आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि जापानी रेड डायमंड अमरूद अंदर से दिखने में सुर्ख लाल होता है। यह देसी अमरूद की तुलना में काफी महंगा बिकता है।
बाजार में इसका भाव हमेशा 100 से 150 रुपये किलो के मध्य ही रहता है। अगर आप इसकी खेती करते हैं, तो आपकी कमाई तीन गुना बढ़ जाएगी। इस किस्म के अमरुद की खेती करने पर निश्चित रूप से मुनाफा हांसिल होगा।
दरअसल, लोगों को अमरुद का सेवन करना बेहद पसंद होता है। बाजार में अमरुद की मांग हमेशा बनी रहती है। अमरुद एक प्रकार से पोषक तत्वों का भंडार होता है।
किसानों को अत्यधिक मुनाफा हांसिल करने के लिए भी वैज्ञानिक अमरुद की खेती करने की सलाह देते हैं। दरअसल, अमरुद के अंदर विभिन्न विटामिन्स पाए जाते हैं।
परंतु, इसमें सबसे ज्यादा विटामिन सी की मात्रा पाई जाती है। इसके अतिरिक्त अमरूद में लोहा, चूना एवं फास्फोरस भी भरपूर मात्रा में उपस्थित होते हैं।
यदि आप नियमित तौर पर अमरूद का सेवन करते हैं, तो आपका शरीर तंदरुस्त एवं तरोताजा रहेगा। दरअसल, भारत के अंदर अमरूद की विभिन्न किस्मों की खेती की जाती है।
परंतु, आज हम एक ऐसे किस्म के विषय में बात करने वाले हैं, जिसकी खेती से किसान कुछ ही दिनों में धनवान हो जाएंगे।
यह अपने स्वाद एवं मिठास के लिए जाना जाता है। बाजार में यह 100 से 150 रुपये किलो बिकता है। इसकी खेती करने वाले किसान कुछ ही वर्षों में धनवान हो जाते हैं। मुख्य बात यह है, कि बहुत सारे राज्यों में किसानों ने जापानी रेड डायमंड अमरूद की खेती की शुरुआत भी कर दी है।
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यदि आप काली एवं बलुई दोमट मृदा में जापानी रेड डायमंड अमरूद की खेती करते हैं, तो आपको काफी बेहतरीन उत्पादन मिलेगा।
मुख्य बात यह है, कि खेत में जापानी डायमंड की बुवाई करते वक्त कतार से कतार के मध्य का फासला 8 फीट होनी चाहिए।
वहीं, पौधों से पौधों के बीच का फासला 6 फीट रखना चाहिए। इससे पौधों का तीव्रता से विकास होता है। साथ ही, वर्ष में दो बार पौधों की छटाई भी करनी चाहिए।
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यदि आप चाहें, तो एनपीके सल्फर, कैल्शियम नाइट्रेट, मैग्नीशियम सल्फर एवं बोरान का खाद के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। साथ ही, पौधों को पानी देने के लिए ड्रिप सिंचाई का ही इस्तेमाल करें, इससे पानी की खपत काफी कम होती है।
यदि आप देशी अमरूद की खेती से वर्ष में एक लाख रुपये कमा पा रहे हैं, तो जापानी रेड डायमंड अमरूद की खेती से आपकी कमाई तीन गुना तक बढ़ जाएगी। इसका अर्थ यह है, कि आप साल में 3 लाख रुपये की आय करेंगे।
भारत के अंदर अमरूद की फसल आम, केला और नीबू के बाद चौथे स्थान पर आने वाली व्यावसायिक फसल है। भारत में अमरुद की खेती की शुरुआत 17वीं शताब्दी से हुई। अमेरिका और वेस्ट इंडीज के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र अमरुद की उत्पत्ति के लिए जाने जाते हैं। अमरूद भारत की जलवायु में इतना घुल मिल गया है, कि इसकी खेती बेहद सफलतापूर्वक की जाती है।
वर्तमान में महाराष्ट्र, कर्नाटक, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, बिहार और उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त इसकी खेती पंजाब और हरियाणा में भी की जा रही है। पंजाब में 8022 हेक्टेयर के भू-भाग परअमरूद की खेती की जाती है और औसतन पैदावार 160463 मीट्रिक टन है। इसके साथ ही भारत की जलवायु में उत्पादित अमरूदों की मांग विदेशों में निरंतर बढ़ती जा रही है, जिसके चलते इसकी खेती व्यापारिक रूप से संपूर्ण भारत में भी होने लगी है।
