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धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

धान की खेती भारत में खरीफ के मौसम में बड़े पैमाने पर की जाती है। भारत में धान की बुवाई बड़े क्षेत्र में की जाती है। अन्य देशों में धान की उपज में वृद्धि हो रही है जो की हमरे देश में बहुत कम है। 


धान की उपज कई कारकों से प्रभावित होती है जिन में से सबसे बाद कारक है इसमें लगने वाले खतरनाक रोग, फसल में रोगों के प्रभाव के कारण उपज आधी से भी कम होती है। 


इसलिए आज के इस लेख में हम आपके लिए धान के रोगों से संबंधित सम्पूर्ण जानकारी लेके आए है, जिससे की आप समय रहते इन रोगों को पहचान कर इनका उपचार कर सकते है।

 

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

भूरा धब्बा रोग

ये रोग हेलमिनथोस्पोरियम ओरायजी जीवाणु के कारण होता है जो की फसल की उपज को बहुत प्रभावित करता है। इस रोग के लक्षण पौधे के सभी ऊपरी भागो पर देखने को मिलते है । 


तनों पत्तियों एवं बालियों पर बहुत सारे अण्डाकार स्लेटी धब्बे दिखाई देते है जो बाद में भूरे हो जाते है। इस रोग में आपस में धब्बे मिलकर बड़े धब्बे बना लेते है। रोग का अधिक प्रकोप होने पर पौधे उकठकर मर जाते है। 


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पौधे के विकास के साथ में बालियों का विकास भी रूक जाता है और बालियों में दाने नहीं बनते है। फसल की किसी भी अवस्था में यह रोग हो सकता है। रोग से प्रभावित पौधों में दाने की गुणवत्ता कम हो जाती है जिससे फसल का रेट भी अच्छा नहीं लगता है।     


भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण के उपाय         

  • इस रोग की जड़ को ख़तम करने के लिए केवल प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग करें।  
  • खेत में पूर्स्च्छ खेती करें।
  • फसल चक्र अपनाए।  
  • रोपण की तिथि में बदलाव करें।  
  • उचित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग करें।      
  • उपयुक्त जल प्रबंधन करें।      
  • पोटाश की कमी की पूर्ति के लिए पोटाश युक्त उर्वरकों का उपयोग करें।
  • भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण के थाईरम 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें या कार्बेंडाजिम 1.5 ग्रा./ कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें।                               
  • मेनेकोजेब 0.25 प्रतिशत की दर से 10 से 15 दिन के अंतराल में लक्षण दिखते ही छिड़काव करें।                      

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट (जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस)

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग को हिंदी में जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस रोग के नाम से जाना जाता है जो की जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस जीवाणु के कारण होता है। इस रोग में पत्तियों पर पानीदार धब्बे बनते है। 

धब्बों के आसपास चिपचिपी बूंदे जमा होती है। रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियां पीला से नांरगी भूरी हो जाती है। छोटे धब्बे मिलकर पत्तियों की सतह पर बड़े धब्बे बन जाते है। ये रोग फसल को विकराल रूप में प्रभावित करता है। 

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग के लक्षण दो भागों में दिखाई देते है। क्रेसिक फेस और ब्लाइट फेस इन दोनों में लक्षण अलग अलग होते है। क्रेसिक भाग पौधे की प्रांरभिक अवस्था में मुरझााकर सुख जाते है। 

बाद की अवस्था में ब्लाइट फेस के लक्षण दिखते है जो पत्ती के ऊपर और किनारे में दिखाई पड़ते है, ये धीरे धीरे बढ़कर बड़े एवं लम्बे धब्बे बन जाते है। जैसे - जैसे रोग आगे बढ़ता है, जल्दी ही धब्बे पीले से सफेद हो जाते है।         

