Ad

rice

चारे की कमी को दूर करने के लिए लोबिया की खेती की महत्वपूर्ण जानकारी

चारे की कमी को दूर करने के लिए लोबिया की खेती की महत्वपूर्ण जानकारी

खरीफ फसलों की बुवाई का समय चल रहा है। अब ऐसे में लोबिया की खेती लघु कृषकों के लिए एक वरदान सिद्ध हो सकती है। 

भारत में लघु और सीमांत कृषकों की संख्या काफी ज्यादा है, जिनके पास काफी कम भूमि है। ऐसे कृषकों के लिए लोबिया की खेती काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। 

लोबिया एक दलहनी फसल की श्रेणी में आने वाली एक फसल है। इसकी खेती खरीफ और जायद दोनों ही सीजन में की जा सकती है। 

इसकी खेती करने से कृषकों को दो तरह के फायदे हो सकते हैं। एक तो किसान इसे सब्जी के तोर पर प्रयोग कर सकते हैं और दूसरा इसे पशुओं के चारे में इस्तेमाल किया जा सकता है।

लोबिया से आप क्या समझते हैं ?

लोबिया एक ऐसी फली होती है, जो कि तिलहन की श्रेणी के अंतर्गत आती है। इसको बोड़ा, चौला या चौरा के नाम से भी जाना जाता है और इसका पौधा सफेद रंग का और काफी बड़ा होता है। 

लोबिया की फलियां पतली और लंबी होती हैं। साथ ही, इसका उपयोग सब्जी निर्मित करने और पशुओं के चारे के लिए किया जाता है। 

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु           

लोबिया की खेती करने के लिए गर्म व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। बतादें, कि इसकी खेती करने लिए 24-27 डिग्री के बीच के तापमान की जरुरत होती है। 

अत्यधिक कम तापमान होने पर इसकी फसल पूर्णतय नष्ट हो सकती है। इसलिए लोबिया की फसल को अधिक ठंड से बचाना चाहिए। 

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लोबिया की खेती हर प्रकार की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है। मगर एक बात का खास ध्यान रखें कि इसके लिए छारीय मृदा नहीं होनी चाहिए।

लोबिया की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं 

दरअसल, लोबिया की कई उन्नत किस्में हैं, जो कि बहुत अच्छा उत्पादन देती हैं। जैसे - सी- 152, पूसा फाल्गुनी, अम्बा (वी- 16), स्वर्णा (वी- 38), जी सी- 3, पूसा सम्पदा (वी- 585) और श्रेष्ठा (वी- 37) आदि प्रमुख किस्में हैं। 

लोबिया की बुवाई के लिए उपयुक्त समय

अगर हम लोबिया की बुवाई के विषय में बात करें, तो बरसात के मौसम में जून महीने के अंत तक इसकी बुवाई की जाती है। वहीं, इसकी फरवरी से लेकर मार्च माह तक बुवाई की जाती है।

लोबिया की बुवाई करने के लिए बीज की मात्रा

लोबिया की बुवाई करते समय यह ध्यान रखना विशेष जरूरी है, कि उसकी मात्रा ज्यादा न हो। इसकी बुवाई के लिए सामान्यत: 12-20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर की दर से पर्याप्त माना जाता है। 

इसकी बेल वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा थोड़ी कम लगती है। साथ ही, मौसम के हिसाब से बीज की मात्रा का निर्धारण किया जाना चाहिए।

लोबिया की बुवाई करने का उत्तम तरीका क्या है ?

लोबिया की बुवाई करने के दौरान इस बात का ध्यान रखना विशेष आवश्यक है, कि इसके बीज के बीच समुचित दूरी होनी जरूरी है। जिससे कि जब इसका पौधा उगे, तो वह ठीक ढ़ंग से विकास कर सके। 

ये भी पढ़ें: लोबिया की खेती: किसानों के साथ साथ दुधारू पशुओं के लिए भी वरदान

दरअसल, लोबिया की बुवाई करते वक्त उसकी किस्म के अनुरूप फासला रखा जाता है। जैसे- झाड़ीदार किस्मों के बीज के लिए एक कतार से दूसरी कतार की दूरी 45-60 सेमी होनी चाहिए। 

बीज से बीज का फासला 10 सेमी तक होना चाहिए। वहीं, इसकी बेलदार किस्मों के लिए लाइन से लाइन का फासला 80-90 सेमी रखना सही होता है। 

लोबिया में खाद की मात्रा की जानकारी  

लोबिया की खेती करने के लिए खाद की बड़ी महत्ता होती है। ऐसे ही लोबिया की खेती करने के लिए खाद अत्यंत आवश्यक है। लोबिया की फसल उगने से कुछ इस तरह से खाद डालनी चाहिए। 

एक महीने पहले खेत में 20-25 टनगोबर या कम्पोस्ट डालें, 20 किग्रा नाइट्रोजन, फास्फोरस 60 कि.ग्रा. तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में जुलाई के अंत में ही डाल दें। साथ ही, नाइट्रोजन की 20 कि.ग्रा. की मात्रा फसल में फूल आने के दौरान देनी चाहिए।

लोबिया की खेती में सिंचाई प्रबंधन 

लोबिया की फसल को खरीफ के सीजन में सिंचाई की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसलिए खरीफ के सीजन में उतना ही पानी देना चाहिए, जिससे कि मृदा में नमी बरकरार बनी रहे। 

वहीं, गर्मी की फसल की बात करें तो सामान्यतः किसी भी फसल में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यदि लोबिया की बात करें, तो इसमें 5 से 6 पानी की आवश्यकता पड़ती है। 

किसानों को मुनाफा दिलाने वाली पुदीने की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसानों को मुनाफा दिलाने वाली पुदीने की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

पुदीना का वानस्पतिक नाम मेंथा है , इसे जड़ी बूटी वाला पौधा भी कहा जाता है। पुदीना के पौधे को स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। पुदीना के अंदर विटामिन ए और सी के अलावा खनिज जैसे पोषक तत्व भी पाए जाते है। गर्मियों के समय में पुदीने की अच्छी माँग रहती है , इसीलिए इसकी खेती कर किसान अच्छा मुनाफा भी कमा सकते है। 

पुदीने के पौधे की पत्तियां लगभग 2-2.5 अंगुल लम्बी और 1.5 से 2 अंगुल चौड़ी रहती है। इस पौधे में से सुगन्धित खुशबू आती रहती है , गर्मियों में इसका प्रयोग बहुत सी चीजों में किया जाता है। पुदीना एक बारहमासी पौधा है। 

कैसे करें पुदीने के खेत की तैयारी 

पुदीने की खेती के लिए अच्छे जल निकासी वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। पुदीने की बुवाई से पहले खेत की अच्छे से जुताई कर ले, उसके बाद भूमि को समतल कर ले। दुबारा जुताई करते वक्त खेत में गोबर की खाद का भी प्रयोग कर सकते है। इसके साथ पुदीने की अधिक उपज के लिए खेत में नाइट्रोजन , पोटाश और फोस्फोरस का भी उपयोग किया जा सकता है। पुदीने की खेती के लिए भूमि का पी एच मान 6 -7 के बीच होना चाहिए। 

