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पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण सलाह

पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण सलाह

भारत के अधिकांश किसान खेती-किसानी के साथ-साथ पशुपालन कर दुग्ध उत्पादन से भी अच्छी आय करते हैं। लेकिन, ऐसे भी किसान हैं, जिनकी आजीविका ही पशुपालन से चलती है। वर्तमान में रबी की फसलों की कटाई का समय चल रहा है। 

किसान अब जायद की फसलों की बुवाई की तैयारी में जुटेंगे। अब ऐसे में आज हम पशुपालन करने वाले किसानों को गर्मी के समय पशुओं के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 

पशुपालक अपने पशु को दिन में कम से कम तीन बार पीने के लिए साफ पानी दें। साथ ही, हरा चारा आहार स्वरूप अधिक खिलाएं। इसके लिए \ मूंग मक्का या अन्य हरे चारे की बुआई कर दें।

गर्मियों में पशुओं की देखभाल क्यों जरूरी ?

गर्मी के बढ़ने से मनुष्यों के साथ-साथ पशु पक्षियों को भी काफी दिक्कत होती है। इसलिए, किसान भाइयों को अपने दुधारू पशुओं की सही से देखभाल करने की आवश्यकता है। 

ऐसे मौसम में अपने पशुओं की उचित देखरेख नहीं करने से सूखा चारा खाने की मात्रा दस से 30 फीसद और दूध उत्पादन में दस फीसद तक की कमी हो सकती है। इस पर विशेष ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है। 

आहार को लेकर विशेषज्ञों की महत्वपूर्ण सलाह 

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, गर्मी के मौसम में दुग्ध उत्पादन और पशु की शारीरिक क्षमता बनाए रखने के लिए पशुओं में आहार का महत्वपूर्ण योगदान है। गर्मी के मौसम में पशुओं को हरे-चारे की ज्यादा मात्रा देनी चाहिए। 

पशु हरे-चारे को बड़े ही चाव से खाते हैं। इसके साथ ही इससे 70 से 90 फीसद तक पानी की मात्रा होने से शरीर में जल की पूर्ति करता है। गर्मी के मौसम में हरे चारे का अत्यंत अभाव रहता है। 

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इसके लिए किसानों को मार्च या शुरू अप्रैल माह में ही मूंग, मक्का या अन्य हरे चारे की बुआई कर दें। इससे गर्मी में भी पशुओं को हरा चारा मिलता रहे।

पशुपालकों के लिए पशुओं के आवास हेतु सलाह  

पशुपालकों को अपने पशुओं को गर्मी से बचाने के लिए छांव में रखने की आवश्यकता है। इससे पशुओं पर गर्म हवाओं का सीधा प्रभाव नहीं पड़ेगा। रात्री के दौरान पशुओं को खुले में ही रखें। 

अगर पशुओं के आवास की छत एस्बेस्टस या कंक्रीट की है तो उसके ऊपर चार से छह इंच मोटी घास- फूस रख दें। इससे पशुओं को गर्मी से निजात मिलती है। 

इसके साथ ही पशुओं को तीन से चार बार ताजा एवं स्वच्छ पानी जरूरी पिलाएं। इससे पशुओं के स्वास्थ्य पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ेगा। साथ ही, किसी भी प्रकार की बीमारी होने पर शीघ्र डॉक्टर से सलाह लें।

चारे की कमी को दूर करने के लिए लोबिया की खेती की महत्वपूर्ण जानकारी

चारे की कमी को दूर करने के लिए लोबिया की खेती की महत्वपूर्ण जानकारी

खरीफ फसलों की बुवाई का समय चल रहा है। अब ऐसे में लोबिया की खेती लघु कृषकों के लिए एक वरदान सिद्ध हो सकती है। 

भारत में लघु और सीमांत कृषकों की संख्या काफी ज्यादा है, जिनके पास काफी कम भूमि है। ऐसे कृषकों के लिए लोबिया की खेती काफी फायदेमंद साबित हो सकती है। 

लोबिया एक दलहनी फसल की श्रेणी में आने वाली एक फसल है। इसकी खेती खरीफ और जायद दोनों ही सीजन में की जा सकती है। 

इसकी खेती करने से कृषकों को दो तरह के फायदे हो सकते हैं। एक तो किसान इसे सब्जी के तोर पर प्रयोग कर सकते हैं और दूसरा इसे पशुओं के चारे में इस्तेमाल किया जा सकता है।

लोबिया से आप क्या समझते हैं ?

लोबिया एक ऐसी फली होती है, जो कि तिलहन की श्रेणी के अंतर्गत आती है। इसको बोड़ा, चौला या चौरा के नाम से भी जाना जाता है और इसका पौधा सफेद रंग का और काफी बड़ा होता है। 

लोबिया की फलियां पतली और लंबी होती हैं। साथ ही, इसका उपयोग सब्जी निर्मित करने और पशुओं के चारे के लिए किया जाता है। 

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु           

लोबिया की खेती करने के लिए गर्म व आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। बतादें, कि इसकी खेती करने लिए 24-27 डिग्री के बीच के तापमान की जरुरत होती है। 

अत्यधिक कम तापमान होने पर इसकी फसल पूर्णतय नष्ट हो सकती है। इसलिए लोबिया की फसल को अधिक ठंड से बचाना चाहिए। 

लोबिया की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लोबिया की खेती हर प्रकार की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है। मगर एक बात का खास ध्यान रखें कि इसके लिए छारीय मृदा नहीं होनी चाहिए।

लोबिया की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं 

दरअसल, लोबिया की कई उन्नत किस्में हैं, जो कि बहुत अच्छा उत्पादन देती हैं। जैसे - सी- 152, पूसा फाल्गुनी, अम्बा (वी- 16), स्वर्णा (वी- 38), जी सी- 3, पूसा सम्पदा (वी- 585) और श्रेष्ठा (वी- 37) आदि प्रमुख किस्में हैं। 

लोबिया की बुवाई के लिए उपयुक्त समय

अगर हम लोबिया की बुवाई के विषय में बात करें, तो बरसात के मौसम में जून महीने के अंत तक इसकी बुवाई की जाती है। वहीं, इसकी फरवरी से लेकर मार्च माह तक बुवाई की जाती है।

लोबिया की बुवाई करने के लिए बीज की मात्रा

लोबिया की बुवाई करते समय यह ध्यान रखना विशेष जरूरी है, कि उसकी मात्रा ज्यादा न हो। इसकी बुवाई के लिए सामान्यत: 12-20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर की दर से पर्याप्त माना जाता है। 

इसकी बेल वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा थोड़ी कम लगती है। साथ ही, मौसम के हिसाब से बीज की मात्रा का निर्धारण किया जाना चाहिए।

लोबिया की बुवाई करने का उत्तम तरीका क्या है ?

