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पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण सलाह

पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण सलाह

भारत के अधिकांश किसान खेती-किसानी के साथ-साथ पशुपालन कर दुग्ध उत्पादन से भी अच्छी आय करते हैं। लेकिन, ऐसे भी किसान हैं, जिनकी आजीविका ही पशुपालन से चलती है। वर्तमान में रबी की फसलों की कटाई का समय चल रहा है। 

किसान अब जायद की फसलों की बुवाई की तैयारी में जुटेंगे। अब ऐसे में आज हम पशुपालन करने वाले किसानों को गर्मी के समय पशुओं के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 

पशुपालक अपने पशु को दिन में कम से कम तीन बार पीने के लिए साफ पानी दें। साथ ही, हरा चारा आहार स्वरूप अधिक खिलाएं। इसके लिए \ मूंग मक्का या अन्य हरे चारे की बुआई कर दें।

गर्मियों में पशुओं की देखभाल क्यों जरूरी ?

गर्मी के बढ़ने से मनुष्यों के साथ-साथ पशु पक्षियों को भी काफी दिक्कत होती है। इसलिए, किसान भाइयों को अपने दुधारू पशुओं की सही से देखभाल करने की आवश्यकता है। 

ऐसे मौसम में अपने पशुओं की उचित देखरेख नहीं करने से सूखा चारा खाने की मात्रा दस से 30 फीसद और दूध उत्पादन में दस फीसद तक की कमी हो सकती है। इस पर विशेष ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है। 

आहार को लेकर विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण सलाह 

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, गर्मी के मौसम में दुग्ध उत्पादन और पशु की शारीरिक क्षमता बनाए रखने के लिए पशुओं में आहार का महत्वपूर्ण योगदान है। गर्मी के मौसम में पशुओं को हरे-चारे की ज्यादा मात्रा देनी चाहिए। 

पशु हरे-चारे को बड़े ही चाव से खाते हैं। इसके साथ ही इससे 70 से 90 फीसद तक पानी की मात्रा होने से शरीर में जल की पूर्ति करता है। गर्मी के मौसम में हरे चारे का अत्यंत अभाव रहता है। 

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इसके लिए किसानों को मार्च या शुरू अप्रैल माह में ही मूंग, मक्का या अन्य हरे चारे की बुआई कर दें। इससे गर्मी में भी पशुओं को हरा चारा मिलता रहे।

पशुपालकों के लिए पशुओं के आवास हेतु सलाह  

पशुपालकों को अपने पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए छांव में रखने की आवश्यकता है। इससे पशुओं पर गर्म हवाओं का सीधा प्रभाव नहीं पड़ेगा। रात्री के दौरान पशुओं को खुले में ही रखें। 

अगर पशुओं के आवास की छत एस्बेस्टस या कंक्रीट की है तो उसके ऊपर चार से छह इंच मोटी घास- फूस रख दें। इससे पशुओं को गर्मी से निजात मिलती है। 

इसके साथ ही पशुओं को तीन से चार बार ताजा एवं स्वच्छ पानी जरूरी पिलाएं। इससे पशुओं के स्वास्थ्य पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ेगा। साथ ही, किसी भी प्रकार की बीमारी होने पर शीघ्र डॉक्टर से सलाह लें।

जानिए हरे चारे की समस्या को दूर करने वाली ग्रीष्मकालीन फसलों के बारे में

जानिए हरे चारे की समस्या को दूर करने वाली ग्रीष्मकालीन फसलों के बारे में

पशुपालकों को हरा चारा सुनिश्चित करने के लिए काफी अधिक परिश्रम करना पड़ सकता है। भारतीय मौसम विगाग का कहना है, कि इस बार गर्मी अपने चरम स्तर पर पहुँचने की आशंका है। 

विगत दिनों तापमान में सामान्य से अधिक वृद्धि होने की वजह से पशुपालकों के हरे चारे की उपलब्धता में गिरावट आ रही है। क्योंकि, तापमान में वृद्धि होने के कारण खेतों में नमी की मात्रा में गिरावट देखने को मिल रही है। 

हरे चारे पर इसका प्रत्यक्ष तौर प्रभाव देखने को मिल रहा है। इस वजह से पशुपालकों को वक्त रहते ही हरे चारे की व्यवस्था सुनिश्चित कर लेनी चाहिए, जिससे आगामी समय में पशु को पर्याप्त चारा हांसिल हो सके। 

क्योंकि, हरे चारे के अभाव का सीधा प्रभाव पशुओं के दुग्ध उत्पादन क्षमता पर पड़ता है। नतीजतन, पशुपालकों की कमाई में गिरावट आने लगती है। 

हरे चारे की किल्लत को दूर करने वाली फसलें इस प्रकार हैं ?

आप सब ने लोबिया, मक्का और ज्वार  का नाम तो सुना ही होगा। लेकिन, क्या आप जानते हैं, कि लोबिया, मक्का और ज्वार का चारा पशुओं के लिए बेहद लाभकारी होता है। 

इसके अतिरिक्त मक्का, ज्वार और लोबिया फसल लगाने से किसान हरे चारे की किल्लत से छुटकारा पा सकते हैं। क्योंकि, यह एक तीव्रता से बढ़ने वाले हरे चारे वाली फसलें हैं। 

इसके अतिरिक्त इन चारों के साथ सबसे खास बात यह है, कि इनकी खेती करने से खेत की उर्वरक क्षमता को भी प्रोत्साहन मिलता है, जिससे किसान अगली फसल में मुनाफा उठा सकते हैं। वहीं, इसके प्रतिदिन सेवन से पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता में भी इजाफा होता है।

मक्का 

पशुओं के लिए पशुपालक हरा चारा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से मक्के की संकर मक्का गंगा-2, गंगा-7, विजय कम्पोजिट जे 1006 अफ्रीकन टॉल, प्रताप चारा-6 आदि जैसी प्रमुख मक्का की उन्नत किस्मों की खेती कर सकते हैं।

ज्वार

गर्मी के मौसम में पशुओं के लिए हरे चारे की किल्लत को दूर करने के लिए ज्वार की पूसा चरी 23, पूसा हाइब्रिड चरी-109, पूसा चरी 615, पूसा चरी 6, पूसा चरी 9, पूसा शंकर- 6, एस. एस. जी. 59-3 (मीठी सूडान), एम.पी. चरी, एस.एस. जी.-988-898, एस. एस. जी. 59-3, • जे.सी. 69. सी. एस. एच. 20 एमजी, हरियाणा ज्वार- 513 जैसी विशेष किस्मों की खेती कर सकते हैं। 

लोबिया 

लोबिया एक वार्षिक जड़ी-बूटी वाली फलियां हैं, जिसकी खेती बीजों अथवा चारे के लिए की जाती है। इसकी पत्तियाँ अंडाकार पत्तों वाली त्रिकोणीय होती हैं, जो 6-15 सेमी लंबी और 4-11 सेमी चौड़ाई वाली होती हैं। 

लोबिया के फूल सफेद, पीले, हल्के नीले या बैंगनी रंग के होते हैं। इसकी फली जोड़े में पाई जाती हैं। इसकी प्रति फली में 8 से 20 बीज होते हैं। इसके साथ ही बीज सफेद, गुलाबी, भूरा या काला होता है।

जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

जाने काजू की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

काजू भारत का एक लोकप्रिय नट है। काजू  लगभग एक इंच मोटा होता ह।  काजू एक प्रकार का पेड़ होता है ,जिसका उपयोग सूखे मेवे के रूप में किया जाता है। काजू दो परतो के साथ एक शेल के अंदर घिरा हुआ होता है ,और यह शेल चिकना और तैलीय होता है। काजू का उत्पादन भारत जैसे देश के कई राज्यों में किया जाता है। जैसे : पश्चिम बंगाल , तमिल नाडू , केरला , उड़ीसा, महाराष्ट्र और गोवा।

कब और कैसे करें काजू की खेती 

काजू की खेती किसानों द्वारा अप्रैल और मई माह में की जाती है। किसानों द्वारा काजू की खेती के लिए सबसे पहले भूमि को तैयार किया जाता है। इसमें भूमि पर होने वाले अनावश्यक पौधे और झाड़ियों को उखाड़ दिया जाता है। इसके बाद खेत में 3 -4  बार जुताई की जाती है , जुताई की जाने के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। उसके बाद भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने के बाद किसानों द्वारा गोबर खाद का भी प्रयोग किया जाता है। आवश्यकतानुसार , किसानों द्वारा खेत में गोबर की खाद डालकर , खेत की अच्छे से जुताई की जाती है।

कैसे करें बुवाई 

किसानों द्वारा काजू के पौधे की बुवाई के लिए खेत में 15 -20  से मी की दूरी पर खेत में गढ्डे बनाये जाते है। गड्डो को कम से कम 15  -20 दिनों के लिए खाली छोड़ दिया जाता है। उसके बाद गड्डो में डीएपी और गोबर की खाद को ऊपरी मिट्टी में मिलाकर अच्छे से भर दिया जाता है। ध्यान रखे गड्डो के पास की भूमि ऐसी न हो जहाँ  पानी भरने की समस्या उत्पन्न हो , उससे काजू के पौधे पर काफी प्रभाव पड सकता है। 

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काजू के पौधो को वैसे वर्षा काल में लगाना ही बेहतर माना जाता है। बुवाई के बाद खेत में होने वाली खरपतवार को रोकने के लिए किसानों द्वारा समय समय नराई और गुड़ाई का काम किया जाता है। 

काजू की उन्नत किस्में

काजू की विभिन्न किस्में इस प्रकार है , जिनका उत्पादन किसानों द्वारा किया जा सकता है। वेगुरला-4 , उल्लाल -2 , उल्लाल -4 , बी पी पी -1 , बी पी पी -2 , टी -40 यह सब काजू की प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकता है।  इन किस्मो का ज्यादातर उत्पादन मध्य प्रदेश , केरला , बंगाल , उड़ीसा और कर्नाटकजैसे राज्यों में किया जाता है।

काजू की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु और मृदा 

काजू की खेती के लिए वैसे सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। काजू का ज्यादातर उत्पादन वर्षा वाले क्षेत्रों में किया जाता है , इसीलिए काजू की खेती के लिए समुद्र तटीय ,लाल और लेटराइट मिट्टी को बेहतर माना गया है। काजू का मुख़्यत उत्पादन झारखंड राज्य में किया जाता है ,क्योकि यहां की मृदा और जलवायु को काजू की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है।  काजू को उष्णकटिबंधीय फसल माना जाता है , इसीलिए ,इसके उत्पादन के लिए गर्म और उष्ण जलवायु के आवश्यकता होती है।

काजू की खेती में उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

काजू की खेती के अधिक उत्पादन के लिए किसान गोबर खाद के साथ साथ यूरिया , पोटाश और फास्फेट का  उपयोग कर सकते है। पहले वर्ष में किसानों द्वारा 70  ग्राम फॉस्फेट, 200 ग्राम यूरिया और 300 ग्राम यूरिया का प्रयोग किया जाता है।  कुछ समय बाद , फसल के बढ़वार के साथ इसकी मात्रा दुगनी कर देनी चाहिए।  किसानों द्वारा समय पर कीट और खरपतवार की समस्या को भी खेत में देखते रहना चाहिए।

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काजू के अच्छे उत्पादन के लिए किसानों को समय समय पर पेड़ों की काँट-छाँट करते रहना चाहिए। यह सब काजू के पेड़ को अच्छा ढाँचा देने के लिए आवश्यक है। किसानों द्वारा काजू के पेड़ों की जाँच करते रहना चाहिए , और समय समय पर पेड़ में सूखने वाली टहनियों या रोगग्रस्त टहनियों को निकाल दिया जाना चाहिए। काजू की फसल में लगने वाले बहुत से कीट ऐसे होते है , जो काजू के पेड़ में आने वाली नयी कोपलों और पत्तियों  का रस चूसकर पौधे को झुलसा देती है।

काजू की फसल की तुड़ाई कब की जाती है 

काजू की फसल लगभग फेब्रुअरी से अप्रैल माह तक तैयार होती है। काजू की पूरी  फसल की तुड़ाई नहीं की जाती है , केवल गिरे हुए नट को ही इकट्ठा किया जाता है। नट को इकट्ठा करने के बाद , उन्हें धुप में अच्छे से सुखाया जाता है। धुप में अच्छे से सुखाने के बाद किसानो द्वारा उन्हें जूट के बोरों में भर दिया जाता है। इन बोरों को किसी ऊँचे स्थान पर रखा जाता है , ताकि फसल को नमी से दूर रखा जा सके।

काजू का वानस्पातिक नाम अनाकार्डियम ऑक्सिडेंटले एल है।  काजू में पोषक तत्व के साथ बहुत से न्यूट्रिशनल गुण भी पाए जाते है। जो की स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होते है।  काजू का उपयोग दिमाग की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए भी किया जाता है।  जिन व्यक्तियों को हड्डियों , मधुमेह और हीमोग्लोबिन से जुडी समस्याएं है , उनमे भी काजू लाभकारी सिद्ध  हुआ है।

काजू की अब तक 33 किस्मो की पहचान की गयी है , लेकिन सिर्फ 26  प्रकार की ही किस्मो को बाजार में बेचा जाता है। जिनमे से डब्ल्यू -180 की किस्म को "काजू का राजा "माना जाता है , क्योंकि इसमें बहुत से बायोएक्टिव कम्पाउंड पाए जाते है ,जो हमारे शरीर में होने वाले रक्त की कमी को पूरा करते है , कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में सहायक रहते है , शरीर में होने वाले दर्द और सूजन में लाभकारी होता है।

किसानों के लिए जैविक खेती करना बेहद फायदेमंद, जैविक उत्पादों की बढ़ रही मांग

किसानों के लिए जैविक खेती करना बेहद फायदेमंद, जैविक उत्पादों की बढ़ रही मांग

जैविक खेती से कैंसर दिल और दिमाग की खतरनाक बीमारियों से लड़ने में भी सहायता मिलती है। प्रतिदिन कसरत और व्यायाम के साथ प्राकृतिक सब्जी और फलों का आहार आपके जीवन में बहार ला सकता है।

ऑर्गेनिक फार्मिंग मतलब जैविक खेती को पर्यावरण का संरक्षक माना जाता है। कोरोना महामारी के बाद से लोगों में स्वास्थ्य के प्रति काफी ज्यादा जागरुकता पैदा हुई है। बुद्धिजीवी वर्ग खाने पीने में रासायनिक खाद्य से उगाई सब्जी के स्थान पर जैविक खेती से उगाई सब्जियों को प्राथमिकता दे रहा है।

