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सुरजना पौधे का महत्व व उत्पादन की संपूर्ण विधि

सुरजना पौधे का महत्व व उत्पादन की संपूर्ण विधि

भारत के अलग-अलग राज्यों में इसे मुनगा, सेजन और सहजन (Munga, Sahjan, Moringa oleifera, Drumstick) नामों से जाना जाता है। बारहमासी सब्जी देने वाला यह पेड़ विश्व स्तर पर भारत में ही सर्वाधिक इस्तेमाल में लाया जाता है।

सुरजना पौधे का महत्व

यह वृक्ष स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी समझा जाता है और इसकी पत्तियां तथा जड़ों के अलावा तने का इस्तेमाल भी कई बीमारियों के इलाज के लिए किया जाता है। सुरजना या ड्रमस्टिक (Drumstick) कच्चा, सूखा, हरा हर हाल में बेशकीमती है मुनगा सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकने वाला यह पौधा राजस्थान जैसे रेगिस्तानी और शुष्क इलाकों में भी आसानी से उगाया जा सकता है।सीधी धूप पड़ने वाले इलाकों में इस पौधे की खेती सर्वाधिक की जा सकती है। इस पौधे का एक और महत्व यह होता है कि इससे प्राप्त होने वाले बीजों से कई प्रकार का तेल निकाला जा सकता है और इस तेल की मदद से कई आयुर्वेदिक दवाइयां तैयार की जाती है। इसके बीज को गंदे पानी में मिलाने से यह पानी में उपलब्ध अपशिष्ट को सोख लेता है और अशुद्ध पानी को शुद्ध भी कर सकता है। कम पानी वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकने वाला यह पौधा जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के अलावा एक प्राकृतिक खाद और पोषक आहार के रूप में भी इस्तेमाल में लाया जाता है। आयुष मंत्रालय के अनुसार केवल एक सहजन के पौधे से 200 से अधिक रोगों का इलाज किया जा सकता है। यदि बात करें इस पौधे की पत्तियों और तने में पाए जाने वाले पोषक तत्वों की, तो यह विटामिन ए, बी और सी की पूर्ति के अलावा कैल्शियम, आयरन और पोटेशियम जैसे खनिजो की कमी को भी दूर करता है। इसके अलावा इसकी पत्तियों में प्रोटीन की भी प्रचुर मात्रा पाई जाती है। वर्तमान में कई कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा इस पौधे की जड़ का इस्तेमाल रक्तशोधक बनाने के लिए किया जा रहा है। इस तैयार रक्तशोधक से आंखों की देखने की क्षमता को बढ़ाने के अलावा हृदय की बीमारियों से ग्रसित रोगियों के लिए आयुर्वेदिक दवाइयां तैयार की जा रही है।



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सुरजना पौधे के उत्पादन की संपूर्ण विधि :

जैसा कि हमने आपको पहले बताया सुरजना का बीज सभी प्रकार की मृदाओं में आसानी से पल्लवित हो सकता है। इस पौधे के अच्छे अंकुरण के लिए ताजा बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए और बीजों की बुवाई करने से पहले, उन्हें एक से दो दिन तक पानी में भिगोकर रख देना चाहिए। सेजन पौधे की छोटी नर्सरी तैयार करने के लिए बालू और खेत की मृदा को जैविक खाद के साथ मिलाकर एक पॉलिथीन का बैग में भर लेना चाहिए। इस तैयार बैग में 2 से 3 इंच की गहराई पर बीजों का रोपण करके दस दिन का इंतजार करना चाहिए। इन बड़ी थैलियों में समय-समय पर सिंचाई की व्यवस्था का उचित प्रबंधन करना होगा और दस दिन के पश्चात अंकुरण शुरू होने के बाद इन्हें कम से कम 30 दिन तक उन पॉलिथीन की थैलियों में ही पानी देना होगा। इसके पश्चात अपने खेत में 2 फीट गहरा और 2 फीट चौड़ा एक गड्ढा खोदकर थैली में से छोटी पौधों को निकाल कर रोपण कर सकते है। पांच से छह महीनों में इस पौधे से फलियां प्राप्त होनी शुरू हो जाती है और इन फलियों को तोड़कर अपने आसपास में स्थित किसी सब्जी मंडी में बेचा जा सकता है या फिर स्वयं के दैनिक इस्तेमाल में सब्जी के रूप में भी किया जा सकता है। [embed]https://youtu.be/s5PUiHTe82Q[/embed]

सुरजना पौधे के उत्पादन के दौरान रखें इन बातों का ध्यान :

