटी  के तहत रेजिस्टर्ड है, परंतु कुछ ही उनमे से प्रयोग हेतु लाये जाते है। इन फफूंदनाशक को एक हेक्टयर छिड़काव हेतु 500-1000 ली पानी की आवश्यकता पडती है, और यह फसल की अवस्था एवं छिड़काव किए जाने वाले यंत्र पर निर्भर करता है। पिछेता झुलसा प्रबंधन हेतु सुरक्षात्मक छिड़काव सही समय पर सही मात्रा में बहुत ही आवश्यक है। कभी- कभी देखा जाता है, कि किसान भाई दो दवाए जो अलग-अलग समय पर छिड़की जाती है। एक ही साथ मिलाकर छिड़काव कर देते है, बिना बीमारी के एंटिबयोटिक्स जैसी दवाओ का छिड़काव करते है, जो कि उचित नहीं है। जैसे ही पछेती झुलसा रोग के आगमन के लिये अनुकूल मौसम हो जाये तो मैनकोजैब/प्रोपीनेब/क्लोरोथलोनील युक्त (0.2 प्रतिशत) फफूंदनाशक रसायन का सुरक्षात्मक छिडकाव करें। इसके उपरान्त भी अगर मौसम में परिवर्तन न हो या बीमारी के फैलाव की आशंका का हो तो डाईमेथोमोर्फ़+मैंकोजैब 0.3 प्रतिशत या साइमोक्सनिल युक्त (0.3 प्रतिशत) फफूंदनाशक का छिड़काव करें। यदि आवश्यकता हो तो ऊपर बताये गये फफूंदनाशकों का पुनः 7 से 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव दोहरायें।

फफूंदनाशकों का छिड़काव करते समय सावधानियां:

बीमारी की रोकथाम हेतु फफूंदनाशकों का छिड़काव करते समय किसान भाईयों को सलाह दी जाती है कि छिड़काव करते समय मुंह पर आवरण (मास्क) तथा घोल बनाते समय हाथ में रबड के दस्तानें होने चाहिए। छिड़काव पौधे की पत्तियों की निचली एवं ऊपरी दोनों सतहों पर ठीक प्रकार से करें। वर्षा होने की आशंका होने पर फफूंदनाशकों के घोल में स्टिकर (चिपकाने वाले पदार्थ) 0.1 प्रतिशत का प्रयोग करे । ऐसा करने से किया गया छिड़काव अधिक प्रभावी होगा। pacheti aloo rog 1                                  pacheti aloo rog पछेती झुलसा ग्रसित खेत                         पती के पिछले सतह पर पिछेता झुलसा के लक्षण pacheti aloo 1       pacheti aloo पछेती झुलसा से ग्रसित डण्ठल                             पछेती झुलसा से ग्रसित कंद
बकरी पालन व्यवसाय में है पैसा ही पैसा

बकरी पालन व्यवसाय में है पैसा ही पैसा

बकरी पालन के आधुनिक तरीके को अपना कर आप मोटा मुनाफा कमा सकते हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है, कि आप चीजों को बारीकी से समझें और एक रणनीति बना कर ही काम करें। 

पेशेंस हर बिजनेस की जरूरत है, अतः उसे न खोएं, बकरी पालन एक बिजनेस है और आप इससे बढ़िया मुनाफा कमा सकते हैं।

गरीबों की गाय

पहले बकरी को गरीब किसानों की गाय कहा जाता था। जानते हैं क्यों क्योंकि बकरी कम चारा खाकर भी बढ़िया दूध देती थी, जिसे किसान और उसका परिवार पीता था। 

गाय जैसे बड़े जानवर को पालने की कूवत हर किसान में नहीं होती थी। खास कर वैसे किसान, जो किसी और की खेती करते थे। 

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आधुनिक बकरी पालन

अब दौर बदल गया है, अब बकरियों की फार्मिंग होने लगी है। नस्ल के आधार पर क्लोनिंग विधि से बकरियां पैदा की जाती हैं। देसी और फार्मिंग की बकरी, दोनों में फर्क होता है। यहां हम देसी की नहीं, फार्मिंग गोट्स की बात कर रहे हैं। 

जरूरी क्या है

बकरी पालन के लिए कुछ चीजें जरूरी हैं, पहला है, नस्ल का चुनाव, दूसरा है शेड का निर्माण, तीसरा है चारे की व्यवस्था, चौथा है बाजार की व्यवस्था और पांचवां या सबसे जरूरी चीज है, फंड का ऐरेन्जमेंट। ये पांच फंडे क्लीयर हैं, तो बकरी पालन में कोई दिक्कत नहीं जाएगी। 

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नस्ल या ब्रीड का चयन

अगर आप बकरी पालने का मूड बना ही चुके हैं, तो कुछ ब्रीडों के बारे में जान लें, जो आने वाले दिनों में आपके लिए फायदे का सौदा होगा। 

