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Wheat Farming

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

हरियाणा कृषि विभाग की तरफ से गेहूं और जौ की फसल में लगने वाले चेपा कीट से जुड़ी आवश्यक सूचना जारी की है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को काफी कमजोर कर देते हैं। साथ ही, उसके विकास को प्रतिबाधित कर देते हैं। भारत के कृषकों के द्वारा गेहूं व जौ की फसल/ Wheat and Barley Crops को सबसे ज्यादा किया जाता है। क्योंकि, यह दोनों ही फसलें विश्वभर में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली साबुत अनाज फसलें हैं।

गेहूं व जौ की खेती राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विशेष रूप से की जाती है। किसान अपनी फसल से शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यों को करते हैं। यदि देखा जाए तो गेहूं व जौ की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग व कीट लगने की संभावना काफी ज्यादा होती है। वास्तविकता में गेहूं व जौ में चेपा (अल) का आक्रमण ज्यादा देखा गया है। चेपा फसल को पूर्ण रूप से  खत्म कर सकता है।

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से बचाने की प्रक्रिया

गेहूं व जौ की फसलों में चेपा (अल) का आक्रमण होने पर इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं. इसके नियंत्रण के लिए 500 मि.ली. मैलाथियान 50 ई. सी. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करें. किसान चाहे तो इस कीट से अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिए अपने नजदीकी कृषि विभाग के अधिकारियों से भी संपर्क कर सकते हैं।

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चेपा (अल) से आप क्या समझते हैं और ये कैसा होता है ?

चेपा एक प्रकार का कीट होता है, जो गेहूं व जौ की फसल पर प्रत्यक्ष तौर पर आक्रमण करता है। यदि यह कीट एक बार पौधे में लग जाता है, तो यह पौधे के रस को आहिस्ते-आहिस्ते चूसकर उसको काफी ज्यादा कमजोर कर देता है। इसकी वजह से पौधे का सही ढ़ंग से विकास नहीं हो पाता है।

अगर देखा जाए तो चेपा कीट फसल में नवंबर से फरवरी माह के मध्य अधिकांश देखने को मिलता है। यह कीट सर्व प्रथम फसल के सबसे नाजुक व कमजोर भागों को अपनी चपेट में लेता है। फिर धीरे-धीरे पूरी फसल के अंदर फैल जाता है। चेपा कीट मच्छर की भाँति नजर आता है, यह दिखने में पीले, भूरे या फिर काले रंग के कीड़े की भाँति ही होता है।

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

मौसमिक परिवर्तन के चलते गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट एवं बीमारियां काफी अधिक परेशान कर सकती हैं। किसानों को समुचित समय पर सही कदम उठाकर इससे निपटें नहीं तो पूरी फसल बेकार हो सकती है।

वर्तमान में गेहूं की फसल खेतों में लगी हुई है। मौसम में निरंतर परिवर्तन देखने को मिल रहा है। कभी बारिश तो कभी शीतलहर का कहर जारी है, इसलिए मौसम में बदलाव की वजह से गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट और बीमारियां काफी समस्या खड़ी कर सकती हैं। किसान भाई वक्त पर सही कदम उठाकर इससे निपटें वर्ना पूरी फसल बेकार हो सकती है। गेंहू में एक तरह की बामारी नहीं बल्कि विभिन्न तरह की बामारियां लगती हैं। किसानों को सुझाव दिया जाता है, कि अपनी फसल की नियमित तौर पर देखरेख व निगरानी करें।

माहू या लाही

माहू या लाही कीट काले, हरे, भूरे रंग के पंखयुक्त एवं पंखविहीन होते हैं। इसके शिशु एवं वयस्क पत्तियों, फूलों तथा बालियों से रस चूसते हैं। इसकी वजह से फसल को काफी ज्यादा नुकसान होता है और फसल बर्बाद हो जाती है। बतादें, कि इस कीट के प्रकोप से फसल को बचाने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा दी गई सलाहें।

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फसल की समय पर बुआई करें।

  • लेडी बर्ड विटिल की संख्या पर्याप्त होने पर कीटनाशी का व्यवहार नहीं करें।
  • खेत में पीला फंदा या पीले रंग के टिन के चदरे पर चिपचिपा पदार्थ लगाकर लकड़ी के सहारे खेत में खड़ा कर दें। उड़ते लाही इसमें चिपक जाएंगे।
  • थायोमेथॉक्साम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी का 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर या क्विनलफोस 25 प्रतिशत ईसी का 2 मिली प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

हरदा रोग

वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस मौसम में वर्षा के बाद वायुमंडल का तापमान गिरने से इस रोग के आक्रमण एवं प्रसार बढ़ने की आशंका ज्यादा हो जाती है। गेहूं के पौधे में भूरे रंग एवं पीले रंग के धब्बे पत्तियों और तनों पर पाए जाते हैं। इस रोग के लिए अनुकूल वातावरण बनते ही सुरक्षात्मक उपाय करना चाहिए।

बुआई के समय रोग रोधी किस्मों का चयन करें।

बुआई के पहले कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम या जैविक फफूंदनाशी 5 ग्राम से प्रति किलो ग्राम बीज का बीजोपचार अवश्य करें।

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खड़ी फसल में फफूंद के उपयुक्त वातावरण बनते ही मैंकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम, प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ईसी का 500 मिली प्रति हेक्टेयर या टेबुकोनाजोल ईसी का 1 मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

अल्टरनेरिया ब्लाईट

अल्टरनेरिया ब्लाईट रोग के लगने पर पत्तियों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में पीला पड़कर किनारों को झुलसा देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए मैकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम या जिनेव 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

कलिका रोग

कलिका रोग में बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद का काला धूल भर जाता है। फफूंद के बीजाणु हवा में झड़ने से स्वस्थ बाली भी आक्रांत हो जाती है। यह अन्तः बीज जनित रोग है। इस रोग से बचाव के लिए किसान भाई इन बातों का ध्यान रखें।

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रोग मुक्त बीज की बुआई करे।

  • कार्बेन्डाजिंग 50 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति किलोग्राग की दर से बीजोपचार कर बोआई करें। 
  • दाने सहित आक्रान्त बाली को सावधानीपूर्वक प्लास्टिक के थैले से ढक कर काटने के बाद नष्ट कर दें। 
  • रोग ग्रस्त खेत की उपज को बीज के रूप में उपयोग न करें। 

बिहार सरकार ने किसानों की सुविधा के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहने वाला कॉल सेंटर स्थापित कर रखा है। यहां टॉल फ्री नंबर 15545 या 18003456268 से संपर्क कर किसान अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं।

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण

गेहूं उत्तर भारत की मुख्य फसल है और इसमें खरपतवार मुख्य समस्या बनते हैं। खरपतवारों में मुख्य रूप से बथुआ, खरतुआ, चटरी, मटरी, गेहूं का मामा या गुल्ली डंडा प्रमुख हैं। जिन्हें हम खरपतवार कहत हैं उनमें मुख्य रूप से गेहूं का मामा फसल को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है और इसका नियंत्रण ज्यादा बजट वाला है। बाकी खरपतवार बेहद सस्ते रसायनों से और शीघ्र मर जाते हैं। 

