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कल्टीवेटर

गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं की फसल का समय पर अच्छा प्रबंधन करके कैसे किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं।

गेहूं जैसा कि हम जानते हैं, विश्व में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली अनाज की फसल है। गेंहू विश्व में उत्पादन और सबसे अधिक उगाया जाता है, इसलिए गेहूं को फसलों का राजा कहा जाता है। गेहूं किसी भी अन्य अनाज की तुलना में मिट्टी और जलवायु की अधिक विविधता में खेती करने में सक्षम है और रोटी बनाने, ब्रेड बनाने, मैक्रोनी बनाने और बहुत रूप में उपयोग के लिए भी बेहतर अनुकूल है। गेहूं में एक ग्लूटेन नाम का प्रोटीन जो बेकिंग के लिए आवश्यक होता है। इसलिए ये बेकरी प्रोडक्ट्स बनने के लिए उपयोगी है। हमारे भारत में गेहूं की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। सबसे ज्यादा गेहूं की फसल की खेती उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब में की जाती है। प्रति एकड़ की पैदावार पंजाब में सबसे अधिक है, क्योंकि पंजाब में 100% पानी आधारित खेती होती है।उत्पादन की बात की जाए तो हमें बढ़ती आबादी को देखते हुए 2025 तक गेहूं की मांग को पूरा करने के लिए 117 मिलियन टन गेहूं के उत्पादन करना होगा। इसके लिए हमें उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल करके गेहूं की पैदावार को ज्यादा करना होगा।

खरीफ की फसल की कटाई के बाद कैसे करें जमीन तैयार

खरीफ की फसल कटाई के बाद हमें अपने खेत को हैरो, कल्टीवेटर या रोटावेटर चलाकर अच्छी तरह से जोतना है ताकि भूमि में पिछली फसल के अवशेष खतम हो जाएं। इस के बाद हमें अपने खेत में गोबर की खाद डाल देनी है और, एक बार और हैरो चला देनी है जिस से गोबर की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिल जाए। गेहूं की फसल बोने से पहले हमें मिट्टी में नमी भी देखनी है, अगर मिट्टी में सही नमी न हो तो हमें खेत में सिंचाई करनी चाहिए ताकि फसल की उपज अच्छी हो। गेहूं की फसल में सीड़ बेड समतल और प्लेन होना चाहिये। गेहूं की फसल में ग्रोथ के लिए 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान चाहिये। गेहूं की फसल के लिए काली या दोमट मिट्टी अच्छी पैदावार देती है और मिट्टी का pH मान 5-7 होना चाहिए।

पोषण व्यवस्था कैसे करें

सब से पहले हमें खेत की मिट्टी की जांच करनी है, उस के आधार पर हमें अपने खेत में पोषण तत्व देने हैं। गेहूं की फसल को 40-50 किलो नाइट्रोजन, 25-30 किलो फॉस्फोरस,15-20 किलो पोटास और 10 किलो जिंक और 10 किलो सल्फर डालने से अच्छी पैदावार होती है।

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नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस, पोटाश व जिंक और सल्फर की पूरी मात्रा तथा गोबर की खाद की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय या अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए। कई बार खड़ी फसल में जिंक की कमी दिखने पर इस का स्प्रे भी कर सकते हैं। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो भागों में बांटकर पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद एवं दूसरी 40-45 दिन के बाद प्रयोग करें।

बिजाई का उत्तम समय और बीज की मात्रा

नवंबर महीने की 15 - 25 तारीख तक बिजायी का उत्तम समय होता है। 25 नवंबर के बाद हम पछेती किस्मों की बिजाई कर सकते हैं। पछेती बिजाई पर बीज और उर्वरक की मात्रा थोड़ी ज्यादा डालनी पड़ती है, जिससे पछेती फसल की भी अच्छी पैदावार हो सकती है। एक अकड़ के लिए 40 किलो बीज पर्याप्त होता है। कम पानी वाली इलाके में 50 किलो बीज प्रति एकड़ और पछेती बिजाई पर भी 20 किलो बीज सामान्य से ज्यादा लगता है। पौधे से पौधे की दुरी 8 -10 CM होनी चाहिये और कतार से कतार की दूरी 22. 5 CM होनी चाइए। बीज 4 से 5 CM मिट्टी की गहराई में डालना चाहिए। इन नई किस्मों, जिन्हें DBW-316, DBW-55, DBW-370, DBW-371 और DBW-372 नाम दिया गया है। भारतीय कृषि परिषद की गेहूं और जौ की प्रजाति पहचान समिति द्वारा अनुमोदित किया गया है। इन किस्मो का चुनाव कर के किसान अच्छी पैदावार ले सकते है।

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सिचाई प्रबंधन

फसल में हल्की मिट्टी में करीब 6 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। वहीं दोमट मिट्टी में करीब 8 सेंटीमीटर की गहराई तक सिंचाई करनी चाहिए। अगर हमारी जमीन में पर्याप्त जल उपलब्ध है, तो हमें फसल में 5 से 6 बार सिंचाई करनी चाहिए। सिचाई की अवधियाँ इस प्रकार हैं। पहली सिंचाई मुख्य जड़ विकास (CROWN ROOT INITATION ) - 21 -25 दिन की हो जाने पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है। इस स्टेज पर फसल में सिंचाई करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि इस स्टेज के नाम से ही पता चल रहा है कि 21 दिन बाद फसल में नई जड़ का विकास होता है। अगर इस समय पर फसल को पानी नहीं मिलता है तो फसल की पैदावार बिल्कुल घट जाती है। इस लिए कई स्थानों पर जहाँ पानी की कमी है, केवल एक सिंचाई संभव है, तो किसान इस स्टेज की फसल की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। दूसरी सिंचाई 40 -45 दिन की फसल हो जाने पर करनी चाहिए। इस समय फसल में टिलर्स बनते हैं, यानि की फसल में फुटाव होता है। तीसरी सिंचाई 60- 65 दिन पर करनी होती है। इस समय फसल पर गेहू का विकास बिंदु भूमि की सतह से ऊपर जाता है और फसल का पूर्ण विकास होता है। चोथी सिंचाई 80 -85 दिन बाद करते हैं। इस समय पर फसल में बालियाँ बननी शुरू हो जाती हैं। इस को बूट चरण भी बोलते हैं, तब शुरू होता है जब फ्लैग लीफ के अंदर बालियाँ बनने लगती हैं । दुग्ध विकास चरण 100 - 105 दिन बाद सिंचाई करते हैं। ये फूल आने के पूरा होने के बाद शुरू होता है और प्रारंभिक गठन चरण होता है। इसे अर्ली, मीडियम और लेट मिल्क में बांटा गया है। विकासशील एंडोस्पर्म एक दूधिया तरल पदार्थ के रूप में शुरू होता है, जो बाद में दाने बन जाते हैं। इस समय पर फसल में पानी देने से दाने मोटे हो जाते हैं, जिससे फसल की पैदावार बढ़ जाती है।

