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जून में उगाई जाने वाली फसलों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

जून में उगाई जाने वाली फसलों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी

खेती किसानी में बहुत से आतंरिक और बाहरी कारक फसलीय उत्पादन को प्रभावित करते हैं। इनमें से एक प्रमुख कारक फसल बुवाई के समय का चयन करना है। 

किसान भाइयों को बेहतर उपज हांसिल करने के लिए हर एक माह के मुताबिक फसलों की बुवाई और कृषि कार्य करना चाहिए। साथ ही, फसल की बुवाई के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए, 

ताकि बंपर उत्पादन हांसिल किया जा सके। ऐसे में कृषकों के पास प्रति महीने कृषि कार्यों की जानकारी होनी चाहिए, ताकि ज्यादा उपज के साथ उच्च गुणवत्ता प्राप्त हो सके।

भारत में मौसम के आधार पर भिन्न-भिन्न फसलों की खेती की जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक महीने मौसम को मद्देनजर रखते हुए अलग-अलग कृषि कार्य भी किया जाता है, ताकि फसलों की सही ढ़ंग से देखभाल की जा सके। 

इससे फसल की अच्छी-खासी वृद्धि होती है। साथ ही, उपज की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। ऐसे में आवश्यक है, कि कृषकों को मौसम के आधार पर किए जाने वाले कृषि कार्यों की सटीक जानकारी होनी चाहिए।

धान की नर्सरी से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी 

यदि किसान भाई मई के अंतिम सप्ताह में धान की नर्सरी नहीं लगा पाए हैं, तो जून के प्रथम सप्ताह तक यह कार्य पूर्ण कर लें। वहीं, सुगंधित किस्मों की नर्सरी जून के तीसरे सप्ताह तक लगा लें। 

धान की मध्यम और देरी से पकने वाली किस्मों को काफी अच्छा माना गया है। इसमें स्वर्ण, पंत-10, सरजू-52, नरेन्द्र-359, जबकि टा.-3, पूसा बासमती-1, हरियाणा बासमती सुगंधित एवं पंत संकर धान-1 तथा नरेन्द्र संकर धान-2 प्रमुख उन्नत संकर किस्में हैं। 

धान की बारीक किस्मों के लिए प्रति हेक्टेयर बीज दर 30 किलोग्राम, मध्यम धान के लिए 35 किलोग्राम, मोटे धान के लिए 40 किलोग्राम और बंजर भूमि के लिए 60 किलोग्राम, जबकि संकर किस्मों के लिए 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है। 

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अगर नर्सरी में खैरा रोग नजर आए तो 20 ग्राम यूरिया, 5 ग्राम जिंक सल्फेट प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 वर्ग मीटर क्षेत्र में छिड़काव करना चाहिए।

मक्का की जून में बुवाई से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी   

जून में मक्का की खेती से किसान अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं। इसलिए अगर आप मक्का की बुवाई करना चाहते हैं, तो इसकी बुवाई 25 जून तक कर लेनी चाहिए। अगर सिंचाई की सुविधा हो तो इसकी बुवाई 15 जून तक भी की जा सकती है। 

मक्का की उन्नत किस्मों में शक्तिमान-1, एच.क्यू.पी.एम.-1, तरुण, नवीन, कंचन, श्वेता और जौनपुरी की सफेद और मेरठ की पीली स्थानीय किस्में अच्छी मानी जाती हैं।

किसान पशु चारा की फसलों की बुवाई करें  

पशुओं के लिए हरे चारे का अभाव ना हो इसलिए आप इस महीने में ज्वार, लोबिया और चरी जैसे चारे वाली फसलों की बुवाई कर सकते हैं। बारिश न होने की स्थिति में खाद देकर बुवाई की जा सकती है। 

जून के महीने में किसान इन सब्जियों की खेती करें

जून के महीने में आप बैंगन, मिर्च, अगेती फूलगोभी की रोपाई कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त लौकी, खीरा, चिकनी तोरी, सावन तोरी, करेला और टिंडा की बुवाई भी इसी माह की जा सकती है। 

भिंडी की उन्नत किस्मों में परभणी क्रांति, आजाद भिंडी, अर्का अनामिका, वर्षा, उपहार, वी.आर.ओ.-5, वी.आर.ओ.-6 और आईआईवीआर-10 अच्छी मानी जाती है।

मछलियों के रोग तथा उनके उपचार

मछलियों के रोग तथा उनके उपचार

मछलियां भी अन्य प्राणियों के समान प्रतिकूल वातावरण में रोग ग्रस्त हो जाती हैं रोग फैलते ही संचित मछलियों के स्वभाव में प्रत्यक्ष अंतर आ जाता है.

रोग ग्रस्त मछलियों में निम्नलिखित लक्षण पाए जाते हैं

  • बीमार मछलियां समूह में ना रहकर किनारे पर अलग अलग दिखाई देती है
  • बेचैनी अनियंत्रित रहती है
  • अपने शरीर को पानी में गड़े फूट में रगड़ना
  • पानी में बार-बार कूदना
  • पानी में बार-बार गोल गोल घूमना पानी में बार-बार गोल गोल घूमना
  • भोजन न करना
  • पानी में कभी कभी सीधा टंगे रहना व कभी कभी उल्टा हो जाना
  • मछली के शरीर का रंग फीका पड़ जाता है शरीर का चिपचिपा होना
  • आँख, शरीर व गलफड़ों का फूलना
  • शरीर की त्वचा का फटना
  • शरीर में परजीवी का वास हो जाना

रोग के कारण:

मछली में रोग होने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं: १- पानी की गुणवत्ता तापमान पीएच ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड आदि की असंतुलित मात्रा. २- मछली के वर्जय यानी ना खाने वाले पदार्थ ( मछली का मल आदि ) जल में एकत्रित हो जाते हैं और मछली के अंगों जैसे गलफड़े, चर्म, मुख गुहा आदि के संपर्क में आकर उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं ३- बहुत से रोग जनित जीवाणु व विषाणु जल में होते हैं जब मछली कमजोर हो जाती हैं तब वो मछली पर आक्रमण करके मछली को रोग ग्रसित कर देते हैं. ये भी पढ़े:
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 मुख्यतः रोगों को चार भागों में बांटा जा सकता है

१-  परजीवी जनित रोग २- जीवाणु जनित रोग ३- विषाणु जनित रोग ४- कवक फंगस जनित रोग

1.परजीवी जनित रोग:

आंतरिक परजीवी मछली के आंतरिक अंगों जैसे शरीर गुहा रक्त नलिका आदि को संक्रमित करते हैं जबकि बाहरी परजीवी मछली के गलफड़ों, पंखों चर्म आदि को संक्रमित करते हैं

1-ट्राइकोडिनोसिस :

लक्षण: यह बीमारी ट्राइकोडीना नामक प्रोटोजोआ परजीवी से होती है जो मछली के गलफड़ों व शरीर के सतह पर रहता है इस रोग से संक्रमित मछली शिथिल व भार में कमी आ जाती है.  गलफड़ों से अधिक श्लेष्म प्रभावित होने से स्वसन में कठिनाई होती है.  उपचार: निम्न रसायनों में संक्रमित मछली को 1 से 2 मिनट डुबो के रखने से रोग को ठीक किया जा सकता है 1.5% सामान्य नमक घोल कर 25 पीपीएम फर्मोलिन, 10 पी पी एम कॉपर सल्फेट.

2- माइक्रो एवं मिक्सो स्पोरिडिसिस:

लक्षण: यह रोग अंगुलिका अवस्था में ज्यादा होता है. यह कोशिकाओं में तंतुमय कृमिकोष बनाके रहते हैं तथा ऊतकों को भारी क्षति पहुंचाते हैं. उपचार: इसकी रोकथाम के लिए कोई ओषधि नहीं है. इसके उपचार के लिए या तो रोगग्रस्त मछली को बाहर निकल देते हैं. या मतस्य बीज संचयन के पूर्व चूना ब्लीचिंग पाउडर से पानी को रोग मुक्त करते हैं.

3- सफेद धब्बेदार रोग:

लक्षण : यह रोग इन्कयियोथीसिस प्रोटोजोआ द्वारा होता है. इसमें मछली की त्वचा, गलफड़ों एवं पंख पर सफेद छोटे छोटे धब्बे हो जाते हैं. उपचार: मैला काइट ग्रीन ०.1 पी पी ऍम , 50 पी पी ऍम फर्मोलिन में १-२ मिनट तक मछली को डुबोते हैं.

2. जीवाणु जनित रोग:

1- कालमानेरिस रोग:

लक्षण: यह फ्लेक्सीबेक्टर कालमानेरिस नामक जीवाणु के संकम्रण से होता है, पहले शरीर के बाहरी सतह पर फिर गलफड़ों में घाव होने शुरू हो जाते हैं. फिर जीवाणु त्वचीय ऊतक में पहुंच कर घाव कर देते हैं. उपचार: संक्रमित भाग में पोटेशियम परमेगनेट का लेप लगाया जाता है. 1 से 2 पी पी ऍम का कॉपर सल्फेट का खोल पोखरों में डालें. ये भी पढ़े: ठण्ड में दुधारू पशुओं की देखभाल कैसे करें

2- ड्रॉप्सी:

लक्षण: मछली जब हाइड्रोफिला जीवाणु के संपर्क में आती है तब यह रोग होता है. यह उन पोखरों में होता है जहाँ पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं होता है. इससे मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात में काफी छोटा हो जाता है. शल्क बहुत अधिक मात्रा में गिर जाते हैं व पेट में पानी भर जाता है. उपचार: मछलियों को पर्याप्त भोजन देना पानी की गुणवत्ता बनाये रखना १०० किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पानी में 15 दिन में चूना डालते रहना चाहिए.