लोबिया की बुवाई करने के दौरान इस बात का ध्यान रखना विशेष आवश्यक है, कि इसके बीज के बीच समुचित दूरी होनी जरूरी है। जिससे कि जब इसका पौधा उगे, तो वह ठीक ढ़ंग से विकास कर सके। 

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दरअसल, लोबिया की बुवाई करते वक्त उसकी किस्म के अनुरूप फासला रखा जाता है। जैसे- झाड़ीदार किस्मों के बीज के लिए एक कतार से दूसरी कतार की दूरी 45-60 सेमी होनी चाहिए। 

बीज से बीज का फासला 10 सेमी तक होना चाहिए। वहीं, इसकी बेलदार किस्मों के लिए लाइन से लाइन का फासला 80-90 सेमी रखना सही होता है। 

लोबिया में खाद की मात्रा की जानकारी  

लोबिया की खेती करने के लिए खाद की बड़ी महत्ता होती है। ऐसे ही लोबिया की खेती करने के लिए खाद अत्यंत आवश्यक है। लोबिया की फसल उगने से कुछ इस तरह से खाद डालनी चाहिए। 

एक महीने पहले खेत में 20-25 टनगोबर या कम्पोस्ट डालें, 20 किग्रा नाइट्रोजन, फास्फोरस 60 कि.ग्रा. तथा पोटाश 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में जुलाई के अंत में ही डाल दें। साथ ही, नाइट्रोजन की 20 कि.ग्रा. की मात्रा फसल में फूल आने के दौरान देनी चाहिए।

लोबिया की खेती में सिंचाई प्रबंधन 

लोबिया की फसल को खरीफ के सीजन में सिंचाई की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसलिए खरीफ के सीजन में उतना ही पानी देना चाहिए, जिससे कि मृदा में नमी बरकरार बनी रहे। 

वहीं, गर्मी की फसल की बात करें तो सामान्यतः किसी भी फसल में पानी की अधिक आवश्यकता होती है। यदि लोबिया की बात करें, तो इसमें 5 से 6 पानी की आवश्यकता पड़ती है। 

बन्नी नस्ल की भैंस देती है 15 लीटर दूध, जानिए इसके बारे में

बन्नी नस्ल की भैंस देती है 15 लीटर दूध, जानिए इसके बारे में

बन्नी भैंस पाकिस्तान के सिंध प्रान्त की किस्म है, जो भारत में गुजरात प्रांत में दुग्ध उत्पादन के लिए मुख्य रूप से पाली जाती है। बन्नी भैंस का पालन गुजरात के सिंध प्रांत की जनजाति मालधारी करती है। जो दूध की पैदावार के लिए इस जनजाति की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। बन्नी नस्ल की भैंस गुजरात राज्य के अंदर पाई जाती है। गुजरात राज्य के कच्छ जनपद में ज्यादा पाई जाने की वजह से इसे कच्छी भी कहा जाता है। यदि हम इस भैंस के दूसरे नाम ‘बन्नी’ के विषय में बात करें तो यह गुजरात राज्य के कच्छ जनपद की एक चरवाहा जनजाति के नाम पर है। इस जनजाति को मालधारी जनजाति के नाम से भी जाना जाता है। यह भैंस इस समुदाय की रीढ़ भी कही जाती है।

भारत सरकार ने 2010 में इसे भैंसों की ग्यारहवीं अलग नस्ल का दर्जा हांसिल हुआ

बाजार में इस भैंस की कीमत 50 हजार से लेकर 1 लाख रुपये तक है। यदि इस भैंस की उत्पत्ति की बात की जाए तो यह भैंस पाकिस्तान के सिंध प्रान्त की नस्ल मानी जाती है। मालधारी नस्ल की यह भैंस विगत 500 सालों से इस प्रान्त की मालधारी जनजाति अथवा यहां शासन करने वाले लोगों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पशुधन के रूप में थी। पाकिस्तान में अब इस भूमि को बन्नी भूमि के नाम से जाना जाता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि भारत के अंदर साल 2010 में इसे भैंसों की ग्यारहवीं अलग नस्ल का दर्जा हांसिल हुआ था। इनकी शारीरिक विशेषताएं अथवा
दुग्ध उत्पादन की क्षमता भी बाकी भैंसों के मुकाबले में काफी अलग होती है। आप इस भैंस की पहचान कैसे करें।

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बन्नी भैंस की कितनी कीमत है

दूध उत्पादन क्षमता के लिए पशुपालकों में प्रसिद्ध बन्नी भैंस की ज्यादा कीमत के कारण भी बहुत सारे पशुपालक इसे खरीद नहीं पाते हैं। आपको बता दें एक बन्नी भैंस की कीमत 1 लाख रुपए से 3 लाख रुपए तक हो सकती है।

बन्नी भैंस की क्या खूबियां होती हैं

बन्नी भैंस का शरीर कॉम्पैक्ट, पच्चर आकार का होता है। इसके शरीर की लम्बाई 150 से 160 सेंटीमीटर तक हो होती है। इसकी पूंछ की लम्बाई 85 से 90 सेमी तक होती है। बतादें, कि नर बन्नी भैंसा का वजन 525-562 किलोग्राम तक होता है। मादा बन्नी भैंस का वजन लगभग 475-575 किलोग्राम तक होता है। यह भैंस काले रंग की होती है, लेकिन 5% तक भूरा रंग शामिल हो सकता है। निचले पैरों, माथे और पूंछ में सफ़ेद धब्बे होते हैं। बन्नी मादा भैंस के सींग ऊर्ध्वाधर दिशा में मुड़े हुए होते हैं। साथ ही कुछ प्रतिशत उलटे दोहरे गोलाई में होते हैं। नर बन्नी के सींग 70 प्रतिशत तक उल्टे एकल गोलाई में होते हैं। बन्नी भैंस औसतन 6000 लीटर वार्षिक दूध का उत्पादन करती है। वहीं, यह प्रतिदिन 10 से 18 लीटर दूध की पैदावार करती है। बन्नी भैंस साल में 290 से 295 दिनों तक दूध देती है।
अपने दुधारू पशुओं को पिलाएं सरसों का तेल, रहेंगे स्वस्थ व बढ़ेगी दूध देने की मात्रा

अपने दुधारू पशुओं को पिलाएं सरसों का तेल, रहेंगे स्वस्थ व बढ़ेगी दूध देने की मात्रा

पशुपालन या डेयरी व्यवसाय एक अच्छा व्यवसाय माना जाता है। पशुपालन करके लोग को अच्छा लाभ मिल रहा हैं। गाय भैंस के दूध से पनीर मक्खन आदि सामग्री बनती है, जिनका बाजार में काफी अच्छा पैसा मिलता है। कई बार आपके पशु बीमार हो जाते हैं, जिसके कारण उनमें दूध देने की क्षमता कम हो जाती है। आपका पशु स्वस्थ होगा तभी वह अच्छी मात्रा में दूध दे सकेगा। पशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए पशु के अच्छे आहार का होना जरूरी है।


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सरसों का तेल ऊर्जा बढ़ाने में सहायक

डॉक्टर के अनुसार, जब आपके पशु बीमार हो तो उन्हें सरसों का तेल पिलाना चाहिए। क्योंकि सरसों के तेल में वसा की मात्रा अधिक होती है  तथा वह उनके शरीर को पर्याप्त ऊर्जा व ताक़त प्रदान करती है‌।

पशुओं को कब देना चाहिए सरसों का तेल ?