ये भी पढ़ें: भारतीय बाजार में बढ़ी पिपरमिंट ऑयल की मांग, ऐसे करें पिपरमिंट की खेती

पुदीने के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी

वैसे तो पुदीने को बसंत ऋतू में लगाया जाना बेहतर माना जाता है। लेकिन यह एक बारहमासी पौधा है ज्यादा सर्दी के मौसम को छोड़कर इसकी खेती सभी मौसम में की जा सकती है। इसकी पैदावार के लिए उष्ण जलवायु को बेहतर माना जाता है। पुदीने की खेती के लिए ज्यादा उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता रहती है। पुदीना की खेती जल जमाव वाले क्षेत्र में भी की जा सकती है, इसकी खेती के लिए नमी की आवश्यकता रहती है।  

पुदीने की उन्नत किस्में

पुदीने की कुछ किस्में इस प्रकार है , कोसी , कुशाल , सक्ष्म, गौमती (एच वाई 77 ) ,शिवालिक , हिमालय , संकर 77 , एमएएस-1 यह सब पुदीने की उन्नत किस्में है। इन किस्मों का उत्पादन कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकता है। 

पुदीने की खेती की विधि क्या है 

पुदीने की खेती धान की खेती के जैसे की जाती है। इसमें पहले पुदीने को खेत की एक क्यारी में अच्छे से बो लिया जाता है। जब इसकी जड़े निकल आती है ,तो पुदीने को पहले से तैयार खेत में लगा दिया जाता है। पुदीने की खेती के लिए किसानो को उचित किस्मों का चयन करना चाहिए ,ताकि किसान ज्यादा मुनाफा कमा सके। 

ये भी पढ़ें: सर्दियों में बागवानी की इन फसलों की खेती से किसान लाखों कमा सकते हैं

सिंचाई प्रबंधन

पुदीने के खेत में लगभग 8 -9 बार सिंचाई का कार्य किया जाता है। पुदीने की सिंचाई ज्यादातर मिट्टी की किस्म और जलवायु पर आधारित रहती है। अगर मॉनसून के बाद अच्छी बारिश हो जाती है , तो उसमे सिंचाई का काम कम हो जाता है। मानसून के जाने के बाद पुदीने की फसल में लगभग तीन बार पानी और दिया जाता है।  इसके साथ ही सर्दियों में पुदीने की फसल को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती है, किसानों द्वारा जरुरत के हिसाब से पानी दिया जाता है।

खरपतवार नियंत्रण 

पुदीने की फसल को खरपतवार से बचाने के लिए किसानों द्वारा समय समय पर गुड़ाई और नराई का काम किया जाना चाहिए। इसके साथ ही किसानों द्वारा कीटनाशक दवाइयों का भी उपयोग किया जा सकता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए किसान को एक ही फसल का उत्पादन नहीं करना चाहिए , उसे फसल चक्र अपनाना चाहिए। फसल चक्र अपनाने से खेत में खरपतवार जैसी समस्याएं कम होती है और फसल का उत्पादन भी अधिक होता है। 

ये भी पढ़ें: माइक्रोग्रीन खेती कम समय में बनाएगी लखपति, कहीं भी कर सकते हैं खेती

फसल की कटाई 

पुदीने की फसल लगभग 100 -120 में पककर तैयार हो जाती है। पुदीने की फसल की कटाई किसानो द्वारा हाथ से की जाती है। पुदीने के जब निचले भाग के पत्ते पीले पड़ने लग जाये तो  इसकी कटाई प्रारंभ कर दी जाती है। कटाई के बाद पुदीने के पत्तों का उपयोग बहुत से कामो में किया जाता है। पुदीने को लम्बे समय के लिए भी स्टोर किया जा सकता है। साथ ही इसके हरे पत्तों का उपयोग खाना बनाने के लिए भी किया जाता है। 

पुदीने का इस्तेमाल आमतौर पर बहुत सी चीजों में किया जाता है, जैसे : चटनी बनाने , छाछ में डालने के लिए और भी बहुत सी चीजों में इसका उपयोग किया जाता है। पुदीने की दो बार कटाई की जाती है पहली 100 -120 दिन बाद और दूसरी कटाई 80 दिन बाद। साथ ही पुदीना बहुत से औषिधीय गुणों से भरपूर है। पुदीने का ज्यादातर उत्पादन पंजाब , हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्य में किया जाता है। साथ ही पुदीना शरीर के अंदर इम्मुनिटी को बढ़ाता है। 

सेहत के लिए लाभकारी लहसुन फसल की विस्तृत जानकारी

सेहत के लिए लाभकारी लहसुन फसल की विस्तृत जानकारी

भारत के ज्यादातर राज्यों में लहसुन की खेती बड़े स्तर पर की जाती है। किसानो द्वारा इसकी खेती अक्टूबर से नवंबर माह के बीच में की जाती है। लहसुन की खेती में किसानो द्वारा कलियों को जमीन के अंदर बोया जाता हैं और मिट्टी से ढक दिया जाता हैं। बुवाई करने से पहले एक बार देख ले कंद खराब तो नहीं हैं,अगर कंद खराब हुई तो लहसुन की पूरी फसल खराब हो सकती हैं। 

लहसुन की बुवाई करते वक्त कलियों के बीच की दूरी समान होनी चाहिए। लहसुन की खेती के लिए बहुत ही कम तापमान की आवश्यकता रहती है। इसकी फसल के लिए न ही ज्यादा ठंड की आवश्कता होती हैं और न ही ज्यादा गर्मी की। लहसुन में एल्सिन नामक तत्व पाया जाता हैं, जिसकी वजह से लहसुन में से गंध आती हैं   

लहसुन की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु 

लहसुन की खेती के लिए हमे सामान्य तापमान की जरुरत रहती हैं। लहसुन की कंद का पकना उसके तापमान पर निर्भर करता है। ज्यादा ठंड और गर्मी की वजह से लहसुन की फसल खराब भी हो सकती हैं। 

लहसुन के खेत को कैसे तैयार किया जाये 

लहसुन के खेत की अच्छे से जुताई करने के बाद खेत  में गोबर खाद का प्रयोग करें ,और उसे अच्छे से मिट्टी में मिला दे। खेत की फिर से जुताई करें ताकि गोबर के खाद को अच्छे से खेत में मिलाया जा सके। इसके बाद खेत में सिंचाई का काम कर सकते है। अगर खेत में खरपतवार जैसे कोई रोग देखने को मिलते हैं तो उसके लिए हम रासायनिक खाद का भी प्रयोग कर सकते है।

ये भी पढ़ें: लहसुन का जैविक तौर पर उत्पादन करके 6 माह में कमाऐं लाखों

लहसुन खाने से होने वाले फायदे क्या हैं:

  • इम्युनिटी को बढ़ाने में सहायक हैं 
लहसुन खाने से इम्युनिटी बढ़ती हैं ,इसमें एल्सिन नामक तत्व पाया जाता हैं।  जो की शरीर के अंदर इम्मुनिटी को बढ़ाने में सहायता करता है।  लहसुन में जिंक ,फॉस्फोरस और मैग्नीशियम पाया जाता हैं जो की हमारे शरीर के लिए बहुत ही फायदेमंद होता हैं। 

  • केलेस्ट्रॉल कम करने में मदद करता हैं 
लहसुन बढ़ते हुए केलेस्ट्रॉल को कम करने में सहायक होती हैं ,बढ़ता हुआ केलेस्ट्रॉल हमारे स्वस्थ्य के लिए हानिकारक होता हैं। ये बेकार कॉलेस्ट्रॉल को बहार निकालने में सहायक होता हैं। लहसुन खून को पतला करके  हृदय से जुडी परशानियों को कम करने में सहायक होता हैं। 

  • कैंसर जैसी बीमारियों में रोकथाम 
लहसुन कैंसर बीमारी के रोकथाम में भी सहायक हैं। लहसुन के अंदर पाए जाने वाले बहुत से तत्व ऐसे रहते हैं जो कैंसर के बढ़ते हुए सेल्स को फैलने से रोकता हैं। लहसुन को कैंसर से पीड़ित लोगो के लिए फायदेमंद माना गया है। 

ये भी पढ़ें: लहसुन के कीट रोगों से बचाए

  • पाचन किर्या में सहायक 

लहसुन खाना पाचन किर्या के लिए सुलभ माना जाता हैं। लहसुन को आहार में लेने से,ये आंतो पर आयी सूजन को कम करता है। लहसुन खाने से पेट में पड़ने वाले कीड़े खत्म हो जाते है। साथ ही यह आंतो को लाभ पहुँचता है। लहसुन खाने से शरीर के अंदर पड़ने वाले बेकार बैक्टीरिया को नष्ट करता हैं। 

लहसुन खाने से होने वाले नुक्सान क्या हैं 

लहसुन खाने से बहुत से फायदे होते हैं ,लेकिन कभी कभी लहसुन का ज्यादा उपयोग करना हानिकारक होता हैं।  जानिए लहसुन के ज्यादा उपयोग करने से होने वाले नुक्सान :

  • लो ब्लड प्रेशर वालों के लिए हानिकारक 
लहसुन खाना ज्यादातर हाई ब्लड प्रेशर वालों के लिए बेहतर माना जाता हैं ,लेकिन यही इसका दुष्प्रभाव लो ब्लड प्रेशर वालो के व्यक्तियों के ऊपर पड सकता है। लहसुन का तासीर गर्म होता हैं जिसकी वजह से यह ,लो ब्लड प्रेशर वाले लोगो के लिए फायदेमंद नहीं  हैं। इसके खाने से जी मचलना और सीने पर जलन होना आदि हो सकता है। 

  • गैस और एसिडिटी जैसी समस्याएं हो सकती हैं 
लहसुन खाने से पाचन किर्या से सम्बंधित बहुत सी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं , ज्यादा लहसुन खाने से डायरिया जैसी बीमारी भी हो सकती है। कमजोर पाचन किर्या वाले लोगो को ज्यादा लहसुन का पचाव अच्छे से नहीं हो पाता है ,जिसकी वजह से पेट में गैस ,दर्द और एसिडिटी जैसी बीमारियां भी उत्पन्न होती है।  

ये भी पढ़ें: लहसुन की पैदावार कितनी समयावधि में प्राप्त की जा सकती है

  • रक्तश्राव और एलेर्जी जैसी समस्याओं को बढ़ावा देता हैं

जो रोजाना लहसुन का सेवन करते हैं उन्हें रक्तश्राव जैसे परेशानियां हो सकती हैं। लहसुन का उपयोग एलेर्जी से पीडित लोगो को नहीं करना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को पहले से एलेर्जी हैं तो वो स्वास्थ्य परामर्श से सलाह लेकर लहसुन का प्रयोग कर सकते है। 

लहसुन का सेवन ज्यादातर सर्दियों के मौसम में किया जाता हैं, क्यूंकि लहसुन गर्म तासीर का रहता हैं। सर्दियों में ज्यादातर लोगो द्वारा भुना हुआ लहसुन खाया जाता है, क्यूंकि ये वजन कम करने और दिल को स्वस्थ्य रखने में मददगार रहता है। लेकिन जरुरत से ज्यादा लहसुन का उपयोग करने से शरीर को बहुत से नुकसान भी हो सकते है। लहसुन का खाली पेट सेवन करने से एसिडिटी जैसी समस्या भी हो सकती है। 

लहसुन में ब्लड को पतला करने वाले कुछ गुण विघमान होते हैं ,जो हृदय से संबंधित समस्याओं के लिए अच्छे होते हैं। अगर लहसुन का अधिक इस्तेमाल किया जाता है, तो इससे ब्लीडिंग जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। लहसुन को खाने का सबसे सही तरीका यह है, कि आप सुबह खाली पेट एक गिलास गर्म पानी के साथ लहसुन का सेवन करें। ये स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को नियंत्रित करता है। साथ ही, त्वचा से जुड़े रोगो के लिए भी अत्यंत उपयोगी माना जाता है। 

लहसुन की कीमतों में आए उछाल की क्या वजह है ?

लहसुन की कीमतों में आए उछाल की क्या वजह है ?

लहसुन की कीमतों में अचानक से काफी उछाल आया है। भुवनेश्वर की मंडी में तो कीमत 400 रुपये प्रति किलो ग्राम तक पहुंच गई थी। लहसुन की फसल बर्बाद होने से यह हो रहा है। इस माह भाव कम होने की संभावना है।

आम जनता को महंगाई की काफी मार सहन करनी पड़ रही है। समस्त चीजों में खूब महंगाई बढ़ी है और वहीं खाने की चीजों की बात की करें तो इसमें भी बेहद इजाफा हुआ है। घरों में जो सब्जियां तैयार की जाती हैं, उनमें स्वाद बढ़ाने के लिए लहसुन आवश्यक होता है। परंतु, वर्तमान में देखा जाए तो लहसुन की कीमतें भी आसमान को छू रहे हैं। लहसुन ₹400 किलो तक की कीमत तक पहुँच चुका है। 

आखिर किस वजह से लहसुन की कीमतें बढ़ रही हैं ?

बीते कुछ सप्ताह की बात करें तो लहसुन की कीमतों में प्रचंड तेजी से इजाफा हुआ है। भुवनेश्वर की मंडी में तो कीमत 400 रुपये प्रति किलो ग्राम तक पहुंच गए थी। दरअसल, लहसुन की कीमत बढ़ने के पीछे जो अहम वजह है। वह लहसुन की फसल का खराब होना है। विभिन्न राज्यों में बेकार मौसम की वजह से लहसुन की फसलें बर्बाद हुई हैं। इसके चलते कीमतों में काफी उछाल देखा गया है। फसल खराब होने के चलते दूसरी फसल की रोपाई में समय लगेगा। इस वजह से लहसुन की नई उपज की आवक में देरी है, जिसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं। 

ये भी पढ़ें: इस वजह से लहसुन की कीमतों में आया जबरदस्त उछाल

मध्य प्रदेश में कीमतें कब कम होंगी ?