अमरुद का स्वाद खाने में ज्यादा स्वादिष्ट और मीठा होता है। अमरुद के अंदर विभिन्न औषधीय गुण भी विघमान होते हैं। इस वजह से इसका इस्तेमाल दातों से संबंधी रोगों से निजात पाने के लिए भी किया जाता है। बागवानी में अमरूद का अपना एक अलग ही महत्व है। अमरूद फायदेमंद, सस्ता और हर जगह मिलने की वजह से इसे गरीबों का सेब भी कहा जाता है। अमरुद के अंदर विटामिन सी, विटामिन बी, कैल्शियम, आयरन और फास्फोरस जैसे पोषक तत्व विघमान होते हैं।
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अमरुद से जेली, जूस, जैम और बर्फी भी बनायीं जाती हैं। अमरुद के फल की अच्छे से देख-रेख कर इसको ज्यादा समय तक भंडारित किया जा सकता है। किसान भाई अमरुद की एक बार बागवानी कर तकरीबन 30 साल तक उत्पादन उठा सकते हैं। किसान एक एकड़ में अमरूद की बागवानी से 10 से 12 लाख रूपए वार्षिक आय सुगमता से कर सकते हैं। यदि आप भी अमरूद की बागवानी करने का मन बना रहे हैं तो यह लेख आपके लिए अत्यंत लाभकारी है। क्योंकि, हम इस लेख में आपको अमरुद की खेती के बारे में जानकारी देंगे।
पंजाब पिंक: इस किस्म के फल बड़े आकार और आकर्षक सुनहरी पीला रंग के होते हैं। इसका गुद्दा लाल रंग का होता है, जिसमें से काफी अच्छी सुगंध आती है। इसके एक पौधा का उत्पादन वार्षिक तकरीबन 155 किलोग्राम तक होता है।
इलाहाबाद सफेदा: इसका फल नर्म और गोल आकार का होता है। इसके गुद्दे का रंग सफेद होता है, जिस में से आकर्षक सुगंध आती है। एक पौधा से तकरीबन सालाना पैदावार 80 से 100 किलोग्राम हो सकती है।
ओर्क्स मृदुला: इसके फल बड़े आकार के, नर्म, गोल और सफेद गुद्दे वाले होते हैं। इसके एक पौधे से वार्षिक 144 किलोग्राम तक फल हांसिल हो जाते हैं।
सरदार: इसे एल 49 के नाम से भी जाना जाता है। इसका फल बड़े आकार और बाहर से खुरदुरा जैसा होता है। इसका गुद्दा क्रीम रंग का होता है। इसका प्रति पौधा वार्षिक उत्पादन 130 से 155 किलोग्राम तक होती है।
श्वेता: इस किस्म के फल का गुद्दा क्रीमी सफेद रंग का होता है। फल में सुक्रॉस की मात्रा 10.5 से 11.0 फीसद होती है। इसकी औसतन पैदावार 151 किलो प्रति वृक्ष होती है।
पंजाब सफेदा: इस किस्म के फल का गुद्दा क्रीमी और सफेद होता है। फल में शुगर की मात्रा 13.4% प्रतिशत होती है और खट्टेपन की मात्रा 0.62 प्रतिशत होती है।
अन्य उन्नत किस्में: इलाहाबाद सुरखा, सेब अमरूद, चित्तीदार, पंत प्रभात, ललित इत्यादि अमरूद की उन्नत व्यापारिक किस्में है। इन सभी किस्मों में टीएसएस की मात्रा इलाहबाद सफेदा और एल 49 किस्म से ज्यादा होती है।
भारतीय जलवायु में अमरूद इस तरह से घुल मिल गया है, कि इसकी खेती भारत के किसी भी हिस्से में अत्यंत सफलतापूर्वक सुगमता से की जा सकती है। अमरूद का पौधा ज्यादा सहिष्णु होने की वजह इसकी खेती किसी भी प्रकार की मिट्टी एवं जलवायु में बड़ी ही आसानी से की जा सकती है। अमरुद का पौधा उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाला होता है।
