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रबी सीजन

रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने वाले किसानों के लिए महत्वपूर्ण जानकारी

रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने वाले किसानों के लिए महत्वपूर्ण जानकारी

महाराष्ट्र भारत में प्याज उत्पादन के मामले में विशिष्ट राज्य है,क्योंकि महाराष्ट्र में प्याज का उत्पादन काफी किया जाता है। बतादें कि वर्ष में तीन बार प्याज की फसल उगाई जाती है। प्रदेश के सोलापुर, नासिक, पुणे, धुले व अहमदनगर जनपद में सर्वाधिक प्याज का उत्पादन होता है। प्रदेश में फिलहाल रबी सीजन के प्याज की पैदावार की तैयारी चालू है। महाराष्ट्र में किसान अधिकतर प्याज की खेती करते हैं। साथ ही, महाराष्ट्र राज्य में देश ही नहीं बल्कि एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी नासिक जनपद के लासलगांव में स्थित है। सामान्य रूप से अधिकतर प्रदेशों द्वारा वर्ष में एक ही बार प्याज का उत्पादन किया जाता है। परंतु महाराष्ट्र में ऐसा नहीं है, प्रदेश में एक वर्ष के दौरान रबी सीजन, खरीफ, खरीफ के बाद इस तरह प्याज का तीन बार उत्पादन है।


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महाराष्ट्र राज्य के किसान अधिकतर प्याज का उत्पादन करते हैं और इस पर ही आश्रित रहते हैं हालाँकि सर्वाधिक प्याज उत्पादन रबी सीजन में ही प्राप्त होता है। प्याज के द्वितीय सीजन की बुआई अक्टूबर-नवंबर माह के मध्य में होती है। इसकी फसल जनवरी से मार्च के मध्य तैयार हो जाती है। प्याज का फसल का तीसरा समय रबी सीजन में होता है। रबी सीजन की बुवाई दिसंबर से जनवरी के मध्य होती है, और इसकी फसल की पैदावार मार्च से मई के मध्य ली जाती है। महाराष्ट्र में प्याज की कुल पैदावार का ६० प्रतिशत उत्पादन रबी सीजन के दौरान होता है।

ज्यादातर प्याज की खेती कौन से जिलों में होती है

महाराष्ट्र राज्य के नासिक, पुणे, सोलापुर, जलगाँव, धुले, अहमदनगर, सतारा जनपद में ज्यादा खेती होती है। बतादें कि मराठवाड़ा के कुछ जनपदों में भी प्याज उत्पादन किया जाता है। इसमें भी प्याज उत्पादन के मामले में नासिक जनपद अपनी अलग पहचान रखता है, इसकी मुख्य वजह देश के कुल प्याज उत्पादन का ३७ % महाराष्ट्र राज्य करता है जबकि १० % उत्पादन केवल नासिक जनपद में किया जाता है।


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प्याज उत्पादन के लिए कैसी मिट्टी व भूमि सही होती है

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार प्याज के उत्पादन हेतु कई प्रकार की मिट्टी का उपयोग हो सकता है। प्याज की अच्छी पैदावार लेने के लिए चिकनी, गार, रेतीली, भूरी एवं दोमट मिट्टी का प्रयोग होना चाहिए। प्याज की खेती से बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए भूमि के जल निकासी हेतु अच्छा प्रबंधन होना चाहिए। प्याज उत्पादन से पूर्व जमीन तैयार करने हेतु सर्वप्रथम तीन से चार बार जुताई हो एवं रुड़ी खाद के इस्तेमाल से जैविक तत्वों की मात्रा में बढ़ोत्तरी करें। इसके बाद खेत को छोटे-छोटे भाग में बाँट दें। भूमि की सतह से १५ सेमी उंचाई पर 1.2 मीटर चौड़ी पट्टी पर बुवाई होनी चाहिये। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=JeQ8zGkrOCI&t=34s[/embed]
कैसे करें सूरजमुखी की खेती? जानें सबसे आसान तरीका

कैसे करें सूरजमुखी की खेती? जानें सबसे आसान तरीका

रबी का सीजन शुरू हो चुका है, सीजन के शुरू होने के साथ ही रबी की फसलों की बुवाई भी बड़ी मात्रा में शुरू हो चुकी है। इसलिए आज हम आपके लिए लेकर आए हैं सूरजमुखी या सूर्यमुखी (Sunflower) की खेती की सम्पूर्ण जानकारी ताकि किसान भाई इस बार रबी के सीजन में सूरजमुखी की खेती करके ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सकें। अभी भारत में मांग के हिसाब से सूरजमुखी का उत्पादन नहीं होता है, इसलिए भारत सरकार को घरेलू आपूर्ति के लिए विदेशों से सूरजमुखी आयत करना पड़ता है, ताकि घरेलू मांग को पूरा किया जा सके। भारत में इसकी खेती सबसे पहले साल साल 1969 में उत्तराखंड के पंतनगर में की गई थी, जिसके बाद अच्छे परिणाम प्राप्त होने पर देश भर में इसकी खेती की जाने लगी। फिलहाल महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, आंधप्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा और पंजाब के किसान सूरजमुखी की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में हर साल लगभग 15 लाख हेक्टेयर पर सूरजमुखी की खेती की जाती है, साथ ही देश के किसान इसकी खेती से 90 लाख टन की पैदावार लेते हैं। अगर सूरजमुखी की खेती में औसत पैदावार की बात करें तो 1 हेक्टेयर में 7 क्विंटल सूरजमुखी के बीजों का उत्पादन होता है। सूरजमुखी एक तिलहनी फसल है, विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इसकी खेती सर्दी के सीजन में की जाए तो अच्छी पैदावार निकाली जा सकती है।


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सूरजमुखी की खेती के लिए खेत की तैयारी कैसे करें

खेत तैयार करने से पहले मिट्टी की जांच अवश्य करवा लें, यदि खेत की मिट्टी ज्यादा अम्लीय या ज्यादा क्षारीय है तो उस जमीन में सूरजमुखी की खेती करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसके साथ ही विशेषज्ञों से उर्वरक के इस्तेमाल की सलाह जरूर लें ताकि जरुरत के हिसाब से खेत की मिट्टी में पर्याप्त उर्वरक इस्तेमाल किये जा सकें। खेत तैयार करते समय ध्यान रखें कि खेत से पानी की निकासी का सम्पूर्ण प्रबंध होना चाहिए। इसके बाद गहरी जुताई करें और खेत को समतल करके बुवाई के लिए तैयार कर लें।

सूरजमुखी की खेती के लिए बाजार में उपलब्ध उन्नत किस्में

ऐसे तो बाजार में सूरजमुखी के बीजों की कई किस्में उपलब्ध हैं, लेकिन अधिक और अच्छी क्वालिटी की पैदावार के लिये किसान कंपोजिट और हाइब्रिड किस्मों का इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार की उन्नत किस्मों का इस्तेमाल करने पर सूरजमुखी की खेती 90 से 100 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है, और उसके बीजों में तेल का प्रतिशत भी 40 से 50 फीसदी के बीच होता है। अगर बेस्ट किस्मों की बात करें तो किसान भाई सूरजमुखी की बीएसएस-1, केबीएसएस-1, ज्वालामुखी, एमएसएफएच-19 और सूर्या किस्मों का चयन कर सकते हैं।


