कालमेघ एक प्रमुख औषधीय पौधा है, जिसे आमतौर पर "भुईनीम" और "कडू चिरायता" के नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम Andrographis paniculata है और यह एकेन्थेसी (Acanthaceae) कुल से संबंधित है।
यह पौधा सौरसिया चिरायता के समान माना जाता है, जो विशेष रूप से हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाता है। कालमेघ प्रायः भारत के शुष्क जलवायु वाले जंगलों में स्वाभाविक रूप से उगता है, लेकिन अब इसे व्यावसायिक रूप से भी उगाया जाने लगा है क्योंकि इसकी मांग औषधीय बाजार में तेजी से बढ़ रही है।
कालमेघ का पौधा सामान्यतः 1 से 3 फीट की ऊंचाई तक बढ़ता है। इसकी फलियाँ छोटी होती हैं जिनमें भूरे रंग के छोटेछोटे बीज पाए जाते हैं।
फूल हल्के बैंगनी या सफेद रंग के होते हैं जो इसकी पहचान को विशिष्ट बनाते हैं। औषधीय दृष्टि से यह पौधा अत्यंत उपयोगी है और इसके संपूर्ण भागों – पत्तियों, तनों और जड़ों – का उपयोग विभिन्न चिकित्सा प्रणालियों में किया जाता है।
इसकी खेती से न केवल आयुर्वेदिक उद्योग को लाभ होता है, बल्कि किसानों को भी आय का अच्छा स्रोत प्राप्त होता है।
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कालमेघ का उपयोग पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धतियों जैसे आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी में किया जाता रहा है। इसे खासकर लिवर संबंधित रोगों के इलाज में एक प्रमुख औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
इसके अलावा यह मलेरिया, बुखार, त्वचा रोग, पाचन तंत्र की समस्याएं और इम्यून सिस्टम को मजबूत करने में भी उपयोगी होता है। कालमेघ के पत्तों में मौजूद यौगिक जैसे एंड्रोग्राफोलाइड (andrographolide) इसके औषधीय गुणों का मुख्य स्रोत होते हैं।
इसमें एंटीबैक्टीरियल, एंटीवायरल, एंटीऑक्सीडेंट, और एंटीइंफ्लेमेटरी गुण मौजूद होते हैं। यह खून को साफ करने, शरीर से विषैले पदार्थों को बाहर निकालने और चर्म रोगों से राहत दिलाने में सहायक होता है।
इसके कड़वे स्वाद के कारण यह पाचन को दुरुस्त करने में भी कारगर माना जाता है। एलोपैथिक दवाओं में भी इसका उपयोग इम्युनिटी बढ़ाने वाले सप्लीमेंट्स में किया जा रहा है। कालमेघ आज आयुर्वेदिक फार्मा उद्योग की एक आवश्यक फसल बन चुका है।
कालमेघ की खेती भारत के विभिन्न भागों में सफलतापूर्वक की जा सकती है, विशेष रूप से वे क्षेत्र जहाँ समुद्र तल से ऊंचाई 1000 मीटर तक है।
यह पौधा मुख्यतः पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और दक्षिण राजस्थान के जंगलों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। इसकी सबसे अच्छी वृद्धि उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में होती है, जहाँ वातावरण गर्म और आर्द्र होता है।
इसकी खेती के लिए सालाना 500 मिमी से 1400 मिमी तक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त होते हैं। तापमान की दृष्टि से न्यूनतम 5 से 15 डिग्री सेल्सियस और अधिकतम 35 से 45 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।
मिट्टी की बात करें तो बलुई दोमट, जलोढ़ तथा अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए उत्तम मानी जाती है।
मिट्टी का पीएच 5.5 से 7.5 तक अनुकूल रहता है। यदि मिट्टी में जैविक पदार्थों की मात्रा अधिक हो तो पौधों की वृद्धि और औषधीय गुणवत्ता दोनों में सुधार होता है।
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कालमेघ की बुवाई के लिए सबसे अनुकूल समय जूनजुलाई का माना जाता है, जब मानसून की शुरुआत होती है। इसे खरीफ सीजन की फसल के रूप में उगाया जाता है।
