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सावधान : बढ़ती गर्मी में इस तरह करें अपने पशुओं की देखभाल

सावधान : बढ़ती गर्मी में इस तरह करें अपने पशुओं की देखभाल

फिलहाल गर्मी के दिन शुरू हो गए हैं। आम जनता के साथ-साथ पशुओं को भी गर्मी प्रभावित करेगी। ऐसे में मवेशियों को भूख कम और प्यास ज्यादा लगती है। पशुपालक अपने मवेशियों को दिन में न्यूनतम तीन बार जल पिलाएं। 

जिससे कि उनके शरीर को गर्म तापमान को सहन करने में सहायता प्राप्त हो सके। इसके अतिरिक्त लू से संरक्षण हेतु पशुओं के जल में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिला देना चाहिए। 

भारत के विभिन्न राज्यों में गर्मी परवान चढ़ रही है। इसमें महाराष्ट्र राज्य सहित बहुत से प्रदेशों में तापमान 40 डिग्री पर है। साथ ही, गर्म हवाओं की हालत देखने को मिल रही है। साथ ही, उत्तर भारत के अधिकांश प्रदेशों में तापमान 35 डिग्री तक हो गया है। 

इस मध्य मवेशियों को गर्म हवा लगने की आशंका रहती है। लू लगने की वजह से आम तौर पर पशुओं की त्वचा में सिकुड़न और उनकी दूध देने की क्षमता में गिरावट देखने को मिलती है। 

हालात यहां तक हो जाते हैं, कि इसके चलते पशुओं की मृत्यु तक हो जाने की बात सामने आती है। ऐसी भयावय स्थिति से पशुओं का संरक्षण करने के लिए उनकी बेहतर देखभाल करना अत्यंत आवश्यक है।

पशुओं को पानी पिलाते रहें

गर्मी के दिनों में मवेशियों को न्यूनतम 3 बार जल पिलाना काफी आवश्यक होता है। इसकी मुख्य वजह यह है, कि जल पिलाने से पशुओं के तापमान को एक पर्याप्त संतुलन में रखने में सहायता प्राप्त होती है। 

इसके अतिरिक्त मवेशियों को जल में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिलाकर पिलाने से गर्म हवा लगने की आशंका काफी कम रहती है। 

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यदि आपके पशुओं को अधिक बुखार है और उनकी जीभ तक बाहर निकली दिख रही है। साथ ही, उनको सांस लेने में भी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। उनके मुंह के समीप झाग निकलते दिखाई पड़ रहे हैं तब ऐसी हालत में पशु की शक्ति कम हो जाती है। 

विशेषज्ञों के मुताबिक, ऐसे हालात में अस्वस्थ पशुओं को सरसों का तेल पिलाना काफी लाभकारी साबित हो सकता है। सरसों के तेल में वसा की प्रचूर मात्रा पायी जाती है। जिसकी वजह से शारीरिक शक्ति बढ़ती है। विशेषज्ञों के अनुरूप गाय और भैंस के पैदा हुए बच्चों को सरसों का तेल पिलाया जा सकता है।

पशुओं को सरसों का तेल कितनी मात्रा में पिलाया जाना चाहिए

सीतापुर जनपद के पशुपालन वैज्ञानिक डॉ आनंद सिंह के अनुरूप, गर्मी एवं लू से पशुओं का संरक्षण करने के लिए काफी ऊर्जा की जरूरत होती है। ऐसी हालत में सरसों के तेल का सेवन कराना बेहद लाभकारी होता है। 

ऊर्जा मिलने से पशु तात्कालिक रूप से बेहतर महसूस करने लगते हैं। हालांकि, सरसों का तेल पशुओं को प्रतिदिन देना लाभकारी नहीं माना जाता है। 

डॉ आनंद सिंह के अनुसार, पशुओं को सरसों का तेल तभी पिलायें, जब वह बीमार हों अथवा ऊर्जा स्तर निम्न हो। इसके अतिरिक्त पशुओं को एक बार में 100 -200 ML से अधिक तेल नहीं पिलाना चाहिए। 

हालांकि, अगर आपकी भैंस या गायों के पेट में गैस बन गई है, तो उस परिस्थिति में आप अवश्य उन्हें 400 से 500 ML सरसों का तेल पिला सकते हैं। 

साथ ही, पशुओं के रहने का स्थान ऐसी जगह होना चाहिए जहां पर प्रदूषित हवा नहीं पहुँचती हो। पशुओं के निवास स्थान पर हवा के आवागमन के लिए रोशनदान अथवा खुला स्थान होना काफी जरुरी है।

पशुओं की खुराक पर जोर दें

गर्मी के मौसम में लू के चलते पशुओं में दूध देने की क्षमता कम हो जाती है। उनको इस बीच प्रचूर मात्रा में हरा एवं पौष्टिक चारा देना अत्यंत आवश्यक होता है। 

हरा चारा अधिक ऊर्जा प्रदान करता है। हरे चारे में 70-90 फीसद तक जल की मात्रा होती है। यह समयानुसार जल की आपूर्ति सुनिश्चित करती है। इससे पशुओं की दूध देने की क्षमता काफी बढ़ जाती है।

कपास की उन्नत किस्मों के बारे में जानें

कपास की उन्नत किस्मों के बारे में जानें

कपास की खेती भारत में बड़े पैमाने पर की जाती है। कपास को नकदी फसल के रूप में भी जाना जाता है। कपास की खेती ज्यादातर बारिश और खरीफ के मौसम में की जाती है। 

कपास की खेती के लिए काली मिट्टी को उपयुक्त माना जाता है। इस फसल का काफी अच्छा प्रभाव हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है, क्योंकि यह एक नकदी फसल है। कपास की कुछ उन्नत किस्में भी हैं ,जिनका उत्पादन कर किसान मुनाफा कमा सकता है। 

 1 सुपरकॉट BG II 115 क़िस्म

यह क़िस्म प्रभात सीड की बेस्ट वैरायटी में से एक है। इस किस्म की बुवाई सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में की जा सकती है। 

यह किस्म कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगना और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर की जाती है। इस किस्म के पौधे ज्यादातर लम्बे और फैले हुए होते है। 

इस बीज की बुवाई कर किसान एक एकड़ जमीन में 20 -25 क्विंटल की पैदावार प्राप्त कर सकता है। यह फसल 160 -170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

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2 Indo US 936, Indo US 955   

कपास की यह वैरायटी इंडो अमेरिकन की वेरायटीज में टॉप पर आती है। कपास की इस किस्म की खेती गुजरात और मध्य प्रदेश में की जाती है। इसकी खेती के लिए बहुत ही हल्की मिट्टी वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। 

इस किस्म में कपास के बोल का वजन 7 -10 ग्राम होता है। कपास की इस किस्म में 45 -48 दिन फूल आना शुरू हो जाते है। यह किस्म लगभग 155 -165 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