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग के नियंत्रण के उपाय        

  • सबसे पहले बुवाई के लिए रोग मुक्त बीजों का उपयोग करें इससे ही इस रोग का रोकथाम किया जा सकता है। 
  • इस रोग को खड़ी फसल में नियंत्रित करने के लिए 5 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन 500 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से रोग की शुरूवात में छिड़काव करें। 
  • अच्छा नियंत्रण प्राप्त करने के लिए बाद में 09-12 दिन के अंतराल से छिड़काव फिर से दोहराए।

खैरा रोग 

धान की फसल में ये रोग भी बहुत नुकसान करता है जिस कारण से फसल की उपज की  कम हो जाती है। इस रोग की क्षति की बात करे तो ये रोग मुख्य रूप से  जस्ते की कमी से होता है। 


इस रोग के लक्षण नर्सरी में ही दिखाई देने लग जाते है। इस रोग के सबसे पहले लक्षण नर्सरी में पौधे का पीला पड़ना है। रोग से संक्रमित पौधे पर पत्तों के बीच वाली शिरा के पास पीलापन दिखाई देता है। जिससे की पौधों की बढ़वार रूक जाती है। संक्रमण अधिक होने पर पौधे सुख जाते है।    


खैरा रोग के नियंत्रण के उपाय  

  • नर्सरी के पौधों को बोने से पहले 1 से 2 मिनट तक जिंक सल्फेट के 0.2 प्रतिशत घोल में भिगाए।
  • रोग की रोकथाम के लिए  बीज को बोने से पहले रात भर जिंक सल्फेट के 0.4 प्रतिशत घोल में भिगाए। या जिंक सल्फेट 5 कि.ग्रा. और चूना 2.5 कि.ग्रा. का छिड़काव करें।   
  • जिंक सल्फेट 5 कि.ग्रा. और चूना 2.5 कि.ग्रा. का पहला छिड़काव नर्सरी में बोने के 10 दिन बाद करें।दूसरा छिड़काव बोनी के 20 दिन बाद करे और
  • तीसरा छिड़काव रोपणी के 15 से 30 दिन बाद करें।

फाल्स स्मट या आभासी कंडवा रोग 

ये रोग यूसलीगनीओइड विरेन्स जीवाणु से होता है। धान की फसल का ये सबसे घातक रोग माना जाता है। रोग फूल आने के बाद में दिखता है। इस रोग में बालियों में दाने हरे काले हो जाते है। 


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संक्रमित दाने छिद्र युक्त चुर्ण से ढके रहते है। हवा से उड़कर यह स्वस्थ फूलों को भी संक्रमित कर देते है। अधिक संक्रमण होने पर सारे दाने खराब हो जाते है। 


फाल्स स्मट या आभासी कंडवा रोग के नियंत्रण के उपाय     

  • इस रोग को पूरी तरह से नियंत्रित करने के लिए दो से तीन साल के लिए फसल चक्र अपनाए।          
  • गहरी जुताई से भूमि में गिरे स्केलोरेशिया नष्ट हो जाते है।
  • संक्रमित दाने एवं पौधों को नष्ट करें, संक्रमित पौधों से बीज न इकटठा करें।    
  • प्रोपेकोनोज़ोल ( टिल्ट) 1 मि.ली. प्रति लीटर या क्लोरोथोलोनिल 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से फूल निकलने समय छिड़काव करें।
  • दूसरा छिड़काव फूल पूरी तरह से आने के बाद करें।
  • पोटाश उर्वरकों को डाले। 

किसानों में मचा हड़कंप, केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल चौपट

किसानों में मचा हड़कंप, केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल चौपट