आप अगर पश्चिम बंगाल और असम में बकरी पालन करना चाहते हैं, तो आपके लिए ब्लैक बेंगार ब्रीड ठीक रहेगा। लेकिन, अगर आप यूपी, बिहार और राजस्थान में बकरी पालन करना चाहते हैं, तो बरबरी बेस्ट ब्रीड है। 

ऐसे ही देश के अलग-अलग हिस्सों में आप बीटल, सिरोही जैसे ब्रीड को ले सकते हैं। इन बकरियों का ब्रीड बेहतरीन है। ये दूध भी बढ़िया देती हैं, इनका दूध गाढ़ा होता है और बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिए आदर्श माना जाता है। 

ट्रेनिंग कहां लें

आप बकरी पालन करना तो चाहते हैं, लेकिन आपको उसकी एबीसी भी पता नहीं है। तो चिंता न करें, एक फोन घुमाएं नंबर है 0565-2763320 यह नंबर केंद्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, मथुरा, यूपी का है। यह संस्थान आपको हर चीज की जानकारी दे देगा। अगर आप जाकर ट्रेनिंग लेना चाहते हैं, तो उसकी भी व्यवस्था है। 

शेड का निर्माण

इसका शेड आप अपनी जरूरत के हिसाब से बना सकते हैं, जैसे, शुरुआत में आपको अगर 20 बकरियां पालनी हैं, तो आप 20 गुणे 20 फुट का इलाका भी चूज कर सकते हैं। 

उस पर एसबेस्डस शीट लगा कर छवा दें, बकरियां सीधी होती हैं। उनको आप जहां भी रखेंगे, वो वहीं रह जाएंगी, उन्हें किसी ए सी की जरूरत नहीं होती। 

भोजन

बकरियों को हरा चारा चाहिए, आप उन्हें जंगल में चरने के लिए छोड़ सकते हैं, आपको अलग से चारे की व्यवस्था नहीं करनी होगी। लेकिन, आप अगर जंगल से दूर हैं, तो आपको उनके लिए हरे चारे की व्यवस्था करनी होगी। 

हरे चारे के इतर बकरियां शाकाहारी इंसानों वाले हर भोजन को बड़े प्यार से खा लेती हैं, उसके लिए आपको टेंशन नहीं लेने का। 

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कितने दिनों में तैयार होती हैं बकरियां

एक बकरी का नन्हा बच्चा/बच्ची 10 माह में तैयार हो जाता है, आपको जो मेहनत करनी है, वह 10 माह में ही करनी है। इन 10 माह में वह इस लायक हो जाएगा कि परिवार बढ़ा ले, दूध देना शुरू कर दे। 

बाजार

आपकी बकरी का नस्ल ही आपके पास ग्राहक लेकर आएगा, आपको किसी मार्केटिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इसलिए नस्ल का चयन ठीक से करें। 

फंड की व्यवस्था

आपके पास किसान क्रेडिट कार्ड है, तो उससे लोन ले सकते हैं। बकरी पालन को उसमें ऐड किया जा चुका है। केसीसी (किसान क्रेडिट कार्ड) नहीं है तो आप किसी भी बैंक से लोन ले सकते हैं। 

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कोई बीमारी नहीं

अमूमन बकरियों में कोई बीमारी नहीं होती, ये खुद को साफ रखती हैं। हां, अब कोरोना टाइप की ही कोई बीमारी आ जाए तो क्या कहा जा सकता है, इसके लिए आपको राय दी जाती है, कि आप हर बकरी का बीमा करवा लें। खराब हालात में बीमा आपकी बेहद मदद करेगा।

लम्पी स्किन डिजीज (Lumpy Skin Disease)

लम्पी स्किन डिजीज (Lumpy Skin Disease)

- ये लेख हमारे मेरीखेती डॉटकॉम-१४ व्हाट्सएप्प ग्रुप मैं पियूष शर्मा ने दिया है

डॉ योगेश आर्य (पशुचिकित्सा विशेषज्ञ)

'लम्पी स्किन डिजीज' या एलएसडी (LSD - Lumpy Skin Disease) नई चुनौती के रूप में उभरकर सामने आ रही है। यह एक संक्रामक बीमारी है जिसमें दुधारू पशुओं व मवेशियों में गाँठदार त्वचा रोग या फफोले बनने शुरू हो जाते हैं और दुधारू पशुओं का दूध कम होने लगता है। 

इस बीमारी की वैक्सीन भी बाजार में उपलब्ध नही है और गॉट-पॉक्स (बकरी-पॉक्स) वैक्सीन को वैकल्पिक रूप में काम मे ली जा रही है। 