समय

Gehu ki fasal 

 विशेषज्ञों की मानें तो खरपतवार नियंत्रण के लिए सही समय का चयन बेहद आवश्यक है। यदि सही समय से नियंत्रण वाली दबाओं का छिड़काव न किया जाए तो उत्पादन पर 35 प्रतिशत तक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धान की खेती वाले इलाकों में गेहूं की फसल में पहला पानी लगने की तैयारी है और इसके साथ ही खरपतवार जोर पकड़ेंगे। चूंकि किसान पहले पानी के साथ ही उर्वरकों को बुरकाव करते हैं लिहाजा ऐसी स्थिति में खरपतवारों को पूरी तरह से मारना और ज्यादा दिक्कत जदां हो जाता है। विशेषज्ञ 25 से 35 दिन के बीच के समय को खरपतवार नियंत्रण के लिए उपयुक्त मानते हैं। इसके बाद दवाओं का फसल पर दुष्प्रभाव भले ही सामान्य तौर पर न दिखे लेकिन उत्पादन पर प्रतिकूल असर होता है। 

कैसे मरता है खरपतवार

Gehu mai kharpatvar 

 खरपतवार को मारने के लिए बाजार में अनेक दवाएं मौजूद हैं लेकिन इससे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि दवाओं से केवल खरपतवार ही मरता है और फसल सुरक्षित रहती है तो कैसे । फसल और खरपतवार की आहार व्यवस्था में थोड़ा अंतर होता है। फसल किसी भी पोषक तत्व का अवशोषण जमीन से सीमित मात्रा में करती है। खरतवारों के पौधों का विकास बहुत तेज होता है और वह कम खुराक से भी अपना काम चला लेते हैं। ऐसे में जो खरपतवारनाशी दवाएं छिड़की जाती हैं उनमें जिंक आदि पोषक तत्वों को मिलाया जाता है। इनका फसल पर जैसे ही छिड़काव होता है खरपतवार के पौधे उसे बेहद तेजी से ग्रहण करते हैं और दवा के प्रभाव से उनकी कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। इधर मुख्य फसल के पौध इन्हें बेहद कम ग्रहण करता है और कम दुष्प्रभाव को झेलते हुए खुद को बचा लेता है।

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खरपतवार की श्रेणी

kharpatvar 

 खरपतवार को दो श्रेणियों में बांटा जाता है। गेहूं में संकरी और चौड़ी पत्ती वाले दो मुख्य खरपतवार पनपते हैं। किसान ऐसी दवा चाहता है जिससे एक साथ चौड़ी और संकरी पत्ती वाले खरपतवार मर जाएं। इसके लिए कई कंपनियों की सल्फोसल्फ्यूरान एवं मैट सल्फ्यूरान मिश्रित दवाएं आती हैं। इस तरह के मिश्रण वाली दवाओं से एक ही छिड़काव में दोनों तरह के खरपतवार मर जाते हैं। केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मारने के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। केवल संकरी पत्ती वाले गेहूंसा, गेहूं का मामा, गुल्ली डंडा एंव जंगली जई को मारने के लिए केवल स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें।

 

सावधानी

kitnashak dawai 

 किसी भी दवा के छिड़काव से पूर्व शरीर पर कोई भी घरेलू तेल लगा लें। दस्ताने आदि पहनना संभव हो तो ज्यादा अच्छा है। दवा को जहां खरपतवार ज्यादा हो वहां आराम से छिड़कें और जहां कम हो वहां गति थोड़ी तेज कर दें ताकि पौधों पर ज्यादा दवा न जाए। दवा छिड़कते समय खेत में हल्का पैर चपकने लायक नमी होनी चाहिए ताकि खेत में नमी सूखने के साथ ही खरपतवार भी सूखता चला जाएगा।

जानिए गेहूं की बुआई और देखभाल कैसे करें

जानिए गेहूं की बुआई और देखभाल कैसे करें

भारत में लगभग सभी राज्यों, नगरों, कस्बों,गांवों में रहने वाले लोग अपने भोजन में गेहूं का सबसे अधिक इस्तेमाल करते हैं। रबी सीजन में की जाने वाली गेहूं की फसल मुख्य फसल है। हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या और मुख्य खाद्यान्न होने के कारण गेहूं की सबसे ज्यादा डिमांड रहती है। इस कारण गेहूं की कीमतें अब बाजार में तेजी से बढ़ती रहतीं हैं। इसलिये किसान भाइयों के लिए गेहूं की खेती सबसे उत्तम है।

गेहूं की बुआई कैसे करें

गेहूं की बुआई गेहूं की खेती के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्शियस के तापमान की आवश्यकता होती है। इससे अधिक तापमान में गेहूं की फसल नहीं की जा सकती है। गेहूं के पौधों के अंकुर निकलने के समय 20 से 22 डिग्री का तापमान अच्छा माना गया है। गेहूं की बढ़वार के लिए 25 से 27 डिग्री सेल्शियस तापमान जरूरी होता है। गेहूं के पौधों में फूल आने के समय अधिक तापमान नहीं होना चाहिये। सिंचित क्षेत्रों में लगभग सभी प्रकार की भूमि पर गेहूं की खेती की जा सकती है लेकिन जलजमाव वाली, लवणीय या क्षारीय भूमि में गेहूं की खेती नहीं की जानी चाहिये। वैसे बलुई दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी को गेहूं की खेती के लिए उत्तम मानी जाती है। जहां पर भूमि की परत एक मीटर के बाद सख्त हो, वहां पर भी खेती नहीं करनी चाहिये।

गेहूं के लिए खेत की तैयारी कुछ ऐसे करें

खरीफ की फसल के बाद खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें। उसके बाद दो या तीन क्रास जुताई कर मिट्टी को महीन बनायें। यदि खेत में मिट्टी के ढेले दिख रहे हों तो उसमें पाटा चलाकर मिट्टी को एकदम भुरभुरी कर लें। इसके बाद किसान भाइयों को चाहिये कि खेत में आवश्यकतानुसार गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद और उर्वरकों को डालें तथा अंतिम जुताई करें। दीमक,कटवर्म आदि लगते हों तो कीट नाशकों का उपयोग करें। अंतिम जुताई के बाद खेत को एक सप्ताह के लिए खुला छोड़ दें। इसके बाद बुआई करने से पहले खेत की नमी की स्थिति को देखें। नमी कम दिख रही हो तो पलेवा करके बुआई करें।

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भारत में क्षेत्रवार जलवायु अलग-अलग होने के कारण गेहूं की बुआई का समय भी अलग-अलग है। पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में गेहूं की बुआई का समय नवम्बर का पूरा महीना उपयुक्त माना गया है। वहीं पूर्वोत्तर क्षेत्र में मध्य नवंबर से लेकर दिसम्बर के पहले पखवाड़े तक सही समय माना गया है। इसके बाद पछैती खेती  के लिए 15 दिसम्बर से 25 दिसम्बर तक बुआई की जा सकती है। इसके बाद बुआई करना जोखिम भरा हो सकता है। गेहूं की अच्छी खेती के लिए बीज भी अच्छा होना चाहिये। अच्छी पैदावार की किस्म वाला गेहूं का बीज होना चाहिये तथा सिकुड़े, छोटे, कटे-फटे दाने नहीं होने चाहिये। आम तौर पर एक हेक्टेयर के लिए 100 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता होती है। पछैती खेती या कम उपजाऊ जमीन के लिए 125 किलो बीजों की आवश्यकता होती है। बीज प्रमाणित संस्थानों से लेना चाहिये और तीन वर्ष में गेहूं के बीज की किस्म बदल लेनी चाहिये।