बीते 4 वर्षों में दो गुना से ज्यादा उत्पादन हुआ है

भारत में विगत चार वर्षों से जैविक खेती का क्षेत्रफल यानी रकबा बढ़ रहा है और दोगुने से भी ज्यादा हो गया है। 2019-20 में रकबा 29.41 लाख हेक्टेयर था, 2020-21 में यह बढ़कर 38.19 लाख हेक्टेयर हो गया और पिछले साल 2021-22 में यह 59.12 लाख हेक्टेयर था।

कई गंभीर बीमारियों से लड़ने में बेहद सहायक

प्राकृतिक कीटनाशकों पर आधारित जैविक खेती से कैंसर और दिल दिमाग की खतरनाक बीमारियों से लड़ने में भी मदद मिलती है। प्रतिदिन कसरत और व्यायाम के साथ प्राकृतिक सब्जी और फलों का आहार आपके जीवन में शानदार बहार ला सकता है।

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भारत की धाक संपूर्ण वैश्विक बाजार में है 

जैविक खेती के वैश्विक बाजार में भारत तेजी से अपनी धाक जमा रहा है। इतनी ज्यादा मांग है कि सप्लाई पूरी नहीं हो पाती है। आने वाले वर्षों में जैविक खेती के क्षेत्र में निश्चित तौर पर काफी ज्यादा संभावनाएं हैं। सभी लोग अपने स्वास्थ को लेकर जागरुक हो रहे हैं। 

जैविक खेती इस प्रकार शुरु करें 

सामान्य तौर पर लोग सवाल पूछते हैं, कि जैविक खेती कैसे आरंभ करें ? जैविक खेती के लिए सबसे पहले आप जहां खेती करना चाहते हैं। वहां की मिट्टी को समझें। ऑर्गेनिक खेती शुरू करने से पहले किसान इसका प्रशिक्षण लेकर शुरुआत करें तो चुनौतियों को काफी कम किया जा सकता है। किसान को बाजार की डिमांड को समझते हुए फसल का चयन करना है, कि वह कौन सी फसल उगाए। इसके लिए किसान अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या कृषि विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों से मशवरा और राय अवश्य ले लें।

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

पशुओं में कुपोषण की वजह से बांझपन की बीमारियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं। खास कर गोवंश में देखी जा रही है। गोवंश में बांझपन के बढ़ते मामलों के का सबसे बड़ा कारण कुपोषण है। इसका मतलब है, कि पशुओं को पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा है। इस गंभीर समस्या से किसानों के साथ-साथ पशुपालन से संबंधित समस्त संस्थाऐं भी काफी परेशान हैं। सरदार बल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय वेटनरी कॉलेज के अधिष्ठाता डॉ राजीव सिंह ने बताया है, कि व्यस्क पशुओं में कम वजन व जननागों के अल्प विकास से पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी देखने को मिल रही है। जैसा कि उपरोक्त में बताया गया है, कि इसका मुख्य कारण कुपोषण है। इफ्को टोकियो जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड के वित्तीय सहयोग से कृषि विश्व विद्यालय और पशुपालन विभाग द्वारा मेरठ के ग्राम बेहरामपुर मोरना ब्लॉक जानी खुर्द में निशुल्क पशु स्वास्थ्य शिविर का आयोजन कुलपति डॉ के.के. सिंह एवं पशुपालन विभाग के अपर निदेशक डॉ अरुण जादौन के निर्देश में हुआ है।

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इस उपलक्ष्य पर परियोजना के मार्ग दर्शक डॉ राजवीर सिंह ने कहा है, कि मादा पशुओं को संतुलित आहार के साथ-साथ प्रोटीन और खनिज मिश्रण जरूर देना चाहिए। जिसकी सहायता से उनकी गर्भधारण क्षमता बरकरार रहे। परियोजना प्रभारी डॉ अमित वर्मा का कहना है, कि पशुओं में खनिज तत्वों के अभाव की वजह से भूख ना लगना, बढ़वार एवं प्रजनन क्षमता में कमी जैसे समय पर गर्मी में ना आना, अविकसित संतानो की उत्पत्ति, दूध उत्पादन में कमी, एनीमिया इत्यादि समस्याऐं आ सकती हैं। बतादें, कि पशुओं को प्रतिदिन 30 - 50 ग्राम मिनरल मिक्सचर पाउडर पशु आहार के लिए जरूर देना चाहिए। पशु स्वास्थ्य शिविर में पशु चिकित्सा महाविद्यालय कॉलेज मेरठ के विशेषज्ञों इनमें डॉ. अमित वर्मा, डॉ अरविन्द सिंह, डॉ अजीत कुमार सिंह, डॉ विकास जायसवाल, डॉ प्रेमसागर मौर्या, डॉ आशुतोष त्रिपाठी और डॉ रमाकांत इत्यादि की टीम के द्वारा 157 पशुओं को कृमिनाशक, बाँझपन प्रबंधन, गर्भावस्था निदान, रक्त व गोबर की जाँच जैसी पशु चिकित्सा सेवाएं और तदानुसार मुफ्त दवाएं भी प्रदान की गईं। पशु चिकित्साधिकारी डॉ रिंकू नारायण एवं डॉ विभा सिंह ने पशुपालन के लिए सरकार की तरफ से दिए जाने वाले किसान क्रेडिट कार्ड तथा सब्सिड़ी योजनाओं के संबंध में जानकारी प्रदान की। प्रशांत कौशिक ग्राम प्रधान समेत अन्य ग्रामवासियों ने शिविर के आयोजन हेतु कृषि विवि की कोशिशों की सराहना करते हुए धन्यवाद व्यक्त किया।

मशरूम उत्पादन हेतु तीन बेहतरीन तकनीकों के बारे में जानें

मशरूम उत्पादन हेतु तीन बेहतरीन तकनीकों के बारे में जानें

किसान भाइयों यदि आप भी मशरूम की पैदावार से शानदार कमाई करना चाहते हैं, तो मशरूम उगाने की ये तीन शानदार तकनीक आपके लिए अत्यंत सहयोगी साबित हो सकती हैं। हम जिन तकनीक की बात कर रहे हैं, वह शेल्फ तकनीक, पॉलीथीन बैग तकनीक और ट्रे तकनीक हैं। इस लेख में आगे हम इन्हीं तकनीकों पर चर्चा करेंगे। 

भारत के कृषकों के लिए मशरूम एक नकदी फसल है, जो उन्होंने कम लागत में बेहतरीन मुनाफा कमाकर प्रदान करती है। इन दिनों देश-विदेश के बाजार में मशरूम की मांग सर्वाधिक है, जिसके चलते बाजार में इनकी कीमत में भी अच्छी खासी वृद्धि देखने को मिल रही है। ऐसे में कृषक अपने खेत में यदि मशरूम की खेती करते हैं, तो वह अच्छा-खासा मोटा मुनाफा हांसिल कर सकते हैं। इसी कड़ी में आज हम कृषकों के लिए मशरूम की तीन बेहतरीन तकनीकों की जानकारी लेकर आए हैं, जिसकी सहायता से मशरूम की उपज काफी ज्यादा होगी।