जैसा कि आप सभी को पता होगा कि महाराष्ट्र सोयाबीन (soyabean) का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। विटामिन और प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से‌ गजब का फायदेमंद है। विश्वस्त सूत्रों द्वारा ज्ञात हुआ है कि वर्तमान समय में सोयाबीन को किसी की नजर लग गयी है। दरअसल, सोयाबीन की फसल पर केवड़े रोग (Bacterial blight of soybean) का भयानक प्रकोप हुआ है। अचानक ऐसी गंभीर, भयावह व दुर्लभ स्थितियों से सामना ‌करना किसानों को भारी‌ पड़ रहा है। संकट की‌ इस घड़ी में बौखलाए हुए किसानों ने जिला प्रशासन से मदद की गुहार लगायी है। आखिरकार, परिस्थितियों के मारे इन किसानों के पास अन्य कोई चारा भी तो नहीं है। ‌‌‌‌‌‌‌‌वैसे, खरीफ की फसल की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। बारिश की अनियमितता की वजह से किसानों का तो मानो सारा का सारा कारोबार ही ठप पड़ गया है। इन दिनों‌ किसान बेहद घाटे में चल रहे हैं। लगातार दिन रात अनवरत बारिश की वजह से खेती और खेतिहर दोनों ही बुरी तरह से आहत हुए हैं। दरअसल, किसान सोयाबीन की फसलों से काफी उम्मीदें लगाए बैठे थे। किंतु यहाँ तो पासा ही पलट गया है। केवड़ा (केवडा रोग) रोग के कीटों ने तो सोयाबीन की फसलों को पूर्ण रूप से ही बर्बाद कर के रख दिया है। किसानों के अनेकों बार जिला प्रशासन से गुहार लगाने के बावजूद अभी‌ तक कोई हल नहीं निकल पाया है। किंतु उम्मीद पर दुनिया कायम है। यथा शीघ्र कृषि क्षेत्र से संबंधित इन कठिन समस्याओं पर नियंत्रण अवश्य किया जाएगा। किसानों को निराश एवं हताश होने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल कभी कभी‌ प्रकृति भी‌ बेरहम हो जाती है। अगर देखा जाए तो मौसम का भी‌ फसलों‌ पर जबरदस्त असर पड़ता है। सोयाबीन के फसलों से‌ किसान बहुत अच्छी कमाई कर लेते हैं। ‌‌‌‌‌लेकिन, वर्तमान परिस्थितियों के अवलोकन से ऐसा लगता है मानो इन किसानों के सारे किए कराये पर पानी फिर गया हो‌। कीटों से बचाव के लिए कृषि विभाग वालों ने आवश्यक निर्देश दिए हुए हैं।

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किसानों ने पौधों में दवाइयों के छिड़काव में कोई कसर नहीं छोड़ी है। किसान सचेत हैं। कहीं ना कहीं उन्हें भय है कि कहीं फसल फिर से दूसरी बार भी ना खराब हो जाए। किसानों ने केवड़ा रोग‌ के प्रकोप से निजात पाने के लिए कृषि विभाग से तथाकथित नुकसान के एवज में मुआवजे की मांग की है। जहाँ एक ओर केवड़ा रोग के प्रकोप से सोयाबीन की फसल बुरी तरह से ग्रस्त ‌है, वहीं दूसरी‌ ओर खरीफ की फसलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारणों से अचानक इन फसलों पर कीट- फतिंगों की बाढ़ सी आ गयी है। कुल मिलाकर स्थिति बेहद चिंताजनक है। सोयाबीन के लहलहाते फूलों को देखकर किसानों के मन में उम्मीद‌ की एक छोटी सी‌ किरण जगी थी। किंतु, घनघोर बारिश और उस पर से पसीना छुड़ा देने वाली गर्मी की वजह से सब कुछ अनायास ही बर्बादी के कगार पर चला गया है। किसानों की स्थिति बेहद ही दयनीय हो चुकी‌ है।