गाय भैंस के बच्चे होने के बाद भी उन्हें सरसों का तेल पिलाया जा सकता है, जिससे कि उनके अंदर आई हुई कमजोरी को दूर किया जा सके। पशु चिकित्सकों के अनुसार, गर्मियों में पशुओं को सरसों का तेल पिलाना चाहिए, जिससे कि लू लगने की संभावना कम हो तथा उनमें लगातार ऊर्जा का संचार होता रहे। इसके अलावा, सर्दियों में भी पशुओं को सरसों का तेल पिलाया जा सकता है, जिससे कि उनके अंदर गर्मी बनी रहे।

पशुओं के दूध देने की बढ़ेगी क्षमता

सरसों का तेल पिलाने से पशुओं में पाचन प्रक्रिया दुरूश्त रहती है। इससे पशु को एक अच्छा आहार मिलता है। पशु का स्वास्थ्य सही रहता है तथा स्वस्थ दुधारू पशु, दूध भी अच्छी मात्रा में देते हैं।

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क्या पशुओं को रोज पिलाना चाहिए सरसों का तेल ?

पशु चिकित्सकों के अनुसार, रोज सरसों का तेल पिलाना पशुओं के लिए फायदेमंद नहीं होगा। पशुओ को सरसों का तेल तभी देना चाहिए जब वे अस्वस्थ हो, ताकि उनके अंदर ऊर्जा का संचार हो सके।

क्या गैस बनने पर भी पिलाना चाहिए सरसों का तेल ?

यदि आपके पशुओं के पेट में गैस बनी है, तो उन्हें सरसों का तेल अवश्य पिलाना चाहिए। सरसों का तेल पीने से उनका पाचन प्रक्रिया या डाइजेशन सही होगा, जिससे कि वह स्वस्थ रहेंगे।
हरा चारा गौ के लिए ( Green Fodder for Cow)

हरा चारा गौ के लिए ( Green Fodder for Cow)

जिस प्रकार मनुष्य को स्वस्थ रहने और कार्य करने की क्षमता बढ़ाने के लिए भोजन की आवश्यकता पड़ती हैं। उसी  प्रकार पशुओं, गायों को भी अच्छे हरे भरे चारों की आवश्यकता होती है।

ताकि वह उन्हें खाकर  दूध का निर्यात कर सकें। गौ, पशुओं के संतुलित आहार को देखते हुए किसानों द्वारा पशुओं को सूखा चारा, हरा चारा की पूर्ण मात्रा दी जाती है। 

जिससे उन गौ पशुओं को पर्याप्त पोषक तत्वों की सही मात्रा मिल सके। हरे चने द्वारा पशुओं को उनका शरीर विकास करने और ज्यादा से ज्यादा दूध उत्पादन करने की क्षमता मिलती है। यह पोषक तत्व सिर्फ हरे चने से ही प्राप्त हो सकता है।

गौ , पशु चारे के  प्रकार ( Types of Cow, Animal Feed)

best green fodder for cows

चारों के निम्नलिखित प्रकार होते हैं

किसान अपने गौ ,पशुओं को यह दो प्रकार के चारों द्वारा पोषक तत्व देता है। हरे चारों में  एकदलीय तथा द्विदलीय चारों में फसलें मौजूद होती है। हरे चारों के लिए किसान गिनीघास , ज्वार ,मकई, बाजरा, संकरित नेपियर, यशवंत दीनानाथ जयवंत घास आदि एकदलीय चारा की फसलें है। 

द्विदलीय चारा की फसलों के लिए ल्यूसर्न घास, बरसीम स्टाइलो तथा लोबिया आदि मौजूद होते हैं। द्विदलीय फसलों में बहुत मात्रा में पोषक तत्व की प्राप्ति होती है। 

तथा इसमें काफी प्रोटीन भी पाया जाता है। वहीं दूसरी ओर एकदलीय चारे में सिर्फ 4 से 7 प्रतिशत प्रोटीन की ही प्राप्ति होती है। द्विदलीय चारे से लगभग 2 गुना प्रोटीन प्राप्त किया जाता है इसमें अधिकतर 15 से 20% प्रोटीन मौजूद होते हैं।

हरे चारे की योगिता (Green Fodder Yogic)

benefits of green fodder

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पशु आहार के लिए हरे चारे की निम्नलिखित उपयोगिता आए हैं;

  • हरे चारे में पानी अधिक मात्रा में पाया जाता है जो सूखे चारों में नहीं होता। हरे चारे खाकर पशु अपने शरीर में पानी की कमी को दूर करते हैं।
  • हरा चारा काफी स्वादिष्ट व मुलायम होने के कारण पशु इसे बहुत आनंद के साथ खाते हैं।
  • हरे चारे पचने में भी आसान होते हैं। हरे चारे का सेवन करने से पशुओं को आसान मात्रा में घुलनशील शक्कर की प्राप्ति होती है।
  • द्विदलीय चारे के सेवन से पशुओं को खनिज तथा प्रोटीन की प्राप्ति होती है।
  • हरे चारे का सेवन कर पशु की भूख पूर्ण होती है, हरे चारे का सेवन करने से पशुओं का शरीर हमेशा स्वस्थ रहता है।
  • हरे चारे में प्राकृतिक रूप से पोषक तत्व  मौजूद होता है।
  • इसमें मौजूद पौष्टिक तत्व शरीर में विटामिन ए की पूर्ति करते हैं तथा पशुओं के अंधापन को कम करने की क्षमता रखते हैं।
  • हरे चारे द्वारा पशुओं के शरीर को आर्जीनीन, ग्लूटामिक एसिड जैसे महत्वपूर्ण पौष्टिक एसिड तत्वों की प्राप्ति होती है।
  • गर्भावस्था में पशुओं को हरा चना देने से बछड़ा स्वस्थ पैदा होता है।वहीं दूसरी ओर यदि पशुओं को गर्भावस्था में हरा चारा के माध्यम से पौष्टिक तत्व न मिले तो बछड़ा अंधा ,कमजोर या अन्य शारीरिक विकलांगता से पूर्ण पैदा होता है।

पशुओं की स्वास्थ्य की देख भाल : (Health care of animals)

Health care of animals

गौ ,गाय, पशुओं आदि को विभिन्न प्रकार के टीकाकरण करवाना चाहिए। ताकि उनके विभिन्न विभिन्न प्रकार के रोगों की रोकथाम हो सके। उन्हें कोई भी रोग - रोग ग्रस्त ना कर सके। 

इसीलिए नियमित रूप से पशुओं की समय-समय पर जांच कराते रहना उचित होगा। किसान को चाहिए कि वह गौ, पशुओं को कीड़ों की दवाई समय पर दे। साथ ही पशुओं को चिकित्सा अधिकारी द्वारा जांच कराएं।

जावी (जौ) क्या है ( What is Javi Barley)

Javi Barley

जौ गेहूं का ही स्वरूप है। जौ गेहूं कि ही जाति होती है। जिसको हम आटे में पीसकर रोटी बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। प्राचीन काल में ऋषि, मुनि, वैद्य कई कार्यों में जौ का प्रयोग करते थे। 