मशरूम उत्पादन हेतु तीन बेहतरीन तकनीक निम्नलिखित हैं

मशरूम उगाने की शेल्फ तकनीक

मशरूम उगाने की इस शानदार तकनीक में किसान को सशक्त लकड़ी के एक से डेढ़ इंच मोटे तख्ते से एक शैल्फ निर्मित होता है, जिन्हें लोहे की कोणों वाली फ्रेमों से जोड़कर रखना पड़ता है। ध्यान रहे, कि मशरूम उत्पादन के लिए जिन फट्टे का उपयोग किया जा रहा है। वह काफी शानदार लकड़ी के होने अत्यंत जरूरी हैं, जिससे कि वह खाद व अन्य सामग्री का वजन सुगमता से उठा सकें। शेल्फ की चौड़ाई लगभग 3 फीट और साथ ही शैल्फों के मध्य का फासला डेढ़ फुट तक होना चाहिए। इस प्रकार से किसान मशरूम की शैल्फों को एक दूसरे के ऊपर लगभग पांच मंजिल तक मशरूम को उत्पादित किया जा सकता है। 

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मशरूम उगाने की पॉलीथीन बैग तकनीक 

मशरूम उगाने की पॉलीथीन बैग तकनीक कृषकों के द्वारा सर्वाधिक अपनाई जाती है। इस तकनीक में कृषकों को ज्यादा परिश्रम करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। यह तकनीक एक कमरे में सहजता से की जा सकती है। पॉलीथीन बैग तकनीक में 25 इंच लंबाई और 23 इंच चौड़ाई वाले 200 गेज माप के पॉलीथीन के लिफाफों की ऊंचाई 14 से 15 इंच और मशरूम उत्पादन करने का 15 से 16 इंच का व्यास होता है। ताकि मशरूम का काफी बेहतर ढ़ंग से विकास हो सके। 

मशरूम उगाने की ट्रे तकनीक

मशरूम उगाने की यह तकनीक बेहद सुगम है। इसमें तकनीक की सहायता से कृषक मशरूम को एक जगह से दूसरी जगह पर सहजता से ले जा सकते हैं। क्योंकि इसमें मशरूम की पैदावार एक ट्रे के जरिए से की जाती है। मशरूम उगाने के लिए एक ट्रे का आकार 1/2 वर्ग मीटर और 6 इंच तक गहरी होता है। ताकि उसमें 28 से 32 किग्रा तक खाद सुगमता से आ पाऐ। 

सरसों के फूल को लाही कीड़े और पाले से बचाने के उपाय

सरसों के फूल को लाही कीड़े और पाले से बचाने के उपाय

सरसों की फसल को आम तौर पर बहुत ही आसान, कम खर्चीली व कम देखरेख वाली फसल बताया जाता है लेकिन कोई भी फसल बिना देखरेख वाली नहीं होती है। देखरेख में जरा सी लापरवाही से फसल को भारी नुकसान हो जाता है। किसान भाइयों आपके द्वारा की गयी मेहनत पर पानी भी फिर सकता है, उस वक्त आपके पास पछताने के अलावा कुछ नहीं रह जाता है। इसलिए हमें सरसों की फसल करते समय लापरवाही नहीं बरतना चाहिये यदि हमें सरसों की अच्छी फसल लेनी है तो बुआई से कटाई तक हमें हर समय फसल की हर जरूरत का ध्यान रखना होगा।

सरसों के फूलों को झड़ने से बचाने के उपाय करें

किसान भाइयों, मौजूदा समय में सरसों की फसल में फूलों के आने का समय है। इसके तत्काल बाद इस फसल में फलियों के आने का समय है। जिन किसान भाइयों ने सरसों की अगैती फसल की होगी तो इस समय फूलों के साथ फलियां भी आने लगीं होंगी। इस समय हमें फूलों को सुरक्षित रखने व उनसे अच्छी फलियां बनने के उपाय करने होंगे।

closeup of mustard flower

सरसों के खेती पर की गयी सारी मेहनत पर फिर सकता है पानी

वर्तमान समय में सरसों की फसल में कीट आक्रमण या सिंचाई प्रबंधन की कमी या खाद प्रबंधन की कमी से फूलों का झड़ना शुरू हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि फूलों के झड़ने से आपकी फसल कमजोर होने वाली है। दूसरे शब्दों में कहं तो किसान भाइयों आपकी बुआई से लेकर अब तक की गयी मेहनत पर पानी फिरने वाला है और इस समय जरा सी लापरवाही हुई तो आपका उत्पादन गिरने वाला है। इसलिये हमें इस समय कौन-कौन से उपाय करने चाहिये उपन ध्यान देना होगा। आइये हम इन्हीं बातों का जिक्र करते हैं।

सरसों की सिंचाई का करें सही प्रबंधन

किसान भाइयों, सरसों की फसल में सिंचाई जमीन की किस्म के आधार पर की जाती है। यदि आपकी खेत की मिट्टी भारी है तो सरसों की फसल में आपको दो बार सिचांई करने की आवश्यकता होती है। यदि आपके खेत की मिट्टी हल्की है तो आपको सरसों की फसल में तीन बार सिंचाई करनी होती है। इसके अलावा आप सिंचाई प्रबंधन सर्दियों में होने वाले बरसात को भी देखकर आवश्यकतानुसार कर सकते हैं। भारी व हल्की मिट्टी में दूसरी सिंचाई आपको फूलों के आने से पहले या जब खेत में फूल 50 से 60 प्रतिशत आ गये हों तब करना चहिये। इससे आपके खेत में सरसों की फसल के फूल झड़ने से बच जायेंगे और जब फलियां बनेंगी तब खेत में पर्याप्त नमी रहेगी।

गरम पानी से करें सरसों की सिंचाई

सिंचाई करते समय किसान भाइयों को एक बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि आप अपने फसल की सिंचाई नहर से कर रहे हों तो कोशिश करें कि आप अपने खेत की सिंचाई दिन में करें। दिन में करने से धूप से पानी गरम रहेगा तो पौधे पर सर्दी से होने वाला तनाव नहीं पड़ेगा। इसके अलावा यदि आपके पास नहर व ट्यूबवेल दोनों से ही सिंचाई की सुविधा है तो आपको अपने खेत की सिंचाई नहर की जगह ट्यूबवेल से करनी चाहिये ताकि पौधों को सर्दी में गरम पानी मिल सके। इससे आपके पौधों को काफी फायदा होगा।

जरूरत पड़ने पर करें सरसों का उर्वरक प्रबंधन

यदि आपने फूल आने से पहले खाद प्रबंधन के दौरान 20 किलो यूरिया और 3 किलो सल्फर प्रति एकड़ के हिसाब से डाला है तो फूल आने बाद आपको कुछ भी नहीं डालना है। खाद के अलावा आपको इस समय किसी तरह के कीट प्रबंधन के पदार्थो का भी प्रयोग नहीं करना है।