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सूरजमुखी की बुवाई कैसे करें

सूरजमुखी की बुवाई रबी सीजन की शुरुआत में की जाती है। अगर माह की बात करें तो अक्टूबर का तीसरा और चौथा सप्ताह इसके लिए बेहतर माना गया है। इसकी बुवाई से पहले बीजों का उपचार कर लें ताकि बुवाई के समय किसानों के पास बेस्ट किस्म के बीज उपलब्ध हों। सूरजमुखी के बीजों की बुवाई छिड़काव और कतार विधि दोनों से की जा सकती है। लेकिन भारत में कतार विधि, छिड़काव विधि की अपेक्षा बेहतर मानी गई है। कतार विधि का प्रयोग करने से खेती के प्रबंधन में आसानी रहती है। इसके लिए विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि लाइनों के बीच 4-5 सेमी और बीजों के बीच 25-30 सेमी का फासला रखना चाहिए।

सूरजमुखी की खेती में खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल कैसे करें

जैविक खाद एवं उर्वरक किसी भी खेती के उत्पादन को बढ़ाने के लिए बेहद जरूरी होते हैं। इसलिए सूरजमुखी की खेती में भी इन चीजों का उपयोग आवश्यकतानुसार किया जाता है। सूरजमुखी के बीजों का क्वालिटी प्रोडक्शन प्राप्त करने के लिए 6 से 8 टन सड़ी हुई गोबर की खाद और वर्मी कंपोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें। इसके साथ विशेषज्ञ 130 से 160 किग्रा यूरिया, 375 किग्रा एसएसपी और 66 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।


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सूरजमुखी की खेती में सिंचाई किस प्रकार से करें

सुरजमुखी की खेती में सामान्य सिंचाई की दरकार होती है। इसकी खेती में 3 से 4 सिंचाईयां पर्याप्त होती हैं। इस खेती में यह सुनिश्चित करना बेहद अनिवार्य है कि खेत में नमी बनी रहे, ताकि पौधे बेहचर ढंग से पनप पाएं। सूरजमुखी की फसल में पहली सिंचाई 30-35 दिन के अंतराल में करनी होती है। इसके बाद हर तीसरे सप्ताह इस फसल में पानी देते रहें। इस फसल में फूल आने के बाद भी हल्की सिंचाई की दरकार होती है। यह एक फूल वाली खेती है इसलिए इसमें कीटों का हमला होना सामान्य बात है। इस फसल में एफिड्स, जैसिड्स, हरी सुंडी व हेड बोरर जैसे कीट तुरंत हमला बोलते हैं। जिससे सूरजमुखी के पौधों को रतुआ, डाउनी मिल्ड्यू, हेड राट, राइजोपस हेड राट जैसे रोग घेर लेते हैं। इसके अलावा इस खेती में पक्षियों का हमला भी आम बात है। फूलों में बीज आने के बाद पक्षी भी बीज चुन लेते हैं, ऐसे में किसानों को विशेषज्ञों से सलाह लेनी चाहिए ताकि वो इन परेशानियों से निपट पाएं। बुवाई के लगभग 100 दिनों बाद सूरजमुखी की खेती पूरी तरह से तैयार हो जाती है। इसके फूल बड़े होकर पूरी तरह से पीले हो जाते है। फूलों की पंखुड़ियां झड़ने के बाद किसान इस खेती की कटाई कर सकते हैं। कटाई करने के बाद इन फूलों को 4 से 5 दिन तक तेज धूप में सुखाया जाता है। इसके बाद मशीन की सहायता से या पीट-पीटकर फूलों के बीजों को अलग कर लिया जाता हैं। अगर पैदावार की बात करें तो अच्छी परिस्थियों में किसान भाई उन्नत किस्मों और आधुनिक खेती के साथ एक हेक्टेयर में 18 क्विंटल तक सूरजमुखी के बीजों की पैदावार ले सकते हैं। सामान्य परिस्थियों में यह पैदावार 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।


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हाल ही में भारत सरकार ने सूरजमुखी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी कर दी है। इस लिहाज से अब सूरजमुखी की खेती करके किसान भाई पहले की अपेक्षा ज्यादा कमाई कर सकते हैं। सरकार ने रबी सीजन के लिए सूरजमुखी के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 209 रूपये प्रति क्विंटल की बढ़ोत्तरी की है। इस हिसाब से अब किसान भाइयों के लिए सूरजमुखी के बीजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,650 रुपये प्रति क्विंटल हो गया है।
राजस्थान के किसानों के लिए सरकार का “रँगीलों तोहफा”, जाने क्या है ये तोहफा

राजस्थान के किसानों के लिए सरकार का “रँगीलों तोहफा”, जाने क्या है ये तोहफा

अमूमन ये माना जाता है कि राजस्थान एक सूखा प्रदेश है और यहाँ खेती की ही नहीं जा सकती। लेकिन, यह अधूरा सच है। हाँ, यह सच है कि राजस्थान के कुछ हिस्सों में पानी की कमी जरूर है। इससे इन क्षेत्रों के किसानों के लिए थोड़ी मुश्किलें जरूर आती हैं। लेकिन, मौजूदा सरकार ने पूरे राजस्थान के किसानों के लिए एक ऐसा शानदार तोहफा दिया है, जिसे सुन कर किसानों का मन झूम उठेगा और साथ ही उनकी फसलें भी लहलहा जाएंगी। राजस्थान सरकार ने एक अच्छी पहल करते हुए, ‘राजस्थान जल क्षेत्र पुनर्संरचना परियोजना” के तहत किसानों को खुशखबरी दी है। सरकार ने किसानों के दिल पर सिंचाई के बोझ को कम करने का काम किया है। तो खबर यह है कि राजस्थान सरकार ने उक्त परियोजना के तहत 3269 करोड़ की विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है।

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3269 करोड़ की विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं को दी मंजूरी

आने वाले समय में रबी सीजन को देखते हुए राजस्थान सरकार ने किसानों के हित में बड़ा फैसला लिया है। रबी सीजन में बारिश कम होती है, मगर फसलों को सिंचाई की उचित आवश्यकता होती है। देखा जाए तो राजस्थान की सूखी-रेतीली जमीन पर किसानों को पानी की समस्या से काफी जूझना पड़ता है। जिसके कारण किसान परेशान रहते हैं, और इसका असर फसल उत्पादन पर भी पड़ता है। लेकिन, अब ऐसा नहीं होगा क्योंकि राजस्थान सरकार ने 3269 करोड़ की विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं को मंजूरी दे दी है, और जाहिर है। इसका सीधा फायदा राजस्थान के किसानों को मिलने जा रहा है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=V9_6hWrsloY&t=144s[/embed] इस योजना के तहत, उन क्षेत्रों में सिंचाई की शानदार व्यवस्था विकसित की जा रही है, जहां सूखा पड़ता है और वहाँ की जमीन को दुबारा खेती के लायक बनाने के लिए किसानों को काफी मेहनत करनी पड़ती है। इस योजना का सबसे बड़ा लाभ यह होगा की अब राजस्थान के सभी इलाकों को फायदा होगा। मसलन, राजस्थान का शेखावाटी इलाका जहां पहले से ही हरित क्षेत्र है, जहां के किसान काफी संपन्न है, वहीं दूसरी तरफ मारवाड़ का भी क्षेत्र है, जहां पानी की कमी है। लेकिन, अब इस हजारों करोड़ के प्रोजेक्ट का फायदा सभी किसानों को मिलेगा। जल क्षेत्र पुनर्संरचना प्रोजेक्ट राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र में जल संसाधनों को संरक्षित, विकसित करने का काम करेगा। इससे करीब 22831 हेक्टेयर क्षेत्र जमीन को फिर से खेती के लायक बनाया जा सकेगा। [embed]https://twitter.com/ashokgehlot51/status/1588871228059967488[/embed]  
रबी सीजन की फसलों की बुवाई से पहले जान लें ये बात, नहीं तो पछताओगे