सुरजाना पौधे के रोपण के बाद किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि इस पौधे को पानी की इतनी आवश्यकता नहीं होती है, इसलिए सिंचाई का सीमित इस्तेमाल करें और खेत में जलभराव की समस्या को दूर करने के लिए पर्याप्त जल निकासी की व्यवस्था भी रखें। रसायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल की सीमित मात्रा में करना चाहिए, बेहतर होगा कि किसान भाई जैविक खाद का प्रयोग ही ज्यादा करें, क्योंकि कई रासायनिक कीटनाशक इस पौधे की वृद्धि को तो धीमा करते ही हैं, साथ ही इससे प्राप्त होने वाली उपज को भी पूरी तरह से कम कर सकते है। घर में तैयार नर्सरी को खेत में लगाने से पहले ढंग से निराई गुड़ाई कर खरपतवार को हटा देना चाहिए और जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिकों के द्वारा जारी की गई एडवाइजरी का पूरा पालन करना चाहिए।



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सेजन उत्पादन के दौरान पौधे में लगने वाले रोग और उनका उपचार :

वैसे तो नर्सरी में अच्छी तरीके से पोषक तत्व मिलने की वजह से पौधे की प्रतिरोधक क्षमता काफी अच्छी हो जाती है, लेकिन फिर भी कई घातक रोग इसके उत्पादकता को कम कर सकते है, जो कि निम्न प्रकार है :-

पौधे की नर्सरी तैयार होने के दौरान ही इस रोग से ग्रसित होने की अधिक संभावना होती है। इस रोग में बीज से अंकुरित होने वाली पौध की मृत्यु दर 25 से 50 प्रतिशत तक हो सकती है। यह रोग नमी और ठंडी जलवायु में सबसे ज्यादा प्रभावी हो सकता है और पौधे में बीज के अंकुरण से पहले ही उसमें फफूंद लग जाती है।

इस रोग की एक और समस्या यह है कि एक बार बीज में यह रोग हो जाने के बाद इसका इलाज संभव नहीं होता है, हालांकि इसे फैलने से जरूर बचाया जा सकता है।

इस रोग से बचने के लिए पौधे की नर्सरी को हवादार बनाना होगा, जिसके लिए आप नर्सरी में इस्तेमाल होने वाली पॉलिथीन की थैली में चारों तरफ कुछ छेद कर सकते है, जिससे हवा आसानी से बह सके।

यदि बात करें रासायनिक उर्वरकों की तो केप्टोन (Captan) और बेनोमील प्लस (Benomyl Plus) तथा मेटैलेक्सिल (metalaxyl) जैसे फंगसनाशीयों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

  • पेड़ नासूर रोग (Tree Canker Disease) :

सेजन के पौधों में यह समस्या जड़ और तने के अलावा शाखाओं में देखने को मिलती है।

इस रोग में पेड़ के कुछ हिस्से में कीटाणुओं और इनफैक्ट की वजह से पौधे की पत्तियां, तने और अलग-अलग शाखाएं गलना शुरू हो जाती है, हालांकि एक बार इस रोग के फैलने के बाद किसी भी केमिकल उपचार की मदद से इसे रोकना असंभव होता है, इसीलिए कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा दी गई सलाह के अनुसार पेड़ के नासूर ग्रसित हिस्से को काटकर अलग करना होता है।

कुछ किसान पूरे पेड़ पर ही केमिकल का छिड़काव करते हैं, जिससे कि जिस हिस्से में यह रोग हुआ है इसका प्रभाव केवल वहीं तक सीमित रहे और पेड़ के दूसरे स्वस्थ भागों में यह ना फैले।

पेड़ के हिस्सों को काटने की प्रक्रिया सर्दियों के मौसम में करनी चाहिए, क्योंकि इस समय काटने के बाद बचा हुआ हिस्सा आसानी से रिकवर हो सकता है।



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गर्मी और बारिश के समय में इस प्रक्रिया को अपनाने से पेड़ के आगे के हिस्से की वृद्धि दर भी पूरी तरीके से रुक जाती है। इसके अलावा कई दूसरे पेड़ों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों जैसे कि फंगस, वायरस और बैक्टीरिया की वजह कई और रोग भी हो सकते हैं परंतु इनका इलाज इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट (Integrated Pest Management) विधि की मदद से बहुत ही कम लागत पर आसानी से किया जा सकता है। आशा करते हैं कि हमारे किसान भाइयों को हर तरह से पोषक तत्व प्रदान करने वाला 'न्यूट्रिशन डायनामाइट' यानी कि सुरजना की फसल के बारे में पूरी जानकारी मिल गई होगी और भविष्य में आप भी कम लागत पर वैज्ञानिकों के द्वारा जारी एडवाइजरी का सही पालन कर अच्छा मुनाफा कर पाएंगे।