3- बाइब्रियोसिस रोग:

लक्षण: यह रोग बिब्रिया प्रजाति के जीवाणुओं से होता है. इसमें मछलियों को भोजन के प्रति अरुचि के साथ साथ रंग काला पड़ जाता है. मछली अचानक मरने भी लगती हैं. यह मछली की आंखों को अधिक प्रभावित करता है सूजन के कारण आंखें बाहर आ जाती हैं. उपचार: ऑक्सीटेटरासाइक्लिन तथा सल्फोनामाइन को 8 से 12 ग्राम प्रति किलोग्राम भोजन के साथ मिला कर देना चाहिए.

 3. कवक एवं फफूंद जनित रोग:

 लक्षण: सेप्रोलिग्नियोसिस:  यह रोग सेप्रोलिग्नियोसिस पैरालिसिका नामक फफूंद से होता है. जाल द्वारा मछली पकड़ने व परिवहन के दौरान मत्स्य बीज के घायल हो जाने से फफूंद घायल शरीर पर चिपक कर फैलने लगती है. त्वचा पर सफेद जालीदार सतह बनाता है. जबड़े फूल जाते हैं पेक्टरल वाका डॉल्फिन पेक्टोरल व काडल फिन के पास रक्त जमा हो जाता है. रोग ग्रस्त भाग पर रुई के समान गुच्छे उभर आते हैं. उपचार:  3% नमक का घोल या 1 :1000 पोटाश का घोल पोटाश का घोल या 1 अनुपात 2 हजार कैलशियम सल्फेट का घोल मैं 5 मिनट तक डुबोने से विषाणु रोग समाप्त किया जा सकता है.

1 - स्पिजुस्टिक अल्सरेटिव सिंड्रोम:

गत 22 वर्षों से यह रोग भारत में महामारी के रूप में फैल रहा है. सर्वप्रथम यह रोग त्रिपुरा राज्य में 1983 में प्रविष्ट हुआ तथा वहां से संपूर्ण भारत में फैल गया यह रोग तल में रहने वाली सम्बल, सिंधी, बाम, सिंघाड़ कटरंग तथा स्थानीय छोटी मछलियों को प्रभावित करता है. कुछ ही समय में पालने वाली मछलियां कार्प, रोहू ,कतला, मिरगला  मछलियां भी इस रोग की चपेट में आ जाती हैं. ये भी पढ़े: अब किट से होगी पशु के गर्भ की जांच लक्षण:  इस महामारी में प्रारंभ में मछली की त्वचा पर जगह-जगह खून के धब्बे उतरते हैं बाद में चोट के गहरे घाव में तब्दील हो जाते हैं. चरम अवस्था में हरे लाल धब्बे बढ़ते हुए पूरे शरीर पर यहां वहां गहरे अल्सर में परणित हो जाते हैं. पंख व पूंछ गल जाती हैं. अतः शीघ्र व्यापक पैमाने पर मछलियां मर कर किनारे पर दिखाई देती है. बचाव के उपाय: वर्षा के बाद जल का पीएच देखकर या कम से कम 200 किलो चूने का उपयोग करना चाहिए. तालाब के किनारे यदि कृषि भूमि है तो तालाब की चारों ओर से बांध देना चाहिए ताकि कृषि भूमि का जल सीधे तलाब में प्रवेश न करें. शीत ऋतु के प्रारंभिक काल में ऑक्सीजन कम होने पर पंप ब्लोवर से  पानी में ऑक्सीजन प्रवाहित करना चाहिए. उपचार: अधिक रोग ग्रस्त मछली को तालाब से अलग कर देना चाहिए. चूने के उपयोग के साथ-साथ ब्लीचिंग पाउडर 1 पीपीएम अर्थात 10 किलो प्रति हेक्टेयर मीटर की दर से तालाब में डालना चाहिए.
Dhania ki katai (धनिया की कटाई)

Dhania ki katai (धनिया की कटाई)

जैसा कि हम सब जानते हैं कि भारत एक उपजाऊ भूमि है यहां हर तरह की फसलें उगाई जाती हैं। उसमें से एक धनिया भी है धनिया जिसको इंग्लिश भाषा में coriander भी कहते हैं। धनिया के एक नहीं कई सारे फायदे हैं फायदे के साथ ये खाने को जायकेदार  भी बनाता है। धनिया में पाए जाने वाले तत्व जैसे डाइटरी फाइबर ,प्रोटीन ,विटामिन सी का मुख्य स्त्रोत होता है। साथ ही साथ इसमें विटामिन बी3 कैलशियम ,मैग्निशियम, मैग्नीज, आयरन आदि भी मौजूद होते हैं। आइये जानते है धनिये की कटाई के बारे में !

धनिया की कटाई (Coriander Harvesting) in Hindi:

धनिया की कटाई की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार है जिसके द्वारा धनिया की कटाई की जाती है:
  • जब धनिया की फसल पूरी तरह से पक जाती है तो इसके सूखने के बाद इसकी खूब अच्छी तरह से तोड़ने( तुड़ाई )की प्रक्रिया को शुरू कर दिया जाता है।
  • तुड़ाई के बाद इसे खूब अच्छे साफ पानी से धोया जाता है। 30 से 40 दिन पूर्व बीत जाने के बाद।
  • धनिया की कटाई से पहले धनिया के बीज को स्टोर करना होता है। जब धनिया का पौधा भूरा रंग का हो जाए। तो ही उसे काट कर एक कागज की थैली में रख दिया जाता है।
  • थैली को आपको कहीं दीवार पर लटका कर रखना होता है। उसके पौधे को सूखने से बचाने के लिए।जब तक सारे बीच थैली में ना गिर जाए।

कुछ इस प्रक्रिया द्वारा किसान धनिया की कटाई करते है।

धनिया की गिनती मसाला वर्गीकरण फसलों में होती है (Coriander is Counted in Spice Classification Crops) in Hindi:

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  • धनिया की मांग पूरे साल मार्केट में बनी रहती है।
  • मार्केट में धनिया की लगातार मांग देते हुए। धनिया की बीज को अच्छी तरह से कंटेनर में स्टोर कर भी रखा जाता है।
  • पत्तियों को सुखाकर इसे स्टोर कर रखा जाता है।
  • धनिया को सुखाने के लिए कृषि इसे ऊंची जगह पर लटका कर रख देते है जिसके बाद धनिया अच्छे से सूख जाने के बाद कंटेनर में स्टोर हो सके।
  • धनिया की कई किस्में और इसकी बहुत सारी बीच काफी मात्रा में उपयुक्त हैं।

धनिया की फसल कितने दिन में तैयार होती है ( In How Many Days Coriander Crop is Ready) in Hindi:

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  • धनिया की फसल उगाने के लिए इसकी सिंचाई करनी होती है। जिसमें लगभग30 से 35 दिन का समय लगता है।
  • धनिया फसल की दूसरी सिंचाई का समय लगभग 50 से 60 दिन का होता है। साख फूटने के बाद यह सिंचाई की जाती है।
  • सिंचाई के बाद धनिया के फूल आना शुरू हो जाते हैं तथा बीच बनने की अवस्था शुरू हो जाती है
  • यह सभी सिंचाई करने के बाद धनिया की एक अच्छी फसल तैयार हो जाती है। 90 से 100 दिन के उपरांत आपको धनिया की अच्छी फसल की प्राप्ति होती है।

धनिया की खेती का समय ( Coriander Cultivation Time) in Hindi:

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  • धनिया की खेती का सही समय रबी का मौसम है।यह रबी के मौसम में बोई जाने वाली फसल है।
  • धनिया फसल की जोताई का समय 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच का होता है जब इस फसल को बोया जाता है।
  • धनिया की अच्छी हरी पत्तियों को प्राप्त करने के लिए आपको दिसंबर तक का इंतजार करना होता है।
  • धनिया को उगाने के लिए डाली जाने वाली खाद्य कृषि विशेषज्ञों के अनुसार चुनी जाती है।
  • विशेषज्ञों द्वारा खेत को तैयार करने के लिए गोबर की खाद मिट्टी में सही तरह से मिलाना होता है।
  • जिसकी मात्रा 100 से 150 कुंटल होनी चाहिए। इसकी खेती के लिए नत्रजन 80 किलोग्राम होना आवश्यक है।
  • इसमें करीब 50 किलो पोटाश तथा फास्फोरस की आवश्यकता पड़ती है।
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धनिया की फसल में सल्फर कब डालते हैं( When to Add Sulfur in Coriander Crop) in Hindi:

Coriander Crop धनिया की फसल के लिए सल्फर बहुत ही उपयोगी होते हैं। इसको किस प्रकार इस्तेमाल करना है? इसकी कितनी मात्रा में आपको सिंचाई करनी होती है? यह सभी सवालों के जवाब कुछ निम्न प्रकार है:
  • एक 1000 लीटर पानी में आपको सिर्फ 1 लीटर सल्फर मिलाकर शाम के समय फसलों पर छिड़काव करना होता है।
  • शाम के समय आपको हल्की सिंचाई करने के दौरान मेंढ के हर तरफ धुआं करना होता है।
  • यदि आपको पाला पड़ने की आशंका दिखाई दे तो आप सबसे पहले डाई मिथाइल सल्फो ऑक्साईड को 75 ग्राम की मात्रा में 1000 लीटर पानी में अच्छे से मिलाकर पूरी तरफ छिड़काव कर दें।