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इसलिए इसकी खेती सबसे अधिक शुष्क और अर्ध शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में की जाती है। अमरुद के पौधे सर्द और गर्म दोनों ही जलवायु को आसानी से सहन कर लेते हैं। किन्तु सर्दियों के मौसम में गिरने वाला पाला इसके छोटे पौधों को नुकसान पहुंचाता है। इसके पौधे अधिकतम 30 डिग्री तथा न्यूनतम 15 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकते है। वहीं, पूर्ण विकसित पौधा 44 डिग्री तक के तापमान को भी सहन कर सकता है।
जैसा कि उपरोक्त में आपको बताया कि अमरूद का पौधा उष्ण कटिबंधीय जलवायु का पौधा हैं। भारतीय जलवायु के अनुसार इसकी खेती हल्की से भारी और कम जल निकासी वाली किसी भी तरह की मृदा में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परंतु, इसकी बेहतरीन व्यापारिक खेती के लिए बलुई दोमट से चिकनी मिट्टी को सबसे अच्छा माना जाता है। क्षारीय मृदा में इसके पौधों पर उकठा रोग लगने का संकट होता है।
इस वजह से इसकी खेती में भूमि का पी.एच मान 6 से 6.5 के बीच होना चाहिए। इसकी शानदार पैदावार लेने के लिए इसी तरह की मिट्टी के खेत का ही इस्तेमाल करें। अमरूद की बागवानी गर्म एवं शुष्क दोनों जलवायु में की जा सकती है। देश के जिन इलाकों में एक साल के अंदर 100 से 200 सेमी वर्षा होती है। वहां इसकी आसानी से सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है।
अमरूद की खेती के लिए बीजों की बुवाई फरवरी से मार्च या अगस्त से सितंबर के महीने में करना सही है। अमरुद के पौधों की रोपाई बीज और पौध दोनों ही तरीकों से की जाती है। खेत में बीजों की बुवाई के अतिरिक्त पौध रोपाई से शीघ्र उत्पादन हांसिल किया जा सकता है। यदि अमरुद के खेत में पौध रोपाई करते हैं, तो इसमें पौधरोपण के वक्त 6 x 5 मीटर की दूरी रखें। अगर पौध को वर्गाकार ढ़ंग से लगाया गया है, तो इसके पौध की दूरी 15 से 20 फीट तक रखें। पौध की 25 से.मी. की गहराई पर रोपाई करें।
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इससे पौधों और उसकी शाखाओं को फैलने के लिए काफी अच्छी जगह मिल जायेगी। अमरूद के एक एकड़ खेत वाली भूमि में तकरीबन 132 पौधे लगाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि इसकी खेती की बुवाई बीजों के जरिए से कर रहे हैं, तो फासला पौध रोपाई के मुताबिक ही होगा और बीजों को सामान्य गहराई में बोना चाहिए।
बिजाई का ढंग - खेत में रोपण करके, कलम लगाकर, पनीरी लगाकर, सीधी बिजाई करके इत्यादि तरीके से बिजाई कर सकते हैं।
चयनित प्रजनन में अमरूद की परंपरागत फसल का इस्तेमाल किया जाता है। फलों की शानदार उपज और गुणवत्ता के लिए इसे इस्तेमाल में ला सकते हैं। पन्त प्रभात, लखनऊ-49, इलाहाबाद सुर्ख, पलुमा और अर्का मिरदुला आदि इसी तरह से विकसित की गई है। इसके पौधे बीज लगाकर या एयर लेयरिंग विधि द्वारा तेयार किए जाते हैं। सरदार किस्म के बीज सूखे को सहने लायक होते हैं और इन्हें जड़ों द्वारा पनीरी तैयार करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए पूर्णतय पके हुए फलों में से बीज तैयार करके उन्हें बैड या नर्म क्यारियों में अगस्त से मार्च के माह में बिजाई करनी चाहिए।
बतादें, कि क्यारियों की लंबाई 2 मीटर और चौड़ाई 1 मीटर तक होनी चाहिए। बिजाई से 6 महीने के पश्चात पनीरी खेत में लगाने के लिए तैयार हो जाती है। नवीन अंकुरित पनीरी की चौड़ाई 1 से 1.2 सेंटीमीटर और ऊंचाई 15 सेंटीमीटर तक हो जाने पर यह अंकुरन विधि के लिए इस्तेमाल करने के लिए तैयार हो जाती है। मई से जून तक का वक्त कलम विधि के लिए उपयुक्त होता है। नवीन पौधे और ताजी कटी टहनियों या कलमें अंकुरन विधि के लिए उपयोग की जा सकती हैं।
