अलसी तिलहन फसल है और आजकल यह बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। इसकी वजह है, इसमें ओमेगा फैटी एसिड का पाया जाना, अलसी के तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है। इसमें पोषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है।
इसकी खेती के लिए ठंडे व शुष्क जलवायु की जरूरत है, यह असल में रबी फसल है। इसके उचित अंकुरण हेतु 25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए।
जमीन:
इसकी खेती के लिये काली भारी एवं दोमट (मटियार) मिट्टी सही है, अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये, दो से तीन बार हैरो चलाना आवश्यक है, जिससे नमी संरक्षित रह सके।
अलसी के बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।
बेहतर उत्पादन के लिए इसे 2 सिंचाई की आवश्यकता होती है, पहली सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं दूसरी सिंचाई फल आने से पहले करनी चाहिये। विभिन्न प्रकार के रोग जैसे गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा आल्टरनेरिया अंगमारी एवं कीट यथा फली मक्खी, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली चने की इल्ली द्वारा भारी क्षति पहुचाई जाती है। इसके लिए उचित प्रबंधन किए जाने की जरूरत है।
अलसी की जब पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सर्वोत्तम है।
भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों की रोकथाम करने के लिए बयोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा. सड़ी हुए गोबर की खाद में मिश्रित कर हल्के जल का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के पश्चात बुआई से पूर्व अंतिम जुताई पर जमीन में मिला देने से अलसी के बीज / भूमि जनित रोगों के प्रबंधन में मददगार होता है।
अलसी की बिजाई किस वक्त और किस प्रकार करें
आपकी जानकारी के लिए बतादें कि असिंचित इलाकों में अक्टूबर के पहले पखवाडे़ में और सिचिंत इलाकों में नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करनी चाहिए । साथ ही, उतेरा खेती हेतु धान कटाई के 7 दिन पहले बिजाई की जानी चाहिये। बतादें, कि जल्दी बिजाई करने की स्थिति में अलसी की फसल को फली मक्खी और पाउडरी मिल्डयू इत्यादि से संरक्षित किया जा सकता है।
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दूरी : बीज उद्देशीय किस्मों के लिए 25 सेमी. कूंड से कूंड एवं द्विउद्देशीय किस्मों के लिए 20 सेमी. कूंड से कूंड |
अलसी की खेती के लिए बीजशोधन
आपको बतादें, कि अलसी की फसल में झुलसा और उकठा आदि का प्रकोप शुरू में बीज या भूमि अथवा दोनों से होता है, जिनसे बीज को बचाने के लिए 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम से प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचार करके बिजाई करनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल किस प्रकार करें
असिंचित इलाकों में अच्छी पैदावार प्राप्त करने हेतु नत्रजन 50 किग्रा. फास्फोरस 40 किग्रा. और 40 किग्रा. पोटाश की दर से वहीं सिंचित इलाकों में 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस एवं 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें। असिंचित दशा में नत्रजन व फास्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा और सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की भरपूर मात्रा बुआई के दौरान चोगें द्वारा 2-3 सेमी. नीचे इस्तेमाल करें। सिंचित दशा में नत्रजन की शेष आधी मात्रा आप ड्रेसिंग के तौर पर प्रथम सिंचाई के उपरांत उपयोग करें | फास्फोरस के लिए सुपर फास्फेट का इस्तेमाल काफी ज्यादा फायदेमंद है।
अलसी की खेती हेतु सिंचाई की आपूर्ति
अलसी की फसल सामन्यतः असिंचित रूप में बोई जाती है। लेकिन, जहाँ सिंचाई का पर्याप्त साधन मौजूद है, वहाँ दो सिंचाई प्रथम फूल आने पर और दूसरी दाना बनने के दौरान करने से उत्पादन में वृद्धि होती है |
अलसी में खतपतवार की रोकथाम किस प्रकार की जाए