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आपके जेहन में अब यह सवाल अवश्य उठ रहा होगा कि इतना सब कुछ बिगड़ जाने के बावजूद भी जिला प्रशासन आखिर खामोश क्यों है ??? पर, ऐसा कुछ भी‌ नहीं है। कृषि विभाग वालों ने किसानों को आश्वासन दे दिया है। सही समय में, सही स्थान पर, कृषि विभाग द्वारा अनुमोदित दवाइयों को ही छिड़काव करने का निर्देश जारी‌ किया गया है। कृषि विभाग द्वारा उपलब्ध कराए गये प्रमाणित खाद एवं बीजों को ही इस्तेमाल करने की सलाह दी गयी है।‌ संक्रमित फसलों को हटाकर कहीं अन्यत्र फेंकने का प्रावधान किया गया है। दरअसल, बारिश के मौसम में साफ सफाई के बिना गंदगी में किटाणुओं का तीव्र गति से पनपना तो लाजिमी है। कहा जाता है कि जुलाई और अगस्त में महाराष्ट्र के नांदेर जिले में इतनी अधिक बारिश हुई‌ की खेत खलिहानों‌ में पानी का बहाव पर्याप्त समय सीमा से ऊपर आ गया। जिसकी वजह से आम जन जीवन काफी हद तक प्रभावित हो गया है। किसानों पर तो मानो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा है। पर, आश्चर्य वाली बात यह है कि अधिकांश इलाकों में तो दूर दूर तक बारिश का नामो निशां तक नहीं है। परिणामस्वरूप फसलों का अधिकांश हिस्सा लगभग बर्बाद हो गया है।

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कुदरत का भी अजीब करिश्मा है। कहीं तो पानी की‌ बहुतायत है। तो कहीं बिना पानी फसल सूख सूख कर झड़ रही हैं। जो भी हो किसानों को ऐसे संकट की घड़ी में अपने आत्मबल को कायम रखना चाहिए। सरकार कदम कदम पर आपके साथ है। यदि एकजुट होकर आप समस्याओं से निपटेंगे, तो सफलता निश्चित है। आने वाली सुबह आपके लिए ढेर सारी खुशियाँ लेकर आएगी। कर्म करते रहिए। आपका परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाएगा।
New Emerging Disease: लीची के पेड़ के अचानक मुरझाने एवं सूखने (विल्ट) की समस्या को कैसे करें  प्रबंधित ?

New Emerging Disease: लीची के पेड़ के अचानक मुरझाने एवं सूखने (विल्ट) की समस्या को कैसे करें प्रबंधित ?

लीची (लीची चिनेंसिस) एक उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय फल का पेड़ है जो अपने रसीले और सुगंधित फलों के लिए जाना जाता है।लीची में रोग कम लगते है। लीची की सफल खेती के लिए आवश्यक है की इसमें लगनेवाले कीड़ों को प्रबंधित किया जाय। लेकिन विगत कुछ वर्षो से लीची में विल्ट रोग देखा जा रहा है जो फ्युसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी कवक के कारण होने वाली एक संवहनी बीमारी के कारण से होता है। यह रोगज़नक़ मुख्य रूप से जड़ प्रणाली पर हमला करता है, पानी और पोषक तत्वों के परिवहन को बाधित करता है और पेड़ के सूखने, पीले होने और अंततः मृत्यु का कारण बनता है।

लीची में विल्ट रोग के लक्षण

हालांकि इस रोग से किसी भी उम्र के लीची के पेड़ प्रभावित हो सकते है लेकिन यह विल्ट रोग आमतौर पर पांच साल से कम उम्र के लीची के नए पेड़ों में कुछ ज्यादा ही देखा जा रहा है जिसमे पेड़ एक हफ्ते से भी कम समय में मुरझा जाते हैं। पहले लक्षण पत्तियों के पीले पड़ने, पत्तियों के गिरने के बाद धीरे-धीरे मुरझाने और सूखने के रूप में दिखाई देते हैं, जिससे 4-5 दिनों के भीतर पौधे की पूर्ण मृत्यु हो जाती है। यह फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी कवक के कारण होता है। इस पर और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है। अभी भी इस रोग पर बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। लीची में विल्ट के लक्षण आम में विल्ट रोग के समान ही होते है। लीची का विल्ट रोग (मुरझाना) मृदाजनित कवक फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी के कारण होता है, जो दुनिया भर में लीची के बागों के लिए एक भयानक खतरा है। लीची की खेती को बनाए रखने के लिए बीमारी, उसके जीवन चक्र को समझना और व्यापक प्रबंधन रणनीतियों को जानना बहुत महत्वपूर्ण है।

