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मूंगफली की फसल में बुवाई और बीज दर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

मूंगफली की फसल में बुवाई और बीज दर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी

मूंगफली एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है जिसके लिए लंबे और गर्म मौसम की आवश्यकता होती है। मूंगफली की फसल अच्छी तरह से वितरित वर्षा के 50 से 125 सेमी वाले क्षेत्रों में उच्च उपज देती है। 

धूप की प्रचुरता और अपेक्षाकृत गर्म तापमान में फसल वृद्धि, फूल आने की दर और फली का विकास अच्छी तरह होता है । बीज के अंकुरण के लिए  मिट्टी का तापमान बहुत महत्वपूर्ण होता है। 

जब मिट्टी का तापमान 19 डिग्री सेल्सियस से नीचे चला जाता है, अंकुरण कम होता है। इसलिए बुवाई के समय पर मिट्टी के तापमान का ध्यान रखे। 

मूंगफली की किस्म के आधार पर पौधों की वृद्धि के लिए अनुकूलतम तापमान  26 से 30 ºC के बीच होना चाहिए। प्रजनन विकास 24-27 ºC तापमान पर अच्छा होता है। 

आज के इस लेख में हम यहां आपको मूंगफली की फसल में बुवाई और बीज दर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी जिससे की आप अच्छा मुनाफा कमा सकते है।

मूंगफली की बुवाई के तरीके  

बीजों को देशी सीड ड्रिल या मॉडर्न सीड ड्रिल की सहायता से लगभग 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए। कतार से कतार की दुरी 60 सेंटीमीटर की रखे।

स्प्रेड टाइप के लिए कतार से कतार 60 सेमी और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी और गुच्छे वाली किस्मों के लिए  45 सेमी x 10 सेमी  रखे। 

इस तरह फसल की बिजाई करने से  उपज को पर्याप्त रूप से बड़ोतरी होती है। अच्छी फसल लेने के लिए पौधे के चारों ओर उसकी बेहतर वृद्धि और विकास के लिए जगह प्रदान की जाती है।

मूंगफली की बुवाई सामान्यतया 30 सेमी x 10 सेमी के फासले वाली समतल क्यारियों में की जाती है। महाराष्ट्र और गुजरात के क्षेत्र में, मूंगफली की खेती की सेट फरो प्रणाली अभी भी किसानों द्वारा अपनाई जाती है।

सेट कुंड प्रणाली में, किसान मूंगफली के लिए साल दर साल एक ही कुंड (90 सेमी) का उपयोग करते हैं। 

बुवाई की क्रास विधि में कुल बीज लॉट को दो भागों में बांटा जाता है, पहला भाग अनुशंसित पंक्ति से पंक्ति की दूरी और दूसरी दिशा में अनुशंसित बीजों को एक दिशा में बोया जाता है। 

एक ही पंक्ति को अपनाते हुए पहली दिशा में सीधी बुवाई के लिए आधे भाग का उपयोग किया जाता है। बुवाई की यह विधि इष्टतम पौधों की आबादी को बनाए रखने में मदद करती है। 

ये प्रणाली जहां मूंगफली की खेती चावल की खेती से सफल होती है वहां फायदेमंद है। 

जोड़ीदार पंक्ति बुवाई पद्धति में, दो जोड़ी पंक्तियों को 45-60 सेमी की दूरी पर एक के साथ रखा जाता है। जोड़ी के भीतर 22.5-30 सेमी की दूरी राखी जाती है । इस पंक्तिबद्ध फसल विधि से भी लगभग 20% अधिक उपज मिलती है।

चौड़ी क्यारी और खांचे विधि उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में गहरे वर्टिसोल वाले क्षेत्रों में उपयोगी है। जहां अधिक पानी निकासी की समस्या है। 

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इस विधि में कूंड़ों में नमी जमा हो जाती है और वर्षा का पानी फसल द्वारा प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता है और फ्लैट बेड विधि की तुलना में लगभग 15% अधिक उपज देता है।

बीजों का चयन

फसल का इष्टतम जीवन स्थापित करने के लिए बीजों की गुणवत्ता का प्रमुख महत्व है। बीज प्रयोजनों के लिए फलियों को बिना छिलके वाली ठंडी, सूखी और अच्छी तरह हवादार जगह पर संग्रहित किया जाना चाहिए। 

बीज प्रयोजनों के लिए, फली को बुवाई के समय से 1 सप्ताह पहले हाथ से खोल देना चाहिए। सिकुड़े हुए, छोटे और रोगों ग्रषित बीज  को त्यागें दे। बुवाई के लिए मोटे बीजों का ही प्रयोग करना चाहिए ताकि अच्छी स्थिति प्राप्त हो सके।

बीज दर

बीज दर हमेशा दूरी, बीज के प्रकार और अंकुरण प्रतिशत पर निर्भर करती है। अनुशंसित पौधों की जनसंख्या को बनाए रखने के लिए इष्टतम बीज दर का उपयोग प्रमुख कारक है।

प्रसार प्रकार की किस्में: मूंगफली के आकार के अनुसार 30-40 किग्रा/एकड़ (GAUG-10) 80 किलोग्राम बीज/एकड़ की आवश्यकता होती है, जीजी-11 और एम 13 के लिए 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। 

बंच प्रकार की किस्में: मूंगफली के आकार के अनुसार 40 -50 किग्रा/एकड़ (जेएल 24 की आवश्यकता होती है) 50 किलोग्राम गिरी/एकड़ , जे 11 और जीजी 2 के लिए 100 किलोग्राम गिरी/ACER की आवश्यकता होती है।

बाजरा देगा कम लागत में अच्छी आय

बाजरा देगा कम लागत में अच्छी आय

बाजरा खरीफ की मुख्य फसल है लेकिन अब इसे रबी सीजन में भी कई इलाकों में लगाया जाता है। गर्मियों में इसमें रोग भी कम आते हैं और साल भर यह खाद्य सुरक्षा में भी योगदान दे पाता है। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि बाजरे की उन्नत खेती कैसे करें 

बाजरे की आधुनिक, वैज्ञानिक खेती

बाजरा कोस्टल क्राप है और किसी भी कोस्टल क्राप में पोषक तत्व गेहूं जैसी सामान्य फसलों के मुकाबले कहीं ज्यादा होते हैं। बाजरा की हाइब्रिड किस्मों का उत्पादन गेहूं की खेती से ज्यादा लाभकारी हो रहा हैं। कम पानी और उर्वरकों की मदद से इसकी खेती हो जाती है। अन्न के साथ साथ यह पशुओं को हरा और सूखा भरपूर चारा भी दे जाता है। बाजरे के दाने में 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.0 प्रतिशत कार्बोहाइडेट्स एवं 2.7 प्रतिशत खनिज लवण होते हैं। इसकी खेती के लिए दोमट एवं जल निकासी वाली मृदा उपयुक्त रहती है। रेगिस्तानी इलाकों में सूखी बुबाई कर पानी लगाने की व्यवस्था करें। एक हैक्टेयर खेत की बुवाई के लिए 4 से 5 कि.ग्रा. प्रमाणित बीज पर्याप्त रहता है। 

बाजरे की उन्नत किस्में, संकर

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बाजरा की संकर किस्में ज्यादा प्रचलन में हैं। इनमें राजस्थान के लिए आरएचडी 21 एवं 30,उत्तर प्रदेश के लिए पूसा 415,हरियाणा एचएचबी 505,67 पूसा 123,415,605,322, एचएचडी 68, एचएचबी 117 एवं इम्प्रूब्ड, गुजरात के लिए पूसा 23, 605, 415,322, जीबीएच 15, 30,318, नंदी 8, महाराष्ट्र के लिए पूसा 23, एलएलबीएच 104, श्रद्धा, सतूरी, कर्नाटक पूसा 23 एवं आंध्र प्रदेश के लिए आईसीएमबी 115 एवं 221 किस्म उपयुक्त हैं। बाजार में प्राईवेट कंपनियों जिनमें पायोनियर, बायर, महको, आदि की अनेक किस्में किसानों द्वारा लगाई जाती हैं। आरएचबी 177 किस्म जोगिया रोग रोधी तथा शीघ्र पकने वाली है। औसत पैदावार लगभग 10-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा सूखे चारे की पैदावार 40-45 क्विंटल है। आरएचबी 173 किस्म 75-80 दिन, आरएचबी 154 बाजरे की किस्म देश के अत्यन्त शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों के लिये अधिसूचित है। 70-75 दिन में पकती है। आईसीएमएच 356- यह सिंचित एवं बारानी, उच्च व कम उर्वरा भूमि के लिए उपयुक्त, 75-80 दिन में पकने वाली संकर किस्म हैं। तुलासिता रोग प्रतिरोधी इस किस्म की औसत उपज 20-26 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। आईसीएमएच 155 किस्म 80-100 दिन में पककर 18-24 क्विंटल उपज देती है। एचएचबी 67 तुलासिता रोग रोधक है। 80-90 दिन में पककर 15-20 क्विंटल उपज देती है।

 

बीजोपचार

 

 बीज को नमक के 20 प्रतिशत घोल में लगभग पांच मिनट तक डुबो कर गून्दिया या चैंपा से फसल को बचाया जा सकता हैं। हल्के बीज व तैरते हुए कचरे को जला देना चाहिये। तथा शेष बचे बीजों को साफ पानी से धोकर अच्छी प्रकार छाया में सुखाने के बाद बोने के काम में लेना चाहिये। उपरोक्त उपचार के बाद प्रति किलोग्राम बीज को 3 ग्राम थायरम दवा से उपचारित करें। दीमक के रोकथाम हेतु 4 मिलीलीटर क्लोरीपायरीफॉस 20 ई.सी. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। 

बुवाई का समय एवं विधि

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 बाजरा की मुख्य फसल की बिजाई मध्य जून से मध्य जुलाई तक होती है वहीं गर्मियों में बाजारा की फसल लगाने के लिए मार्च में बिजाई होती है। बीज को 3 से 5 सेमी गहरा बोयें जिससे अंकुरण सफलतार्पूवक हो सके। कतार से कतार की दूरी 40-45 सेमी तथा पौधे से पौधे की दरी 15 सेमी रखें। 

खाद एवं उर्वरक

बाजरा की बुवाई के 2 से 3 सप्ताह पहले 10-15 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए। पर्याप्त वर्षा वाले इलाकों में अधिक उपज के लिए 90 कि.ग्रा. नाइटोजन एवं 30 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से दें।

 

खरपतवार नियंत्रण

बाजरा की बुवाई के 3-4 सप्ताह तक खेत में निडाई कर खरपतवार निकाल लें। आवश्यकतानुसार दूसरी निराई-गुड़ाई के 15-20 दिन पश्चात् करें। जहां निराई सम्भव न हो तो बाजरा की शुद्ध फसल में खरपतवार नष्ट करने हेतु प्रति हेक्टेयर आधा कि.ग्रा. एट्राजिन सक्रिय तत्व का 600 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

 

सिंचाई

 

 बाजरा की सिंचित फसल की आवश्यकतानुसार समय-समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए। पौधे में फुटान होते समय, सिट्टे निकलते समय तथा दाना बनते समय भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए।

कम जमीन हो तो इजराईली तकनीक से करें खेती, होगी मोटी कमाई

कम जमीन हो तो इजराईली तकनीक से करें खेती, होगी मोटी कमाई

अगर जमीन कम हो तो किसान सोच में पड़ जाता है कि कैसे खेती से ज्यादा कमाई होगी. लेकिन जमीन के छोटे टुकड़े में भी खेती करके अधिक पैदावार प्राप्त किया जा सकता है. कम जमीन पर भी ज्यादा पैदावार प्राप्त करना मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं है. इसको लेकर लगातार प्रयोग किया जाता रहा है. भारत ही नहीं विदेशों में भी कम जमीन में अधिक उपज प्राप्त करने को लेकर प्रयास किए जाते रहे हैं. इस क्षेत्र में इजराईल ने महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है.