धनिया के फायदे (Benefits of Coriander) in Hindi

dhaniya ke fayade  धनिया एक नहीं बल्कि कई तरह से आपके लिए उपयोगी साबित है।धनिया की उपयोगिता कुछ इस प्रकार है :
  • डायबिटीज से आजकल हर व्यक्ति परेशान है। डायबिटीज से होने वाले नुकसान हमारे शरीर को कमजोर बना रहे हैं। धनिया आपके डायबिटीज को कंट्रोल करता है।
  • धनिया रामबाण है, जो आपके ब्लड शुगर को लेवल में बना कर रखता है।
  • किडनी के रोग को रोग मुक्त करने के लिए भी यह बहुत ही असरदार साबित हुआ है।
  • यदि आप बार-बार अपनी पाचन क्रिया से परेशान हैं। तो आप रोजाना धनिया का सेवन करें यह आपकी पाचन शक्ति को मजबूत बनाता है।
  • कोलेस्ट्रोल को कंट्रोल में रखता है।
  • आंखों की सुरक्षा तथा आंखों की रोशनी को बढ़ाने का भी कार्य करता है।
  • फसल की कटाई की शुरुआत उसका कद 20 से 25 होने के बाद करनी चाहिए। हरी पत्तियों को काटकर अलग कर दें।
  • आपको यह कटाई तीन से चार बार करनी होती है। पूरी कटाई हो जाने के बाद आपको 6 से 7 दिनों तक धूप में फसल को सूखने देना है।
  • धनिया की पत्तियों को चबाने से मुंह सुगंधित रहता है तथा इसको चबाने से हमारे दांतों और मसूड़ों को कई तरह के फायदे पहुंचते हैं।
  • धनिया में मौजूद मिनरल इसको और भी ज्यादा उपयोगी बनाता है।धनिया अपने बेमिसाल फायदे के लिए जानी जाती हैं।
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निष्कर्ष (Conclusion)

Dhaniya crop Conclusion हमारी इस पोस्ट द्वारा आपने धनिया की कटाई और धनिया से जुड़ी सभी आवश्यक बातों को जान लिया होगा, तो हम आपसे यह उम्मीद करते हैं।कि आप हमारी इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और आगे आपके जो भी सवाल हो। जानने के लिए संपर्क करें, हम उम्मीद करते हैं यह पोस्ट आपको जरूर पसंद आई होगी।
धनिया का उपयोग एवं महत्व [Dhaniya (Coriander) uses & importance in hindi]

धनिया का उपयोग एवं महत्व [Dhaniya (Coriander) uses & importance in hindi]

भारत में धनिया रसोई घर में एक मुख्य भूमिका निभाती है, क्योंकि धनिया का उपयोग विभिन्न विभिन्न प्रकार से किया जाता है। धनिया का उपयोग सिर्फ खाने में ही नहीं, बल्कि चाट, सलाद ,सब्जियों को ऊपर से सजाने तथा विभिन्न विभिन्न तरह से धनिया का इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए भारतीय रसोइयों में धनिया का अपना एक मुख्य स्थान है। जो कोई और नहीं ले सकता हैं। यह अपनी खुशबू के साथ विभिन्न प्रकार के गुणों को भी अपने अंदर समेटे हुए रहती है। जानिए धनिया का उपयोग और महत्व ।

धनिया का उपयोग एवं महत्व (Use and importance of coriander)

भारत देश मसालों की भूमि के लिए प्रसिद्ध है और यह प्राचीन काल से सुनिश्चित है।धनिया की पत्तियां और बीज खाने को खुशबूदार और जैकेदार बनाते हैं। धनिया की पत्तियां खाने में खुशबू और इनके बीज में विभिन्न प्रकार के औषधि गुण होते हैं। जिसको खाने से हमारे शरीर को लाभ पहुंचता है।धनिया के औषधि गुणों का उपयोग कुलिनरी,डायरेटिक, कार्मिनेटीव इत्यादि में किया जाता है। धनिया उत्पादक करने वाले मुख्य क्षेत्र कुछ इस प्रकार है जैसे: राजगढ़ ,विदिशा ,शाजापुर छिंदवाड़ा,मंदसौर, म.प्र के गुना आदि। प्राप्त की गई जानकारियों के अनुसार मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा धनिया की खेती की जाती है। मध्यप्रदेश में धनिया की खेती करीबन 1,16,607 की दर पर होती है। इन खेती के आधार पर 1,84,702 टन धनिया की उत्पादकता की प्राप्ति की जाती है। 

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धनिया की फसल के लिए उपयुक्त जलवायु:

धनिया की फसल के लिए सबसे अच्छा मौसम ठंडी का होता है। ठंडी और शुष्क मौसम धनिया की उत्पादकता को बढ़ाता है। धनिया की फसल के लिए सबसे अच्छा तापमान 25 डिग्री से 26 डिग्री सेल्सियस का माना जाता है।किसानों के अनुसार धनिया की फसल शीतोष्ण जलवायु की फसल होती है। धनिया की फसल फूल और दाना का रूप प्राप्त करने के लिए पाला रहित मौसमो पर निर्भर होती हैं। ज्यादा पाला धनिया की फसल को खराब कर देता है।

धनिया की फसल के लिए सिंचाई

धनिया की फसल के लिए सबसे उपयोगी दोमट मिट्टी होती है। खेतों में जल निकास की अच्छी व्यवस्था करना बहुत ही जरूरी होता है।क्षारीय और लवणी भूमि को धनिया की फसल सहन नहीं कर पाती, धनिया की फसल दोमट मिट्टी और मटियार दोमट मे बहुत अच्छी तरह उत्पादन करती हैं।धनिया की फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान  लगभग 6 पॉइंट 5 से लेकर 7 पॉइंट 5 तक का होना जरूरी होता है। धनिया की फसल के लिए सिंचाई पर ध्यान देना जरूरी है। यदि पानी की व्यवस्था ना हो तो आप भूमि में पलेवा देकर भूमि को उचित रूप से तैयार कर सकते हैं। इस प्रकार जुताई करने से भूमि में मिट्टी के ढेले नहीं बनते हैं। 

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धनिया बोने का उचित समय

धनिया की बुवाई का उचित समय रबी का मौसम होता हैं। अक्टूबर से लेकर नवंबर तक  धनिया बोने का सबसे उचित समय होता है। धनिया के पत्तों की अच्छी प्राप्ति के लिए फसल बोने का सही समय अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक का बहुत ही उपयुक्त माना जाता है।पाले के खतरे से बचने के लिए धनिया को नवंबर के दूसरे सप्ताह में बोना आवश्यक होता है।

धनिया की फसल में खाद और उर्वरक

खेत को तैयार करते समय किसान भाई  प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में 100 से लेकर 150 कुंटल सड़ी हुई गोबर की खाद का इस्तेमाल करते हैं। तथा 80 किलोग्राम नत्रजन और 50 किलोग्राम फास्फोरस तथा 50 किलोग्राम पोटाश की मात्रा का इस्तेमाल करते हैं। इन खादो को भली प्रकार से मिट्टी में मिलाया जाता है।

धनिया में सल्फर कब डालते हैं?

फसलों में सल्फर डालने का सही समय शाम का होता है। सल्फर को कुछ इस प्रकार से खेतों में डाला जाता है जैसे ;1 लीटर सल्फर को 1000 लीटर पानी में अच्छी तरह से मिलाकर फसलों पर छिड़काव करें। छिड़काव करते समय इस बात का ध्यान रखें। कि कोई जगह बचे नहीं खेतों में पूर्ण रूप से छिड़काव हो जाए। 

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 शाम का वक्त हो जाने पर खेतों में अच्छी तरह से हल्की सिंचाई करते समय मेढ़ के हर तरफ धुआं कर दें।

धनिया पीली क्यों पड़ जाती है?

धनिया की फसल की देरी से कटाई करने की वजह से धनिया में पीलापन आ जाता है। जो किसान भाइयों के हित में अच्छा साबित नहीं होता। इसीलिए धनिया की फसल की कटाई इसके सही समय पर करनी चाहिए। जब धनिया का दाना दबाने पर धनिया मे हल्का कठोर पन और पत्तिया पीली पड़ने लगे, धनिया डोड़ी दिखने में चमकीले भोरे तथा हरा रंग ,पीला होने पर और दानों में लगभग 18% नमी मौजूद रहे तभी कटाई करनी चाहिए। कटाई में की गई जरा सी भी देरी धनिया के रंगों को पूरी तरह से खराब कर देती है।

धनिया के लाभ

धनिया खाने से हमें विभिन्न विभिन्न प्रकार के लाभ होते हैं। क्योंकि धनिया खाने से विभिन्न प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं तथा हमें उन रोगो से छुटकारा भी मिल जाता है। जैसे : धनिया खाने से हमारी पाचन शक्ति अच्छी रहती है, हमारे शरीर का कोलेस्ट्रॉल लेवल मेंटेन रहता है तथा डायबिटीज, किडनी आदि रोगों में भी यह काफी सहायक होती है। धनिया में मौजूद विभिन्न प्रकार के गुण जैसे फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, वसा प्रोटीन, मिनरल आदि मौजूद होते हैं। यह सभी आवश्यक तत्व धनिया को और भी ज्यादा महत्वपूर्ण बनाते हैं।

 दोस्तों हम यह उम्मीद करते हैं, कि हमारा यह  धनिया का आर्टिकल आपको पसंद आया होगा। हमारे इस आर्टिकल में धनिया से जुड़ी सभी प्रकार की जानकारियां मौजूद है। कृपया हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर करें।