इस किस्म में आने वाले फूल का रंग क्रीमी होता है। Indo US 936, Indo US 955 की उत्पादन क्षमता प्रति एकड़ 15 -20 क्विंटल है। 

3 Ajeet 177BG II 

यह किस्म सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म में कपास के पौधे की लम्बाई 145 से 160 सेंटीमीटर होती है। कपास की इस किस्म में बनने वाली बोल का वजन 6 -10 ग्राम होता है। 

Ajeet 177BG II में अच्छे किस्म के रेशें होते हैं। कपास की इस किस्म में पत्ती मोड़क कीड़े लगने की भी बहुत कम संभावनाएं होती हैं। 

यह फसल 145 -160 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। प्रति एकड़ में इसकी उत्पादन क्षमता 22 -25 क्विंटल होती है।     

4 Mahyco Bahubali MRC 7361 

इस किस्म का ज्यादातर उत्पादन राजस्थान, महाराष्ट्रा, कर्नाटक, तेलंगना, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु में होता है। यह मध्यम काल अवधि में पकने वाली फसल है। 

कपास की इस किस्म का वजन भी काफी अच्छा रहता है। प्रति एकड़ में इस फसल की पैदावार 20 -25 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

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5 रासी नियो 

कपास की यह किस्म हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र,तेलंगाना,गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर उगाई जाती है। चूसक कीड़ों के लिए यह किस्म सहिष्णु होती है। 

कपास की इस किस्म के पौधे हरे भरे होते है। रासी नियो की उत्पादन क्षमता प्रति एकड़ 20 -22 क्विंटल होती है। इस किस्म को हल्की और मध्यम भूमि के लिए काफी उपयुक्त माना गया है। 

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

मूंग की खेती अन्य दलहनी फसलों की तुलना में काफी सरल है। मूंग की खेती में कम खाद और उर्वरकों के उपयोग से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। मूंग की खेती में बहुत कम लागत आती है, किसान मूंग की उन्नत किस्मों का उत्पादन कर ज्यादा मुनाफा कमा सकते है। इस दाल में बहुत से पोषक तत्व होते है जो स्वास्थ के लिए बेहद लाभकारी होते है। 

मूंग की फसल की कीमत बाजार में अच्छी खासी है, जिससे की किसानों को अच्छा मुनाफा होगा। इस लेख में हम आपको मूंग की कुछ ऐसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देंगे जिनकी खेती करके आप अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

मूंग की अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्में 

पूसा विशाल किस्म 

मूंग की यह किस्म बसंत ऋतू में 60 -75 दिन में और गर्मियों के माह में यह फसल 60 -65 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। यह मूंग पीला मोजक वायरस के प्रति प्रतिरोध है। यह मूंग गहरे रंग की होती है, जो की चमकदार भी होती है। यह मूंग ज्यादातर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में ज्यादा मात्रा में उत्पादित की जाती है। पकने के बाद यह मूंग प्रति हेक्टेयर में 12 -13 क्विंटल बैठती है। 

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पूसा रत्न किस्म 

पूसा रत्न किस्म की मूंग 65 -70 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। पूसा रत्न मूंग की खेती में लगने वाले पीले मोजक के प्रति सहनशील होती है। मूंग की इस किस्म पंजाब और अन्य दिल्ली एनसीआर में आने वाले क्षेत्रो में सुगम और सरल तरीके से उगाई जा सकती है। 

पूसा 9531 

मूंग की यह किस्म मैदानी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म के पौधे लगभग 60 -65 दिन के अंदर कटाई के लिए तैयार हो जाते है। इसकी फलिया पकने के बाद हल्के भूरे रंग की दिखाई पड़ती है। साथ ही इस किस्म में पीली चित्ती वाला रोग भी बहुत कम देखने को मिलता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 12 -15 प्रति क्विंटल होती है। 

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मूंग की यह किस्म बनारस हिन्दू विश्वविधालय द्वारा तैयार की गई है, इस किस्म के पौधे पर बहुत ही कम मात्रा में फलिया पाई जाती है। मूंग की यह किस्म लगभग 65 -70 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती है। साथ ही मूंग की फसल में लगने वाले पीले मोजक रोग का भी इस पर कम प्रभाव पड़ता है। 

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मूंग की यह किस्म जायद के मौसम में अच्छे से उगाई जा सकती है। इस किस्म की खेती खरीफ के मौसम में भी अच्छे से की जा सकती है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। साथ ही यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 8 -10 क्विंटल होती है। 

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मूंग की इस किस्म को जायद के मौसम के लिए तैयार किया गया है। इस किस्म के पौधे बुवाई के दो महीने बाद पककर तैयार हो जाते है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 10 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

पन्त मूँग -1 

मूंग की इस किस्म को जायद और खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है। मूंग की इस किस्म पर बहुत ही कम मात्रा में जीवाणु जनित रोगों का प्रभाव देखने को मिलता है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। पन्त मूंग -1 का औसतन उत्पादन 10 -12 क्विंटल देखने को मिलता है। 

जून माह में मूंगफली की उन्नत खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

जून माह में मूंगफली की उन्नत खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

मूंगफली भारत की प्रमुख महत्त्वपूर्ण तिलहनी फसल है। यह गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडू तथा कर्नाटक राज्यों में सर्वाधिक उगाई जाती है। 

भारत देश के बाकी राज्य जैसे कि मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा पंजाब में भी यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण फसल मानी जाने लगी है। राजस्थान में इसकी खेती तकरीबन 3.47 लाख हैक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है, जिससे तकरीबन 6.81 लाख टन उपज प्राप्त होती है। 

मूंगफली की औसत उपज 1963 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर (2010-11) है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्‌ के अधीनस्थ अनुसंधानों संस्थानों एवं कृषि विश्वविद्यालयों ने मूंगफली की उन्नत तकनीकियाँ जैसे उन्नत किस्में, रोग नियंत्रण, निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण आदि विकसित की हैं। इनकी जानकारी आपको नीचे प्रदान की गई है।

मूंगफली की फसल के लिए भूमि तथा उसकी तैयारी

मूंगफली की खेती के लिए बेहतरीन जल निकासी वाली, भुरभुरी दोमट व बलुई दोमट जमीन सबसे अच्छी रहती है। मृदा पलटने वाले हल तथा बाद में कल्टीवेटर से दो जुताई करके खेत को पाटा लगाकर एकसार कर लेना चाहिए। 

जमीन में दीमक व विभिन्न प्रकार के कीड़ों से फसल के संरक्षण हेतु क्विनलफोस 1.5 प्रतिशत 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के साथ भूमि में मिला देना चाहिए।