रबी सीजन की फसलों की बुवाई से पहले जान लें ये बात, नहीं तो पछताओगे

सरकार द्वारा वर्ष २०२३-२४ हेतु रबी सीजन में उगाई जाने वाली फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य नक्की किया गया है, जिसके अंतर्गत गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य २१२५ रूपये निर्धारित हुआ है। इसके अतिरिक्त सरसों, जौ, गेहूं, चना, मसूर एवं सनफ्लावर व रेपसीड का भी मूल्य नक्की किया गया है। किसानों को निर्धारित मूल्य से कम भाव नहीं दिया जायेगा। बतादें कि रबी फसलों की बुवाई होना प्रारंभ हो चुकी है, इससे पूर्व ही केंद्र सरकार द्वारा इन फसलों की एमएसपी निर्धारित कर दी है। एमएसपी को ध्यान में रखकर अधिक मुनाफा देने वाली फसलों का चयन करें। मसूर, सरसों, गेहूं, जौ, चना, एवं रेपसीड तथा सूरजमुखी (कुसुम्भ) का रबी विपणन साल २०२३-२४ के लिए एमएसपी नक्की किया है। बुवाई से पूर्व ज्ञात रहे कि आपको कौनसी फसल में अधिक मुनाफा होने सकता है। राजस्थान सरकार द्वारा इस मामले में किसानों को पूर्ण ज्ञापन दिया गया है, गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य २१२५ रूपये प्रति क्विंटल, जौ का १७३५ रूपये प्रति क्विंटल, चने का ५३३५ रूपये प्रति क्विंटल, मसूर (लेन्टिल) का ६००० रूपये प्रति क्विंटल, सरसों एवं रेपसीड का ५४५० रूपये प्रति क्विंटल तथा सूरजमुखी (कुसुम्भ) का न्यूनतम समर्थन मूल्य ५६५० रूपये प्रति क्विंटल नक्की हुआ है। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के अनुसार ही फसलों का भाव दिया जायेगा।

राजस्थान सरकार द्वारा केंद्र सरकार से मोटे अनाजों की खरीद सुचारु रखी जाएगी

साथ ही, सरसों एवं रेपसीड समूह से संबंधित अन्य तिलहनों जैसे तोरिया का भाव रेपसीड एवं सरसों के साथ उनके सामान्य बाजार भाव अंतराल के आधार पर निर्धारित होंगे। अनाजों एवं मोटे अनाजों के संदर्भ में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) एवं अन्य नामित राज्य एजेंसियां किसानों को मूल्य समर्थन प्रदान करना जारी रखेगी। राजस्थान सरकार केन्द्र सरकार के पूर्वानुमोदन से मोटे अनाजों की खरीदारी निरंतर रखेगी। साथ ही, खरीदी गई संपूर्ण मात्रा को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसए) के चलते वितरण करेगी। अनुदान सिर्फ एनएफएसए के अनुरूप लागू की गई मात्रा के लिए ही दी जाएगी।

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तिलहन व दलहन इन एजेंसियों द्वारा निरंतर खरीदी जाएगी

भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ लिमिटेड (नैफेड), लघु कृषक-कृषि व्यापार संघ (एसएफएसी) एवं अन्य नामित केंद्रीय एजेंसियां दलहनों व तिलहनों की खरीद निरंतर रखेंगी। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रचलनों में नोडल एजेंसियों के द्वारा नुकसान हो तो, उनकी सम्पूर्ण पूर्ति केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशानुसार की जाएगी। बतादें कि राज्य में रबी विपणन मौसम वर्ष २०२३ -२४ में एमएसपी खरीद हेतु खाद्य व नागरिक आपूर्ति विभाग को नोडल विभाग बना दिया है। राजस्थान राज्य के ३१९ केंद्रों पर १ नवंबर से उड़द, मूंग एवं सोयाबीन की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य के अनुसार खरीदना प्रारंभ कर दिया है। साथ ही, मूंगफली की खरीदी १८ नवंबर से प्रारंभ हो जाएगी जिसके लिए किसानों को ऑनलाइन पंजीकरण करवाना होगा।
इस तकनीक के जरिये किसान एक एकड़ जमीन से कमा सकते है लाखों का मुनाफा

इस तकनीक के जरिये किसान एक एकड़ जमीन से कमा सकते है लाखों का मुनाफा

भारत के बहुत सारे किसानों पर कृषि हेतु भूमि बहुत कम है। उस थोड़ी सी भूमि पर भी वह पहले से चली आ रही खेती को ही करते हैं, जिसे हम पारंपरिक खेती के नाम से जानते हैं। लेकिन इस प्रकार से खेती करके जीवन यापन भी करना एक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। परन्तु आज के समय में किसान स्मार्ट तरीकों की सहायता से 1 एकड़ जमीन से 1 लाख रूपये तक की आय अर्जित कर सकते हैं। वर्तमान में प्रत्येक व्यवसाय में लाभ देखने को मिलता है। कृषि विश्व का सबसे प्राचीन व्यवसाय है, जो कि वर्तमान में भी अपनी अच्छी पहचान और दबदबा रखता है। हालाँकि, कृषि थोड़े समय तक केवल किसानों की खाद्यान आपूर्ति का इकलौता साधन था। लेकिन वर्त्तमान समय में किसानों ने सूझ-बूझ व समझदारी से सफलता प्राप्त कर ली है। आजकल फसल उत्पादन के तरीकों, विधियों एवं तकनीकों में काफी परिवर्तन हुआ है। किसान आज के समय में एक दूसरे के साथ सामंजस्य बनाकर खेती किसानी को नई उचाईयों पर ले जाने का कार्य कर रहे हैं। आश्चर्यचकित होने वाली यह बात है, कि किसी समय पर एक एकड़ भूमि से किसानों द्वारा मात्र आजीविका हेतु आय हो पाती थी, आज वही किसान एक एकड़ भूमि से बेहतर तकनीक एवं अच्छी फसल चयन की वजह से लाखों का मुनाफा कमा सकता है। यदि आप भी कृषि से अच्छा खासा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो आपको भूमि पर एक साथ कई सारी फसलों की खेती करनी होगी। सरकार द्वारा भी किसानों की हर संभव सहायता की जा रही है। किसानों को आर्थिक मदद से लेकर प्रशिक्षण देने तक सरकार उनकी सहायता कर रही है।

