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गेहूं

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

हरियाणा कृषि विभाग की तरफ से गेहूं और जौ की फसल में लगने वाले चेपा कीट से जुड़ी आवश्यक सूचना जारी की है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को काफी कमजोर कर देते हैं। साथ ही, उसके विकास को प्रतिबाधित कर देते हैं। भारत के कृषकों के द्वारा गेहूं व जौ की फसल/ Wheat and Barley Crops को सबसे ज्यादा किया जाता है। क्योंकि, यह दोनों ही फसलें विश्वभर में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली साबुत अनाज फसलें हैं।

गेहूं व जौ की खेती राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विशेष रूप से की जाती है। किसान अपनी फसल से शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यों को करते हैं। यदि देखा जाए तो गेहूं व जौ की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग व कीट लगने की संभावना काफी ज्यादा होती है। वास्तविकता में गेहूं व जौ में चेपा (अल) का आक्रमण ज्यादा देखा गया है। चेपा फसल को पूर्ण रूप से  खत्म कर सकता है।

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से बचाने की प्रक्रिया

गेहूं व जौ की फसलों में चेपा (अल) का आक्रमण होने पर इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं. इसके नियंत्रण के लिए 500 मि.ली. मैलाथियान 50 ई. सी. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करें. किसान चाहे तो इस कीट से अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिए अपने नजदीकी कृषि विभाग के अधिकारियों से भी संपर्क कर सकते हैं।

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चेपा (अल) से आप क्या समझते हैं और ये कैसा होता है ?

चेपा एक प्रकार का कीट होता है, जो गेहूं व जौ की फसल पर प्रत्यक्ष तौर पर आक्रमण करता है। यदि यह कीट एक बार पौधे में लग जाता है, तो यह पौधे के रस को आहिस्ते-आहिस्ते चूसकर उसको काफी ज्यादा कमजोर कर देता है। इसकी वजह से पौधे का सही ढ़ंग से विकास नहीं हो पाता है।

अगर देखा जाए तो चेपा कीट फसल में नवंबर से फरवरी माह के मध्य अधिकांश देखने को मिलता है। यह कीट सर्व प्रथम फसल के सबसे नाजुक व कमजोर भागों को अपनी चपेट में लेता है। फिर धीरे-धीरे पूरी फसल के अंदर फैल जाता है। चेपा कीट मच्छर की भाँति नजर आता है, यह दिखने में पीले, भूरे या फिर काले रंग के कीड़े की भाँति ही होता है।

गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

गेहूं के साथ सरसों की खेती, फायदे व नुकसान

हमारे देश में मिश्रित फसल उगाने की परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराने समय में किसान भाई एक खेत में एक समय में एक से अधिक फसल उगाते थे। लेकिन इन फसलों का चयन बहुत सावधानीपूर्वक करना होता है क्योंकि यदि फसलों के चुनाव के बिना किसान भाइयों ने कोई ऐसी दो फसलें एक साथ खेत में उगाई जो होती तो एक समय में ही हैं लेकिन उनके लिए मौसम, सिंचाई, उर्वरक व खाद प्रबंधन आदि अलग-अलग होते हैं । इसके अलावा कभी कभी तो ऐसा होता है कि दो फसलों में एक फसल जल्दी तैयार होती है तो दूसरी देर से तैयार होती है। एक फसल के सर्दी का मौसम फायदेमंद होता है तो दूसरे के लिए नुकसानदायक होता है। एक निश्चित दूरी की पंक्ति व पौधों से पौधों की दूरी पर बोई जाती है तो दूसरी छिटकवां या बिना पंक्ति के ही बोई जाती हैं।

Mustard Farming

फसलों का चयन बहुत सावधानी से करें

वैसे कहा जाता है कि मिश्रित खेती के लिए ऐसी फसलों का चुनाव करना चाहिये कि दोनों फसलों के लिए उस क्षेत्र की भूमि,जलवायु व सिंचाई की आवश्यकता उपयुक्त हों यानी एक जैसी जरूरत होतीं हों। इसके बावजूद जानकार लोगों का मानना है कि अनाज व दलहनी फसलों को मिलाकर बोने से उत्पादन अच्छा होता है लेकिन अनाज व तिलहन की फसल की बुआई से बचना चाहिये।

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एक फसल को फायदा तो दूसरे को नुकसान

wheat cultivation

मौसम के प्रतिकूल प्रभाव से एक फसल को नुकसान होता है तो दूसरी फसल से कुछ अच्छी पैदावार हो जाती है। गेहूं व सरसों की मिलीजुली खेती से वर्षा की कमी से सरसों की फसल को नुकसान हो सकता है जबकि गेहूं की फसल को उतना नुकसान नही होगा वहीं सिंचाई की जल की कमी होने से सरसों की फसल अच्छी होगी जबकि गेहूं की फसल खराब हो सकती है।

क्यों सही नहीं होती एक साथ गेहूं व सरसों की खेती

गेहूं के साथ जौ, चना, मटर की फसल को अच्छा माना जाता है लेकिन गेहूं के साथ सरसों की फसल को अच्छा नहीं माना जाता है क्योंकि इन दोनों फसलों की प्राकृतिक जरूरतें अलग-अलग होतीं हैं। इन दोनों फसलों की खेती के लिए भूमि, खाद, सिंचाई आदि की व्यवस्था भी अलग-अलग की जाती हैं। इनका खाद व उर्वरक प्रबंधन भी अलग अलग होता है। दोनों ही फसलों की बुआई व कटाई का समय भी अलग-अलग होता है। इन दोनों फसलों को एक साथ करने से किसान भाइयों को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी में काफी सुधार की वजह से कृषि की तरफ रुझान देखने को मिला है और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़कर आने वाले युवा भी, अब धीरे-धीरे नई वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से भारतीय कृषि को एक बदलाव की तरफ ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जो खेत काफी समय से बिना बुवाई के परती पड़े हुए थे, अब उन्हीं खेतों में अच्छी तकनीक के इस्तेमाल और सही समय पर अच्छा मैनेजमेंट करने की वजह से आज बहुत ही उत्तम श्रेणी की फसल लहलहा रही है। 

इन्हीं तकनीकों से कुछ युवाओं ने पिछले 1 से 2 वर्ष में तिलहन फसलों के क्षेत्र में आये हुए नए विकास के पीछे अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। तिलहन फसलों में मूंगफली को बहुत ही कम समय में अच्छी कमाई वाली फसल माना जाता है।

पिछले कुछ समय से बाजार में आई हुई हाइब्रिड मूंगफली का अच्छा दाम तो मिलता ही है, साथ ही इसे उगाने में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो गए हैं। केवल दस बीस हजार रुपये की लागत में तैयार हुई इस हाइब्रिड मूंगफली को बेचकर अस्सी हजार रुपये से एक लाख रुपए तक कमाए जा सकते हैं।

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इस कमाई के पीछे की वैज्ञानिक विधि को चक्रीय खेती या चक्रीय-कृषि के नाम से जाना जाता है, जिसमें अगेती फसलों को उगाया जाता है। 

अगेती फसल मुख्यतया उस फसल को बोला जाता है जो हमारे खेतों में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न फसल जैसे कि गेहूं और चावल के कुछ समय पहले ही बोई जाती है, और जब तक अगली खाद्यान्न फसल की बुवाई का समय होता है तब तक इसकी कटाई भी पूरी की जा सकती है। 

इस विधि के तहत आप एक हेक्टर में ही करीब 500 क्विंटल मूंगफली का उत्पादन कर सकते हैं और यह केवल 60 से 70 दिन में तैयार की जा सकती है।

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मूंगफली को मंडी में बेचने के अलावा इसके तेल की भी अच्छी कीमत मिलती है और हाल ही में हाइब्रिड बीज आ जाने के बाद तो मूंगफली के दाने बहुत ही बड़े आकार के बनने लगे हैं और उनका आकार बड़ा होने की वजह से उनसे तेल भी अधिक मिलता है। 

चक्रीय खेती के तहत बहुत ही कम समय में एक तिलहन फसल को उगाया जाता है और उसके तुरंत बाद खाद्यान्न की किसी फसल को उगाया जाता है। जैसे कि हम अपने खेतों में समय-समय पर खाद्यान्न की फसलें उगाते हैं, लेकिन एक फसल की कटाई हो जाने के बाद में बीच में बचे हुए समय में खेत को परती ही छोड़ दिया जाता है, लेकिन यदि इसी बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए हम तिलहन फसलों का उत्पादन करें, जिनमें मूंगफली सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है।