मूंगफली का बीज एवं इसकी बुवाई

मूंगफली की बुवाई प्रायः मानसून शुरू होने के साथ ही हो जाती है। उत्तर भारत में यह समय सामान्य तोर पर 15 जून से 15 जुलाई के बीच का होता है। 

कम फैलने वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा 75-80 कि.ग्राम. प्रति हेक्टेयर एवं फैलने वाली किस्मों के लिये 60-70 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल में लेनी चाहिए।  

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बुवाई के लिए बीज निकालने के लिए स्वस्थ फलियों का चयन करना चाहिए या उनका प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए। बुवाई से 10-15 दिन पहले गिरी को फलियों से अलग कर लेना चाहिए। 

मूंगफली की फसल के लिए बीजोपचार 

बीज को रोपने से पहले 3 ग्राम थाइरम या 2 ग्राम मेन्कोजेब या कार्बेण्डिजिम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर लेनी चाहिए। 

इससे बीजों का अंकुरण काफी अच्छा होता है तथा प्रारंभिक अवस्था में लगने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाया जा सकता है। 

दीमक और सफेद लट से संरक्षण के लिए क्लोरोपायरिफास (20 ई.सी.) का 12.50 मि.ली. प्रति किलो बीज का उपचार बुवाई से पहले कर लेना चाहिए। 

मूंगफली की कतार में बुवाई करनी चाहिए। गुच्छे वाली/कम फैलने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार का फासला 30 से.मी. तथा फैलने वाली किस्मों के लिए 45 से.मी.रखें। 

पौधों से पौधों की दूरी 15 से. मी. ही रखनी चाहिए। बुवाई हल के पीछे, हाथ से या सीडड्रिल द्वारा की जा सकती है। भूमि की किस्म एवं नमी की मात्रा के अनुसार बीज जमीन में 5-6 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

मूंगफली की खेती में खाद एवं उर्वरक प्रबंधन 

उर्वरकों का इस्तेमाल भूमि की किस्म, उसकी उर्वराशक्ति, मूंगफली की किस्म, सिंचाई की सुविधा आदि के अनुरूप होता है। 

मूंगफली दलहन परिवार की तिलहनी फसल होने के नाते इसको सामान्य रूप से नाइट्रोजनधारी उर्वरक की जरूरत नहीं होती। 

फिर भी हल्की मृदा में प्रारंभिक बढ़वार के लिये 15-20 किग्रा नाइट्रोजन तथा 50-60 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टेयर के हिसाब से देना लाभकारी होता है। 

उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा खेत की तैयारी के वक्त ही भूमि में मिला देनी चाहिए। अगर कम्पोस्ट या गोबर की खाद उपलब्ध हो तो उसे बुवाई के 20-25 दिन पहले 5 से 10 टन प्रति हैक्टेयर खेत में बिखेरकर अच्छी तरह मिला देना चाहिए। 

बतादें, कि ज्यादा उपज के लिए अंतिम जुताई से पूर्व जमीन में 250 कि.ग्रा.जिप्सम प्रति हैक्टेयर के हिसाब से मिला देना चाहिए।

मूंगफली की खेती में नीम की खल का प्रयोग

नीम की खल के प्रयोग का मूंगफली के उत्पादन में अच्छा प्रभाव पड़ता है। अंतिम जुताई के समय 400 कि.ग्रा. नीम खल प्रति हैक्टर के हिसाब से देना चाहिए। 

नीम की खल से दीमक का नियंत्रण हो जाता है तथा पौधों को नत्रजन तत्वों की पूर्ति हो जाती है। नीम की खल के प्रयोग से 16 से 18 प्रतिशत तक की उपज में वृद्धि, तथा दाना मोटा होने के कारण तेल प्रतिशत में भी वृद्धि हो जाती है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों में अधिक उत्पादन के लिए जिप्सम भी प्रयोग में लेते हैं।

मूंगफली की फसल में सिंचाई प्रबंधन 

मूंगफली खरीफ फसल होने के कारण इसमें सिंचाई की प्रायः आवश्यकता नहीं पड़ती। सिंचाई देना सामान्य रूप से वर्षा के वितरण पर निर्भर करता हैं फसल की बुवाई यदि जल्दी करनी हो तो एक पलेवा की आवश्यकता पड़ती है। 

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यदि पौधों में फूल आते समय सूखे की स्थिति हो तो उस समय सिंचाई करना आवश्यक होता है। फलियों के विकास एवं गिरी बनने के समय भी भूमि में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। 

जिससे फलियाँ बड़ी तथा खूब भरी हुई बनें। अतः वर्षा की मात्रा के अनुरूप सिंचाई की जरूरत पड़ सकती है।

मूंगफली की फलियों का विकास जमीन के अन्दर होता है। अतः खेत में बहुत समय तक पानी भराव रहने पर फलियों के विकास तथा उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। 

अतः बुवाई के समय यदि खेत समतल न हो तो बीच-बीच में कुछ मीटर की दूरी पर हल्की नालियाँ बना देना चाहिए। जिससे वर्षा का पानी खेत में बीच में नहीं रूक पाये और अनावश्यक अतिरिक्त जल वर्षा होते ही बाहर निकल जाए।

कृषि में निराई गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण

निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण का इस फसल के उत्पादन में बड़ा ही महत्त्व है। मूंगफली के पौधे छोटे होते हैं। अतः वर्षा के मौसम में सामान्य रूप से खरपतवार से ढक जाते हैं। 

ये खरपतवार पौधों को बढ़ने नहीं देते। खरपतवारों से बचने के लिये कम से कम दो बार निराई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। 

पहली बार फूल आने के समय दूसरी बार 2-3 सप्ताह बाद जबकि पेग (नस्से) जमीन में जाने लगते हैं। इसके बाद निराई गुड़ाई नहीं करनी चाहिए। 

जिन खेतों में खरपतवारों की ज्यादा समस्या हो तो बुवाई के 2 दिन बाद तक पेन्डीमेथालिन नामक खरपतवारनाशी की 3 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर छिड़काव कर देना चाहिए।

जायद सीजन में इन फसलों की बुवाई कर किसान अच्छा लाभ उठा सकते हैं

जायद सीजन में इन फसलों की बुवाई कर किसान अच्छा लाभ उठा सकते हैं

रबी की फसलों की कटाई का समय लगभग आ ही गया है। अब इसके बाद किसान भाई अपनी जायद सीजन की फल एवं सब्जियों की बुवाई शुरू करेंगे। 

बतादें, कि गर्मियों में खाए जाने वाले प्रमुख फल और सब्जियां जायद सीजन में ही उगाए जाते हैं। इन फल-सब्जियों की खेती में पानी की खपत बहुत ही कम होती है। परंतु, गर्मियां आते ही बाजार में इनकी मांग काफी बढ़ जाती है। 