गाजर का जडोंदा रोग एवं उनके उपाय

गाजर का जडोंदा रोग एवं उनके उपाय

डॉ. हरि शंकर गौड़ एवं डॉ. उजमा मंजूर कृषि महाविद्यालय, गलगोटियास विश्वविद्यालय ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश

गाजर स्वास्थ्य के लिए आवश्यक विटामिन ए, खनिज और आहार फाइबर का बहुत महत्वपूर्ण स्रोत है। गाजर की मूसला जड़ का सेवन करने से खून की कमी और आंखों की रोशनी से संबंधित बीमारियों से बचा जा सकता है। गाजर को सलाद के रूप में कच्चा खाया जाता है या सब्ज़ी, करी बनाने के लिए पकाया जाता है। गाजर का हलवा या खीर लोकप्रिय स्वास्थ्यवर्धक मिठाई हैं । ताजा गाजर का रस अत्याधिक पौष्टिक और ताजगी-भरा पेय है। लाल या बैंगनी गाजर को किण्वन करके तैयार की गई कांजी एक पौष्टिक, स्वादिष्ट खट्टा पेय है, जो गर्मियों में बहुत तरोताजा कर देती है। गाजर को विभिन्न रूपों में अचार या सूखे टुकड़े, फ्लेक्स या पाउडर के रूप में संरक्षित किया जा सकता है। इनकी बाजार में बहुत मांग है। जाहिर है, लाल, पीली या बैंगनी
गाजर का उत्पादन किसानों के लिए फायदे की खेती है। व्यापारियों और उद्योगों को भी लाभदायक व्यवसाय के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले गाजर की आवश्यकता होती है। स्वस्थ गाजर 2-6 सेंटीमीटर की औसत मोटाई के साथ 10-30 सेंटीमीटर लंबी टेपरिंग मूसला जड़ें होती हैं। वे अच्छी पानी की उपलब्धता और जल निकासी वाली हल्की रेतीली, बलुई मिट्टी में अच्छी तरह से बढ़ती हैं। अधिकतर किसान गाजर को एक ही खेत में बार-बार, या अन्य सब्जियों के साथ मिश्रित फसलों में उगाते हैं। अक्सर वे पाते हैं कि कुछ गाजर विकृत हैं और दो या दो से अधिक शाखाओं में विभाजित हैं जो सीधी या टेढ़ी मेढ़ी  हो सकती हैं। अक्सर वे कई बारीक  जड़ों से ढके होते हैं। ऐसी गाजर बाजार में स्वीकार नहीं की जाती है। इस प्रकार, किसानों को उनके श्रम, समय और निवेश की भारी हानि होती है। उनको बहुत आर्थिक घाटा हो जाता है। गाजर जडोंदा रोग का प्रमुख कारण जड़-गाँठ सूत्रकृमि / नेमाटोड द्वारा संक्रमण है। ये अधिकांश सब्जियों की फसलों के गंभीर कीट हैं। ये बहुत छोटे, पतले कृमि होते हैं जिन्हें नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता। ये बड़ी संख्या में मिट्टी में पाए जाते हैं। पौधों की नई जड़ों में प्रवेश करते हैं और जड़ के ऊतकों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। वे पास के जड़ के ऊतकों की सूजन  (जड़-गाँठ ) का कारण बनते हैं। इससे जड़ द्वारा मिट्टी से लिए गए पोषक तत्व और जल पौधे के ऊपरी भागों तक नहीं पहुँच पाते हैं। इससे पौधों की वृद्धि और उपज में कमी आती है। छोटे और पीले रंग के पौधे खेतों में कुछ स्थानों पर देखे जाते हैं जहां इन पादप परजीवी सूत्रकृमियों का जनसंख्या घनत्व अधिक होता है। एक चम्मच मिट्टी में सैकड़ों सूत्रकृमि हो सकते हैं ।