फसल में खरपतवार नियंत्रण

सब से पहले हमें अपने खेत का निरीक्षण करके देखना है, कि हमारे खेत में किस प्रकार के खरपतवार हैं। फिर उस आधार पर हमें दवा का छिड़काव करना है। डोज के आधार पर ही हमें खेत में दवा का छिड़काव करना है। रेकमेंडेड डोज से ज्यादा अगर किसी भी खरपतवार नाशी का प्रयोग किया जाये तो वो फसल को भी जला सकते हैं।

संकरी पत्ती वाले खरपतवार

मंडूसी अथवा गुल्ली डंडा अथवा गेहूं का मामा खरपतवार और जंगली जई को मारने के लिए खरपतवार नासी स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें। मेटासुलफूरों 2 किलो डब्ल्यूपी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

बथुआ, जंगली पालक, मोथा के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। टू फोर डी ईस्टर साल्ट का प्रयोग भी फसल के 30 - 35 दिन बाद की हो जाने पर करना चाहिये नहीं तो फसल में ग्रेन मलफोर्मेशन की दिक्क्त आ सकती है।

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फसल में रोग प्रबंधन

पूर्ण रतुआ /भूरा रतुआ रोग का पहला लक्षण पत्तियों पर अनियमित रूप से सूक्ष्म, गोल, नारंगी छोटे छोटे गोल दभ्भे का दिखना है। पत्तियों में गंभीर जंग लगने से उपज में कमी आती है, रोग आमतौर पर जनवरी के दूसरे पखवाड़े या फरवरी के पहले सप्ताह में प्रकट होता है। रोग इष्टतम 15-2oC के साथ 2-35oC के तापमान रेंज में दिखायी दे सकता है।

धारीदार रतुआ या पीला रतुआ

रोग मुख्य रूप से पत्तियों पर दिखायी देता है, हालांकि पत्ती के आवरण, डंठल और बालियां भी प्रभावित हो सकती हैं। नींबू के पीले रंग के छोटे-छोटे दाने लंबी पंक्तियों में व्यवस्थित होते हैं, जो धारियों का पैटर्न देते हैं। जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के आधार पर दिसंबर या मध्य जनवरी के अंतिम सप्ताह में दिखायी देते हैं। बाद के चरणों में पत्तियों की निचली सतह पर फीकी काली धारियाँ बन जाती हैं। प्रभावित पौधों में दाने हल्के और सिकुड़े हुए हो जाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।

काला रतुआ

रतुआ संक्रमण का पहला लक्षण पत्तियों, पर्णच्छदों, कल्मों और फूलों की संरचनाओं का छिलना है। ये धब्बे जल्द ही आयताकार, लाल-भूरे रंग के रूप में विकसित हो जाते हैं। जब बड़ी संख्या में स्पोर्स फटते हैं और अपने बीजाणु छोड़ते हैं, तो पूरी पत्ती का ब्लेड और अन्य प्रभावित हिस्से दूर से भी भूरे रंग के दिखाई देंगे।

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तीनों रतुआ का उपाय :

  • देर से बुआई करने से बचें।
  • नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें।
  • प्लांटवैक्स @ 0.1% के साथ बीज ड्रेसिंग के बाद एक ही रसायन के साथ दो छिड़काव।
  • 15 दिनों के अंतराल पर जिनेब @ 0.25% या मैनकोजेब @ 0.25% या प्लांटावैक्स @ 0.1% के साथ दो या तीन बार छिड़काव करें।
  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही 200 मिली. प्रोपीकोनेजोल 25 ई.सी. या पायराक्लोट्ररोबिन प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
  • रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल में करें।

करनाल बंट

खेत में करनाल बंट के लक्षणों को पहचानना अक्सर मुश्किल होता है, क्योंकि किसी दिए गए सिर पर संक्रमित गुठली की घटना कम होती है। लक्षण कटाई के बाद बीज पर सबसे आसानी से पाए जाते हैं।

लूज स्मट

यह रोग आंतरिक रूप से संक्रमित बीज से पैदा होता है तथा संक्रमित बीज ऊपर से देखने में बिल्कुल स्वस्थ बीजों की तरह ही दिखाई देता है। इस रोग से प्रति वर्ष उत्तर भारत में गेहूं की उपज में 1-2 प्रतिशत की हानि होती है। बुवाई से पहले बीज को वीटावैक्स 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। संक्रमित कानों को मिट्टी के अंदर दबा दें |
कद्दू उत्पादन की नई विधि हो रही है किसानों के बीच लोकप्रिय, कम समय में तैयार होती है फसल

कद्दू उत्पादन की नई विधि हो रही है किसानों के बीच लोकप्रिय, कम समय में तैयार होती है फसल

सीताफल और काशीफल जैसे लोकप्रिय नाम से प्रचलित कद्दू या कुम्हड़ा (Kaddu, kumharaa or pumpkin) एक ऐसी सब्जी है, जिसे उत्पादन के बाद कोल्ड स्टोरेज में रखने की इतनी आवश्यकता नहीं होती है और लंबे समय तक आसानी से बेचा जा सकता है। सभी पोषक तत्वों की पूर्ति करने वाली यह फसल कई प्रकार की मिठाइयां बनाने के काम में तो आती ही है, साथ ही इसे खाने से उसके बीज में मौजूद विटामिन-सी, आयरन, फास्फोरस, पोटेशियम तथा जिंक जैसे सूक्ष्म तत्वों की कमी को भी दूर किया जा सकता है।

कद्दू की खेती के उपयुक्त जलवायु

वैसे तो कद्दू की खेती के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है, परंतु फिर भी एक जायद फसल होने के नाते ठंडी और गर्म मिश्रण की जगह पर भी इसे उगाया जा सकता है। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि कद्दू की फसल को ज्यादा ठंड पड़ने पर पाले से बचाना होगा। कद्दू की अच्छी पैदावार के लिए आपको 18 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच में तापमान को नियंत्रित करना होगा।


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कद्दू की खेती के लिए कैसी मिट्टी चाहिये ?