धनिया की खेती से होने वाले फायदे

धनिया की खेती से होने वाले फायदे

दोस्तों आज हम बात करेंगे धनिया की खेती की, धनिया खेती के लिए बहुत ही उपयोगी फसल मानी जाती हैं। क्योंकि बिना धनिया के किसी भी प्रकार का खाना अधूरा रह जाता है। धनिया की पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारी इस पोस्ट के अंत तक जरूर बनाए हैं।

धनिया की खेती:

धनिया के इस्तेमाल से भोजन स्वादिष्ट बनता है तथा भोजन में खुशबू बनी रहती है। धनिया की पत्ती और मसालों में खड़ी धनिया दोनों खानों में अपना अलग ही स्वाद लगाते हैं। 

धनिया ना सिर्फ अभी बल्कि प्राचीन काल से ही मसालों में अपनी अलग भूमिका बनाए हुए है। भारत देश मसाले की भूमि मानी जाती है ऐसे में धनिया एक मुख्य और महत्वपूर्ण मसालों में से एक है।

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किसानों के अनुसार धनिया के बीजों में विभिन्न विभिन्न प्रकार के औषधीय गुण मौजूद होते हैं। इन औषधीय गुणों का उपयोग कुलिनरी , कार्मिनेटीव और डायरेटिक आदि के  रूप में किया जाता है।

धनिया की खेती करने वाले क्षेत्र:

किसानों को धनिया की खेती करने से अधिक लाभ पहुंचता है, क्योंकि यह कम लागत में भारी मुनाफा देने वाली फसलों में से एक हैं। कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां धनिया की खेती भारी मात्रा में की जाती है। 

जैसे मध्यप्रदेश में करीबन धनिया की खेती 1,16,607 के आस पास होती हैं। 1,84,702 टन धनिया का भारी उत्पादन मिलता है। कृषि विशेषज्ञ के अनुसार धनिया के उत्पादन वाले और भी क्षेत्र हैं जहां पर धनिया की भारी उत्पादकता प्राप्त की जाती है। जैसे गुना, शाजापुर ,मंदसौर, छिंदवाड़ा, विदिशा आदि जगहों पर धनिया की फसल उगाई जाती है।

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धनिया की खेती करने के लिए उपयुक्त जलवायु का चयन :

धनिया की खेती के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु शुष्क और ठंडे मौसम की जलवायु मानी जाती है। इन मौसमों में धनिया की खेती का भारी  उत्पादन होता है। धनिया के बीजों को अंकुरित या फूटने के लिए करीब 26 से लेकर 27 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। 

धनिया के बीजों के अंकुरित के लिए या तापमान सबसे उचित माना जाता है। किसानों के अनुसार धनिया शीतोष्ण जलवायु फसल है। इसीलिए इन के फूल और दानों को पाले वाले मौसम की जरूरत पड़ती है। कभी कभी धनिया की फसल के लिए पाले का मौसम नुकसानदायक भी होता है।

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धनिया की फसल के लिए भूमि को तैयार करना :

धनिया की फसल के लिए अच्छी दोमट वाली भूमि सबसे उपयोगी मानी जाती है। सिंचाई की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अच्छी जल निकास वाली भूमि सबसे उपयोगी होती है। जो फसलें असिंचित होती हैं उनके लिए काली भारी भूमि ठीक समझी जाती है। 

इसीलिए किसानों के अनुसार धनिया की खेती के लिए सबसे उपयुक्त मिट्टी दोमट मिट्टी या फिर मटियार दोमट सबसे उपयोगी होती है। मिट्टियों का पीएच मान लगभग 6 पॉइंट 5 से लेकर 7 पॉइंट 5 का सबसे उपयोगी होता है। धनिया की फसल बुवाई करने से पहले खेतों को भली प्रकार से जुताई की आवश्यकता होती है। 

अच्छी गहराई प्राप्त हो जाने के बाद ही बीज रोपण का कार्य शुरू करें। धनिया की फसल के लिए भूमि को करीब दो से तीन बार अड़ी खड़ी जुताई की आवश्यकता होती है। जुताई करने के बाद खेतों में भली प्रकार से पाटा लगाना चाहिए।

धनिया की फसल बोने का सही समय चुने:

धनिया की फसल बोने का सही समय किसान अक्टूबर और नवंबर के बीच का बताते हैं। करीब 15 से 20 अक्टूबर के बीच धनिया की बुवाई का सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। 

धनिया की फसल रबी मौसम में बोई जाने वाली फसल है। धनिया की फसल की बुवाई से किसानों को बहुत लाभ पहुंचता है।अक्टूबर में धनिया के दाने आना शुरू हो जाते हैं। तथा नवम्बर में हरे पत्ते फसल बनकर लहराने लगते हैं। पाले से फसल की खास देखभाल करने की आवश्यकता होती है।

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धनिया की फसल को सुरक्षित रखने के लिए बीज उपचार:

धनिया की फसल को सुरक्षित रखने के लिए  रोगों से बचाव के लिए कार्बेंन्डाजिम और थाइरम का प्रयोग करना चाहिए। इनके इस्तेमाल से भूमि और बीजों दोनों का ही रोगों से बचाव होता है। 

जिन रोगों से फसलें खराब होने का भय रहता है, जनित रोगों से बचाव के लिए 500 पीपीएम तथा में बीजों को स्टे्रप्टोमाईसिन द्वारा उपचार करना चाहिए।

धनिया की फसल में उपयुक्त सिंचाई:

धनिया की फसल की पहली सिंचाई बीज रोपण करते समय करनी चाहिए। उसके बाद दो-तीन दिन के भीतर तीन से चार बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। सिंचाई करते वक्त आप को जल निकास की व्यवस्था को सही ढंग से बनाए रखना होगा, ताकि किसी भी प्रकार का रोग या जल एकत्रित होकर फसल खराब ना होने पाए। 

किसानों के अनुसार धनिया की फसल उनकी आय के साधन को मजबूत बनाते हैं। धनिया की पत्तियां और धनिया के बीच दोनों ही उपयोगी होते हैं। दोस्तों हम उम्मीद करते हैं। कि आपको हमारा यह आर्टिकल धनिया की खेती से होने वाले फायदे पसंद आया होगा। 

हमारे इस आर्टिकल  में सभी प्रकार की आवश्यक जानकारियां मौजूद है जो आपके बहुत काम आ सकती है। यदि आप हमारी दी गई सभी प्रकार की जानकारियों से संतुष्ट हैं। तो हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा अपने दोस्तों के साथ तथा अन्य सोशल प्लेटफॉर्म पर शेयर करें। धन्यवाद।

लीची : लीची के पालन के लिए अभी से करे देखभाल

लीची : लीची के पालन के लिए अभी से करे देखभाल

सन;1780 मे पहली बार भारत देश मे दस्तक देने वाला फल लीची , जिसकी जरूरत आज भी शहरी और ग्रामीण बाजारों में काफी तेज़ी मे है। 

लीची एक मात्र ऐसा फल है जो हमारे शरीर को डी हाइड्रेशन यानी की पानी की कमी की पूर्ति करता है।इसी कारण भारत के पश्चिमी इलाको मे इसकी मांग बहुत है। 

इसी के साथ साथ इसमें विटामिन सी होता है, जो हमारे शरीर मे कैल्शियम की कमी की पूर्ति करता है। इसमें केरोटिन और नियोसीन भी होता है जो शरीर मे इम्यूनिटी को बढ़ाता हैं। 

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भारत मे लीची का उत्पादन सबसे ज्यादा त्रिपुरा मे होता है। इसके अलावा अन्य राज्य झारखंड , पश्चिम बंगाल , बिहार , उतरप्रदेस और पंजाब मे। 

भारत मे किसानों के लिए लीची की फसल से अच्छा मुनाफा होता है ,लेकिन साथ ही साथ अच्छी देखभाल भी करनी पड़ती है।

लीची की फसल को तैयार होने मे काफी समय लगता है, इसलिए किसानों को काफी परेशानियों का भी सामना करना पड़ता है । ऐसे मे किसानों को संपूर्ण फसल को तैयार करने मे लागत खर्चा भी ज्यादा लगता है।

लीची के पालन के लिए सिंचाई और खाद उर्वरक का इस प्रकार करे इस्तेमाल :

insect pest in litchi

लीची की फसल के लिए हमेशा आपको थाला विधि से ही सिंचाई करनी चाहिए। हमें केवल तब तक सिंचाई करनी है ,जब तक पौधों मे फूल आना न लग जाए। 

उसके बाद हमें नवंबर माह से फरवरी माह तक लीची की फसल की सिंचाई नहीं करनी चाहिए। लीची के पौधों को पानी देने का सबसे अच्छा समय शाम का होता है, क्योंकि इससे दिन की गर्मी की वजह से वाष्पीकरण भी नहीं होता है और पौधों को अच्छी तरह से जल की पूर्ति भी होती हैं। 

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इसके अलावा अच्छी खाद और उर्वरक का इस्तेमाल करें और साथ ही साथ पौधे के आस पास बिल्कुल भी खरपतवार ना रहने दे। खरपतवार सभी प्रकार की फसलों के लिए सबसे खतरनाक होता है। 

इस से बचाव के लिए समय समय पर लीची के पौधों के आस पास ध्यान रखे और खरपतवार बिल्कुल भी न रहने दे। जब पौधे 6 से 7 माह के हो जाते है, तो उसके बाद आप पौधों मे फव्वारे के द्वारा पानी की छटाई अवस्य रूप से करे। 

अप्रैल महीने से लेकर नवंबर महीने तक लीची के पौधे की पूर्ण रूप से सिंचाई करे । इस समय तेज गर्मी के कारण पौधों को पानी की पूर्ति सही ढंग से नहीं करवाने पर संपूर्ण फसल पर बहुत असर पड़ता है।