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भारत में मानसून मौसम की शुरुआत होने से ठीक पहले मार्च में मूंगफली की खेती शुरू की जाती है। अगेती फसलों का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इन्हें तैयार होने में बहुत ही कम समय लगता है, साथ ही इनकी अधिक मांग होने की वजह से मूल्य भी अच्छा खासा मिलता है। 

इससे हमारा उत्पादन तो बढ़ेगा ही पर साथ ही हमारे खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी काफी सुधार होता है। इसके पीछे का कारण यह है, कि भारत की मिट्टि में आमतौर पर नाइट्रोजन की काफी कमी देखी जाती है और मूंगफली जैसी फसलों की जड़ें नाइट्रोजन यौगिकीकरण या आम भाषा में नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation), यानी कि नाइट्रोजन केंद्रीकरण का काम करती है और मिट्टी को अन्य खाद्यान्न फसलों के लिए भी उपजाऊ बनाती है। 

इसके लिए आप समय-समय पर कृषि विभाग से सॉइल हेल्थ कार्ड के जरिए अपनी मिट्टी में उपलब्ध उर्वरकों की जांच भी करवा सकते हैं।

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मूंगफली के द्वारा किए गए नाइट्रोजन के केंद्रीकरण की वजह से हमें यूरिया का छिड़काव भी काफी सीमित मात्रा में करना पड़ता है, जिससे कि फर्टिलाइजर में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो सकते हैं। 

इसी बचे हुए पैसे का इस्तेमाल हम अपने खेत की यील्ड को बढ़ाने में भी कर सकते हैं। यदि आपके पास इस प्रकार की हाइब्रिड मूंगफली के अच्छे बीज उपलब्ध नहीं है तो उद्यान विभाग और दिल्ली में स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है जिसमें बताया जाता है कि आपको किस कम्पनी की हाइब्रिड मूंगफली का इस्तेमाल करना चाहिए। 

समय-समय पर होने वाले किसान चौपाल और ट्रेनिंग सेंटरों के साथ ही दूरदर्शन के द्वारा संचालित डीडी किसान चैनल का इस्तेमाल कर, युवा लोग मूंगफली उत्पादन के साथ ही अपनी स्वयं की आर्थिक स्थिति तो सुधार ही रहें हैं, पर इसके अलावा भारत के कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं। 

आशा करते हैं कि मूंगफली की इस चक्रीय खेती विधि की बारे में Merikheti.com कि यह जानकारी आपको पसंद आई होगी और आप भी भारत में तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अलावा अपनी आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने में सफल होंगे।

भारतीय कृषि निर्यात में 10% प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई

भारतीय कृषि निर्यात में 10% प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई

APEDA द्वारा जारी कृषि निर्यात के आंकड़ों के अनुसार, भारत के कृषि निर्यात में 10% प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इसमें सर्वाधिक प्रभाव गेहूं के ऊपर पड़ा है। इसकी मांग 90% प्रतिशत से अधिक कम हुई है। एग्रीकल्चरल प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी (APEDA) द्वारा कृषि निर्यात के आंकड़े जारी किए हैं। इनके मुताबिक कृषि उत्पादों के भारत के निर्यात में चालू वित्त वर्ष 2023-24 की अप्रैल-नवंबर अवधि के दौरान 10% प्रतिशत की कमी दर्ज हुई है। इसकी वजह अनाज शिपमेंट में कमी को बताया गया है। APEDA द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल-नवंबर 2023-24 की अवधि में कृषि निर्यात 15.729 बिलियन डॉलर रहा, जो विगत वर्ष की समान अवधि के 17.425 डॉलर के मुकाबले में 9.73% प्रतिशत कम है।

बासमती चावल के शिपमेंट में काफी बढ़ोतरी दर्ज की गई है 

सऊदी अरब और ईराक जैसे खरीदारों द्वारा अधिक खरीदारी की वजह से बासमती चावल के शिपमेंट में विगत वर्ष की समान अवधि के मुकाबले में 17.58 फीसद की वृद्धि के साथ 3.7 बिलियन डॉलर की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो कि 2.87 बिलियन डॉलर थी। मात्रा के रूप से बासमती चावल का निर्यात विगत वर्ष की समान अवधि के 27.32 लाख टन से 9.6% प्रतिशत बढ़कर 29.94 लाख टन से अधिक हो गया है। 

गेंहू का 98% प्रतिशत निर्यात कम रहा है 

साथ ही, घरेलू उपलब्धता में सुधार और मूल्य वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए सरकार द्वारा विगत वर्ष जुलाई में लगाए गए निर्यात प्रतिबंधों की वजह से गैर-बासमती चावल शिपमेंट में एक चौथाई की कमी आई है। अप्रैल से नवंबर माह तक गैर-बासमती चावल का निर्यात 3.07 अरब डॉलर रहा, जो बीते साल के 4.10 अरब डॉलर से ज्यादा है। 

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मात्रा के संदर्भ में गैर-बासमती शिपमेंट विगत वर्ष की समान अवधि के 115.7 लाख टन की अपेक्षा में 33% प्रतिशत कम होकर 76.92 लाख टन रह गया है। गेहूं का निर्यात विगत वर्ष के 1.50 अरब डॉलर के मुकाबले 98% प्रतिशत कम होकर 29 मिलियन डॉलर रहा। अन्य अनाज निर्यात पिछले साल की समान अवधि के 699 मिलियन डॉलर की तुलना में 38 प्रतिशत कम होकर 429 मिलियन डॉलर पर रहा।

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

इन रोगों से बचाऐं किसान अपनी गेंहू की फसल

मौसमिक परिवर्तन के चलते गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट एवं बीमारियां काफी अधिक परेशान कर सकती हैं। किसानों को समुचित समय पर सही कदम उठाकर इससे निपटें नहीं तो पूरी फसल बेकार हो सकती है।

वर्तमान में गेहूं की फसल खेतों में लगी हुई है। मौसम में निरंतर परिवर्तन देखने को मिल रहा है। कभी बारिश तो कभी शीतलहर का कहर जारी है, इसलिए मौसम में बदलाव की वजह से गेहूं की खड़ी फसल में लगने वाले कीट और बीमारियां काफी समस्या खड़ी कर सकती हैं। किसान भाई वक्त पर सही कदम उठाकर इससे निपटें वर्ना पूरी फसल बेकार हो सकती है। गेंहू में एक तरह की बामारी नहीं बल्कि विभिन्न तरह की बामारियां लगती हैं। किसानों को सुझाव दिया जाता है, कि अपनी फसल की नियमित तौर पर देखरेख व निगरानी करें।

माहू या लाही

माहू या लाही कीट काले, हरे, भूरे रंग के पंखयुक्त एवं पंखविहीन होते हैं। इसके शिशु एवं वयस्क पत्तियों, फूलों तथा बालियों से रस चूसते हैं। इसकी वजह से फसल को काफी ज्यादा नुकसान होता है और फसल बर्बाद हो जाती है। बतादें, कि इस कीट के प्रकोप से फसल को बचाने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा दी गई सलाहें।

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फसल की समय पर बुआई करें।

  • लेडी बर्ड विटिल की संख्या पर्याप्त होने पर कीटनाशी का व्यवहार नहीं करें।
  • खेत में पीला फंदा या पीले रंग के टिन के चदरे पर चिपचिपा पदार्थ लगाकर लकड़ी के सहारे खेत में खड़ा कर दें। उड़ते लाही इसमें चिपक जाएंगे।
  • थायोमेथॉक्साम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी का 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर या क्विनलफोस 25 प्रतिशत ईसी का 2 मिली प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

हरदा रोग

वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस मौसम में वर्षा के बाद वायुमंडल का तापमान गिरने से इस रोग के आक्रमण एवं प्रसार बढ़ने की आशंका ज्यादा हो जाती है। गेहूं के पौधे में भूरे रंग एवं पीले रंग के धब्बे पत्तियों और तनों पर पाए जाते हैं। इस रोग के लिए अनुकूल वातावरण बनते ही सुरक्षात्मक उपाय करना चाहिए।

बुआई के समय रोग रोधी किस्मों का चयन करें।

बुआई के पहले कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम या जैविक फफूंदनाशी 5 ग्राम से प्रति किलो ग्राम बीज का बीजोपचार अवश्य करें।

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खड़ी फसल में फफूंद के उपयुक्त वातावरण बनते ही मैंकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम, प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ईसी का 500 मिली प्रति हेक्टेयर या टेबुकोनाजोल ईसी का 1 मिली प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।

अल्टरनेरिया ब्लाईट

अल्टरनेरिया ब्लाईट रोग के लगने पर पत्तियों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में पीला पड़कर किनारों को झुलसा देते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए मैकोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम या जिनेव 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 2 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