अगर हम अलसी में खरपतवार की बात करें तो चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी, बथुआ, सेंजी, कुष्णनील और हिरनखुरी आदि प्रकार के खरपतवार देखे गए हैं। इन खरपतवारों की रोकथाम करने के लिए किसान यह उपाय करें |
खरपतवार की रोकथाम हेतु उपचार
खरपतवार की रोकथाम के लिए प्रबंधन हेतु वुवाई के 20 से 25 दिन उपरांत पहली निदाई-गुड़ाई और 40-45 दिन उपरांत दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। अलसी की फसल के अंतर्गत रासायनिक विधि द्वारा खरपतवार प्रबंधन के लिए पेंडीमेथलीन 30 फीसदी ई.सी. की 3.30 लीटर प्रति हेक्टेयर 800-1000 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नाजिल से बिजाई के 2-3 दिन के भीतर समान तौर पर छिडकाव करें।
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अलसी की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग :
अंगमारी (आल्टरनेरिया)
इस रोग से अलसी के पौधे का समस्त वायुवीय भाग प्रभावित होता है परंतु सर्वाधिक संक्रमण पुष्प एवं पत्तियों पर दिखाई देता है। फूलों की पंखुडियों के निचले हिस्सों में गहरे भूरे रंग के लम्बवत धब्बे दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण में धब्बे बढ़कर फूल के अन्दर तक पहुँच जाते हैँ जिसके कारण फूल निकलने से पहले ही सूख जाते हैं। इस प्रकार रोगी फूलों में दाने नहीं बनते हैँ । उन्नत जातियों की बुआई करें। अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्लू.एस. 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए | अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा एंव गेरुई रोग के नियंत्रण हेतु मैकोजेब 75 डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 600-750 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए।
बुकनी रोग
इस रोग में पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई पड़ता है, जिससे बाद में पत्तियां सूख जाती हैं। बुकनी रोग की रोकथाम करने के लिए घुलनशील गंधक 80 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.50 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तकरीबन 600-750 लीटर जल में मिश्रण कर छिडकाव करना चाहिए।
गेरुआ (रस्ट) रोग
यह रोग मेलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद के कारण होता है। रोग का संक्रमण शुरू होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फोट पत्तियों के दोनों ओर निर्मित होते हैं। आहिस्ते-आहिस्ते यह पौधे के समस्त हिस्सों में फैल जाते हैं। रोग की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्में लगाना चाहिए। रसायनिक ओषधियों के तौर पर टेबूकोनाजोल 2 प्रतिशत 1 ली. प्रति हेक्टे. की दर से या ;केप्टाऩ हेक्साकोनाजालद्ध का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी में मिश्रण कर छिड़काव करना चाहिए।
उकठा (विल्ट) रोग
यह अलसी का प्रमुख हानिकारक मृदा जनित रोग होता है। इस रोग का असर अंकुरण से लगाकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की तरफ मुड़कर मुरझा जाते हैं। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पडे़ फसल अवशेषों की वजह से होता है। इसके रोगजनक मृदा में मौजूद फसल अवशेष मृदा में मौजूद रहते हैं। अनुकूल वातावरण में पौधो पर संक्रमण करते हैं। इसलिए उन्नत प्रजातियों को लगाऐं। उकठा रोग की रोकथाम करने के लिए ट्राईकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत / ट्राईकोडरमा हरजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 4.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए।
चूर्णिल आसिता (भभूतिया रोग)
इस रोग के प्रकोप की स्थिति में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा इकठ्ठा हो जाता है। रोग की तीव्रता ज्यादा होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते हैं। साथ ही, विलंभ से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन बारिश होने तथा अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने की स्थिति में इस रोग का संक्रमण बढ़ जाता है। इसलिए उन्नत प्रजातियों की ही बिजाई करें। कवकनाशी के तौर पर थायोफिनाईल मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 300 ग्राम प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करना चाहिए।