मध्य प्रदेश में लहसुन की सर्वाधिक खेती की जाती है। परंतु, मौसम की मार की वजह से फसल काफी प्रभावित हुई है, जिसकी वजह से नई फसल आने में काफी विलंब हो रहा है। जैसे ही बाजार में लहसुन की नई फसल आ जाती है। लहसुन की कीमतों में गिरावट आऐगी। मंडी व्यापारियों के मुताबिक, खरीफ लहसुन के आने के पश्चात कीमत अत्यंत कम हो जाऐगी। मतलब कि फरवरी के माह में लहसुन की कीमतों के कम होने की संभावना है। 

मशरूम उत्पादन हेतु तीन बेहतरीन तकनीकों के बारे में जानें

मशरूम उत्पादन हेतु तीन बेहतरीन तकनीकों के बारे में जानें

किसान भाइयों यदि आप भी मशरूम की पैदावार से शानदार कमाई करना चाहते हैं, तो मशरूम उगाने की ये तीन शानदार तकनीक आपके लिए अत्यंत सहयोगी साबित हो सकती हैं। हम जिन तकनीक की बात कर रहे हैं, वह शेल्फ तकनीक, पॉलीथीन बैग तकनीक और ट्रे तकनीक हैं। इस लेख में आगे हम इन्हीं तकनीकों पर चर्चा करेंगे। 

भारत के कृषकों के लिए मशरूम एक नकदी फसल है, जो उन्होंने कम लागत में बेहतरीन मुनाफा कमाकर प्रदान करती है। इन दिनों देश-विदेश के बाजार में मशरूम की मांग सर्वाधिक है, जिसके चलते बाजार में इनकी कीमत में भी अच्छी खासी वृद्धि देखने को मिल रही है। ऐसे में कृषक अपने खेत में यदि मशरूम की खेती करते हैं, तो वह अच्छा-खासा मोटा मुनाफा हांसिल कर सकते हैं। इसी कड़ी में आज हम कृषकों के लिए मशरूम की तीन बेहतरीन तकनीकों की जानकारी लेकर आए हैं, जिसकी सहायता से मशरूम की उपज काफी ज्यादा होगी।

मशरूम उत्पादन हेतु तीन बेहतरीन तकनीक निम्नलिखित हैं

मशरूम उगाने की शेल्फ तकनीक

मशरूम उगाने की इस शानदार तकनीक में किसान को सशक्त लकड़ी के एक से डेढ़ इंच मोटे तख्ते से एक शैल्फ निर्मित होता है, जिन्हें लोहे की कोणों वाली फ्रेमों से जोड़कर रखना पड़ता है। ध्यान रहे, कि मशरूम उत्पादन के लिए जिन फट्टे का उपयोग किया जा रहा है। वह काफी शानदार लकड़ी के होने अत्यंत जरूरी हैं, जिससे कि वह खाद व अन्य सामग्री का वजन सुगमता से उठा सकें। शेल्फ की चौड़ाई लगभग 3 फीट और साथ ही शैल्फों के मध्य का फासला डेढ़ फुट तक होना चाहिए। इस प्रकार से किसान मशरूम की शैल्फों को एक दूसरे के ऊपर लगभग पांच मंजिल तक मशरूम को उत्पादित किया जा सकता है। 

ये भी पढ़ें: राज्य में शुरू हुई ब्लू मशरूम की खेती, आदिवासियों को हो रहा है बम्पर मुनाफा

मशरूम उगाने की पॉलीथीन बैग तकनीक 

मशरूम उगाने की पॉलीथीन बैग तकनीक कृषकों के द्वारा सर्वाधिक अपनाई जाती है। इस तकनीक में कृषकों को ज्यादा परिश्रम करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। यह तकनीक एक कमरे में सहजता से की जा सकती है। पॉलीथीन बैग तकनीक में 25 इंच लंबाई और 23 इंच चौड़ाई वाले 200 गेज माप के पॉलीथीन के लिफाफों की ऊंचाई 14 से 15 इंच और मशरूम उत्पादन करने का 15 से 16 इंच का व्यास होता है। ताकि मशरूम का काफी बेहतर ढ़ंग से विकास हो सके। 

मशरूम उगाने की ट्रे तकनीक

मशरूम उगाने की यह तकनीक बेहद सुगम है। इसमें तकनीक की सहायता से कृषक मशरूम को एक जगह से दूसरी जगह पर सहजता से ले जा सकते हैं। क्योंकि इसमें मशरूम की पैदावार एक ट्रे के जरिए से की जाती है। मशरूम उगाने के लिए एक ट्रे का आकार 1/2 वर्ग मीटर और 6 इंच तक गहरी होता है। ताकि उसमें 28 से 32 किग्रा तक खाद सुगमता से आ पाऐ। 

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि वर्तमान में तिलहन फसलों में सर्वाधिक सरसों की कीमत प्रभावित हो रही है। विगत वर्ष के समापन में सरसों की कीमतों में काफी तीव्रता देखने को मिली थी। परंतु, अब सरसों की कीमतें एक दम नीचे गिरने लगी हैं। भारत भर की मंडियों में सरसों को क्या भाव मिल रहा है ? तिलहन फसलों का भाव निरंतर तीव्रता के पश्चात अब गिरावट की कवायद शुरू हो गई है। अधिकांश तिलहन फसलों की कीमतें अभी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।

कुछ एक फसलों में कमी दर्ज की जा रही है। तिलहन फसलोंकी बात करें तो सर्वाधिक सरसों के भाव प्रभावित हो रहे हैं। विगत वर्ष के अंत में सरसों की कीमतों में शानदार तीव्रता देखने को मिली थी। एक वक्त तो भाव 9000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था। परंतु, अब भाव में एक दम से कमी आई है। आलम यह है, कि सरसों का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चला गया है, जिस कारण से कृषक भी काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं। 

भारत भर की मंडियों में सरसों की कीमत क्या है

केंद्र सरकार ने सरसों पर 5650 रुपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया है। परंतु, भारत की अधिकतर मंडियों में किसानों को MSP तक की कीमत नहीं मिल रही है। सरसों की फसल को औसतन 5500 रुपये/क्विंटल की कीमत मिल रही है। केंद्रीय कृष‍ि व क‍िसान कल्याण मंत्रालय के एगमार्कनेट पोर्टल के मुताबिक, शनिवार (6 जनवरी) को भारत की एक दो मंडी को छोड़ दें, तो तकरीबन समस्त मंडियों में मूल्य MSP से नीचे ही रहा है। शनिवार को सरसों को सबसे शानदार भाव कर्नाटक की शिमोगा मंडी में हांसिल हुआ। जहां, सरसों 8800 रुपये/क्विंटल के भाव पर बिकी है।