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फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम की पहचान और जीवन चक्र

लीची के मुरझाने का कारक एजेंट फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी, मृदाजनित कवक के एक समूह से संबंधित है जो अपनी विस्तृत मेजबान सीमा और मिट्टी में दृढ़ता के लिए जाना जाता है। रोगज़नक़ लीची के पेड़ों को जड़ों के माध्यम से संक्रमित करता है, संवहनी प्रणाली पर कब्जा कर लेता है और जल-संवाहक वाहिकाओं में रुकावट पैदा करता है। इसके परिणामस्वरूप पौधे मुरझाने लगते हैं और अंततः पेड़ की मृत्यु हो जाती है। फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी के जीवन चक्र में मिट्टी में प्रतिरोधी क्लैमाइडोस्पोर के रूप में जीवित रहना शामिल है। ये बीजाणु वर्षों तक बने रह सकते हैं, किसी संवेदनशील मेजबान के संक्रमित होने की प्रतीक्षा में अतिसंवेदनशील जड़ प्रणाली का सामना करने पर, कवक अंकुरित होता है और जड़ों में प्रवेश करता है, और खुद को संवहनी ऊतकों में स्थापित करता है। फिर कवक अधिक बीजाणु पैदा करता है, चक्र पूरा करता है और बीमारी को कायम रखता है।

लीची के मुरझाने में योगदान देने वाले कारक

लीची के मुरझाने के विकास और प्रसार में कई कारक योगदान करते हैं जैसे.… मिट्टी की स्थिति: फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम गर्म और नम मिट्टी की स्थिति में पनपता है। खराब जल निकासी और जलभराव वाली मिट्टी लीची के पेड़ों को संक्रमित करने के लिए कवक के लिए एक आदर्श वातावरण बनाती है। विभिन्न प्रकार की संवेदनशीलता: कुछ लीची की किस्में फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के प्रति प्रतिरोध प्रदर्शित करती हैं, अन्य अत्यधिक संवेदनशील होती हैं। किस्म का चुनाव लीची के मुरझाने के प्रति बगीचे की संवेदनशीलता को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है।

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तापमान और आर्द्रता: गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के विकास और प्रसार में सहायक होते हैं। ये जलवायु परिस्थितियाँ रोगज़नक़ों को लीची के पेड़ों को संक्रमित करने के लिए अनुकूलतम स्थितियाँ प्रदान करती हैं।

लीची विल्ट रोग को कैसे करें प्रबंधित?

लीची के मुरझाने के प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो निवारक उपायों, कल्चरल (कृषि)उपाय, रासायनिक उपचार, जैविक नियंत्रण, स्वच्छता और प्रतिरोधी किस्मों पर चल रहे शोध को जोड़ती है। आइए इनमें से प्रत्येक घटक पर गहराई से विचार करें:

1. निवारक उपाय

साइट का चयन: लीची के मुरझाने के जोखिम को कम करने के लिए अच्छी जल निकासी वाली जगहों का चयन करना महत्वपूर्ण है। जलजमाव वाले क्षेत्रों से बचने से फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के लिए कम अनुकूल वातावरण बनाने में मदद मिलती है। प्रतिरोधी किस्मों का चयन: रोगज़नक़ के प्रति अंतर्निहित प्रतिरोध वाली लीची किस्मों का रोपण एक सक्रिय रणनीति है। चल रहे शोध का उद्देश्य प्रतिरोधी किस्मों की पहचान करना और विकसित करना है जो फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम का सामना कर सकें।