कलिका रोग

कलिका रोग में बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद का काला धूल भर जाता है। फफूंद के बीजाणु हवा में झड़ने से स्वस्थ बाली भी आक्रांत हो जाती है। यह अन्तः बीज जनित रोग है। इस रोग से बचाव के लिए किसान भाई इन बातों का ध्यान रखें।

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रोग मुक्त बीज की बुआई करे।

  • कार्बेन्डाजिंग 50 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति किलोग्राग की दर से बीजोपचार कर बोआई करें। 
  • दाने सहित आक्रान्त बाली को सावधानीपूर्वक प्लास्टिक के थैले से ढक कर काटने के बाद नष्ट कर दें। 
  • रोग ग्रस्त खेत की उपज को बीज के रूप में उपयोग न करें। 

बिहार सरकार ने किसानों की सुविधा के लिए 24 घंटे उपलब्ध रहने वाला कॉल सेंटर स्थापित कर रखा है। यहां टॉल फ्री नंबर 15545 या 18003456268 से संपर्क कर किसान अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं।

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण

गेहूं उत्तर भारत की मुख्य फसल है और इसमें खरपतवार मुख्य समस्या बनते हैं। खरपतवारों में मुख्य रूप से बथुआ, खरतुआ, चटरी, मटरी, गेहूं का मामा या गुल्ली डंडा प्रमुख हैं। जिन्हें हम खरपतवार कहत हैं उनमें मुख्य रूप से गेहूं का मामा फसल को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है और इसका नियंत्रण ज्यादा बजट वाला है। बाकी खरपतवार बेहद सस्ते रसायनों से और शीघ्र मर जाते हैं। 

समय

Gehu ki fasal 

 विशेषज्ञों की मानें तो खरपतवार नियंत्रण के लिए सही समय का चयन बेहद आवश्यक है। यदि सही समय से नियंत्रण वाली दबाओं का छिड़काव न किया जाए तो उत्पादन पर 35 प्रतिशत तक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धान की खेती वाले इलाकों में गेहूं की फसल में पहला पानी लगने की तैयारी है और इसके साथ ही खरपतवार जोर पकड़ेंगे। चूंकि किसान पहले पानी के साथ ही उर्वरकों को बुरकाव करते हैं लिहाजा ऐसी स्थिति में खरपतवारों को पूरी तरह से मारना और ज्यादा दिक्कत जदां हो जाता है। विशेषज्ञ 25 से 35 दिन के बीच के समय को खरपतवार नियंत्रण के लिए उपयुक्त मानते हैं। इसके बाद दवाओं का फसल पर दुष्प्रभाव भले ही सामान्य तौर पर न दिखे लेकिन उत्पादन पर प्रतिकूल असर होता है। 

कैसे मरता है खरपतवार

Gehu mai kharpatvar 

 खरपतवार को मारने के लिए बाजार में अनेक दवाएं मौजूद हैं लेकिन इससे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि दवाओं से केवल खरपतवार ही मरता है और फसल सुरक्षित रहती है तो कैसे । फसल और खरपतवार की आहार व्यवस्था में थोड़ा अंतर होता है। फसल किसी भी पोषक तत्व का अवशोषण जमीन से सीमित मात्रा में करती है। खरतवारों के पौधों का विकास बहुत तेज होता है और वह कम खुराक से भी अपना काम चला लेते हैं। ऐसे में जो खरपतवारनाशी दवाएं छिड़की जाती हैं उनमें जिंक आदि पोषक तत्वों को मिलाया जाता है। इनका फसल पर जैसे ही छिड़काव होता है खरपतवार के पौधे उसे बेहद तेजी से ग्रहण करते हैं और दवा के प्रभाव से उनकी कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। इधर मुख्य फसल के पौध इन्हें बेहद कम ग्रहण करता है और कम दुष्प्रभाव को झेलते हुए खुद को बचा लेता है।

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खरपतवार की श्रेणी

kharpatvar 

 खरपतवार को दो श्रेणियों में बांटा जाता है। गेहूं में संकरी और चौड़ी पत्ती वाले दो मुख्य खरपतवार पनपते हैं। किसान ऐसी दवा चाहता है जिससे एक साथ चौड़ी और संकरी पत्ती वाले खरपतवार मर जाएं। इसके लिए कई कंपनियों की सल्फोसल्फ्यूरान एवं मैट सल्फ्यूरान मिश्रित दवाएं आती हैं। इस तरह के मिश्रण वाली दवाओं से एक ही छिड़काव में दोनों तरह के खरपतवार मर जाते हैं। केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मारने के लिए टू फोर डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत दवा आती है। 250 एमएल दवा एक एकड़ एवं 625 एमएल प्रति हैक्टेयर के लिए उपोग मे लाएं। पानी में मिलाकर 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करने से तीन दिन में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार मर जाते हैं। केवल संकरी पत्ती वाले गेहूंसा, गेहूं का मामा, गुल्ली डंडा एंव जंगली जई को मारने के लिए केवल स्ल्फोसफल्फ्यूरान या क्लोनिडाफाप प्रोपेरजिल 15 प्रतिशत डब्ल्यूपी 400 ग्राम प्रति एकड़ को पानी में घोलकर छिड़काव करें।

 

सावधानी

kitnashak dawai 

 किसी भी दवा के छिड़काव से पूर्व शरीर पर कोई भी घरेलू तेल लगा लें। दस्ताने आदि पहनना संभव हो तो ज्यादा अच्छा है। दवा को जहां खरपतवार ज्यादा हो वहां आराम से छिड़कें और जहां कम हो वहां गति थोड़ी तेज कर दें ताकि पौधों पर ज्यादा दवा न जाए। दवा छिड़कते समय खेत में हल्का पैर चपकने लायक नमी होनी चाहिए ताकि खेत में नमी सूखने के साथ ही खरपतवार भी सूखता चला जाएगा।

दूध-गेहूं की भरमार, कीमतें पहुंच से पार

दूध-गेहूं की भरमार, कीमतें पहुंच से पार

गेहूं के स्टाक की बात करें तो जरूरत से तीन गुना है। दूध की भी कमी नहीं लेकिन कीमते हैं कि गिरने का नाम नहीं ले रहीं। डिमांड और सप्लाई के फार्मूले पर गौर करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि यदि बाजार में किसी वस्तु की आवक या स्टाक ज्यादा होगा तो कीमतें गिरेंगी। सरकार दूध और गेहूं की कीमतें नियंत्रित करने में पूरी तरह से नाकाम साबित हो रही है। 

मीडिया रिपोर्ट्स में लगातार पाकिस्तान में प्याज, आटा, लहसुन आदि की कीमतें तो बाताई जा रही हैं लेकिन भारत के गांवों से 30-35 रुपए लीटर कढ़ने वाला दूध 55 रुपए और किसानों से अधिकतम 1600 रुपए में खरीदा गया गेहूं 2000 के पार कई माह से क्यों बिक रहा है। उक्त् दोनों चीजें आम और हर दिन जरूरत वाली हैं। यातो सरकार के आंकड़े फर्जी हैैं या फिर कारोबारियों पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। 

पिछले दिनों आई रिपोर्टों में यह बात सामने आई कि गेहूं के भण्डारों में जरूरत से तीन गुना ज्यादा गेहूं है। जरूरत 13 लाख मीट्रिक टन की है वहीं जमा 40 लाख के आसपास है। यह रेट आज से नहीं दो माह से भी ज्यादा समय से चल रहा है। फसल के समय किसान अपने जिंसों को औने पौने दाम में बेचता रहता है वहीं बिचौलियों के मोटे मुनाफे की मार आम आदमी पर पड़ रही है। दूध की बात करें तो वर्तमान में दूध का उत्पादन करीब 9 फीसदी कम रहा है। 

वित्तीय वर्ष 2018-19 मैं यह 18.6 करोड़ टन रहा। विदित हो कि अप्रैल से अगस्त तक दूध मांग को पूरा करने के लिए देश को डेढ़ लाख टन स्किम्ड दुग्ध पाउडर के भण्डार की जरूरत होती है जो अभी तक महज 40 हजार टन के करीब ही है। खुले बाजार में इसकी कीमतें 150 से 300 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई हैं। चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि दूध की कीमतों में इजाफे का ज्यादा लाभ गांम में बैठे किसान को नहीं मिल रहा है। कंपनियां आकलन और अनुमान की बिना पर कीमतों को बढ़ाए हुए हैं। महंगाई का कारण मिल्क पाउडर का निर्यात भी माना जा रहा है। 