ये भी पढ़ें: सरसों की फसल में माहू कीट की रोकथाम करने के लिए कीटनाशक का स्प्रे करें

 

इसी प्रकार, गुजरात की अमरेली मंडी में भाव 6075 रुपये/क्विंटल तक रहा है। इन दो मंडियों को छोड़ दें, तो बाकी समस्त मंडियो में सरसों 5500 रुपये/क्विंटल के नीचे ही बेची जा रही है, जो MSP से काफी कम है। वहीं, भारत की कुछ मंडियों में तो भाव 4500 रुपये/क्विंटल तक पहुंच गया। विशेषज्ञों का कहना है, की कम मांग के चलते कीमतों में काफी गिरावट आई है। यदि मांग नहीं बढ़ी, तो कीमतें और कम हो सकती हैं, जो कि कृषकों के लिए काफी चिंता का विषय है।


यहां पर आप बाकी फसलों की सूची भी देख सकते हैं 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल का भाव उसकी गुणवत्ता पर भी निर्भर रहता है। ऐसी स्थिति में व्यापारी क्वालिटी के हिसाब से ही भाव निर्धारित करते हैं। फसल जितनी शानदार गुणवत्ता की होगी, उसकी उतनी ही अच्छी कीमत मिलेंगे। यदि आप भी अपने राज्य की मंडियों में भिन्न-भिन्न फसलों का भाव देखना चाहते हैं, तो आधिकारिक वेबसाइट https://agmarknet.gov.in/ पर जाकर पूरी सूची की जाँच कर सकते हैं।

सरसों की फसल को एमएसपी पर खरीदने की तैयारी पूरी करने का निर्देश

सरसों की फसल को एमएसपी पर खरीदने की तैयारी पूरी करने का निर्देश

केंद्र सरकार इस बार एमएसपी पर सरसों की खरीद करेगी। सरकार ने इसकी संपूर्ण तैयारियां कर ली हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने बुधवार को इस बात की जानकारी दी है। भारत में इस बार सरसों की काफी शानदार पैदावार हुई है, जिस पर केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने किसानों का आभार प्रकट किया है। 

कृषि मंत्री का कहना है, कि इस साल किसानों ने भारी मात्रा में सरसों की पैदावार की है। इसके लिए समस्त किसान भाई-बहन बधाई के पात्र हैं। मुंडा ने कहा कि उन्होंने संबंधित विभागों को सरसों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीदने के लिए कहा है। ताकि किसानों को उपज बेचने में कोई कठिनाई न आए और उन्हें उपज की समुचित धनराशि मिल सके।

MSP पर सरसों की खरीद की जाएगी 

मीडिया को एक ब्रीफिंग में मुंडा ने आगे बताया कि सरकार ने रबी फसलों के विपणन सीजन के दौरान मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस) के तहत सरसों की खरीद की तैयारी की है। उन्होंने कहा, "सरकार के लिए किसानों का हित सर्वोपरि है। अगर सरसों की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे जाती हैं, तो सरकार किसानों से एमएसपी पर सरसों खरीदेगी। उन्होंने बताया कि इसके लिए आवश्यक व्यवस्थाएं भी की गई हैं।"

खरीद की सारी तैयारियां पूर्ण करने का निर्देश दिया है 

उन्होंने कहा कि रबी विपणन सीजन (आरएमएस) के लिए केंद्रीय नोडल एजेंसियों को पहले से ही पीएसएस के तहत सरसों की खरीद के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया गया है, ताकि किसानों को किसी भी तरह की कठिनाई का सामना न करना पड़े। उन्होंने कहा, "रबी विपणन सीजन-2023 के दौरान गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और असम राज्यों से पीएसएस के तहत खरीद की मंजूरी 28.24 एलएमटी सरसों थी।"

ये भी पढ़ें: सरसों का रकबा बढ़ने से किसान होंगे खुशहाल

कृषकों को अधिक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा 

आरएमएस-2024 के लिए भी सभी सरसों उत्पादक राज्यों को सूचित किया गया है, कि यदि राज्य में सरसों का वर्तमान बाजार मूल्य अधिसूचित एमएसपी से कम है, तो पीएसएस के तहत सरसों की खरीद का प्रस्ताव समय रहते भेजें। उन्होंने कहा कि आरएमएस-2024 के लिए सरसों का एमएसपी 5,650 रुपये प्रति क्विंटल है। उन्होंने कहा कि सरकार का प्रयास है, कि किसानों को उनकी उपज का सही भाव मिल सके और उन्हें अपने उत्पाद को बेचने में कोई समस्या न आए।

भारतीय कृषि निर्यात में 10% प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई

भारतीय कृषि निर्यात में 10% प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई

APEDA द्वारा जारी कृषि निर्यात के आंकड़ों के अनुसार, भारत के कृषि निर्यात में 10% प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इसमें सर्वाधिक प्रभाव गेहूं के ऊपर पड़ा है। इसकी मांग 90% प्रतिशत से अधिक कम हुई है। एग्रीकल्चरल प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी (APEDA) द्वारा कृषि निर्यात के आंकड़े जारी किए हैं। इनके मुताबिक कृषि उत्पादों के भारत के निर्यात में चालू वित्त वर्ष 2023-24 की अप्रैल-नवंबर अवधि के दौरान 10% प्रतिशत की कमी दर्ज हुई है। इसकी वजह अनाज शिपमेंट में कमी को बताया गया है। APEDA द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल-नवंबर 2023-24 की अवधि में कृषि निर्यात 15.729 बिलियन डॉलर रहा, जो विगत वर्ष की समान अवधि के 17.425 डॉलर के मुकाबले में 9.73% प्रतिशत कम है।

बासमती चावल के शिपमेंट में काफी बढ़ोतरी दर्ज की गई है 

सऊदी अरब और ईराक जैसे खरीदारों द्वारा अधिक खरीदारी की वजह से बासमती चावल के शिपमेंट में विगत वर्ष की समान अवधि के मुकाबले में 17.58 फीसद की वृद्धि के साथ 3.7 बिलियन डॉलर की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो कि 2.87 बिलियन डॉलर थी। मात्रा के रूप से बासमती चावल का निर्यात विगत वर्ष की समान अवधि के 27.32 लाख टन से 9.6% प्रतिशत बढ़कर 29.94 लाख टन से अधिक हो गया है। 

गेंहू का 98% प्रतिशत निर्यात कम रहा है 

साथ ही, घरेलू उपलब्धता में सुधार और मूल्य वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा विगत वर्ष जुलाई में लगाए गए निर्यात प्रतिबंधों की वजह से गैर-बासमती चावल शिपमेंट में एक चौथाई की कमी आई है। अप्रैल से नवंबर माह तक गैर-बासमती चावल का निर्यात 3.07 अरब डॉलर रहा, जो बीते साल के 4.10 अरब डॉलर से ज्यादा है। 

