पेठा की खेती से जुड़ी विस्तृत जानकारी

Published on: 25-Feb-2024

पेठा की खेती कद्दू वर्गीय फसल के रूप में की जाती है। इसको कुम्हड़ा, कूष्माण्ड और काशीफल के नाम से भी जानते हैं। इसके पौधे लताओं के रूप में फैलते हैं। इसकी कुछ प्रजातियों में फल 1 से 2 मीटर लंबे पाए जाते हैं और फलों पर हल्के सफेद रंग की पाउडर नुमा परत नजर आती है। 

पेठा के कच्चे फलों से सब्जी और पके हुए फलों को पेठा बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। पेठा (कद्दू) का मुख्य रूप से उपयोग पेठा बनाने के लिए ही किया जाता है। सब्जी के लिए इसका काफी कम उपयोग किया जाता है।

अब इसके अतिरिक्त इससे च्यवनप्राश भी निर्मित किया जाता है, जिसका सेवन करने से मानसिक ताकत बढ़ती है, और छोटी -मोटी बीमारियां भी आसपास नहीं फटकती हैं। 

पेठा कम लागत में ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल है, जिस वजह से किसान भाई पेठा की खेती करना ज्यादा पसंद करते हैं। अगर आप भी पेठा की खेती करने की सोच रहे हैं, तो इस लेख में आपको पेठा की खेती कैसे होती है (Pumpkin Farming in Hindi) इसके बारे में जानकारी दी जा रही है।

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भारत में पेठा (कद्दू) की खेती कहाँ की जाती है ? 

भारत में पेठा की खेती मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्य में की जाती है। इसके अलावा पेठा की खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान सहित लगभग भारत भर में ही की जा रही है।

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पेठा की खेती के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

पेठा की खेती किसी भी उपजाऊ मृदा में आसानी से की जा सकती है। इसकी शानदार पैदावार के लिए दोमट मृदा को उपयुक्त माना जाता है। उचित जल निकासी वाली जमीन में इसकी खेती बड़ी सहजता से की जाती है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 8 के बीच होना चाहिए।

पेठा की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु की जरूरत होती है। गर्मी और वर्षा का मौसम इसकी खेती के लिए सबसे उपयुक्त होता है। लेकिन, ज्यादा ठण्डी जलवायु इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है। क्योकि, ठंड के मौसम में इसके पौधे अच्छे से विकास नहीं कर पाते है।

पेठा के पौधे शुरू में सामान्य तापमान पर अच्छे से विकास करते हैं तथा 15 डिग्री तापमान पर बीजों का अंकुरण ठीक प्रकार से होता है। बीज अंकुरण के पश्चात पौध विकास के लिए 30 से 40 डिग्री तापमान की जरूरत होती है। ज्यादा तापमान में पेठा का पौधा अच्छे से विकास नहीं कर पाता है।

पेठा की उन्नत प्रजातियां निम्नलिखित हैं 

कोयम्बटूर

कोयम्बटूर किस्म के पौधों को पछेती फसल के लिए उगाया जाता है। इसके फलों से सब्जी और मिठाई दोनों ही बनायी जाती हैं। इसके पौधों में निकलने वाले फल का औसतन वजन 7KG से 8KG के करीब होता है। 

बतादें, कि यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 300 क्विंटल तक की उपज प्रदान करती है।

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सी. ओ. 1

पेठा की इस किस्म को तैयार होने में 120 दिन का समय लग जाता है। इसके एक फल का औसतन वजन 7 से 10 KG तक होता है। इस हिसाब से यह प्रति हेक्टेयर में 300 क्विंटल का उत्पादन दे देती है। 

काशी धवल

पेठा की यह किस्म बीज रोपाई के 120 दिन के बाद उत्पादन देना चालू कर देती है। इस प्रजाति के पौधों को ज्यादातर गर्मियो के मौसम में उगाया जाता है, जिसमें निकलने वाले फल का वजन 12 KG तक होता है। 

यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 500 से 600 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा विश्वास

पेठा की इस क़िस्म का पौधा अधिक लम्बा पाया जाता है, जिसे तैयार होने में 120 दिन का समय लग जाता है। इसका एक फल तक़रीबन 5 KG का होता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 250 से 300 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

काशी उज्ज्वल

इस किस्म को तैयार होने में 110 से 120 दिन का समय लग जाता है। इसमें निकलने वाले फल गोल आकार के होते है, जिसका वजन 12KG के आसपास होता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 550 से 600 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

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अर्को चन्दन

अर्को चन्दन क़िस्म के पौधों को कटाई के लिए तैयार होने में 130 दिन का समय लग जाता है। इसके कच्चे फलों को सब्जी बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 350 क्विंटल का उत्पादन देने के लिए जानी जाती है। 

इसके अतिरिक्त भी पेठा की विभिन्न उन्नत क़िस्मों को भिन्न-भिन्न जलवायु और अलग-अलग क्षेत्रों पर ज्यादा उपज देने के लिए विकसित किया गया है, जो इस प्रकार है :- कोयम्बटूर 2, सी एम 14, संकर नरेन्द्र काशीफल- 1, नरेन्द्र अग्रिम, पूसा हाइब्रिड, नरेन्द्र अमृत, आई आई पी के- 226, बी एस एस- 987, बी एस एस- 988, कल्यानपुर पम्पकिन- 1 आदि।

पेठा के खेत की तैयारी एवं उवर्रक की मात्रा 

बतादें, कि सर्वप्रथम खेत की मृदा पलटने वाले हलों से गहरी जुताई कर दी जाती है। इससे खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय समाप्त हो जाते हैं। जुताई के उपरांत खेत को ऐसे ही खुला छोड़ दें। 

इससे खेत की मृदा में सूर्य की धूप बेहतर रूप से लग जाती है। खेत की प्रथम जुताई के बाद उसमें प्राकृतिक खाद के तौर पर 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना होता है। 

खाद को खेत में डालने के बाद दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है। इससे खेत की मृदा में गोबर की खाद अच्छी तरीके से मिल जाती है। इसके पश्चात खेत में पानी लगा दिया जाता है। 

जब खेत का पानी सूख जाता है, तो उसकी एक बार फिर से रोटावेटर लगाकर जुताई कर दी जाती है। इससे खेत की मृदा काफी भुरभुरी हो जाती है। 

मिट्टी के भुरभुरा हो जाने के बाद खेत को एकसार कर दिया जाता है। इसके पश्चात खेत में पौध रोपाई के लिए 3 से 4 मीटर की दूरी पर धोरेनुमा क्यारियों को निर्मित कर लिया जाता है। 

इसके अतिरिक्त यदि आप रासायनिक खाद का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको 80 KG डी.ए.पी. की मात्रा का छिड़काव प्रति हेक्टेयर के मुताबिक खेत की अंतिम जुताई के वक्त करना होता है। 

इसके बाद 50 KG नाइट्रोजन की मात्रा को पौध सिंचाई के साथ देना होता है।

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