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बुआई से पहले बीज का उपचार किया जाना अत्यावश्यक है। पहले गेहूं के बीज को थाइम या मैन्कोजेब से उपचारित करना चाहिये। इसके लिए प्रतिकिलो गेहूं के बीज के लिए 2 से 2.5 ग्राम थाइम या मैन्कोजेब की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही दीमक नियंत्रण के लिए क्लोरोपाइरीफोस से शोधन करें। उसके बाद बीज को छाया में सुखाकर खेत में बोयें। गेहूं की अच्छी पैदावार के लिए बुआई के सर्वश्रेष्ठ तरीके को अपनाया जाना चाहिये। किसान भाइयों बुआई करने का सबसे अच्छा तरीका सीड ड्रिल या देशी हल से किये जाने को माना गया है। इससे कतार से कतार की दूरी व पौधों की दूरी भी नियंत्रित रहती है। इससे निराई गुड़ाई व सिंचाई करने में सुविधा होती है। साथ ही बीज आवश्यक गहराई तक जाता है और बीज भी कम लगता है। छिड़काव विधि से बीज भी अधिक लगता है।असमान पौधों के उगने से फसल प्रभावित होती है। बाद में कई अन्य परेशानियां आतीं हैं।

गेहूं की बुआई

गेहूं की बुआई के बाद फसल की देखभाल करनी जरूरी होती है। किसान भाइयों को चाहिये कि वे खेत की लगातार निगरानी करते रहें। सभी आवश्यक इंतजाम करते रहें। गेहूं की बुआई के बाद सबसे पहले खरपतवार नियंत्रण के लिए दो-तीन दिन में पैन्डीमैथालीन के घोल का छिड़काव करें। अक्सर देखा गया है कि गेहूं की फसल के साथ गोयला, प्याजी,चील, जंगली जई,गुल्ली डंडा व मोरवा जैसे खरपतवार उग आते हैं और वे फसल की बढ़त को रोक देते हैं। गुल्ली डंडा व जंगली जई का अधिक प्रकोप होने पर एक किलो आईसोप्रोटूरोन या मैटाक्सिरान को 500 लीटर पानी में मिलाकर घोल बनाकर छिड़कें।

खाद एवं उर्वरक का प्रबंधन ऐसे करें

किसान भाइयों के लिए उर्वरक प्रबंधन करने से पहले मृदा का परीक्षण कराना सर्वोत्तम रहेगा। इससे उनको खाद एवं उर्वरक प्रबंधन पर उतना ही खर्च लगेगा जितने की जरूरत होगी। अनुमान से खाद व उर्वरक का प्रबंधन करना किसान भाइयों को महंगा भी पड़ सकता है और अपेक्षित परिणाम भी नहीं मिलते हैं। वैसे सिंचित क्षेत्रों में 125 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम पोटाश और 60 किलोग्राम फास्फोरस की आवश्यकता होती है। यदि पछैती फसल लेनी है तो उसके लिए 20 से 40 किलो पोटाश अधिक डालें। असिंचित क्षेत्रों में समय से खेती करने के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 25 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है।  बालियां आने से पहले यदि बरसात हो जाये तो 20 किलो नाइट्रोजन का छिड़काव करना चाहिये। सिंचित क्षेत्रों में बुआई के बाद नाइट्रोजन की दो तिहाई मात्रा जो बुआई के समय बचायी जाती है उसका आधा हिस्सा पहली सिंचाई के बाद और आधा हिस्सा दूसरी सिंचाई के बाद खेतों में डालने से पैदावार अच्छी होती है।

गेहूं की फसल में सिंचाई का बहुत ध्यान रखना पड़ता है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार पूरी फसल में छह बार सिंचाई करनी होती है।

  1. पहली सिंचाई बुआई के 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिये
  2. दूसरी सिंचाई 45 दिन के बाद उस समय करनी चाहिये जब कल्ले बनने लगे।
  3. तीसरी सिंचाई 65 दिन बाद उस समय करनी चाहिये जब गांठ बनने लगे।
  4. चौथी सिंचाई 85 से 90 दिन यानी तीन महीने बाद उस समय करनी चाहिये जब बालियां निकलने वाली हों।
  5. पांचवीं सिंचाई उस समय की जानी चाहिये जब दूधिया दाना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति बुआई से 100 से 110 दिन बाद आती है।
  6. छठवीं और अंतिम सिंचाई 115 से 120 दिन बाद उस समय की जानी चाहिये जब दाना पकने वाला हो।

खरपतवार की देखभाल कैसे की जाये

गेहूं की फसल को गोयला, चील, प्याजी, मोरवा, गुल्ली डन्डा, जंगली जई, मंडूसी, कनकी, पोआघास, लोमड़ घास, बथुआ, खरथुआ, जंगली पालक, मैना, मैथा, सांचल,मालवा, मकोय, हिरनखुरी, कंडाई, कृष्णनील, चटरी मटरी जैसे खरपतवार प्रभावित करते हैं। इनको रोकने के लिए खरपतवारनाशी का घोल छिड़कना चाहिये। फसल के बीच में निराई गुड़ाई भी की जानी चाहिये।

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गेहूं की फसल को अनेक प्रकार की कीट व रोग भी लगते हैं। इनके नियंत्रण का भी प्रबंध किसान भाइयों को करना चाहिये।  दीमक, आर्मी वर्म, एफिड व जैसिडस तथा चूहे काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम बुआई के समय करनी चाहिये। उस समय एन्डोसल्फान का छिड़काव करना चाहिये। दीमक के लिए क्लोरीपाइरीफोस को सिंचाई के साथ देना होगा। रस चूसने वाले कीटों के नियंत्रण के लिए इकालक्स के घोल का छिड़काव करें। यदि झुलसा पत्ती धब्बा, रोली रोग, कण्डवा, मोल्या धब्बा जैसे रोग गेहूं की फसल में लगे हुए दिखाई दें तो मेन्कोजेब, रोली राग के लि गंधक का चूर्ण, कन्डुवे के लिए थीरम या वीटावैक्स से उपचार करें। चूहों के नियंत्रण के लिए एल्यूमिनियम फास्फाइड या राटाफीन की गोलियों का इस्तेमाल करें।
गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की खेती पूरे विश्व में की जाती है। पुरे विश्व की धरती के एक तिहाई हिस्से पर गेहूं की खेती की जाती है। धान की खेती केवल एशिया में की जाती है जबकि गेहूं विश्व के सभी देशों में उगाया जाता है। 

इसलिये गेहूं की खेती का बहुत अधिक महत्व है और किसान भाइयों के लिए गेहूं की खेती कृषि उपज के प्राण के समान है। इसलिये प्रत्येक किसान गेहूं की अच्छी उपज लेना चाहता है। 

वर्तमान समय में वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाती है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि वह गेहूं की खेती में खाद की मात्रा उन्नत एवं वैज्ञानिक तरीके से करेंगे तो उन्हें अपने खेतों में अच्छी पैदावार मिल सकती है।

क्यों है अच्छी फसल की जरूरत

किसान भाइयों एक बात यह भी सत्य है कि जमीन का दायरा सिकुड़ता जा रहा है और आबादी बढ़ती जा रही है। मानव का मुख्य भोजन गेहूं पर ही आधारित है। इसलिये गेहूं की मांग बढ़ना आवश्यक है। 

इस मांग को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक पैदावार करना होगा। जहां लोगों की जरूरतें  पूरी होंगी और वहीं किसान भाइयों की आमदनी भी बढ़ेगी। किसान भाइयों गेहूं की खेती बहुत अधिक मेहनत मांगती है। 

जहां खेत को तैयार करने के लिए अधिक जुताई, पलेवा, निराई गुड़ाई, सिंचाई के साथ गेहूं की खेती में खाद की मात्रा का भी प्रबंधन समय-समय पर करना होता है। 

आइये देखते हैं कि गेहूं की खेती में किन-किन खादों व उर्वरकों का प्रयोग करके अधिक से अधिक पैदावार ली जा सकती है।