कद्दू की खेती के लिए मुख्यतया भारत के किसान दोमट या बलुई दोमट मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं, हालांकि इसकी खेती बलुई मिट्टी में भी की जाती है। कद्दू की खेती के लिए किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि आपके खेत में पानी निकासी की व्यवस्था अच्छी तरीके से होनी चाहिए।

कद्दू की खेती के लिए खेत की तैयारी व खाद उपचार

किसान भाई यह तो जानते ही होंगे कि कद्दू एक उथली जड़ वाली फसल होती है, इसलिए इसे ज्यादा जुताई की आवश्यकता नहीं होती है। आप एक बार ही कल्टीवेटर से जुताई कर अपने खेत को समतल बनाकर इसके बीजों की बुवाई कर सकते है। खेत के तैयार होने के बाद छोटी-छोटी क्यारियां और नालियां बना कर मेड़ बनानी चाहिए। कद्दू की फसल के दौरान इस्तेमाल में होने वाले ऑर्गेनिक गोबर की खाद को डाला जा सकता है। इसके अलावा आप अरंडी की फसल से तैयार होने वाले चारे को पीसकर भी अंतिम जुताई से पहले खेत में अच्छी तरह बिखेर सकते है।


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यदि बात करें रासायनिक खाद और उर्वरकों की, तो प्रति हेक्टेयर जमीन के अनुसार 70 से 80 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल किया जा सकता है। इन उर्वरकों का इस्तेमाल आपको अंतिम जुताई से पहले ही अपने खेत में करना होगा और नाइट्रोजन की कुछ मात्रा कद्दू के फूल के 20 से 25 दिन बड़े होने के बाद इस्तेमाल करनी चाहिए। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि सुबह के समय कद्दू की फसल में कभी भी रसायनिक या जैविक खाद का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

कद्दू की बुवाई में बीज अनुपात व उपचार

कद्दू की फसल को बोने का समय इस बात पर निर्भर करता है कि इसे कहां पर बोया जा रहा है। भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसे साल में दो बार उगाया जाता है और पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रैल महीने में इसकी बुवाई की जाती है। किसान भाइयों को ध्यान रखना होगा कि फसल की दो कतारों के बीच में लगभग 200 से 250 सेंटीमीटर की दूरी होनी अनिवार्य है और दो छोटी पौध के बीच में 45 से 50 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए। बीज को जमीन से 5 से 6 सेंटीमीटर गहराई में बोया जाए तो इसकी कोंपल सही समय पर बाहर निकल आती है। कद्दू की बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर की दर से 1 किलोग्राम से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते है। बीज बोने से पहले आप अपने बीज का उपचार भी कर सकते है, जिसके तहत बीज को 1 लीटर पानी में मिलाकर उसमें 2 ग्राम केप्टोन का मिश्रण तैयार किया जा सकता है और फिर इसे अच्छी तरह घोला जाता है, कुछ समय बाद बाहर निकाल कर दो से तीन घंटे छाया में सुखाकर बुवाई के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।


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कद्दू की उन्नत किस्में

पूसा के वैज्ञानिकों के द्वारा कद्दू की फसल की कई उन्नत किस्में भारतीय किसानों के लिए तैयार की गई है, इनमें पूसा-अलंकार, पूसा-विश्वास तथा पूसा-विकास खेतों में इस्तेमाल की जाने वाली उन्नत किस्म है।

कद्दू की फसल में कीट नियंत्रण

किसान भाइयों कद्दू की फसल में लगने वाले रोग जैसे कि लीफ-माइनर और फल-मक्खी से बचाव के लिए घर पर ही कुछ रासायनिक मिश्रण तैयार कर सकते है।इसके लिए आप वर्मी-मैक्स यात्रा की 0.005 प्रतिशत मात्रा को अपने खेत में तीन से चार सप्ताह के अंतराल पर छिड़काव कर सकते है। फल मक्खी कद्दू की फसल में लगने वाले फल की मुलायम अवस्था में ही उसके अंदर अंडे दे देती है और उसे अंदर से खाना शुरु कर देती है, इसके निवारण के लिए फूल के बड़े होने के बाद रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल कम करना चाहिए और नीम की निंबोली का पानी के साथ 5% गोल मिलाकर इस्तेमाल करना चाहिए।

कद्दू के फसल की तुड़ाई

कद्दू की फसल की बुवाई के लगभग 70 से 80 दिनों में यह तैयार हो जाता है और आपके आसपास की मंडी की मांग के अनुसार इसे समय-समय कर तोड़ते रहना चाहिए। भारत के लोगों के द्वारा दोनों समय की सब्जी के रूप में इसका इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसकी डिमांड पूरे साल चलती रहती है। यदि आप उपयुक्त बतायी गयी विधि का इस्तेमाल पूरी सावधानी से करते हैं तो एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 300 से 400 क्विंटल कद्दू की पैदावार कर सकते है। इसके भंडारण के लिए किसी विशेष शीत-ग्रह की जरूरत नहीं होगी और अपने घर में ही एक कमरे में 20 से 25 दिन तक स्टोर किया जा सकता है, पर ध्यान रहे कि तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस से कम ही होना चाहिए। आशा करते हैं कि हमारे किसान भाइयों को वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार की गई कद्दू उत्पादन की यह नई विधि पसंद आई होगी और भविष्य में इसी विधि का इस्तेमाल करके अच्छा उत्पादन कर पाएंगे।
फसल उत्पादकता को बढ़ाने के लिए मई माह में कृषि से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य

फसल उत्पादकता को बढ़ाने के लिए मई माह में कृषि से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य

कृषि में अच्छी उत्पादकता के लिए कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना होता है। सबसे पहले जुताई किसी भी फसल की खेती के लिए सर्वप्रथम कार्य है। 

फसल की पैदावार खेत की जुताई पर आश्रित होती है। क्योंकि, अब रबी फसलों की कटाई का कार्य तकरीबन पूर्ण हो चुका है। 

अब ऐसे में किसान खरीफ सीजन की खेती की तैयारियों में जुट गए हैं। रबी फसल की कटाई के पश्चात खेत बिल्कुल खाली हो जाते हैं।

परंतु, खरीफ सीजन की खेती शुरू करने से पहले किसानों को ग्रीष्मकालीन जुताई अवश्य कर लेनी चाहिए। जमीन की उर्वरता को बढ़ाने के लिए ये काफी जरूरी है। 

इससे फसल उपज में काफी लाभ मिलता है। जानिए जुताई क्यों आवश्यक है। रबी फसल की कटाई के पश्चात खेत खाली हो जाते हैं। 

वहीं, गर्मी में खाली खेत पानी की कमी की वजह से सख्त हो जाते हैं, जिससे बचने के लिए खेत की ग्रीष्मकालीन जुताई अत्यंत आवश्यक है। कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो खेत में केमिकल फर्टिलाइजेशन से भूमि के 6 इंच तक मृदा सख्त हो जाती है।

