कई रोग ऐसे हैं जो पशुओं से मनुष्यों में फैलते हैं। इनमें से कई तो इतने घातक हैं कि जिनका निदान भी संभव नहीं है। पशुपालन करने वाले सीधे साधे किसान और विशेषकर महिला किसान इनके विषय में नहीं जानते। इन रोगों से खुद को बचाने के लिए किसानों को इनके लक्षण पता होने चाहिए और संक्रमण से बचने के लिए जरूरी सावधानी बरतनी चाहिए।
मनुष्यों में ये रोग एक गम्भीर समस्या हैं। हमारे देश में जहाँ 72 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है तथा पशु-पक्षियों की देखभाल करते समय किसान व पशुपालक भाई बहनें तथा उनके बच्चे स्वयं भी जाने अनजाने में इन रोगों से ग्रसित हो जाते हैं वहां इन रोगों का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है।
अभी तक लगभग 300 से अधिक इस श्रेणी के रोग पहचाने जा चुके हैं। विशेषतः उनके चारे-पानी व दाने की व्यवस्था करते समय, पशुओं को नहलाने तथा बाड़े की साफ-सफाई करते समय गर्भावस्था में मादा पशुओं व जन्म के समय [नवजात पशुओं की देखभाल करते समय] कृषि व पशुपालन से संबंधित कार्यो में उनका उपयोग करते समय तथा उनके साथ एक ही छत के नीचे रहने व सोते समय।
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बचाव उपचार की अपेक्षा अच्छा है - ये छूत के रोग संक्रामक एवं बहुत भयानक होते हैं। जिसमें करोड़ों की संख्या में पशु प्रतिवर्ष मृत्यु के घाट उतरते हैं।
आर्दश प्रबन्धन- पशु स्वस्थ रखे जाएं। उनके आहार, प्रजनन व रोग परीक्षण, निदान तथा उपचार का समुचित प्रबन्ध किया जाए। समय-समय पर रोगों के टीके लगाये जाएं।
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बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए। मेले अथवा हाट से नये खरीदे गये पशुओं को स्वस्थ पशुओं से एक माह के अन्तराल तक अलग रखने के पश्चात ही पशुबाडे के अन्य स्वस्थ पशुओं से मिलाना चाहिये। रोगी पशुओं के दूध या मांस का उपयोग बिल्कुल न किया जाए। दूध मांस अण्डे व इनके अन्य उत्पादों को यदि मनुष्यों के उपयोग में लाया भी जाये तो यह अति आवश्यक है कि इन पदार्थों को उबालकर] पास्चुरीकरण द्वारा अथवा डिब्बाबंद करने की विधि (केनिंग) द्वारा विसंक्रमित किया जाये। थनैला से ग्रस्त रोगी पशुओं के दूध का सेवन रोग काल में तथा थनों में दवा चढाने के 72 घंटों बाद तक कदापि नहीं करना चाहिये।
रोगी पशुओं अथवा उनके अन्य उत्पादों (दुग्ध मांस) अण्डे के सम्पर्क में आये बर्तनों व हाथों को कार्बोलिक साबुन या क्लोरीन स्रोत जैसे डौमेक्स या ब्लीचिंग पाउडर के घोल से धोकर अवश्य विसंक्रमित किया जाना चाहिये। दूषित चरागाह पर चूना छिड़काव कर अथवा हल चलवा कर उसे 5- 6 माह की अवधि के लिये खाली छोड देना चाहिए। उक्त रोगों से ग्रस्त होकर मरे पशु के शव और बिछावन आदि का उचित प्रबन्ध - रोगी पशुओं के पालन क्षेत्रों तथा मृत्यु स्थल को फार्मलीन] कार्बोलिक अम्ल] फिनायल] लाइसौल अथवा डिटौल आदि के घोल से विसंक्रमित किया जाना चाहिये।