वृक्ष उत्पादन

किसान पेड़ की खेती करके अच्छा खासा लाभ अर्जित कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए किसानों को अपनी एकड़ भूमि की बाडबंदी करनी अत्यंत आवश्यक है। जिससे कि फसल को जंगली जानवरों की वजह से होने वाली हानि का सामना ना करना पड़े। पेड़ की खेती करते समय किसान अच्छी आमदनी देने वाले वृक्ष जैसे महानीम, चन्दन, महोगनी, खजूर, पोपलर, शीशम, सांगवान आदि के पेड़ों का उत्पादन कर सकते हैं। बतादें, कि इन समस्त पेड़ों को बड़ा होने में काफी वर्ष लग जाते हैं। किसान भूमि की मृदा एवं तापमान अनुरूप फलदार वृक्ष का भी उत्पादन कर सकते हैं। फलदार वृक्षों से फल उत्पादन कर अच्छी कमाई की जा सकती है।

पशुपालन

पेड़ लगाने के व खेत की बाडबंदी के उपरांत सर्वप्रथम गाय या भैंस की बेहतर व्यवस्था करें। क्योंकि गाय व भैंस के दूध को बाजार में बेचकर अच्छा मुनाफा कमाया जाता है। साथ ही, इन पशुओं के गोबर से किसान अपनी फसल से अच्छी पैदावार लेने के लिए खाद की व्यवस्था भी कर सकते हैं। किसान चाहें तो पेड़ उत्पादन सहित खेत के सहारे-सहारे पशुओं हेतु चारा उत्पादन भी कर सकते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि बहुत से पशु एक दिन के अंदर 70-80 लीटर तक दूध प्रदान करते हैं। किसान बाजार में दूध को विक्रय कर प्रतिमाह हजारों की आय कर सकते हैं।


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मौसमी सब्जियां

किसान अपनी एक एकड़ भूमि का कुछ भाग मौसमी सब्जियों का मिश्रित उत्पादन कर सकते हैं। यदि किसान चाहें तो वर्षभर मांग में रहने वाली सब्जियां जैसे कि अदरक, फूलगोभी, टमाटर से लेकर मिर्च, धनिया, बैंगन, आलू , पत्तागोभी, पालक, मेथी और बथुआ जैसी पत्तेदार सब्जियों का भी उत्पादन कर सकते हैं। इन सब सब्जियों की बाजार में अच्छी मांग होने की वजह से तीव्रता से बिक जाती हैं। साथ इन सब्जिओं की पैदावार भी किसान बार बार कटाई करके प्राप्त हैं। किसान आधा एकड़ भूमि में पॉलीहाउस के जरिये इन सब्जियों से उत्पादन ले सकते हैं।

अनाज, दाल एवं तिलहन का उत्पादन

देश में प्रत्येक सीजन में अनाज, दाल एवं तिलहन का उत्पादन किया जाता है, सर्वाधिक दाल उत्पादन खरीफ सीजन में किया जाता हैं। बाजरा, चावल एवं मक्का का उत्पादन किया जाता है, वहीं रबी सीजन के दौरान सरसों, गेहूं इत्यादि फसलों का उत्पादन किया जाता है। इसी प्रकार से फसल चक्र के अनुसार प्रत्येक सीजन में अनाज, दलहन अथवा तिलहन का उत्पादन किया जाता है। किसान इन तीनों फसलों में से किसी भी एक फसल का उत्पादन करके 4 से 5 माह के अंतर्गत अच्छा खासा लाभ अर्जित कर सकते हैं।

सोलर पैनल

आजकल देश में सौर ऊर्जा के उपयोग में वृध्दि देखने को मिल रही है। बतादें, कि बहुत सारी राज्य सरकारें तो किसानों को सोलर पैनल लगाने हेतु धन प्रदान कर रही हैं। सोलर पैनल की वजह से किसानों को बिजली एवं सिंचाई में होने वाले खर्च से बचाया जा सकता है। साथ ही, सौर ऊर्जा से उत्पन्न विघुत के उत्पादन का बाजार में विक्रय कर लाभ अर्जित किया जा सकता है। जो कि प्रति माह किसानों की अतिरिक्त आय का साधन बनेगी। विषेशज्ञों द्वारा किये गए बहुत सारे शोधों में ऐसा पाया गया है, सोलर पैनल के नीचे रिक्त स्थान पर सुगमता से कम खर्च में बेहतर सब्जियों का उत्पादन किया जा सकता है।
इस राज्य के किसान फसल पर हुए फफूंद संक्रमण से बेहद चिंतित सरकार से मांगी आर्थिक सहायता

इस राज्य के किसान फसल पर हुए फफूंद संक्रमण से बेहद चिंतित सरकार से मांगी आर्थिक सहायता

महाराष्ट्र राज्य में संतरा, मिर्च, पपीता पर रोगिक संक्रमण के बाद वर्तमान में चने की फसल भी संक्रमित हो रही है। चने पर फफूंद संक्रमण की वजह से पौधे बर्बाद होते जा रहे हैं, इस बात से किसान बहुत चिंतित दिखाई दे रहे हैं। बतादें, कि इस वर्ष में चने की पैदावार काफी कम हुई है। इसके साथ साथ अन्य फसल भी जैसे कि मिर्च, संतरा और पपीता सहित बहुत सारी फसलों पर फफूंद संक्रमण एवं कीटों का प्रकोप जारी है। उत्पादकों को लाखों की हानि वहन करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र राज्य में फसलीय रोगों की वजह से फसलें बेहद गंभीर रूप से नष्ट होती जा रही हैं। किसान सरकार से सहायता की फरियाद कर रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र के किसानों की चने की फसल भी फफूंद के कारण रोगग्रसित हो गयी है। विशेषज्ञों के अनुसार, कीट एवं फफूंद से फसलों को बचाने हेतु किसानों को बेहतर ढंग से फसल की देखभाल करने की अत्यंत आवश्यकता है।

चने की फसल को बर्बाद कर रहा फफूंद

महाराष्ट्र राज्य में चने की फसल फफूंद की वजह से गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है। प्रदेश में चने का उत्पादन फसल बर्बाद होने के कारण घटता जा रहा है। महाराष्ट्र राज्य के नंदुरबार जनपद में चने की फसल का उत्पादन काफी बड़े क्षेत्रफल में उच्च पैमाने पर किया जाता है। फफूंद की वजह से चने के पौधे खराब होना आरंभ हो चुके हैैं। किसान इस बात से बेहद चिंतित हैं, कि यदि चने की फसल इसी प्रकार नष्ट होती रही तो, उनके द्वारा फसल पर किया गया व्यय भी निकाल पाना असंभव सा साबित होगा।


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आखिर किस वजह से यह समस्या उत्पन्न हुई है

महाराष्ट्र के बहुत सारे जनपदों में चने की फसल का उत्पादन किया जाता है। प्रतिवर्ष चने का उत्पादन कर किसान अच्छा खासा मुनाफा कमाते हैं। परंतु चने की फसल में फफूंद संक्रमण की वजह से किसानों को इससे अच्छी आय मिलने की अब कोई संभावना नहीं बची है। फसल रोगिक संक्रमण की वजह से काफी प्रभावित हो गयी है। विशेषज्ञों द्वारा चने की फसल पर फफूंद लगने का यह कारण बताया गया है, कि बेमौसम बरसात एवं आसमान में बादल छाए रहने की वजह से फसल को पर्याप्त मात्रा में धूप नहीं मिल पायी है और धूप न मिलना इस संक्रमण की मुख्य वजह बना है। फफूंद ने चने की फसल को गंभीर रूप से बर्बाद करना आरंभ कर दिया है।