खरीफ के सीजन में कल्टीवेटर से जुताई करने पर खेत में 3 इंच तक ही जुताई हो पाती है। इससे खेत की कड़ी मिट्‌टी टूटती नहीं और जड़ों का विकास नहीं हो पाता है। इसके लिए कृषकों को गर्मी के मौसम में एक बार ग्रीष्मकालीन जुताई करनी अत्यंत आवश्यक है।

किस महीने में ग्रीष्मकालीन जुताई करनी चाहिए

ग्रीष्मकालीन जुताई करने का सबसे अनुकूल वक्त मई माह होता है। इस मौसम में तापमान काफी ज्यादा होता है। इस दौरान जमीन के अंदर कीड़े मकोड़े घर बना लेते हैं। 

साथ ही, जुताई करने से मृदा पलटती है, जिससे कीड़ों के साथ उनके अंडे और घर चौपट हो जाते हैं। इससे वो आगे खरीफ की फसल को हानि नहीं पहुंचा पाते। साथ-साथ जुताई के पश्चात मृदा के अंदर हवा का संचार होता है।

ग्रीष्मकालीन जुताई कितनी गहराई तक करनी चाहिए ?

ग्रीष्मकालीन जुताई जमीन में 6 इंच तक करनी आवश्यक है। बतादें, कि किसी भी फसल के जड़ का विकास 6 से 9 इंच तक होगा, जिससे फसल अच्छी तरह तैयार होती है। 

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इसके लिए किसान ट्रैक्टर के साथ दो हल वाले एमपी फ्लाई, डिस फ्लाई, क्यूचिजन फ्लाई मशीन के हल का उपयोग कर सकते हैं। इससे खेत में 6 इंच तक गहरी जुताई हो जाती है। जुताई करने पर बारिश होने के बाद खेत में पानी ठहरता है, जिससे मृदा में नमी बनी रहती है।

ग्रीष्मकालीन जुताई के क्या-क्या फायदे हैं ?

ग्रीष्मकालीन जुताई से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की वृद्धि होती है। मिट्टी के पलट जाने से जलवायु का असर सुचारू रूप से मृदा में होने वाली प्रतिक्रियाओं पर पड़ता है। 

वहीं, वायु और सूर्य के प्रकाश की मदद से मिट्टी में विद्यमान खनिज ज्यादा सुगमता से पौधे के भोजन में परिणित हो जाते हैं। 

ग्रीष्मकालीन जुताई कीट एवं रोग नियंत्रण में सहायक है। हानिकारक कीड़े तथा रोगों के रोगकारक भूमि की सतह पर आ जाते हैं और तेज धूप से खत्म हो जाते हैं।

ग्रीष्मकालीन जुताई मृदा में जीवाणु की सक्रियता को काफी बढ़ाती है। यह दलहनी फसलों के लिए भी काफी ज्यादा उपयोगी है। ग्रीष्मकालीन जुताई खरपतवार नियंत्रण में भी मददगार है। 

कांस, मोथा आदि के उखड़े हुए हिस्सों को खेत से बाहर फेंक देते हैं। अन्य खरपतवार उखड़ कर सूख जाते हैं। खरपतवारों के बीज गर्मी व धूप से नष्ट हो जाते हैं।

बारानी खेती वर्षा पर निर्भर करती है अत: बारानी परिस्थितियों में वर्षा के पानी का अधिकतम संचयन करने लिए ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना नितान्त आवश्यक है। 

अनुसंधानों से भी यह साफ हो चुका है, कि ग्रीष्मकालीन जुताई करने से 31.3 प्रतिशत बरसात का पानी खेत में समा जाता है। ग्रीष्मकालीन जुताई करने से बरसात के पानी द्वारा खेत की मिट्टी कटाव में भारी कमी होती है।

अर्थात् अनुसंधान के परिणामों में यह पाया गया है कि गर्मी की जुताई करने से भूमि के कटाव में 66.5 फीसद तक की कमी आती है। 

ग्रीष्मकालीन जुताई से गोबर की खाद व अन्य कार्बनिक पदार्थ जमीन में बेहतर तरीके से मिल जाते हैं, जिससे पोषक तत्व जल्द ही फसलों को उपलब्ध हो जाते हैं।

कल्टीवेटर(Cultivator) से खेती के लाभ और खास बातें

कल्टीवेटर(Cultivator) से खेती के लाभ और खास बातें

कल्टीवेटर(Cultivator) को वैसे तो साधारण कृषि यंत्र बताया जाता है लेकिन यदि हम पारंपरिक खेती के तौर-तरीकों को याद करें तो किसान भाइयों को इस बात का अहसास हो जायेगा कि यह कल्टीवेटर खेती-किसानी के लिए बहुत ही लाभकारी यंत्र है। 

किसान भाई जो काम हफ्तों में अपना पसीना बहाकर कर पाते थे वो काम कल्टीवेटर चंद घंटों में ही कर देता है। कल्टीवेटर से किसानों की जहां अनेक परेशानियां कम हुई हैं, वहीं खेती के उत्पादन में लाभ हुआ है और खेतों को बुवाई के लिए तैयार करना आसान हो गया है।

कल्टीवेटर(Cultivator) क्या है

खेती के आधुनिक तरीके आने के बाद खेती करने का स्वरूप ही बदल गया है और खेती करना अब बहुत आसान हो गया है। जब से बैलों की जगह ट्रैक्टर आ गये हैं तब से प्राचीन कृषि यंत्रों की जगह नये कृषि यंत्रों ने जगह ले ली है, इसमें कल्टीवेटर सबसे प्रमुख है। 

जो खेतों की जुताई बैलों व हल से की जाती थी, वो काम इस कल्टीवेटर से किये जाते हैं । साथ ही अनेक अन्य ऐसे काम भी किये जाते हैं जो पैदावार को बढ़ाने में सहायक हैं। 

कल्टीवेटर बैल को जोत कर भी चलाये जा सकते हैं और ट्रैक्टर के पीछे लगाकर खेत की जुताई की जा सकती है। यह कल्टीवेटर 6HP से लेकर 15HP तक आता है।

पशू चालित कल्टीवेटर(Cultivator):

पशु चालित कल्टीवेटर भी होता है। इस कल्टीवेटर को पशु बैल के पीछे जोत कर चलाया जा सकता है। किन्तु वर्तमान समय में ट्रैक्टर की लोकप्रियता के कारण पशुओं वाले कल्टीवेटर का चलन नहीं देखा जाता है।

ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर(Cultivator):

टैक्टर के पीछे हाइड्रोलिक के माध्यम से कल्टीवेटर चलाया जाता है। ये कल्टीवेटर जमीन की जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किये जाते हैं। कंकरीली जमीन के लिए अलग कल्टीवेटर होता है और सामान्य जमीन के लिए अलग कल्टीवेटर होता है। इसके साथ गहरी जुताई करने के लिए अलग कल्टीवेटर होता है और उथली जुताई के लिए अलग कल्टीवेटर होता है। 