लीची के पौधों की इस प्रकार करे कांट - छांट और रख - रखाव :

production of litchi crops

लीची के पौधों की रख - रखाव करना सबसे महत्वपूर्ण काम होता है ,क्योंकि इसके बिना पूरी फसल भी खराब हो सकती है। 

इसके लिए आप गर्मी और सर्दी की ऋतू मे जब पोधा 4-5 साल का होता है, तो इस समय उसकी अवांछित टहनियों और साखाओ को हटा देना चाहिए । इससे जो भी कीट पतंग और मकड़िया बिना धूप पहुंचने के कारण शाखाओं में छिप जाती हैं वे नष्ट हो जाएंगी। 

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इससे पौधे का अच्छे से भरण-पोषण होगा और फसल की उपज भी अच्छी होगी। फलों की तुड़ाई करने के बाद आप पौधे की जितनी भी रोग ग्रसित ,अवांछित, खराब टहनियों और पत्तियों को हटा दे। 

संपूर्ण खेत के चारों तरफ से बाढ करना बहुत जरूरी है,इससे आसपास के पशु फसल को नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे। साथ ही साथ इससे फसल की उपज मे भी इजाफा होगा।

लीची की फसल मे आने वाली समस्याओं का इस प्रकार करे समाधान :

litchi farming

लीची की फसल का सही से रखरखाव और अच्छी उपज के लिए किसानों को काफी समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है, जिनके बारे मे आज हम आपको बताएंगे की किस प्रकार आप इन समस्याओं से निदान पा सकते है। एक अच्छी फसल का उत्पादन कर सकते हैं तो चलिए जानते है इनके बारे मे

  1. लीची के फलों का फटना और छोटा होने से बचाव :- लीची के पौधों को गर्म और तेज हवाओं के कारण इनके फलों पर इसका सबसे ज्यादा असर दिखाई देता है क्योंकि इससे फल फटना तथा छोटा होना शुरू हो जाते है। ऐसे मे आप  बोरेक्स  ( 5ग्राम लिटर ) या बोरिक अम्ल (4 ग्रा./ली.) के घोल का 2-3 बार छिड़काव करें । इससे फसल की अच्छी पैदावार होगी।फलों के फटने की समस्या भी दूर हो जायेगी ।
  2. लीची मे मकड़ी का लग जाने से बचाव : लीची मे अगर एक बार मकड़ी लग जाती है, तो पूरी फसल को बर्बाद कर देती है। यह मकड़ी लीची के पौधों की टहनियां ,पत्ते और फलों को चुस्ती रहती है। जिसके कारण पूरा पौधा कमजोर पड़ जाता है और नष्ट हो जाता है। इससे बचाव के लिए आप सितंबर और अक्टूबर माह मे केलथेन या फ़ॉसफामिडान (1.25 मि.ली./लीटर) का घोल बनाकर 10- 15 दिन का अंतराल लेकर छिड़काव करें।
  3. लीची के फलों को झड़ने से रोकने के सुझाव :लीची के फलों का झड़ना संपूर्ण फसल के लिए काफी नुकसानदायक होता है। ऐसा पानी की कमी और किटों के कारण होता है।इससे बचाव के लिए आप पौधे मे फल लगने के मात्र सप्ताह भर के अंदर - अंदर क्रॉनिक्सएक्स 2 मिलीलीटर / 4. 8 लीटर या फिर आप ए एन ए 20 मिलीग्राम प्रति लीटर के घोल का बारी-बारी से छिड़काव करें। इससे फलों का झड़ना बंद हो जाएगा।

लीची के पौधे का पूर्ण विकास और प्रबंध इस प्रकार करें :

Litchi farmers

लीची के पौधे का संपूर्ण तरह से विकास होने मे 15 से 20 साल तक का समय लगता है। ऐसे मे पौधे का पूर्ण विकास और सही रखरखाव होना बहुत ही जरूरी होता है।अच्छी उपजाऊ जमीन और अच्छी जलवाष्प का होना भी काफी आवश्यक होता है। 

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लीची के पौधों को लगाते समय प्रति पौधे के बीच मे 5 मीटर की दूरी होनी चाहिए। किसान भाई प्रत्येक एक हेक्टर में 90 से 200 लीची के पौधे लगाएं। 

लीची के पौधों का अच्छे से विकास करने के लिए उनको क्रमबद्ध कतारों मे जरूर लगाए। नियमित रूप से सिंचाई और समय-समय पर पौधों की जरूरत के अनुसार खाद और उर्वरक का छिड़काव करना ना भूलें।

भारत मे लीची का बढ़ता हुआ आयात इस प्रकार :

litchi production in india

भारतीय बाजार की तुलना मे अंतरराष्ट्रीय बाजार मे नवंबर माह से लेकर मार्च माह तक काफी ज्यादा लीची की मांग होती है। भारत मे लीची का फल जुलाई महीने तक संपूर्ण रूप से तैयार होकर बाजार मे उपलब्ध होता है। 

ऐसे समय पर अंतरराष्ट्रीय बाजार मे लीची की मांग बढ़ जाती है। भारत से निर्यात को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार द्वारा एपीडी कार्यक्रम की भी प्रमुख भूमिका है। 

भारत से सबसे ज्यादा लीची का निर्यात सऊदी अरेबिया संयुक्त अरब अमीरात, ओमान , कुवैत  ,बेल्जियम  ,बांग्लादेश और नार्वे जैसे देशों को होता है। 

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भारतीय बाजार मे लीची की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार की तुलना में काफी कम है , लेकिन पिछले कुछ सालों मे इसकी कीमत मे इजाफा हुआ है। 

साथ ही साथ भारत सरकार द्वारा किसान भाइयों के लिए फसलों की रखरखाव और जानकारी के लिए कई सारे कार्यक्रम भी किए जाते हैं। 

इसके अलावा लॉकडाउन लगने के कारण किसानों को लीची की फसल को भारतीय बाजार मे बेचने के लिए काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा लेकिन आने वाले सालों मे लीची का आयात बहुत ज्यादा बढ़ने वाला है। 

अतः हमारे द्वारा बताए गए इन सभी सुझाव समस्याओं एवं उनके निदान जो की लीची की फसल के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होते है। साथ ही साथ इसके अलावा किसान भाई समय-समय पर लीची के पौधों का उचित रखरखाव और खाद रूप का छिड़काव करते रहे।

धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है

धान की उन्नत खेती कैसे करें एवं धान की खेती का सही समय क्या है

कोविड-19 के प्रभाव के चलते इस बार धान की रोपाई के लिए मजदूरों का संकट हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। धान की सीधी बिजाई इसका श्रेष्ठ समाधान है। 

धान की खेती सीधी बुवाई कम पानी वाले, जलभराव वाले एवं वर्षा आधारित खेती वाले सभी इलाकों में की जा सकती है। 

धान तिलहन है या दलहन

धान ना तो तिलहन है ना दलहन है। दलहनी फसल में होती है जिनमें से तेल निकलता है यानी सरसों अरंडी तिल अलसी आदि। 

दलहनी फसलें वह होती है जिनकी दाल बनाई जाती है यानी चना उर्दू मून मशहूर राजमा आदि। धान अनाज है खाद्यान्न है। 

क्या है सीधी बिजाई का तरीका

धान की सीधी बिजाई गेहूं जो जैसी फसलों की तरह ही की जाती है। बिजाई के लिए धाम को नर्सरी डालने की तरह ही 12 घंटे पानी में भिगोया जाता है उसके बाद जूट के बैग में अंकुरित होने के लिए रखा जाता है।

कार्बेंडाजिम 223 जैसे किसी फफूंदी नाशक से उपचारित किए हुए इस बीच को थोड़ा खुश्क करके बो दिया जाता।

क्या है सीधी बिजाई के फायदे

इस तकनीकी से धान की फसल लगाने से उत्पादन लागत में भारी कमी आती है। 50 से 60% तक डीजल की बचत होती है। 30 से 40 फ़ीसदी श्रमिकों पर होने वाले खर्चे में बचत होती है। 

उर्वरकों के उपयोग में भी इजाफा होता है। इस तरह धान की फसल लेने से जहरीली मीथेन गैस का उत्सर्जन भी बेहद कम हो जाता है जोकि पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अहम है। 

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कब करें धान की बुवाई

धान की खेती बुवाई मानसून आने से 10 से 15 दिन पूर्व कर देनी चाहिए। इससे पूर्व खेत को तीन से चार बार एक एक हफ्ते के अंतराल पर गहरा जोतना चाहिए। 

जुताई के बीच में अंतराल इसलिए रखना चाहिए ताकि जमीन ठीक से सीख जाए और उसमें मौजूद हानिकारक फफूंदी नष्ट हो जाएं। खेतों को कभी एक ही बार में तीन से चार बार नहीं जोतना चाहिए। 

सीधी बिजाई के लिए धान की किस्में

धान की सीधी बिजाई के लिए पूसा संस्थान की सुगंध 5, 1121, पीएचवी 71, नरेंद्र 97, एमटीयू 1010, एच यू आर 3022, सियार धान 100 किस्म प्रमुख हैं। 

बीज दर

सीधी बिजाई के लिए मोटे धान की 20 से 25 किलोग्राम बीज एवं बारीक धान की 10 से 12 किलोग्राम बीज को अंकुरित करके बोया जा सकता है। 

उर्वरक प्रबंधन

धान की सीधी बिजाई के लिए आखरी जुताई की समय 50 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश एवं 25 किलोग्राम जिंक को आखरी जुताई में मिला देना चाहिए। 