किसानों ने सरकार से की आर्थिक सहायता की गुहार

फसल के गंभीर रूप से प्रभावित होने की वजह से पीड़ित किसान राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार से सहायता हेतु गुहार कर रहे हैं। राज्य के बहुत सारे जनपदों के किसानों ने महाराष्ट्र कृषि विभाग से भी सहायता के लिए मांग की है। किसानों का कहना है, कि फसलों को बर्बाद कर रहे इस रोग से चना की फसल के उत्पादन में निश्चित रूप से घटोत्तरी होगी। फफूंद रोग बेहद तीव्रता से पौधों को बर्बाद करता जा रहा है, यहां तक कि बड़े पौधे भी इस रोग की वजह से नष्ट होते जा रहे हैं। बचे हुए पौधे भी कोई खाश उत्पादन नहीं दे पाएंगे। किसानों ने बहुत बेहतरीन ढंग व मन से चने की फसल का उत्पादन किया था। इसलिए उनको इस वर्ष रबी सीजन में चने की फसल से होने वाली पैदावार से अच्छा खासा मुनाफा मिलने की आशा थी। परंतु परिणाम बिल्कुल विपरीत ही देखने को मिले हैं। किसान केंद्र सरकार एवं राज्य सरकार से आर्थिक सहायता हेतु गुहार कर रहे हैं।
पोषक अनाज की श्रेणी में शामिल की गई इस फसल से किसान अच्छी आय कर सकते हैं

पोषक अनाज की श्रेणी में शामिल की गई इस फसल से किसान अच्छी आय कर सकते हैं

हम बात करने जा रहे हैं, किनोवा फसल के बारे में जिसको अनाज के तौर पर उगाया जाता है। किनोवा की फसल का जनक अमेरिका को माना जाता है। किनोवा के बीजों में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व विघमान रहते हैं। जिसका उपभोग करने से हार्ट अटैक, कैंसर, खून की कमी, सांस की बीमारियों में बेहद लाभकारी होता है। इस वजह से किनोवा की खेती भी अच्छी आय का स्त्रोत है। किनोवा को रबी सीजन की मुख्य नकदी फसल कहा जाता हैं, जिसका उत्पादन अक्टूबर से लेकर मार्च तक होता है। किनोवा पत्तेदार सब्जी बथुआ की किस्म का सदस्य पौधा है इसी सहित यह एक पोषक अनाज भी है। आपको बतादें कि किनोवा को प्रोटीन का बेहतरीन स्रोत भी कहा जाता है। जो कि शरीर में वसा को कम करने, कोलस्ट्रॉल घटाने एवं वजन कम करने के लिए फायदेमंद है। इसकी अच्छी गुणवत्ता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इसको पोषण अनाज की श्रेणी में शम्मिलित किया गया है। साथ ही, बाजार में इसकी मांग में काफी वृद्धि हो रही है, जिससे किसानों हेतु खेती भी मुनाफे का सौदा माना जा रहा है।

किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु एवं तापमान

किनोवा का उत्पादन हिमालयीन क्षेत्र से लेकर उत्तर मैदानी क्षेत्रों में आसानी से हो सकती है। सर्दियों का सीजन किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। इसके पौधे ठंडों में पड़ने वाले पाले को भी आसानी से सहन कर सकते हैं। बीजों को अंकुरित होने हेतु 18 से 22 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। अधिकतम 35 डिग्री तापमान को ही बीज सहन कर सकता है। किसी भी फसल की बेहतर पैदावार के लिए जलवायु एवं तापमान एक मुख्य भूमिका अदा करते हैं।

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किनोवा की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

किनोवा की कृषि हेतु तकरीबन समस्त मृदा अनुकूल मानी जाती हैं। परंतु, किसान भाई यह अवश्य ध्यान रखें कि भूमि अच्छी जल निकासी वाली होनी अनिवार्य है। साथ ही, भूमि के पीएच मान का सामान्य होना अत्यंत आवश्यक है। भारत में किनोवा का उत्पादन रबी सीजन में किया जाता है।

कौन-सा समय किनोवा की बुवाई के लिए अच्छा माना जाता है

भारत की जलवायु के अनुरूप बीजों की बुआई नवम्बर से मार्च की समयावधि में करनी चाहिए। हालाँकि, विभिन्न स्थानों पर इसकी कृषि जून से जुलाई के माह में भी की जा सकती है।

किनोवा की खेती से पहले बीजों की मात्रा एवं बीज उपचार

अगर हम बात करें किनोवा की खेती के लिए प्रति एकड़ कितने बीज की आवश्यकता होती है। तो आपको बतादें कि किनोवा की खेती के लिए तकरीबन 1 से 1.5 किलो बीज की आवश्यकता होती है। बीजों की रोपाई से पूर्व बीज उपचार करना बेहद जरुरी होता है। बीज उपचारित होने से अंकुरण के वक्त कोई दिक्कत नहीं होती एवं फसल भी रोग मुक्त हो जाती है। किनोवा की बुआई से पूर्व बीज को गाय के मूत्र में 24 घंटे हेतु डालकर उपचारित करना आवश्यक है।
केंद्र सरकार की पहल से हर राज्य में किसानों को खरीफ बीज उपलब्ध कराया जाएगा

केंद्र सरकार की पहल से हर राज्य में किसानों को खरीफ बीज उपलब्ध कराया जाएगा

मौसम विभाग द्वारा मई माह में भारत के अंदर अलनीनो प्रभाव की आशंका जताई है। इससे विभिन्न स्थानों पर अत्यधिक बारिश तो कहीं सूखे की स्थिति बन सकती है। किसानों को सतर्क रहना बेहद आवश्यक है। रबी सीजन की फसल कटकर मंडी में पहुंच चुकी है। थोड़ी-बहुत जो फसल बच गई है। उसका कटान निरंतर चालू है। ऐसी स्थिति में किसानों ने हाल ही में खरीफ सीजन को लेकर तैयारियां चालू कर दी हैं। साथ ही, खेतों में बीजों की उपलब्धता एवं बुवाई से जुड़े सभी मामलों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के स्तर से कवायद की जा रही है। ताकि खेतों में बुवाई से संबंधित किसी प्रकार का संकट न खड़ा हो सके।

देश में अलनीनो का क्या असर हो सकता है

साथ ही, इस वर्ष भारत में अलनीनो का प्रभाव भी देखने को मिल सकता है। प्रशांत महासागर में पेरू के समीप समुद्री तट के गर्म होने की घटना को अल-नीनो कहा जाता है। इसको हम ऐसे समझ सकते हैं, कि समुद्र के तापमान और वायुमंडलीय परिस्थितियों में जो परिवर्तन देखने को मिलते हैं। उस समुद्री घटना को अल नीनो कहा जाता है। सामान्य परिवर्तन होता है, तो समुद्र के तापमान में 2 से 3 डिग्री तक वृद्धि होती है। वहीं ज्यादा अल नीनो का असर दिखता है, तो तापमान 4-5 डिग्री या इससे और ज्यादा बढ़ सकता है। अल नीनो का प्रभाव विश्व भर में देखने को मिलता है। इससे बहुत सारे स्थानों पर सूखा, लू जैसी परिस्थितियां तो विभिन्न जगहों पर बारिश होने का अनुमान ज्यादा होता है। ये भी पढ़े: जानें इस साल मानसून कैसा रहने वाला है, किसानों के लिए फायदेमंद रहेगा या नुकसानदायक