लंपी का ईलाज करना भी पशुपालक के लिए महंगा साबित हो रहा है ऐसे में कुछ देशी इलाज मिल जाये तो पशुपालकों के लिए काफी राहत वाली बात होगी।

'नेशनल डेयरी डवलपमेंट बोर्ड' और 'इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसडिसिप्लिनरी हेल्थ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी' ने प्रो. एन. पुण्यमूर्थी के मार्गदर्शन में कुछ पारंपरिक पद्दति द्वारा देशी ईलाज सुझाए हैं।

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लम्पी स्किन डिजीज का देशी उपचार:-

  • पहली विधि- एक खुराक के लिए
  • पान का पत्ता- 10 पत्ते
  • काली मिर्च- 10 ग्राम
  • नमक- 10 ग्राम
  • गुड़ आवश्यकतानुसार

विधि- उपरोक्त वर्णित सामग्री को पीसकर सबसे पहले पेस्ट बना लेना है, अब इसमे गुड़ मिला लेवें। इन तैयार मिश्रण को पशु को थोड़ी थोड़ी मात्रा में खिलाएं।

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पहले दिन ये खुराक हर 3 घण्टे में देवें और उसके बाद दिनभर में तैयार तीन ताजा तैयार खुराकें 2 हफ्ते तक देवें।

दूसरी विधि- दो खुराक के लिए

  • लहसुन- 2 कली
  • धनियां- 10 ग्राम
  • जीरा- 10 ग्राम
  • तुलसी- 1 मुठ्ठी पत्ते
  • तेज पत्ता- 10 ग्राम
  • काली मिर्च- 10 ग्राम
  • पान का पत्ता- 5 पत्ते
  • छोटा प्याज - 2 नग
  • हल्दी पॉवडर- 10 ग्राम
  • चिरायता के पत्ते का पॉवडर- 30 ग्राम
  • बेसिल का पत्ता- 1 मुठ्ठी
  • बेल का पत्ता- 1 मुठ्ठी
  • नीम का पत्ता- 1 मुठ्ठी
  • गुड़- 100 ग्राम

विधि- उपरोक्त वर्णित सामग्री को पीसकर पेस्ट बना लो, इसमे गुड़ मिला लेवें। थोड़ी थोड़ी मात्रा में पशु को खिलाओ। पहले दिन इसकी खुराक हर 3 घण्टे में खिलाओ। दूसरे दिन से प्रतिदिन ताजा तैयार एक-एक खुराक सुबह शाम पशु को आराम आने तक देवें।

यदि घाव हो तो घाव पर लगाने हेतु मिश्रण:-

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सामग्री-

  • कुप्पी का पत्ता- 1 मुठ्ठी
  • लहसुन- 10 कलियाँ
  • नीम का पत्ता- 1 मुठ्ठी
  • नारियल/तिल का तेल- 500 मिली
  • हल्दी पॉवडर- 20 ग्राम
  • मेहंदी का पत्ता- 1 मुठ्ठी
  • तुलसी का पत्ता- 1 मुठ्ठी

विधि- उपरोक्त वर्णित सामग्री को पीसकर पेस्ट बना लेवें फिर इसमें 500 मिली नारियल/तिल का तेल मिलाकर उबाल लेवें और ठंडा कर लेवें। लगाने की विधि:- घाव को साफ करने के बाद इस मिश्रण को घाव पर लगाएं।

यदि घाव में कीड़े दिखाई दे तो-

पहले दिन नारियल तेल में कपूर मिलाकर लगाएं या सीताफल की पत्तियों को पीसकर पेस्ट बनाकर लगाएं।

लंपी स्किन बीमारी से बचाव के लिए राजस्थान सरकार ने जारी किए 30 करोड़ रुपये

लंपी स्किन बीमारी से बचाव के लिए राजस्थान सरकार ने जारी किए 30 करोड़ रुपये

बरसात का मौसम आते ही जानवरों को तमाम तरह की बीमारियां लगने लगती हैं। आज कल देश में लम्पीस्किन बीमारी यानी ‘लम्पी स्किन डिजीज‘ या एलएसडी (LSD - Lumpy Skin Disease) ने जोर पकड़ा हुआ है। 

यह बीमारी सबसे ज्यादा कहर राजस्थान राज्य में बरपा रही है। अच्छी बात ये है कि सरकार ने बीमारी को गंभीरता से लिया है और इससे पशुपालकों को निजात दिलाने के लिए 30 करोड़ रुपये जारी कर दिए हैं, 

ताकि पशुपालक दवाई खरीदते हुए पशुओं का इलाज करवा सकें। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) के इस कदम की सराहना हो रही है। सीएम अशोक गहलोत ने इस राशि को मुख्यमंत्री पशुधन निःशुल्क दवा योजना (Pashudhan Nishulk Dava Yojna) के अंतर्गत जारी किया है। 