स्वस्थ सरसों के फूलों के लिए करें ये उपाय

सरसों के फूलों को मजबूती देने के लिए और स्वस्थ फलियों और उनमें मोटे दाने के लिए आप इस समय फसल में एनपीके 05234 तथा बोरोन का छिड़काव करना चाहिये। किसान भाइयों आप अपनी सरसों की फसल में फूल को अच्छी तरह से विकसित करने के लिए एनपीके 05234 प्रति एकड़ एक किलो और बोरोन 100 ग्राम को 100 से 150 लीटर पानी में डालकर छिड़काव करें तो फूलों के गिरने से बचाव हो सकता है। क्योंकि एनपीके 05234 में 34 प्रतिशत पोटाश होता है जो फूलों को गिरने से बचाने में सहायक होता है। बोरोना में फूल सेटिंग व सीट सेटिंग की अच्छी क्षमता होती है। इससे सरसों की फसल को काफी लाभ होता है।

पोटाश से होता है सरसों के फूलों का बचाव

पोटाश ट्रांसपोर्र्टर का काम करता है यानी यह पौधों के तनों, पत्तों, फूलों को आवश्यकतानुसार क्लोरोफिल, प्रोटीन, फाइबर हाइडेट वर्गरह पहुंचाता है। जो पौधे का मुख्य भोजन होता है। अच्छा भोजन मिलने से जब पौधा स्वस्थ होगा तो उसमें लगने वाले फूल भी स्वस्थ रहेंगे और जल्दी से नहीं गिरेंगे। जब फूल सुरक्षित रहेंगे तो उनसे अच्छी फलियां भी बनेंगी और फलियों में जब अच्छे दाने बनेंगे तो फसल अपने आप ही अच्छी होगी और उत्पादन बढेगा। कहने का मतलब किसान भाइयों को लाभ ही लाभ होगा।

Mustard crop, Sarso



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सरसों की फसल में कीट लगने पर करें ये काम

सरसों की फसल में फूल आने के वक्त एक खास प्रकार के कीट का हमला होता है, जिसे क्षेत्रीय भाषा में अलग अलग नाम से पुकारा जाता है, कोई लहि के नाम से जानता है तो कोई मोइला के नाम से जानता है। इस कीट के लगने से सरसों के फूल कमजोर हो जाते हें और उनका तेजी से झड़ना शुरू हो जाता है। किसान भाइयों को चाहिये कि वह इस कीट का हमला देखते ही सतर्क हो जायें और इसके प्रबंधन का उपाय करने लगें। इस कीट को समाप्त करने के लिए इमिडा क्लोग्रीड का इस्तेमाल करें काफी फायदा होगा। यह इमिडा मार्केट में अनेक कंपनियों की बनायी हुइ आसानी से मिल जाती है। आप अपने क्षेत्र के हिसाब से इसका चयन कर सकते हैं।

कम ओस या सर्दी में किये जाने वाला उपाय

जहां पर्याप्त ओस व ठण्ड न पड्ने से पौधे कमजोर हो जाते हें और उनमें फूल नहीं आता या कम आता है और यदि आता भी है तो झड़ जाता है। तो उसके लिए सिंचाई प्रबंधन व खाद प्रबंधन करना चाहिये। दूसरी सिंचाई के समय यूनिया व सल्फर डालना चाहिये। लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि जब खेत में 10 से 15 प्रतिशत फूल आये हों तब सिंचाई खाद नहीं डालनी चाहिये बल्कि जब खेत में 50 से 60 प्रतिशत फूल आ गये हों तभी सिंचाई करके उर्वरक डालने चाहिये।

अधिक ठंड व पाला से बचाव इस प्रकार करें

यदि मौसम का मिजाज बिगड़ जाये तो किसान भाइयों तब भी सरसों की फसल प्रभावित हो जाती है। उसके फूल कम विकसित होते हैं और यदि फूल का विकास हो भी जाता है तो फलियों का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है। फलियां पतली रह जातीं है, उनमें दाने कम बनते हैं और पतले भी बनते हैं। इससे उत्पादन पूरी तरह से प्रभावित होता है। किसान भाइयों को चाहिये कि अंधिक ठंड और पाला से भी सरसों की फसल को बचाना चाहिये। उसके लिए हमें डस्ट वाले सल्फर का प्रयोग करना चाहिये या इसकी जगह आप गुड़ का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सबसे अच्छा सफेद पाउडर वाले थायो यूरिया का प्रयोग करना चाहिये। किसान भाइयों सल्फर में पाला से बचाने की क्षमता होती है साथ ही साथ 15 प्रतिशत तक फसल पैदावार बढ़ाने की क्षमता होती है। गुड़ गरम होता है तो उसके प्रयोग से पाला से पूरी तरह से बचाव हो जाता है और फसल अच्छी हो जाती है। सर्दी और पाले से बचाव के लिए सबसे अच्छा थायो यूरिया को माना जाता है। सफेद पाउडर के रूप में मिलने वाले थायो यूरिया को 100 ग्राम प्रति एकड़ में 150 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से पाला भी बचता है और फसल की पैदावार भी बढ़ती है।  

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सरसों की फसल में सफेद रतवे का प्रबंधन

सरसों की फसल में सफेद रतवे का प्रबंधन

सरसों की फसल कई रोगों से प्रभावित होती है। जिससे की किसानो को कम पैदावार प्राप्त होती है। सफेद रतवे (White Rust) रोग से फसल को अधिक नुकसान होता है। आज इस लेख में हम आपको सफेद रतवे (White Rust) की रोकथाम के बारे में जानकारी देंगे जिससे की आप समय से फसल में इस बीमारी का नियंत्रण कर सके। 

सरसों की फसल में सफेद रतवे (White Rust) से बचाव के लिए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश निम्नलिखित हैं:

सही बीज बुवाई :

 सबसे पहले आपको ध्यान देना है कि फसल की बुवाई के लिए स्वस्थ बीजों का चयन करें जो रोगों से मुक्त हों। स्वस्थ बीजों का चयन करने से फसल में ये रोग नहीं आएगा।   

फसल की समय पर बोना:

 समय पर सरसों की बुवाई की जानी चाहिए ताकि फसल में बीमारी का प्रसार कम हो। देरी से बुवाई की गयी फसल में अधिक रोग का खतरा होता है। कई बार रोग अधिक लग जाता है जिससे आधी पैदावार कम हो जाती है। 

समुचित जल सिंचाई:

जल सिंचाई को समुचित रूप से प्रबंधित करें ताकि पौधों पर पानी जमा नहीं हो, जिससे सफेद रतवे का प्रसार कम हो। फसल में अधिक नमी होने के कारण भी रोग अधिक लगता है। 

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उचित फफूंदनाशकों का प्रयोग:

सरसों की सफेद रतवे के खिलाफ उचित फफूंदनाशकों का प्रयोग करें। कृषि विज्ञानी से सलाह लें और सुरक्षित रोगनाशकों का चयन करें। सफेद रतवा के नियंत्रण के लिए खड़ी फसल में मैंकोजेब(एम 45) फफुंदनाशक 400 से 500ग्राम को 200/250 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतर पर कम से कम 2 छिड़काव अवश्य करें जिससे सफेद रतवा का नियंत्रण संभव हो सकता है।

फसल की देखभाल:

 फसल की देखभाल के लिए समय समय पर पौधों की सुरक्षा और मूल से देखभाल करें।

प्रभावित पौधों का हटाएं:

यदि किसी पौधे पर सफेद रतवे के प्रमुख संकेत हैं, तो उन्हें तुरंत उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें ताकि बीमारी और फैलने से बचा जा सके।उचित तकनीकी तरीके का प्रयोग करें, जैसे कि स्थानीय परिस्थितियों, जलवायु और मौसम की विशेषताओं के आधार पर सिंचाई और पोषण का प्रबंधन करें।इन उपायों का अनुसरण करके, सरसों की फसल में सफेद रतवे से बचाव किया जा सकता है। ध्यान रहे कि स्थानीय कृषि विभाग या कृषि विज्ञानी से सलाह लेना हमेशा उत्तम होता है ताकि आपको विशेष रूप से अपने क्षेत्र के लिए सबसे उपयुक्त नियंत्रण उपायों की जानकारी मिले।

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

गन्ना किसानों के लिए 10 उन्नत किस्में बाजार में उपलब्ध की गई हैं। बतादें, कि गन्ने की इन उन्नत किस्मों की खेती आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, यूपी, हरियाणा, मध्य प्रदेश और पंजाब के किसान बड़ी सुगमता से कर सकते हैं। चलिए आज हम आपको इस लेख में गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के संबंध में विस्तार से जानकारी प्रदान करेंगे। भारत में गन्ना एक नकदी फसल है। गन्ने की खेती किसान वाणिज्यिक उद्देश्य से भी किया करते हैं। बतादें, कि किसान इससे चीनी, गुड़, शराब एवं इथेनॉल जैसे उत्पाद भी तैयार किए जाते हैं। साथ ही, गन्ने की फसल से तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों के किसानों को बेहतरीन कमाई भी होती है। किसानों द्वारा गन्ने की बुवाई अक्टूबर से नवंबर माह के आखिर तक और बसंत कालीन गन्ने की बुवाई फरवरी से मार्च माह में की जाती है। इसके अतिरिक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गन्ना फसल को एक सुरक्षित फसल माना गया है। इसकी वजह यह है, कि गन्ने की फसल पर जलवायु परिवर्तन का कोई विशेष असर नहीं पड़ता है।

भारत सरकार ने जारी की गन्ने की 10 नवीन उन्नत किस्में

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के पश्चात गन्ने की 10 नवीन किस्में जारी की हैं। इन किस्मों को जारी करने का प्रमुख लक्ष्य गन्ने की खेती करने के लिए गन्ने की उन्नत किस्मों को प्रोत्साहन देना है। इसके साथ ही गन्ना किसान ज्यादा उत्पादन के साथ बंपर आमदनी अर्जित कर सकें।

जानिए गन्ने की 10 उन्नत किस्मों के बारे में

गन्ने की ये समस्त उन्नत किस्में ओपन पोलिनेटेड मतलब कि देसी किस्में हैं। इन किस्मों के बीजों की उपलब्धता या पैदावार इन्हीं के जरिए से हो जाती है। इसके लिए सबसे बेहतर पौधे का चुनाव करके इन बीजों का उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन किस्मों के बीजों का एक फायदा यह भी है, कि इन सभी किस्मों का स्वाद इनके हाइब्रिड किस्मों से काफी अच्छा होता है। आइए अब जानते हैं गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के बारे में।

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इक्षु -15 (सीओएलके 16466)

इक्षु -15 (सीओएलके 16466) किस्म से बेहतरीन उत्पादन हांसिल होगा। यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

राजेंद्र गन्ना-5 (सीओपी 11438)

गन्ने की यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के लिए अनुमोदित की गई है।

गन्ना कंपनी 18009

यह किस्म केवल तमिलनाडु राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

सीओए 17321

गन्ना की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

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सीओ 11015 (अतुल्य)

यह किस्म बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा उत्पादन देती है। क्योंकि इसमें कल्लों की संख्या ज्यादा निकलती है। गन्ने की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की जलवायु के अनुकूल है।

सीओ 14005 (अरुणिमा)

गन्ने की उन्नत किस्म Co 14005 (Arunima) की खेती तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

फुले गन्ना 13007 (एमएस 14082)

गन्ने की उन्नत किस्म Phule Sugarcane 13007 (MS 14082) की खेती तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

इक्षु -10 (सीओएलके 14201)

गन्ने की Ikshu-10 (CoLK 14201) किस्म को आईसीएआर के द्वारा विकसित किया गया है। बतादें, कि किस्म के अंदर भी लाल सड़न रोग प्रतिरोध की क्षमता है। यह किस्म राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य), उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र), पंजाब, हरियाणा की जलवायु के अनुरूप है।

इक्षु -14 (सीओएलके 15206) (एलजी 07584)

गन्ने की Ikshu-14 (CoLK 15206) (LG 07584) किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य) और उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र) के किसान खेती कर सकते हैं।

सीओ 16030 (करन 16)

गन्ने की किस्म Co-16030, जिसको Karan-16 के नाम से भी जाना जाता है। इस किस्म को गन्ना प्रजनन संस्थान, करनाल के वैज्ञानिकों की ओर से विकसित किया गया है। यह किस्म उच्च उत्पादन और लाल सड़न रोग प्रतिरोध का एक बेहतरीन संयोजन है। इस किस्म का उत्पादन उत्तराखंड, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
चुकंदर की खेती के लिए भूमि प्रबंधन, उन्नत किस्में व मृदा और जलवायु

चुकंदर की खेती के लिए भूमि प्रबंधन, उन्नत किस्में व मृदा और जलवायु

भारत के अंदर अधिकतर लोग चुकंदर खाना काफी पसंद करते हैं। किसी को चुकंदर सलाद के रूप में तो किसी को जूस के रूप में चुकंदर काफी अच्छा लगता है। 

हालांकि, बहुत सारे लोग इसका जूस पीना भी काफी पसंद करते हैं। बतादें, कि चुकंदर में पोटेशियम, विटामिन सी, फोलेट, विटामिन बी9, मैंगनीज और मैग्नीशियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है। 

इसका सेवन करने से शरीर में रक्त की कमी नहीं होती है। यही कारण है, कि इसकी बाजार में मांग सदैव बरकरार बनी रहती है। अब ऐसे में यदि किसान भाई चुकंदर की खेती करते हैं, तो उनको एक शानदार और अच्छी कमाई आसानी से प्राप्त हो सकती है।

मुख्य बात यह है, कि चुकंदर औषधीय गुणों से भरपूर होता है। इस वजह से इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार में भी किया जाता है। साथ ही, इससे बहुत प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियां भी तैयार की जाती हैं। 

बाजार में इसका भाव हमेशा 30 से 40 रुपये किलो तक रहता है। अब ऐसी स्थिति में यदि किसान भाई चुकंदर की खेती करने की योजना बना रहे हैं, तो उनके लिए यह काफी अच्छी खबर है। यदि वैज्ञानिक विधि के माध्यम से चुकंदर की खेती की जाए, तो किसानों को बंपर पैदावार मिलेगी।

चुकंदर की सबसे लोकप्रिय व उन्नत किस्में कौन-सी हैं ?