कम भूमि में खेती कर अधिक उत्पादन प्राप्त कर इजराइल ने बनाया मिसाल

इजराइल एक ऐसा देश है जो अपने नवीन अनुसंधानों के लिये जाना जाता है और इसी के कारण निरंतर चर्चा में रहता है. रक्षा के क्षेत्र में हो या स्वास्थ्य के क्षेत्र में इजराईल हमेशा नए नए कीर्तिमान स्थापित करता रहा है. अब कृषि के क्षेत्र में उसके प्रयोग ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है. आजकल इजरायल द्वारा विकसित की गई वर्टिकल फार्मिंग (Vertical farming) की आधुनिक तकनीक काफी चर्चा में है और यह तकनीक देश-विदेश में काफी लोकप्रिय हो रही है.

क्या है वर्टिकल फार्मिंग की आधुनिक तकनीक ?

वर्टिकल फार्मिंग की आधुनिक तकनीक के तहत कम जगह में दीवार बनाकर खेती की जाती है. वर्टिकल फार्मिंग की आधुनिक तकनीक के तहत सबसे पहले लोहे या बांस की मदद से दीवार नुमा ढांचा खड़ा किया जाता है. ढांचे पर छोटे-छोटे गमलों को खाद, मिट्टी और बीज डालकर करीने से रखा जाता है. इसके पौधों की रोपाई नर्सरी की तरह भी गमलों में की जा सकती है.

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बहुत उपयोगी है ये वर्टिकल फार्मिंग तकनीक

कम जमीन और कम संसाधनों में खेती करने के लिए यह एक बहुत उपयोगी विकल्प है. हालांकि भारत जैसे देशों में खेती के लिए पर्याप्त उपजाऊ जमीन मौजूद है लेकिन विश्वा में बहुत से देश ऐसे हैं जहाँ खेती योग्य जमीन की कमी है. इजराइल के पास भी खेती योग्य जमीन कम है जिसके कारण उसे खाद्यान्न आपूर्ति के लिए अन्य देशों पर निर्भर रहना पड़ता है. इसी को देखते हुए इजराईल नें वर्टिकल फार्मिंग की आधुनिक तकनीक का इजाद किया जो कम भूमि संसाधनों वाले देशों के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है. चीन, कोरिया, जापान, अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी इस तकनीक को सफलतापूर्वक अपना रहे हैं. बड़े शहरों में अच्छी और ताज़ी सब्जियों की आपूर्ति करना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि दूर दराज के गांवों से लाया जाता है. वर्टिकल फार्मिंग के द्वारा अब शहरों में ही वर्टिकल फार्मिंग द्वारा सब्जियों को उगाकर मांग की आपूर्ति करना आसान होता जा रहा है.

ड्रिप इरीगेशन से होती है पानी की बचत

इजरायल द्वारा ही सिंचाई तकनीक ड्रिप इरीगेशन या बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति इस तरह की खेती के लिये उपयोगी होता है. इससे पानी की बर्बादी भी बचती है और पौधों में जरूरत के मुताबिक पानी दिया जाता है. इस तकनीक का उपयोग अब भारत में भी होने लगा है. इस तकनीक के जरिए अनाज, सब्जियां, मसाले और औषधीय फसलें सभी कुछ उत्पादित की जा रही हैं. इस तकनीक का दूसरा लाभ ये है कि इससे पौधों में कीड़े और बीमारियों का खतरा भी कम हो जाता है.

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वर्टीकल फार्मिंग रोजगार का भी है माध्यम

बहुत कम जगह में उत्पादन की क्षमता के कारण वर्टीकल फार्मिंग का यह तकनीक शहरी क्षेत्रों के लिए बेहद लाभदायक है. हांलाकि वर्टीकल फार्मिंग में खर्च परंपरागत खेती से ज्यादा है लेकिन यह भी सच है की इससे लाभ भी ज्यादा है. यही कारण है कि मुंबई, पुणे, बेंगलुरु, चेन्नई और गुरुग्राम जैसे बड़े शहरों के लोग नौकरियां छोड़कर वर्टिकल फार्मिंग को अपना रहे हैं क्योंकि उन्हें अच्छा मुनाफा प्राप्त हो रहा है.

इको फ्रेंडली वर्टीकल फार्मिंग

वर्टीकल फार्मिंग तकनीक जहां कम जमीन में खेती के लिए लाभदायक है, इससे वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदुषण भी कम होता है और पानी एवं अन्य संसाधनों की भी बचत होती है. शहरों में अपनाए जाने के कारण हरियाली तो बढाती ही है साथ ही पर्यावरण को शुद्ध रखने में ये सहायक है. शहरों में उत्पादन करने से परिवहन लागत भी कम हो जाती है.
Sagwan: एक एकड़ में मात्र इतने पौधे लगाकर सागवान की खेती से करोड़ पक्के !

Sagwan: एक एकड़ में मात्र इतने पौधे लगाकर सागवान की खेती से करोड़ पक्के !

नेशनल-इंटरनेशनल मार्केट में छाल-पत्तों से लेकर लकड़ी तक की डिमांड वाले सागवान प्लांट की फार्मिंग (Sagwan Farming) से करोड़ों रुपए का मुनाफा तय है। कृषि विज्ञान एवं किसानी की पारंपरिक विधियों के सम्मिश्रण से सागवान की खेती कर किसान करोड़ों रुपयों का मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।

ट्रिक करोड़ों की

मेरीखेती में, हम एक एकड़ के मान के आधार पर सागवान की खेती (Sagwan Ki Kheti) के तरीकों एवं उससे मिलने वाले अनुमानित लाभ पर फोकस करेंगे। कड़ी लकड़ी वाले इस पेड़ के जरिये, पेड़ के मालिक करोड़पति बन सकते हैं।

सागवान की खेती का गणित

खेत ही क्या, मुद्रा यानी रुपया (भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका), डॉलर, दिरहम, युआन का रोल जहां आ जाता है, वहां किसी वस्तु, सेवा या विचार की गुणवत्ता, उसकी जरूरत एवं उपलब्धता और कीमत ही उसकी सफलता की कुंजी मानी जाती है। सागवान की खेती (Teak Wood Farming) भी प्रकृति का वह विकल्प है जिसकी गुणवत्ता, मांग और कीमत उसे उत्पाद के तौर पर श्रेष्ठ बनाती है।

सागवान की डिमांड

सागवान को स्थानीय स्तर पर सगौना, सागौन, टीक, टीकवुड (Teak, Teakwood) भी कहा जाता है। इसकी लकड़ियों का जहाज़, रेल, बड़े यात्री वाहनों और फर्नीचर इंडस्ट्री सेक्टर तक व्यापक मार्केट है।

सागवान के औषधीय गुण

जीवित सागवान पेड़ की छाल और पत्तियां तक मनुष्य के लिए गुणकारी होती हैं। औषधीय उपचार में भी सागौन की छाल, पत्ती एवं जड़ों का उपयोग किया जाता है। खास तौर पर कई तरह की शक्ति वर्धक दवाएं भी इससे बनाई जाती हैं।

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मतलब साफ है कि सागवान फार्मिंग (Sagwan Farming) में लाभ के अवसर अपार हैं, सागौन के पेड़ के जरिए किसान बढ़िया मुनाफा कमा सकते हैं।

अड़ियल स्वभाव वाला है सागवान का पेड़

खेत, जंगल, झरना, पोखर कहीं भी पनपने वाले अड़ियल स्वभाव के सागवान पौधे की खेती (Sagwan Cultivation) के मात्र इतने ही फायदे नहीं हैं, बल्कि यह गुणों की भरमार है।

जंगल नहीं अब खेतों की भी शान

पारंपरिक खेती-किसानी में आधुनिक कृषि विज्ञान की युक्तियों के साथ आज का किसान किसानी से दिन दूनी रात चौगुनी कमाई के विकल्प तलाश रहा है। कभी खेत से मात्र मुख्य फसल उपजाने वाला आज का किसान अब आय के अन्य विकल्प भी अपना रहा है।

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ऐसा ही एक विकल्प है सागवान फार्मिंग (Sagwan Farming) भी, लेकिन इसके लाभ हासिल करने के लिए कुछ खास चीजों का ध्यान रखने की जरूरत है। मसलन पौधरोपण के तरीके, पौधरोपण का समय, देखभाल में रखी जाने वाली सावधानियां, संभावित नुकसान, आदि।

सागवान के पौधे की कीमत

ऑनलाइन कृषि उत्पाद, पौधे आदि बेचने वाली कंपनियां मात्र 20 रुपए में सागवान के पौधे की सेल ऑफर कर रही हैं। नर्सरियों में पौधे की गुणवत्ता के आधार पर सागवान की कीमत में घट-बढ़ हो सकती है।

सागवान है मुनाफे का सौदा

मतलब आज लगाया गया सागवान का 20 रुपए का पौधा दस साल बाद परिपक्व होने पर आज की कीमत के मान से 25 से 40 हजार रुपए तक किसान को कमा कर दे सकता है। अधिक संख्या में रोपेे गए पौधे अधिक लाभ का पक्का संकेत है!