उदाहरण के लिए सूरजमुखी, तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी सहित कई फसलों की उपज लेने के लिए जायद सीजन में बुवाई करना लाभदायक माना जाता है। यह मध्य फरवरी से चालू होता है। 

उसके बाद मार्च के समापन तक फसलों की बुवाई कर दी जाती है। फिर गर्मियों में भरपूर उत्पादन हांसिल होता है। मई, जून, जुलाई, जब भारत गर्मी के प्रभाव से त्रस्त हो जाता है। उस समय शायद सीजन की यह फसलें ही पानी की उपलब्धता को सुनिश्चित करती हैं। 

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खीरा मानव शरीर को स्वस्थ भी रखता है। इस वजह से बाजार में इनकी मांग अचानक से बढ़ जाती है, जिससे किसानों को भी अच्छा-खासा मुनाफा प्राप्त होता है। शीघ्र ही जायद सीजन दस्तक देने वाला है। 

ऐसे में किसान खेतों की तैयारी करके प्रमुख चार फसलों की बिजाई कर सकते हैं। ताकि आने वाले समय में उनको बंपर उत्पादन प्राप्त हो सके।

सूरजमुखी 

सामान्य तौर पर सूरजमुखी की खेती रबी, खरीफ और जायद तीनों ही सीजन में आसानी से की जा सकती है। लेकिन जायद सीजन में बुवाई करने के बाद फसल में तेल की मात्रा कुछ ज्यादा बढ़ जाती है। किसान चाहें तो रबी की कटाई के पश्चात सूरजमुखी की बुवाई का कार्य कर सकते हैं।

वर्तमान में देश में खाद्य तेलों के उत्पादन को बढ़ाने की कवायद की जा रही है। ऐसे में सूरजमुखी की खेती करना अत्यंत फायदे का सौदा साबित हो सकता है। बाजार में इसकी काफी शानदार कीमत मिलने की संभावना रहती है।

तरबूज 

विभिन्न पोषक तत्वों से युक्त तरबूज तब ही लोगों की थाली तक पहुंचता है, जब फरवरी से मार्च के मध्य इसकी बुवाई की जाती है। यह मैदानी इलाकों का सर्वाधिक मांग में रहने वाला फल है। 

खास बात यह है, की पानी की कमी को पूरा करने वाला यह फल काफी कम सिंचाई एवं बेहद कम खाद-उर्वरक में ही तैयार हो जाता है। 

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तरबूज की मिठास और इसकी उत्पादकता को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक तरीके से तरबूज की खेती करने की सलाह दी जाती है। यह एक बागवानी फसल है, जिसकी खेती करने के लिए सरकार अनुदान भी उपलब्ध कराती है। इस प्रकार कम खर्चे में भी तरबूज उगाकर शानदार धनराशि कमाई जा सकती है। 

खरबूज

तरबूज की तरह खरबूज भी एक कद्दूवर्गीय फल है। खरबूज आकार में तरबूज से थोड़ा छोटा होता है। परंतु, मिठास के संबंध में अधिकांश फल खरबूज के समक्ष फेल हैं। पानी की कमी एवं डिहाइड्रेशन को दूर करने वाले इस फल की मांग गर्मी आते ही बढ़ जाती है।

खरबूज की खेती से बेहतरीन उत्पादकता प्राप्त करने के लिए मृदा का उपयोग होना अत्यंत आवश्यक है। हल्की रेतीली बलुई मृदा खरबूज की खेती के लिए उपयुक्त मानी गई है। किसान भाई चाहें तो खरबूज की नर्सरी तैयार करके इसके पौधों की रोपाई खेत में कर सकते हैं।

खेतों में खरबूज के बीज लगाना बेहद ही आसान होता है। अच्छी बात यह है, कि इस फसल की खेती के लिए भी ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। असिंचित इलाकों में भी खरबूज की खेती से अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। 

खीरा 

गर्मियों में खीरा का बाकी फलों से अधिक उपयोग होता है। खीरा की तासीर काफी ठंडी होने की वजह से सलाद से लेकर जूस के तौर पर इसका सेवन किया जाता है। शरीर में पानी की कमी को पूरा करने वाला यह फल भी अप्रैल-मई से ही मांग में रहता है। 

मचान विधि के द्वारा खीरा की खेती करके शानदार उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार कीट-रोगों के प्रकोप का संकट बना ही रहता है। फसल भूमि को नहीं छूती, इस वजह से सड़न-गलन की संभावना कम रहती है। नतीजतन फसल भी बर्बाद नहीं होती है। 

खीरा की खेती के लिए नर्सरी तैयार करने की राय दी जाती है। किसान भाई खीरा को भी रेतीली दोमट मृदा में उगाकर शानदार उपज प्राप्त कर सकते हैं। 

खीरा की बीज रहित किस्मों का चलन काफी तेजी से बढ़ता जा रहा है। किसान भाई यदि चाहें तो खीरा की उन्नत किस्मों की खेती करके मोटा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।

ककड़ी 

खीरा की भांति ककड़ी की भी अत्यंत मांग रहती है। इसका भी सलाद के रूप में सेवन किया जाता है। उत्तर भारत में ककड़ी का बेहद चलन है। खीरा और ककड़ी की खेती तकरीबन एक ही ढ़ंग से की जाती है। किसान चाहें तो खेत के आधे भाग में खीरा और आधे भाग में ककड़ी उगाकर भी अतिरिक्त आमदनी उठा सकते हैं।

अगर मचान विधि से खेती कर रहे हैं, तो भूमि पर खरबूज और तरबूज उगा सकते हैं। शायद सीजन का मेन फोकस गर्मियों में फल-सब्जियों की मांग को पूर्ण करना है। 

साथ ही, इन चारों फल-सब्जियों की मांग बाजार में बनी रहती है। इसलिए इनकी खेती भी किसानों के लाभ का सौदा सिद्ध होगी। 

मक्के की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी

मक्के की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण एवं विस्तृत जानकारी

भारत में मक्का गेहूं के पश्चात सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल है। मक्के की फसल को विभिन्न प्रकार से इस्तेमाल में लाया जाता है। यह मनुष्य एवं पशुओं दोनों के लिए आहार का कार्य करती है। 

इसके अतिरिक्त व्यापारिक दृष्टि से भी इसका काफी अहम महत्त्व है। मक्के की फसल को मैदानी इलाकों से लेकर 2700 मीटर ऊंचे पहाड़ी इलाकों में भी सुगमता से उगाया जा सकता है। 

भारत में मक्के की विभिन्न उन्नत किस्में पैदा की जाती है, जो कि जलवायु के अनुरूप शायद ही बाकी देशों में संभव हो। मक्का प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और विटामिन का बेहतरीन स्त्रोत है, जो कि मानव शरीर को ऊर्जा से भर देता है। 