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सूत्रकृमियो द्वारा क्षतिग्रस्त जड़ों पर कवक और बैक्टीरिया भी हमला करते हैं और जटिल रोग बनाते हैं। इन सूत्रकृमियो की एक बहुत विस्तृत मेजबान श्रृंखला है और 3000 से अधिक विभिन्न प्रकार के पौधों को संक्रमित करते हैं। टमाटर, बैंगन, भिंडी, चौलाई, आलू, चुकंदर, मिर्च, गाजर, खीरे,  लौकी, तोरी, करेला, टिंडा, कद्दू, स्क्वैश, शरबत, तरबूज, कस्तूरी-खरबूज आदि सभी फसलें सूत्रकृमियो से संक्रमित होते  हैं। इन सूत्रकृमियों का जनसंख्या घनत्व वर्षों में मिट्टी में बढ़ता रहता है। जब किसानों द्वारा एक या एक से अधिक मौसमों में या गाजर के साथ एक ही खेत में ऐसी फसलें उगाई जाती हैं, तो ये सूत्रकृमि गाजर की युवा बढ़ते नल-जड़ में प्रवेश कर जाते हैं और उस बिंदु पर इसकी वृद्धि को रोक देते हैं। इसकी वजह से पौधे टैप-रूट की एक और शाखा पैदा करता है। नई नल-जड़ भी संक्रामक सूत्रकृमि से संक्रमित हो सकती है, और वह जड़ भी शाखित हो जाती है। जब एक ही पौधे की मूसला जड़ की कई शाखाएँ बढ़ रही होती हैं, तो वे छोटी और कभी-कभी मुड़ी हुई रहती हैं । इस प्रकार, ये गाजर लगातार पोषक तत्वों और पानी का उपभोग कर रहे हैं, लेकिन सामान्य गाजर को अच्छी दिखने वाली सीधी सुडोल गाजर नहीं बनाते हैं। सूत्रकृमि के कारण होने वाले नुकसान को रोकने के उपाय पादप परजीवी सूत्रकृमि अपने जीवन चक्र के एक या अधिक चरण मिट्टी में व्यतीत करते हैं। एक बार जब वे पौधे की जड़ों में प्रवेश कर जाते हैं, तो उपचार करने का कोई तरीका उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए, खेत में फसल बोने से पहले सूत्रकृमि की संख्या को कम करने के लिए कई तरीकों को अपनाने की आवश्यकता होती है। जड़-गांठ सूत्रकृमि द्वारा गाजर की जड़ों के संक्रमण को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाए गए हैं: 1. ऐसे खेत में गाजर कभी  न उगाएं जिसमें पिछले मौसम में उगाई गई सब्जियों की फसल में छोटी या बड़ी सूजन या जड़-गांठ हो । कटाई के समय फसलों की बारीक जड़ों को धीरे से निकालें, धीरे से पानी से धो लें और जड़-गांठ सूत्रकृमि देखने के लिए आवर्धक लेंस से जड़ का निरीक्षण करें। 2. फसल चक्र अपनाएं। गाजर को उन खेतों में उगाया जा सकता है जिनमें पिछली फसल गेहूँ, जौ, जई, सरसों, चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, तिल आदि थी। 3. मिट्टी को गर्म और सुखाने के लिए खेत की गहरी गर्मियों की जुताई करें।  सूत्रकृमि  गर्म और सूखी मिट्टी को सहन नहीं कर पाते हैं. इसलिए ऊपरी मिट्टी की परत में इनकी संख्या घट जाती है । 4. ट्राइकोडर्मा विरिडे, ट्राइकोडर्मा हर्जियानम या स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस जैसे जैव-एजेंटों से समृद्ध गोबर खाद का प्रयोग करें। 5. यदि संभव हो तो फसल चक्र अपनाएं जिसमें खेत को दो भागों में बांटा जाता है। गेहूँ/जौ/जई/ज्वार/बाजरा/मक्का/सरसों/तिल को एक वर्ष में एक भाग में तथा दूसरे भाग में सब्ज़ियों को वैकल्पिक वर्षों में उगाया जा सकता है। किसान भाई उपरोक्त तरीकों से रोग की पहचान कर उसका उपचार करें तथा स्वस्थ गाजर का उच्च उत्पादन लेकर अधिक लाभ पाएं। आपके क्षेत्र के पास कृषि महाविद्यालयों में परामर्श के लिए विशेषज्ञ उपलब्ध हो सकते हैं। मिट्टी में सूत्रकृमियों की उपस्थिती तथा जनसंख्या घनत्व की जांच भी यहां की प्रयोगशाला में करवा सकते हैं।  गलगोटिया विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कृषि महाविद्यालय में ऐसे विशेषज्ञ हैं जो बिना किसी शुल्क के फसलों के रोगों  की पहचान कर सकते हैं और उनके इलाज के लिए मार्गदर्शन कर सकते हैं।  किसान भाई, बहिन इसका लाभ उठा सकते हैं।