2. कल्चरल (कृषि) उपाय

सिंचाई प्रबंधन: उचित सिंचाई पद्धतियाँ आवश्यक हैं। फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनाने के लिए जलभराव और सूखे के तनाव के बीच संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली सीधे जड़ क्षेत्र तक पानी पहुंचाने में मदद कर सकती है, जिससे रोगज़नक़ के साथ मिट्टी का संपर्क कम हो जाता है। कटाई छंटाई और पतलापन: संक्रमित शाखाओं की नियमित कटाई छंटाई और छतरी (कैनोपी)को पतला करने से वायु परिसंचरण को बढ़ावा मिलता है, जिससे पेड़ के चारों ओर नमी कम हो जाती है। यह, बदले में, फंगल बीजाणु के अंकुरण और संक्रमण की संभावना को कम करता है।

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पेड़ों के बीच दूरी: लीची के पेड़ों के बीच पर्याप्त दूरी होना बहुत जरूरी है। बढ़ी हुई दूरी बेहतर वायु परिसंचरण की सुविधा प्रदान करती है, आर्द्रता को कम करती है और फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के प्रसार को सीमित करती है।

3. रासायनिक उपचार

कवकनाशी अनुप्रयोग: लीची के मुरझाने के प्रबंधन में कवकनाशी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। थियोफैनेट-मिथाइल और प्रोपिकोनाज़ोल जैसे सक्रिय तत्वों वाले कवकनाशी ने फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी के खिलाफ प्रभावकारिता का प्रदर्शन किया है। रोग के विकास के शुरुआती चरणों के दौरान निवारक उपचार लागू करने के साथ,प्रयोग का समय महत्वपूर्ण है। मिट्टी (सक्रिय रूट ज़ोन) को हेक्साकोनाज़ोल या प्रॉपिकोनाजोल @ 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल से या कार्बेंडाजिम या रोको एम नामक फफूंद नाशक की 2 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोलकर पेड़ के आसपास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भिगाए। दस दिन के बाद इसी घोल से पेड़ के आस पास की मिट्टी को खूब अच्छी तरह दुबारा से भिगाए। एकीकृत रोग प्रबंधन (आईडीएम): अन्य रोग प्रबंधन प्रथाओं के साथ कवकनाशी को एकीकृत करने से प्रतिरोध विकसित होने का जोखिम कम हो जाता है। आईडीएम दृष्टिकोण पारिस्थितिक संदर्भ पर विचार करता है और स्थायी, दीर्घकालिक रोग नियंत्रण का लक्ष्य रखता है।

4. जैविक नियंत्रण

लाभकारी सूक्ष्मजीव: ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां जैसे कुछ लाभकारी सूक्ष्मजीवों ने फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम/सोलानी को दबाने में आशाजनक प्रदर्शन किया है। इन बायोकंट्रोल एजेंटों को मिट्टी में प्रयोग किया जाता है या पर्ण स्प्रे के रूप में उपयोग किया जा सकता है, जो रोग प्रबंधन का प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल साधन प्रदान करता है। लीची में पेड़ की उम्र के अनुसार उर्वरक की अनुशंसित खुराक के साथ नीम की खली या अरंडी की खली @ 5-8 किग्रा/वृक्ष लगाएं या बर्मी कंपोस्ट खाद 20से 25 किग्रा प्रति पेड़ देना चाहिए। ट्राइकोडर्मा हर्जियानम,ट्राइकोडर्मा विरिडी , स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस आदि जैसे जैव नियंत्रण एजेंटों का प्रयोग रोग के प्रबंधन में प्रभावी साबित हुआ है। ट्राइकोडर्मा का कमर्शियल फॉर्मुलेशन का 100-200 ग्राम को खूब सड़ी गोबर या कंपोस्ट खाद की 20 किग्रा में मिला कर , सक्रिय रूट ज़ोन में प्रति वयस्क पेड़ मिलाकर मिट्टी की सतह पर लगभग 30-40 सेंटीमीटर चौड़ी एक गोलाकार पट्टी में एक ऐसे स्थान पर फैला दें जो पेड़ की छतरी की बाहरी सीमा से लगभग दो फीट अंदर हो। पानी का छिड़काव कर मिट्टी में पर्याप्त नमी सुनिश्चित करें या हल्की सिंचाई करें। माइक्रोबियल कंसोर्टिया: माइक्रोबियल कंसोर्टिया विकसित करने के लिए अनुसंधान जारी है जो कई लाभकारी सूक्ष्मजीवों के सहक्रियात्मक प्रभावों का उपयोग करता है। ये कंसोर्टिया पर्यावरणीय प्रभाव को कम करते हुए उन्नत रोग दमन की पेशकश करते हैं।