बलुई दोमट मृदा में चुकंदर की खेती करने पर काफी बेहतरीन उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6 से 7 के मध्य उचित माना गया है। 

वहीं, गर्मी, बारिश और सर्दी किसी भी मौसम में इसकी आसानी से खेती की जा सकती है। यदि किसान भाई गर्मी के मौसम में चुकंदर की खेती करने की योजना बना रहे हैं, तो सर्वप्रथम अच्छी और बेहतरीन किस्मों का चयन करें। 

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अर्ली वंडर, मिस्त्र की क्रॉस्बी, डेट्रॉइट डार्क रेड, क्रिमसन ग्लोब, रूबी रानी, रोमनस्काया और एमएसएच 102 चुकंदर की सबसे लोकप्रिय किस्में हैं। इन किस्मों की खेती करने पर किसान को बंपर पैदावार हांसिल होती है। 

चुकंदर की बुवाई एवं भूमि प्रबंधन इस तरह करें 

चुकंदर की बुवाई करने से पूर्व खेत की कई बार जुताई की जाती है। उसके बाद 4 टन प्रति एकड़ की दर से खेत में गोबर की खाद डालें और पाटा लगाकर जमीन को एकसार कर दें। अब इसके बाद क्यारी बनाकर चुकंदर की बुवाई करें।

विशेष बात यह है, कि छिटकवां और मेड़ विधि से चकुंदर की बुवाई की जाती है। अगर आप छिटकवां विधि से चुकंदर की बुवाई कर रहे हैं, तो आपको एक एकड़ में 4 किलो बीज की आवश्यकता पड़ेगी। 

वहीं, यदि आप मेड़ विधि से बुवाई करते हैं तो किसान को कम बीज की आवश्यकता पड़ती है। मेड़ विधि में पहले 10 इंच ऊंची मेड़ बनाई जाती है। अब इसके बाद मेड़ पर 3-3 इंच की दूर पर बीजों को बोया जाता है। 

बुवाई के कितने दिन बाद फसल पूर्णतय तैयार हो जाती है ?

बतादें, कि चुकंदर एक कंदवर्गीय श्रेणी में आने वाली फसल है। इसलिए समय-समय पर इसकी निराई- गुड़ाई की जाती है। साथ ही, आवश्यकता के अनुरूप सिंचाई भी करनी पड़ती है। 

बुवाई करने के 120 दिन पश्चात फसल पककर तैयार हो जाती है। अगर आपने एक हेक्टेयर में खेती कर रखी है, तो 300 क्विंटल तक उपज मिलेगी। यदि 30 रुपये किलो के हिसाब से चुकंदर बेचते हैं, तो इससे आसानी से लाखों रुपये की आय होगी।

वैज्ञानिकों ने तैयार की अरहर की नई किस्म, कम जल खपत में देगी अधिक उपज

वैज्ञानिकों ने तैयार की अरहर की नई किस्म, कम जल खपत में देगी अधिक उपज

राजस्थान राज्य में स्थित कोटा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक ने अरहर की नई किस्म तैयार करली है। इस किस्म में कम पानी की आवश्यकता पड़ेगी, साथ ही आमदनी में भी इजाफा देखने को मिलेगा। देश के किसान दलहन, तिलहन एवं अन्य बागवानी फसलों का उत्पादन करके मोटी आय कर लेते हैं। आए दिन प्रदूषण में होने वाली वृद्धि के साथ-साथ खराब होती जलवायु का प्रभाव फसलों की पैदावार पर भी देखने को मिला है। अच्छी खेती के लिए अच्छा बीज होना भी अत्यंत आवश्यक है। बीज उत्पादकता बढ़ाने, कम जल खपत और बाकी गुणवत्ताओं से युक्त होना चाहिए। इस विषय को लेकर कृषि वैज्ञानिक निरंतर उन्नत किस्म के बीज विकसित करने के लिए शोध में लगे रहते हैं। हाल ही, में ऐसा ही शोध वैज्ञानिकों की तरफ से किया गया है। बतादें, कि अरहर के उन्नत बीज से देश के किसान अंधाधुंध कमाई कर सकेंगे। नवीन प्रजाति के आने से किसान काफी प्रशन्न हैं। 

वैज्ञानिकों ने अरहर की नई प्रजाति एएल-882 तैयार की है

भारत के अंदर बड़ी तादात में किसान दलहन फसलों की बुवाई करते हैं। मीडिया खबरों के मुताबिक, कोटा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक अरहद की नवीन किस्म को तैयार करने के लिए विगत 2 वर्षों से नई प्रजाति विकसित करने में जुटे हुए थे। अब जाकर वैज्ञानिकों के हाथ सफलता लग पाई है। वैज्ञानिकों ने अरहर की नई किस्म एएल-882 तैयार की है। इस प्रजाति के दानों का वजन सिर्फ 8 से 9 ग्राम के आसपास ही है। 

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इस किस्म से 16 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक

मुख्य बात यह है, कि अरहर के बीजों का वजन भी कुछ ज्यादा नहीं होता है। इनका वजन मात्र 8 से 9 ग्राम तक ही होता है। अरहर की इस किस्म की खासियत यह है, कि इसका उत्पादन 16 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकता है। ज्यादा उत्पादन होने की वजह से किसानों को बेहतरीन आमदनी भी हो सकेगी। साथ ही, यह नई किस्म रोग प्रतिरोधक किस्म है। वहीं, अरहर की इस किस्म में होने वाला उखटा रोग भी नहीं हो पाएगा।

आईसीएआर ने भी स्वीकृति प्रदान की है

अरहर की इस किस्म को इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (icar) की तरफ से स्वीकृति भी दे दी गई है। किसान खेतों में इस किस्म के बीज का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इसके पौधों की ऊंचाई लगभग 200 से 210 सेमी होती है। दानों का रंग भूरा रहता है, अधिक पैदावार पाने के लिए फूल निकलने पर ही एनपीके घुलनशीन उर्वरक का नियमित मात्रा के अनुरूप छिड़काव किया जा सकता है।

बुवाई के बाद बाजरा की खेती की करें ऐसे देखभाल

बुवाई के बाद बाजरा की खेती की करें ऐसे देखभाल

बाजरा की  खेती की बुवाई जुलाई से अगस्त के बीच की जाती है। लेकिन किसान भाइयों को बुवाई के बाद भी फसल पर नजर रखनी होती है। यदि खेती की निगरानी अच्छी की गयी और खेती की जरूरत के हिसाब से देखभाल की गयी तो पैदावार अच्छी होती है। इससे किसान की आमदनी भी अच्छी हो जाती है। 

बुवाई के बाद सबसे पहले करें ये काम

बाजरे की पैदावार अच्छी बुवाई पर निर्भर करती है। यदि बीज अधिक बोया गया है और पौधों के बीच दूरी मानक के हिसाब से नही है तो पैदावार प्रभावित हो सकती है। यदि बीज कम हो बोया  गया हो तो उससे भी पैदावार प्रभावित होती है। इसलिये खेतों में बुवाई के समय ही एक क्यारी में अलग से बीज बो देने चाहिये ताकि जरूरत पड़ने पर क्यारी मे उगे पौधो की खेतों में रोपाई की जा सके। इसके लिए  बुवाई के बाद जब अंकुर निकल आयें तब किसानों को खेतों का निरीक्षण करना होगा। उस समय यह देखना चाहिये कि बुवाई के समय यदि बीज अधिक पड़ गया हो तो पेड़ों की छंटाई कर लेनी चाहिये। यदि पौधे कम हों या बीज कम अंकुरित हो सके हों तो पहले से तैयार क्यारी से पौधों को रोपना चाहिये।

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सिंचाई के प्रबंधन का रखें विशेष ध्यान