स्किम्ड मिल्क आयात की जरूरत  

 दूध की खुले बाजार में कीमतें नियंत्रित करने को कुछ बड़े दुग्ध उद्यमी स्किम्ड मिल्क आयात की बात का समर्थन कर रहे हैं तो कुछ विरोध। विरोध इस लिए प्रासंगिक लगता है क्योंकि दूध की आवक के साथ ही पशुपालकों से खरीद सस्ती कर दी जाएगी।

गेहूं की बेकदरी का अनुमान  

 दिल्ली मण्डी में गेहूं की कीमत 2300 रुपए चल रही हैं। जानकार इसे गुजरे साल के मुकाबले 20 से 25 फीसदी ज्यादा मान रहे हैं। गोदामों से धीमी निकासी इसी तरह जारी रही तो अप्रैल माह में नए गेहूं की आवक की बेकदरी होना तय है।

गेहूँ की फसल की बात किसान के साथ

गेहूँ की फसल की बात किसान के साथ

आज हम गेंहूं की खेती के बारे में बात करेंगें. विश्व के 25 से 30% भाग पर प्राय गेहूँ की खेती की जाती है.आज हमारा देश खाद्यान के मामले में किसी के ऊपर आश्रित नहीं है इसमें हमारे वैज्ञानिक, राजनेताओं ( हरितक्रांति) एवं किसानों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है. एक समय ऐसा था की हम अपने खाने के लिए दूसरे देशों पर आश्रित थे उनका गला सड़ा गेंहूं हमको खाने को मिलता था. घर में पूड़ियाँ या गेंहूं की रोटी किसी विशेष रिश्तेदार के आने पर ही बनती थीं ( शायद आज की पीढ़ी को ये बात थोड़ी अटपटी लगे), पर आज ऐसा नहीं है आज हम अन्य देशों को गेंहूं और दूसरे अनाजों का निर्यात करते हैं.

गेहूँ के लिए खेत की तैयारी:

सामान्यतः गेंहू की जड़ ज्यादा गहरी नहीं जाती है और इसकी पेड़ से पेड़ की दूरी ज्यादा नहीं होती है. इसकी जड़ छतराई होती है तो इन्हें खेत के ऊपर की खाद और उर्बरक ज्यादा फायदेमंद रहती है. इसके खेत में ज्यादा जुताई की जरूरत नहीं रहती है लेकिन ऐसा भी नहीं है की इसके खेत में खरपतवार ही ना खड़ा रहे. अगर खाली खेत में गेंहूं बोना हो तो इसकी लास्ट वाली जुताई में खेत में गोबर का बना हुआ खाद मिला दें और अगर आपको धान के खेत में बोना हो तो सुपरसीड़र से भी बुबाई कर सकते है. खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए, जिससे की पौधे को 20 से 25 दिन तक का समय मिल जाये. धान, बाजरा, या अन्य खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई  मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ) से करनी चाहिए जिससे कि खरीफ फसल के अवशेष और खरपतवार मिट्टी मे दबकर सड़ जायें. इसके  बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयाँ देशी हल-कल्टीवेटर से करनी चाहिए. हरेक जुताई के बाद पाटा/ सुहागा  देकर खेत समतल कर लेना चाहिए, इससे खेत में नमी बनी रहती है तथा खेत भी समतल रहता है तथा इससे खेत में पानी भी सामान मात्रा में लगता है.

उन्नत किस्में तथा उनका चयन:

हमें किस्मों का चुनाव करते समय अपने क्षेत्र एवं जलवायु का विशेष ध्यान रखना चाहिए. हमारे वैज्ञानिक निरंतर किसान कि उपज बढ़ने के लिए प्रयासरत हैं तथा एक से बढ़कर एक किस्म किसानों के लिए विकसित कर रहे हैं.हम नीचे पूसा कृषि संस्थान द्वारा तैयार कि गई किस्मों के जानकारी दे रहे हैं, जो निम्न प्रकार है:

गेहूँ की उन्नत किस्में और उनकी विशेषताएं:

गेहूँ की प्रजाति करीब करीब 300-400 के करीब है लेकिन बहुतायत में प्रयोग की जाने वाली प्रजाति सिर्फ 30-35 ही होती है. हमेशा किसान को नया बीज ही प्रयोग में लाना चाहिए लेकिन कई बार ये संभव नहीं है क्यों की किसान को बीज खरीदने में अच्छा खासा पैसा लगाना होता है. अगर आप नया बीज नहीं ले पते हो तो कोशिश करें की कीड़ा ( घुन और पई) लगा हुआ बीज प्रयोग में ना लाएं. बाकि किस्मों की जानकारी ऊपर दी जा चुकी है.

बुवाई का समय:

गेंहू की बुवाई का सही समय तो प्रजाति पर निर्भर करता है, अगर कोई प्रजाति पकने में ज्यादा समय लेती है तो उसकी बुबाई पहले की जाती है जिससे की ज्यादा गर्मी से पहले गेंहूं की बलि को पकने का समय मिल सके. जब मौसम ज्यादा गर्म हो जाता है तो गेंहूं की बाली को पकने का समय ठीक से नहीं मिल पता है जिससे हमारे उत्पादन पर फर्क पड़ता है. इस तरह से गेंहूं को बोन का सही समय नवंबर का महीना सही होता है जो की अधिकांश प्रजाति के लिए सबसे मुफीद समय होता है. सामान्यतः बुवाई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है जिससे की हमारी फसल को पकने का सही समय मिल सके तथा अंतिम पानी होली से पहले दिया जा सके जिससे की जब गर्मी का मौसम शुरू होता है तो हवाएं तेज चलने लगती हैं जिससे पानी से गेंहूं के गिरने का डर रहता है. फसल की अच्छी पैदावार प्राप्त करने हेतु उचित मात्रा में खाद, बीज एवं उर्वरकों का प्रयोग होनाआवश्यक है. खेत में अच्छी बनी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद दो या तीन साल में 8 से 10 टन प्रति हैक्टेयर की दर से अवश्य देनी चाहिये। इसके अतिरिक्त गेहूं की फसल को 100 से 120 किग्रा. नाइट्रोजन एवं 60 से 80 किग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी एवं फास्फोरस की समस्त मात्रा बुवाई के समय  देनी चाहिये ।

खाद की मात्रा:

130.50 कि.ग्रा. डी.ए.पी. व 58 किग्रा. यूरिया के द्वारा दी जा सकती है। इसके पश्चात् नाइट्रोजन की आधी मात्रा दो बराबर भागों में देनी चाहिये। जिसे बुवाई के बाद प्रथम व द्वितीय सिंचाई देने के तुरंत बाद छिड़क देनी चाहिये। गेहूँ की फसल में जिंक की कमी भी महसूस की जा रही है अगर धान के खेत में गेंहूं की बुबाई की जा रही है तो उसमे पहले से ही खाद की अच्छी मात्रा होती है,  इसके लिए जिंक सल्फेट की 25 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में बुवाई से पूर्व देनी चाहिये लेकिन इससे पहले मृदा परीक्षण आवश्यक है. जो की हमें साल में एक बार करा ही लेनी चाहिए. [embed]https://www.youtube.com/watch?v=wdZnodFWSB8&t[/embed]

कटाई की व्यवस्था :

जैसा की हम जानते हैं आजकल सारा काम मशीनों से हो रहा है और उससे किसान को फायदा भी होता है लेकिन इससे गेंहूं में मिटटी और अन्य खरपतवार भी मिल जाता है उससे फसल की गुणवत्ता कम होती है. अगर किसान को अपना बीज बनाना है तो उसको हाथ से कटाई करा के उसको खेत में सूखने का पर्याप्त समय देना चाहिए. उसके बाद थ्रेसर या ट्रैक्टर से कुचलकर निकालना चाहिए जिससे की कोई भी दाना कटे नहीं और बीज को फफूद नाशक एवं कीटनाशक से उपचारित कर लोहे की टंकी या साफ बोरे में भरकर सुरक्षित जगह भण्डारित कर लेना चाहिये. इस प्रकार उत्पन्न किये गये बीज की किसान अगले वर्ष बुवाई कर सकते है.
फसलों में बीजों से होने वाले रोग व उनसे बचाव

फसलों में बीजों से होने वाले रोग व उनसे बचाव

कई रोग बीज जनित होते हैं। यानी कि बीज के साथ ही किसी रोग संक्रमण के कारक मौजूद होते हैं। जैसे ही उन्हें विकास करने के लिए अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थिति मिलती है रोग का प्रसार तेज हो जाता है। इन रोगों की जानकारी होना किसानों के लिए बेहद जरूरी है। यदि वह इन रोगों के बारे में जान लेंगे तो फसलों में होने वाले व्यापक नुकसान से बचा जा सकता है।