इसके अंदर भरपूर मात्रा में फॉसफोरस, मैग्निशियम, आयरन, मैगनिज, जिंक और कॉपर जैसे खनिज प्रदार्थ भी उपलब्ध होते हैं। मक्का एक प्रकार से खरीफ ऋतु की फसल होती है। 

लेकिन, जहाँ सिंचाई के साधन मौजूद हैं, वहां इसे रबी और खरीफ की अगेती फसलों के रूप में पैदा किया जाता है। मक्के की फसल की बहुत ज्यादा मांग है, जिस कारण से इसे बेचने में भी सहजता होती है।

मक्के की खेती हेतु जलवायु एवं तापमान

मक्के की बेहतरीन पैदावार अर्जित करने के लिए उचित जलवायु एवं तापमान होना आवश्यक होता है। इसकी फसल उष्ण कटिबंधीय इलाकों में बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करती है। 

इसके पौधों को सामान्य तापमान की जरूरत पड़ती है। शुरुआत में इसके पौधों को विकास करने के लिए नमी की बेहद जरूरत होती है, 18 से 23 डिग्री का तापमान पौधों के बढ़वार और 28 डिग्री का तापमान पौधे के विकास के लिए ज्यादा बेहतर माना जाता है। 

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मक्के की खेती हेतु जमीन कैसी होनी चाहिए

मक्के की खेती को आम तौर पर किसी भी जमीन में कर सकते हैं। लेकिन, अच्छी गुणवत्ता एवं अधिक पैदावार के लिए बलुई दोमट एवं भारी भूमि की जरूरत पड़ती है। 

इसके अतिरिक्त जमीन भी अच्छी जल निकासी वाली होनी चाहिए। मक्के की खेती के लिए लवणीय एवं क्षारीय भूमि को बेहतर नहीं माना जाता है।

मक्का का खेत तैयार करने की विधि

मक्के के बीजों की खेत में बुवाई करने से पूर्व खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम खेत की अच्छी तरीके से गहरी जुताई कर लेनी चाहिए। 

इसके पश्चात कुछ वक्त के लिए खेत को ऐसे ही खुला छोड़ दें। मक्के की बेहतरीन उपज के लिए मिट्टी को पर्याप्त मात्रा में उवर्रक देना जरूरी होता है। 

इसके लिए 6 से 8 टन पुरानी गोबर की खाद को खेत में डाल देना चाहिए। उसके बाद खेत की तिरछी जुताई करवा दें, जिससे कि खाद अच्छी तरह से मृदा में मिल जाये। 

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जमीन में जस्ते की कमी होने पर वर्षा के मौसम से पूर्व 25 किलो जिंक सल्फेट की मात्रा को खेत में डाल देना चाहिए। खाद और उवर्रक को चुनी गई उन्नत किस्मों के आधार पर देना चाहिए। 

इसके पश्चात बीजों की रोपाई के दौरान नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा को देना चाहिए। साथ ही, इसके अन्य दूसरे हिस्से को बीज रोपाई के एक माह पश्चात दें और अंतिम हिस्से को पौधों में फूलों के लगने के समय देना चाहिए।

मक्का की बुवाई का समुचित वक्त व तरीका

मक्के के खेत में बीजों को लगाने से पूर्व उन्हें अच्छे से उपचारित कर लेना चाहिए, जिससे बीजों की बढ़वार के दौरान उनमें रोग न लगे। 

इसके लिए सर्वप्रथम बीजों को थायरम या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम की मात्रा को प्रति 1 किलो बीज को उपचारित कर लें। इस उपचार से बीजों को फफूंद से संरक्षित किया जाता है। 

इसके उपरांत बीजों को मृदा में रहने वाले कीड़ो से बचाने के लिए प्रति किलो की दर से थायोमेथोक्जाम अथवा इमिडाक्लोप्रिड 1 से 2 ग्राम की मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए।

किसान भाई खरीफ सीजन में इस तरह करें मूंग की खेती

किसान भाई खरीफ सीजन में इस तरह करें मूंग की खेती

मूँग एक प्रमुख दलहनी फसल होने की वजह से यह एक उत्तम आय का माध्यम है। साथ ही, मूँग की फसल को पोषण के मामले में काफी ज्यादा अच्छा माना जाता है। 

भारत के अंदर खेती करने के लिये तीन फसल चक्र अपनाये जाते हैं, जिसमें रबी की फसल, खरीफ की फसल और जायद की फसल शम्मिलित हैं। किसान भाइयों ने रबी फसल की कटाई कर ली है एवं खरीफ फसल के लिये खेतों की तैयारी का काम चल रहा है। 

जो भी किसान भाई खरीफ सीजन में अच्छा मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, वे अपने खेतों में पलेवा, बीजों का चुनाव, सिंचाई की व्यस्था और खेतों में बाड़बंदी की तैयारी कर लें। 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निर्देशानुसार यह समय मूंग की खेती करने के लिये काफी ज्यादा अनुकूल है। मूंग एक प्रमुख दलहनी फसल है, जिसकी खेती कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में की जाती है। 

प्रमुख दलहनी फसल होने की वजह मूंग की फसल एक बेहतरीन कमाई का जरिया तो है ही, साथ में पोषण के मामले में मूंग की फसल को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।

मूंग की फसल हेतु खेत की तैयारी

अगर किसान इस खरीफ सीजन में मूंग की फसल लगाना चाह रहे हैं, तो वो खेतों में 2-3 बार बारिश होने पर गहरी जुताई का कार्य कर लें। इससे मृदा में छिपे कीड़े निकल जाते हैं और खरपतवार भी खत्म हो जाते हैं। 

गहरी जुताई से फसल की पैदावार बढ़ती है और स्वस्थ फसल लेने में भी सहायता मिलती है। किसान ध्यान रखें, कि गहरी जुताई करने के पश्चात खेत में पाटा चलाकर उसे एकसार कर लें। 

इसके पश्चात खेत में गोबर की खाद और आवश्यक पोषक तत्व भी मिला लें, जिससे बेहतरीन पैदावार प्राप्त हो सके।

मूंग की फसल हेतु बीजों का चयन

जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक किसान खरीफ मूंग की बुवाई कर सकते हैं। बुवाई के लिये किसानों को बेहतरीन गुणवत्ता वाले उपयुक्त बीजों का ही चयन करना चाहिये, इससे मूंग की फसल में कीड़े एवं बीमारियां लगने की संभावना काफी कम रहती है। 

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मूंग की फसल की बुवाई

खेत में मूंग के बीज की बुवाई करने से पहले उनका बीजशोधन अवश्य करना चाहिए। बतादें कि इससे स्वस्थ और रोगमुक्त फसल लेने में विशेष सहायता मिलती है। 