मुनि और ऋषि आहारों में जौ का सेवन भी करते थे।इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जौ गेहूं हमारे लिए कितना उपयोगी होगा। जौ का इस्तेमाल आयुर्वेद में कई प्रकार की औषधि बनाने के रूप में भी किया जाता है जो कई बीमारियों से हमारे शरीर की सुरक्षा करती है। 

जैसे पेट दर्द होना , कभी कभी भूख ना लगना, दस्त की शिकायत होना , सर्दी जुखाम जैसी समस्या का होना ,ज्यादा प्यास ना लगना आदि जैसे : रोगों से छुटकारा पाने के लिए जौ इस्तेमाल औषधि के रूप में किया जाता है।

जौ के फायदे ( Benefits of Barley)

जौ के एक नहीं बहुत सारे फायदे होते है।इसमें मौजूद पौष्टिक तत्व जैसे : कैल्शियम पोटैशियम, सैलीसिलिक एसिड ,फॉस्फोरस एसिड, आदि महत्वपूर्ण तत्व पाए जाते हैं। 

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यह महत्वपूर्ण तत्व कई प्रकार के इलाज के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।अतः हर दृष्टिकोण से देखें तो जौ हमारे लिए बहुत ही फायदेमंद है। 

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जौ कहां पाया जाता है ( Where is barley found)

जौ बलुई मिट्टी में बोया जाता है इसके अंदर शीत तथा नमी  सहने की बहुतअधिक क्षमता होती है। जौ का सबसे बड़ा उत्पादन क्षेत्र उत्तर प्रदेश को माना जाता है। 

जहां इसकी भारी मात्रा में पैदावार होती है। तथा जौ का उत्पादन इन राज्यों में भी पाया जाता है जैसे: राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब आदि। यह सभी क्षेत्र भारी मात्रा में जौ की पैदावार करते हैं।

जौ का दूसरा नाम ( another name for barley)

जौ दिखने में गेहूं की तरह होता है जौ को बार्ले नाम से भी पुकारा जाता है तथा या एक खाद्य पदार्थ हैं। लोग इसे आम भाषा में जौ के ही नाम से पहचानते हैं। 

बाकी अनाजों की नजर से देखे तो जौ को लोग काफी कम पसंद करते हैं। लेकिन इसमें कई तरह के पौष्टिक गुण होते हैं  जो बाकी अनाजों में नहीं होते। हरा चारे गौ के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है हरे चारे के क्या लाभ होते हैं, तथा हरे चारे से जुड़ी कई प्रकार की जानकारी हमने अपने इस पोस्ट में दी हैं। 

हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारी यह पोस्ट जरूर पसंद आई होगी। यदि आप हमारी इस पोस्ट से संतुष्ट है।तो इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा सोशल मीडिया में और अपने दोस्तों के साथ शेयर करें।

लोबिया की इन पांच किस्मों से किसानों को मिलेगा बेहतरीन मुनाफा

लोबिया की इन पांच किस्मों से किसानों को मिलेगा बेहतरीन मुनाफा

लोबिया की उन्नत किस्मों को खेत में उगाने से किसान 50 दिनों के अंतर्गत तकरीबन 100 से 125 क्विंटल तक शानदार उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। बाजार में ऐसी विभिन्न तरह की लोबिया की किस्में उपलब्ध हैं। 

परंतु, बेहतरीन उत्पादन अर्जित करने के लिए पंत लोबिया, लोबिया 263, अर्का गरिमा, पूसा बारसाती एवं पूसा ऋतुराज किस्मों का चुनाव करें। 

किसान भाई लोबिया की फसल से शानदार मुनाफा उठाने के लिए किसान को अपने खेत में शानदार और उम्दा किस्मों को लगाना चाहिए। 

लोबिया एक दलहनी फसल की श्रेणी के अंतर्गत आने वाली फसल है, जिसकी खेती भारत के छोटे और सीमांत किसानों के द्वारा सबसे ज्यादा की जाती है। क्योंकि यह फसल कम भूमि में भी अच्छी उत्पादन देती है। 

लोबिया की खेती खरीफ एवं जायद दोनों ही सीजन में की जाती है। परंतु, इसकी उन्नत किस्मों से किसान हर एक सीजन में लोबिया की बढ़िया पैदावार अर्जित कर सकते हैं। 

इसी क्रम में आज हम आपके लिए लोबिया की पांच उन्नत किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं, जिसे लगाने के पश्चात आप प्रति एकड़ 100 से 125 क्विंटल उपज हांसिल कर सकते हैं। साथ ही यह किस्में 50 दिनों के सामान्यतः पककर पूरी तरह से तैयार हो जाती है।

लोबिया की पांच शानदार उन्नत किस्में

पंत लोबिया किस्म

लोबिया की इस प्रजाति के पौधे तकरीबन डेढ़ फीट तक ऊंचे होते हैं। पंत लोबिया को खेत में बोने के 60 से 65 दिन पककर तैयार होने में लग जाते हैं। लोबिया की यह किस्म प्रति हेक्टेयर 15 से 20 क्विंटल तक उपज प्रदान करती है।

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लोबिया 263 किस्म

लोबिया की यह किस्म अगेती फसल है, जो खेत में 40 से 45 दिनों के समयांतराल में पक जाती है। लोबिया 263 किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर लगभग 125 क्विटंल तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।

अर्का गरिमा किस्म

लोबिया की अर्का गरिमा किस्म बारिश व बसंत ऋतु के दौरान शानदार उत्पादन देती है। अर्का गरिमा किस्म 40-45 दिनों के समयांतराल में पक जाती है। बतादें, कि प्रति हेक्टेयर तकरीबन 80 क्विंटल तक पैदावार देती है।

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पूसा बरसाती किस्म

लोबिया की इस किस्म के नाम से ही ज्ञात हो जाता है, कि किसान इसे अपने खेत में बारिश के समय लगाएं, तो उन्हें बेहतरीन पैदावार मिलेगी। लोबिया की पूसा बरसाती किस्म की फलियां हल्के हरे रंग की होती है। 

यह किस्म लगभग-लगभग 26 से 28 सेमी लंबी होती है। साथ ही, यह खेत में 45-50 दिन के भीतर पक जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 85-100 क्विंटल तक उत्पादन देती है।

पूसा ऋतुराज किस्म

इस किस्म की लोबिया खाने में बेहद ही ज्यादा अच्छी मानी जाती है। इसकी किस्म की फलियां हरे रंग की होती हैं। साथ ही, यह प्रति हेक्टेयर लगभग 75 से 80 क्विंटल तक उपज प्राप्त होती है।

भारत में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय का दुग्ध उत्पादन में पहला स्थान

भारत में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय का दुग्ध उत्पादन में पहला स्थान

भारत के अंदर विभिन्न प्रकार की गायों की नस्लें पाई जाती हैं। कृषि के साथ-साथ पशुपालन किसानों की आय बढ़ाने में काफी सहयोगी भूमिका अदा करता है। 

पशुपालकों के लिए गाय पालन उनकी आय को बढ़ाने के लिए सबसे अच्छा स्त्रोत माना जाता है। अब ऐसे में पशुपालन करने वाले किसानों को गाय की अच्छी नस्ल का चयन करना महत्वपूर्ण होता है। 