अधिक उत्पादन का मूलमंत्र

गेहूं की खेती की खास बात यह होती है कि इसमें बुआई से लेकर आखिरी सिंचाई तक उर्वरकों और पेस्टिसाइट व फर्टिसाइड का इस्तेमाल किया जाता है। तभी आपको अधिक उत्पादन मिल सकता है।

बुआई के समय करें ये उपाय

गेहूं की अच्छी फसल लेने के लिए किसान भाइयों को सबसे पहले तो अपनी भूमि का परीक्षण कराना चाहिये, मृदा परीक्षण या सॉइल टेस्टिंग भी कहा जाता है। 

परीक्षण के उपरांत कृषि विशेषज्ञों से राय लेकर खेत तैयार करने चाहिये और उनके द्वारा बताई गई विधि से ही खेती करेंगे तो आपको अधिक से अधिक पैदावार मिलेगी।  

क्योंकि फसल की पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है। गेहूं की खेती में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद के अलावा फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी प्रयोग करना होता है।  

कौन सी खाद कब इस्तेमाल की जाती है, आइये जानते हैं:-

  1. गेहूं की फसल के लिए बुआई से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार किया जाता है। इसके लिए सबसे पहले 35 से 40 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर खेत में डालना चाहिये। इसके साथ ही 50 किलोग्राम नीम की खली और 50किलो अरंडी की खली को भी मिला लेना चाहिये। पहले इन सभी खादों के मिश्रण को खेत में बिखेर दें और उसके बाद खेत की जमकर जुताई करनी चाहिये।
  2. किसान भाई गेहूं की अच्छी फसल के लिए अगैती फसल में बुआई के समय 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिये। गेहूं की पछैती फसल के लिए बुआई के समय 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश गोबर की खाद, नीम व अरंडी की खली के बाद डालना चाहिये।
  3. इसमें नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बचा कर रख लेना चाहिये जो बाद में पहली व दूसरी सिंचाई के समय डालना चाहिये।

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पहली सिंचाई के समय

बुआई के बाद पहली सिंचाई लगभग 20 से 25 दिन पर की जाती है। गेहूं की खेती में खाद की मात्रा की बात करें तो उस समय किसान भाइयों को गेहूं की फसल के लिए 40 से 45 किलोग्राम यूरिया, 33 प्रतिशत वाला जिंक 5 किलो, या 21 प्रतिशत वाला जिंक 10 किलो, सल्फर 3 किलो का मिश्रण डालना चाहिये। इसके अलावा नैनोजिक एक्सट्रूड जैसे जायद का भी प्रयोग करना चाहिये।

दूसरी सिंचाई के समय

गेहूं की खेती में दूसरी सिंचाई बुआई के 40 से 50 दिन बाद की जानी चाहिये। उस समय भी आपको 40 से 45 किलोग्राम यूरिया डालनी होगी ।

इसके साथ थायनाफेनाइट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़, मारबीन डाजिम 12 प्रतिशत, मैनकोजेब 63 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़ से मिलाकर डालनी चाहिये।

उर्वरकों का इस्तेमाल का फैसला ऐसे करें

मुख्यत: गेहूं की फसल में दो बार सिंचाई के बाद ही उर्वरकों का मिश्रण डालने का प्रावधान है लेकिन उसके बाद किसान भाइयों को अपने खेत व फसल की निगरानी करनी चाहिये। 

इसके अलावा भूमि परीक्षण के बाद कृषि विशेषज्ञों की राय के अनुसार उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिये। यदि भूमि परीक्षण नहीं कराया है तो आपको अपने खेत की निगरानी अपने स्तर से करनी चाहिये और स्वयं के अनुभव के आधार पर या अनुभवी किसानों से राय लेकर फसल की जरूरत के हिसाब से उर्वरक, फर्टिसाइड व पेस्टीसाइड का इस्तेमाल करना चाहिये।

हल्की फसल हो तो क्या करें

विशेषज्ञों के अनुसार दूसरी सिंचाई के बाद देखें कि आपकी फसल हल्की हो तो आप अपने खेतों में माइकोर हाइजल दो किलो प्रति एकड़ के हिसाब से डालें। 

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय एनपीके का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें अलग से पोटाश डालने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एनपीके में 12 प्रतिशत नाइट्रोजन और 32 प्रतिशत फास्फोरस होता है और 16प्रतिशत पोटाश होता है।

डीएपी का इस्तेमाल करने वाले  क्या करें

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय डीएपी खाद का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें पहली सिंचाई के बाद ही 15 से 20 किलो म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से डालना चाहिये।

क्योंकि डीएपी  में 18 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है और 46 प्रतिशत फास्फोरस होता है और पोटाश बिलकुल नहीं होता है।

प्रत्येक सिंचाई के बाद खेत को परखें

गेहूं की फसल में 5-6 बार सिंचाई करने का प्रावधान है। किसान भाइयों को चाहिये कि वो कुदरती बरसात को देख कर और खेत की नमी की अवस्था को देखकर ही सिंचाई का फैसला करें। 

यदि प्रति सिंचाई के बाद यूरिया की खाद डाली जाये तो आपकी फसल में रिकार्ड पैदावार हो सकती है। यूरिया के साथ फसल की जरूरत के हिसाब से फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल करना चाहिये। 

पहली दो सिंचाई के बाद तीसरी सिंचाई 60 से 70 दिन बाद की जाती है। चौथी सिंचाई 80 से 90 दिन बाद उस समय की जाती है जब पौधों में फूल आने को होते हैं। पांचवीं सिंचाई 100 से 120 दिन बाद करनी चाहिये। 

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खाद सिंचाई से पहले या बाद में डाली जाए?

  1. किसान भाइयों के समक्ष यह गंभीर समस्या है कि गेहूं की खेती में खाद की मात्रा कितनी डालनी चाहिये? हालांकि खाद डालने का प्रावधान सिंचाई के बाद ही का है लेकिन कुछ किसान भाइयों को यह शिकायत होती है कि सिंचाई के बाद खेत की मिट्टी दलदली हो जाती है, जहां खेत में घुसने में पैर धंसते हैं और उससे पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंच सकता है। ऐसी स्थिति में किसान भाइयों को परिस्थिति देखकर स्वयं फैसला लेना होगा।
  2. यदि भूमि अधिक दलदली है और सिंचाई के बाद पैर धंस रहे हैं तो आपको खेत के पानी को सूखने का इंतजार करना चाहिये लेकिन पर्याप्त नमी होनी चाहिये तभी खाद डालें। इसके लिए आप सिंचाई से अधिक से अधिक दो दिन के बाद खाद अवश्य डाल देनी चाहिये। यदि यह भी संभव न हो पाये तो इस तरह की भूमि में सिंचाई से 24 घंटे पहले खाद डालनी चाहिये लेकिन ध्यान रहे कि 24 घंटे में सिंचाई अवश्य ही हो जानी चाहिये। तभी खाद आपको लाभ देगी अन्यथा नहीं।
  3. यदि आपके खेत की भूमि बलुई या रेतीली है, जहां पानी तत्काल सूख जाता है और आप खेत में आसानी से जा सकते हैं तो आपको सिंचाई के तत्काल बाद गेहूं की खेती में खाद की मात्रा डालनी चाहिये। ऐसे खेतों में अधिक से अधिक सिंचाई के 24 घंटे के भीतर खाद डालनी चाहिये।
इस महीने करें काले गेहूं की खेती, होगी बंपर कमाई

