भारत में तोरई की खेती विभिन्न जलवायु क्षेत्रों में व्यापक रूप से की जाती है। यह एक लोकप्रिय सब्जी है जो पौष्टिकता से भरपूर होती है और हाजमा सुधारने के लिए जानी जाती है।
तोरई मुख्यतः दो प्रकार की होती है – धारदार तोरई (Ridge Gourd) और स्पंज तोरई (Sponge Gourd)। दोनों ही किस्में लूफा (Luffa) वंश की हैं और इनमें एक विशेष जिलेटिनस यौगिक "लूफेन" पाया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।
तोरई की खेती मुख्य रूप से गर्म और आर्द्र जलवायु में होती है, लेकिन कुछ किस्में शरद और वर्षा ऋतु में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं।
यह बेलवाली फसल होती है और इसके लिए मध्यम उपजाऊ दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। खेत की अच्छी जल निकासी, पर्याप्त धूप और सिंचाई व्यवस्था फसल की गुणवत्ता और उत्पादन को प्रभावित करती है।
इस प्रकार की तोरई की कुछ उन्नत किस्मों का विवरण पहले दिया गया है। इन किस्मों की विशेषताएं जैसे कि फलों की लंबाई, मोटाई, वजन, उपज क्षमता, रोग प्रतिरोधकता और पकने की अवधि भिन्न होती हैं।
अर्का सुमीत, स्वर्ण मंजरी और स्वर्ण उपहार जैसी किस्में अधिक उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधक मानी जाती हैं, जबकि पंत तोरई-1 जैसी किस्में वर्षा ऋतु के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं।
स्पंज तोरई की किस्में हल्के और चिकने फलों के लिए जानी जाती हैं। इनमें पुसा चिकनी, पुसा स्नेहा, और राजेन्द्र-1 जैसी किस्में प्रमुख हैं। इन किस्मों की विशेषता है – चिकना गूदा, रोग प्रतिरोधक क्षमता, अच्छी पैकिंग योग्य फल और लंबी दूरी तक परिवहन की सुविधा।
पुसा स्नेहा को विशेष रूप से उन किसानों के लिए उपयुक्त माना जाता है जो अपने उत्पाद को दूर के बाजारों तक पहुँचाना चाहते हैं। वहीं राजेन्द्र-1 रोग प्रतिरोधक किस्म होने के कारण कम देखभाल में भी अच्छी उपज देती है।
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तोरई की खेती न केवल घरेलू उपयोग के लिए लाभकारी है बल्कि व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी किसानों के लिए आय का एक अच्छा स्रोत बन सकती है।
यदि उन्नत किस्मों का चयन कर सही तकनीक से खेती की जाए, तो कम लागत में अधिक उत्पादन संभव है। रोग प्रतिरोधक, अधिक उपज वाली और विपणन योग्य किस्मों का चयन कर किसान बेहतर मुनाफा कमा सकते हैं।