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इनमें से प्रमुख कल्टीवेटर(Cultivator) इस प्रकार हैं:-

  1. स्प्रिंग युक्त कल्टीवेटर(Cultivator): पथरीली मिट्टी व या फसलों की ठूंठ वाले खेतों उपयोग किया जाता है। ट्रैक्टर से चलने वाले इस कल्टीवेटर में कई स्प्रिंग लगी होती है। स्प्रिंग की वजह से जुताई करते समय फार पर पड़ने वाले दबाव को कल्टीवेटर सहन कर लेता है और टाइन नहीं टूटने से बच जाता है। इस कारण यह कल्टीवेटर बिना किसी नुकसान के आसानी से मनचाही जुताई कर देता है।
  2. स्प्रिंग रहित कल्टीवेटर (रिजिड लाइन कल्टीवेटर): बिना स्प्रिंग वाले कल्टीवेटर का इस्तेमाल कंकरीली या पथरीली भूमि में नहीं किया जाता है। इसका प्रयोग साधारण भूमि में किया जाता है। इसमें टाइन मजबूती के साथ फ्रेंम से इस प्रकार से लगाये जाते हैं कि जुताई करते समय दबाव पड़ने पर ये टाइन अपने स्थान से हटे नहीं। इस कल्टीवेटर की एक और खास बात यह है कि टाइन की दूरी को अपने  हिसाब से दूर या पास किया जा सकता है। यह कल्टीवेटर खेत में खरपतवार को नियंत्रित करने में भी सहायक होता है।
  3. डक फुट कल्टीवेटर(Cultivator): इन दोनों कल्टीवेटरों की अपेक्षा डक फुट कल्टीवेटर हल्का होता है। इसका मुख्य रूप से इस्तेमाल उथली जुताई करने और खरपतवारों को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इसकी बनावट बिना स्प्रिंग वाले कल्टीवेटर की तरह होती है। इसमें फारों की संख्या जरूरत और आवश्यकता के अनुसार कम या ज्यादा की जा सकती है। इसमें टाइन का आकार बत्तख के पैर जैसा होता है इसलिये इस कल्टीवेटर को डक फूट कल्टीवेटर कहा जाता है।

कल्टीवेटर(Cultivator) से जुताई के फायदे

कल्टीवेटर से अनेक तरह की जुताई की जा सकती है। सबसे पहले हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि जुताई कितने प्रकार की होती है और कल्टीवेटर(Cultivator) किस जुताई में कितना मददगार साबित हो सकता है। 

खेत को तैयार करने के लिए हमें वि•िान्न प्रकार की जुताई करनी होती है । इसमें ग्रीष्म ऋतु की जुताई, गहरी जुताई, छिछली जुताई, अधिक समय तक जुताई, हराई या हलाई की जुताई की जाती है।

  1. कठोर जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए गहरी जुताई की जाती है। इस काम में कल्टीवेटर(Cultivator) बहुत काम आता है। इस तरह से खेत की तैयारी गहरी जड़ों वाली फसलों के लिए की जाती है।
  2. इसी तरह जिन फसलों की जड़े अधिक गहराई में नहीं जातीं हैं उनके लिए छिछली जुताई की जाती है। उसमें भी कल्टीवेटर(Cultivator) काम में आता है।
  3. ग्रीष्म ऋतु में अधिक जुताई इसलिये की जाती है ताकि उस मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीट और उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं। इसके अलावा मृदा में अनेक रोग भी दूर हो जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में अधिक समयतक जुताई करने में कल्टीवेटर बहुत लाभकारी साबित होता है।
  4. एक फसल लिये जाने के बाद नई फसल की तैयारी के लिए कल्टीवेटर(Cultivator) बहुत काम आता है। पहले तो वह खेत की मिट्टी को ढीला करता है और फसल के अवशेष को खेत से बाहर करता है। उसे बुवाई के लिए तैयार करता है।
  5. बुवाई से पहले खेत में यदि नर्सरी लगाने की क्यारियां बनानी होतीं हैं तो कल्टीवेटर(Cultivator) उसमें कभी काम आता है।
  6. हैरों, पॉवर टिलर, रोटावेटर की अपेक्षा कल्टीवेटर सस्ता व हल्का होता है, जिससे कम एचपी वाले ट्रैक्टरों में लगाकर जुताई की जा सकती है।
  7. पारंपरिक तरीके से खेती करने वाले किसानों को कल्टीवेटर(Cultivator) से जुताई करने वा करवाने से पैसा और समय तो बचता ही है । साथ मजदूरों की समस्या से भी छुटकारा मिल जाता है।
  8. छिटकवां विधि से बोई गई बीजों की मिट्टी में एक समान रूप से मिलाने तथा ढकने के लिए इस यंत्र का प्रयोग किया जाता है।
  9. पंक्तियों में बोई फसलों में निराई-गुड़ाई का कार्य भी कल्टीवेटर(Cultivator) से किया जाता है।
  10. इसकी सहायता से फसल की जड़ो पर मिट्टी चढ़ाने का काय किया जा सकता ह।
  11. बुआई से पहले खेत में खाद को मिट्टी में मिलाने में भी कल्टीवेटर(Cultivator) काम करता है।

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कल्टीवेटर

कल्टीवेटर(Cultivator) से मिलने वाले खेती के अन्य लाभ

1.बुआई से पहले कल्टीवेटर के माध्यम से खरपतवार हटाने और गुड़ाई का काम किया जा सकता है। जो काम पहले मजदूर काफी समय में करते थे वो काम कल्टीवेटर अकेला ही चंद घंटों में कर देता है। इससे कृषि लागत में कमी आती है और किसान भाइयों को लाभ मिलता है। 

 2.फसल के बीच में निराई-गुड़ाई कल्टीवेटर(Cultivator) से किये जाने के लिए फसलों को कतार में बोया जाता है। इससे किसान भाइयों को यह लाभ होता है कि कतार में बीज बोने से बीज की बर्बादी नहीं होती है और फसल भी अधिक होती है।

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 3.कल्टीवेटर का प्रयोग मिट्टी की जुताई के लिये किया जाता है। इसके प्रयोग से खेत के खरपतवार व घास जड़ सहित उखड़ कर नष्ट हो जाती है या मिट्टी से अलग होकर जमीन के ऊपर आ जाती है जो बाद में सूर्य की गर्मी से सूख कर नष्ट हो जाती है।