सागवान है सहफसली विकल्प

अब किसान एक करोड़ रुपए के मुनाफे के लिए 10 साल तो नहीं रुक सकता तो ऐसे में नियमित कमाई भी संभव है। सहफसली कृषि विधि से किसान सागवान के पेड़ों के बीच की भूमि पर सब्जियों और फूलों की खेती कर कमाई और मुनाफे को डबल कर सकते हैं।

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सागवान के पेड़ की परिपक़्वता में कितने साल लगेंगे ?

सागवान का पेड़ 10 से 12 साल बाद परिपक़्व होने पर किसान को 25 से 40 हजार रुपये तक कमा कर देगा। परिपक़्व सागवान का प्रत्येक पेड़ लम्बाई और मोटाई के हिसाब से 25 हजार से 40 हजार रुपये तक बिकता है। कृषि अनुसंधान के अनुसार एक एकड़ खेत में लगभग 120 सागवान के पौधे लगते हैं। यह पेड़ अपनी परिपक्वता के बाद भी करोड़ों रुपए की हैसियत रखते हैं। मतलब साफ है कि खेत में बारिश, गर्मी, तेज ठंड में यदि कोई फसल न भी हो, तब भी सागौन के करोड़ों रुपए के चंद पेड़, आमदनी की आस हो सकते हैं।

प्राकृतिक खेती से किसानों को होगा फायदा, जल्द ही देश के किसान होंगे मालामाल

प्राकृतिक खेती से किसानों को होगा फायदा, जल्द ही देश के किसान होंगे मालामाल

वर्तमान में केमिकल युक्त खेती के दुष्परिणामों की देखते हुए सरकार प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए सरकार ने इस साल के बजट में प्राकृतिक खेती के लिए अलग से प्रावधान किया है। केंद्र सरकार के साथ-साथ हरियाणा की सरकार भी प्राकृतिक खेती को लेकर बेहद जागरुक है। इसके साथ ही हरियाणा की सरकार ने किसानों को जागरुक करने के लिए प्रोत्साहन योजना शुरू की है। इसके अंतर्गत राज्य सरकार ने साल 2022 में छह हजार एकड़ में किसानों से प्राकृतिक खेती कराई है। इसको राज्य के 2238 किसानों ने अपनाया है। किसानों के रुझान को देखते हुए हरियाणा सरकार ने साल 2023 में राज्य में 20 हजार एकड़ में प्राकृतिक खेती कराने का लक्ष्य रखा है। हरियाणा की सरकार ने किसानों के बीच प्राकृतिक खेती को प्रचारित करने के लिए 'भरपाई योजना' को भी लागू किया है। इसके अंतर्गत प्राकृतिक खेती अपनाने वाले हर किसान को प्रति एकड़ के हिसाब से प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाएगी। सरकार ने 'भरपाई योजना' को इसलिए लागू किया है क्योंकि प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को शुरुआत में उत्पादन कम प्राप्त होता है। लेकिन प्राकृतिक खेती करने से भूमि की उत्पादन क्षमता में भी बढ़ोतरी होती है। जो किसानों के लिए लंबे सामयांतराल में फायदेमंद होता है। किसान भाइयों को प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग देने के लिए हरियाणा की सरकार ने राज्य में कई ट्रेनिंग सेंटर स्थापित किए हैं। इसके लिए फिलहाल कुरुक्षेत्र गुरुकुल और करनाल के घरौंडा में बड़े ट्रेनिंग सेंटर स्थापित किए  हैं। इसके साथ ही सरकार ने राज्य में 3 और ट्रेनिंग सेंटर स्थापित करने का निर्णय लिया है। इन ट्रेनिंग सेंटरों का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक खेती के लिए किसानों को प्रशिक्षित करना है। राज्य सरकार के अधिकारियों ने बताया है कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार जागरूकता अभियान शुरू करने जा रही है। इसकी शुरुआत सिरसा जिले से होगी। सिरसा जिले में यह अभियान पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू किया जा रहा है। यदि यहां पर यह अभियान सफल रहता है तो बाद में इसे चरणबद्ध तरीके से पूरे राज्य में लागू किया जाएगा। इस जागरूकता अभियान में किसानों को उर्वरकों व कीटनाशकों के उपयोग, पानी का समुचित उपयोग, फसल स्वास्थ्य निगरानी, मृदा स्वास्थ्य निगरानी, कीट निगरानी, सौर ऊर्जा का उपयोग और सूक्ष्म सिंचाई तकनीक के माध्यम से पानी के समुचित उपयोग के बारे में विस्तार से बताया जाएगा। ये भी देखें: सिंचाई की नहीं होगी समस्या, सरकार की इस पहल से किसानों की मुश्किल होगी आसान इन दिनों भारत में किसानों के द्वारा प्राकृतिक खेती तेजी से अपनाई जा रही है। जिसके कई स्वदेशी रूप हैं। प्राकृतिक खेती का प्रचार प्रसार सबसे ज्यादा दक्षिण भारतीय राज्यों में है। दक्षिण भारत के राज्य आंध्र प्रदेश में प्राकृतिक खेती बेहद लोकप्रिय है। आंध्र प्रदेश के साथ ही प्राकृतिक खेती छत्तीसगढ़, केरल, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु के अलावा कई राज्यों में की जा रही है। यह खेती प्राकृतिक या पारिस्थितिक प्रक्रियाओं (जो खेतों में या उसके आसपास मौजूद होती हैं) पर आधारित होती है जो पेड़ों, फसलों और पशुधन को एकीकृत करती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि प्राकृतिक खेती से किसानों की आय में तेजी से बढ़ोत्तरी हो सकती है।
इस तरह से खेती करके किसान एक ही खेत में दो फसलें उगा सकते हैं

इस तरह से खेती करके किसान एक ही खेत में दो फसलें उगा सकते हैं

आजकल उपलब्ध आधुनिक कृषि तकनीकों से जोखिम को कम किया जा सकता है। इतना ही नहीं कुछ तकनीकें तो कम वक्त में फसलों से ज्यादा आमदनी कराने में भी सहयोग करती हैं। वर्तमान में किसान एक ही भूमि पर एक साथ 2 से अधिक फसलें उत्पादित कर सकता है। आधुनिकता के जमाने में फिलहाल हमारा कृषि क्षेत्र भी सुपर एडवांस होने की दिशा में तेजी से बढ़ता जा रहा है। किसान आजकल यंत्रों और नई तकनीकों के माध्यम से फसल का बेहतरीन उत्पादन कर रहे हैं। इसी कड़ी में जोखिम को कम करके कृषकों की आमदनी बढ़ाने हेतु वैज्ञानिक भी नित नई तरकीबें पेश कर रहे हैं। अंतरवर्तीय खेती भी इन तरकीबों में शामिल है। यह तरीका बढ़ती आबादी की खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने एवं कम खेती-कम वक्त में ज्यादा पैदावार लेने में सहायक भूमिका निभा रहा है। अगर किसान को फसल चक्र की सटीक जानकारी है, तो वह अंतरवर्तीय खेती के जरिए अपनी आमदनी को दोगुनी कर सकता है। आजकल जायद सीजन की फसलों की बुवाई का कार्य चल रहा है। बहुत सारे किसान भाई अपने खेत में ग्रीष्मकालीन मूंग सहित विभिन्न दलहनी फसलों का उत्पादन ले सकते हैं। अगर कतारों में दलहन की बुवाई की गई है, तो मध्य में हल्दी, अदरक की भांति औषधी और मसाला फसलों का उत्पादन करके दोगुना उत्पादन ले सकते हैं। अंतरवर्तीय खेती की सर्वाधिक विशेष बात यही है, कि कतारों में 2 से ज्यादा फसलों की बुवाई की जा सकती हैं। इसमें अलग से खाद-उर्वरक का खर्चा नहीं आता है। किसान को केवल भिन्न-भिन्न बीज डालने होते हैं, जिसके उपरांत एक ही फसल में लगाए जाने वाले इनपु्ट्स से सारी फसलों की उन्नति हो सकती है।

अरहर और हल्दी की अंतरवर्तीय खेती से अच्छा मुनाफा हांसिल किया जा सकता है

अरहर एक प्रमुख दलहनी फसल मानी जाती है, तो वहीं मसाला एवं औषधी के रूप में बाजार में हल्दी की काफी मांग रहती है। एक ही भूमि पर कतारों में इन दोनों फसलों को बोया जा सकता है। हालांकि, हल्दी को छायादार जगह पर उत्पादित किया जाता है, इस वजह से अरहर समेत इसकी फसल लेना काफी फायदेमंद रहेगा। यह भी पढ़ें: कैसे करें हल्दी की खेती, जाने कौन सी हैं उन्नत किस्में एक साथ बुवाई करके दोनों फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। अरहर जैसी दलहनी फसलों के साथ अंतरवर्तीय खेती करने का सबसे बड़ा लाभ यह है, कि यह फसलें वातावरण से नाइट्रोजन को सोखकर भूमि तक पहुंचाती हैं। इससे मिट्टी की उर्वरकता में वृद्धि होती है। वहीं साथ-साथ में उगने वाली फसल को इसका प्रत्यक्ष तौर पर फायदा मिलता है। विशेषज्ञों के अनुसार, दलहनी फसलों की खेती सहित अथवा इसके उपरांत बोई जाने वाली फसलों की पैदावार में वृद्धि हो जाती है। दलहनी फसलों की कटाई करने के उपरांत अलग से खाद-उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करना होता है।

मृदा में कटाव होने से भी बचता है

जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव साफ तौर पर खेती-किसानी पर देखने को मिल रहा है। कभी बेमौसम बारिश तो कभी सूखा जैसी परिस्थितियों से फसलें चौपट होती जा रही हैं। भूजल स्तर में गिरावट आने से मृदा में कटाव काफी बढ़ रहा है। अंतरवर्तीय खेती को इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान माना जाता है। एक सहित विभिन्न फसलों को लगाने से मृदा में जल को बांधने की क्षमता बढ़ जाती है। इससे वर्षा के समय में कटाव की समस्या नहीं रहती एवं मिट्टी में भी नमी बरकरार रहती है। अगर किसी कारणवश एक फसल को हानि पहुँच भी जाए तब भी किसान पर जीवनयापन करने हेतु दूसरी फसल का सहारा मिल जाता है। औषधीय फसलों की अंतरवर्तीय खेती करने अथवा फसल विविधता के चलते फसल में कीट-रोगों का प्रकोप नहीं रहता है। इससे कीटनाशकों का खर्चा बच जाता है। फसल की गुणवत्ता को उत्तम बनी रहने के साथ बाजार में उत्पादन को अच्छा खासा भाव मिल जाता है।