किसानों को खरीफ बीज मुहैय्या कराया जाएगा

केंद्र सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि मौसम की वजह से होने वाली प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर राज्य सरकार हर स्तर पर तैयार रहें। कम बारिश होने की स्थिति में राज्यों में कृषकों के लिए बीज की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए। बतादें, कि राज्यों में बीज की उपलब्धता देखने, सिंचाई का मूल्यांकन करने के लिए कहा गया है। इसी के आधार पर किसानों की सहायता की जा सकेगी।

कृषकों की आय में वृद्धि करने पर बल दिया जाए

खरीफ बुवाई सत्र 2023-24 को लेकर केंद्र सरकार तैयारी कर रही है। इसको लेकर हाल ही में एक सम्मेलन का आयोजन भी किया गया। सम्मेलन में केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा कि राज्यों को कृषि क्षेत्र में कच्चे माल की लागत में कटौती, उत्पादन और किसानों की इनकम बढ़ाने के लिए कृषि क्षेत्र में प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन दिया जाए। किसानों को गारंटीशुदा फायदे की व्यवस्था भी सुनिश्चित की जाए।
छत्तीसगढ़ में किसान कर रहे हैं सूरजमुखी की खेती, आय में होगी बढ़ोत्तरी

छत्तीसगढ़ में किसान कर रहे हैं सूरजमुखी की खेती, आय में होगी बढ़ोत्तरी

छत्तीसगढ़ देश का प्रमुख धान उत्पादक राज्य है। जहां धान की खेती सर्वाधिक होती है, इसलिए इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। यहां के ज्यादातर किसान अपने खेतों में धान का उत्पादन करते हैं और उसी से उनकी आजीविका चलती है। लेकिन पिछले कुछ समय से देखा गया है कि राज्य सरकार प्रदेश के किसानों के लिए कई जनहितकारी योजनाएं लेकर आ रही है। जिससे किसानों को फायदा हो रहा है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के द्वारा लाई जा रही जनहितकारी योजनाओं के कारण अब किसान धान की खेती के अलावा अन्य खेती की तरफ भी रुख कर रहे हैं। जिससे किसानों को भविष्य में फायदा होने वाला है। क्योंकि अन्य फसलों के उत्पादन में धान की अपेक्षा किसानों को ज्यादा मुनाफ़ा मिल सकता है। छत्तीसगढ़ शासन ने घोषणा की है कि धान के अलावा अन्य फसलों को उगाने पर सरकार किसानों को सीधे सब्सिडी प्रदान करेगी। सरकार के प्रोत्साहन से प्रभावित होकर प्रदेश के कई किसानों ने अपने यहां सूरजमुखी की खेती प्रारंभ कर दी है। रायगढ़ जिले के पुसौर विकासखण्ड के ग्राम बोन्दा के किसान तेजराम गुप्ता ने बताया है कि उन्होंने अपने खेतों में अब धान की जगह पर सूरजमुखी की खेती करना प्रारंभ कर दी है। इसमें उन्हें ज्यादा लाभ हो रहा है। किसान तेजराम गुप्ता ने बताया कि कृषि विभाग के अधिकारियों ने उन्हें यह खेती करने के लिए प्रोसाहित किया है। अधिकारियों ने सूरजमुखी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई है। साथ ही बीज, सूक्ष्म पोषक तत्व एवं कीटनाशक भी उपलब्ध करवाए हैं। इसके लिए किसी भी तरह के पैसे नहीं लिए गए हैं। यह सहायता पूरी तरह से मुफ़्त उपलब्ध करवाई गई है। इसके अलावा उन्होंने 5 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट स्वयं से खरीदकर खेत में डाला है। किसान तेजराम गुप्ता ने बताया है कि उन्होंने सूरजमुखी की खेती के लिए कड़ी मेहनत की है। इसके लिए खेत तैयार करने के लिए 3 बार गहरी जुताई की है और दो बार रोटवेटर से खेत तैयार किया है। इसके बाद वर्मी कम्पोस्ट को खेत में मिलाकर बुवाई की है। बुवाई के 20 दिन बाद निराई गुड़ाई का काम किया है और सिंचाई की है। कीटों के नियंत्रण के लिए फसल पर क्लोरोपाईरीफास एवं एजाडिरेक्टिन 1500 पी.पी.एम.का छिडक़ाव किया है। अब फसल की कटाई शुरू हो चुकी है। फसल को देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार सूरजमुखी की खेती से अच्छा खासा लाभ होने वाला है।

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किसान तेजराम गुप्ता ने बताया है कि सूरजमुखी की फसल उगाने से उनकी आय में तेजी से वृद्धि हुई है। इसके साथ ही फसल चक्र होने से मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि हुई है। अब राज्य के अन्य किसान भी खेती में वैज्ञानिक विधियों का उपयोग करने लगे हैं जिससे उत्पादन में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है और लोगों की आय भी बढ़ी है। इन दिनों भारत में तिलहन की काफी कमी चल रही है, जिसके चलते तिलहन की जबरदस्त मांग बनी हुई है। भारत अपनी जरूरत का ज्यादातर सूरजमुखी विदेशों से आयात करता है ऐसे में भारत के किसान सूरजमुखी का उत्पादन करके घरेलू मांग की आपूर्ति आसानी से कर सकते हैं।
आगामी रबी सीजन में इन प्रमुख फसलों का उत्पादन कर किसान अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं

आगामी रबी सीजन में इन प्रमुख फसलों का उत्पादन कर किसान अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं

किसान भाइयों जैसा कि आप जानते हैं, कि रबी सीजन की बुवाई का कार्य अक्टूबर से लेकर नवंबर माह तक किया जाता है। परंतु, उससे पूर्व किसान अपने खेतों में मृदा की जांच एवं संरक्षित ढांचे की तैयारी जैसे आवश्यक कार्य कर सकते हैं। भारत में जलवायु परिवर्तन की परेशानी बढ़ती जा रही है, जिसका सबसे बड़ा प्रभाव खेती पर पड़ रहा है। इस समस्या से निजात पाने के लिये आवश्यक है, कि मिट्टी और जलवायु के हिसाब से फसलें एवं इनकी मजबूत प्रजातियों का चुनाव किया जाये। इसके अतिरिक्त खेत की तैयारी से लेकर खाद-उर्वरकों की खरीद तक कई सारे ऐसे कार्य होते हैं, जिनका समय पर फैसला लेना आवश्यक होता है।