मूंग के बीजों को कतारों में ही बोयें, जिससे निराई-गुड़ाई करने में काफी सुगमता रहे और खरपतवार भी आसानी से निकाले जा सकें।

मूंग की फसल में सिंचाई की व्यवस्था

हालांकि, मूंग की फसल के लिये अत्यधिक जल की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 2 से 3 बरसातों में ही फसल को अच्छी खासी नमी मिल जाती है। परंतु, फिर भी फलियां बनने के दौरान खेतों में हल्की सिंचाई कर देनी चहिये। 

शाम के वक्त हल्की सिंचाई करने पर मिट्टी को नमी मिल जाती है। इस बात का खास ख्याल रखें कि फसल पकने के 15 दिन पहले ही सिंचाई का काम बंद कर दें।

मूंग की फसल में कीटनाशक और खरपतवार नियंत्रण

दूसरी फसलों की तरफ मूंग की फसल में भी कीट-रोग लगने की संभावना बनी रहती है। इस वजह से समय-समय पर निराई-गुड़ाई का भी कार्य करते रहें। खेतों में उगे खरपतवारों को उखाड़कर जमीन के अंदर दबा दें। साथ ही, रोगों से भी फसल की निगरानी करते रहें। 

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मूंग की फसल की कटाई-गहाई

खरीफ मूंग की फसल कम समय में पकने वाली फसल है। यह सामान्य तौर पर 65-70 दिनों के अंदर पककर तैयार हो जाती है। जून-जुलाई के मध्य बोई गई फसल सिंतबर-अक्टूबर के मध्य पककर तैयार हो जाती है। 

मूंग की फलियां हरे रंग से भूरे रंग की होने लग जाऐं तो कटाई-गहाई का कार्य वक्त रहते कर लेना चाहिये।

मूंगफली की इस किस्म की खेती करने वाले किसानों की बेहतरीन कमाई होगी

मूंगफली की इस किस्म की खेती करने वाले किसानों की बेहतरीन कमाई होगी

मूगंफली की किस्म डी.एच. 330 की खेती कम जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों में भी की जा सकती है। मूंगफली की पैदावार मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में की जाती है। इन राज्यों में सूखे के कारण मूंगफली की पैदावार में किसानों के समक्ष काफी चुनौतियां आती हैं। यहां पर कम बारिश होने के कारण मूंगफली की कम पैदावार होती है। साथ ही, किसान भाइयों की कमाई भी कम होती है। ऐसी स्थिति में आज हम मूगंफली की प्रजाति डी.एच. 330 के विषय में जानकारी देने जा रहे हैं, जिसकी खेती के लिए कम पानी की जरूरत पड़ती है।

मूंगफली की बुवाई कब की जाती है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि
मूंगफली की बुवाई जुलाई के माह में की जाती है। यह बिजाई के 30 से 40 दिन पश्चात अंकुरित होने लगती है। इसमें फूल निर्माण के उपरांत फलियां आने लगती हैं। यदि आपके क्षेत्र में कम बारिश एवं सूखे की संभावना बनी रहती है, तो इसकी उत्पादकता में गिरावट नहीं होगी। इसके लिए 180 से 200 एमएम की वर्षा काफी होती है।

मूंगफली की खेती के लिए मृदा की तैयारी

मृदा की तैयारी करने के लिए खेत की जुताई के पश्चात एक बार इसमें सिंचाई कर दें। बुवाई के उपरांत जब पौधों में फलियां आना शुरू हो जाऐं तो पौधों की जड़ों की चारों तरफ मिट्टी को चढ़ा दें। इससे फली की पैदावार अच्छी तरह से होती है। मृदा की तैयारी करना बेहतर फसल उत्पादकता के लिए काफी अहम होती है। यह भी पढ़ें: मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

मूंगफली का अच्छा उत्पादन कैसे प्राप्त करें

किसान मूंगफली का उत्पादन बढ़ाने के फसल की बुवाई के समय जैविक खाद का छिड़काव कर सकते हैं। इसके अरिरिक्त इंडोल एसिटिक को 100 लीटर पानी में मिला कर वक्त-वक्त पर फसल पर छिड़काव करते रहें। यह भी पढ़ें: मूंगफली की अच्छी पैदावार के लिए सफेद लट कीट की रोकथाम बेहद जरूरी है

मूंगफली की फसल में लगने वाले रोगों से बचाव

मूंगफली की फसल के अंतर्गत कॉलर रॉट रोग, टिक्का रोग एवं दीमक लगने की संभावना काफी अधिक रहती है। इसके लिए कार्बेंडाजिम, मैंकोजेब जैसे फफूंदनाशक एवं मैंगनीज कार्बामेट की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर 15 दिन के समयांतराल पर लगभग 4 से 5 बार छिड़काव करना चाहिए। किसान भाइयों को मूंगफली की इस किस्म डी.एच. 330 की बुवाई से बेहतरीन उत्पादन के लिए और किसी भी रोग से जुड़ी जानकारी हेतु कृषि विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की सलाह अवश्य लें।
किसान भाई मूंगफली की इस किस्म की खेती कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं

किसान भाई मूंगफली की इस किस्म की खेती कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं

मूंगफली की डी.एच. 330 किस्म की खेती के लिए कम जल की जरूरत होती है। साथ ही, इसको तैयार होने में तकरीबन 4 से 5 महीने का वक्त लग जाता है। मूंगफली एक बेहद ही स्वादिष्ट एवं फायदेमंद फसल है।

भारत के तकरीबन प्रत्येक व्यक्ति को मूंगफली काफी पसंद होती है। भारत में मूंगफली का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य गुजरात है। उसके पश्चात महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्य प्रदेश आते हैं।

यदि आप किसान भाई भी इसकी खेती कर बेहतरीन कमाई करने का सोच रहे हैं। तो आगे इस लेख में आज हम आपको इसकी खेती के विषय में जानकारी देंगे, जिसे अपनाकर आप केवल 4 माह में ही मूंगफली का बेहतरीन उत्पादन कर मोटी आय अर्जित कर सकते हैं।

मूंगफली की खेती का बेहतरीन तरीका

मूंगफली की उन्नत और शानदार खेती के लिए अच्छे बीज के साथ-साथ आधुनिक तकनीक की भी आवश्यकता होती है। मूंगफली की डी.एच. 330 फसल के लिए खेतों में तीन से चार बार जुताई करने के उपरांत ही बिजाई करनी होती है।

इसके उपरांत मृदा को एकसार करने के पश्चात खेत में आवश्यकता के हिसाब से जैविक खाद, उर्वरक एवं पोषक तत्वों को मिला देना चाहिए। डी.एच. 330 एक ऐसी प्रजाति की मूंगफली है, जिसे अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। 