कौन सी फसल के लिए कौन सा कल्टीवेटर(Cultivator) है उपयोगी

  1. स्प्रिंग युक्त कल्टीवेटर मुख्यत: दलहनी व जड़वाली सब्जियों की फसलों के लिए उपयोगी होता है। क्योंकि इससे गहरी जुताई की जा सकती है। स्प्रिंग युक्त कल्टीवेटर से गहरी जुताई से मूंग, मोठ, बरसीम, उड़द, सोयाबीन, मूंगफली, आलू, मूली, गाजर, शकरकद, चना आदि मे अधिक लाभ मिलता है।
  2. डक फुट कल्टीवेटर से उथली जुताई से गेहूं, जौ, ज्वार, जई, सरसों, आदि फसलों में अधिक लाभ मिलता है।

दमदार ट्रैक्टर(Tractor) का दौर

दमदार ट्रैक्टर(Tractor) का दौर

देश में बढ़ते हुए मशीनीकरण के दौर में किसान भाइयों को खेती करना बहुत आसान हो चुका है, जिसमे ट्रैक्टर का अनवरत चला आ रहा अकथनीय योगदान रहा है। हम जब हमारे बचपन को याद करते हैं, तो अस्सी के दशक में बहुत कम ही किसानों के पास ट्रैक्टर हुआ करते थे और उस दौर में भी ट्रैक्टर के उपयोग की सीमा भी ज्यादा नहीं रहा करती थी।  उस समय किसान भाई खेती के लिए ज्यादातर पशुओं पर निर्भर रहते थे, जिससे खेती का कार्य अत्यंत कठिन हो जाता था।  एक तरफ जहां किसान पशु और प्रकृति पर निर्भर थे, वहीँ दूसरी तरफ समय और परिश्रम भी ज्यादा लगता था। पर बदलते दौर में धीरे धीरे इसमें सुधार आने लगा, जिसके परिणामस्वरूप आज के किसानों की जटिलता कम हो गयी और उनके समय की बचत एवं आर्थिक सुधार का दौर आ गया। जब हम किसानों की कठिनाईयों की बात करते हैं तो ट्रैक्टर की याद जरूर आती है। सर्व प्रथम ट्रैक्टर के विषय में उन्नीसवीं शताब्दी में जाना गया। मगर भारत में इसकी शुरुआत हरित क्रांति से ही हो गयी थी।  स्वतंत्रता के बाद जहाँ भारत में एक तरफ इसका इस्तेमाल तेज़ी से होने लगा और इसकी मांग बढ़ गयी वहीँ दूसरी तरफ १९५० से १९६० के बीच ही अपने देश में ट्रैक्टर निर्माण का कार्य भी शुरू हो चुका था। आधुनिक कृषि उपकरण में ट्रैक्टर का स्थान कोई अन्य नहीं ले सकता है। इसकी सहायता से कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से हो सकता है। इसका उपयोग कृषि से सम्बंधित अन्य उपकरणों को चलाने व खींचने में भी किया जाता है। कृषि क्षेत्र में ट्रैक्टर का इस्तेमाल जोतने, बीज बोने, फसल लगाने और काटने जैसे कार्यों में होता आ रहा था, परन्तु अब लकड़ी चीरने, सामान ढोने, सब्जी बोने एवं निकालने आदि कार्यों में भी होने लगा है। अगर ट्रैक्टर के बनावट की बात करें तो इसमें इंजन और उसके साधन चेसिस और पावर ट्रान्समीटिंग सिस्टम मुख्य होते हैं।  सामान्यतः ट्रैक्टर के दो मुख्य प्रकार होते हैं।  जिसमे पहला प्रकार व्हिल्ड ट्रैक्टर का उपयोग किसानों द्वारा कृषि कार्यों में होता है और दूसरा प्रकार ट्रैक ट्रैक्टर का उपयोग औद्योगिक क्षेत्रों में एवं बाँध बनाने जैसे कार्यों में किया जाता है।

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भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसके कारण कृषि से होने वाले आर्थिक फायदे और नुक्सान का हमारे देश में गहरा प्रभाव पड़ता है। आज के दौर में ट्रैक्टर कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण भागीदार रहा है। इसके बगैर आज की कृषि भी संभव नहीं है।  किसानों की बढ़ती हुई मांग की आपूर्ति के लिए आज दुनिया भर में ३० प्रतिशत ट्रैक्टर का निर्माण सिर्फ भारत में ही होता है। आज़ादी से पहले रूस से भारत ट्रैक्टर का आयात करता था। परिणामस्वरूप यह बहुत महंगा हो जाता था, जिस वजह से सभी किसानों को यह आसानी से सुलभ नहीं था।  सिर्फ धनाढ्य लोगों के घरों में ही यह दिखता था। हरित क्रांति के बाद इस कहानी में एक नया मोड़ आया जिसमें भारत में निर्माण कार्य भी प्रारम्भ हो गया।  परन्तु इसमें बड़े बदलाव अस्सी के दशक में आया जिससे पैदावार में बढ़ोतरी हुई। धीरे धीरे सत्र  २००० तक आते आते भारत ने ट्रैक्टर उत्पादन में अमेरिका को भी पीछे छोड़ते हुए नए मुकाम को हासिल कर लिया। इतने सारे ट्रैक्टर निर्माताओं में, फार्मट्रैक 60 पिछले दशकों से भारतीय किसानों के सबसे प्रिय ट्रैक्टरों में से एक रहा है। फार्मट्रैक 60 विश्व स्तरीय गुणवत्ता और नवीनतम सुविधाओं के साथ स्पष्ट रूप से बड़े और शक्तिशाली ट्रैक्टर के मूल मूल्यों को परिभाषित करता है। फार्मट्रैक 60 पॉवरमैक्स का नवीनतम संस्करण, अब 55 एचपी और 16.9x28 टायर के साथ आता है। यह निश्चित रूप से 3514 सीसी इंजन और 254 एनएम टॉर्क के साथ तीन सिलेंडर इंजन श्रेणी में सबसे शक्तिशाली ट्रैक्टर है। और देश के सबसे प्यारे ट्रैक्टरों में से एक है। 20-स्पीड गियरबॉक्स प्रत्येक एप्लिकेशन पर 3 या अधिक गति प्रदान करता है जिससे 50% अधिक उत्पादकता मिलती है। इसमें 8+2 गियरबॉक्स का भी विकल्प है। फार्मट्रैक अपनी लिफ्ट की श्रेष्ठता के लिए जाना जाता है जिसे अब सबसे शक्तिशाली 2500 किलोग्राम भारी शुल्क लिफ्ट के साथ बढ़ाया गया है। ये सारे विकल्प इसे कल्टीवेटर, रोटावेटर, हल, प्लांटर जैसे अन्य उपकरणों के लिए बहुत उपयुक्त बनाते हैं। फार्मट्रैक 60 पॉवरमैक्स ट्रैक्टर भारतीय खेतों पर राज करता है और इसे कृषि के राजा के रूप में जाना जाता है। अपनी शक्ति के साथ, सुपर सीडर और रीपर के लिए सबसे उपयुक्त गति, और उन्नत सुविधाओं के साथ यह सबसे बड़े उन्नत उपकरणों को अत्यंत आसानी से चला सकता है। बड़े टायर और ईपीआई में कमी इसे ढुलाई और वाणिज्यिक अनुप्रयोगों में भी सर्वश्रेष्ठ बनाती है। यह ट्रैक्टर अपनी कम ईंधन की खपत और इंजन विश्वसनीयता के लिए जाना जाता है। साथ ही, कम सेवा लागत और सेवा केंद्रों की एक विस्तृत श्रृंखला इस ब्रांड को किसानों के बीच सबसे पसंदीदा ब्रांड बनाती है। फार्मट्रैक 60 पॉवरमैक्स ट्रैक्टर जो की भारत में निर्मित ब्रांड है, कम ईंधन या कहें जबरदस्त माइलेज वाला इंजन, कम रखरखाव लागत वाली विश्वसनीय इंजन और अन्य क्षमताओं से लैस होने की वजह से बिलकुल पैसा वसूल वाली खरीद है।
तेज मशीनी चाल के आगे आज भी कायम बैलों की जोड़ी संग किसान की कछुआ कदमताल