जानें इन फसलों को एकसाथ उगाया जाता है

भारत के तकरीबन समस्त क्षेत्रों में रबी फसलों की कटाई का कार्य पूर्ण हो चुका है। कुछ किसान जायद सीजन की फसल उगा रहे हैं, तो वहीं कुछ खरीफ सीजन के लिए भूमि को तैयार कर रहे हैं। किसान यदि चाहें तो खरीफ सीजन के दौरान अंतरवर्तीय पद्धति से उत्पादन कर सकते हैं। खरीफ सीजन के समय एक साथ उत्पादित की जाने वाली फसलों के अंतर्गत सोयाबीन + मक्का, मूंगफली + बाजरा, मूंगफली + तिल, मूंग + तिल, अरहर + मक्का,अरहर + सोयाबीन, अरहर + तिल, अरहर + मूंगफली आती हैं।
फलों का राजा कहलाने वाले आम को बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से लाखों का हुआ नुकसान

फलों का राजा कहलाने वाले आम को बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से लाखों का हुआ नुकसान

जैसा कि हम जानते हैं, कि किसानों की जिंदगी कठिनाइयों और समस्याओं से भरी रहती है। कभी प्राकृतिक आपदा तो कभी फसल का समुचित मूल्य ना मिल पाना। इतना ही नहीं मौसमिक अनियमितता के चलते किसानों की फसल कीट एवं रोगों की भी काफी हद तक ग्रसित होने की आशंका रहती है। बेमौसम बारिश एवं ओलावृष्टि की मार पड़ रही है। उत्तर प्रदेश एवं ओड़िशा सहित बहुत सारे राज्यों में बारिश की वजह से किसानों की आम की फसलें काफी हद तक चौपट हो चुकी है। बेमौसम बरसात ने किसान भाइयों की फसल को काफी हद तक हानि पहुंचाई है। किसानों का लाखों का नुकसान होने के चलते किसान बेहद दुखी दिखाई दे रहे हैं। वर्तमान में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश से लेकर बाकी राज्यों में बारिश की वजह से गेहूं, सरसों की फसल को नुकसान हुआ था। परंतु, सिर्फ अनाज एवं सब्जियां ही नहीं, फलों को भी मोटा नुकसान हुआ है। भारत के विभिन्न राज्यों में बेमौसम बारिश के साथ ओलावृष्टि से आम काफी क्षतिग्रस्त हुआ है। किसान प्रदेश सरकार से मुआवजे की गुहार कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में भी आम के बागों पर काफी बुरा असर पड़ा है

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में आम के बागों पर बारिश के साथ ओलावृष्टि का दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है, कि इस मौसम में चित्रकूट में आम के पेड़ों पर बौर दिखाई देने लगती थी। हालाँकि, परिवर्तित एवं खराब हुए मौसम के चलते आम के पेड़ों से बौर ही छिन सी गई है। बेमौसम बारिश की वजह जो नमी उत्पन्न हुई है। इससे आम के फल में रोग भी आने लग गया है। स्थानीय किसानों का कहना है, कि बेमौसम बारिश की वजह 4 से 5 लाख रुपये की हानि हुई है।

ओड़िशा में भी आम की फसल चौपट हो गई है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि ओड़िशा में भी बारिश का प्रभाव आम पर देखने को मिल रहा है। ओडिशा के अंदर पूर्व में हुई बेमौसम बारिश एवं हाल ही में हुई अचानक तापमान में वृद्धि की वजह से आम की पैदावार काफी बुरी तरह प्रभावित हुई है। प्रदेश के कोरापुट जनपद में 70 प्रतिशत तक आम की फसल खराब हो गयी है। व्यापारी प्रदेश की खपत पूर्णतय सुनिश्चित करने के लिए अन्य राज्यों से आम मंगा रहे हैं। सेमिलीगुडा, लक्ष्मीपुर, कुंद्रा, दसमंतपुर, जेपोर और बोरिगम्मा क्षेत्रों में भी आम की फसल काफी ज्यादा प्रभावित हुई है। व्यापारियों ने बताया है, कि इस वर्ष प्रदेश में कम खपत का अंदाजा है। इसी वजह से आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ से भी व्यापारी आम खरीद रहे हैं। ये भी पढ़े: अल्फांसो आम की पैदावार में आई काफी गिरावट, आम उत्पादक किसान मांग रहे मुआवजा

बेमौसम बारिश के साथ हुई ओलावृष्टि ने किसान की उम्मीदों पर पानी फेर दिया

विगत कई वर्षों से किसानों को मौसमिक मार की वजह से काफी नुकसान वहन करना पड़ रहा है। इस संबंध में किसानों का कहना है, कि इस बार उन्हें अच्छी फसल उपज की संभावना थी। लेकिन बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि की वजह से किसानों की उमीदों पर पानी फिर गया है। फसलों को कुछ कच्चा काटा जा सकता है। लेकिन, आम की भौर का किसान कुछ कर भी नहीं सकते हैं। ऐसी स्थिति में किसानों की हुई हानि की भरपाई नहीं हो सकेगी।
कैसे करें कद्दू की फसल से कमाई; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

कैसे करें कद्दू की फसल से कमाई; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

कद्दू एक ऐसी फसल है जो बहुत ही कम समय में पक कर तैयार हो जाती हैं. साथ ही कद्दू में काफी पोषक तत्व मौजूद होते हैं जो इस सब्जी को स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक बना देता है. कद्दू की फसल की बात की जाए तो यह एक पौधों की श्रेणी में आता है और कद्दू के बीज को खाने में इस्तेमाल किया जाता है.

सब्जी बनाने के अलावा कद्दू का इस्तेमाल बहुत सी मिठाइयां बनाने में भी किया जाता है.

कद्दू में प्रोटीन की मात्रा काफी ज्यादा होती है और साथ ही इसमें जेल भी होता है जो इम्यून सिस्टम को बढ़ाने में मदद करता है. डॉक्टर सर्दी जुखाम और वायरल जैसे संक्रमण के समय कद्दू खाने के लिए कहते हैं. इन सबके अलावा अगर किसान कद्दू की खेती करना चाहते हैं तो वह यह फसल उगा कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं. इस आर्टिकल के माध्यम से
कद्दू की फसल के बारे में पूरी जानकारी दी जा रही है.

कद्दू की फसल उगाने के लिए कैसी  मिट्टी सही रहती है?

किसी भी फसल की तरह कद्दू की खेती के लिए भी उपजाऊ भूमि होना अनिवार्य है और साथ ही भूमि ऐसी होनी चाहिए जिसमें जल निकासी का उचित प्रबंध हो।  यह फसल गर्म और ठंड दोनों ही तरह की जलवायु में उगाई जा सकती है।  कद्दू की फसल लगाते समय हम एक बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि इस फसल को बाकी फसलों के मुकाबले ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है।  फसल में सिंचाई के लिए पानी ज्यादा लगता है लेकिन एक और बात का ध्यान रखने की जरूरत है की फसल में किसी भी समय जलभराव नहीं होना चाहिए वरना यह फसल बर्बाद हो सकती है। कद्दू की अच्छी फसल के लिए जमीन का P.H. मान 5 से 7 के मध्य होना चाहिए |

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कद्दू की खेती के लिए सही जलवायु और तापमान

शीतोषण और समशीतोष्ण जलवायु को कद्दू की फसल के लिए एकदम अनुकूल माना जाता है और यही कारण है कि हमारे देश में कद्दू की फसल बारिश के मौसम में उगाई जाती हैं।  गर्मी का मौसम कद्दू की फसल के लिए एकदम सही माना गया है क्योंकि सर्दियों में जब ज्यादा पाला पड़ता है तो कद्दू के फूल अच्छी तरह से बड़े नहीं हो पाते हैं और कई बार झड़कर गिरने लगते हैं।  इसके अलावा हमें एक और बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि एक बार जब फसल पर फूल आ जाए तो उस समय बारिश का मौसम नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे फूलों के खराब होने की संभावना बढ़ जाती है।  इस फसल के बीजों के बनने के लिए तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के आसपास होना जरूरी है और वहीं पर अगर आप चाहते हैं कि आप की फसल अच्छी तरह से उत्पादन करें तो तापमान 25 से 30 डिग्री के मध्य होना जरूरी है।

कद्दू की फसल की कुछ किस्म

कद्दू की फसल अच्छी हो और उसका उत्पादन सही रहे इसके लिए कद्दू की कई अलग-अलग किस्म तैयार की गई है और आप उत्पादन क्षमता के आधार पर उनका चुनाव कर सकते हैं।

 पूसा विश्वास किस्म

भारत में उत्तर भारत के कई राज्यों में यह फसल उगाई जाती है और इसमें एक कद्दू का वजन लगभग 5 किलोग्राम तक पहुंच जाता है।  इसमें निकलने वाले फल हरे रंग के होते हैं और साथ ही उन पर छोटे-छोटे सफेद धब्बे बने रहते हैं।  एक बार उगाने के बाद यह फसल लगभग 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है और जमीन में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 40 क्विंटल कद्दू की पैदावार इस किस्म को लगाने के बाद मिल जाती है।

काशी उज्जवल किस्म

उत्तर भारत के साथ-साथ दक्षिण भारत में भी यह कैसे उगाई जाती है और इसमें एक कद्दू का वजन ही 10 से 15 किलो तक होता है।  इसमें कद्दू के 1 पौधे पर चार से पांच फल आ जाते हैं और प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 550 क्विंटल का उत्पादन इस किसी से हो जाता है।  इस फसल को बनने में थोड़ा ज्यादा समय लगता है जो तकरीबन 6 महीने तक हो सकता है।

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डी.ए.जी.एच. 16 किस्म

यह किस्म एक बार उगाने के बाद लगभग 100 से 110 दिन के बीच में पैदावार देती है और इससे उगने वाले फल का रंग भी हरे और सफेद का मिश्रण होता है। इसमें कद्दू का वजन 12 किलोग्राम तक चला जाता है और एक पौधे पर चार से पांच फल आ जाते हैं। अगर पैदावार की बात की जाए तो जमीन में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से यह किस्म 400 से 500 क्विंटल की पैदावार दे देती है।

काशी धवन किस्म

कद्दू की यह किस्म ज्यादातर पहाड़ी और पर्वतीय इलाकों में उगाई जाती है और इसे पककर तैयार होने में लगभग 3 महीने का समय लगता है।  इसमें कद्दू के फल का वजन 12 किलोग्राम तक होता है और प्रति हेक्टेयर में आप लगभग 600  क्विंटल की पैदावार आसानी से कर सकते हैं।

पूसा हाईब्रिड 1

यह कद्दू की एक हाइब्रिड किस्म है और इसे ज्यादातर वसंत ऋतु के मौसम में उगाया जाता है।  इसमें पौधे पर लगने वाले फल का वजन थोड़ा कम होता है जो लगभग 5 किलोग्राम के आस पास होता है और इसमें प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग साढे 500 क्विंटल की पैदावार की जा सकती है।

कैसे करें कद्दू की फसल के लिए खेत को तैयार?