कृषि फसल उत्पादन से जुड़े किसानों के लिए महीने के अनुसार कृषि कार्य सुझावों के तहत, इस बार अगस्त माह में जानिये बागवानी फसलों की अधिक पैदावार और उससे मुनाफा कमाने के तरीकों के बारे में। हम बात करेंगे मौसमी फलों वाले पौधों अमरूद (Amarood/Guava), आँवला (Aanvala/Amla/Indian Gooseberry) के साथ ही अब साल भर मार्केट में डिमांड में बने रहने वाले केला (Kela/Banana) की फार्मिंग के तरीकों के बारे में। शुरुआत करते हैं अंग्रेजी में गुआवा (Guava) कहे जाने वाले अपने देशी बिही, जामफल या फिर अमरूद के पौधों को लगाने के तरीकों से।
अगस्त के महीने में अमरूद राेपण (Guava Planting) में कुछ वैज्ञानिक युक्तियों के प्रयोग से भरपूर पैदावार और मुनाफा मिलता है। अमरूद के पौधों का रोपण (Planting Guava plants) करते समय पौधों के बीच 5×5 मीटर की दूरी रखने की सलाह बागवानी सलाहकार देते हैं।
अमरूद राेपण (Guava Planting) की कई विधियां हैं। आम तौर पर पुराने पेड़ों के पास की भूमि पर अमरूद के नए पौधे स्वतः पनप जाते हैं। इनको निकालकर खेतों में इच्छित जगह पर रोपा जा सकता है। कलम विधि से भी अमरूद (Guava) के रोपण योग्य पौधे तैयार किये जा सकते हैं।
अमरूद के पत्तों से पौधे तैयार करने की भी विधि कारगर हो सकती है। इस तरीके से अमरूद का बाग तैयार करने के लिए किसान को अगस्त माह के पहले से तैयारी करनी होगी।
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बड़े खेत पर अमरूद के पौधों का रोपण (Planting Guava plants) करने के लिए किसान मित्र नर्सरी या फिर कृषि विज्ञान केंद्रों के साथ ही उद्यानिकी विभाग से संबद्ध केंद्रों से अमरूद के उमदा किस्म के पौधे निर्धारित मूल्य पर खरीद सकते हैं। आम तौर पर अमरूद के पौधे उनकी खासियतों, क्षमता के आधार पर 10 रुपये से लेकर 300 से 500 रुपयों के वर्ग में बाजार में ऑनलाइन भी बेचे जा रहे हैं। देशी-विदेशी किस्म में से किसान अपनी पसंद के अमरूद के पौधों का चुनाव यहां कर सकते हैं।
अमरूद का पौधा रोपते समय जैविक खाद का उपयोग करने से पौधे को प्राकृतिक तरीके से वृद्धि करने में मदद मिलती है।
अमरूद का पौधा रोपते समय प्रति गड्ढा 25 से 30 किलोग्राम गोबर की खाद का मिश्रण उपयोग करना चाहिए।
इसके लिए पहले साल 260 ग्राम यूरिया, 375 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और 500 ग्राम पोटेशियम सल्फेट प्रति पौधा उपयोग का बागवानी सलाहकारों ने सुझाव दिया है। इसी तरह आयु, कद एवं क्षमता के हिसाब से खाद एवं उर्वरक का प्रयोग कर अमरूद के पौधे को दीर्घकाल तक फलदायक रखा जा सकता है।
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अमरूद के पौधे की पत्ती पीली पड़ने, आकार छोटा होने तथा पौधों की बढ़त कम होने संबंधी परेशानी से परेशान होने की जरूरत नहीं। आम तौर पर जस्ता तत्व की कमी होने से अमरूद के पौधों में यह समस्या आती है। इन व्याधियों के समाधान के लिए 2 प्रतिशत जिंक सल्फेट के स्पे के अलावा 300 ग्राम जिंक सल्फेट को अमरूद के पौधों की जड़ों में डालने से भी अमरूद की पत्तियों के पीलेपन, पेड़ का आकार कम होने आदि जैसी समस्याओं का समाधान हो जाता है।