अलसी की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट
फली मक्खी
पारदर्शी पंख वाली यह फली मक्खी प्रौढ़ आकार में लघु एवं नारंगी रंग की होती है। साथ ही, इसकी इल्ली ही फसलों को क्षतिग्रस्त करती हैं। बतादें, कि इल्ली अण्डाशय को खा जाती हैं, जिसकी वजह से कैप्सूल और बीज नहीं बन पाते हैं। मादा कीट 1 से लेकर करीब 10 अंडे तक पंखुड़ियों के निचले भाग में रखती हैं। जिससे इल्ली निकल कर फली के अंदर जनन अंगों मुख्यतः अण्डाशयों को खा जाती है। इसके चलते फली फूल के तौर पर विकसित नहीं हो पाती है तथा कैप्सूल एवं बीज भी निर्मित नहीं हो पाता है। यह अलसी को सबसे ज्यादा हानि पहुँचाने वाला कीट है, जिसकी वजह से उत्पादन में 60-85 प्रतिशत तक नुकसान होता है। इसकी रोकथाम करने के लिए ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 100 मिली./ हेक्ट. की दर से 500-600 ली. पानी में मिश्रण कर छिड़काव करें।
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अलसी की इल्ली प्रौढ़ कीट
यह मध्यम आकार के गहरे भूरे रंग अथवा धूसर रंग का होता है, जिसके आगे के पंख गहरे धूसर रंग के पीले धब्बे नुमा होते हैं। पिछले पंख सफेद, चमकीले, अर्धपारदर्शक और बाहरी सतह धूसर रंग की होती है। इल्ली लंबी भूरे रंग की होती है। जो कि तने के उपरी हिस्से में पत्तियों से चिपककर पत्तियों के बाहरी हिस्से को खाती है। इस कीट से ग्रसित पौधों का विकास बाधित हो जाता है।
अर्ध कुण्डलक इल्ली
आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस कीट के प्रौढ़ शलभ के अगले पंख पर सुनहरे धब्बे विघमान रहते हैं। इल्ली हरे रंग की होती है, जो कि शुरुआत में मुलायम पत्तियों और फलियों के विकास होने पर फलियों को खाकर क्षति पहुँचाती है।
चने की इल्ली
इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग का होता है, जिनके अगले पंखों पर सेम के बीज के आकार जैसे काले धब्बे मौजूद होते हैं। इल्लियों के रंग में विविधता मौजूद होती है। क्योंकि यह नारंगी, गुलाबी, पीले, हरे, भूरे या काले रंग की होती है। शरीर के पार्श्व भागों पर हल्की एवं गहरी धारियां होती हैं। छोटी इल्ली पौधों के हरे भाग को खुरचकर खाती हैं। तो वहीं बड़ी इल्ली फूलों एवं फलियों को क्षति पहुँचाती हैं।
बालदार सुंडी
जानकारी के लिए बतादें, कि सुंडी काले रंग की होती है और पूरा शरीर बालों से ढका हुआ रहता है। सुंडियां शुरुआत में झुण्ड में रह कर पत्तियों को खाती हैं। उसके पश्चात वह पुरे खेत में फैल कर पत्तियों को खाती हैं। बतादें, कि तीव्र प्रकोप की स्थिति में पूरा पौधा पत्ती विहीन हो जाता है। बालदार सुंडी की रोकथाम करने के लिए मैलाथियान 5 प्रतिशत डी.पी. की 20-25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बुरकाव अथवा मैलाथियान 50 प्रतिशत ई.सी. की 1.50 लीटर अथवा डाईक्लोरोवास 76 प्रतिशत ई.सी. की 500 मिली. मात्रा अथवा क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से तकरीबन 600-750 लीटर जल में मिश्रण करके छिडकाव करना चाहिए।
गालमिज
गालमिज कीट का मैगट फसल की खिलती कलियों के भीतर पुंकेसर को खाकर हानि पहुँचाता है, जिससे फलियों में दाने ही नहीं बन पाते हैं। गालमिज की रोकथाम करने के लिए आँक्सीडेमेटान-मिथाइल 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.00 लीटर या मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस.एल. की 600-750 लीटर जल में घोलकर प्रति हे. छिडकाव किया जाना चाहिए।
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अलसी की फसल का भण्डारण कटाई और गहाई
जब फसल की पत्तियों का सूखना शुरू होने लगे जाए, केप्सूल भूरे रंग के हो जाए एवं बीज चमकदार बन जाने की स्थिति में फसल की कटाई करनी चाहिए। बीज में 70 फीसद तक सापेक्ष आद्रता और 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सबसे अच्छी होती है।