तेज मशीनी चाल के आगे आज भी कायम बैलों की जोड़ी संग किसान की कछुआ कदमताल

रोबोटिक्स मिश्रित जायंट फार्म इक्विपमेंट मशीनरी (Giant Farm Equipment Machinery), यानी विशाल कृषि उपकरण मशीनरी की तेज चाल दौड़ में परंपरागत किसानी की विरासत, गाय-बैल-किसान की पहचान धुंधली पड़ती जा रही है। हालांकि कुछ भूमिपुत्र ऐसे भी हैं, जो बैलों की जोड़ियों के गले में बंधी घंटी की खनक के साथ, खेतों में कछुआ गति से कदम ताल करते यदा-कदा नजर आ ही जाते हैं। जी हां, भारत से इंडिया में तब्दील होते आधुनिक देश में पारंपरिक किसानी के तरीकों में तेजी से बदलाव हुआ है। काम में मददगार कृषि प्रौद्योगिकी उपकरणों की उपलब्धता के कारण मौसम आधारित खेती, अवसर आधारित हो गई है। लेकिन देश के कई हलधर ऐसे भी हैं जिन्होंने पारंपरिक खेती की असल पहचान, हलधर किसान की छवि को बरकरार रखा है।

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भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण हालांकि कहना गलत नहीं होगा कि, दो बैलों और हल के साथ खेतों की जुताई करते किसान की परंपरा अब शायद अपने अंतिम दौर में है। ट्रैक्टर, मशीनों से किसानी की नई पीढ़ी अब बैल-हल से खेती में रुचि नहीं लेती। मेरे देश की धरती सोना-हीरा-मोती उगले गीत सुनकर यदि कोई अक्स उभरता है, तो वह है हरे-भरे खेत में बैलों की जोड़ी, हल के साथ खेत जोतता किसान। यह वास्तविकता अब सपना बनती नजर आ रही है। मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों के ठेठ ग्रामीण इलाकों में ही, आर्थिक रूप से कमजोर किसानों को ही इस पहचान के साथ खेत में काम करते देखा जा सकता है। इन किसानों को देखकर पता लगाया जा सकता है, कि किस तरह हमारे पूर्वज अन्नदाता किसानों ने हल और बैलों की मदद से, अथक परिश्रम कर देश का पेट, मिट्टी में से अनमोल अनाज उगा कर भरा।

खेत जोतने से लेकर कटाई, सप्लाई सब मशीनी

आज के मशीनी दौर में किसानी के उपयोग में आने वाले मददगार उपकरणों की सुलभता ने भी पारंपरिक किसानी को पीछे किया है। बैलों की शक्ति के मुकाबले कई अश्वों की ताकत से लैस, कई हॉर्सपॉवर का शक्तिशाली ट्रैक्टर चंद घंटे में कई एकड़ जमीन जोत सकता है। दैत्याकार मशीनें अब कटाई-मड़ाई भी पल भर में करने में मददगार हैं। प्रतिकूल मौसम में भी मददगार मशीनी मदद से समय और श्रम की भी बचत होती है। कल्टीवेटर, रोटावेटर, हैरो जैसे तकनीक आधारित हल मिट्टी की जुताई बेहतर तरीके से कर देते हैं। [embed]https://youtu.be/AjPz41c7pls[/embed]

लेकिन हां….बड़े धोखे हैं इस राह में...

सनद रहे तकनीक आधारित काम में प्राकृतिक नुकसान की भी संभावना बढ़ जाती है। पर्यावरण सुरक्षा की दशा में चौकन्ने होते देशों को सोचना होगा कि, इन मशीनों से खेत पर काम करने से मिट्टी की गुणवत्ता में वह सुधार संभव नहीं जो पारंपरिक तरीके की किसानी में निहित है।

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धान की फसल काटने के उपकरण, छोटे औजार से लेकर बड़ी मशीन तक की जानकारी मशीनों आधारित अधिक गहरी खुदाई से जमीन और खेत की गुणवत्ता प्रभावित होती है, जीव-जंतुओं को नुकसान होता है। जबकि खेत में बैलों, जानवरों के उपयोग से प्राकृतिक संतुलन बना रहता है। कहना गलत नहीं होगा कि, तकनीक आधारित ट्रेक्टर के धुएं ने हल-बैल और किसान की परंपरा का गुड़-गोबर कर अतीत की स्मृति को धुंधला दिया है।

छोटी जोत के किसान

छोटी जोत के गैर साधन संपन्न किसानों को हल और बैल आधारित किसानी करते देखा जा सकता है। इसके भी कई गूढ़ कारण हैं।