रबी सीजन की बुवाई अक्टूबर से नवंबर के बीच की जाती है

सामान्य तौर पर
रबी सीजन की बुवाई का कार्य अक्टूबर से लेकर नवंबर तक किया जाता है। परंतु, उससे पूर्व किसान अपने खेतों में मिट्टी की जांच और संरक्षित खेती की तैयारी जैसे आवश्यक कार्य कर सकते हैं। इसके उपरांत मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार, खेतों में अनाज, दलहन, तिलहन, चारे वाली फसलें, जड़ और कंद वाली फसलें, सब्जी वाली फसलें, शर्करा वाली फसलें एवं मसाले वाली फसलों की खेती की जा सकती है। यह भी पढ़ें: जानें रबी और खरीफ सीजन में कटाई के आधार पर क्या अंतर है

रबी सीजन की प्रमुख अनाज फसलें

रबी सीजन की प्रमुख नकदी और अनाज वाली फसलों में गेहूं, जौ, जई आदि शम्मिलित हैं। किसान भाई इन फसलों की खेती बड़े पैमाने पर करते हैं।

रबी सीजन की दलहनी फसलें

रबी सीजन की प्रमुख दलहनी फसलें प्रोटीन से युक्त होती हैं। इसका प्रत्येक दाना किसानों को अच्छी आमदनी दिलाने में सहायता करता है। इन फसलों में चना, मटर, मसूर, खेसारी इत्यादि दालें शम्मिलित हैं।

रबी सीजन की तिलहनी फसलें

तिहलनी फसलें तेल उत्पादन के मकसद से पैदा की जाती हैं, जिनसे किसानों को काफी अच्छी आमदनी होती है। रबी सीजन की प्रमुख तिलहनी फसलों में सरसों, राई, अलसी, तोरिया, सूरजमुखी की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है।

रबी सीजन की चारा फसलें

पशुओं के लिए प्रत्येक सीजन में पशु चारे का इंतजाम होता रहे। इसी मकसद से चारा फसलों की बुवाई की जाती है। रबी सीजन की इन चारा फसलों में बरसीम, जई और मक्का का नाम शम्मिलित है।

रबी सीजन की मसाला फसलें

रबी सीजन के अंतर्गत कुछ मसालों की भी खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। इनमें मंगरैल, धनियाँ, लहसुन, मिर्च, जीरा, सौंफ, अजवाइन आदि सब्जियां शम्मिलित हैं।

रबी सीजन की प्रमुख सब्जी फसलें

अधिकांश किसान पारंपरिक फसलों को छोड़कर बागवानी फसलों की खेती करते हैं। विशेष रूप से बात करें सब्जी फसलों की तो यह कम समय में ज्यादा मुनाफा देती हैं। रबी सीजन की प्रमुख सब्जी फसलों में लौकी, करेला, सेम, बण्डा, फूलगोभी, पातगोभी, गाठगोभी, मूली, गाजर, शलजम, मटर, चुकन्दर, पालक, मेंथी, प्याज, आलू, शकरकंद, टमाटर, बैगन, भिन्डी, आलू और तोरिया आदि फसलें उगाई जाती हैं।
रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने से संबंधित विस्तृत जानकारी

रबी सीजन में प्याज उत्पादन करने से संबंधित विस्तृत जानकारी

महाराष्ट्र भारत का प्रमुख प्याज उत्पादक राज्य है। यहां बड़े स्तर पर प्याज का उत्पादन किया जाता है। यहां वर्ष में तीन बार प्याज की खेती होती है। राज्य में नासिक, पुणे, सोलापुर, धुले और अहमदनगर को प्याज उत्पादन का गढ़ माना जाता है। महाराष्ट्र में इस वक्त रबी सीजन के प्याज की रोपाई चालू हो चुकी है। राज्य में किसान सर्वाधिक प्याज की खेती करते है और यहां एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी नासिक के लासलगांव में ही है।

सामान्य तौर पर विभिन्न राज्यो में वार्षिक तौर पर एक ही बार प्याज की खेती की जाती है। परंतु, महाराष्ट्र में ऐसा कुछ नहीं है। प्रदेश में एक वर्ष के दौरान इसकी तीन फसल हांसिल की जाती हैं। यहां खरीफ, खरीफ के बाद तथा रबी सीजन में इसका उत्पादन होता है। महाराष्ट्र में प्याज एक नकदी फसल हैं। यहां के अधिकांश किसान इसकी खेती पर ही आश्रित रहते हैं। रबी सीजन में ही किसान को सर्वाधिक प्याज का उत्पादन मिलता है। 

प्याज के दूसरे सीजन की बिजाई कब की जाती है ?

प्याज के द्वितीय सीजन की बिजाई अक्टूबर-नवंबर के माह में की जाती है, जो कि इस वक्त राज्य में रोपाई चल रही है। यह जनवरी से मार्च के मध्य तैयार हो जाती है। प्याज की तीसरी फसल रबी फसल है, इसमें दिसंबर-जनवरी में बिजाई होती है। वहीं, फसल की कटाई मार्च से लगाकर मई तक होती है। राज्य के समकुल प्याज उत्पादन का 60 प्रतिशत रबी सीजन में ही होता है।

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महाराष्ट्र के इन जनपदों में काफी ज्यादा प्याज का उत्पादन होता है 

महाराष्ट्र के जलगाँव, धुले, अहमदनगर, सतारा, नासिक, पुणे और सोलापुर इन जनपदों में सबसे ज्यादा प्याज की खेती होती है। वहीं, मराठवाड़ा के कुछ जनपदों में कृषक इसकी खेती करते हैं। नासिक जनपद ना केवल महाराष्ट्र में बल्कि संपूर्ण भारत में प्याज उगाने के लिए मशहूर है। भारत में समकुल उत्पादन में से महाराष्ट्र में 37% फीसद प्याज उत्पादन होता है और प्रदेश में 10% फीसद उत्पादन सिर्फ नासिक जनपद में किया जाता है।

प्याज की खेती के लिए कैसी मृदा होनी चाहिए ?

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, प्याज की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। लेकिन, चिकनी, रेतीली, दोमट, गार और भूरी मिट्टी जैसी मृदा में शानदार उपज मिलती है। प्याज की खेती में ज्यादा पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में जल निकासी की बेहतरीन सुविधा होनी चाहिए।

जमीन किस तरह की होनी चाहिए ?

प्याज की खेती करने से पूर्व भूमि तैयार करने के लिए सबसे पहले तीन से चार बार जुताई करनी चाहिए। साथ ही, मिट्टी में जैविक तत्वों की मात्रा बढ़ाने के लिए रुड़ी खाद डालें। इसके पश्चात खेत को छोटे-छोटे प्लॉट में विभाजित कर दें। भूमि को सतह से 15 सेमी उंचाई पर 1.2 मीटर चौड़ी पट्टी पर रोपाई की जाती है।

उर्वरकों का कितना उपयोग करना चाहिए ?