सूखे तने से रेशा किस प्रकार अर्जित किया जाता है
हाथ से रेशा निकालने की विधि बेहतर ढ़ंग से सूखे सड़े तने की लकड़ी की मुंगरी से पीटिए-कूटिए। इस तरह तने की लकड़ी टूटकर भूसा हो जाएगी, जिसे झाड़कर व साफ कर रेशा सहजता से अर्जित किया जा सकता है।
यांत्रिकी यानी मशीन द्वारा अलसी से रेशा किस प्रकार निकालें
सूखे व सडे़ तने के लघु-लघु बण्डल बनाकर मशीन के ग्राही सतह पर रख कर मशीन चलाते हैं। इस तरह मशीन से दबे/पिसे तने मशीन की दूसरी ओर से बाहर निकलते रहते हैं। मशीन से बाहर निकले हुए दबे/पिसे तने को हिलाकर एवं साफ कर रेशा प्राप्त कर लेते हैं। यदि तने की पिसी लकड़ी एक बार में ही पूर्णतय रेशे से भिन्न न हो तो पुनः उसको मशीन में लगाकर तने की लकड़ी को पूर्णतय अलग कर लें।
अलसी के लिए सामान्य पीएच मान वाली भूमि अनुकूल मानी जाती है। अलसी की खेती को ठंडी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अलसी की खेती भारत में ज्यादातर रबी सीजन में की जाती है। इस दौरान वार्षिक वर्षा 50 से 55 सेटीमीटर के बीच होती है। वहां, अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के बेहतर अंकुरण के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान और बीज बनने के दौरान तापमान 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। अलसी को परिपक्व अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी और शुष्क वातावरण की जरूरत होती है। मतलब कि इसकी खेती के लिए सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है।
अलसी की बिजाई कब की जाती है
किसान भाइयों को यह मशवरा दिया जाता है, कि वे अलसी के बीजों की बिजाई के लिए सिंचित जगहों पर नवंबर एवं असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे में बिजाई करें। इसके अतिरिक्त उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बिजाई की जानी चाहिये। बतादें, कि उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले इलाकों में प्रचलित है। धान की खेती में नमी का सदुपयोग करने के उद्देश्य से धान के खेत में अलसी बोई जाती है। उतेरा पद्धति में धान फसल कटाई के 7 दिन पूर्व ही खेत में अलसी के बीज को छटक दिया जाता है। इससे धान की कटाई से पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। इससे यह लाभ होता है, कि संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार होती है। जल्दी बिजाई करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी और पाउडरी मिल्डयू इत्यादि से बचाया जा सकता है।
अलसी की उन्नत किस्में कृषि अनुसंधान द्वारा विकसित की जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों के लिए और सिंचित क्षेत्रों के लिए असली की प्रजातियों को दो हिस्सों में विभाजित किया है, जिन्हें अधिक उत्पादन और जलवायु के अनुरूप उगाया जाता है। सिंचित इलाकों के लिये- सुयोग, जे एल एस- 23, पूसा- 2, पी के डी एल- 41, टी- 397 इत्यादि प्रमुख किस्म हैं। इन किस्मों को सिंचित क्षेत्रों के लिए विकसित किया है। इन किस्मों को तकरीबन दोनों ही क्षेत्रों में उगा सकते हैं। वहीं, इनके उत्पादन की बात करें, तो 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो सकती है।
असिंचित इलाकों के लिये - शीतल, रश्मि, भारदा, इंदिरा अलसी- 32, जे एल एस- 67, जे एल एस- 66, जे एल एस- 73 इत्यादि प्रमुख किस्में है। इन किस्मों को असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए तैयार किया गया है। इन किस्मों में लगने वाले पौधों की लम्बाई औसतन 2 फीट तक होती है। साथ ही, पैदावार 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हो सकती है।
उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त भी अलसी की बहुत सारी अन्य उन्नत किस्में भी हैं। जैसे - पी के डी एल 42, जवाहर अलसी दृ 552, जे. एल. एस. - 27, एलजी 185, जे. एल. एस. - 67, पी के डी एल 41, जवाहर अलसी - 7, आर एल - 933, आर एल 914, जवाहर 23, पूसा 2 इत्यादि।
कैसे करें बीजोपचार ?