बीजों से होने वाले रोग व उनसे बचाव

धान की फसल

धान की फसल में 1121 एवं 1509 किस्म के धान में आने वाला बकानी रोग इसका जीता जागता उदाहरण है। धान में बकानी एवं पदगलन रोग भी बीज जनित होता है। बकानी रोग में चंद पौधे सामान्य से ज्यादा लम्बे हो जाते हैं और धीरे करके जल जाते हैं। यह रोग फसल में बहुत तेजी से फैलता है। इस रोग से बचाव के लिए प्रारंभ में ही संक्रमित पौधों को उखाड देना चाहिए। उखाड़ते समय इस बात का भी ध्यान रखें कि गीली मिट्टी खेत में ज्यादा न फैले अन्यथा मिट्टी के साथ छिटक कर रोगाणु ज्यादा जगह को प्रभावित कर सकते हैं।

उपचार

रोग रहित बीज का प्रयोग करें। दो प्रतिशत नमक का घोल बनाकर उनमें बीज को भिगोएं। थोथे बीज को फैंक देंं। बाकी बचे बीज को कई बार साफ पानी से साफ करें ताकि उसमें नमक का अंश न रहे। बृद्धि कारक नाइट्रोजन आदि उर्वरकों का रोग संक्रमण के दौरान बिल्कुल भी प्रयोग न करें। ssबीज को उपचारित करके ही बोएं। रोग संक्रमण के लक्षण प्रदर्शित होने पर प्रभावी फफूंदनाशी का छिड़काव भी करें साथ ही बालू में मिलाकर खेत में बुरकाव भी करें।

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गेहूं की फसल

गेहूं की फसल में लगने वाला कंडुआ रोग बीज जनित ही होता है। ज्यादातर किसान बीज को उपचारित करके नहीं बेचते। बीज विक्रेता कई राज्यों में बीज में दवा नहीं मिलाते। यह काम वह दुकानदारों को दोहरी परेशानियों से बचाने के लिए करते हैं। पहला दवा मिश्रित बीज से दुकान में बैठने के दौरान दिक्कत होती है। दूसरा बीज बचने पर उसे मण्डी आदि में बेच कर नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती। गेहूं का कंडुआ रोग बीज के भ्रूण में होता है। वह पौधे के विकास के साथ ही बढ़ता रहता है। जब फसल में बाली आने वाली होती है तब वह अपना प्रभाव दिखाता है। किसी भी संक्रमित बाली में लाखों रोगाणु होते हैं। जब हवा चलती है तो यह रोगाणु एक बाली से उडकर दूसरी बाली में जाते हैं। इससे अधिकांश फसल प्रभावित हो जाती है।

बचाव

फसल को इस रेाग से बचाने के लिए बीज को उपचारित करके बोना चाहिए। इसके लिए 2.5 ग्राम थायरम या बाबस्टीन आदि किसी भी गैर प्रतिबंधित फफूंदनाशक दवा से प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकार उपचार करना चाहिए। इसके बाद ही बीज को खेत में बोना चाहिए।

सरसों कुल की फसलों के रोग

बंद गोभी, फूलगोभी, ब्रोकली, सरसों एवं मूली फसल में कृष्ण गलन रोग काफी नुकसान पहुंचाता है। यह रोग जीवाणु जनित होता है। रोग का प्रसार पत्त्यिों के किनारों पर हरिमाहीन धब्बों के बनने की प्रक्रिया से शुरू होता है। पत्तियों की शिराएं भूरी होकर बाद में काली पड़ जाती हैं। धीरे धीरे पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगती हैं।

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बचाव

रोग रहित बीज का प्रयोग करेंं। बीज को 50 डिग्री सेल्सियस गर्म पानी में आधा घण्टे तक रखेंं। संक्रमित पौधों को उखाड़ दें। रोग से छुटकारा पाने के लिए बीज का रासायनिक उपचार करें। इसके लिए एग्रीमाइसिन 100 की एक प्रतिशत अथवा स्टेप्टोसाइक्लिन एक प्रतिशत का उपयोग करें। खडी फसल पर स्टेप्टोसाइक्लिन 18 ग्राम प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा कॉपरआक्सीक्लोराइड का तीन प्रतिशत की दर से छिड़काव करना चाहिए।

प्याज का बैंगनी धब्बा रोग

यह रोग समूचे प्याज लहसुन की खेती वाले इलाकों में होता है। यह रोग पहले सफेद धंसे विक्षतों के रूप में दिखाई देता है। धीरे धीरे इनका आकार बढ़ता है और बाद में यह धारी का आकार ले लेते हैं। धीरे धीरे इनका रंग भूरा हेाता है और पौधा इसी स्थान से गलना आरंभ हो जाता है। इसके बाद सूखने लगता है।

बचाव

बचाव के लिए बीज का थीरम से 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचार करने के बाद बोना चाहिए। फसल पर कार्बेन्डाजिम एवं मेन्कोजेब के मिश्रण का छिड़काब करना चाहिए। रोग का लक्षण दिखाई देने पर टोबुकोनाजोल 50 प्रतिशत एवं ट्राइफ्लोक्सीस्ट्राबिन 25 प्रतिशत का 80 से 100 ग्राम मात्रा में 200 लीटर पानी के साथ प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए।

बाजरा की फसल

बाजरा की फसल में भी अर्गट रोग लगता है। इसके अलावा हरी बाली रोग भी लगता है। इस तरह के रोगों का पता आरंभिक अवस्था में नहीं चलता। बाद में बाली बनने की अवस्था पर पता चलने पर शुरूआत में ही यदि उपचार किए जाए तो ठीक अन्यथा बालियों में दाने ही नहीं बनते और किसानों को केवल चारे से ही संतुष्ट होना पड़ता है। इससे बचाव के लिए प्रतिरोधी किस्मों की बिजाई करें। बीज को प्रभावी दवाओं से उपचारित करके बोएंं।
जानिए गेहूं की बुआई और देखभाल कैसे करें

जानिए गेहूं की बुआई और देखभाल कैसे करें

भारत में लगभग सभी राज्यों, नगरों, कस्बों,गांवों में रहने वाले लोग अपने भोजन में गेहूं का सबसे अधिक इस्तेमाल करते हैं। रबी सीजन में की जाने वाली गेहूं की फसल मुख्य फसल है। हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या और मुख्य खाद्यान्न होने के कारण गेहूं की सबसे ज्यादा डिमांड रहती है। इस कारण गेहूं की कीमतें अब बाजार में तेजी से बढ़ती रहतीं हैं। इसलिये किसान भाइयों के लिए गेहूं की खेती सबसे उत्तम है।

गेहूं की बुआई कैसे करें

गेहूं की बुआई गेहूं की खेती के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्शियस के तापमान की आवश्यकता होती है। इससे अधिक तापमान में गेहूं की फसल नहीं की जा सकती है। गेहूं के पौधों के अंकुर निकलने के समय 20 से 22 डिग्री का तापमान अच्छा माना गया है। गेहूं की बढ़वार के लिए 25 से 27 डिग्री सेल्शियस तापमान जरूरी होता है। गेहूं के पौधों में फूल आने के समय अधिक तापमान नहीं होना चाहिये। सिंचित क्षेत्रों में लगभग सभी प्रकार की भूमि पर गेहूं की खेती की जा सकती है लेकिन जलजमाव वाली, लवणीय या क्षारीय भूमि में गेहूं की खेती नहीं की जानी चाहिये। वैसे बलुई दोमट या चिकनी दोमट मिट्टी को गेहूं की खेती के लिए उत्तम मानी जाती है। जहां पर भूमि की परत एक मीटर के बाद सख्त हो, वहां पर भी खेती नहीं करनी चाहिये।

गेहूं के लिए खेत की तैयारी कुछ ऐसे करें

खरीफ की फसल के बाद खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें। उसके बाद दो या तीन क्रास जुताई कर मिट्टी को महीन बनायें। यदि खेत में मिट्टी के ढेले दिख रहे हों तो उसमें पाटा चलाकर मिट्टी को एकदम भुरभुरी कर लें। इसके बाद किसान भाइयों को चाहिये कि खेत में आवश्यकतानुसार गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद और उर्वरकों को डालें तथा अंतिम जुताई करें। दीमक,कटवर्म आदि लगते हों तो कीट नाशकों का उपयोग करें। अंतिम जुताई के बाद खेत को एक सप्ताह के लिए खुला छोड़ दें। इसके बाद बुआई करने से पहले खेत की नमी की स्थिति को देखें। नमी कम दिख रही हो तो पलेवा करके बुआई करें।