इसलिए आज के इस लेख में हम आपको गाय की ऐसी नस्ल की जानकारी देंगे जो कि सबसे ज्यादा दूध देती है। दरअसल, हम आज आपको बताऐंगे गाय साहीवाल नस्ल (Sahiwal Breed Cow) के बारे में। 

वैज्ञानिक ब्रीडिंग के माध्यम से देसी गायों की नस्ल में सुधार कर उन्हें साहीवाल नस्ल में परिवर्तित किया जा रहा है। हरियाणा राज्य के अंदर बड़ी संख्या में इस नस्ल की गाय होती हैं। वहीं, पंजाब और राजस्थान में भी साहीवाल पशुओं के लिए कुछ गौशालाएं तैयार की गई हैं।

साहीवाल नस्ल की किस प्रकार जान-पहचान की जाती है

दुधारू गाय की साहीवाल नस्ल की गायों का सिर चौड़ा, सींग छोटे और मोटे साथ ही शरीर मध्यम आकार का होता है। गर्दन के नीचे लटकती हुई भारी चमड़ी और भारी लेवा होता है। 

साहीवाल गायों का रंग अधिकतर लाल और गहरे भूरे रंग का होता है। इस नस्ल की कुछ गायों के शरीर पर सफेद चमकदार धब्बे भी पाए जाते हैं। 

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इस नस्ल के वयस्क बैल का औसतन भार 450 से 500 किलो और मादा गाय का वजन 300-400 किलोग्राम तक हो सकता है। बैल की पीठ पर बड़ा कूबड़ जिसकी ऊंचाई 136 सेमी तथा मादा की पीठ पर बने कूबड़ की ऊंचाई 120 सेमी के आसपास होती है।

पशुपालक यहां से शुद्ध नस्ल के पशु या गाय प्राप्त कर सकते हैं  

साहीवाल गाय अधिकतम उत्तरी भारत में पाई जाने वाली महत्वपूर्ण नस्ल है। बतादें, कि इसका उदगम स्थल पाकिस्तान पंजाब के मोंटगोमरी जिले और रावी नदी के आसपास का है। 

सबसे ज्यादा दूध देने वाली यह नस्ल पंजाब के फिरोजपुर और अमृतसर जैसे जनपदों में पाई जाती है। वहीं, राजस्थान के श्री गंगानगर जिले में इस नस्ल की गाय हैं। 

वहीं, पंजाब में फिरोजपुर जिले के फाजिल्का और अबोहर कस्बों में शुद्ध साहीवाल गायों के झुंड के झुंड देखने को मिल जाएंगे।

साहीवाल गाय की विशेषताएं या खूबियां क्या-क्या हैं ?

साहीवाल (Sahiwal) नस्ल की गाय एक बार ब्याने पर 10 महीने तक दूध देती है। वहीं, दूध काल के दौरान ये गायें औसतन 2270 लीटर दूध देती हैं। यह प्रतिदिन 10 से 16 लीटर दूध देने की क्षमता रखती हैं। 

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साहीवाल गाय अन्य देशी गायों की अपेक्षा अधिक दूध देती हैं। इनके दूध में बाकी गायों के तुलनात्मक अधिक प्रोटीन और वसा मौजूद है।

साहीवाल गाय की प्रजनन प्रक्रिया क्या है ? 

गाय के पहले प्रजनन की अवस्था जन्म के 32-36 महीने में आती है। इसकी प्रजनन समयावधि में 15 महीने का समयांतराल होता है। 

गाय की देशी नस्ल होने की वजह से इसके रखरखाव और आहार पर भी अधिक खर्च करना नहीं पड़ता। यह नस्ल ज्यादा गर्म इलाकों में भी आसानी से रह सकती है। 

इनका शरीर बाहरी परजीवी के प्रति प्रतिरोधी होता है, जिससे इसे पालने में अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। 

साहीवाल गाय की कीमत कितनी होती है ?

साहीवाल गाय की कीमत (Sahiwal Cow Price) इसके दूध उत्पादन की क्षमता, उम्र, स्वास्थ्य इत्यादि पर निर्भर करती है। यदि अनुमानित तोर पर बात करें तो साहीवाल गाय तकरीबन 40 हजार से 60 हजार रुपए की कीमत के आसपास खरीदी जा सकती है।

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

दूध की नदियां बहाने वाला देश और सोने की चिड़िया उपनामों से विख्यात, भारत देश के अंग्रेजों के राज में इंडिया कंट्री बनने के बाद, देश में सनातन शिक्षा विधि, स्वास्थ्य रक्षा, कृषि तरीकों एवं सांस्कृतिक विरासत का व्यापक पतन हुआ है।

आलम यह है कि, कालगणना (कैलेंडर), ऋतु चक्र जैसे विज्ञान से दुनिया को परिचित कराने वाले देश में, आज गौ आधारित प्राकृतिक कृषि को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करना पड़ रहा है।

घर-घर गौपालन करने वाले भारत में सरकार को सार्वजनिक गौशाला बनाना पड़ रही हैं। पुरातन इतिहास में एक नहीं बल्कि ऐसे कई प्रमाण हैं कि कृषि प्रधान भारत में गौ आधारित कृषि को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया था। जैविक तरीकों की आधुनिक खेती में अब गौवंश के महत्व को स्वीकारते हुए, गौमूत्र एवं गाय के गोबर का प्रचुरता से उपयोग किया जा रहा है।

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सरकारें भी गौपालन के लिए नागरिक एवं कृषकों को प्रेरित कर रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो किसान एवं पंचायत समितियों से गौमूत्र एवं गाय का गोबर खरीदने तक की योजना को प्रदेश मे लागू कर दिया है।

क्यों पूजनीय है गौमाता

गौमाता के नाम से सम्मानित गाय को भारत में पूजनीय माना जाता है। हिंदू धर्म के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास मानकर गौमाता की पूजा अर्चना की जाती है। प्रमुख त्यौहारों खासकर दीपावली के दिन एवं अन्नकूुट पर गाय का विशिष्ट श्रृंगार कर पूजन करने का भारत में विधान है।

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हिंदू पूजन विधियों में गौमय (गोबर) तथा गोमूत्र को भारतीय पवित्र और बहुगुणी मानते हैं। गाय के गोबर से बने कंडों का हवन में उपयोग किया जाता है। वातावरण शुद्धि में इसके कारगर होने के अनेक प्रमाण हैं। अब तक अपठित सिंधु-सरस्वती सभ्यता में गौवंश संबंधी लाभों के अनेक प्रमाण मिले हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी एवं वैदिक सभ्यता में गौ आधारित किसानी से स्पष्ट है कि भारत में गौ आधारित कृषि कितनी महत्वपूर्ण रही है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़े अब तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार इस सभ्यता काल में मानव बस्तियों के साथ खेत, अनाज की प्रजातियों आदि के बारे में कृषकों ने काफी तरक्की कर ली थी। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़ी अब तक प्राप्त हुई मुद्राओं में बैल के चित्र अंकित हैं। इससे इस कालखंड में गाय-बैल के महत्व को समझा जा सकता है।