इस महीने करें काले गेहूं की खेती, होगी बंपर कमाई

नवंबर के महीने में धान की कटाई के बाद किसान गेहूं की बुवाई शुरू कर देते है। नवंबर का महीना गेहूं की खेती (genhu ki kheti; wheat farming) के लिए उपयुक्त माना जाता है। अगर आप किसान है और गेहूं की बुवाई करने में लगे हुए है तो आपको काले गेहूं की खेती(black wheat farming) करनी चाहिए। काले गेहूं की खेती से किसान आजकल बंपर मुनाफा कमा रहे है। नवंबर का महीना काले गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। औषधीय गुणों से भरपूर काला गेहूं सामान्य गेहूं से ज्यादा महंगी दर पर बिकता है जिससे किसानों को भरपूर मुनाफा होता है।

कैसे करें काले गेहूँ की खेती और कमाएँ मुनाफा

काले गेहूं की खेती सामान्य गेहूं की तरह ही होती है, सिर्फ इसमें थोड़ा विशेष रूप से मौसम में नमी का ख्याल रखा जाता है। सामान्य गेहूं की तरह इसकी देखरेख और खरपतवार को नियंत्रण किया जाता है। औषधीय गुणों से भरपूर काली गेहूं की बाजार में जबरदस्त मांग है। आमतौर पर किसान बहुत ही कम अभी काले गेहूं की खेती के बारे में जानते है। इस गेहूं की गुणवत्ता की बात करें तो इसमें एक नेचुरल एंटीऑक्सीडेंट एवं एंटीबायोटिक भरपूर मात्रा में पाया जाता है जिसका नाम एंथ्रोसाइनीन है। 

काले गेहूं की बाजार में भारी मांग है, इसे डायबिटीज और हार्ट अटैक के मरीजों के सेवन के लिए उपयुक्त माना जाता है। इस में पाए जाने वाले तत्व डायबिटीज, हार्टअटैक, कैंसर, मानसिक तनाव, घुटनों के दर्द और एनीमिया जैसी रोगों के खिलाफ बहुत ही फायदेमंद साबित होते है। इसीलिए डॉक्टरों के द्वारा भी काले गेहूं की सेवन करने का सलाह मरीजों को दी जाती है।

इस वक्त करें कटाई

काले गेहूं की फसल की कटाई करने के लिए विशेषज्ञ बताते हैं कि जब गेहूं के पौधे में लगे दाने कठोर हो जाएं और दानों में 20-25% नमी बची रहे, तो इसकी कटाई कर लेनी चाहिए। फिर फसल को हल्की धूप में रखनी चाहिए, उसके बाद ही यह फसल बाजार में बेचने के लायक हो पाती है।

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अगर उत्पादन की बात करें तो एक बीघा खेत में लगभग 10 से 12 क्विंटल काले गेहूं का उत्पादन किया जा सकता है। आमतौर पर किसान सामान्य गेहूं की खेती करके लगभग 4000 से 6000 रुपए क्विंटल की दर से बेचते है। लेकिन काला गेहूं की खेती करने के बाद काले गेहूं की फसलों को सामान्य गेहूं से दो गुना दर पर बेचा जाता है। इसका फसल देखने में भी काला होता है और इसकी रोटी भी काली बनती है। इसका स्वाद सामान्य गेहूं के रोटी से थोड़ा सा अलग होता है, लेकिन यह मानव शरीर के लिए बहुत ही फायदेमंद होता है। यह गेहूं अपने लाभ और औषधीय गुणों के कारण आजकल खूब चर्चा में है। इसकी खेती करके आप बढ़िया मुनाफा अर्जित कर सकते है।

गेंहू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत जानकारी

गेंहू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत जानकारी

अक्टूबर माह से गेंहू की बुवाई की शुरूआत हो जाती है। गेंहू की खेती में बुवाई से लगाकर कटाई तक यदि सभी कार्यों को बेहतर ढ़ंग से करते हैं, तो वह अच्छा खासा मुनाफा उठा सकते हैं। 

जैसा कि हम जानते हैं, कि खरीफ सीजन चल रहा है। इस सीजन की फसलों की कटाई के पश्चात किसान भाई रबी सीजन की फसलों की बुवाई शुरू कर देंगे। 

गेहूं की फसल रबी की प्रमुख फसलों से एक है, इसलिए किसान कुछ बातों का ध्यान रखकर अच्छा उत्पादन पा सकते हैं। भारत ने विगत चार दशकों में गेहूं पैदावार में उपलब्धि हासिल की है। 

गेहूं का उत्पादन वर्ष 1964-65 में जहां केवल 12.26 मिलियन टन था, जो बढ़कर के साल 2019-20 में 107.18 मिलियन टन के एक ऐतिहासिक उत्पादन स्तर पर पहुंच गया है। 

भारत की जनसंख्या को खाद्य एवं पोषण सुरक्षा मुहैय्या करने के लिए गेहूँ के उत्पादन और उत्पादकता में लगातार बढ़ोत्तरी की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक, साल 2025 तक भारत की जनसँख्या तकरीबन 1.4 बिलियन होगी।

इसके लिए वर्ष 2025 तक गेहूं की अनुमानित मांग तकरीबन 117 मिलियन टन होगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नवीन तकनीकियाँ विकसित करनी होंगी। 

नवीन किस्मों की प्रगति तथा उनकी उच्च उर्वरता की स्थिति में परीक्षण से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन क्षमता प्राप्त की जा सकती है।

भारत में गेंहू की खेती करने वाले प्रमुख राज्य

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि उत्तरी गंगा-सिंधु के मैदानी क्षेत्र भारत के सबसे उपजाऊ एवं गेहूं के सर्वाधिक उत्पादन वाले इलाके हैं। 

दरअसल, इस इलाके में गेहूं के प्रमुख उत्पादक राज्य जैसे कि दिल्ली, राजस्थान (कोटा व उदयपुर सम्भाग को छोड़कर) पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू व कठुआ जनपद व हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला व पोंटा घाटी शम्मिलित हैं। 

इस इलाके में तकरीबन 12.33 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूं का उत्पादन किया जाता है। तकरीबन 57.83 मिलियन टन गेहूं की पैदावार होती है। इस इलाके में गेहूं की औसत उत्पादकता तकरीबन 44.50 कुंतल/हैक्टेयर है। 

वहीं, किसानों के खेतों पर आयोजित गेहूं के अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में गेहूं की अनुशंसित प्रौद्योगिकियों को अपनाकर 51.85 कुंतल/हैक्टेयर की पैदावार अर्जित की जा सकती है। 

विगत कुछ सालों से इस इलाके में गेहूं की उन्नत किस्में एचडी 3086 व एचडी 2967 की बुवाई बड़े पैमाने पर की जा रही है। 

परंतु, इन किस्मों के प्रतिस्थापन के लिए उच्च उत्पादन क्षमता एवं रोग प्रतिरोधी किस्में डीबीडब्ल्यू 187, डीबीडब्ल्यू 222 और एचडी 3226 आदि किस्मों को बड़े स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया गया है। 

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अत्यधिक पैदावार हेतु करें इन उन्नत किस्मों का चुनाव

गेहूं की खेती में किस्मों का चयन एक महत्वपूर्ण फैसला है, जो यह सुनिश्चित करता है, कि कितना उत्पादन होगा। सदैव नवीन रोगरोधी व उच्च उत्पादन क्षमता वाली किस्मों का चयन करना चाहिए। 