ये भी पढ़ें: गेहूं निर्यात पर पाबंदियों के बाद भी भारत कई देशों को खिला रहा रोटी

मात्रा के संदर्भ में गैर-बासमती शिपमेंट विगत वर्ष की समान अवधि के 115.7 लाख टन की अपेक्षा में 33% प्रतिशत कम होकर 76.92 लाख टन रह गया है। गेहूं का निर्यात विगत वर्ष के 1.50 अरब डॉलर के मुकाबले 98% प्रतिशत कम होकर 29 मिलियन डॉलर रहा। अन्य अनाज निर्यात पिछले साल की समान अवधि के 699 मिलियन डॉलर की तुलना में 38 प्रतिशत कम होकर 429 मिलियन डॉलर पर रहा।

चुकंदर की खेती के लिए भूमि प्रबंधन, उन्नत किस्में व मृदा और जलवायु

चुकंदर की खेती के लिए भूमि प्रबंधन, उन्नत किस्में व मृदा और जलवायु

भारत के अंदर अधिकतर लोग चुकंदर खाना काफी पसंद करते हैं। किसी को चुकंदर सलाद के रूप में तो किसी को जूस के रूप में चुकंदर काफी अच्छा लगता है। 

हालांकि, बहुत सारे लोग इसका जूस पीना भी काफी पसंद करते हैं। बतादें, कि चुकंदर में पोटेशियम, विटामिन सी, फोलेट, विटामिन बी9, मैंगनीज और मैग्नीशियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है। 

इसका सेवन करने से शरीर में रक्त की कमी नहीं होती है। यही कारण है, कि इसकी बाजार में मांग सदैव बरकरार बनी रहती है। अब ऐसे में यदि किसान भाई चुकंदर की खेती करते हैं, तो उनको एक शानदार और अच्छी कमाई आसानी से प्राप्त हो सकती है।

मुख्य बात यह है, कि चुकंदर औषधीय गुणों से भरपूर होता है। इस वजह से इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार में भी किया जाता है। साथ ही, इससे बहुत प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियां भी तैयार की जाती हैं। 

बाजार में इसका भाव हमेशा 30 से 40 रुपये किलो तक रहता है। अब ऐसी स्थिति में यदि किसान भाई चुकंदर की खेती करने की योजना बना रहे हैं, तो उनके लिए यह काफी अच्छी खबर है। यदि वैज्ञानिक विधि के माध्यम से चुकंदर की खेती की जाए, तो किसानों को बंपर पैदावार मिलेगी।

चुकंदर की सबसे लोकप्रिय व उन्नत किस्में कौन-सी हैं ?

बलुई दोमट मृदा में चुकंदर की खेती करने पर काफी बेहतरीन उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6 से 7 के मध्य उचित माना गया है। 

वहीं, गर्मी, बारिश और सर्दी किसी भी मौसम में इसकी आसानी से खेती की जा सकती है। यदि किसान भाई गर्मी के मौसम में चुकंदर की खेती करने की योजना बना रहे हैं, तो सर्वप्रथम अच्छी और बेहतरीन किस्मों का चयन करें। 

ये भी पढ़ें: जानें चुकंदर कैसे पोषक तत्वों से भरपूर और स्वास्थ्य के लिए है फायदेमंद है ?

अर्ली वंडर, मिस्त्र की क्रॉस्बी, डेट्रॉइट डार्क रेड, क्रिमसन ग्लोब, रूबी रानी, रोमनस्काया और एमएसएच 102 चुकंदर की सबसे लोकप्रिय किस्में हैं। इन किस्मों की खेती करने पर किसान को बंपर पैदावार हांसिल होती है। 

चुकंदर की बुवाई एवं भूमि प्रबंधन इस तरह करें 

चुकंदर की बुवाई करने से पूर्व खेत की कई बार जुताई की जाती है। उसके बाद 4 टन प्रति एकड़ की दर से खेत में गोबर की खाद डालें और पाटा लगाकर जमीन को एकसार कर दें। अब इसके बाद क्यारी बनाकर चुकंदर की बुवाई करें।

विशेष बात यह है, कि छिटकवां और मेड़ विधि से चकुंदर की बुवाई की जाती है। अगर आप छिटकवां विधि से चुकंदर की बुवाई कर रहे हैं, तो आपको एक एकड़ में 4 किलो बीज की आवश्यकता पड़ेगी। 

वहीं, यदि आप मेड़ विधि से बुवाई करते हैं तो किसान को कम बीज की आवश्यकता पड़ती है। मेड़ विधि में पहले 10 इंच ऊंची मेड़ बनाई जाती है। अब इसके बाद मेड़ पर 3-3 इंच की दूर पर बीजों को बोया जाता है। 

बुवाई के कितने दिन बाद फसल पूर्णतय तैयार हो जाती है ?

बतादें, कि चुकंदर एक कंदवर्गीय श्रेणी में आने वाली फसल है। इसलिए समय-समय पर इसकी निराई- गुड़ाई की जाती है। साथ ही, आवश्यकता के अनुरूप सिंचाई भी करनी पड़ती है। 

बुवाई करने के 120 दिन पश्चात फसल पककर तैयार हो जाती है। अगर आपने एक हेक्टेयर में खेती कर रखी है, तो 300 क्विंटल तक उपज मिलेगी। यदि 30 रुपये किलो के हिसाब से चुकंदर बेचते हैं, तो इससे आसानी से लाखों रुपये की आय होगी।

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

धान की खेती भारत में खरीफ के मौसम में बड़े पैमाने पर की जाती है। भारत में धान की बुवाई बड़े क्षेत्र में की जाती है। अन्य देशों में धान की उपज में वृद्धि हो रही है जो की हमरे देश में बहुत कम है। 


धान की उपज कई कारकों से प्रभावित होती है जिन में से सबसे बाद कारक है इसमें लगने वाले खतरनाक रोग, फसल में रोगों के प्रभाव के कारण उपज आधी से भी कम होती है। 


इसलिए आज के इस लेख में हम आपके लिए धान के रोगों से संबंधित सम्पूर्ण जानकारी लेके आए है, जिससे की आप समय रहते इन रोगों को पहचान कर इनका उपचार कर सकते है।

 

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

भूरा धब्बा रोग

ये रोग हेलमिनथोस्पोरियम ओरायजी जीवाणु के कारण होता है जो की फसल की उपज को बहुत प्रभावित करता है। इस रोग के लक्षण पौधे के सभी ऊपरी भागो पर देखने को मिलते है । 


तनों पत्तियों एवं बालियों पर बहुत सारे अण्डाकार स्लेटी धब्बे दिखाई देते है जो बाद में भूरे हो जाते है। इस रोग में आपस में धब्बे मिलकर बड़े धब्बे बना लेते है। रोग का अधिक प्रकोप होने पर पौधे उकठकर मर जाते है। 


ये भी पढ़ें: धान की खेती की शुरू से लेकर अंत तक संपूर्ण जानकारी, जानिए कैसे बढ़ाएं लागत