यह बीमारी सबसे ज्यादा गायों को लग रही है। सरकार का मानना है कि इस फैसले का असर सकारात्मक होगा और इस बीमारी से बचाव के लिए दवाइयां पशुपालक जल्दी से जल्दी खरीद सकेंगे।

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वैसे इस बीमारी से प्रभावित राजस्थान इकलौता राज्य नहीं है, बल्कि सटे राज्य हरियाणा में भी इस रोग ने कहर बरपाया हुआ है। वैसे हरियाणा सरकार ने भी इस बीमारी को हल्के में नहीं लिया है और वैक्सिनेशन का काम शुरू करवा दिया है।

गौर करने वाली बात है कि हरियाणा देश के उन राज्यों में से एक है जहां ग्रामीण जनता अपनी आमदनी के लिए खेती किसानी और पशु धन पर निर्भर है। 

यही वजह है कि मनोहर लाल खट्टर की सरकार ने इस बीमारी के जल्दी से जल्दी रोकथाम की कोशिशें तेज कर दी हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब तक 3000 वैक्सीन पशुपालकों को बांटी जा चुकी हैं, 

वहीं अभी 17000 वैक्सीन की जरूरत और आन पड़ी है। अगस्त महीने के अंत तक वैक्सीन के बांटने को लेकर और तेजी देखने को मिलेगी।

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एक आंकड़े के मुताबिक लंपी स्किन रोग देश के 17 राज्यों में अब तक फैल चुका है। लेकिन इस दौरान इसने सबसे ज्यादा प्रभावित राजस्थान और हरियाणा को किया है। 

अच्छी बात है कि राज्य सरकारों ने इसके लिए वैक्सिनेशन का काम शुरू कर दिया है लेकिन वैक्सिनेशन होने में समय भी लग सकता है। ऐसे में जरूरी है कि उसके पहले आप कुछ घरेलू उपचार ज़रूर कर लें। 

घरेलू उपचार क्या हो सकते हैं, इसके बारे में हिमाचल प्रदेश कृषि विश्‍वविद्यालय पालमपुर के पशु चिकित्‍सा विशेषज्ञ डॉ. ठाकुर ने बताया है।

उपचार के लिए क्या चाहिए होगा -

  • 10 ग्राम कालीमिर्च, 10 पान के पत्ते, 10 ग्राम नमक और गुड़ जरूरत के मुताबिक।
  • सभी चीज़ों को अच्छे से पीसें और तब तक पीसते रहें जब तक मिश्रित होकर पेस्ट न बन जाए और अब थोड़ा से गुड़ मिला लें। 
  • अब आपको इसे अपने पशु को थोड़ा-थोड़ा खिलाना है।
  • जब आप पहले दिन इसकी खुराक पशु को दें तो हर तीन घंटे में दें, समय के पाबंद रहें क्योंकि यह जरूरी है। - यह सिलसिला दो हफ्ते तक चलने दें और दिन में तीन खुराक ही खिलाएं।
  • हर एक खुराक ताजा ही तैयार करें, ऐसा न करें कि कल की बनाई खुराक को आज खिला दें, उसका असर नहीं होगा।

उपचार का दूसरा तरीका - इस तरीके में आपको एक मिश्रण तैयार करना होगा, जो आप घाव पर लेप के रूप में लगाएंगे। 

इसके लिए आपको लहसुन की 10 कली, मेहंदी के पत्ते कुछ, तिल का तेल करीब आधा लीटर, कुम्पी के कुछ पत्ते, हल्दी पाउडर, तुलसी के कुछ पत्ते चाहिए होंगे। 

इन सभी को मिक्सी या सिलबट्टे में पीस लें और पेस्ट बना लें । इसके बाद इसमें तिल का तेल मिलाते हुए उबाल लें, ठंडा होने के बाद लेप को आपको पशु के घाव पर लगाना है लेकिन इसके पहले पशु के घाव को अच्छी तरह साफ कर लें।

इसके बाद उसका पेस्ट आप घाव पर लगा दें, आपको हर रोज घाव पर इसे लगाना है और यह दो हफ्ते तक करना है। नेशनल डेयरी डवलपमेंट बोर्ड‘ और ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांसडिसिप्लिनरी हेल्थ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी’ ने प्रो. एन. पुण्यमूर्थी के मार्गदर्शन में कुछ पारंपरिक पद्दति द्वारा देशी ईलाज सुझाए हैं, 

जिन्हे आप इस लेख में पढ़ सकते हैं : लम्पी स्किन डिजीज (Lumpy Skin Disease) वैसे अगर आपको वैक्सिनेशन का लाभ मिलता है तो उसे तुरंत लें क्योंकि घरेलू उपचार की अपनी सीमाएं जबकि वैक्सीन शर्तिया काम करती है लेकिन जब तक आपको वैक्सीन न मिले, घरेलू इलाज करते रहें।