खेत तैयार करने के उपरांत मूंगफली की बुवाई करनी चाहिए। आपको इस बात का खास ख्याल रखना चाहिए कि इसकी बेहतरीन पैदावार के लिए स्वस्थ बीजों का चुनाव करें।

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मूंगफली की खेती में सिंचाई बेहद आवश्यक है

मूंगफली की डी.एच. 330 की फसल को तैयार होने में कम बारिश की आवश्यकता होती है। इस वजह से इसे पानी बचाने वाली फसल के नाम से भी जाना जाता है। 

अगर आपके क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होने की संभावना रहती है, तो आप इस किस्म की खेती बिल्कुल भी ना करें। मूंगफली की फसल में पानी भरने से सड़ने का खतरा काफी बढ़ जाता है और कीड़े लगने का भी खतरा रहता है।

मूंगफली की फसल में जैविक कीटनाशक

डी.एच. 330 मूंगफली की फसल में अत्यधिक खरपतवार निकलने की संभावना बनी रहती है। अब ऐसी स्थिति में आप जैविक खाद के इस्तेमाल से अपनी पैदावार को अच्छा कर सकते हैं। 

मूंगफली की बिजाई के 25 से 30 दिन उपरांत खेतों में निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए। खेत में उत्पादित होने वाली घास को हटा दें। साथ ही, फसल को कीटों एवं रोगों से सुरक्षा के लिए माह में दो से तीन बार कीटनाशक का स्प्रे करते रहें।

किसान इस रबी सीजन में मटर की इन उन्नत किस्मों से बेहतरीन उत्पादन उठा सकते हैं

किसान इस रबी सीजन में मटर की इन उन्नत किस्मों से बेहतरीन उत्पादन उठा सकते हैं

किसानों के द्वारा रबी के सीजन में मटर की बिजाई अक्टूबर माह से की जाने लगती है। आज हम आपको इसकी कुछ प्रमुख उन्नत किस्मों के विषय में जानकारी देने जा रहे हैं। किसान कम समयावधि में तैयार होने वाली मटर की किस्मों की बुवाई सितंबर माह के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के बीच तक कर सकते हैं। इसकी खेती से किसान अपनी आमदनी को दोगुना तक कर सकते हैं। बतादें, कि इसमें काशी नंदिनी, काशी मुक्ति, काशी उदय और काशी अगेती प्रमुख फसलें हैं। इनकी विशेष बात है, कि यह 50 से 60 दिन के दौरान पककर तैयार हो जाती हैं। इससे खेत शीघ्रता से खाली हो जाता है। इसके पश्चात किसान सुगमता से दूसरी फसलों की बिजाई कर सकते हैं। किसान भाई कम समयावधि में तैयार होने वाली मटर की प्रजातियों की बुवाई सितंबर के अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के बीच तक कर दी जाती है।

मटर की उन्नत किस्म

मटर की उन्नत किस्म काशी नंदिनी

इस किस्म को साल 2005 में विकसित किया गया था। इसकी खेती जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और पंजाब में की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर औसतन 110 से 120 क्विंटल तक पैदावार हांसिल की जा सकती है।

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मटर की उन्नत किस्म काशी मुक्ति

यह किस्म मुख्य तौर पर झारखंड, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार के लिए अनुकूल मानी जाती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इससे प्रति हेक्टेयर 115 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल हो सकता है। इसकी फलियां और दाने काफी बड़े होते हैं। मुख्य बात यह है, कि इसकी विदेशों में भी काफी मांग रहती है।

मटर की उन्नत किस्म काशी अगेती

यह किस्म 50 दिन की समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। बतादें, कि इसकी फलियां सीधी और गहरी होती हैं। इसके पौधों की लंबाई 58 से 61 सेंटीमीटर तक होती है। इसके 1 पौधे में 9 से 10 फलियां लग सकती हैं। इससे प्रति हेक्टेयर 95 से 100 क्विंटल तक का पैदावार प्राप्त हो सकता है।

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मटर की उन्नत किस्म काशी उदय

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस प्रजाति को साल 2005 में तैयार किया गया था। इसकी खासियत यह है, कि इसकी फली की लंबाई 9 से 10 सेंटीमीटर तक होती है। इसकी खेती प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में की जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 105 क्विंटल तक की पैदावार मिल सकती है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इसकी खेती से किसान अपनी आमदनी को दोगुना तक कर सकते हैं। इसमें काशी मुक्ति, काशी उदय, काशी अगेती और काशी नंदिनी प्रमुख हैं। इनकी विशेष बात है, कि यह 50 से 60 दिन के अंदर तैयार हो जाती हैं। इससे खेत जल्दी खाली हो जाता है। इसके उपरांत किसान आसानी से दूसरी फसलों की बुवाई कर सकते हैं।
चावल की बेहतरीन पैदावार के लिए इस प्रकार करें बुवाई

चावल की बेहतरीन पैदावार के लिए इस प्रकार करें बुवाई

धान की बेहतरीन पैदावार के लिए जुताई के दौरान प्रति हेक्टेयर एक से डेढ़ क्विंटल गोबर की खाद खेत में मिश्रित करनी है। आज कल देश के विभिन्न क्षेत्रों में धान की रोपाई की वजह खेत पानी से डूबे हुए नजर आ रहे हैं। किसान भाई यदि रोपाई के दौरान कुछ विशेष बातों का ध्यान रखें तो उन्हें धान की अधिक और अच्छी गुणवत्ता वाली पैदावार मिल सकती है। अमूमन धान की रोपाई जून के दूसरे-तीसरे सप्ताह से जुलाई के तीसरे-चौथे सप्ताह के मध्य की जाती है। रोपाई के लिए पंक्तियों के मध्य का फासला 20 सेंटीमीटर और पौध की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिए। एक स्थान पर दो से तीन पौधे रोपने चाहिए। धान की फसल के लिए तापमान 20 डिग्री से 37 डिग्री के मध्य रहना चाहिए। इसके लिए दोमट मिट्टी काफी बेहतर मानी जाती है। धान की फसल के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2 से तीन जुताई कल्टीवेटर से करके खेत को तैयार करना चाहिए। साथ ही, खेत की सुद्रण मेड़बंदी करनी चाहिए, जिससे बारिश का पानी ज्यादा समय तक संचित रह सके।

धान शोधन कराकर खेत में बीज डालें

धान की बुवाई के लिए 40 से 50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के अनुसार बिजाई करनी चाहिए। साथ ही, एक हेक्टेयर रोपाई करने के लिए 30 से 40 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। हालांकि, इससे पहले बीज का शोधन करना आवश्यक होता है। ये भी पढ़े: भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण

खाद और उवर्रकों का इस्तेमाल किया जाता है

धान की बेहतरीन उपज के लिए जुताई के दौरान प्रति हेक्टेयर एक से डेढ़ क्विंटल गोबर की खाद खेत में मिलाते हैं। उर्वरक के रूप में नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फोरस का इस्तेमाल करते हैं।