बाकी फसल की तरह ही कद्दू की फसल लगाने से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार करना पड़ता है।  सबसे पहले खेत की गहरी जुताई करने के बाद उसमें पुरानी गोबर की खाद डालकर खेत को थोड़े टाइम के लिए छोड़ दिया जाता है और उसके बाद एक बार और जुताई करते हुए जमीन को भी भुरभुरा कर लिया जाता।  उसके बाद जमीन को समतल करते हुए कद्दू की फसल को क्यारियां बनाकर लगाया जा सकता है।

क्या है कद्दू के बीजों की रोपाई का सही समय और तरीका

कद्दू के बीज ज्यादातर किसान अपने हाथ से ही लगाते हैं और प्रति हेक्टेयर जमीन में 3 से 4 किलो बीज लग जाते हैं। | बीजो को खेत में लगाने से पहले उन्हें थीरम या बाविस्टीन की उचित मात्रा का घोल बना कर उपचारित कर लेना चाहिए | इसके बाद इन बीजो की खेत में तैयार की गई धोरेनुमा क्यारियों में रोपाई कर दे | जब आप क्यारियां बनाते हैं तो एक बात का ध्यान रखें कि क्यारियों के बीच में लगभग 4 से 5 मीटर की दूरी रखी जाए और बीजों के मध्य भी एक से डेढ़ फीट तक की दूरी बना कर रखना अनिवार्य है।  ऐसा करने से पौधे अच्छी तरह से विकसित होते हैं और फसल भी अच्छी मिलती है। अगर आप पर्वतीय इलाकों में है फसल उगाना चाहते हैं तो मार्च या अप्रैल के महीने में यह किया जा सकता है और जहां पर सिंचाई कम की जाती है वहां पर यह फसल बारिश के मौसम में जून के आसपास लगाई जाती हैं। इसके अलावा भारत में बहुत सी जगह है यह फसल अगस्त के महीने में भी उगाई जाती हैं। विभिन्न क्षेत्रों में इसे अगस्त माह में उगाया जाता है |

कैसे करें कद्दू के फसल की सिंचाई

कद्दू की फसल में जब बीजों का अंकुरण हो रहा होता है तब उसे ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है। अगर आप अच्छी तरह से सिंचाई करेंगे तभी आपको अच्छा फल मिलने की संभावना है। जमीन में नमी बरकरार रहे इसीलिए कद्दू के खेत में तीन से चार दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना जरूरी है। इसके अलावा गर्मियों के मौसम में भी एक हफ्ते के अंदर-अंदर इसमें पानी देना जरूरी है। साथ ही अगर आप बारिश के मौसम में है फसल उगा रहे हैं तो जरूरत पड़ने पर ही फसल की सिंचाई करें वरना फसल में पानी ठहर जाने की संभावना बनी रहती है जिसकी वजह से फसल बर्बाद हो सकती हैं।

कद्दू की फसल के लिए कौन से उर्वरक हैं सही?

अगर आप चाहते हैं कि आप की फसल की पैदावार अच्छी हो और साथ ही आपको उन्नत किस्म का फल मिले तो आपको और ध्यान देने की जरूरत।  जैसा कि पहले ही बताया गया है कि जुताई के समय खेत में पुराने गोबर की खाद डाली जाती हैं।  इसके अलावा जैविक खाद के रूप में कंपोस्ट खाद का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।  इसके अलावा अगर आप केमिकल खाद का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो 40KG नाइट्रोजन, 50KG पोटाश और 50KG फास्फोरस की मात्रा को खेत की आखरी जुताई के समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़क देना चाहिए|

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कैसे करें कद्दू के खेत में खरपतवार पर नियंत्रण?

किसी भी फसल में खरपतवार का नियंत्रण करना बेहद जरूरी है लेकिन कद्दू के पौधों में आपको इसके बारे में ज्यादा ध्यान रखने की जरूरत है क्योंकि यह फसल एक बेल के रूप में पूरे खेत में फैलती है और इसमें ज्यादा खरपतवार होने की संभावना बनी रहती हैं। समय-समय पर फसल में निराई और गुड़ाई  करते रहना चाहिए। आप इसे हर 2 से 3 दिन के अंतराल पर कर सकते हैं। इसके अलावा एक बार पौधे के बड़े हो जाने के बाद आप यह प्रक्रिया 10 दिन के अंतराल पर करना शुरू कर सकते हैं।

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कद्दू की फसल में लगने वाले रोग और उनसे बचाव? कद्दू की फसल में लगने वाले कुछ रोग इस प्रकार से हैं;

लालड़ी रोग

इस रोग को अंग्रेजी में पंपकिन विटल भी कहा जाता है और अगर एक बार पौधे में यह रोग लग जाता है तो पौधे का विकास होना बंद हो जाता है। यह रोग ज्यादातर पौधे की जड़ों और उसकी पत्तियों को प्रभावित करता है और एक बार यह रोग लग जाने के बाद बत्तियां मुरझाकर सूखने लगती हैं। इसकी रोकथाम ट्राइक्लोफेरान या डाईक्लोरोवास में से किसी एक दवा का उचित मात्रा में छिड़काव करते हुए किया जा सकता है।

फल मक्खी रोग

जैसा कि नाम से ही समझ में आ रहा है यह रोग फसल के फलों को नुकसान पहुंचाता है। इसमें मक्खी फलों के अंदर छेद कर देते हैं और उसमें अंडे देना शुरु कर देते हैं। इसमें आपको फल के अंदर कीड़े नजर आते हैं जो पूरी तरह से फसल को और फलों को बर्बाद कर देते हैं | यह रोग लगने के बाद धीरे-धीरे फल खराब होकर गिरने लगते हैं। कार्बारिल या मैलाथियान का उचित मात्रा में छिड़काव कर इस कीट रोग की रोकथाम की जा सकती है |

सफ़ेद सुंडी रोग

यह रोग जमीन के अंदर से फसल को प्रभावित करता है।  सबसे पहले यह रोग पौधे की जड़ों में फैलता है और धीरे-धीरे पौधे को सुखाकर उसे पूरी तरह से नष्ट कर देता है।  अगर आप इस रोग की रोकथाम चाहते हैं तो जुताई के समय आप नीम का घोल बनाकर जमीन में डाल सकते हैं।

मोज़ैक रोग

यह एक विषाणु से होने वाला रोग है जिसकी वजह से पौधा पूरी तरह से विकसित होना बंद हो जाता है और अगर किसी तरह पौधे का विकास हो भी जाए तो उस पर आने वाला फल बहुत ही छोटे आकार का होता है। इस तरह के रोग से छुटकारा पाने के लिए मोनोक्रोटोफॉस या फास्फोमिडान का उचित मात्रा में छिड़काव किया जाना चाहिए |

एन्थ्रेक्नोज रोग

यह रोग कद्दू की फसल को बारिश के मौसम में ज्यादा प्रभावित करता है और इस रोग के होने से पौधे की पत्तियां काले और भूरे रंग के धब्बों से भर जाती है।  धीरे-धीरे यह सारी फसल में फैल जाता है और पौधे का विकास होना बंद हो जाता है। इस तरह के रोग से बचाव के लिए पौधों पर हेक्साकोनाजोल या प्रोपिकोनाजोल का उचित मात्रा में छिड़काव करे |

फल सड़न रोग

एक बार जब कद्दू की फसल पर फल आ जाते हैं तो कोशिश करें कि उन्हें समय-समय पर पलटते रहे वरना उनमें पल सड़न रोग लगने की संभावना हो जाती हैं।  अगर आप इस रोग से बचाव चाहते हैं तो फसल में टेबुकोनाजोल या वैलिडामाईसीन का छिड़काव करना चाहिए |

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कद्दू की फसल से मिलने वाला लाभ और पैदावार

सामान्यता कद्दू की फसल 100 से 110 दिन के बीच में बनकर तैयार हो जाती है | जब कद्दू हल्के पीले रंग के होने लगे और उसमें बीच-बीच में थोड़ी सफेदी आ जाए तो आप फल को तोड़ सकते हैं। एक हेक्टेयर जमीन पर सामान्यतया 400 क्विंटल तक फसल की पैदावार की जा सकती है और कद्दू मार्केट में 10 से ₹15 प्रति किलो के भाव से बिकता है।  ऐसे में किसान एक बार फसल लगाकर लगभग 5 से ₹6 लाख तक की अच्छी खासी कमाई कर सकते हैं।
अरबी की फसल लगाते समय किन बातों का रखें ध्यान; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

अरबी की फसल लगाते समय किन बातों का रखें ध्यान; जाने फसल के बारे में संपूर्ण जानकारी

अरबी की फसल एक सब्जी के तौर पर उड़ाई जाती हैं और यह एक कंद के रूप में  उगती है. भारत में अरबी की खेती लगभग हर राज्य में की जाती है और गर्मी और बारिश का मौसम इस फसल के लिए उपयुक्त माना जाता है. कहा जाता है कि अरबी में कुछ जहरीले गुण होते हैं इसलिए इसका सेवन कभी भी कच्चा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह शरीर के लिए काफी हानिकारक हो सकता है. इसके इन जहरीले गुणों को पानी में डालकर नष्ट किया जा सकता है. अरबी की फसल में काफी औषधीय गुण होते हैं और इसे कई तरह की बीमारियों में आने के लिए सुझाव दिए जाते हैं लेकिन फिर भी बहुत अधिक मात्रा में अरबी का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है. इस फसल के पत्ते केले के पत्तों की तरह चौड़े होते हैं और उन्हें सुखाने के बाद उनकी सब्जी या फिर पकोड़े बनाकर खाए जा सकते हैं. इसके अलावा इसकी एक और अद्भुत क्वालिटी है कि इसके फल को सुखाने के बाद उससे आटा भी बनाया जा सकता है. इसे अंतर्भरती फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है जिससे किसान 2 पदों का लाभ इस एक फसल से प्राप्त कर सकते हैं. इस आर्टिकल के माध्यम से अरबी की फसल से जुड़ी हुई सभी जानकारी दी गई है जिन्हें फॉलो करते हुए किसान इसे उगा कर मुनाफा कमा सकते हैं.