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भारत में क्षेत्रवार जलवायु अलग-अलग होने के कारण गेहूं की बुआई का समय भी अलग-अलग है। पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में गेहूं की बुआई का समय नवम्बर का पूरा महीना उपयुक्त माना गया है। वहीं पूर्वोत्तर क्षेत्र में मध्य नवंबर से लेकर दिसम्बर के पहले पखवाड़े तक सही समय माना गया है। इसके बाद पछैती खेती  के लिए 15 दिसम्बर से 25 दिसम्बर तक बुआई की जा सकती है। इसके बाद बुआई करना जोखिम भरा हो सकता है। गेहूं की अच्छी खेती के लिए बीज भी अच्छा होना चाहिये। अच्छी पैदावार की किस्म वाला गेहूं का बीज होना चाहिये तथा सिकुड़े, छोटे, कटे-फटे दाने नहीं होने चाहिये। आम तौर पर एक हेक्टेयर के लिए 100 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता होती है। पछैती खेती या कम उपजाऊ जमीन के लिए 125 किलो बीजों की आवश्यकता होती है। बीज प्रमाणित संस्थानों से लेना चाहिये और तीन वर्ष में गेहूं के बीज की किस्म बदल लेनी चाहिये।

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बुआई से पहले बीज का उपचार किया जाना अत्यावश्यक है। पहले गेहूं के बीज को थाइम या मैन्कोजेब से उपचारित करना चाहिये। इसके लिए प्रतिकिलो गेहूं के बीज के लिए 2 से 2.5 ग्राम थाइम या मैन्कोजेब की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही दीमक नियंत्रण के लिए क्लोरोपाइरीफोस से शोधन करें। उसके बाद बीज को छाया में सुखाकर खेत में बोयें। गेहूं की अच्छी पैदावार के लिए बुआई के सर्वश्रेष्ठ तरीके को अपनाया जाना चाहिये। किसान भाइयों बुआई करने का सबसे अच्छा तरीका सीड ड्रिल या देशी हल से किये जाने को माना गया है। इससे कतार से कतार की दूरी व पौधों की दूरी भी नियंत्रित रहती है। इससे निराई गुड़ाई व सिंचाई करने में सुविधा होती है। साथ ही बीज आवश्यक गहराई तक जाता है और बीज भी कम लगता है। छिड़काव विधि से बीज भी अधिक लगता है।असमान पौधों के उगने से फसल प्रभावित होती है। बाद में कई अन्य परेशानियां आतीं हैं।

गेहूं की बुआई

गेहूं की बुआई के बाद फसल की देखभाल करनी जरूरी होती है। किसान भाइयों को चाहिये कि वे खेत की लगातार निगरानी करते रहें। सभी आवश्यक इंतजाम करते रहें। गेहूं की बुआई के बाद सबसे पहले खरपतवार नियंत्रण के लिए दो-तीन दिन में पैन्डीमैथालीन के घोल का छिड़काव करें। अक्सर देखा गया है कि गेहूं की फसल के साथ गोयला, प्याजी,चील, जंगली जई,गुल्ली डंडा व मोरवा जैसे खरपतवार उग आते हैं और वे फसल की बढ़त को रोक देते हैं। गुल्ली डंडा व जंगली जई का अधिक प्रकोप होने पर एक किलो आईसोप्रोटूरोन या मैटाक्सिरान को 500 लीटर पानी में मिलाकर घोल बनाकर छिड़कें।

खाद एवं उर्वरक का प्रबंधन ऐसे करें

किसान भाइयों के लिए उर्वरक प्रबंधन करने से पहले मृदा का परीक्षण कराना सर्वोत्तम रहेगा। इससे उनको खाद एवं उर्वरक प्रबंधन पर उतना ही खर्च लगेगा जितने की जरूरत होगी। अनुमान से खाद व उर्वरक का प्रबंधन करना किसान भाइयों को महंगा भी पड़ सकता है और अपेक्षित परिणाम भी नहीं मिलते हैं। वैसे सिंचित क्षेत्रों में 125 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम पोटाश और 60 किलोग्राम फास्फोरस की आवश्यकता होती है। यदि पछैती फसल लेनी है तो उसके लिए 20 से 40 किलो पोटाश अधिक डालें। असिंचित क्षेत्रों में समय से खेती करने के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 25 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है।  बालियां आने से पहले यदि बरसात हो जाये तो 20 किलो नाइट्रोजन का छिड़काव करना चाहिये। सिंचित क्षेत्रों में बुआई के बाद नाइट्रोजन की दो तिहाई मात्रा जो बुआई के समय बचायी जाती है उसका आधा हिस्सा पहली सिंचाई के बाद और आधा हिस्सा दूसरी सिंचाई के बाद खेतों में डालने से पैदावार अच्छी होती है।

गेहूं की फसल में सिंचाई का बहुत ध्यान रखना पड़ता है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार पूरी फसल में छह बार सिंचाई करनी होती है।

  1. पहली सिंचाई बुआई के 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिये
  2. दूसरी सिंचाई 45 दिन के बाद उस समय करनी चाहिये जब कल्ले बनने लगे।
  3. तीसरी सिंचाई 65 दिन बाद उस समय करनी चाहिये जब गांठ बनने लगे।
  4. चौथी सिंचाई 85 से 90 दिन यानी तीन महीने बाद उस समय करनी चाहिये जब बालियां निकलने वाली हों।
  5. पांचवीं सिंचाई उस समय की जानी चाहिये जब दूधिया दाना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति बुआई से 100 से 110 दिन बाद आती है।
  6. छठवीं और अंतिम सिंचाई 115 से 120 दिन बाद उस समय की जानी चाहिये जब दाना पकने वाला हो।

खरपतवार की देखभाल कैसे की जाये

गेहूं की फसल को गोयला, चील, प्याजी, मोरवा, गुल्ली डन्डा, जंगली जई, मंडूसी, कनकी, पोआघास, लोमड़ घास, बथुआ, खरथुआ, जंगली पालक, मैना, मैथा, सांचल,मालवा, मकोय, हिरनखुरी, कंडाई, कृष्णनील, चटरी मटरी जैसे खरपतवार प्रभावित करते हैं। इनको रोकने के लिए खरपतवारनाशी का घोल छिड़कना चाहिये। फसल के बीच में निराई गुड़ाई भी की जानी चाहिये।

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गेहूं की फसल को अनेक प्रकार की कीट व रोग भी लगते हैं। इनके नियंत्रण का भी प्रबंध किसान भाइयों को करना चाहिये।  दीमक, आर्मी वर्म, एफिड व जैसिडस तथा चूहे काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम बुआई के समय करनी चाहिये। उस समय एन्डोसल्फान का छिड़काव करना चाहिये। दीमक के लिए क्लोरीपाइरीफोस को सिंचाई के साथ देना होगा। रस चूसने वाले कीटों के नियंत्रण के लिए इकालक्स के घोल का छिड़काव करें। यदि झुलसा पत्ती धब्बा, रोली रोग, कण्डवा, मोल्या धब्बा जैसे रोग गेहूं की फसल में लगे हुए दिखाई दें तो मेन्कोजेब, रोली राग के लि गंधक का चूर्ण, कन्डुवे के लिए थीरम या वीटावैक्स से उपचार करें। चूहों के नियंत्रण के लिए एल्यूमिनियम फास्फाइड या राटाफीन की गोलियों का इस्तेमाल करें।
सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल

सर्दी में पाला, शीतलहर व ओलावृष्टि से ऐसे बचाएं गेहूं की फसल

किसान भाइयों खेत में खड़ी फसल जब तक सुरक्षित घर न पहुंच जाये तब तक किसी प्रकार की आने वाले कुदरती आपदा से  दिल धड़कता रहता है। किसान भाइयों के लिए खेत में खड़ी फसल ही उनके प्राण के समान होते हैं। इन पर किसी तरह के संकट आने से किसान भाइयों की धड़कनें बढ़ जाती हैं। आजकल सर्दी भी बढ़ रही है। सर्दियों में शीतलहर और पाला भी कुदरती कहर ही है। कुदरती कहर के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। ओलावृष्टि, सर्दी, शीतलहर, पाला व कम सर्दी आदि की मुसीबतों से किसान भाई किस तरह से बच सकते हैं। आईये जानते हैं कि वे कौन-कौन से उपाय करके किसान भाई अपनी फसल को बचा सकते हैं।