अलसी के बिजाई दो तरह से की जाती है। पहले ड्रिल विधि के माध्यम से और दूसरी उतेरा (छिडककर) पद्धति से बीजों की बुवाई की जा सकती है। ड्रिल विधि के माध्यम से अलसी की बुवाई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता होती है। इस विधि में कतार से कतार के मध्य का फासला 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिये। बीज को जमीन में 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिये। उतेरा पद्वति के लिये 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर अलसी की बुआई के लिए अच्छी मानी जाती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा या ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बिजाई करनी चाहिए।
अलसी की खेती में बीज के अंकुरण एवं उचित फसल बढ़ोतरी के लिए जरूरी है, कि बुआई से पहले खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लिया जाए। फसल कटाई के उपरांत खेत में 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गली गोबर की खाद का छिडक़ाव कर मृदा पलटने वाले देशी हल अथवा हैरो से 2 से 3 बार जुताई कर गोबर की खाद को मिलाकर जमीन तैयार करनी चाहिए। इसके उपरांत पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए, जिससे कि जमीन में नमी बरकरार बनी रहे।
खाद किस तरह से डालें
बतादें, कि अलसी की खेती के लिए भूमि की तैयारी के दौरान 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद अंतिम जुताई में मृदा में बेहतर ढंग से मिलाकर करें। इसके साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
असिंचित इलाकों के लिए बेहतरीन पैदावार पाने हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. और 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से प्रयोग करें। असिंचित स्थिति में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें। सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में पहली सिंचाई के पश्चात करें।
किसान अपनी अलसी की फसल में लगने वाले रोग और कीटों कैसे संरक्षण करें
अलसी की खेती में अल्टरनेरिया झुलसा, रतुआ अथवा गेरुई, उकठा और बुकनी रोग लगता है। इन रोगों की रोकथाम के लिए फसल में मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 40 से 50 दिन बुवाई के बाद छिडकाव करें। हर 15 दिन के समयांतराल पर छिडकाव करते रहना चाहिए, जिससे की रोग न लग सके। रतुआ अथवा गेरुई और बुकनी रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।
ये भी पढ़ें: रोग व कीटों से जुड़ी समस्त समस्याओं के हल हेतु हेल्पलाइन नंबर जारी हुआकीट प्रकोप - अलसी की फसल में फली मक्खी, इल्ली इत्यादि विभिन्न प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है। इसके प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग के छोटी मक्खी जैसे होते हैं। ये कीट अपने अंडे फूलो की पंखुडियों में देते है, जिससे पौधे में फूलों से बीज नहीं बन पाते हैं। यह कीट उत्पादन को 70 फीसद तक प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी, 750 मिलीलीटर या क्युनालफास 1.5 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।
अलसी का तेल कितनी चीजों में उपयोग किया जाता है
अलसी भारत की महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसलों में से एक है। भारत में अलसी की फसल का व्यापारिक उद्देश्य से उत्पादन किया जाता है। इसकी खेती रेशेदार फसल के तौर पर की जाती है। अलसी के बीजो में तेल की मात्रा काफी ज्यादा विघमान होती है। परंतु, इसके तेल का इस्तेमाल खाने में न करके दवाइयों को निर्मित करने में किया जाता है। इसके तेल को वार्निश, स्नेहक, पेंट्स को तैयार करने के अलावा प्रिंटिंग प्रेस के लिए स्याही एवं इंक पैड को तैयार करने में किया जाता है। म.प्र. के बुन्देलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में, साबुन बनाने और दीपक जलाने में किया जाता है। अलसी का बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। साथ ही, रेशे से लिनेन भी निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। वहींं, खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होने की वजह से इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है।
अलसी का सेवन करने से बहुत सारी बीमारियों में फायदा मिलता है
अलसी का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद होता है। इसके बीज एवं इसका तेल बहुत सारी बीमारियों की रोकथाम में फायदेमंद है। अलसी विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। इसमें लगभग 33 से 45 प्रतिशत तेल और 24 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन होता है, यह एक चमत्कारी आहार है। इसमें दो आवश्यक फैटी एसिड पाए जाते हैं, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड और लिनोलेनिक एसिड। अलसी के नियमित सेवन किया जाए तो कई प्रकार के रोगों जैसे कैंसर, टी.बी., हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कब्ज, जोड़ों का दर्द आदि कई रोगों से बचा जा सकता है। यह हमारे शरीर में अच्छे कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को बढ़ाता है और ट्राइग्लिसराइड कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करने में सहायक होता है। यह हमारे हृदय की धमनियों में खून के थक्के बनाने से रोकता है और हृदय घात व स्ट्रोक जैसी बीमारियों से भी हमारा बचाव करता है। यह एंटीबैक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीफंगल, एंटीऑक्सीडेंट तथा कैंसर रोधी है। अलसी में तकरीबन 28 फीसद रेशा होता है और यह कब्ज के रोगियों के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है।
फसल कटाई के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें
अलसी की फसल बिजाई के करीब 100 से 120 दिनों पश्चात तैयारी हो जाती है। जब अलसी की फसल पूरी तरह से सूखकर पक जाए तभी इसकी कटाई करनी चाहिए। फसल की कटाई के शीघ्र बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए। इससे इसके बीजों को कोई ज्यादा हानि नहीं होगी। अलसी की फसल की उपरोक्त विधि से खेती करने पर भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन भिन्न भिन्न होता है। प्रथम बीज उद्देशीय सिंचित दशा में 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और असिंचित दशा में 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और दो-उद्देशीय संचित और असिंचित दशा में 20 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 13 से 17 प्रतिशत तेल व 38 से 45 प्रतिशत तक रेशा अर्जित किया सकता है।