बुवाई से पहले बीजों को 12-24 घंटे पानी में भिगोने से अंकुरण की दर बढ़ जाती है, जो सामान्यतः 60-70% होती है। बीज छोटे होते हैं और अत्यंत सावधानी से प्रबंधन की आवश्यकता होती है।
बुवाई की दो विधियाँ होती हैं: पहली नर्सरी पद्धति और दूसरी सीधी बुवाई। नर्सरी पद्धति में बीजों को पहले किसी ऊँचे उठे बेड पर बोया जाता है।
जब पौधे लगभग 25-30 दिनों में 10-12 सेमी लंबे हो जाते हैं, तो उन्हें खेत में स्थानांतरित किया जाता है। रोपाई के समय पौधों के बीच की दूरी 10-15 सेमी और पंक्तियों के बीच की दूरी 30-40 सेमी रखनी चाहिए। इससे पौधों को पर्याप्त स्थान और पोषक तत्व मिलते हैं।
कालमेघ की फसल को नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है, खासकर जब मानसून कमज़ोर हो या मौसम अधिक गर्म हो।
रोपाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि यह पौधे के जमाव को सुनिश्चित करती है।
इसके बाद की सिंचाइयाँ मौसम और मिट्टी की नमी के अनुसार की जाती हैं। सामान्यतः 7-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करना उपयुक्त होता है।
मानसून के दौरान प्राकृतिक वर्षा पर्याप्त हो सकती है, लेकिन सूखे के समय सिंचाई की अनदेखी फसल उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
ड्रिप या स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली का प्रयोग कर जल की बचत के साथसाथ फसल की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। खेतों में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था भी अत्यंत आवश्यक है ताकि पानी रुककर पौधों की जड़ों को नुकसान न पहुंचाए।
कालमेघ की जैविक खेती को प्रोत्साहित किया जाता है क्योंकि यह औषधीय पौधा है। इसके लिए गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, और हरी खाद का प्रयोग लाभकारी होता है।
खेत की तैयारी करते समय 10-15 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद डालनी चाहिए जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़े।
रासायनिक उर्वरकों का सीमित उपयोग किया जाता है। साधारणतः 50 किग्रा नाइट्रोजन, 25 किग्रा फॉस्फोरस और 25 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जाता है।
उर्वरकों को दो भागों में बांटकर – आधा रोपाई के समय और शेष 30-40 दिनों बाद दिया जाना चाहिए। इसके अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे ज़िंक और बोरॉन भी पौधों के विकास में सहायक होते हैं। जैव उर्वरकों का उपयोग कर मिट्टी की संरचना को सुधारते हुए उत्पादन को बेहतर किया जा सकता है।
कालमेघ की फसल लगभग 100-120 दिनों में तैयार हो जाती है। जब पौधे की ऊंचाई 30-40 सेमी तक पहुंच जाती है और पत्तियां पूरी तरह से विकसित हो जाती हैं, तब उसकी कटाई की जाती है।
कटाई के बाद पौधों को छायायुक्त स्थान पर सुखाया जाता है ताकि उनमें मौजूद औषधीय तत्व नष्ट न हों। सुखाने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद उन्हें औषधीय उपयोग के लिए संग्रहित या प्रसंस्कृत किया जाता है।
एक हेक्टेयर क्षेत्र से औसतन 1500-2000 किलोग्राम तक सूखी जड़ीबूटी प्राप्त की जा सकती है, जो बाजार में अच्छी कीमत पर बिकती है।
बाजार में कालमेघ की लगातार बढ़ती मांग को देखते हुए किसान इसकी खेती को लाभकारी व्यवसाय के रूप में अपना रहे हैं। अच्छे प्रबंधन और वैज्ञानिक तरीके से की गई खेती से उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।
उत्तर -कालमेघ पौधे की ऊंचाई 1 से 3 फीट तक होती हैं।
उत्तर - कालमेघ में 7-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है।
उत्तर - कालमेघ की औसतन उपज 1500-2000 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर क्षेत्र होती हैं।