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खेत, जानवर, गाड़ी/ गाड़ी चालक, यव (बार्ली), चलनी, बीज आदि संबंधी चित्र भी इस दौर की कृषि पद्धति की कहानी बयान करते हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अब तक प्राप्त प्रमाणों में अनाज का संग्रह करने के लिये कोठार (भंडार) की भी पुष्टि हुई है। संस्कृत लिपि में प्रयोग में लाए जाने वाले लाङ्गल, सीर, फाल, सीता, परशु, सूर्प, कृषक, कृषीवल, वृषभ, गौ शब्द अपना इतिहास स्वयं बयान करने के लिए पर्याप्त हैं।

 वैदिक संस्कृत और आधुनिक फारसी में भी बहुत से साम्य हैं। फारसी में उच्चारित गो शब्द का मूल अर्थ गाय से ही है। मतलब गाय भारत में पनपी कई संस्कृतियों का अविभाज्य अंग रही है। गाय के गोबर का खेत में खाद, मकान की लिपाई-पुताई में उपयोग भारत में विधि नहीं बल्कि परंपरा का हिस्सा है। रसोई में चूल्हे को सुलगाने से लेकर पूजन हवन तक गाय के गोबर के कंडों की अपनी उपयोगिता है। गाय की उपयोगिता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि पुरातन कृषि मेें गौपालक को दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी का पौष्टिक आहार प्राप्त होता था वहीं खेती कार्य के लिए तगड़े बैल भी गाय से प्राप्त होते थे।

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खेत में हल जोतने, अनाज ढोने, गाड़ी खींचने के लिये बैलों का उपयोग पुराने समय से भारत में होता रहा है। खेत की सिंचाई के लिए रहट चलाने में भी बैलों की तैनाती रहती थी।

कभी चलता था 24 बैलों वाला हल गौवंश से मिली इंसान, शहर को पहचान कामधेनु करे इतनी कामनाओं की पूर्ति

24 बैलों वाला हल

कई हॉर्स पॉवर वाले आज के प्रचलित आधुनिक ट्रैक्टर का काम पुराने समय में बैल करते थे। पुरातन ग्रंथों में दो, छह, आठ, बारह, यहां तक कि, 24 बैलों वाले भारी भरकम हलों का भी उल्लेख है।

गाय के नाम अनेक

आपको अचरज होगा कि अनेक शब्दों, नामों का आधार गाय से संबंधित है। गोपाल, गोवर्धन, गौशाला, गोत्र, गोष्ठ, गौव्रज, गोवर्धन, गौधूलि वेला, गौमुख, गौग्रास, गौरस, गोचर, गोरखनाथ (शब्द अभी और शेष हैं) जैसे प्रतिष्ठित शब्दों की अपनी विशिष्ट पहचान है। उपरोक्त वर्णित शब्दों से उसकी प्रकृति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती है। जैसे गौधूली बेला से सूर्यास्त के समय का भान होता है, इसी तरह गाय के बछड़े को वसु कहा जाता है। इससे ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम वसुदेव रखा गया। हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार दीपावली के कुछ दिन पहले वसुबारस मनाकर गौवंश का पूजन कर पशुधन के प्रति कृतज्ञता जताई जाती है।

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ऋग्वेद काल में भी रथों में बैल जोतने का जिक्र है। मतलब गाय कृषक, कृषि के साथ ही ग्राम वासियों का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से सहयोगी रही है। गाय और बैल पुरातन काल से भारतीय जनजीवन का आधार रहे हैं। गाय की इन बहुआयामी उपयोगिताओं के कारण ही गौमाता को ‘कामधेनु’ भी कहा जाता है। मानव की इतनी सारी कामनाएं पूरी करने वाली बहुउपयोगी ‘कामधेनु’ (इच्छा पूर्ति करने वाली गाय) वर्तमान मशीनी युग (कलयुग) में और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।

गबरबंद

प्राचीन भारत में पानी रोकने के लिए मिट्टी पत्थर से बनाए जाने वाले गबरबन्द को बनाने में गोबर, मिट्टी, घासफूस का उपयोग किया जाता था। महाभारत में गायों की गिनती से संबंधित घोषयात्रा, गोग्रहण का भी उल्लेख है।

गौ अधारित खेती एवं फसल चक्र

भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम जहां गौवंश पर आधारित वसुदेव है, वहीं उनके भाई बलराम को ‘हलधर’ भी कहा जाता है। हल बलराम का अस्त्र नहीं, बल्कि कृषि कार्य में उपयोगी था। इससे उस कालखंड की खेती-किसानी के तरीकों का भी बोध होता है।

चक्र का महत्व समझिये

प्राचीन भारत में बैल गाड़ियों में प्रयुक्त होने पहिये, कुएं से पानी खींचने के लिये रहट में लगने वाला चक्र, कोल्हू के बैल की चक्राकार परिक्रमा के अपने-अपने महत्व हैं। मतलब कृषि की सुरक्षा में भी चक्र महत्वपूर्ण है। खेती के महत्वपूर्ण चक्र को काल या ऋतु चक्र कहा जाता है। 

 भारत के पूर्वज किसानों ने साल में मौसम के बदलाव के आधार पर फसल चक्र का तक निर्धारण कर लिया था। ऋतुचक्र के मुताबिक ही किसान रवि और खरीफ की फसल का निर्धारण करते आए हैं। बीज बोने, क्यारी बनाने आदि में गौवंश का उल्लेखनीय उपयोग होता आया है। गौ एवं पशु पालन के लिए भी ऋतु चक्र में पूर्वजों ने बहुमूल्य व्यवस्थाएं की थीं। फसल चक्र का खेती, कृषि पैदावार के साथ ही गौ एवं अन्य पशु पालन से पुराना बेजोड़ नाता रहा है।

गौ अधारित खेती

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में गौपालन, गोकुल और बृंदाबन से जुड़ी बातें गौपालन के महत्व को रेखांकित करती हैं। पुरातन व्यवस्था में पालतू गायों का दूध, दही, मक्खन जहां अर्थव्यवस्था की धुरी था वहीं खेती में भी गाय की भूमिका अतुलनीय रही है। मानव उदर पोषण हेतु अनाज की पूर्ति के लिए गौ एवं पशु-पालन के साथ खेती किसानी के मिश्रित प्रबंधन का भारत में इतिहास बहुत पुराना है। गाय-बैलों के पालन का प्रबंध, खाद बनाने में गौमूत्र एवं गोबर का उपयोग, बीजारोपण, सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण आदि के लिए भारतवासी पुरातनकाल से गौवंश का बखूबी उपयोग करते आए हैं।

गंगातीरी गाय कहाँ पाई जाती है और किन विशेषताओं की वजह से जानी जाती है

गंगातीरी गाय कहाँ पाई जाती है और किन विशेषताओं की वजह से जानी जाती है

गंगातीरी गाय की अद्भुत विशेषता के विषय में जानकर आप भौंचक्के हो जाएंगे। यह एक दिन के अंदर दस लीटर से भी अधिक दूध प्रदान करती है। क्या आपने कभी गंगातीरी गाय के विषय में सुना है? यदि आप पशुपालन का व्यवसाय करते होंगे, तो इस गाय के संबंध में आपको भली भांति जानकारी है। दरअसल, यह गाय उत्तर प्रदेश एवं बिहार में काफी मशहूर है। इस गाय की विशेषता के संबंध में जानकर आप पूरी तरह से दंग रह जाएंगे। गंगातीरी गाय रखने वाले लोगों का कहना है, कि यह एक दिन में 10 से 16 लीटर तक दूध प्रदान करती है। इतना ही नहीं, इस गाय की और भी बहुत सारी विशेषताएं हैं, जिसके बारे में हम इस कहानी के जरिए से बताने जा रहे हैं। तो चलिए आज हम इस लेख में गंगातीरी गाय के संबंध में विस्तार पूर्वक जानें। 