प्याज की फसल को ज्यादा मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। प्याज की फसल में खाद एवं उर्वरक का उपयोग मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए। गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर 20-25 टन की दर से रोपाई से एक-दो माह पूर्व खेत में डालनी चाहिए। 

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प्याज की शानदार किस्में छटाई का समय

भीमा श्वेता: सफेद प्याज की यह किस्म रबी मौसम के लिए पूर्व से ही अनुमोदित मानी जाती है, ये किस्म खरीफ में औसत उपज 18-20 टन जबकि रबी में ये 26-30 टन तक पैदावार देती है।  भीमा सुपर: खरीफ मौसम में इस लाल प्याज किस्म की पैदावार करने के लिए पहचान की गयी है। 

इसे खरीफ सीजन में पछेती फसल के तौर पर भी उगा सकते हैं। ये किस्म 95-100 दिन के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। इसका उत्पादन तकरीबन 20-22 टन प्रति हेक्टेयर तक है।  प्याज की छटाई करने के सही समय की बात करें तो खेतों से प्याज निकालने का समुचित समय तब होता है जब पौधे में नमी समाप्त हो जाती है एवं उसकी गांठ तकरीबन अपने आप ऊपर आने लग जाती है। 

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

ट्राइकोडर्मा कवक की एक प्रजाति है जो पौधों पर अपने विविध लाभकारी प्रभावों के कारण कृषि और बागवानी में निरंतर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कवक का यह बहुमुखी समूह अपने माइकोपरसिटिक, बायोकंट्रोल और पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले गुणों के लिए बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही  है।

 1. माइकोपैरासिटिक क्षमताएं

ट्राइकोडर्मा प्रजातियां निपुण माइकोपैरासाइट हैं, जिसका अर्थ है कि वे अन्य कवक के विकास को परजीवीकृत और नियंत्रित करते हैं। यह विशेषता कृषि में विशेष रूप से मूल्यवान है, जहां मिट्टी से पैदा होने वाले रोगज़नक़ फसल को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचाते हैं। वही ट्राइकोडर्मा की विविध प्रजातियां पोषक तत्वों और स्थान के लिए हानिकारक कवक से प्रतिस्पर्धा करके सक्रिय रूप से हमला करते हैं और उनके विकास को रोकते हैं।

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 2. बायोकंट्रोल एजेंट

ट्राइकोडर्मा फ्यूसेरियम, राइजोक्टोनिया और पाइथियम की प्रजातियों सहित पौधों के रोगजनकों की एक विस्तृत श्रृंखला के खिलाफ एक प्राकृतिक बायोकंट्रोल एजेंट के रूप में कार्य करता है। राइजोस्फीयर और जड़ सतहों पर कॉलोनी बनाकर, ट्राइकोडर्मा एक सुरक्षात्मक अवरोध स्थापित करता है, जो रोगजनक कवक को पौधों की जड़ों को संक्रमित करने से रोकता है। यह जैव नियंत्रण तंत्र सिंथेटिक रासायनिक कवकनाशी की आवश्यकता को कम करता है, टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देता है।

 3. पौधों की रक्षा तंत्र को शामिल करना

ट्राइकोडर्मा पौधे की अपनी रक्षा तंत्र को प्रेरित करता है, जिससे रोगों के प्रति उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।  कवक पौधों में विभिन्न रक्षा-संबंधी यौगिकों, जैसे फाइटोएलेक्सिन और रोगजनन-संबंधी प्रोटीन के उत्पादन को उत्तेजित करता है।  यह प्रणालीगत प्रतिरोध फसलों को संक्रमण और तनाव का सामना करने में मदद करता है, जिससे पौधों के समग्र स्वास्थ्य में योगदान होता है।

 4. पोषक तत्व घुलनशीलता

कुछ ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां फॉस्फोरस,लोहा जिंक के साथ साथ अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे आवश्यक पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने की क्षमता प्रदर्शित करती हैं, जिससे वे पौधों के लिए अधिक उपलब्ध हो जाते हैं। यह पोषक तत्व घुलनशीलता पौधों की वृद्धि और विकास को बढ़ाती है, विशेष रूप से पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी में, और सिंथेटिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करती है।

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5. उन्नत जड़ विकास

ट्राइकोडर्मा ऑक्सिन और अन्य पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले पदार्थों का उत्पादन करके जड़ विकास और शाखाओं को बढ़ावा देता है।  बेहतर जड़ प्रणालियों के परिणामस्वरूप बेहतर पोषक तत्व और पानी ग्रहण होता है, जिससे पौधों की ताकत और समग्र फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।

6. तनाव सहनशीलता

ट्राइकोडर्मा पौधों को विभिन्न पर्यावरणीय तनावों, जैसे सूखा, लवणता और अत्यधिक तापमान से निपटने में मदद करता है।  ट्राइकोडर्मा और पौधों के बीच बनने वाला सहजीवी संबंध पौधों की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अनुकूलन और जीवित रहने की क्षमता को बढ़ा सकता है, जिससे अंततः अधिक लचीली फसलें पैदा होती हैं।

7. कार्बनिक पदार्थ का जैव निम्नीकरण

 ट्राइकोडर्मा प्रजातियाँ मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ के विघटन में योगदान करती हैं।  वे एंजाइमों का स्राव करते हैं जो कार्बनिक अवशेषों के अपघटन की सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे पोषक तत्व मिट्टी में वापस आ जाते हैं।  यह पुनर्चक्रण प्रक्रिया मिट्टी की संरचना और उर्वरता में सुधार करती है, जिससे पौधों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनता है।

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 8. व्यावसायिक प्रयोग

ट्राइकोडर्मा-आधारित जैव कवकनाशी और जैव उर्वरकों ने कृषि उद्योग में लोकप्रियता हासिल की है।  जीवित ट्राइकोडर्मा इनोकुलेंट्स युक्त इन वाणिज्यिक उत्पादों को ऊपर चर्चा किए गए विभिन्न लाभ प्रदान करने के लिए बीज, मिट्टी या पौधों की सतहों पर लगाया जाता है।  टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने के लिए किसान इन जैविक एजेंटों को अपनी फसल प्रबंधन प्रथाओं में तेजी से एकीकृत कर रहे हैं।

9. नेमाटोड का जैविक नियंत्रण

कुछ ट्राइकोडर्मा उपभेद पौधे-परजीवी नेमाटोड के खिलाफ विरोधी गतिविधि प्रदर्शित करते हैं।  यह जैव नियंत्रण क्षमता नेमाटोड संक्रमण के प्रबंधन में मूल्यवान है, जो फसल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

10. बीज उपचार

ट्राइकोडर्मा-आधारित फॉर्मूलेशन का उपयोग बीज उपचार, मिट्टी-जनित रोगजनकों से बीज की रक्षा करने और अंकुर स्थापना को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।  यह निवारक उपाय विकास के प्रारंभिक चरण से ही फसलों को स्वस्थ बनाने में योगदान देता है।

सारांश 

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के बहुमुखी फायदे इसकी माइकोपरसिटिक क्षमताओं, जैव नियंत्रण तंत्र, पौधों की रक्षा प्रतिक्रियाओं को शामिल करने, पोषक तत्व घुलनशीलता, जड़ विकास को बढ़ावा देने, तनाव सहनशीलता बढ़ाने और कार्बनिक पदार्थ अपघटन में योगदान से उत्पन्न होते हैं।  जैसे-जैसे कृषि क्षेत्र टिकाऊ प्रथाओं को अपनाना जारी रखता है, ट्राइकोडर्मा-आधारित उत्पादों का उपयोग पौधों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, रासायनिक इनपुट को कम करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।



Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,
पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी,
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार
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