जिंक और फास्फोरस को एक साथ नहीं मिलाना चाहिए अन्यथा फास्फोरस निष्प्रभावी हो जाता है। 100 से 150 किलोग्राम नाइट्रोजन की जरूरत होती है इसकी एक तिहाई मात्रा जुताई में मिला दें बाकी फसल बढ़वार के लिए प्रयोग में लाएं। 

खरपतवार नियंत्रण

धान की सीधी बुवाई के बाद पेंडा मैथलीन दवा की एक किलोग्राम मात्रा को पर्याप्त पानी में घोलकर बुवाई के 24 घंटे के अंदर मिट्टी पर छिड़क देना चाहिए ताकि खरपतवार उगें ही नहीं। 

फसल बढ़वार के समय उगने वाले खरपतवार को मारने के लिए नॉमिनी गोल्ड दवा का छिड़काव करें।

कैसे डालें धान की नर्सरी

कैसे डालें धान की नर्सरी

किसी भी फसल की नर्सरी डालना सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है क्योंकि अनेक तरह के रोग संक्रमण नर्सरी से शुरू होकर आखरी फसल पकने तक परेशान करते हैं। इनमें मुख्य रूप से जीवाणु और विषाणु जनित रोग प्रमुख हैं। 

धान की नर्सरी (paddy nursery)

एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए महीन धान 30 किलोग्राम,मध्यम धान 35 किलोग्राम और मोटे धान का 40 किलोग्राम बीज को तैयार करने हेतु पर्याप्त होता है। एक हेक्टेयर की नर्सरी से लगभग 15 हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई हो जाती है। 

धान की नर्सरी डालने से पहले पौधों वाली क्यारी को खेत से 1 से 2 इंची ऊंचा उठा लें ताकि गर्मी के समय में यदि क्यारी में पानी ज्यादा लग जाए तो उसे निकाला जा सके।

क्यारी उपचार


धान की नर्सरी डालने से पूर्व एक कुंतल सड़े हुए गोबर की खाद में एक किलोग्राम ट्राइकोडरमा मिला लें और उसे पेड़ की छांव में पानी के छींटे मार कर रखते हैं। 

7 दिन तक पानी के छींटे मारते हुए स्थान को पलटते रहें। इसके बाद धान की नर्सरी जिस क्यारी में डालनी है उसमें इसे मिला दें। ऐसा करने से जमीन में मौजूद सभी हानिकारक फफूंदियां नष्ट हो जाएंगी। 

उर्वरक प्रबंधन

एक हेक्टेयर नर्सरी डालने के लिए खेत में 100 किलोग्राम नत्रजन एवं 50 किलोग्राम फास्फोरस का प्रयोग करें।ट्राइकोडरमा का एक छिड़काव नर्सरी लगने के 10 दिन के अंदर पर कर देना चाहिए।

मौत के 10 से 15 दिन का होने पर एक सुरक्षात्मक छिड़काव खैरा सहित विभिन्न रोगों से सुरक्षा के लिए कर देना चाहिए। पांच किलोग्राम जिंक सल्फेट, 20 किलोग्राम यूरिया, या ढाई किलोग्राम बुझे हुए चूने के साथ 1000 लीटर पानी के साथ प्रति हेक्टेयर की दर से पहला छिड़काव बुवाई के 10 दिन बाद दूसरा 20 दिन बाद करना चाहिए। 

सफेदा रोग का नियंत्रण करने के लिए 4 किलोग्राम फेरस सल्फेट का 20 किलो यूरिया के घोल के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। झोंका रोग की रोकथाम के लिए 500 ग्राम कार्बन डाई, 50% डब्ल्यूपी का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। 

भूरा धब्बा रोग से बचाव के लिए दो किलोग्राम जिंक मैग्नीस कार्बोमेट का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। नर्सरी में लगने वाले कीड़ों से पौधों को बचाने के लिए 1 लीटर फेनीट्रोथियान 50 ईसी, 1. 25 लीटर क्नायूनालफास 25 ईसी या 1.5 लीटर क्लोरो पायरी फास 20 ईसी का छिड़काव प्रति हेक्टेयर की दर से करें। 

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समय-समय पर पद की क्यारी में पानी लगाते रहे और इस बात का जरूर ध्यान रखें की पानी शाम को लगाएं। सुबह तक क्यारी पानी को पी जाए इतना ही पानी लगाएं। ज्यादा पानी लगाने और पानी के क्यारी में ठहर जाने से पौध मर सकती है।

बीज का भिगोना

धान के बीज को अंकुरण के लिए भिगोने से पूर्व 100 किलो पानी में 2 किलो नमक डालकर बीज को उसमें डालें। इससे संक्रमित थोथा और खराब बीज ऊपर तैर आएगा। 

खराब बीज को फेंक दें। अच्छे बीज को नमक के घोल से निकाल कर तीन चार बार साफ पानी में धो लें ताकि नमक का कोई भी अंश बीज पर ना रहे।

धान की खेती की रोपाई के बाद करें देखभाल, हो जाएंगे मालामाल

धान की खेती की रोपाई के बाद करें देखभाल, हो जाएंगे मालामाल

धान की खेती की रोपाई का आखिरी सीजन चल रहा है। जो किसान भाई अपने खेतों में धान के पौधों की रोपाई कर चुके हो वह यह न मान कर चलें कि खेती का काम समाप्त हो गया है। खेती के बारे में कहा जाता है कि खेती का काम कभी समाप्त ही नहीं होता है। एक फसल कटने के बाद दूसरे फसल की तैयारी शुरू हो जाती है। जो किसान भाई धान की फसल से अच्छी पैदावार चाहते हैं। यदि समय पर धान के पौधों की रोपाई कर ली हो तो उसके बाद की देखभाल करनी चाहिये। फसल की जितनी अधिक देखभाल करेंगे। समय पर खाद, पानी और निराई गुड़ाई करायेंगे, उतनी ही अच्छी पैदावार पायेंगे। ऐसे किसानों की धान की खेती से अन्य किसानों की अपेक्षा अधिक आमदनी हो सकती है। आइये हम जानते हैं कि रोपाई के बाद धान के खेत में किन-किन खास बातों का ख्याल रखना पड़ता है।

रोपाई के बाद रखें खरपतवार का ख्याल

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि सबसे पहले तो जुलाई के माह में हर हाल में धान की रोपाई हो जानी चाहिये। जिन किसान भाइयों ने धान के पौधे की रोपाई कर ली हो तो उनहें रोपाई के दो-तीन दिनों के भीतर खरपतवार को नियंत्रित करने वाली दवा डालनी चाहिये ताकि धान की फसल में अनचाही घास अपनी पकड़ न बना सके। इसके दो सप्ताह के बाद फिर खेत का अच्छी तरह से मुआयना करना चाहिये। उस समय भी खरपतवार को देखना होगा। यदि खरपतवार बढ़ रही हो तो उसका उपाय करना चाहिये। इसके अलावा खेत में यह भी देखना चाहिये कि जहां पर पौधे न उगे हों जगह खाली बच गयी हो अथवा पौधे खराब हो गये हों। उनकी जगह नये पौधे लगाने चाहिये। इस गैप को भरने से फसल भी बराबर हो जायेगी और पैदावार भी अच्छी होगी। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=QceRgfaLAOA&t[/embed]

पानी के प्रबंधन पर दें ध्यान

वर्षाकाल में धान की पौध को रोपने के बाद वर्षा का इंतजार करें और यदि वर्षा न हो तो सिंचाई का प्रबंधन करें। किसान भाइयों को रोपाई के बाद इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि एक सप्ताह तक खेत में दो इंच पानी भरा रहना चाहिय् इसके अलावा प्रत्येक सप्ताह खेत की निगरानी करते रहना चाहिये। खेत सूखता दिखे तो सिंचाई करना चाहिये। धान में फूल आते समय तथा दाने में दूध पड़ने के समय खेत में पर्याप्त नमी रखने का प्रबंध करना चाहिये। ऐसा न करने से पौधे सूख सकते हैं और उत्पादन प्रभावित हो सकती है। लेकिन कटाई से 15 दिन पहले से सिंचाई बंद करना चाहिये।

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उर्वरकों का प्रबंधन भी जरूरी

धान की खेती में अच्छी पैदावार के लिए समय पर सिंचाई के बाद  उचित समय पर खाद एवं उर्वरक का भी प्रबंधन किया जाना जरूरी होता है। धान की बुआई के समय गोबर की खाद के अलावा नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिये। लेकिन नाइट्रोजन का इस्तेमाल धान की रोपाई के बाद कई बार दिया जाता है। अलग-अलग किस्मों के लिए अलग-अलग तरह से उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है। 1.जल्दी पकने वाली किस्मों में बुआई से पहले प्रति एकड़ 24 किलो नाइट्रोजन, 24 किलो फॉस्फोरस और 24 किलो पोटाश को डालना चाहिये। रोपाई के बाद जब कल्ले निकलते दिखें उस समय किसान भाइयों को 24 किलो नाइट्रोजन को डालना चाहिये। इससे अच्छी पैदावार हो सकती है। 2.देर से पकने वाली फसलों के लिए प्रति एकड़ 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलो फॉस्फोरस और 25 किलो पोटाश बुआई के समय दिया जाना चाहिये तथा रोपाई करने के बाद जब कल्ले निकलते नजर आयेंं तो 30 किलो नाइट्रोजन का छिड़काव खेतों में करना चाहिये। इससे दाने अच्छे बनते हैं। पैदावार भी अच्छी होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=BS9nx-38oGo&[/embed] 3.सुगंधित चावल के धान की फसल देर से पकती है। इस तरह की फसल के लिए प्रति एकड़ 50 किलो नाइट्रोजन, 25 किलो फास्फोरस और 25 किलो पोटाश तो बुआई के समय डाली जानी चाहिये। इसके बाद जब कल्ले और बालियां निकलने वाले हों तो उस समय 50 किलो नाइट्रोजन, 12 किलो फॉस्फोरस और 12 किलो पोटाश डालनी चाहिये। इससे उत्तम क्वालिटी का धान पैदा होता है। साथ ही पैदावार बढ़ जाती है। 4.सीधी बुवाई वाली फसल में 50 किलो नाइट्रोजन, 20 किलो फॉस्फोरस, 20 किलो पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से बुआई के समय डाला जाना चाहिये। इसके अलावा 50 किलो नाइट्रोजन खरीद लें तो जिसके चार हिस्से कर लेना चाहिये। एक हिस्सा तो रोपाई के समय डालना चाहिये। इसका दो गुना हिस्सा कल्ले निकलते समय डालना चाहिये। इसके बाद बचा हुआ एक हिस्सा बालियां निकलते समय डालना चाहिये।