जनवरी में चलती है शीतलहर

उत्तरी राज्यों में जनवरी माह में शीतलहर चलती है, जिसके चलते फसलों में पाला लगने की संभावना बढ़ जाती है। शीतलहर और पाले से सभी तरह की फसलों को नुकसान होता है। इसके प्रभाव से पौधों की पत्तियां झुलस जातीं हैं, पौधे में आये फूल गिर जाते हैं। फलियों में दाने नहीं बन पाते हैं और जो नये दाने बने होते हैं, वे भी सिकुड़ जाते हैं। इससे किसान भाइयों को गेहूं की फसल का उत्पादन घट जाता है और उन्हें बहुत नुकसान होता है। यही वह उचित समय होता है जब किसान भाई फसल को बचा कर अपना उत्पादन बढ़ा सकते हैं क्योंकि जनवरी माह का महीना गेहूं की फसल में फूल और बालियां बनने का का समय होता है 

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कौन-कौन से नुकसान हो सकते हैं शीतलर व पाला से

किसान भाइयों गेहूं की फसल को शीतलहर व पाला से किस प्रकार के नुकसान हो सकते हैं, इस बारे में कृषि विशेषज्ञों ने जो जानकारी दी है, उनमें से होने वाले कुछ प्रमुख नुकसान इस प्रकार से हैं:-

  1. यदि खेत सूखा है और फसल कमजोर है तो सर्दियों में शीतलहर से सबसे अधिक नुकसान यह होता है कि पौधे बहुत जल्द ही सूख जाते हैं, पाला से इस प्रकार की फसल सबसे पहले झुलस जाती है।
  2. पाला पड़ने से पौधे ठुर्रिया जाते हैं यानी उनकी बढ़वार रुक जाती है। इस तरह से उनका उत्पादन काफी घट जाता है।
  3. शीतलहर या पाला से जिस क्षेत्र में तापमान पांच डिग्री सेल्सियश से नीचे जाता है तो वहां पर फसल का विकास रुक जाता है। वहां की फसल में दाने छोटे ही रह जाते हैं।
  4. शीतलहर से तापमान 2 डिग्री सेल्सियश से भी कम हो जाता है तो वहां के पौधे पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, पत्तियां टूट सकतीं है। ऐसी दशा में बड़ी बूंदे पड़ने या बहुत हल्की ओलावृष्टि से फसल पूरी तरह से चौपट हो सकती है।



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बचाव के लिए रासायनिक व अन्य उपाय करने चाहिये

फसलों को शीतलहर से बचाने के लिए किसान भाइयों को रासायनिक एवं अन्य उपाय करने चाहिये। यदि संभव हो तो शीतलहर रोकने के लिए टटिया बनाकर उस दिशा में लगाना चाहिये जिस ओर से शीतलहर आ रही हो। जब शीतलहर को रोकने में कामयाबी मिल जायेगी तो पाला अपने आप में कम हो जायेगा।

कौन-कौन सी सावधानियां बरतें किसान भाई

किसान भाइयों को शीतलहर व पाले से अपनी गेहूं की फसल को बचाव के इंतजाम करने चाहिये। इससे किसान का उत्पादन भी बढ़ेगा तो किसान भाइयों को काफी लाभ भी होगा।  किसान भाइयों को कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिये, उनमें से कुछ खास इस प्रकार हैं:-

  1. कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार सर्दी के मौसम मे पाले से गेहूं की फसल को बचाने के लिए अनेक सावधानियां बरतनी पड़तीं हैं क्योंकि ज्यादा ठंड और पाले से झुलसा रोग की चपेट में फसल आ जाती है। मुलायम पत्ती वाली फसल के लिए पाला खतरनाक होता है। पाले के असर से गेहूं की पत्तियां पीली पड़ने लगतीं हैं। गेहूं की फसल को पाला से बचाने के लिए दिन में हल्की सिंचाई करें। खेत में ज्यादा पानी भरने से नुकसान हो सकता है।
  2. कृषि विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान समय में कोहरा और पाला पड़ रहा है। पाले से बचाने के लिए गेहूं की फसल में सिंचाई के साथ दवा का छिड़काव करना होगा। गेहूं की फसल में मैंकोजेब 75 प्रतिशत या कापर आक्सी क्लोराइड 50 प्रतिशत छिड़काव करें।
  3. पाले से बचाव के लिए गेहूं की फसल में गंधक यानी डब्ल्यूजीपी सल्फर का छिड़काव करें। डस्ट सल्फर या थायो यूरिया का स्प्रे करें। इससे जहां पाला से बचाव होगा वहीं फसल की पैदावार बढ़ाने में भी सहायक होगा। डस्ट सल्फर के छिड़काव से जमीन व फसल का तापमान घटने से रुक जाता है और साथ ही यह पानी जमने नहीं देता है । किसान भाई डस्ट सल्फर का छिड़काव करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखें कि छिड़काव पूरे पौधे पर होना चाहिये। छिड़काव का असर दो सप्ताह तक बना रहता है। यदि इस अवधि के बाद भी शीतलहर व पाले की संभावना हो तो 15-15 दिन के अन्तराल से यह छिड़काव करते रहें।
  4. गेहूं की फसल में पाले से बचाव के लिए गंधक का छिड़काव करने से सिर्फ पाले से ही बचाव नहीं होता है बल्कि उससे पौधों में आयरन की जैविक एवं रासायनिक सक्रियता बढ़ जाती है, जो पौधों में रोगविरोधी क्षमता बढ़ जाती है और फसल को जल्दी भी पकाने में मदद करती है।
  5. पाला के समय किसान भाई शाम के समय खेत की मेड़ पर धुआं करें और पाला लग जाये तो तुरंत यानी अगले दिन सुबह ग्लूकोन डी 10ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें। फायदा होगा।
  6. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि सर्दी के मौसम में पानी का जमाव हो जाता है जिससे कोशिकाएं फट जातीं हैं और पौधे की पत्तियां सूख जाती हैं और नतीजा यह होता है कि फसलों को भारी नुकसान हो जाता है। पालों से पौधों के प्रभाव से पौधों की कोशिकाओं में जल संचार प्रभावित हो जाता है और पौधे सूख जाते जाते हैं जिससे उनमें रोग व कीट का प्रकोप बढ़ जाता है। पाले के प्रभाव से फूल नष्ट हो जाते हैं।
  7. किसान भाई पाले से बचाव के लिए दीर्घकालीन उपाय के रूप में अपने खेत की पश्चिमी और उत्तरी मेड़ों पर शीतलहर को रोकने वाले वृक्षों को लगायें। इन पौधों में शहतूत, शीशम, बबूल, नीम आदि शामिल हैं। इससे शीत लहर रुकेगी तो पाला भी कम लगेगा और फसल को कोई नुकसान नहीं होगा।

ओलावृष्टि से पूर्व बचाव के उपाय करें किसान भाई

जैसा कि आजकल मौसम का मिजाज खराब चल रहा है। आने वाले समय में ओलावृष्टि की भी संभावना व्यक्त की जा रही है। ऐसे में गेहूं की फसल को ओलावृष्टि बचाव के उपाय किसान भाइयों को करने चाहिये। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-

  1. कृषि विशेषज्ञों ने अपनी राय देते हुए बताया है कि यदि ओलावृष्टि की संभावना व्यक्त की जा रही हो तो किसान भाइयों को अपने खेतों में हल्की सिंचाई अवश्य करनी चाहिये जिससे फसल का तापमान कम न हो सके।
  2. बड़े किसान ओला से फसल को बचाने के लिए हेल नेट का प्रयोग कर सकते हैं जबकि छोटे किसानों के पास सिंचाई ही एकमात्र सहारा है।
  3. छोटे किसानों को कृषि विशेषज्ञों ने यह सलाह दी है कि हल्की सिंचाई के बाद 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से नाइट्रोजन का छिड़काव करना चाहिये। इससे पौधे मजबूत हो जाते हैं और वो ओलावृष्टि के बावजूद खड़े रहते हैं। इसके अलावा शीत लहर में भी पौधे गिरते नहीं है।
गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

गेहूं की खेती पूरे विश्व में की जाती है। पुरे विश्व की धरती के एक तिहाई हिस्से पर गेहूं की खेती की जाती है। धान की खेती केवल एशिया में की जाती है जबकि गेहूं विश्व के सभी देशों में उगाया जाता है। 

इसलिये गेहूं की खेती का बहुत अधिक महत्व है और किसान भाइयों के लिए गेहूं की खेती कृषि उपज के प्राण के समान है। इसलिये प्रत्येक किसान गेहूं की अच्छी उपज लेना चाहता है। 

वर्तमान समय में वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाती है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि वह गेहूं की खेती में खाद की मात्रा उन्नत एवं वैज्ञानिक तरीके से करेंगे तो उन्हें अपने खेतों में अच्छी पैदावार मिल सकती है।