पौधे के विकास के साथ में बालियों का विकास भी रूक जाता है और बालियों में दाने नहीं बनते है। फसल की किसी भी अवस्था में यह रोग हो सकता है। रोग से प्रभावित पौधों में दाने की गुणवत्ता कम हो जाती है जिससे फसल का रेट भी अच्छा नहीं लगता है।     


भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण के उपाय         

  • इस रोग की जड़ को ख़तम करने के लिए केवल प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग करें।  
  • खेत में पूर्स्च्छ खेती करें।
  • फसल चक्र अपनाए।  
  • रोपण की तिथि में बदलाव करें।  
  • उचित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग करें।      
  • उपयुक्त जल प्रबंधन करें।      
  • पोटाश की कमी की पूर्ति के लिए पोटाश युक्त उर्वरकों का उपयोग करें।
  • भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण के थाईरम 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें या कार्बेंडाजिम 1.5 ग्रा./ कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें।                               
  • मेनेकोजेब 0.25 प्रतिशत की दर से 10 से 15 दिन के अंतराल में लक्षण दिखते ही छिड़काव करें।                      

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट (जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस)

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग को हिंदी में जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस रोग के नाम से जाना जाता है जो की जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस जीवाणु के कारण होता है। इस रोग में पत्तियों पर पानीदार धब्बे बनते है। 

धब्बों के आसपास चिपचिपी बूंदे जमा होती है। रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियां पीला से नांरगी भूरी हो जाती है। छोटे धब्बे मिलकर पत्तियों की सतह पर बड़े धब्बे बन जाते है। ये रोग फसल को विकराल रूप में प्रभावित करता है। 

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग के लक्षण दो भागों में दिखाई देते है। क्रेसिक फेस और ब्लाइट फेस इन दोनों में लक्षण अलग अलग होते है। क्रेसिक भाग पौधे की प्रांरभिक अवस्था में मुरझााकर सुख जाते है। 

बाद की अवस्था में ब्लाइट फेस के लक्षण दिखते है जो पत्ती के ऊपर और किनारे में दिखाई पड़ते है, ये धीरे धीरे बढ़कर बड़े एवं लम्बे धब्बे बन जाते है। जैसे - जैसे रोग आगे बढ़ता है, जल्दी ही धब्बे पीले से सफेद हो जाते है।         

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग के नियंत्रण के उपाय        

  • सबसे पहले बुवाई के लिए रोग मुक्त बीजों का उपयोग करें इससे ही इस रोग का रोकथाम किया जा सकता है। 
  • इस रोग को खड़ी फसल में नियंत्रित करने के लिए 5 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन 500 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से रोग की शुरूवात में छिड़काव करें। 
  • अच्छा नियंत्रण प्राप्त करने के लिए बाद में 09-12 दिन के अंतराल से छिड़काव फिर से दोहराए।

खैरा रोग 

धान की फसल में ये रोग भी बहुत नुकसान करता है जिस कारण से फसल की उपज की  कम हो जाती है। इस रोग की क्षति की बात करे तो ये रोग मुख्य रूप से  जस्ते की कमी से होता है। 


इस रोग के लक्षण नर्सरी में ही दिखाई देने लग जाते है। इस रोग के सबसे पहले लक्षण नर्सरी में पौधे का पीला पड़ना है। रोग से संक्रमित पौधे पर पत्तों के बीच वाली शिरा के पास पीलापन दिखाई देता है। जिससे की पौधों की बढ़वार रूक जाती है। संक्रमण अधिक होने पर पौधे सुख जाते है।    


खैरा रोग के नियंत्रण के उपाय  

  • नर्सरी के पौधों को बोने से पहले 1 से 2 मिनट तक जिंक सल्फेट के 0.2 प्रतिशत घोल में भिगाए।
  • रोग की रोकथाम के लिए  बीज को बोने से पहले रात भर जिंक सल्फेट के 0.4 प्रतिशत घोल में भिगाए। या जिंक सल्फेट 5 कि.ग्रा. और चूना 2.5 कि.ग्रा. का छिड़काव करें।   
  • जिंक सल्फेट 5 कि.ग्रा. और चूना 2.5 कि.ग्रा. का पहला छिड़काव नर्सरी में बोने के 10 दिन बाद करें।दूसरा छिड़काव बोनी के 20 दिन बाद करे और
  • तीसरा छिड़काव रोपणी के 15 से 30 दिन बाद करें।

फाल्स स्मट या आभासी कंडवा रोग 

ये रोग यूसलीगनीओइड विरेन्स जीवाणु से होता है। धान की फसल का ये सबसे घातक रोग माना जाता है। रोग फूल आने के बाद में दिखता है। इस रोग में बालियों में दाने हरे काले हो जाते है। 


ये भी पढ़ें: खरीफ सीजन में धान की फसल की इस तरह करें देखभाल होगा अच्छा मुनाफा


संक्रमित दाने छिद्र युक्त चुर्ण से ढके रहते है। हवा से उड़कर यह स्वस्थ फूलों को भी संक्रमित कर देते है। अधिक संक्रमण होने पर सारे दाने खराब हो जाते है। 


फाल्स स्मट या आभासी कंडवा रोग के नियंत्रण के उपाय     

  • इस रोग को पूरी तरह से नियंत्रित करने के लिए दो से तीन साल के लिए फसल चक्र अपनाए।          
  • गहरी जुताई से भूमि में गिरे स्केलोरेशिया नष्ट हो जाते है।
  • संक्रमित दाने एवं पौधों को नष्ट करें, संक्रमित पौधों से बीज न इकटठा करें।    
  • प्रोपेकोनोज़ोल ( टिल्ट) 1 मि.ली. प्रति लीटर या क्लोरोथोलोनिल 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से फूल निकलने समय छिड़काव करें।
  • दूसरा छिड़काव फूल पूरी तरह से आने के बाद करें।
  • पोटाश उर्वरकों को डाले। 

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती सदैव कृषकों के लिए फायदे का सौदा साबित हुई है। हालांकि, बाजार के उतार-चढ़ाव में अरहर का भाव कम-अधिक होता रहता है। 

परंतु, अरहर की खेती करने वाले कृषकों के समक्ष एक चुनौती यह आती है, कि यह फसल काफी लंबे समय में पककर तैयार होती है। किसान दूसरी फसलों की बुवाई नहीं कर पाता है। 

परंतु, वैज्ञानिकों ने अरहर की कुछ ऐसी भी किस्में तैयार की हैं, जो न सिर्फ कम समय में पककर तैयार होती हैं। साथ ही, उपज भी काफी अच्छी देती हैं। 

इसके अतिरिक्त किसानों को अरहर की खेती में कुछ विशेष सावधानियों की आवश्यकता पड़ती है। बतादें, कि कृषकों को अरहर की रोपाई से पहले उसका बीजोपचार करना पड़ता है। 

साथ ही, अरहर की बुवाई जून के माह में की जाती है। चलिए जानते हैं, कम समयावधि में तैयार होने वाली किस्मों की खूबियां व बीचोपचार के बारे में।

किसान भाई इन तीन किस्मों का उत्पादन कर अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं ?