गंगातीरी गाय के संबंध में विस्तृत जानकारी

इस प्रजाति की गाय कहाँ कहाँ पाई जाती है

गंगातीरी गाय एक प्रकार से देसी प्रजाति की गाय है। बतादें कि इस नस्ल की गायें अधिकांश उत्तर प्रदेश और बिहार के जनपदों में देखी जाती हैं। यह प्रमुख तौर पर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर और बलिया तो वहीं बिहार के रोहतास और भोजपुर जनपद के अंतर्गत पाई जाती हैं। उत्तर प्रदेश में गंगातीरी गायों की तादात तकरीबन 2 से 2.5 लाख रुपए तक है। यह गाय भी दूसरी आम गायों की भांति ही दिखती है। परंतु, इसे पहचानना काफी ज्यादा आसान रहता है। गंगातीरी नस्ल की गायें भूरे और सफेद रंग की होती हैं। 

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जानें इस गाय की पहचान किस प्रकार की जाती है

दरअसल, हम पहले भी बता चुके हैं, कि गंगातीरी गाय का रंग भूरा और सफेद होता है। इसके अतिरिक्त इन गायों के सिंघ छोटे व नुकीले होते हैं, जो कि दोनों तरफ से फैले होते हैं। वहीं, इस गाय के कान थोड़ी नीचे की ओर झुके होते हैं। इस प्रजाति के जो बैल होते हैं, उनकी ऊंचाई तकरीबन 142 सेन्टमीटर होती है। वहीं, गाय की ऊंचाई की बात की जाए तो 124 सेन्टीमीटर तक होती है।

गंगातीरी गायों का वजन तकरीबन 235-250 किलो तक रहता है। इस नस्ल की गायें बाजार में बेहद ही महंगी बिकती हैं। इनकी कीमत 40 से 60 हजार रुपये तक होती है। यहां ध्यान देने योग्य जो बात है, वह यह कि इन गायों का ख्याल थोड़ा ज्यादा रखने की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि, पर्याप्त आहार न मिलने की स्थिति में यह गायें बीमार भी हो सकती हैं। इस गाय के दूध में फैट तकरीबन 4.9 प्रतिशत तक पाया जाता है। इसका दूध साधारण गायों के मुकाबले ज्यादा कीमतों पर बिकता है।

जानें कांकरेज नस्ल की गाय की कीमत, पालन का तरीका और विशेषताओं के बारे में

जानें कांकरेज नस्ल की गाय की कीमत, पालन का तरीका और विशेषताओं के बारे में

भारत के अंदर बहुत सारी नस्लों की गाय पाई जाती हैं। प्रत्येक नस्ल की गाय की अपनी अपनी खूबियां होती हैं। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे कांकरेज नस्ल की गाय के बारे में। इस नस्ल की गाय राजस्थान और गुजरात में पाई जाती है, जो कि बहुत ही प्रसिद्ध गाय है। बतादें कि यह एक दिन में 10 से 15 लीटर दूध का उत्पादन करती है। कांकरेज गाय देशी नस्ल की गाय होती है। यह भारत के गुजरात एवं राजस्थान राज्य में पाई जाती है। यह गाय देश में अपनी दूध उत्पादन की क्षमता के लिए काफी मशहूर है। इस नस्ल की गाय दिन में 6 से 10 लीटर दूध देती है। कांकरेज नस्ल की गाय और बैल दोनों की ही बाजार में बहुत मांग है। बतादें कि इनका इस्तेमाल दूध के साथ-साथ कृषि कार्यों के लिए भी किया जाता है। इसे लोकल भाषा में बोनाई, तलबाडा, वागडिया, वागड़ और नागर आदि नामों से जाना जाता है। चलिए आज हम आपको कांकरेज नस्ल की इस गाय से संबंधित विशेषताओं के विषय में बताते हैं। 

कांकरेज गाय की कितनी कीमत होती है

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि इन गायों की कीमत बाजार में सामान्य तौर पर उम्र और नस्ल के आधार पर निर्धारित की जाती है। बाजार में इस गाय की कीमत 25 हजार रुपये से लेकर 75 हजार रुपये तक की है। बहुत सारे राज्यों में इसकी कीमत और भी अधिक होती है।

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कांकरेज गाय का किस प्रकार पालन किया जाता है

कांकरेज गायों को गर्भ के दौरान विशेष देखभाल की आवश्यकता पड़ती है। इस दौरान इसे रोगों से संरक्षण के लिए वक्त - वक्त पर टीकाकरण की आवश्यकता होती रहती है। इससे बछड़े बेहतर एवं स्वस्थ पैदा होते हैं। साथ ही, दूध की पैदावार भी काफी ज्यादा होती है। 

कांकरेज गाय की खासियतें

कांकरेज नस्ल की गायें एक महीने में औसतन 1730 लीटर तक दूध प्रदान करती है। इस गाय के दूध में वसा 2.9 और 4.2 प्रतिशत के मध्य विघमान रहता है। इसके वयस्क बच्चों की लंबाई 25 सेमी है, जबकि वयस्क बैल की औसत ऊंचाई 158 सेमी होती है। इन गायों का वजन 320 से 370 किलोग्राम तक होता है। कांकरेज नस्ल के मवेशी सिल्वर-ग्रे एवं आयरन ग्रे रंग के होते हैं। इसका खान-पान बेहद ही अच्छा होता है। इन गायों के लिए पर्याप्त चारे, पानी, खली और चोकर की बेहद जरूरत होती है।

पशुपालक इस नस्ल की गाय से 800 लीटर दूध प्राप्त कर सकते हैं

पशुपालक इस नस्ल की गाय से 800 लीटर दूध प्राप्त कर सकते हैं

किसान भाइयों यदि आप पशुपालन करने का विचार कर रहे हो और एक बेहतरीन नस्ल की गाय की खोज कर रहे हैं, तो आपके लिए देसी नस्ल की डांगी गाय सबसे बेहतरीन विकल्प है। इस लेख में जानें डांगी गाय की पहचान और बाकी बहुत सारी महत्वपूर्ण जानकारियां। किसान भाइयों के समीप अपनी आमदनी को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के बेहतरीन पशु उपलब्ध होते हैं, जो उन्हें प्रति माह अच्छी आय करके दे सकते हैं। यदि आप पशुपालक हैं, परंतु आपका पशु आपको कुछ ज्यादा लाभ नहीं दे रहा है, तो चिंतित बिल्कुल न हों। आज हम आपको आगे इस लेख में ऐसे पशु की जानकारी देंगे, जिसके पालन से आप कुछ ही माह में धनवान बन सकते हैं। दरअसल, हम जिस पशु के विषय चर्चा कर रहे हैं, उसका नाम डांगी गाय है। बतादें कि डांगी गाय आज के दौर में बाकी पशुओं के मुकाबले में ज्यादा मुनाफा कमा कर देती है। इस वहज से भारतीय बाजार में भी इसकी सर्वाधिक मांग है। 