अरबी की फसल के लिए मिट्टी, जलवायु और सही तापमान की जानकारी

किसी भी फसल की तरह अरबी की खेती करते समय भी उपजाऊ मिट्टी का होना अनिवार्य है और साथ ही यह एक कंद फसल है इसलिए भूमि में पानी की निकासी अच्छी तरह से होना आवश्यक है. बलुई दोमट मिट्टी इस फसल के लिए एकदम उपयुक्त मानी गई है और इसकी खेती करते समय भूमि का पीएच  5.5 से 7 के मध्य होना चाहिए. उष्ण और समशीतोष्ण जलवायु को अरबी की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है.

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वर्षा ऋतु के समय और गर्मियों में दोनों ही वातावरण में यह फसल उगती है लेकिन एक बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि बहुत ज्यादा गर्मी और बहुत ज्यादा सर्दी इस फसल के लिए हानिकारक हो सकती है.  सर्दियों में जब पाला पड़ने लगता है तो यह फसल के विकास को बाधित कर सकता है. अरबी की फसल लगाते समय ज्यादा से ज्यादा तापमान 35 डिग्री और कम से कम तापमान 20 डिग्री होना अनिवार्य है. इससे अधिक और कम तापमान फसल को नष्ट कर सकता है.

अरबी की कुछ उन्नत किस्में

अरबी की अलग-अलग किस्म आपको बाजार में देखने को मिल जाती हैं जिनमें से कुछ प्रमुख किस्में इस प्रकार से हैं;

सफेद गौरैया

एक बार फसल की रोपाई करने के बाद लगभग 190 दिन के बाद यह किस्म बनकर तैयार हो जाती है. इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत है कि इससे निकलने वाला कंद खुजली से मुक्त होता है और साथ ही प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 180 क्विंटल तक फसल की पैदावार इस किस्म के जरिए की जा सकती है.

पंचमुखी

गोरैया किस्म की तरह ही पंचमुखी किस्म भी लगभग 180 से 200 दिन के बीच में पक कर तैयार हो जाती है. इससे निकलने वाला पौधा पांच मुखी कर देता है इसीलिए इसे पंचमुखी फसल का नाम दिया गया है. यह किस्मत अच्छी खासी पैदावार देती है और प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इसमें 200 से 250 क्विंटल तक फसल का उत्पादन किया जा सकता है.

मुक्ताकेशी

बाकी किस्म के मुकाबले यह किस्मत जल्दी बन कर तैयार हो जाती है. इसमें पौधे लगभग 160 दिन में बनकर तैयार हो जाते हैं और इस पौधे में पत्तियों का आकार बाकियों के मुकाबले थोड़ा छोटा रहता है. उत्पादन की बात की जाए तो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 200 क्विंटल तक अरबी इस किस्म से उगाई जा सकती है.

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आजाद अरबी 1

इस किस्म की सबसे  बड़ी खासियत है कि यह बाकी किस्म के मुकाबले जल्दी बन कर तैयार हो जाती है.  केवल 4 महीने में ही बनकर तैयार होने वाली इस फसल से प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 280 क्विंटल पैदावार होती है और इसके पौधे सामान्य आकार के बनकर तैयार होते हैं.

नरेंद्र अरबी

देखने में हरे रंग का फल देने वाली यह किस्म लगभग 160 से 170 दिन के बीच में बनकर तैयार हो जाती है और इस किस्म से उगने वाले फल के सभी हिस्से खाने में इस्तेमाल किए जा सकते हैं.  इसमें हाला की पैदावार बाकी कसम के मुकाबले थोड़ी कम रहती है जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 150 क्विंटल तक मानी गई है. इसके अलावा भी अरबी की कई उन्नत किस्मो को अलग-अलग स्थान और जलवायु के हिसाब से पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है, जो कि इस प्रकार है :- पंजाब अरबी 1, ए. एन. डी. सी. 1, 2, 3, सी. 266, लोकल तेलिया, मुक्ता काशी, बिलासपुर अरूम, सफेद गौरिया, नदिया, पल्लवी, पंजाब गौरिया, सहर्षमुखी कदमा, फैजाबादी, काका कंचु, अहिना, सतमुखी, लाधरा और बंसी आदि.

अरबी की फसल के लिए खेत की तैयारी

अरबी की फसल लगाने के लिए भुरभुरी मिट्टी की जरूरत होती है इसलिए सबसे पहले गहरी जुताई करते हुए खेत में से पुरानी फसल के अवशेष नष्ट कर दिए जाते हैं.  एक बार जुताई करने के बाद खेत को 15  से 17 गाड़ी पुराने गोबर की खाद डालकर खुला छोड़ दिया जाता है. गोबर की खाद की जगह केंचुआ खाद का भी इस्तेमाल किया जा सकता है. थोड़े समय खेत को खुला छोड़ देने के बाद फिर से जुताई की जाती है ताकि खाद को अच्छी तरह से खेत में मिलाया जा सके. इसके बाद कल्टीवेटर की मदद से दो से तीन बार खेत की तिरछी जोताई की जाती है और आप इसके बाद अगर चाहे तो खेत में केमिकल उर्वरक का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. आखरी जुदाई करते समय आपस में नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फोरस का छिड़काव कर सकते हैं. इसके बाद खेत में पानी डालकर उसे थोड़े समय के लिए छोड़ दिया जाता है और अंत में रोटावेटर की मदद से एक बार फिर से तिरछी जुताई करते हुए मिट्टी को भुरभुरा कर लिया जाता है. भुरभुरी मिट्टी में पानी का जमाव ज्यादा नहीं होता है इसलिए ऐसा करना अनिवार्य है. इसके बाद आप भूमि को समतल करते हुए खेत में फसल उगा सकते हैं.

कैसे करें अरबी के बीजों की रोपाई

प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगभग 15 से 20 क्विंटल बीजों की जरूरत पड़ती है और इन बीजों की रोपाई कंद के तौर पर ही की जाती है. कंद की रोपाई से पहले उन्हें बाविस्टीन या रिडोमिल एम जेड- 72 की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है. ऐसा करने के बाद आप दो तरीकों से बीजों की रोपाई कर सकते हैं, एक तो समतल भूमि में क्यारियां बनाकर और दूसरा खेत में मेड बनाते हुए कंधों की रोपाई की जा सकती है. इस फसल में बीज को लगभग 5 सेंटीमीटर की गहराई में लगाया जाता है. अगर आप  क्यारी बनाते हुए फसल की रोपाई कर रहे हैं तो प्रत्येक क्यारी के बीच में लगभग 2 फीट की दूरी जरूर रखें. इसके अलावा एक बीज के मध्य अभी लगभग डेढ़ फीट की दूरी होना अनिवार्य है.  मेड विधि से रोपाई करते समय यदि खेत में डेढ़ से दो फीट की दूरी बनाते हुए मेड का निर्माण करें. इसके बाद मेल के मध्य में नाली में ही कंद को डालकर उसे एक बार मिट्टी से ढक दें.

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मानसून के शुरुआती जुलाई महीने में किसान भाई क्या करें
फसल उगाने का सबसे सही समय जून और जुलाई का महीना माना गया है इसके अलावा गर्मियों के मौसम में अगर आप इस फसल की पैदावार चाहते हैं तो आप फरवरी और मार्च के बीच में भी इसकी रोपाई कर सकते हैं.

कैसे करें अरबी की फसल में सिंचाई

अगर आप चाहते हैं कि बारिश के मौसम में पैदावार प्राप्त हो जाए तो आपको पौधों की सिंचाई करने की जरूरत होती.  सबसे पहले पौधों को सप्ताह में दो बार सिंचाई की जाती है.  इसके अलावा अगर आपने अरबी की फसल बारिश के मौसम में लगाई है तो आपको ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ेगी.  बारिश के मौसम में उगाई जाने वाली अरबी की फसल में आप भी इस दिन के अंतर पर सिंचाई कर सकते हैं.  इसके अलावा बारिश के मौसम में बारिश का ध्यान रखते हुए ही सिंचाई करें ताकि जमीन में पानी ना ठहर जाए.

अरबी की फसल में खरपतवार नियंत्रण का तरीका

आप चाहे तो अरबी की फसल में केमिकल उर्वरक का इस्तेमाल कर सकते हैं या फिर प्राकृतिक विधि से भी खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है. प्राकृतिक तरीके से खरपतवार का नियंत्रण करने के लिएमल्चिंग विधि का इस्तेमाल किया जाता है, इस विधि में कंद रोपाई के बाद खेत में बनी पंक्तियों को छोड़कर शेष स्थान पर सूखी घास या पुलाव बिछाकर मल्चिंग की जाती है. इसके बाद खेत में खरपतवार जन्म नहीं लेते है. रासायनिक तरीके से खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए कंद रोपाई के तुरंत बाद पेंडामेथालिन की उचित मात्रा पानी में मिलाकर खेत में छिड़क दी जाती है.

अरबी की फसल को प्रभावित करने वाले रोग और उनकी रोकथाम का तरीका

एफिड

एफिड, माहू, और थ्रिप्स या तीनो एक ही प्रजाति के रोग है, जो कीट के रूप में पौधों के नाजुक अंगो और पत्तियों पर आक्रमण कर उनका रस चूस लेते है .इसरो के लगने के बाद पौधे की पत्तियां पीली पड़ने शुरू हो जाती है और उनके विकास में बाधा आ जाती है.  अगर आप इस रोग से पौधों को बचाना चाहते हैं तोक्विनालफॉस या डाइमेथियोट की उचित मात्रा का छिड़काव पौधों पर किया जाता है .इसके अलावा प्राकृतिक विधि अपनाना चाहते हैं तो आप 10 दिन के अंतर पर पौधों पर नीम के तेल का छिड़काव कर सकते हैं.

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पत्ती अंगमारी

जैसा कि नाम से ही जानकारी मिल रही है यह रोग पौधे की पत्तियों पर आक्रमण करता है और इस रोग में पौधे की पत्तियों पर फफूंद लगने लगती है. एक बारिश रोग से प्रभावित होने के बाद पौधे की पत्तियों पर भूरे रंग के गोल और बड़े धब्बे बनने शुरू हो जाते हैं और सारी पत्तियां धीरे-धीरे नष्ट होकर गिर जाती हैं. साथ ही अगर पौधों में यह रोग हो जाता है तो यह पौधे के विकास को भी प्रभावित करता है और पौधे में कंद छोटे आकार के ही रह जाते हैं. इस रोग से पौधों को बचाने के लिए फेनामिडोंन, मेन्कोजेब या रिडोमिल एम जेड- 72 की उचित मात्रा का छिड़काव पौधों पर किया जाता है.