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पुरानी टेक्नीक

हल-बैल वाली युक्ति में लकड़ी का बना एक जुआ होता है। इसमें बने दो बड़े खानों को बैलों की डील पर पहनाया जाता है। इससे दोनों बैल एक समानांतर दूरी पर खड़े हो जाते हैं। इसके बाद लकड़ी अथवा लोहे की छड़ से लोहे का एक हल जुड़ा होता है। इस हल का जमीन को फाड़ कर उसे पलटने  वाला नुकीला भाग नीचे की ओर होता है। इसे संभाल कर दिशा देने के लिए ऊपर की तरह एक मुठिया बनी होती है, जिसे किसान हाथों से नियंत्रित कर सकता है। बाई ओर चलने वाले बैल से बंधी रस्सी जिसे नाथ बोलते हैं को किसान अपने एक हाथ में पकड़ कर रखता है। इस नाथ से बैलों की दिशा परिवर्तन में मदद मिलती है। खेतों में हल के माध्यम से होने वाली जुताई को  हराई बोलते हैं। पारंपरिक खेती के अनुभवी किसानों के अनुसार छोटी जोत में ट्रैक्टर के माध्यम से जुताई असंभव हो जाती है। जबकि हल-बैल के माध्यम से खेत की अधिक-से अधिक भूमि उपजाऊ बनाई जा सकती है। हालांकि मेकर्स ने छोटी जोत में मददगार मिनी ट्रेक्टरों का दावा भी कर दिया है।
रोटावेटर की खरीदी पर किसानों को मिलेगी सब्सिडी

रोटावेटर की खरीदी पर किसानों को मिलेगी सब्सिडी

सरकार किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए कृषि यंत्र सुधार करने के लिए अनुदान योजना चलाई है। सरकार द्वारा किसानों को सस्ती दर पर कृषि यंत्र प्रदान की जा रही है। विभिन्न राज्यों में इस योजना को अलग-अलग नामों से चलाया जाता है। 

कृषि यंत्र अनुदान योजना राजस्थान (Krishi Yantra Anudan Yojana Rajasthan), कृषि यंत्रीकरण योजना उत्तर प्रदेश (Agricultural Mechanization Scheme) और ई-कृषि यंत्र अनुदान योजना मध्यप्रदेश (E-Krishi Yantra Anudan Yojana) चल रही हैं। किसानों को इन योजनाओं के तहत राज्य अपने स्तर पर कृषि उपकरणों की खरीद पर सब्सिडी का लाभ देते हैं।

रोटावेटर का क्या कार्य होता है?

रोटावेटर का इस्तेमाल खेत को जोतने के लिए किया जाता है। रोटावेटर से जुताई करते ही जमीन भुरभुरी हो जाती है। इसकी सहायता से फसलों को मिट्टी में मिलाना बहुत आसान होता है। रोटावेटर के प्रयोग से खेत की मिट्टी उपजाऊ बनती है।

रोटावेटर पर किसानों को कितनी सब्सिडी मिलेगी

किसानों को राज्य सरकार से रोटावेटर खरीदने पर 40 से 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी दी जाती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, लघु और सीमांत किसानों और महिलाओं को कृषि यंत्र अनुदान योजना के तहत 20 बीएचपी से अधिक क्षमता वाले रोटावेटर की कीमत का 50 प्रतिशत, या 42,000 से 50,400 रुपए तक की सब्सिडी दी जाएगी। 

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साथ ही, अन्य श्रेणी के किसानों को रोटावेटर की लागत पर 40 प्रतिशत सब्सिडी दी जाएगी, जो 34,000 से 40,300 रुपये तक हो सकती है।

रोटावेटर कितनी कीमत तक मिल जाता है? 

कई कंपनिया रोटावेटर का निर्माण करती है साथ ही इनकी कीमत भी किसानों के बजट के आधार पर निर्धारित करती है। रोटावेटर की कीमत लगभग 50,000 रुपए से शुरू होकर 2 लाख रुपए तक है। रोटावेटर की कीमत इसके फीचर्स और स्पेसिफिकेशन के आधार पर निर्धारित की जाती है।

रोटावेटर की खरीदी के लिए पात्रता और शर्तें   

  • आवेदक के पास स्वयं के नाम से कृषि भूमि होनी चाहिए या अविभाजित परिवार में राजस्व रिकार्ड में नाम होना चाहिए।
  • ट्रैक्टर चलित कृषि यंत्र के लिए सब्सिडी का लाभ प्राप्त करने के लिए ट्रैक्टर का रजिस्ट्रेशन आवेदक के नाम से होना चाहिए।
  • विभाग की किसी भी योजना में किसी भी प्रकार का कृषि यंत्र एक किसान को तीन वर्ष की अवधि में केवल एक बार दिया जाएगा।
  • एक वित्तीय वर्ष में एक किसान को सभी योजनाओं में अलग-अलग प्रकार के तीन कृषि यंत्रों पर अनुदान दिया जाएगा।
  • राज किसान साथी पोर्टल पर सूचीबद्ध किसी भी पंजीकृत निर्माता या विक्रेता से कृषि यंत्र खरीदने पर ही अनुदान दिया जाएगा।

रोटावेटर की खरीद पर सब्सिडी लेने के लिए आवेदन प्रिक्रिया 

इस योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए आपको राजकिसान पोर्टल पर आवेदन करना होगा जिससे की आपको समय पर योजना का लाभ प्राप्त हो सके। पोर्टल पर प्राप्त आवेदनों का रैंडमाइजेशन के बाद ऑनलाइन वरीयता क्रम के आधार पर निस्तारण किया जाएगा। 

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जो किसान स्वयं आवेदन करना चाहते हैं, वे राजकिसान पोर्टल पर जाकर आवेदन कर सकते हैं। यदि स्वयं आवेदन नहीं कर सकते हैं तो आप अपने नजदीकी ई-मित्र केंद्र पर जाकर आवेदन कर सकते हैं। आप आवेदन पत्र ऑनलाइन जमा किए जाने की प्राप्ति रसीद ऑनलाइन ही प्राप्त कर सकते हैं। 

आवेदन के लिए आवश्यक दस्तावेज 

आवेदन करते समय आपके पास आधार कार्ड, जनाधार कार्ड, जमाबंदी की नकल (जो छह माह से अधिक पुरानी नहीं होनी चाहिए), जाति प्रमाण पत्र, ट्रैक्टर का पंजीयन प्रमाण-पत्र (आर.सी.) की प्रति (ट्रैक्टर चलित यंत्रों के लिए अनिवार्य) की आवश्यकता होगी।   

राज्य के किसानों कृषि कार्यालय से प्रशासनिक स्वीकृति मिलने के बाद ही कृषि यंत्रों की खरीदी कर सकेंगे। किसान को मोबाइल संदेश या उनके क्षेत्र के कृषि पर्यवेक्षक से स्वीकृति की जानकारी दी जाएगी। 

कृषि उपकरण या मशीन की खरीद के बाद कृषि पर्यवेक्षक या सहायक कृषि अधिकारी द्वारा भौतिक जांच की जाएगी। सत्यापन के समय कृषि यंत्र की खरीद का बिल देना होगा। तब ही अनुदान का भुगतान किसान के बैंक खाते में डिजिटल रूप से किया जाएगा।