डांगी नस्ल की गाय कहाँ-कहाँ पाई जाती है

जानकारी के लिए बतादें, कि यह गाय देसी नस्ल की डांगी है, जो कि मुख्यतः गुजरात के डांग, महाराष्ट्र के ठाणे, नासिक, अहमदनगर एवं हरियाणा के करनाल एवं रोहतक में अधिकांश पाई जाती है। इस गाय को भिन्न-भिन्न जगहों पर विभिन्न नामों से भी जाना जाता है। हालाँकि, गुजरात में इस गाय को डांग के नाम से जाना जाता है। किसानों व पशुपालकों ने बताया है, कि यह गाय बाकी मवेशियों के मुकाबले में तीव्रता से कार्य करती है। इसके अतिरिक्त यह पशु काफी शांत स्वभाव एवं शक्तिशाली होते हैं। 

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डांगी गाय कितना दूध देने की क्षमता रखती है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस देसी नस्ल की गाय के औसतन दूध देने की क्षमता एक ब्यांत में तकरीबन 430 लीटर तक दूध देती है। वहीं, यदि आप डांगी गाय की बेहतर ढ़ंग से देखभाल करते हैं, तो इससे आप लगभग 800 लीटर तक दूध प्राप्त कर सकते हैं। 

डांगी गाय की क्या पहचान होती है

यदि आप इस गाय की पहचान नहीं कर पाते हैं, तो घबराएं नहीं इसके लिए आपको बस कुछ बातों को ध्यान रखना होगा। डांगी गाय की ऊंचाई अनुमान 113 सेमी एवं साथ ही इस नस्ल के बैल की ऊंचाई 117 सेमी तक होती है। इनका सफेद रंग होता है साथ ही इनके शरीर पर लाल अथवा फिर काले धब्बे दिखाई देंगे। साथ ही, यदि हम इनके सींग की बात करें, तो इनके सींग छोटे मतलब कि 12 से 15 सेमी एवं नुकीले सिरे वाले मोटे आकार के होते हैं। 

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इसके अतिरिक्त डांगी गायों का माथा थोड़ा बाहर की ओर निकला होता है और इनका कूबड़ हद से काफी ज्यादा उभरा हुआ होता है। गर्दन छोटी और मोटी होती है। अगर आप डांगी गाय की त्वचा को देखेंगे तो यह बेहद ही चमकदार व मुलायम होती है। इसकी त्वचा पर काफी ज्यादा बाल होते हैं। इनके कान आकार में छोटे होते है और अंदर से यह काले रंग के होते हैं।

योगी सरकार की इस योजना से गौ-पालन करने वालों को मिलेगा अनुदान

योगी सरकार की इस योजना से गौ-पालन करने वालों को मिलेगा अनुदान

नंदिनी कृषक समृद्ध योजना और गौ संवर्धन योजनाओं को संचालित कर रही है। राज्य सरकार इन समस्त योजनाओं के आधार पर किसानों को अथवा डेयरी खोलने वालों को सब्सिड़ी की धनराशि के साथ में कई अन्य तरह की सहायता भी प्रदान कर रही है। 

गौ पालन को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार विभिन्न प्रकार की योजनाओं को संचालित कर रही है। उत्तर प्रदेश सरकार का मुख्य उद्देश्य गौ वंश को प्रोत्साहन देने साथ-साथ राज्य में दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी करना है। 

प्रदेश सरकार राज्य में गौ वंशों के पालन के लिए राज्य में गोपालक योजना, नंद बाबा योजना, नंदिनी कृषक समृद्ध योजना एवं गौ संवर्धन योजनाओं को संचालित कर रही है। 

प्रदेश सरकार इन समस्त योजनाओं के आधार पर किसानों को अथवा डेयरी खोलने वालों को सब्सिड़ी की बड़ी धनराशि के साथ में विभिन्न अन्य प्रकार की मदद भी प्रदान कर रही है। 

राज्य सरकार फिलहाल नंदिनी कृषक समृद्धि योजना को संचालित कर रही है। योगी सरकार की तरफ से इस योजना के अंतर्गत 62 लाख रुपये के प्रोजेक्ट पर 50 फीसद अनुदान तक तीन हिस्सों में प्रदान करेगी।

प्रमुख नस्लों की गायों पर मिलेगा अनुदान

उत्तर प्रदेश सरकार इस अनुदान धनराशि को तीन हिस्सों में प्रदान करेगी। परंतु, इसके लिए राज्य सरकार की कुछ प्रमुख शर्तें होंगी। इन शर्तों को पूर्ण करने के पश्चात ही कोई भी आदमी इस योजना का फायदा उठा सकता है। 

दरअसल, प्रदेश सरकार दुग्ध उत्पादन की दृष्टि से अधिक दूध देने वाली गायों को पालने पर ही धनराशि को आवंटित करेगी। इन प्रजातियों की गायों में स्वदेशी गाय थारपारकर, गिल नस्ल और साहीवाल की गायों को शम्मिलित किया गया है। 

इस योजना का फायदा उठाने के लिए पशुपालकों को तकरीबन 10 इन्हीं नस्लों के बच्चों को दिखाना पड़ेगा, जिसके पश्चात वह अनुदान धनराशि का तकरीबन 25 फीसद तक ले सकेंगे। इस योजना का लाभ उठाने के लिए आपको 25 अक्टूबर तक आवेदन करना पड़ेगा।

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योजना का लाभ लेने के लिए किस तरह अप्लाई करें

आपको इसके लिए इसकी अधिकारिक वेबसाइट www.animalhusb.upsdc.gov.in पर क्लिक करके फॉर्म को भरना होगा। इसके साथ-साथ उनके पास खुद की अथवा लीज पर पशुपालन संबंधी स्थान को दिखाना आवश्यक है। 

इस योजना का फायदा उत्तर प्रदेश राज्य के पंजीकृत किसान ही उठा पाऐंगे। किसानों के पास गौ-पालन से जुड़ा तकरीबन तीन वर्ष का अनुभव होना चाहिए। इसके साथ-साथ कामधेनु का फायद उठा चुके लाभार्थी इसका फायदा नहीं उठा पाऐंगे।

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योजना का लाभ लेने हेतु किन कागजों की आवश्यकता पड़ेगी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि आपको इस योजना का फायदा उठाने के लिए राज्य सरकार द्वारा अथवा केंद्र द्वारा प्रदत्त समस्त अधिकारिक आई-डी कार्ड को अपने पास सुरक्षित रख लें, जिससे आपको आवेदन करते समय किसी भी प्रकार की कोई समस्या न हो। 

इसके लिए आपके पास आधार कार्ड, मूल निवास प्रमाण, जमीन का विवरण, बैंक अकाउंट विवरण, मोबाइल नंबर और पासपोर्ट साइज फोटो का होना बेहद आवश्यक है।