लंपी स्किन बीमारी का हरियाणा में कहर, 633 पशुओं की मौत

लंपी स्किन बीमारी का हरियाणा में कहर, 633 पशुओं की मौत

लंपी स्किन बीमारी (Lumpy Skin Disease) अब आए दिन अपना कहर बरपा रही है। इस बीमारी की वजह से हरियाणा और राजस्थान में हालात बद से बदतर हो गए हैं। मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक अब हरियाणा में लंपी बीमारी की वजह से 633 पशुओं की जानें गई हैं, जो चौंकाने वाली खबर है। सरकार का कहना है कि वे वैक्सिनेशन पर जोर दे रहे हैं, लेकिन जिस तरह से पशु दिन ब दिन दम तोड़ रहे हैं उससे लग रहा है कि इतने प्रयास काफी नहीं हैं। पिछले दिनों मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि इस बीमारी की रोकथाम के लिए राज्य में 20 लाख टीके लगाए जाएंगे। जिसमें 3 लाख उपलब्ध हैं और बाकी 17 लाख का ऑर्डर दिया जाएगा। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अब तक केवल 245249 पशुओं का ही टीकाकरण हुआ है। ऐसे में एक बात साफ होती है कि जितनी तेजी से काम होना चाहिए, उसे देखते हुए हरियाणा सरकार अपने लक्ष्य से काफी पीछे चल रही है। अगर ऐसा ही रहा तो जल्दी ही राज्य में हालात और भी बदतर हो जाएंगे।


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देशभर के आंकड़ों पर नजर डालें तो अब तक 3497 गांव इस विकराल बीमारी की चपेट में आ चुके हैं। साथ ही 52,544 पशु इस बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं। अगर आने वाले कुछ दिनों तक तुरत प्रयास नहीं किए जाते, तो मौतों का आंकड़ा और बढ़ेगा। इसके अलावा एक और अफवाह उड़ी है जिससे लोग सकते में हैं। कहा जा रहा है कि लंपी स्किन बीमारी जानवरों से इंसानों को भी लग सकती है। वैसे इस बात तो लेकर राज्य सरकार ने स्पष्टीकरण दिया है और कहा है कि ऐसा कुछ भी नहीं है और अफवाहों पर यकीन न करें।


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मुख्यमंत्री ने कहा है कि इस रोग से पशुओं की मृत्यु होने की आशंका बहुत कम है। और मृत्यु की दर को 1 से 5 प्रतिशत के बीच बताया गया है। कोरोना की तरह इस रोग के लिए भी बताया गया है कि केवल उन पशुओं को खतरा है जो पहले से किसी अन्य बीमारी से बीमार चल रहे हैं। वैसे अगर समय रहते पशुओं को वैक्सीनेशन मिल जाती है, तो पशु 2-3 दिन में ठीक भी हो जाता है। वैसे इस बीमारी से सबसे ज्यादा प्रभावित गौशालाएं हैं, क्योंकि उसमें पशु पास-पास बांधे जाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक अब तक 286 गौशालाओं में 7938 गाय, बछड़े और बैल बीमार चल रहे हैं। जिसमें मृत्यु का आंकड़ा 126 है। सरकार का कहना है कि इस रोग की रोकथाम के लिए आप फॉगिंग करें ताकि मक्खी और मच्छर कम से कम पनप सकें।
किसानों की आय बढ़ाने का फॉर्मूला लेकर आई हरियाणा सरकार, किया 100 करोड़ का निवेश

किसानों की आय बढ़ाने का फॉर्मूला लेकर आई हरियाणा सरकार, किया 100 करोड़ का निवेश

गत वर्ष किसान आंदोलन ने केंद्र सरकार को हिला दिया था। वजह साफ थी कि किसान अपनी आय को लेकर बेहद परेशान है और वह MSP को किसी हाल में नहीं छोड़ना चाहता। लेकिन इससे भी जरूरी बात है कि किसानों की आय दूसरे स्रोतों से बढ़े। इन्हीं चीज़ों को ध्यान में रखते हुए हरियाणा सरकार ने घोषणा की है कि वे अब पारंपरिक फसलों के मुकाबले बागवानी फसलों की तरफ अपना रुख कर रहे हैं। इस कदम का मकसद किसानों की आमदनी बढ़ाना है।