गांठ गलन

गांड जलन रोग मिट्टी से पैदा होने वाला एक रोग है जो सीधे तौर पर पौधे की पत्तियों पर आक्रमण करते हुए उन्हें काले रंग का कर देता है. इसमें सबसे पहले पौधे की पत्तियों पर धब्बे नजर आते हैं और बाद में पत्तियां पीले रंग की होकर पूरी तरह से नष्ट हो जाती है. अगर इस रोग पर समय रहते ध्यान ना दिया जाए तो आपकी पूरी फसल भी बर्बाद हो सकती है. इस रोग से पौधे को बचाने के लिएजिनेब 75 डब्ल्यू पी की या एम 45 की उचित मात्रा पानी में मिलाकर पौधों पर छिड़काव करते है.

कंद सडन रोग

यह रोग भी पौधे की पत्तियों पर आक्रमण करता है और उसमें फफूंद लगा देता है. यह रोग ज्यादातर नमी के समय में देखने को मिलता है और अगर किसी कारण से फसल में पानी ठहर जाता है तो यह रोग होने की संभावना और ज्यादा बढ़ जाती है. यह रोग एक बार फसल पैदा होने के बाद किसी भी चरण पर पौधे को प्रभावित कर देता है. इस रोग से बचाव के लिए सबसे पहले तो आपको कोशिश करनी है की फसल में जलभराव ना हो और साथ ही आप बोर्डो मिश्रण का छिड़काव फसल पर करते हुए इस रोग से बचाव कर सकते हैं.

अरबी की फसल से होने वाली कमाई

अरबी की सभी केस में लगभग 170 से 180 दिन में बनकर तैयार हो जाती हैं.  एक बार जो पौधे की पत्तियां हल्के पीले रंग की दिखाई देने लगे तो आप कंद की खुदाई करना शुरू कर सकते हैं.  अच्छी तरह से एक कंद को साफ करने के बाद आप इसे घटा कर सकते हैं. फसल में लगी हुई हरी पत्तियों को भी बेचा जा सकता है और प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सामान्यतः 180 से 200 क्विंटल की पैदावार किसान इस फसल को लगाते हुए कर सकते हैं.  बाजार में अरबी का भाव 15 से ₹20 प्रति किलो का होता है तो इस अनुमान से किसान रबी की फसल से लगभग 3 से 4  लाख  की कमाई आसानी से कर सकते हैं.
पॉली हाउस तकनीक से खीरे की खेती कर किसान कमा रहा बेहतरीन मुनाफा

पॉली हाउस तकनीक से खीरे की खेती कर किसान कमा रहा बेहतरीन मुनाफा

पॉली हाउस में खीरे का उत्पादन करने पर बारिश, आंधी, लू, धूप और सर्दी का प्रभाव नहीं होता है। आप किसी भी मौसम में पॉली हाउस के भीतर किसी भी फसल का उत्पादन कर सकते हैं। खीरा खाना प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा लगता है। साथ ही, खीरा में आयरन, फास्फोरस, विटामिन ए, विटामिन बी1, विटामिन बी6, विटामिन सी,विटामिन डी और पौटेशियम भरपूर मात्रा में विघमान रहता है। नियमित तौर पर खीरे का सेवन करने पर शरीर चुस्त-दुरुस्त रहता है। साथ ही, खीरे में बहुत ज्यादा फाइबर भी पाया जाता है। खीरे से कब्ज की परेशानी से छुटकारा मिलता है। यही कारण है, कि बाजार में खीरे की मांग वर्षों बनी रहती है। अब ऐसी स्थिति में मांग को पूर्ण करने के लिए किसान पॉली हाउस के भीतर खीरे का उत्पादन कर रहे हैं। इससे किसानों को अच्छी-खासी आमदनी हो रही है।

पॉली हाउस फसल को विभिन्न आपदाओं से बचाता है

वास्तव में पॉली हाउस में खीरे की खेती करने पर ताप, धूप, बारिश, आंधी, लू और ठंड का प्रभाव नहीं पड़ता है। आप किसी भी मौसम में पॉली हाउस के भीतर किसी भी फसल की खेती आसानी से कर सकते हैं। इससे उनका उत्पादन भी बढ़ जाता है और किसान भाइयों को मोटा मुनाफा प्राप्त होता है। इसी कड़ी में एक किसान हैं दशरथ सिंह, जिन्होंने पॉली हाउस तकनीक के जरिए खेती शुरू कर लोगों के सामने नजीर पेश की है। दशरथ सिंह अलवर जनपद के इंदरगढ़ के निवासी हैं। वह लंबे वक्त से पॉली हाउस के भीतर खीरे का उत्पादन कर रहे हैं। इससे उनको काफी अच्छी आमदनी भी अर्जित हो रही है। ये भी देखें: नुनहेम्स कंपनी की इम्प्रूव्ड नूरी है मोटल ग्रीन खीरे की किस्म

किसान खीरे की कितनी उपज हांसिल करता है

दशरथ सिंह पूर्व में पारंपरिक विधि से खेती किया करते थे। उनको पॉली हाउस के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं थी। एक दिन उनको उद्यान विभाग के संपर्क में आकर उनको पॉली हाउस तकनीक से खेती करने की जानकारी प्राप्त हुई है। इसके पश्चात उन्होंने 4000 वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में पॉली हाउस का निर्माण करवाया और उसके अंदर खीरे का उत्पादन चालू कर दिया।

बहुत सारे किसान पॉली हाउस तकनीक से खेती करते हैं

किसान दशरथ सिंह का कहना है, कि पॉली हाउस की स्थापना करने पर उनको 15 लाख रुपये का खर्चा करना पड़ा। हालांकि, सरकार की ओर से उनको 23 लाख 50 हजार का अनुदान भी मिला था। उनको देख कर फिलहाल जनपद में बहुत सारे किसान भाइयों ने पॉली हाउस के भीतर खेती शुरू कर दी है।

लखन यादव ने पॉली हाउस तकनीक को लेकर क्या कहा

साथ ही, दशरथ सिंह के बेटे लखन यादव का कहना है, कि हम पॉली हाउस के भीतर केवल खीरे की ही खेती किया करते हैं। विशेष बात यह है, कि वह पॉली हाउस के भीतर सुपर ग्लो-बीज का उपयोग करते हैं, इससे फसल की उन्नति एवं प्रगति भी शीघ्र होती है। उनका यह भी कहना है, कि उन्हें एक बार की फसल में 60 से 70 टन खीरे की उपज अर्जित हुई थी। वहीं, एक फसल तैयार होने में करीब 4 से 5 माह का समय लगता है। बतादें, कि 60 से 70 टन खीरों का विक्रय कर वे 12 लाख रुपये की आय कर लेते हैं। इसमें से 6 लाख तक का मुनाफा होता है।
नींबू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

नींबू की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

नींबू की खेती अधिकांश किसान मुनाफे के तौर पर करते हैं। नींबू के पौधे एक बार अच्छी तरह विकसित हो जाने के बाद कई सालों तक उत्पादन देते है। यह कम लागत में ज्यादा मुनाफे देने वाली फसलों में से एक है। बतादें, कि नींबू के पौधों को सिर्फ एक बार लगाने के उपरांत 10 साल तक उत्पादन लिया जा सकता है। पौधरोपण के पश्चात सिर्फ इनको देखरेख की जरूरत पड़ती है। इसका उत्पादन भी प्रति वर्ष बढ़ता जाता है। भारत विश्व का सर्वाधिक नींबू उत्पादक देश है। नींबू का सर्वाधिक उपयोग खाने के लिए किया जाता है। खाने के अतिरिक्त इसे अचार बनाने के लिए भी इस्तेमाल में लिया जाता है। आज के समय में नींबू एक बहुत ही उपयोगी फल माना जाता है, जिसे विभिन्न कॉस्मेटिक कंपनियां एवं फार्मासिटिकल कंपनियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। नींबू का पौधा झाड़ीनुमा आकार का होता है, जिसमें कम मात्रा में शाखाएं विघमान रहती हैं। नींबू की शाखाओ में छोटे-छोटे काँटे भी लगे होते है। नींबू के पौधों में निकलने वाले फूल सफेद रंग के होते हैं, लेकिन अच्छी तरह तैयार होने की स्थिति में इसके फूलों का रंग पीला हो जाता है। नींबू का स्वाद खट्टा होता है, जिसमें विटामिन ए, बी एवं सी की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। बाजारों में नींबू की सालभर काफी ज्यादा मांग बनी रहती है। यही वजह है, कि किसान भाई नींबू की खेती से कम लागत में अच्छी आमदनी कर सकते हैं।


 

नींबू की खेती के लिए उपयुक्त मृदा

नींबू की खेती के लिए सबसे अच्छी बलुई दोमट मृदा मानी जाती है। साथ ही, अम्लीय क्षारीय मृदा एवं लेटराइट में भी इसका उत्पादन सहजता से किया जा सकता है। उपोष्ण कटिबंधीय एवं अर्ध शुष्क जलवायु वाले इलाकों में नींबू की पैदावार ज्यादा मात्रा में होती है। भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान राज्यों के विभिन्न इलाकों में नींबू की खेती काफी बड़े क्षेत्रफल में की जाती है। ऐसे इलाके जहां पर ज्यादा वक्त तक ठंड बनी रहती हैं, ऐसे क्षेत्रों में नींबू का उत्पादन नहीं करनी चाहिए। क्योंकि, सर्दियों के दिनों में गिरने वाले पाले से इसके पौधों को काफी नुकसान होता है। 

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नींबू में रोग एवं उनका नियंत्रण

कागजी नींबू

नींबू की इस किस्म का भारत में अत्यधिक मात्रा में उत्पादन किया जाता है। कागजी नींबू के अंदर 52% प्रतिशत रस की मात्रा विघमान रहती है | कागजी नींबू को व्यापारिक तौर पर नहीं उगाया जाता है।


 

प्रमालिनी

प्रमालिनी किस्म को व्यापारिक तौर पर उगाया जाता है। इस प्रजाति के नींबू गुच्छो में तैयार होते हैं, जिसमें कागजी नींबू के मुकाबले 30% ज्यादा उत्पादन अर्जित होता है। इसके एक नींबू से 57% प्रतिशत तक रस अर्जित हो जाता है।