अरहर की पूसा 992 किस्म

भूरे रंग, मोटा, गोल और चमकदार दाने वाली इस किस्म को वर्ष 2005 में विकसित किया गया था। ये किस्म अन्य किस्मों के मुकाबले कम दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसको पकने में तकरीबन 140 से 145 दिन का समय लगता है।

दरअसल, यह किस्म प्रति एकड़ भूमि द्वारा 7 क्विंटल उत्पादन प्रदान कर सकती है। जानकारी के लिए बतादें, कि इस किस्म की खेती सर्वाधिक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान राज्य में की जाती है। 

अरहर की पूसा 16 किस्म 

पूसा 16 जल्दी तैयार होने वाली बेहतरीन प्रजाति है। अरहर की इस किस्म की समयावधि 120 दिन की होती है। इस फसल में छोटे आकार का पौधा 95 सेमी से 120 सेमी लंबा होता है, इस किस्म का औसत उत्पादन 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। 

अरहर की आईपीए 203 किस्म  

अरहर की आईपीए 203 किस्म की विशेषता यह है, कि इस किस्म में बीमारियों का आक्रमण नहीं होता है। साथ ही, इस किस्म की बुवाई करके फसल को बहुत सारे रोगों से संरक्षित किया जा सकता है। 

साथ ही, इससे बेहतरीन उपज भी हांसिल कर सकते हैं। इसकी औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की होती है।

इस किस्म की समयावधि 150 दिन की होती है। साथ ही, अन्य किस्मों को तैयार होने में लगभग 220 से 240 दिन लगते हैं।

कृषक इस प्रकार बीज उपचार करें 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल की खेती से पहले बीज उपचार अत्यंत आवश्यक है। बीज उपचार करने से रोगिक प्रभाव काफी कम पड़ते हैं। 

ये भी पढ़ें: अरहर की फसल को रोगों से बचाएं

इसके लिए कार्बेंडाजिम नामक दवा को दो ग्राम प्रति किलो की दर से मिला लें। इसमें पानी मिलाकर बीज को किसी छाया वाली जगह पर चार घंटे के लिए रख दें। इसके बाद इसकी बुवाई करें। ऐसा करने से बीज पर किसी प्रकार का रोग आक्रामण नहीं करता है। 

कृषक इस विधि से करें अरहर की खेती 

सामान्यतः किसान अरहर की खेती छींटा विधि के माध्यम से करते हैं, जिससे कहीं अधिक तो कहीं कम बीज जाते हैं। इससे कहीं घनी तो कहीं खाली फसल तैयार होती है। 

इससे फसलीय उपज में काफी कमी आती है, क्योंकि घना हो जाने से पौधों को समुचित धूप, पानी और खाद नहीं मिल पाता है। इसके लिए किसान को 20 सेंटीमीटर के फासले पर बीज लगाने चाहिए। इससे बीज दर भी काफी कम लगती है।

किसान ने डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं को बनाया कमाई का साधन, लाखों की हो रही आमदनी

किसान ने डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं को बनाया कमाई का साधन, लाखों की हो रही आमदनी

नई दिल्ली। जहां किसान जहरीले बिच्छू को छूने से भी डरते हैं, वहीं एक किसान ने डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं को ही अपनी कमाई का साधन बना लिया है और आज उन बिच्छूओं से ही लाखों की कमाई कर रहे हैं।

बिच्छूओं को बनाया कमाई का साधन

तुर्की के दक्षिणपूर्व स्थित सैनलियुर्फा (Sanliurfa) में पेशेवर किसान मेटिन ओरेनलर ने अपना एक फार्म खोल रखा है। इस फार्म में वह सैकड़ों डंक मारने वाले बिच्छूओं का पालन करते हैं, बाकायदा बिच्छूओं को सुबह-शाम खिलाया-पिलाया जाता है। इसके अलावा विशेषज्ञों की निगरानी में उनकी देखरेख भी होती है। जब बिच्छूओं में अच्छी मात्रा में जहर इकट्ठा हो जाता है तो फार्म के कर्मचारी उनका जहर निकाल लेते हैं, जो बाजार में काफी महंगा बिकता है। अब इसी डंक मारने वाले बिच्छूओं के कारोबार से किसान मेटिन ओरेनलर लाखों की कमाई कर रहे हैं।

बिच्छूओं के जहर से बनता है पाउडर

फार्म स्वामी मेटिन ओरेनलर के अनुसार डंक मारने वाले जहरीले बिच्छूओं से निकलने वाले जहर को एक विशेष प्रकार से बनाए गए प्लास्टिक के डिब्बों में रखा जाता है, और डिब्बों को फार्म की प्रयोगशाला में फ्रीज करके रख दिया जाता है। बाद में उस जहर का पाउडर बनाकर बाजार में बेच दिया जाता है।

एक बिच्छू में निकलता है कितना जहर ?

ओरेनलर ने अपने फार्म में 20 हजार से ज्यादा एंड्रोक्ट्स तुर्कियंसिस (Androctonus turkiyensis) बिच्छू पाल रखे हैं। [caption id="attachment_10746" align="alignnone" width="357"]Androctonus turkiyensis scorpio एंड्रोक्ट्स तुर्कियंसिस (Androctonus turkiyensis scorpio)[/caption]   सभी बिच्छूओं को उनकी जरूरत के हिसाब से खाना दिया जाता है, इसके बाद उनका जहर निकाला जाता है। बताया जाता है कि एक बिच्छू से करीब 2 मिलीग्राम जहर निकलता है। इस तरह वह एक बार में करीब 2 ग्राम जहर निकाल लेते हैं।

ये भी पढ़ें: एकीकृत कृषि प्रणाली से खेत को बना दिया टूरिज्म पॉइंट

इंसानों की जान लेने में सक्षम होता है बिच्छू का जहर

बिच्छू का जहर इंसानों की जान लेने में सक्षम होता है, बिच्छू ठंडी व गर्म दोनों तरह की जगहों पर पाया जाता है। वैज्ञानिक अभी तक बिच्छू की 2000 प्रजातियों का पता लगा चुके हैं, जिनमें 40 प्रजातियां ऐसी हैं जो इंसान की जान ले सकती हैं।

बिच्छू के जहर की कीमत क्या है?

फार्म में बिच्छूओं के जहर का पाउडर बनाकर इसे यूरोप सप्लाई किया जाता है, जिससे अच्छी कमाई होती है। इन दिनों 1 लीटर बिच्छू के जहर की कीमत करीब 10 मिलियन डॉलर है। भारतीय मुद्रा के अनुसार ये राशि करीब 79 करोड़ है, हालांकि ओरेनलर अपनी कमाई के बारे में सही जानकारी नहीं देते हैं, लेकिन वह महीने भर में लाखों रुपए कमा लेते हैं।