आम तौर पर अमरूद के पौधों, पेड़ों पर साल में दो बार फल लगते हैं। वर्षाकाल के फलों का स्वाद ठंड में आने वाले फलों के मुकाबले पनछीटा, या फीका होता है। वर्षा के समय अमरूद के फल अधिक तो लगते हैं, लेकिन इनकी गुणवत्ता खराब होती है। इस मौसम के फलों में कीड़े लगने की भी समस्या रहती है। कुछ अनुभवी कृषक इस मौसम में फल न लेकर शरद ऋतु आधारित अमरूद की पैदावार की तैयारी पर अधिक ध्यान देते हैं। अगस्त महीने में किसान अमरूद के पौधे रोप तो सकते हैं लेकिन उनको मानसून में बाग में जल निकासी के प्रबंध का खास ध्यान रखना चाहिए। साथ ही बाग में पनप रहे अमरूद के पौधों की सतत निगरानी भी अगस्त में जरूरी है ताकि किसी भी रोग के लक्षण दिखने पर उसका तत्काल निदान किया जा सके।
आँवला वो चमत्कारी फल है जिसके पौधे, पेड़ों की पत्तियों, शाखाओं, जड़ों तक का व्यापक महत्व है। रसोई की खाद्य सामग्री से दवाई की प्रयोगशालाओं के रसायन तक आँवला अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुका है। एक तरह से इंडियन गूसबेरी (Indian Gooseberry) यानी आँवला (Aanvala/Amla) की प्राकृतिक खेती, हर्बल उत्पादों की व्यापक पहचान बन चुका है। आँवला का मुरब्बा, जूस, अचार, हलवा आदि के अलावा चूरन आदि कई उत्पाद भारतीय हर्बल प्रोडक्ट्स की पहचान हैं।
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आँवला (Aanvala/Amla/Indian Gooseberry) के पौधों को सहेजने के लिए अगस्त का माह अहम होता है। इस महीने में आँवला के एक साल के पौधे के लिए प्रति पौधा 10 किलोग्राम गोबर या वर्मीकम्पोस्ट खाद एवं 50 ग्राम नाइट्रोजन व 35 ग्राम पोटाश का उपयोग करने की सलाह बागवानी सलाहकार देते हैं।
इस मात्रा को 10 वर्ष या उससे ऊपर के वृक्षों में जो क्रमशः बढ़ाते हुए 100 कि.ग्रा. गोबर या कम्पोस्ट खाद एवं 500 ग्राम नाइट्रोजन व 350 ग्राम पोटाश का मिश्रण तैयार कर उपयोग में लाया जा सकता है।
किसान मित्रों को आँवला के पौधे का फफूंद जनित रोगों से बचने की खास जरूरत है। अगस्त के दौरान आँवला के पौधों पर नीले फफूंद रोग की आशंका बलवती रहती है। इसके नियंत्रण के लिए फलों को बोरेक्स या नमक से उपचारित कर फलों की सुरक्षा की जा सकती है। कार्बेन्डाजिम या थायोफनेट मिथाइल 0.1 प्रतिशत के उपचार से भी आँवला के फलों को रोगों से सुरक्षित रखा जा सकता है।
अगस्त के दौरान केला (Kela/Banana) के रखरखाव के बारे में भा.कृ .अनु.प.-भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान सस्थान (ICAR-Indian Institute of Soybean Research) ने एडवाइजरी जारी की है।
सलाह के अनुसार केले में प्रति पौधा 100 ग्राम पोटाश एवं 55 ग्राम यूरिया का उपयोग करना चाहिए। इसे केले के पौधे से 50 सेंटीमीटर दूर गोलाकार प्रयोग कर हल्की गुड़ाई की मदद से मिट्टी में पूरी तरह मिश्रित करने की सलाह दी गई है।
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केला (Kela/Banana) के पौधों में पनामा विल्ट की समस्या हो सकती है। इसकी रोकथाम बाविस्टीन के घोल से संभव है। इसकी 1.5 मिलीग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में तैयार घोल को केले के पौधों के चारों तरफ की मिट्टी पर छिड़काव की सलाह दी गई है। लगभग 20 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करने से पनामा विल्ट का उपचार होने की जानकारी कृषि वैज्ञानिकों ने दी है।
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