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कीट पर नजर रखें और उपाय करें

धान के पौधों की लगातार निगरानी करते रहना चाहिये क्योंंंंकि कल्ले निकलने से लेकर दाने में दूध पड़ने तक अनेक तरह के कीट एवं रोगों का हमला होता है। किसान भाइयों को चाहिये कि खेतों की निगरानी करते समय जिस कीट अथवा रोग की जानकारी मिले, उसका तुरन्त इंतजाम करना चाहिये।

सैनिक कीट

रोपाई के बाद सबसे पहले सैनिक कीट की सूंडियों के हमले का डर रहता है। यह कीट पौधों को इस प्रकार खा जाती है जैसे लगता है कि पशुओं के झुंड ने खेत को चर डाला हो। जब भी इस कीट के हमले का संकेत मिले।  उसी समय मिथाइल पैराथियान या फेन्थोएट का 2 प्रतिशत चूर्ण पानी में मिलाकर घोल बनाकर छिड़काव करें।

गंधीबग कीट

रोपाई के बाद खेतों में हमला करने वाले कीटों में गंधी बग कीट प्रमुख है। इस कीट के खेत में आक्रमण होते ही बहुत दुर्गन्ध आने लगती है। ये कीट पौधों में दूधिया अवस्था में लगता है। यह कीट दूध चूस कर दानों को खोखला कर देता है। इससे धान पर काले धब्बे बन जाते हैं और उसमें चावल नही बनते। इस कीट के आक्रमण का संकेत मिलने पर मैलाथियान धूल 5 डी 20-25 किलोग्राम प्रति एकड़ छिड़काव करें। इसके अलावा किसान भाई क्विनालफॉस 25 ईसी दो मिली प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। इसके अलावा एसीफेट 75 एस पी डेढ़ ग्राम प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर सकते हैं।  कार्बारिल या मिथाइल पैराथियान धूल को 25-30 किलोग्राम से पानी में मिलाकर छिड़काव करने से लाभ मिलता है।

तनाच्छेदक कीट

रोपाई से लगभग एक माह बाद तनाच्छेदक कीट लगने की संभावना रहती है। यह कीट फूल व बालियों को नुकसान पहुंचाता है। इसका पता लगते ही ट्राइकोकार्ड (ततैया) एक से डेढ़ लाख प्रति हेक्टेयर प्रति सप्ताह की दर से 6 सप्ताह तक छोड़ें। इसके अलावा कार्बोफ्रयूरॉन 3 जी या कारटैप हाइड्रोक्लोराइज 4 जी या फिप्रोनिल 0.3 जी 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। क्विनॉल, क्लोरोपायरीफास का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

हरा फुदका

हरे फुदका भी ऐसा कीट होता है जो पौधों के तने का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं। इस कीट की खास बात यह है कि यह पत्तों में नही लगता बल्कि तने में चिपका रहता है। काले, भूरे व सफेद रंग के ये फुदके फसल के लिए काफी खतरनाक होते हैं। इस कीट को नियंत्रित करने के लिए कार्बोरिल 50 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति लीटर या बुप्रोफेजिन 25 एस एस 1 मिली प्रति लीटर का प्रति प्रयोग करना चाहिये। इससे लाभ होगा। इसके अतिरिक्त  इमिडाक्लोरोप्रिंड 17.8 एसएस, थायोमेथोक्जम 25 डब्ल्यूपी, बीबीएमसी 50 ईसी का भी प्रयोग किसान भाई कर सकते हैं। यदि आपका खेत बस्ती के आसपास है तो आपको चूहों से भी सतर्क रहना होगा। चूहों के नियंत्रण के लिए आसपास के खेत वालों के साथ मिलकर उपाय करने होंगे पहले विषरहित खाद्य चूहों को देना चाहिये। एक सप्ताह बाद जिक फॉस्फाइड मिला खाद्यान्न देना चाहिये। इससे चूहे समाप्त हो सकते हैं। इसक अलावा कटाई, मड़ाई समय पर करनी चाहिये। मड़ाई के बाद अच्छी तरह सुखाने आदि का प्रबंधन भी किसान भाइयों को करना चाहिये।
धान की फसल काटने के उपकरण, छोटे औजार से लेकर बड़ी मशीन तक की जानकारी

धान की फसल काटने के उपकरण, छोटे औजार से लेकर बड़ी मशीन तक की जानकारी

हमारे देश के बड़े भूभाग में धान की फसल की जाती है। पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में तो धान की ही मुख्य फसल होती है। धान की फसल की बुआई, रोपाई और कटाई में बहुत से श्रमिकों की आवश्यकता होती है। किसान भाइयों आज का समय पैसे कमाने का समय है। प्रत्येक व्यक्ति अपने परिश्रम का अधिक से अधिक मेहनताना लेना चाहता है। इसके लिए आज के श्रमिकों ने खेती किसानी का काम छोड़ करन परदेश जाकर कारखानों में काम करना शुरू कर दिया है। इस वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों का अभाव हो गया है। इस वजह से खेती किसानी करना बहुत मुश्किल होता जा रह है। जो श्रमिक गांवों में बचे रह गये हैं वे भी अपने अन्य भाइयों के समान औद्योगिक श्रमिकों की तरह मेहनताना मांगते हैं। इससे खेती की लागत उतनी अधिक बढ़ जाती है जितना उत्पादन नहीं हो पाता है। इसलिये किसान भाई वो काम नहीं कर पाते हैं।

धान की फसल की बुआई, रोपाई और कटाई

Content

  1. समय पर कटाई से बच जाता है नुकसान
  2. हंसिया (Sickle)
  3. ब्रश कटर (Brush Cutter)
  4. क्या होता है ब्रश कटर
  5. कम्बाइंट हार्वेस्टर (Combined Harvester Machine)
  6. क्या होती है कम्बाइंड हार्वेस्टर मशीन (Combined Harvester Machine)
  7. क्या होता है कम्बाइंड हार्वेस्टर कटर
  8. रीपर मशीन (Reaper Machine)
  9. क्या होता है रीपर मशीन
  10. हाथ से चलने वाली मशीन (हैंड रीपर)
  11. छोटे वाहन वाली मशीन (सेल्फ प्रॉपलर मशीन)
  12. ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन (ट्रैक्टर माउंटेड)

समय पर कटाई से बच जाता है नुकसान

खेती किसानी का काम समय से होना चाहिये तभी आपको अधिक उत्पादन मिल सकता है। श्रमिकों के अभाव में किसान भाइयों की खेती प्रभावित होती है। कभी लेट बुआई होती है तो कभी निराई गुड़ाई नहीं हो पाती है। कभी सिंचाई देर से हो पाती है अथवा फसल की आवश्यकतानुसार सिंचाई नहीं हो पाती है। कीट व रोग के प्रकोप से नियंत्रण में भी असर पड़ता है। कुल मिलाकर श्रमिकों के बिना खेती पूरी तरह से प्रभावित होती है। ऐसी स्थिति में किसान भाइयों को खेती के आधुनिक तरीके और आधुनिक उपकरणों और मशीनों का इस्तेमाल करना चाहिये। इन मशीनों व उपकरणों से मानव श्रम से अधिक और बहुत ही साफ सुथरा काम हो जाता है। लागत  व समय भी कम लगता है। आइये हम आज धान की फसल को काटने वाली छोटे उपकरण से लेकर बड़ी मशीनों तक की चर्चा करेंगे। जो इस प्रकार है:-
  1. हंसिया या हंसुआ: (Sickle)

यह किसानों का पारंपरिक कटाई का औजार, उपकरण या हथियार है। इससे किसी प्रकार की फसल की कटाई की जा सकती है। धान की फसल की कटाई इसी हथियार से की जाती है। छोटे किसान आज भी अपने परिवार के साथ इसी हथियार से कटाई करते हैं। इससे फसल की कटाई में काफी समय लगता है। जब धान की फसल पक गयी हो और खेत में पानी भरा हो तब यही हथियार फसल की कटाई के काम आता है।
  1. ब्रश कटर (Brush Cutter)

