सर्दियों के दिनों में झुलसा रोग से बचाऐं आलू अन्यथा बर्बाद हो जाएगी फसल
झुलसा रोग पौधों की हरी पत्तियों को पूर्णतया बर्बाद कर देता है। इस रोग के कारण पत्तियों के निचले भाग पर सफेद रंग के गोले का निशान पड़ जाता है, कुछ समय उपरांत पत्तियों में भूरे व काले निशान हो जाते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मौसमिक प्रभाव होने लगें है। विशेषकर आलू का पछेती उत्पादन करने वाले उत्पादक कृषक आलू की फसल को पाले से प्रभावित होने से बचाने में असमर्थ हो जाते हैं। इस परिस्थिति में तत्काल समुचित उपाय करें जिससे कि आलू का बेहतर उत्पादन हाँसिल कर सकें। यदि समय से सही उपाय न किया गया तो पत्तियां बहुत जल्दी नष्ट हो जाएँगी। आलू की फसल में नाशीजीवों (खरपतवारों, कीटों व रोगों ) से करीब 40 से 45 प्रतिशत तक नुकसान होता है। भारत के वरिष्ठ फसल वैज्ञानिक डॉक्टर एसके सिंह ने बताया है, कि यह पछेती झुलसा रोग फाइटोपथोरा इन्फेस्टेंस नाम के फफूंद की वजह से उत्पन्न होता है। साथ ही, आलू का पछेती अंगमारी रोग फसल के लिए अत्यंत हानिकारक साबित होता है। आयरलैंड देश में प्रचंड अकाल जो कि वर्ष 1845 में हुआ था। उसकी मुख्य वजह यह पछेती अंगमारी रोग ही था। बतादें, कि वातावरण में नमी और प्रकाश बेहद कम हो और बहुत दिनों तक बारिश अथवा बारिश की भाँति वातावरण होता है, ऐसी स्थिति में इस रोग की मार पौधे की पत्तियों से आरंभ होती है। बतादें, कि इस रोग की वजह 4 से 5 दिनों के मध्य पौधों की समस्त हरी पत्तियाँ पूर्णतया बर्बाद हो जाती हैं।डाक्टर सिंह का कहना है, कि पत्तियों के संक्रमित होने की वजह से आलू के उत्पादन में कमी आने के साथ आकार भी छोटा हो जाता है। आलू के बेहतर उत्पादन हेतु 20-21 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान अच्छा होता है।आर्द्रता आलू की वृद्धि में सहायता करती है। तापमान और नमी पछेती झुलसा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बीजाणु बनाने की प्रक्रिया (स्पोरुलेशन) 3-26 डिग्री सेल्सियस (37-79 डिग्री फारेनहाइट) से हो सकती है। परंतु अधिकतम सीमा 18-22 डिग्री सेल्सियस (64-72 डिग्री फारेनहाइट) है। आलू के सफल उत्पादन हेतु जरुरी है, कि इस रोग के संबंध में जाने एवं इसके समुचित प्रबंधन हेतु जरुरी फफुंदनाशक पूर्व से खरीद कर रख लें और समयानुसार इस्तेमाल करें। ध्यान रहे यह रोग लगने के उपरांत किसानों को इतना वक्त नहीं मिलेगा की उत्पादक इससे बच सकें। डॉक्टर एसके सिंह के अनुसार, जब तक आलू की फसल में इस रोग का संकेत नहीं दिखाई पड़ता है, जब तक मैंकोजेब युक्त फफूंदनाशक 0.2 फीसद की दर से मतलब दो ग्राम दवा प्रति लीटर जल में मिश्रण कर छिड़काव कर सकते हैं। परंतु एक बार रोगिक लक्षण के बारे में पता चलने के उपरांत मैंकोजेब फफूंदनाशक के छिड़काव का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए किसान इस बात का बेहद ध्यान रखें कि जब भी खेतों में रोगिक लक्षण दिखाई दें, तुरंत साइमोइक्सेनील मैनकोजेब दवा को 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर जल में मिश्रण कर छिड़काव करें। इसी तरह फेनोमेडोन मैनकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर जल में मिलाकर छिड़काव करें। मेटालैक्सिल और मैनकोजेब मिश्रित दवा की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर जल में मिलाकर फसल पर छिड़काव कर सकते हैं। अनुमानित, एक हेक्टेयर में 800 से 1000 लीटर दवा के मिश्रण की जरुरत होगी। लेकिन छिड़काव करते वक्त किसान पैकेट पर दिए गए सारे निर्देशों का बेहद सजगता से निर्वहन करें अन्यथा दुष्परिणाम भी झेलना पड़ सकता है।
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31-Dec-2022