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प्रदेश के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर का कहना है कि प्रदेश में किसानों के बीच बागवानी और पशुपालन पहले के मुकाबले बढ़ा है और आने वाले दिनों में इसे और बढ़ाने का लक्ष्य है। बागवानी को तरजीह देने की वजह फसल विविधीकरण नीति को बताया गया है। इस नीति के अंतर्गत फसलों के लिए जमीन हमेशा बेहतर बनी रहेगी। मौजूदा समय में हरियाणा की 7 प्रतिशत कृषि भूमि पर बागवानी होती है। साल 2030 तक बागवानी का प्रतिशत 30 तक करने की संभावनाएं हैं। इसके लिए सरकार ने 14 सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बनाए हैं जो बागवानी में इस्तेमाल होने वाली नवीनतम टेक्नॉलजी के बारे में जानकारी देगी। इसमें निवेश की बात करें तो अब तक 100 करोड़ से ज्यादा की राशि सरकार इन्वेस्ट कर चुकी है। इसके अलावा सरकार ने पशुपालन को भी बढ़ावा दिया है। मुख्यमंत्री का कहना है कि वे दूध के उत्पादन में हरियाणा को नंबर 1 बनाना चाहते हैं।


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प्रदेश के पशुओं में इस समय लंपी बीमारी का प्रकोप (Lumpy Skin disease) बढ़ा है जिसके चलते पशुपालक खासे परेशान हैं। लेकिन इसको लेकर सरकार किसानों के साथ खड़ी है और सरकार ने कहा है कि वे 20 लाख पशुओं का वैक्सिनेशन कराएंगे। अभी उनके पास 3 लाख वैक्सीन उपलब्ध हैं जबकि 17 लाख वैक्सीन का ऑर्डर किया गया है। हाल ही में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने पशुपालन और बागवानी के दो नए केंद्रों को लॉन्च किया है।


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ये अनुसंधान केंद्र खरकड़ी में हैं जिनके नाम क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र व पशुविज्ञान केंद्र हैं। गौर करने वाली बात है कि इन केंद्रों को बनाने के लिए ग्राम पंचायत खरकड़ी ने 120 एकड़ जमीन दी है। इन केंद्रो को बनने में 39 करोड़ रुपये लगेंगे और पूरा प्रोजेक्ट 2 सालों में बनकर तैयार हो जाएगा। इन केंद्रों में आपको देश विदेश की सब्जियों, फलों, औषधीय और सुगंधित पौधों, मसालों की वैराइटी से संबंधित हर चीज उपलब्ध होगी। आप सोच रहे होंगे कि आखिर इन केंद्रों से आपको क्या फायदा होगा, तो आपको बता दें इन केंद्रों में बागवानी फसलों की सबसे बेहतरीन किस्मों का विकास किया जाएगा जो कीटों को लगने नहीं देंगी और फसलों का विकास बेहतरीन ढंग से होगा। साथ ही किसान यहां से बढ़िया क्वालिटी वाले पौधे व बीज ले सकेंगे जिससे उन्हें फसलों में फायदा होगा। साथ ही नई तकनीक को बढ़ाने में भी काम होगा।
लंपी स्किन बीमारी को लेकर राजस्थान सरकार ने कसी कमर, भर्ती होंगे अस्थाई डॉक्टर

लंपी स्किन बीमारी को लेकर राजस्थान सरकार ने कसी कमर, भर्ती होंगे अस्थाई डॉक्टर

लंपी स्किन बीमारी जिस तरह से पूरे देश में कहर बरपा रही है, उसे देखते हुए राज्य सरकारें तुरफ फुरत में फैसले ले रही हैं ताकि इस जानलेवा बीमारी से पशुओं को बचाया जा सके। पिछले दिनों राजस्थान और हरियाणा सरकार ने अपने-अपने राज्यों में वैक्सिनेशन की प्रक्रिया तेज कर दी थी। लेकिन जिस तरह से मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, उन्हें और बेहतर तरीके से नियंत्रण करने के लिए राजस्थान सरकार ने एक और महत्वपूर्ण फैसला लिया है। दरअसल, इस काम को मिशन मोड में खत्म करने के लिए राजस्थान सरकार ने 200 डॉक्टरों की अस्थायी तौर पर भर्ती करने का फैसला लिया है। ये डॉक्टर मवेशियों के टीकाकरण में तेजी लाने में अहम भूमिका निभाएंगे।


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इस बात की जानकारी राजस्थान के पशुपालन मंत्री लालचन्द कटारिया ने दी है। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार पशुओं को इस रोग से निजात दिलाने के लिए सभी तरह के प्रयास कर रही है। यही वजह है कि जिस क्षेत्र में ज्यादा रोगों की जानकारी मालूम पड़ रही है, वहां के लिए अस्थायी डॉक्टर नियुक्त किए गए हैं ताकि रोगों के मामलों में रोकथाम लाई जा सके। साथ उन्होंने कहा कि डॉक्टरों को और मुस्तैदी से काम करने की जरूरत है ताकि पशुपालकों का किसी तरह कोई नुकसान न हो। उन्होंने कहा कि राजस्थान में जब भी इस तरह की आपदा आती है, तो स्वयंसेवी संस्थाओं से लेकर समाज के लोगों का खूब सहयोग मिलता है। प्राप्त जानकारी के अनुसार अभी तक राज्य में करीब ढाई लाख पशुओं को वैक्सीन लगाई जा चुकी हैं। डॉक्टर भर्ती के बारे में विस्तार से बताते हुए पशुपालन मंत्री लालचंद कटारिया ने कहा कि राज्य में पशुओं की बेहतरी को देखते हुए 1 हजार 436 पशुध सहायकों की भर्ती की जाएगी। इसके अलावा तत्काल अस्थायी आधार पर 300 पशुधन सहायक होंगे। साथ ही 200 वेटरनरी डॉक्टर अस्थायी तौर पर भर्ती किए जाएंगे।