सिंचित व समय से बिजाई के लिए डीबीडब्ल्यू 303, डब्ल्यूएच 1270, पीबीडब्ल्यू 723 और सिंचित व विलंब से बुवाई के लिए डीबीडब्ल्यू 173, डीबीडब्ल्यू 71, पीबीडब्ल्यू 771, डब्ल्यूएच 1124, डीबीडब्ल्यू 90 व एचडी 3059 की बिजाई कर सकते हैं। 

वहीं, ज्यादा फासले से बुवाई के लिए एचडी 3298 किस्म की पहचान की गई है। सीमित सिंचाई और समय से बुवाई के लिए डब्ल्यूएच 1142 किस्म को अपनाया जा सकता है। 

बुवाई का समय बीज दर व उर्वरक की समुचित मात्रा गेहूं की बुवाई करने से 15-20 दिन पूर्व खेत तैयार करने के दौरान 4-6 टन/एकड़ की दर से गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से मृदा की उर्वरक शक्ति बढ़ जाती है।

जीरो टिलेज व टर्बो हैप्पी सीडर से बुवाई की जाती है

धान-गेहूं फसल पद्धति में जीरो टिलेज तकनीक से गेहूं की बुवाई एक कारगर एवं फायदेमंद तकनीक है। इस तकनीक के जरिए धान की कटाई के उपरांत भूमि में संरक्षित नमी का इस्तेमाल करते हुए, जीरो टिल ड्रिल मशीन से गेहूं की बुवाई बिना जुताई के ही की जाती है। 

जहां पर धान की कटाई काफी विलंब से होती है। वहां पर यह मशीन बेहद ही ज्यादा कारगर साबित हो रही है। जल भराव वाले इलाकों में भी इस मशीन की काफी उपयोगिता है। 

यह धान के फसल अवशेष प्रबंधन की सबसे प्रभावी एवं कुशल विधि है। इस विधि के माध्यम से गेहूं की बुवाई करने से पारंपरिक बुवाई की तुलना में समान अथवा ज्यादा पैदावार प्राप्त होती है व फसल गिरती नहीं है। 

फसल अवशेषों को सतह पर रखने से पौधों के जड़ इलाके में नमी ज्यादा वक्त तक संरक्षित रहती है, जिसके कारण तापमान में वृद्धि का दुष्प्रभाव पैदावार पर नही पड़ता और खरपतवार भी कम होते हैं। गेहूं की खेती में सिंचाई प्रबंधन है जरूरी।

गेहूं की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन बेहद आवश्यक होता है

बतादें, कि ज्यादा उत्पादन के लिए गेहूं की फसल को पांच-छह सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पानी की मौजूदगी मिट्टी के प्रकार एवं पौधों की जरूरतों के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए। 

गेहूं की फसल के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं जैसे कि चंदेरी जड़े निकलना (21 दिन), पहली गांठ बनना (65 दिन) और दाना बनना (85 दिन) ऐसी हैं, जिन पर सिंचाई करना अत्यंत जरूरी है। 

अगर सिंचाई हेतु जल पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो तो प्रथम सिंचाई 21 दिन पर इसके उपरांत 20 दिन के समयांतराल पर बाकी पांच सिंचाई करें। 

नवीन सिंचाई तकनीकों जैसे फव्वारा विधि अथवा टपक विधि भी गेहूं की खेती के लिए काफी बेहतरीन होती है। कम सिंचित क्षेत्रों में इनका इस्तेमाल काफी पहले से होता आ रहा है। 

परंतु, जल की बाहुलता वाले इलाकों में भी इन तकनीकों को अपनाकर जल का संचय किया जा सकता है। साथ ही, बेहतरीन उत्पादन लिया जा सकता है। 

सिंचाई की इन तकनीकों पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अनुदान के तौर पर धनराशि भी प्रदान की जा रही है। कृषक भाईयों को इन योजनाओं का लाभ लेकर सिंचाई जल प्रबंधन के राष्ट्रीय दायित्व का भी निर्वहन करना चाहिए।

इस रबी सीजन में किसान काले गेहूं की खेती से अच्छी-खासी आय कर सकते हैं

इस रबी सीजन में किसान काले गेहूं की खेती से अच्छी-खासी आय कर सकते हैं

जैसा कि हम सब जानते हैं, कि से कुछ दिन के उपरांत अक्टूबर का महीना शुरू हो जाएगा। अक्टूबर के महीने में रबी के फसल की बुवाई होना आरंभ हो जाती है। ऐसी स्थिति में अगर आप एक किसान हैं तो यह आपके लिए आवश्यक खबर है। क्योंकि आज हम आपको गेहूं की ऐसी फसल की बुवाई के विषय में बता रहे हैं, जिसमें आप कम लागत में चार गुना ज्यादा मुनाफा कमाएंगे। भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, क्योंकि यहां 70% किसान हैं। भारत के भिन्न भिन्न हिस्सों में भिन्न भिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। फसलों की बेहतरीन पैदावार और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए समय-समय पर नये नये प्रयोग चलते रहते हैं, जिससे किसान भाई नवीन किस्म की खेती कर रहे हैं। खरीफ की फसल के कटाई की समयावधि आ गई है। अब किसान रबी की फसल की तैयारी में जुट गए हैं। ऐसी स्थिति में आज हम आपको रबी के फसल में काले गेंहू की बुवाई के विषय में बता रहे हैं, जिसमें किसान कम खर्चे में ज्यादा मुनाफा कमाएंगे।

काले गेहूं की खेती की खासियत

यदि आप कृषक हैं और यह चाहते हैं कि आप ऐसे फसल बोएं जिससे कम लागत में ज्यादा मुनाफा हो। ऐसे में आप रबी के मौसम में मतलब कि अक्टूबर-नवंबर में काले गेहूं की खेती करें। इस खेती की विशेषता यह है, कि इसमें लागत भी कम आती है और ये सामान्य गेहूं की अपेक्षा में चार गुना ज्यादा दाम पर बिकता है।

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काले गेहूं की बुवाई किस प्रकार की जाती है

काले गेहूं की खेती करने के लिए अक्टूबर और नवंबर का महीना सबसे उपयुक्त होता है। काले गेहूं की खेती के लिए भरपूर मात्रा में नमी होनी चाहिए। इसकी बुवाई के दौरान खेत में प्रति एकड़ 60 किलो डीएपी, 30 किलो यूरिया, 20 किलो पोटाश एवं 10 किलो जिंक का उपयोग करें। फसल की सिंचाई के पहले पहली बार 60 किलो यूरिया प्रति एकड़ के हिसाब से डालें।

काले गेंहू की सिंचाई

काले गेहूं की सिंचाई बुवाई के 21 दिन उपरांत करें। इसके पश्चात समय-समय पर नमी के हिसाब से सिंचाई करते रहें। बालियां निकलने के समय सिंचाई जरूर करें।

साधारण गेहूं और काले गेहूं में क्या फर्क है

काले गेहूं में एन्थोसाइनीन पिगमेंट की मात्रा ज्यादा मौजूद होती है। इसकी वजह से यह काला दिखाई देता है। इसमें एंथोसाइनिन की मात्रा 40 से 140 पीपीएम होती है। लेकिन, सफेद गेहूं में मात्र 5 से 15 पीपीएम होती है।

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काले गेहूं के क्या-क्या लाभ हैं

काले गेहूं में एंथ्रोसाइनीन मतलब नेचुरल एंटी ऑक्सीडेंट और एंटीबायोटिक भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो डायबिटीज, मानसिक तनाव, घुटनों में दर्द, एनीमिया, हार्ट अटैक और कैंसर जैसे रोगों को खत्म करने में कामयाब होता है। काले गेहूं में बहुत सारे औषधीय गुण विघमान है, जिसकी वजह से बाजार में इसकी काफी माँग है और उसके अनुरूप कीमत भी है।
इन क्षेत्रों के किसान गेहूं की इन 15 किस्मों का उत्पादन करें