 

विक्रम किस्म का नींबू

नींबू की इस किस्म को ज्यादा उत्पादन के लिए किया जाता है। विक्रम किस्म के पौधों में निकलने वाले फल गुच्छे के स्वरुप में होते हैं, इसके एक गुच्छे से 7 से 10 नींबू अर्जित हो जाते हैं। इस किस्म के पौधों पर सालभर नींबू देखने को मिल जाते हैं। पंजाब में इसको पंजाबी बारहमासी के नाम से भी मशहूर है। साथ ही, इसके अतिरिक्त नींबू की चक्रधर, पी के एम-1, साई शरबती आदि ऐसी किस्मों को ज्यादा रस और उत्पादन के लिए उगाया जाता है। 

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नींबू के खेत की तैयारी इस तरह करें

नींबू का पौधा पूरी तरह से तैयार हो जाने पर बहुत सालों तक उपज प्रदान करता है। इस वजह से इसके खेत को बेहतर ढंग से तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम खेत की बेहतर ढ़ंग से मृदा पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर देनी चाहिए। क्योंकि, इससे खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूरी तरह से नष्ट हो जाते है। इसके पश्चात खेत में पुरानी गोबर की खाद को डालकर उसकी रोटावेटर से जुताई कर मृदा में बेहतर ढ़ंग से मिला देना चाहिए। खाद को मृदा में मिलाने के पश्चात खेत में पाटा लगाकर खेत को एकसार कर देना चाहिए। इसके उपरांत खेत में नींबू का पौधरोपण करने के लिए गड्डों को तैयार कर लिया जाता है।


 

नींबू पोधरोपण का उपयुक्त समय एवं विधि

नींबू का पौधरोपण पौध के तौर पर किया जाता है। इसके लिए नींबू के पौधों को नर्सरी से खरीद लेना चाहिए। ध्यान दने वाली बात यह है, कि गए पौधे एक माह पुराने एवं पूर्णतय स्वस्थ होने चाहिए। पौधों की रोपाई के लिए जून और अगस्त का माह उपयुक्त माना जाता है। बारिश के मौसम में इसके पौधे काफी बेहतर ढ़ंग से विकास करते हैं। पौधरोपण के पश्चात इसके पौधे तीन से चार साल उपरांत उत्पादन देने के लिए तैयार हो जाते हैं। नींबू का पौधरोपण करने के लिए खेत में तैयार किये गए गड्डों के बीच 10 फीट का फासला रखा जाता है, जिसमें गड्डो का आकार 70 से 80 CM चौड़ा एवं 60 CM गहरा होता है। एक हेक्टेयर के खेत में लगभग 600 पौधे लगाए जा सकते हैं। नींबू के पौधों को ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। वह इसलिए क्योंकि नींबू का पौधरोपण बारिश के मौसम में किया जाता है। इस वजह से उन्हें इस दौरान ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके पौधों की सिंचाई नियमित समयांतराल के अनुरूप ही करें। सर्दियों के मौसम में इसके पौधों को 10 से 15 दिन के अंतराल में पानी देता होता है। इससे ज्यादा पानी देने पर खेत में जलभराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जो कि पौधों के लिए अत्यंत हानिकारक साबित होती है।


 

नींबू की खेती में लगने वाले कीट

रस चूसक कीट

सिटरस सिल्ला, सुरंग कीट एवं चेपा की भांति के कीट रोग शाखाओं एवं पत्तियों का रस चूसकर उनको पूर्णतय नष्ट कर देते हैं। बतादें, कि इस प्रकार के रोगों से बचाव करने के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफॉस की समुचित मात्रा का छिड़काव किया जाता है। इसके अलावा इन रोगो से प्रभावित पौधों की शाखाओं को काटकर उन्हें अलग कर दें।

काले धब्बे

नींबू की खेती में काले धब्बे का रोग नजर आता है। बतादें, कि काला धब्बा रोग से ग्रसित नींबू के ऊपर काले रंग के धब्बे नजर आने लगते हैं। शुरआत में पानी से धोकर इस रोग को बढ़ने से रोक सकते हैं। अगर इस रोग का असर ज्यादा बढ़ जाता है, तो नींबू पर सलेटी रंग की परत पड़ जाती है। इस रोग से संरक्षण करने हेतु पौधों पर सफेद तेल एवं कॉपर का घोल बनाकर छिड़काव किया जाता है। 

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नींबू में जिंक और आयरन की कमी होने पर क्या करें

नींबू के पौधों में आयरन की कमी होने की स्थिति में पौधों की पत्तियां पीले रंग की पड़ जाती हैं। जिसके कुछ वक्त पश्चात ही पत्तियां सूखकर गिर जाती हैं और पौधा भी आहिस्ते-आहिस्ते सूखने लगती है। नींबू के पौधों को इस किस्म का रोग प्रभावित ना करे। इसके लिए पौधों को देशी खाद ही देनी चाहिए। इसके अलावा 10 लीटर जल में 2 चम्मच जिंक की मात्रा को घोलकर पौधों में देनी होती है।


 

नींबू की कटाई, उत्पादन और आय

नींबू के पौधों पर फूल आने के तीन से चार महीने बाद फल आने शुरू हो जाते हैं। इसके उपरांत पौधों पर लगे हुए नींबू को अलग कर लिया जाता है। नींबू की उपज गुच्छो के रूप में होती है, जिसके चलते इसके फल भिन्न-भिन्न समय पर तुड़ाई हेतु तैयार होते है। तोड़े गए नीबुओं को बेहतरीन ढंग से स्वच्छ कर क्लोरीनेटड की 2.5 GM की मात्रा एक लीटर जल में डालकर घोल बना लें। इसके पश्चात इस घोल से नीबुओं की साफ-सफाई करें। इसके पश्चात नीबुओं को किसी छायादार स्थान पर सुखा लिया जाता है। नींबू का पूरी तरह विकसित पौधा एक साल में लगभग 40 KG की उपज दे देता है। एक हेक्टेयर के खेत में लगभग 600 नींबू के पौधे लगाए जा सकते हैं। इस हिसाब से किसान भाई एक वर्ष की उपज से 3 लाख रुपए तक की आमदनी सुगमता से कर सकते हैं।

सरकारी नौकरी को छोड़कर मुकेश पॉलीहाउस के जरिए खीरे की खेती से मोटा मुनाफा कमा रहा है

सरकारी नौकरी को छोड़कर मुकेश पॉलीहाउस के जरिए खीरे की खेती से मोटा मुनाफा कमा रहा है

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि युवा किसान मुकेश का कहना है, कि नेट हाउस निर्मित करने के लिए सरकार की ओर से अनुदानित धनराशि भी मिलती है। शुरुआत में नेट हाउस स्थापना के लिए उसे 65% की सब्सिडी मिली थी। हालांकि, वर्तमान में हरियाणा सरकार ने अनुदान राशि को घटाकर 50% कर दिया है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि आज भी सरकारी नौकरी के पीछे लोग बिल्कुल पागल हो गए हैं। प्रत्येक माता- पिता की यही चाहत होती है, कि उसकी संतान की सरकारी नौकरी लग जाए, जिससे कि उसकी पूरी जिन्दगी सुरक्षित हो जाए। अब सरकारी नौकरी बेशक निम्न स्तर की ही क्यों न हो। परंतु, आज हम एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बात करेंगे, जो कि अच्छी-खासी सरकारी नौकरी को छोड़ अब गांव आकर खेती कर रहा है।

किसान मुकेश कहाँ का रहने वाला है

दरअसल, हम जिस युवा किसान के संबंध में बात करने जा रहे हैं, उसका नाम मुकेश कुमार है। मुकेश हरियाणा के करनाल जनपद का रहने वाला है। पहले वह हरियाणा बोर्ड में सरकारी नौकरी करता था। नौकरी के दौरान मुकेश को प्रति महीने 45 हजार रुपये सैलरी मिलती थी। परंतु, इस सरकारी कार्य में उसका मन नहीं लगा, तो ऐसे में उसने इस नौकरी को लात मार दी। आज वह अपनी पुश्तैनी भूमि पर नेट हाउस विधि से खेती कर रहा है, जिससे उसको काफी अच्छी कमाई हो रही है।

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किसान मुकेश लोगों को रोजगार मुहैय्या करा रहा है

किसान मुकेश अन्य बहुत से किसानो के लिए भी रोजगार के अवसर उपलब्ध करा रहे हैं। किसान मुकेश का कहना है, कि उसने अपनी भूमि पर चार नेट हॉउस तैयार कर रखे हैं। इनके अंदर किसान मुकेश खीरे की खेती करते हैं। किसान मुकेश के मुताबिक खीरे की मांग गर्मियों में काफी ज्यादा बढ़ जाती है। अब ऐसे में किसान मुकेश लगभग 2 वर्षों से खीरे की खेती कर रहा। बतादें कि इससे किसान मुकेश को काफी अच्छी कमाई हो रही है। यही वजह है, कि वह आहिस्ते-आहिस्ते खीरे की खेती का रकबा और ज्यादा बढ़ाते गए हैं। इसके साथ साथ मुकेश ने अपने आसपास के बहुत से लोगों को रोजगार भी उपलब्ध कराया है।

खीरे की वर्षभर खेती की जा सकती है

मुकेश का कहना है, कि एक नेट हाउस निर्मित करने के लिए ढ़ाई से तीन लाख रुपये की लागत आती है। परंतु, इसके अंदर खेती करने पर आमदनी काफी ज्यादा बढ़ जाती है। युवा किसान का कहना है, कि खीरे की बहुत सारी किस्में हैं, जिसकी नेट हाउस के अंदर सालों भर खेती की जा सकती है।

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ड्रिप विधि से सिंचाई करने पर जल की काफी कम बर्बादी होती है

किसान मुकेश का कहना है, कि उनको खीरे की खेती की सबसे बड़ी खासियत यह लगी है कि इसकी खेती में जल की काफी कम खपत होती है। दरअसल, नेट हॉउस में ड्रिप विधि के माध्यम से फसलों की सिंचाई की जाती है। ड्रिप विधि से सिंचाई करने से जल की बर्बादी बेहद कम होती है। इसके साथ ही पौधों की जड़ो तक पानी पहुँचता है। किसान मुकेश अपने खेत में पैदा किए गए खीरे की सप्लाई दिल्ली एवं गुरुग्राम समेत बहुत सारे शहरों में करता है। वर्तमान में वह 15 रूपए किलो के हिसाब से खीरे बेच रहा है।