हालांकि बाजरा की बुवाई बरसात के मौसम होती है। बाजरा के बीजों को अंकुरित होने के लिए खेतों में नमी की आवश्यकता होती है। इसलिये  किसान भाइयों को बुवाई के बाद खेतों की बराबर निगरानी करनी होगी। यदि बुवाई के बाद वर्षा नही होती है तो  देखना होगा कि  खेत कहीं सूख तो नहीं रहा है। आवश्यकतानुसार सिंचाई करना चाहिये । आवश्यकता पड़ने पर दो से तीन बार सिंचाई करना चाहिये।  जब बाजरा में बाली या फूल आने वाला हो तब खेत की विशेष देखभाल करनी चाहिये। उस समय यदि वर्षा न हो रही हो और खेत सूख गया हो तो सिंचाई करनी चाहिये। इससे फसल काफी अच्छी हो जायेगी। 

जलजमाव हो तो करें पानी के निकालने का प्रबंध

बाजरा की खेती में किसान भाइयों को वर्षा के समय खेत की निगरानी करते समय यह भी ध्यान देना होगा कि कहीं खेत मे जलजमाव तो नहीं हो गया है। यदि हो गया हो तो पानी के निष्कासन की तत्काल व्यवस्था करनी चाहिये।  जलजमाव से भी फसल को नुकसान हो सकता है। बुवाई के बाद बाजरा की खेती की करें ऐसे देखभाल


खरपतवार को समाप्त करने के लिए करें समय-समय पर निराई गुड़ाई

बाजरे को खरपतवार से सबसे अधिक नुकसान पहुंचता है। चूंकि  इसकी खेती बरसात के मौसम में होती है तो किसान भाइयों को वर्षा के कारण खेत की देखभाल का समय नहीं मिल पाता है। इसके बावजूद किसान भाइयों को चाहिये कि वे बाजरा की खेती की अच्छी पैदावार के लिए खरपतवार का नियंत्रण करे। बुवाई के 15 दिन बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिये। उसके बाद एक माह बार निराई गुड़ाई करायें। फसल की बुवाई के दो माह बाद  निराई गुड़ाई करायें। इसके अलावा खरपतवार होने पर एट्राजीन  को पानी में घोल कर छिड़काव करायें।  किसान भाई ध्यान रखें कि एट्राजीन का छिड़काव निराई गुड़ाई करने से तीन-चार दिन पूर्व करना चाहिये। इससे काफी लाभ होता है। 

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बुवाई के बाद उर्वरक भी समय-समय पर दें

बाजरा की अच्छी पैदावार के लिए किसान भाइयों के बाद बुवाई के बाद खेतों को समय-समय पर उर्वरकों की उचित मात्रा देनी चाहिये। एकल कटाई के लिए बुवाई के एक माह बाद 40 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर देनी चाहिये। कई बार कटाई के लिए प्रत्येक कटाई के बाद 30 किलो नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर देनी चाहिये। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में 10-20 किलो जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देनी चाहिये। कई जगहों पर नाइट्रोजन की जगह यूरिया का प्रयोग किया जाता है। जहां पर यूरिया का प्रयोग किया जाता है वहां पर बुवाई से डेढ़ महीने के बाद 20 से 25 किलो यूनिया प्रति एकड़ के हिसाब से देना चाहिये। बाजरा में कीट एवं रोग प्रबंधन

कीट एवं रोग प्रबंध

बाजरे की खेती में अनेक कीट एवं रोग लगते हैं। किसान भाइयों को चाहिये कि खेतों में खड़ी फसल को कीटों एवं रोगों से बचाने के उपाय करने चाहिये। इसके लिए खेतों में खड़ी फसल की निरंतर निगरानी करते रहना चाहिये। जब भी जैसे ही किसी कीट या रोग का पता चले उसका उपाय करना चाहिये।  

आईये जानते हैं कि कौन-कौन से कीट व रोग बाजरा की खेती में लगते हैं और उन्हें कैसे रोका जा सकता है। 

दीमक : यह कीट बाजरा की खड़ी फसल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। यह कीट जड़ से लेकर पत्ते तक में लगता है। जब भी इस कीट का पता चले किसान भाइयों को तत्काल सिंचाई के पानी के साथ क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ईसी ढाई लीटर हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिये।  इसके अलावा नीम की खली का प्रयोग करना चाहिये, इसकी गंध से दीमक भाग जाती है।

तना छेदक कीट: यह कीट भी खड़ी फसल में लगता है। यह कीट पौधे के तने में लगता है और पूरे पौधे को चूस जाता है। इससे पौधे की बढ़वार रुक जाती है।  इससे बाजरे की फसल को बहुत नुकसान पहुंचता है। इस कीट का नियंत्रण करने के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 किलो अथवा फोरेट 10 प्रतिशत सीजी को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिये। 

हरित बालियां रोग: इस रोग के लगने के बाद बाजरा की बालियां टेढ़ी-मेढ़ी और बिखर जाती हैं।  इस रोग के दिखते ही खरपतवार निकाल कर जीरम 80 प्रतिशत डब्ल्यूपी 2.0 किलो को 500-600 पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। 

सफेद लट: यह लट पौधों की जड़ों को काट कर फसल को विभिन्न अवस्थाओं में नुकसान पहुचाती है।  सफेद लट के कीट प्रकाश के प्रति आकषिँत होते हैं। इसलिये प्रकाश पाश पर आकर्षित कर सभी को एकत्रित करके मिट्टी के तेल मिले पानी में डालकर नष्ट कर दें। 

हरी बाली रोग: यह रोग अंकुरण के समय से पौधों की बढ़वार के समय लगता है। इस रोग से पौधों की पत्तियां पीली पड़ जातीं हैं और बढ़वार रुक जाती है।  ऐसे रोगी पौधों को खेत से बाहर निकाल कर नष्ट करें और कीटनाशकों का इस्तेमाल करें। 

अरगट रोग: यह रोग बाजरा में बाली के निकलने के समय लगता है।  इससे फसल को काफी नुकसान होता है। इस रोग के लगने के बाद पौधां से गुलाबी रंग का चिपचिपा गाढ़ा रस निकलने लगता है। यह पदार्थ बाद में भूरे रंग का हो जाता है। यह बालियों में दानों की जगह भूरे रंग का पिंड बन जाता है। ये जहरीला भी होता है। इसकी रोकथाम के  लिए सबसे पहले खरपतवार हटायें। उसके बाद 250 लीटर पानी में 0.2 प्रतिशत मैंकोजेब मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें। लाभ मिलेगा। 

टिड्डियों का प्रकोप: बाजरा की खेती में पौध बड़ा होने के कारण इसमें टिड्डियों के हमले का खतरा बना रहता है।  हमला करने के बाद टिड्डी दल पौधे की सभी पत्तियों को खा जाता है और इससे पैदावार को भी नुकसान होता है।  जब भी टिड्डी दल का हमला हो तो किसान भाइयों को चाहिये कि इसकी रोकथाम के लिए खेत में फॉरेट का छिड़काव करें। 

बाजरे की कटाई

बाजरे की कटाई उस समय करनी चाहिये जब दाना पूरी तरह पक कर तैयार हो जाये। यह माना जाता है कि बुवाई के 80 दिन से लेकर 95 दिन के बीच दाना पूरी तरह से पक जाता है। उसके बाद बाजरा के पौधे की कटाई करनी चाहिये। उसके बाद इसके सिट्टों यानी बालियों को अलग करके उनमें से दाना निकालना चाहिये।