इन क्षेत्रों के किसान गेहूं की इन 15 किस्मों का उत्पादन करें

आईसीएआर ने भारत में गेहूं की 15 नवीन किस्मों की पहचान की है। वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई किस्मों से देश में खाद्यान्न पैदावार में बढ़ोतरी होगी। साथ ही, किसानों के लिए गेहूं एवं जौ के लिए नई वैरायटी भी उपलब्ध होंगी। ICAR और कृषि से संबंधित बाकी संस्थान उन्नत किस्मों के साथ ही ज्यादा पैदावार के लिए निरंतर वैज्ञानिक खोजों की जानकारी किसानों तक पहुंचाते रहते हैं। इसी बीच वैज्ञानिकों ने गेंहूं की दो और जौ की एक नवीन किस्म की भी पहचान की है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, यह नवीन पहचानी गई किस्में उत्तर-पश्चिमी मैदानी इलाकों में दो अधिक उपज देने वाली किस्में हैं। गेहूं की दो पहचानी गईं किस्मों के नाम HD3386 एवं WH1402 हैं। गेहूं की पहचानी गई नवीन किस्में आईसीएआर-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल ने महाराणा प्रताप कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, राजस्थान की मदद से विकसित की है।

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भिन्न भिन्न किस्में भिन्न भिन्न क्षेत्रों में बंपर उत्पादन देंगी

वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई यह किस्में भारत में खाद्यान्न के उत्पादन में तो वृद्धि करेंगी। साथ ही, किसानों के लिए गेहूं व जौ के लिए नई प्रजाति भी उपलब्ध होंगी। गेहूं की GW547 किस्म की समय पर बिजाई की गई सिंचित भूमि के लिए। साथ ही, CG1040 और DBW359 को असिंचित भूमि के लिए पहचाना गया है। बतादें, कि इसके साथ-साथ प्रायद्वीप के प्रतिबंधित सिंचाई क्षेत्रों के लिए DBW359, NW4028, UAS478, HI8840 एवं HI1665 गेहूं की किस्मों को पहचाना गया है। वैज्ञानिकों का कहना है, कि माल्ट जौ किस्म DWRB219 की पहचान भी उत्तर-पश्चिम के सिंचित इलाकों के लिए जानी गई है।

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भारत के विभिन्न इलाकों के शोधकर्ताओं ने भाग लिया

आईसीएआर-आईआईडब्ल्यूबीआर, करनाल के निदेशक डॉ. ज्ञानेंद्र सिंह के मुताबिक अखिल भारतीय गेहूं एवं जौ सम्मलेन में भारत के विभिन्न इलाकों के शोधकर्ताओं ने भाग लिया था। आईसीएआर किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) एवं निजी बीज कंपनियों के साथ नवीन जारी किस्मों DBW370, DBW371, DBW372, DBW316 और DDW55 की लाइसेंस प्रक्रिया भी आरंभ हो गई हैं। संस्थान के द्वारा बीजों के लिए चलाया जा रहा पोर्टल भी 15 सितंबर से आरंभ हो चुका है।
काले गेहूं की खेती से कृषक अपनी आय किस प्रकार बढाऐं

काले गेहूं की खेती से कृषक अपनी आय किस प्रकार बढाऐं

काले गेहूं की खेती कृषकों की आय को बढ़ाने के साथ में यह सेहत के लिए भी काफी लाभकारी है। अगर हम काले गेंहू के सेवन से होने वाले स्वास्थ्य लाभों की बात करें तो यह बहुत सारे रोग जैसे कि कैंसर, शुगर, रक्तचाप एवं अन्य विभिन्न रोगों से व्यक्ति को फायदा मिलता है। इसकी मुख्य वजह यह है, कि काले गेंहू के अंदर विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व विघमान होते हैं। काले गेहूं का उत्पादन कई वर्षों से किया जा रहा है। साथ ही, काले गेहूं में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व विघमान होते हैं। इन पोषक तत्वों में विटामिन, खनिज, जिंक, कैल्शियम, आयरन, पोटेशियम, अमीनो एसिड, कॉपर, एंटीऑक्सीडेंट, फाइबर और प्रोटीन इत्यादि विघमान होते हैं। काले गेहूं के अंदर इन समस्त पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा उपस्थित होती है। बतादें, कि काले गेहूं को संपूर्ण अनाज भी माना जाता है। यदि व्यक्ति काले गेहूं से निर्मित रोटी का सेवन करता है, तो वह मधुमेह, रक्तचाप, हृदय रोगियों, कैंसर, शुगर और अन्य कई बीमारियों से काफी अलग होता है। भारत में काले गेहूं की खेती सबसे ज्यादा उत्तर पूर्वी राज्यों में की जाती है। गेहूं की खेती में यह प्रजाति किसानों को सर्वाधिक मुनाफा देती है।

काले गेहूं का सेवन करने से होने वाले लाभ

हृदय संबंधी फायदे क्या-क्या हैं

किसान भाइयों यदि आप काले गेहूं से निर्मित रोटी का सेवन करते हैं, तो आपको हृदय रोग का संकट काफी कम होगा। क्योंकि यह शरीर में कोलेस्ट्रॉल के स्तर को सामान्य बनाए रखने में सहायता करता है।

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काले गेंहू का सेवन मधुमेह में लाभकारी होता है

काला गेहूं एंथोसायनिन मधुमेह के रोगियों के ब्लड शुगर, मेटाबॉलिज्म में तीव्रता के साथ सुधार करता है। यदि डायबिटीज रोगी नियमित तौर पर काले गेहूं के उत्पादों का सेवन करते हैं, तो वह उनके लिए काफी लाभकारी साबित होगा।


 

काला गेंहू कैंसर के लिए काफी फायदेमंद होता है

काले गेहूं के एक शोध में पता चला है, कि इसमें कैंसर रोधी गुण विघमान रहते हैं, जो डीएनए के नुकसान से स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। साथ ही, यह कैंसर की कोशिकाओं को फैलने से रोकती है।

जानें कठिया गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्मों के बारे में

जानें कठिया गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्मों के बारे में

कठिया गेहूं की यह टॉप उन्नत किस्में एच.डी.-4728 (पूसा मालवी), एच.आई. - 8498 ( पूसा अनमोल), एच. आई. - 8381 (मालव श्री ), एम.पी.ओ.-1215 और एम.पी.ओ – 1106 किसानों को कम समय में 6.28 टन तक उत्पादन देने की क्षमता रखती हैं। इसके अतिरिक्त इन उन्नत किस्मों के गेहूं में विभिन्न प्रकार की बीमारियों से लड़ने के लिए पोषक तत्व विघमान रहते हैं। हमारे भारत देश में किसान काफी बड़े स्तर पर गेहूं की खेती करते हैं, जिसको किसान बाजार में बेचकर ज्यादा मुनाफा हांसिल करते हैं। यदि आप भी गेहूं की खेती से बेहतरीन मुनाफा प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप ऐसे में गेहूं की कठिया प्रजातियों का चयन कर सकते हैं। क्योंकि यह प्रजाति गेहूं का बंपर उत्पादन देने की क्षमता रखती है। यदि एक तरह से देखें तो भारत में कठिया गेहूं की खेती लगभग 25 लाख हेक्टेयर रकबे में की जाती है। कठिया गेहूं में विभिन्न प्रकार की बीमारियों से लड़ने हेतु पोषक तत्व उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त कठियां गेहूं आद्यौगिक इस्तेमाल के लिए बेहतर होता है।