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मौजूदा हालातों को देखते हुए सभी पशु विभाग के दफ्तरों को छुट्टी के दिनों में भी खुले रहने के आदेश जारी कर दिए गए हैं, ताकि छुट्टी के दिन भी किस तरह की दिक्कत होने पर पशुओं के मालिक डॉक्टरों से संपर्क कर सकें। साथ ही कहा गया है कि इस बीमारी के बारे में हर गांव को जागरूक किया जाए। साथ ही अधिकारियों को कहा गया है कि हर रोज प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करें, ताकि हर तरह की समस्या को हल किया जा सके।


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साथ ही अधिकारियों को कहा गया है कि वे गौशाला वालों को बोलें कि पशुओं के आस-पास जितनी हो सके सफाई रखें, क्योंकि वातावरण अशुद्ध होने की वजह से यह बीमारी ज्यादा फैलती है। प्रदेश में अब तक सबसे ज्यादा संक्रमित पशु जोधपुर से सामने आए हैं, जहां इसकी संख्या 1 लाख के करीब है और करीब 2800 पशुओं की मौत हो चुकी है। ऐसे में ज्यादा प्रभावित जिलों पर प्रशासन ज्यादा ध्यान दे रहा है।
बौना धान: पंजाब पर चीन की टेढ़ी नजर, अब धान बना निशाना

बौना धान: पंजाब पर चीन की टेढ़ी नजर, अब धान बना निशाना

चीन की चालाकियां और बदमाशी थमने का नाम नहीं ले रही है. कोरोना के बाद अब चीन एक बार फिर एक नए वायरस के कारण चर्चा में है, जिसकी वजह से पंजाब में धान की खेती को काफी ज्यादा नुकसान हो रहा है. पंजाब में धान उत्पादक, विभिन्न क्षेत्रों से फसल में आ रही बौनी बीमारी से चिंतित हैं और उन पर इसका भारी असर पड़ रहा है. यह बीमारी साउथ राइस ब्लैक-स्ट्रीक्ड ड्वार्फ वायरस (Southern Rice Black-Streaked Dwarf Virus (SRBSDV)के कारण हुई है, जो इस क्षेत्र में तेजी से फैल रहा है. एक्सपर्ट्स के अनुसार यह वायरस भी चीन से आया है. यह वायरस इतना अधिक घातक है कि इसकी वजह से पंजाब के कई क्षेत्रों में हजारों हेक्टेयर में बोए गए धान के पौधे अविकसित रह गए हैं और उनमें बौनापन आ गया है. जाहिर है, इस वजह से इस खरीफ के सीजन में धान उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ेगा.

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पंजाब के कई इलाके प्रभावित

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू - Punjab Agricultural University - PAU) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए नवीनतम सर्वेक्षण ने भी पुष्टि की है कि लगभग पूरे राज्य में चावल और बासमती के खेतों में, विशेष रूप से पटियाला, फतेहगढ़ साहिब, रोपड़, मोहाली, होशियारपुर, पठानकोट में धान के खेतों में इस बीमारी के लक्षण देखे गए हैं. गौरतलब है कि 3,500 हेक्टेयर से अधिक खड़ी धान की फसल पहले ही आधिकारिक तौर पर साउथ राइस ब्लैक-स्ट्रीक्ड ड्वार्फ वायरस (SRBSDV) से प्रभावित हो चुकी है. लुधियाना में इस फसल सीजन में 2,58,600 हेक्टेयर क्षेत्र में धान की बुआई हुई थी, जोकि राज्य में अब तक का सबसे अधिक है. लेकिन लुधियाना में भी 3,500 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में धान में बौनेपन की बीमारी की सूचना मिली है, जो कुल क्षेत्रफल का 1.35 प्रतिशत है. यदि फसल उपज पैटर्न और मूल्य निर्धारण को ध्यान में रखा जाता है, तो अकेले लुधियाना जिले के किसानों को अब तक 51.35 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हुआ है क्योंकि कम से कम 2,51,720 क्विंटल धान की उपज पहले ही बीमारी की चपेट में आ चुकी है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, 2021-22 में, लुधियाना जिले में 7,192 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर धान की उपज दर्ज की गई थी और 2022-23 के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,040 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है.