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5. स्वच्छता

मलबा हटाना: इनोकुलम के संभावित स्रोतों को खत्म करने के लिए संक्रमित पौधे के मलबे को तुरंत हटाना और नष्ट करना महत्वपूर्ण है। बगीचे में फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के बने रहने को रोकने के लिए गिरी हुई पत्तियों, कटी हुई शाखाओं और अन्य पौधों की सामग्री का उचित तरीके से निपटान किया जाना चाहिए। उपकरण कीटाणुशोधन: छंटाई उपकरणों और उपकरणों की नियमित कीटाणुशोधन पेड़ों के बीच कवक के अनजाने प्रसार को रोकने में मदद करती है। बगीचे के रख-रखाव के दौरान रोग संचरण के जोखिम को कम करने के लिए स्वच्छता आवश्यक हैं।

6. प्रतिरोधी किस्मों पर शोध

प्रजनन कार्यक्रम: प्रजनन कार्यक्रमों में निरंतर प्रयासों का उद्देश्य फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम के लिए अंतर्निहित प्रतिरोध वाली लीची की किस्मों को विकसित करना है। प्रतिरोधी किस्मों की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना लीची के मुरझाने का स्थायी दीर्घकालिक समाधान है। जेनेटिक इंजीनियरिंग: जेनेटिक इंजीनियरिंग में प्रगति से प्रतिरोधी किस्मों के विकास में तेजी आ सकती है। फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम को प्रतिरोध प्रदान करने वाले जीन पेश करके, शोधकर्ताओं का लक्ष्य लीची की रोगज़नक़ को झेलने की क्षमता को बढ़ाना है।

7. परिशुद्ध कृषि प्रौद्योगिकी

रिमोट सेंसिंग: रिमोट सेंसिंग सहित सटीक कृषि प्रौद्योगिकियां, उत्पादकों को दूर से बगीचे के स्वास्थ्य की निगरानी करने में सक्षम बनाती हैं। सेंसर से लैस ड्रोन बीमारी के शुरुआती लक्षणों का पता लगा सकते हैं, जिससे लक्षित हस्तक्षेप और समय पर रोग प्रबंधन की अनुमति मिलती है।

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डेटा एनालिटिक्स: सटीक कृषि प्रौद्योगिकियों के माध्यम से एकत्र किए गए डेटा का विश्लेषण रोग की गतिशीलता में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह जानकारी उत्पादकों को प्रबंधन प्रथाओं को अनुकूलित करने और समग्र बगीचे के स्वास्थ्य में सुधार करने में मार्गदर्शन करती है।

सारांश

लीची विल्ट (मुरझान) प्रबंधन के लिए बहुआयामी और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। निवारक उपायों और कल्चरल उपाय से लेकर रासायनिक उपचार, जैविक नियंत्रण, स्वच्छता और प्रतिरोधी किस्मों पर चल रहे शोध तक, प्रत्येक घटक फ्यूसेरियम ऑक्सीस्पोरम के प्रभाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल और अनुसंधान और तकनीकी प्रगति के माध्यम से लगातार परिष्कृत एक समग्र रणनीति, लीची के बागानों को बनाए रखने और लीची मुरझाने की चुनौतियों का सामना करने वाले उत्पादकों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

अनार के फल में लगने वाले कीट व उनकी रोकथाम

अनार के फल में लगने वाले कीट व उनकी रोकथाम

अनार के अंदर सूत्रकृमि या निमैटोड का संक्रमण होता है, जो कि काफी छोटा सूक्ष्म और धागानुमा गोल जीव होता है। यह अनार की जड़ों में गांठें निर्मित कर देता है। इसके प्रभाव से पौधौं की पत्तियों का रंग पीला पड़ने लग जाता है।