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दरअसल, इससे निर्मित होने वाले सिमोलिना (सूजी/रवा) से जल्दी पचने वाले व्यंजन जैसे कि - पिज्जा, स्पेघेटी, सेवेइयां, नूडल, वर्मीसेली इत्यादि तैयार किए जाते हैं। इसमें रोग अवरोधी क्षमता ज्यादा होने की वजह से बाजार में इसकी काफी ज्यादा मांग रहती है। ऐसी स्थिति में आज हम किसानों के लिए कठिया गेहूं की टॉप पांच उन्नत प्रजातियों की जानकारी लेकर आए हैं, जो 100 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। साथ ही, प्रति हेक्टेयर 6.28 टन तक पैदावार प्रदान करती है।

निम्नलिखित कठिया गेहूं की पांच उन्नत किस्में

एच.डी. 4728 (पूसा मालवी)

कठिया गेहूं की यह प्रजाति 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस प्रजाति के दाने बड़े एवं चमकीले होते हैं। गेहूं की कठिया एच.डी.-4728 (पूसा मालवी) प्रजाति से किसान प्रति हेक्टेयर 5.42 से 6.28 टन तक उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। यह प्रजाति तना और पत्ती के गेरुई रोग के प्रति रोधी मानी जाती है।

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एच.आई. 8498 (पूसा अनमोल)

इस प्रजाति को किसान मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के इलाकों में सहजता से कर सकते हैं। कठिया गेहूं की इस प्रजाति में जिंक व आयरन की भरपूर मात्रा विघमान होती है।

एच. आई. - 8381 (मालव श्री)

यह प्रजाति विलंब से बुवाई की जाने वाली होती है। कठिया गेहूं की एच. आई. - 8381 (मालव श्री) प्रजाति से कृषक प्रति हेक्टेयर 4.0 से 5.0 टन तक उपज हांसिल कर सकते हैं।

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एम.पी.ओ. 1215

कठिया गेहूं की इस प्रजाति से किसान प्रति हेक्टेयर तकरीबन 4.6 से 5.0 टन तक उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। इस प्रजाति की फसल 100 से 120 दिन के समयांतराल में पककर कटाई के लिए तैयार हो जाती है।


 

एम.पी.ओ 1106

कठिया गेहूं की एम.पी.ओ 1106 प्रजाति लगभग 113 दिन के अंदर पूर्णतय पक जाती है। यह प्रजाति सिंचित इलाकों में भी शानदार पैदावार देने की भी क्षमता रखती है। कठिया गेहूं की इस प्रजाति को मध्य भारत के कृषकों के द्वारा सर्वाधिक पैदा किया जाता है।

गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रतुआ रोग

चावल के बाद गेहूं भारत मुख्य फसल है। रबी के मौसम में गेहूं की बुवाई की जाती है। गेहूं की फसल उत्पादन में किसानों को कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। मुख्य रूप से गेहूं की फसल उत्पादन में रोगों के कारण पैदावार कम होती है जिससे की किसानों को नुकसान होता है। आज के इस लेख में हम गेहूं कि फसल में लगने वाले प्रमुख रोगों की बात करेंगे। गेहूं की फसल में कई रोग लगते है परन्तु सबसे ज्यादा नुकसान रतुआ रोग से होता है। रतुआ 3 प्रकार का होता है। भूरा रतुआ, काला रतुआ, पीला रतुआ

पर्ण रतुआ/भूरा रतुआ रोग

यह पक्सीनिया रिकोंडिटा ट्रिटिसाई नामक कवक से होता है तथा सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है | इस रोग की शुरुआत उत्तर भारत की हिमालय तथा दक्षिण भारत की निलगिरी पहाड़ियों से शुरू होता है एवं वहां पर जीवित रहता है तथा वहाँ से हवा द्वारा मैदानी क्षेत्रों में फैलकर गेहूं की फसल को संक्रमित करता है |रोग कि पहचान :- इस रोग कि पहचान यह है कि प्रारम्भ में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुई की नोक के बिन्दुओं के आकार के बिना क्रम के पत्तियों की उपरी सतह पर उभरते हैं जो बाद में और घने होकर पूरी पत्ती और पर्ण वृन्तों पर फैल जाते हैं | रोगी पत्तियां जल्दी सुख जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण में भी कमी होती है और दाना हल्का बनता है | गर्मी बढने पर इन धब्बों का रंग, पत्तियों की निचली सतह पर काला हो जाता है तथा इसके बाद यह रोग आगे नहीं फैलता है।  इस रोग से गेहूं की उपज में 30 प्रतिशत तक की हानि हो सकती है।

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धारीदार रतुआ या पीला रतुआ रोग 

यह पक्सीनिया स्ट्राईफारमिस नामक कवक से होता है | इस रोग के लक्षण प्रारम्भ में पत्तियों के उपरी सतह पर पीले रंग की धारियों के रूप में देखने को मिलते हैं जो कि धीरे–धीरे पूरी पत्तियों को पीला कर देते हैं तथा पीला पाउडर जमीन पर भी गिरने लगता है  इस स्थिति को गेहूं में पीला रतुआ कहते हैं| यदि यह रोग कल्ले निकलने वाली अवस्था या इससे पहले आ जाता है तो फसल में बाली नहीं आती है | यह रोग उत्तरी हिमालय की पहाड़ियों से उत्तरी मैदानी क्षेत्र में फैलता है | यह रोग तापमान बढने पर कम हो जाता है तथा पत्तियों पर पीली धारियां काले रंग की हो जाती है। मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्रों में यह रोग अधिक तापमान की वजह से नहीं फैलता हैं। 

गेहूं का तना रतुआ या काला रतुआ रोग      

इस रोग का रोग जनक पक्सीनिया ग्रैमिनिस ट्रिटिसाई नामक कवक है | यह रोग प्रारम्भ में निलगिरी तथा पलनी पहाड़ियों से आता है तथा इसका प्रकोप दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में अधिक होता है | उत्तरी क्षेत्र में यह रोग फसल पकने के समय पहुँचता है | इसलिए इसका प्रभाव नगण्य होता है | यह रोग अक्सर 20 डिग्री नगण्य सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर फैलता है | इस रोग के लक्षण तने तथा पत्तियों पर चाकलेट रंग जैसा काला हो जाता है | दक्षिण तथा मध्य क्षेत्रों में जारी की नवीनतम प्रजातियाँ इस रोग के लिए प्रतिरोधी होती है | हालांकि लोक -1 जैसी प्रजातियों में यह रोग काफी लगता है। हाल के कुछ वर्षों में इस रोग की नयी प्रजाति यू.जी. 99 कुछ अफ़्रीकी देशों में विकसित हो गयी है |

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रोगों का नियंत्रण 

इन तीनो रोगों को नियंत्रित करने के लिए किसान को अच्छी तरह से वैज्ञानिकों द्वारा बताये गये प्रभावित उपाय अपनाने चाहिए तथा गेहूं की फसल पर रतुआ की आरम्भिक एवं अनुकूल वातावरण की अवस्था में रसायन प्रोपीकानजोल (टिल्ट 25 प्रतिशत ई.सी.) अथवा ट्राईडिमेफान बेलिटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा टेबकोनाजोल का छिड़काव 0.1 प्रतिशत की दर से (एक मिली लीटर दवा प्रति लीटर पानी) करने से रतुआ नियंत्रित किया जा सकता है। रसायन का छिड़काव लगभग 15 दिन बाद फिर से आवश्यकतानुसार किया जा सकता है।