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क्या कहते है एक्सपर्ट्स

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति सतबीर सिंह गोसल ने धान उत्पादकों से कहा है कि वे बौने रोग से न डरें, जो राज्य में पहली बार एसआरबीएसडीवी (SRBSDV) के कारण सामने आया है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एंटोमोलॉजिस्ट (entomologist) द्वारा किए गए नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार, चावल और बासमती के खेतों में अविकसित पौधे देखे गए हैं. कुछ क्षेत्रों में इस रोग के गंभीर हमले के कारण कुछ पौधे मर चुके थे और कुछ सामान्य पौधों की तुलना में आधे से एक तिहाई ऊंचाई कद के थे. पीएयू के प्रिंसिपल एंटोमोलॉजिस्ट केएस सूरी ने कहा कि इन प्रभावित पौधों का अभी जड़ गहरा नहीं है और इन्हें आसानी से निकाला जा सकता है. उन्होंने कहा कि बौना रोग 25 जून के बाद बोए गए धान की तुलना में उससे पहले रोपे गए धान में अधिक दिखा है.

भयभीत है किसान

जालंधर के एक किसान कहते हैं कि हम पहली बार ऐसी बीमारी देख रहे हैं. फसल के लिए एक महीने से भी कम समय है, लेकिन हमें अच्छी उपज की उम्मीद नहीं है, वहीं भारतीय किसान यूनियन (दोआबा) के नेता सतनाम सिंह साहनी ने कहा है कि हम पहले से ही अनुमान लगा सकते हैं कि बौने रोग के कारण कुल मिलाकर फसल की 10 प्रतिशत उपज नष्ट हो गई है. हालांकि, एक बार फसल चक्र पूरा होने के बाद यह नुकसान 15 से 20 प्रतिशत तक भी हो सकता है.
पशुओं में थनैला रोग के लक्षण और रोकथाम

पशुओं में थनैला रोग के लक्षण और रोकथाम

थनैला रोग दुधारू पशुओं का महत्वपूर्ण रोग है। यह कई प्रकार के जीवाणुओं के थनों में प्रवेश द्वारा उत्पन्न होता है। यह बीमारी समान्य गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं में पायी जाती है, जो अपने बच्चों को दूध पिलाती हैं। थनैला बीमारी पशुओं में कई प्रकार के जीवाणु, विषाणु, फफूँद एवं यीस्ट तथा मोल्ड के संक्रमण से होता है। इसके अलावा चोट तथा मौसमी प्रतिकूलताओं के कारण भी थनैला हो जाता है। इस बीमारी से पूरे भारत में प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये का नुकसान होता है। जो अतंतः पशुपालकों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है।

थनैला रोग के लक्षण एवं उपाय



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  • रोग के लक्षण दूध में रेशे आना, छिछड़े आना या मवाद आने लग जाना।
  • थानों में सूजन तथा दूध की मात्रा में कमी आना।
  • पशु का दर्द के कारण दूध ना धोने देना।
  • वहीं कुछ पशुओं में थन में सूजन या कडापन के साथ-साथ दूध असामान्य पाया जाता है।
  • कुछ असामान्य प्रकार के रोग में थन सड़ कर गिर जाता है।
ज्यादातर पशुओं में बुखार आदि नहीं होता। रोग का उपचार समय पर न करने से थन की सामान्य सूजन बढ़ कर अपरिवर्तनीय हो जाती है और थन लकडी की तरह कड़ा हो जाता है। कुछ पशुओं में दूध का स्वाद बदल कर नमकीन हो जाता है।


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  • इस अवस्था के बाद थन से दूध आना स्थाई रूप से बंद हो जाता है।
  • सामान्यतः प्रारम्भ में एक या दो थन प्रभावित होते हैं, जो कि बाद में अन्य थनों में भी रोग फैला सकते हैं।

बचाव व रोकथाम

  • दूध निकालने के बाद पशुओ को आधा घंटा खड़ा रखे।
  • दूध निकालने के बाद सभी थनों को जीवाणु नाशक दवा के घोल जैसे लाल पोटाश या सेवलोन में डुबोना है।
  • दूधारू पशुओं के रहने के स्थान की नियमित सफाई जरूरी हैं।
  • फिनाईल के घोल तथा अमोनिया कम्पाउन्ड का छिड़काव करना चाहिए।
  • दूध दुहने के पश्चात् थन की यथोचित सफाई लिए लाल पोटाश या सेवलोन का प्रयोग किया जा सकता है।
  • दूधारू पशुओं में दूध बन्द होने की स्थिति में ड्राई थेरेपी द्वारा उचित ईलाज करायी जानी चाहिए।
  • थनैला होने पर तुरंत पशु चिकित्सक की सलाह से उचित इलाज कराया जाये।