बेहतर सिंचाई प्रबंधन किस प्रकार की जाए

धान की फसल को सबसे ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। रोपाई के उपरांत 8 से 10 दिनों तक खेत में पानी का बना रहना आवश्यक है। कड़ी धूप होने पर खेत से पानी निकाल देना चाहिए। जिससे कि पौध में गलन न हो, सिंचाई दोपहर के समय करनी चाहिए, जिससे रातभर में खेत पानी सोख सके।

कीट नियंत्रण किस प्रकार किया जाता है

धान की फसल में कीट नियंत्रण के लिए जुताई, मेंड़ों की छंटाई और घास आदि की साफ सफाई करनी चाहिए। फसल को खरपतवारों से सुरक्षित रखना चाहिए। 10 दिन की समयावधि पर पौध पर कीटनाशक और फंफूदीनाशक का ध्यान से छिड़काव करना चाहिए।
जानिए कैसे करें उड़द की खेती

जानिए कैसे करें उड़द की खेती

उड़द की खेती भारत में लगभग सभी राज्यों में होती है. ये मनुष्यों के लिए तो फायदेमंद है ही साथ ही खेत की सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है. हमारे देश में दालों की भारी कमी है. इस वजह से भी ये कभी महंगी और ज्यादा मांग वाली दाल है. 

भारत सरकार ने 2019-20 के दौरान 4 लाख टन के कुल उड़द आयात की अनुमति दी थी। यह दर्शाता है की दाल की मांग की पूर्ती हम अपने उत्पादन से नहीं कर पाते हैं इसके लिए हमें दाल के लिए विदेशों पर निर्भर रहना पड़ता है. 

पिछले वित्त वर्ष में भारत सरकार ने 4 लाख टन के आयात की अनुमति दी थी. 2019 - 20 में उद्योग के सूत्रों का कहना है कि वर्तमान में, उड़द केवल म्यांमार में उपलब्ध है। 

म्यांमार में उड़द का हाजिर मूल्य लगभग 810 डॉलर प्रति क्विंटल है। भारत को बारिश की शुरुआत में देरी के कारण उड़द के आयात का सहारा लेना पड़ा, जिसके बाद फसल की अवधि के दौरान अधिक और निरंतर वर्षा के कारण उत्पादन में गिरावट आई। 

 उड़द या किसी भी दलहन वाली फसल के उत्पादन से किसानों को फायदा ही है. बशर्ते की आपकी जमीन उस फसल को पकड़ने वाली हो. कई बार देखा गया है की सब कुछ ठीक होते हुए भी उड़द की फसल नहीं हो पाती है. 

उसके पीछे का कारण कोई भी हो सकता है जैसे मिटटी में पोषण तत्वों की कमी, पानी का सही न होना. इसके लिए हमें अपने खेत की मिटटी और पानी का समय समय पर टेस्ट करना चाहिए. 

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खेत की तैयारी:

उड़द के लिए खेत की तैयारी करते समय पहली जुताई हैंरों से कर देना चाहिए उसके बाद कल्टीवेटर से 3 जोत लगा के पाटा लगा देना चाइए जिससे की खेत समतल हो जाये. 

उड़द की फसल के लिए खेत का चुनाव करते समय ध्यान रखें की खेत में पानी निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. जिससे की बारिश में या पानी देते समय अगर पानी ज्यादा हो जाये तो उसे निकला जा सके.

मिटटी:

वैसे उड़द की फसल के लिए दोमट और रेतीली जमीन ज्यादा सही रहती हैं लेकिन इसकी फसल को काली मिटटी में भी उगाया जा सकता है. 

हल्की रेतीली, दोमट या मध्यम प्रकार की भूमि जिसमे पानी का निकास अच्छा हो उड़द के लिये अधिक उपयुक्त होती है। पी.एच. मान 6- 8 के बीच वाली भूमि उड़द के लिये उपजाऊ होती है। अम्लीय व क्षारीय भूमि उपयुक्त नही है।

उड़द की उन्नत किस्में या उड़द के प्रकार :

उड़द की निम्नलिखित किस्में हैं जो की ज्यादातर बोई जाती है. टी-9 , पंत यू-19 , पंत यू - 30 , जे वाई पी और यू जी -218 आदि प्रमुख प्रजातियां हैं. 

बीज की दर या उड़द की बीज दर:

बुवाई के लिए उड़द के बीज की सही दर 12-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है अगर बीज किसी अच्छी संस्था या कंपनी ने तैयार किया है तो. और अगर बीज आपके घर का है या पुराना बीज है तो इसकी थोड़ी मात्रा बढ़ा के बोना चाहिए.

खेत में अगर किसी वजह से नमी कम हो, तो 2-3 किलोग्राम बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर बढ़ाई जा सकती है जिससे की अपने खेत में पौधों की कमी न रहे. जब पौधे थोड़े बड़े हो जाएँ तो ज्यादा पास वाले पौधों को एक निश्चित दूरी के हिसाब से रोपाई कर दें.

बुवाई का समय:

फ़रवरी या मार्च में भी उड़द की फसल को लगाया जाता है तथा इस तरह से इस फसल को बारिश शुरू होने से पहले काट लिया जाता है. 

खरीफ मौसम में उड़द की बुवाई का सही समय जुलाई के पहले हफ्ते से ले कर 15-20 अगस्त तक है. हालांकि अगस्त महीने के अंत तक भी इस की बुवाई की जा सकती है. 

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उड़द में खरपतवार नियंत्रण:

बुवाई के 25 से 30 दिन बाद तक खरपतवार फसल को अत्यधिक नुकसान पहुँचातें हैं यदि खेत में खरपतवार अधिक हैं तो 20-25 दिन बाद एक निराई कर देना चाहिए और अगर खरपतवार नहीं भी है तो भी इसमें समय-समय पर निराई गुड़ाई होती रहनी चाहिए। 

जिन खेतों में खरपतवार गम्भीर समस्या हों वहॉं पर बुवाई से एक दो दिन पश्चात पेन्डीमेथलीन की 0.75 किग्रा0 सक्रिय मात्रा को 1000 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करना सही रहता है। कोशिश करें की खरपतवार को निराई से ही निकलवायें तो ज्यादा सही रहेगा.

तापमान और उसका असर:

उड़द की फसल पर मौसम का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. इसको 40 डिग्री तक का तापमान झेलने की क्षमता होती है. इसको कम से कम 20+ तापमान पर बोया जाना चाहिए.

उड़द की खेती से कमाई:

उड़द की खेती से आमदनी तो अच्छी होती ही है और इसके साथ-साथ खेत को भी अच्छा खाद मिलता है. इसकी पत्तियों से हरा खाद खेत को मिलता है.