अनार की खेती कृषकों के लिए एक अत्यंत लाभ का सौदा सिद्ध होती है। अनार का पौधा काफी सहिष्णु होता है और हर तरह के मौसम को सहन करने में सक्षम होता है। अनार के पोधौं और फल में कीट और रोग के संक्रमण से बेहद हानि होती है। इसलिए अनार की खेती में रोग और कीट के नियंत्रण एवं उसकी पहचान से जुड़ी जरूरी जानकारी किसानों को पास होनी ही चाहिए। अनार के पौधों एवं फलों में किस तरह के रोग और कीट का प्रकोप होता है। उसकी पहचान करने के लिए लक्षण क्या-क्या हैं। साथ ही, किस तरह से उससे बचाव के लिए क्या उपाय करना चाहिए, यह जानना भी काफी महत्वपूर्ण है। 

अनार की फसल में लगने वाले निम्नलिखित कीट 

अनार में सूत्रकृमि अथवा निमैटोड का काफी प्रकोप होता है, जो कि काफी छोटा सूक्ष्म और धागानुमा गोल जीव होता है। यह अनार की जड़ों में गांठें तैयार कर देता है। इसके प्रकोप से पौधौं की पत्तियां भी पीली पड़ने लगतीं हैं और मुड़ने लगती हैं। इसकी वजह से पौधों का विकास रुक जाता है। इसके साथ ही उत्पादन भी प्रभावित हो जाता है। इस वजह से जिस पौधे में इस कीट के प्रकोप के लक्षण दिखाई दे रहे हैं, उस पौधे की जड़ों के पास खोद कर उसमें 50 ग्राम फोरेट 10 जी डालकर अच्छी तरह से मिट्टी में मिलाकर सिंचाई कर दें। इससे पौधों को क्षति से बचाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मिलीबग, मोयला थ्रिप्स इत्यादि कीट का प्रकोप होता है। इसकी वजह से कलियां, फूल और छोटे फल प्रांरभिक अवस्था में ही खराब होकर गिरने लगते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोएट कीटनाशी के 0.5 प्रतिशत घोल का प्रति लीटर पानी में मिलाकर फसल पर स्प्रे करें।  

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माइट से संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय करें 

माइट का संक्रमण भी पौधों को हो सकता है। यह काफी ज्यादा छोटे जीव होते हैं, जो प्राय: सफेद एवं लाल रंग में पाए जाते हैं। ये छोटे जीव अनार की पत्तियों के ऊपरी और निचले सतह पर शिराओं के पास चिपक कर रस चूसते हैं। माइट ग्रसित पत्तियां ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं। इसके अतिरिक्त जब इस कीट का प्रकोप ज्यादा होता है, तो पौधे से समस्त पत्तियां झड़ जाती हैं और यह सूख जाता है। इसलिए जब अनार के पौधे में माइट का संक्रमण होने के लक्षण नजर आऐं तो पौधों पर एक्साइड दवा के 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। यह छिड़काव 15 दिनों के समयांतराल पर करें। 

तितली कीट अनार के लिए बेहद हानिकारक है

अनार के फलों के लिए तितली सर्वाधिक हानिकारक कीट मानी जाती है। क्योंकि जब एक व्यस्क तितली अंडे देती है, तो उससे सुंडी निकल कर फलों में प्रवेश कर जाती है। फल में प्रवेश करने के पश्चात वह फल के गूदे को खाती है। इसके नियंत्रण के लिए बारिश के मौसम में फलों के विकास के दौरान 0.2 प्रतिशत डेल्टामेथ्रीन या 0.03 प्रतिशत फॉस्कोमिडान कीटनाशक दवा के घोल का छिड़काव करने से काफी लाभ होता है। इसका छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।