क्यों है अच्छी फसल की जरूरत

किसान भाइयों एक बात यह भी सत्य है कि जमीन का दायरा सिकुड़ता जा रहा है और आबादी बढ़ती जा रही है। मानव का मुख्य भोजन गेहूं पर ही आधारित है। इसलिये गेहूं की मांग बढ़ना आवश्यक है। 

इस मांग को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक पैदावार करना होगा। जहां लोगों की जरूरतें  पूरी होंगी और वहीं किसान भाइयों की आमदनी भी बढ़ेगी। किसान भाइयों गेहूं की खेती बहुत अधिक मेहनत मांगती है। 

जहां खेत को तैयार करने के लिए अधिक जुताई, पलेवा, निराई गुड़ाई, सिंचाई के साथ गेहूं की खेती में खाद की मात्रा का भी प्रबंधन समय-समय पर करना होता है। 

आइये देखते हैं कि गेहूं की खेती में किन-किन खादों व उर्वरकों का प्रयोग करके अधिक से अधिक पैदावार ली जा सकती है।

अधिक उत्पादन का मूलमंत्र

गेहूं की खेती की खास बात यह होती है कि इसमें बुआई से लेकर आखिरी सिंचाई तक उर्वरकों और पेस्टिसाइट व फर्टिसाइड का इस्तेमाल किया जाता है। तभी आपको अधिक उत्पादन मिल सकता है।

बुआई के समय करें ये उपाय

गेहूं की अच्छी फसल लेने के लिए किसान भाइयों को सबसे पहले तो अपनी भूमि का परीक्षण कराना चाहिये, मृदा परीक्षण या सॉइल टेस्टिंग भी कहा जाता है। 

परीक्षण के उपरांत कृषि विशेषज्ञों से राय लेकर खेत तैयार करने चाहिये और उनके द्वारा बताई गई विधि से ही खेती करेंगे तो आपको अधिक से अधिक पैदावार मिलेगी।  

क्योंकि फसल की पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है। गेहूं की खेती में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद के अलावा फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी प्रयोग करना होता है।  

कौन सी खाद कब इस्तेमाल की जाती है, आइये जानते हैं:-

  1. गेहूं की फसल के लिए बुआई से पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार किया जाता है। इसके लिए सबसे पहले 35 से 40 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर खेत में डालना चाहिये। इसके साथ ही 50 किलोग्राम नीम की खली और 50किलो अरंडी की खली को भी मिला लेना चाहिये। पहले इन सभी खादों के मिश्रण को खेत में बिखेर दें और उसके बाद खेत की जमकर जुताई करनी चाहिये।
  2. किसान भाई गेहूं की अच्छी फसल के लिए अगैती फसल में बुआई के समय 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिये। गेहूं की पछैती फसल के लिए बुआई के समय 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश गोबर की खाद, नीम व अरंडी की खली के बाद डालना चाहिये।
  3. इसमें नाइट्रोजन की आधी मात्रा को बचा कर रख लेना चाहिये जो बाद में पहली व दूसरी सिंचाई के समय डालना चाहिये।

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पहली सिंचाई के समय

बुआई के बाद पहली सिंचाई लगभग 20 से 25 दिन पर की जाती है। गेहूं की खेती में खाद की मात्रा की बात करें तो उस समय किसान भाइयों को गेहूं की फसल के लिए 40 से 45 किलोग्राम यूरिया, 33 प्रतिशत वाला जिंक 5 किलो, या 21 प्रतिशत वाला जिंक 10 किलो, सल्फर 3 किलो का मिश्रण डालना चाहिये। इसके अलावा नैनोजिक एक्सट्रूड जैसे जायद का भी प्रयोग करना चाहिये।

दूसरी सिंचाई के समय

गेहूं की खेती में दूसरी सिंचाई बुआई के 40 से 50 दिन बाद की जानी चाहिये। उस समय भी आपको 40 से 45 किलोग्राम यूरिया डालनी होगी ।

इसके साथ थायनाफेनाइट मिथाइल 70 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़, मारबीन डाजिम 12 प्रतिशत, मैनकोजेब 63 प्रतिशत डब्ल्यूपी 500 ग्राम प्रति एकड़ से मिलाकर डालनी चाहिये।

उर्वरकों का इस्तेमाल का फैसला ऐसे करें

मुख्यत: गेहूं की फसल में दो बार सिंचाई के बाद ही उर्वरकों का मिश्रण डालने का प्रावधान है लेकिन उसके बाद किसान भाइयों को अपने खेत व फसल की निगरानी करनी चाहिये। 

इसके अलावा भूमि परीक्षण के बाद कृषि विशेषज्ञों की राय के अनुसार उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिये। यदि भूमि परीक्षण नहीं कराया है तो आपको अपने खेत की निगरानी अपने स्तर से करनी चाहिये और स्वयं के अनुभव के आधार पर या अनुभवी किसानों से राय लेकर फसल की जरूरत के हिसाब से उर्वरक, फर्टिसाइड व पेस्टीसाइड का इस्तेमाल करना चाहिये।

हल्की फसल हो तो क्या करें

विशेषज्ञों के अनुसार दूसरी सिंचाई के बाद देखें कि आपकी फसल हल्की हो तो आप अपने खेतों में माइकोर हाइजल दो किलो प्रति एकड़ के हिसाब से डालें। 

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय एनपीके का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें अलग से पोटाश डालने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एनपीके में 12 प्रतिशत नाइट्रोजन और 32 प्रतिशत फास्फोरस होता है और 16प्रतिशत पोटाश होता है।

डीएपी का इस्तेमाल करने वाले  क्या करें

जिन किसान भाइयों ने बुआई के समय डीएपी खाद का इस्तेमाल किया हो तो उन्हें पहली सिंचाई के बाद ही 15 से 20 किलो म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से डालना चाहिये।

क्योंकि डीएपी  में 18 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है और 46 प्रतिशत फास्फोरस होता है और पोटाश बिलकुल नहीं होता है।

प्रत्येक सिंचाई के बाद खेत को परखें

गेहूं की फसल में 5-6 बार सिंचाई करने का प्रावधान है। किसान भाइयों को चाहिये कि वो कुदरती बरसात को देख कर और खेत की नमी की अवस्था को देखकर ही सिंचाई का फैसला करें। 

यदि प्रति सिंचाई के बाद यूरिया की खाद डाली जाये तो आपकी फसल में रिकार्ड पैदावार हो सकती है। यूरिया के साथ फसल की जरूरत के हिसाब से फर्टिसाइड और पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल करना चाहिये। 

पहली दो सिंचाई के बाद तीसरी सिंचाई 60 से 70 दिन बाद की जाती है। चौथी सिंचाई 80 से 90 दिन बाद उस समय की जाती है जब पौधों में फूल आने को होते हैं। पांचवीं सिंचाई 100 से 120 दिन बाद करनी चाहिये। 

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खाद सिंचाई से पहले या बाद में डाली जाए?

  1. किसान भाइयों के समक्ष यह गंभीर समस्या है कि गेहूं की खेती में खाद की मात्रा कितनी डालनी चाहिये? हालांकि खाद डालने का प्रावधान सिंचाई के बाद ही का है लेकिन कुछ किसान भाइयों को यह शिकायत होती है कि सिंचाई के बाद खेत की मिट्टी दलदली हो जाती है, जहां खेत में घुसने में पैर धंसते हैं और उससे पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंच सकता है। ऐसी स्थिति में किसान भाइयों को परिस्थिति देखकर स्वयं फैसला लेना होगा।
  2. यदि भूमि अधिक दलदली है और सिंचाई के बाद पैर धंस रहे हैं तो आपको खेत के पानी को सूखने का इंतजार करना चाहिये लेकिन पर्याप्त नमी होनी चाहिये तभी खाद डालें। इसके लिए आप सिंचाई से अधिक से अधिक दो दिन के बाद खाद अवश्य डाल देनी चाहिये। यदि यह भी संभव न हो पाये तो इस तरह की भूमि में सिंचाई से 24 घंटे पहले खाद डालनी चाहिये लेकिन ध्यान रहे कि 24 घंटे में सिंचाई अवश्य ही हो जानी चाहिये। तभी खाद आपको लाभ देगी अन्यथा नहीं।
  3. यदि आपके खेत की भूमि बलुई या रेतीली है, जहां पानी तत्काल सूख जाता है और आप खेत में आसानी से जा सकते हैं तो आपको सिंचाई के तत्काल बाद गेहूं की खेती में खाद की मात्रा डालनी चाहिये। ऐसे खेतों में अधिक से अधिक सिंचाई के 24 घंटे के भीतर खाद डालनी चाहिये।