हाथ से कटाई करने में बहुत श्रमिक और बहुत समय लगता है। इससे किसान भाइयों का समय व पैसा बहुत बर्बाद होता है। धान की फसल की समय पर कटाई होनी बहुत जरूरी होती है। यदि समय पर धान की फसल की कटाई नहीं की गई तो बहुुत नुकसान होता है। आज के समय में खेतों में काम करने वाले मजदूर न मिलने के कारण किसानों के समक्ष बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गयी है। ऐसे में समय पर कटाई करना किसान भाइयों के लिए टेढ़ी खीर बन गयी है। इस समस्या को आधुनिक यंत्रों व मशीनों के द्वारा हल किया जा सकता है। पहले तो व्यापारियों ने धान की फसल कटाई के लिए बड़ी बड़ी मशीनें मार्केट में उतारीं, जिन्हें किराये पर लेकर काम कराया जा सकता था। लेकिन इन मशीनों का किराया भी इतना अधिक था कि प्रत्येक किसान उसको वहन नहीं कर सकता था। इसलिये अब बाजार में छोटी मशीनें आ गयी है। इसमें एक ब्रश कटर नाम से एक ऐसी मशीन आ गयी है, जिसको किसान अकेले ही दस मजदूरों के बराबर फसल की कटाई कर सकता है।  पेट्रोल से चलने वाली यह मशीन महीनों का काम घंटों में कर देती है। ये भी पढ़े: आधुनिक तकनीक अपनाकर घाटे से बचेंगे किसान

कितना है मैनुअल व मशीन के काम व दाम में अंतर

जानकार लोगों का दावा है कि एक एकड़ की मजदूरों द्वारा खेती की धान की फसल की कटाई पर लगभग 5 हजार रुपये का खर्च आता है। लेकिन इस मशीन से मात्र 500  रुपये में एक ही व्यक्ति कटाई कर सकता है। यदि किसान भाई यह काम करने में सक्षम हो तो ठीक वरना इस मशीन को चलाने वाले बहुत से लोग आ गये हैं। इस मशीन की खास बात यह है कि इसमें फसल के अनुसार ब्लेड लगाकर अलग-अलग तरह की फसलों की कटाई की जा सकती है। यह मंशीन कंधे पर टांग कर फसल की कटाई की जा सकती है। खेत में पानी भी भरा हो तब भी किसान भाई इस मशीन से कटाई कर सकते हैं। यदि किसान भाई इस मशीन की मेंटीनेंस अच्छी तरह से करे तो यह मशीन अपनी कीमत एक साल में ही निकाल देती है। यह मशीन अधिक महंगी भी नहीं है।

क्या होता है ब्रश कटर (Brush Cutter):-

ये भी पढ़े: भूमि की तैयारी के लिए आधुनिक कृषि यन्त्र पावर हैरो छोटे किसानों के लिए यह एक ऐसी आधुनिक मशीन है, जिसके माध्यम से किसान भाई केवल धान फसल की कटाइई ही नहीं कर सकते हैं बल्कि इससे अनेक प्रकार की फसलों च चारे की कटाई आसानी से कर सकते हैं। इस मशीन से खेतों में रुका हुआ थोड़ा बहुत पानी भी निकाल सकते हैं। अब यह मशीन पेट्रोल और मोबिल आयल से चलने वाली 4 स्ट्रोक वाली मोटर से लैस मशीन है। इसमें एक हैंडल दिया गया है। हैंडल के आगे कटर लगाने के लिए स्थान दिया गया है। इसमें आप अपनी जरूरत के ब्लेड लगाकर अपनी मनचाही फसल काट सकते हैं। इसका वजन 7 से 10 किलो तक का होता है।

किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता नहीं

इस मशीन को चलाने के लिए कोई खास ट्रेनिंग नहीं लेनी होती है। शुरू के 10 से 15 मिनट में नये व्यक्ति को परेशानी होती है। एक बार इसको चलाने का तरीका जानने के बाद इसे आसानी से चलाया जा सकता है। इतनी ट्रेनिंग मशीन बेचने वाली कंपनी के टेक्नीशियन दे देते हैं। इसके अलावा इस मशीन को किसान भाई तो चला सकते हैं और उनकी अनुपस्थिति में घर की महिलाएं भी आसानी से चला सकतीं हैं।
  1. कम्बाइंड हार्वेस्टर मशीन (Combined Harvester Machine)

धान फसल की कटाई के लिए कम्बाइंड हार्वेस्ट मशीन का उपयोग तेजी से होने लगा है। इस मशीन के माध्यम से खेत में खड़ी फसल की बालियों यानी अनाज की कटाई की जाती है और उसकी मढ़ाई और गहाई की जाती है। यह मशीन जमीन से 30 सेंटीमीटर ऊपर से फसल काटती है और खेत में ठूंठ छोड़ देती है इससे पुआल का नुकसान होता है। दूसरा समय पर खेत को खाली करने के लिए किसान भाइयों को जल्दी होती है और उस समय कोई दूसरा उपाय न सूझने के कारण खेत में पराली को जला दिया जाता है। इससे जानवरों के चारे का नुकसान होता है दूसरा पर्यावरण प्रदूषित होता है।

नुकसान के बावजूद है फायदे का सौदा

हालंकि मजदूरों की अपेक्षा आधी कीमत पर बहुत कम समय में अच्छी तरह से कटाई, मढ़ाई और गहाई हो जाती है। इसलिये किसान भाई इस मशीन का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह की मशीन का इस्तेमाल बड़े किसान भाई करते हैं जिनके पास लम्बी चौडी खेती है और समय पर मजदूर नहीं मिल रहे हैं तो उनके पास इसी तरह की मशीन का ही एकमात्र विकल्प बचता है। लेकिन इस मशीन की इस कमी को देखते हुए अनेक तरह के आकर्षक रीपर मार्केट में आ गये हें। जिनसे जमीन से 5 सेंटी ऊपर की कटाई की जाती है। इससे किसान भाइयों के समक्ष ठूंठ व पराली वाली समस्या नहीं आती है।  चारे व अन्य काम के लिए बची पुआल भी काम में आ जाती है।

क्या होती है कम्बाइंड हार्वेस्टर मशीन (Combined Harvester Machine)

यह मशीन वास्तव में बड़े किसानों के इस्तेमाल के लिए होती है। यह मशीन महंगी होती है तथा इसको किराये पर चलाने के उद्देश्य से भी लिया जा सकता है। यह मशीन सूखे खेत में ही चलाई जा सकती है। जो किसान भाई कम्बाइंड हार्वेस्टर मशीन का इस्तेमाल करना चाहें तो प्रॉपलर या ट्रैक्टर में लगाकर इस मशीन को इस्तेमाल कर सकते हैं। इस तरह की मशीन बनाने वालों में दशमेशर, हिंद एग्रो, न्यू हिन्द, प्रीत, क्लास आदि ब्रांड के हार्वेस्टर कटर आते हैं। ये चौड़ाई के अनुसार दो फिल्टर्स आते हैं। इनकी चौड़ाई 1 से 10 व 11 से 20 फीट तक होती है। इसके अलावा आप अपनी जरूरत के हिसाब की चौड़ाई वाले फिल्टर्स का इस्तेमाल कर सकते हैं।
  1. रीपर मशीन (Reaper Machine)

यह भी ब्रश कटर से मिलती जुलती मशीन है। इस मशीन में भी कटर का इस्तेमाल होता है। इस मशीन की खास बात यह है कि यह कई साइजों में आती है। इस मशीन को किसान भाई अपनी क्षमता व जरूरत के हिसाब से लेकर इस्तेमाल कर सकते हैं अथवा किराये पर लेकर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। यह मशीन हाथ ठेले के रूप में इस्तेमाल की जा सकती है, इसे मिनी ट्रैक्टर या छोटी गाड़ी में भी लगाकर फसल की कटाई की जा सकती है। इसको बड़े ट्रैक्टर में भी लगाकर फसल की कटाई की जा सकती है। यह मशीन धान की फसल की कटाई के लिए तो उपयुक्त है ही। साथ ही गेहूं  सहित अनेक फसलों को भी इससे काटा जा सकता है।

क्या होती है रीपर मशीन (Reaper Machine)

आधुनिक कृषि उपकरणों में इस मशीन की गिनती होती है। यह मशीन ऐसी है जिसे हर तरह का किसान अपनी क्षमता के अनुसार खरीद कर फसल की कटाई आसानी से कर सकता है। जहां पर फसल की कटाई के लिए कम्बाइंड हावेस्टर और ट्रैक्टर नहीं पहुंच पाता है वहां पर यह मशीन काम आती है। यह मशीन छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी आती है। मुख्यत: तीन प्रकार की ये मशीन होती है।
    1. हाथ से चलने वाली मशीन हैंड रीपर (Hand Reaper Machine)
    2. छोटे वाहन वाली मशीन सेल्फ प्रॉपलर मशीन (Self Propeller Machine)
    3. ट्रैक्टर से चलने वाली मशीन ट्रैक्टर माउंटेड (Tractor Mounted Machine)
  1. हाथ से चलने वाली मशीन हैंड रीपर (Hand Reaper Machine)

यह मशीन मूलत: छोटे किसानों के लिए होती है। यह एक पॉवरफुल मशीन होती है जो हाथों से एक व्यक्ति द्वारा चलाई जाती है। इसमें एक 5 हॉर्सपॉवर का इंजन लगा होता है। पेट्रोल व डीजल से चलने वाले इंजन अलग-अलग आते हैं। इसमें आगे की तरफ रीपर में ब्लेड़स लगे रहते हैं जिससे फसल की कटाई की जाती है। इसमें पीछे एक हैंडल लगा होता है और इसमें दो मजबूत रबर के टायर भी लगे होते हैं। हैंडल में दो गियर भी लगे होते हैं। किसान भाई हैंडल को पकड़ कर इस मशीन को खेतों में धकेलते जाते हैं और गियर के इस्तेमाल से फसल की कटाई होती रहती है। यदि इस मशीन को कहीं दूर ले जाना होता है तो इसको मोटर व मशीन को आसानी से अलग-अलग भी किया जा सकता है और इस्तेमाल के समय जोड़ा भी जा सकता है।
  1. छोटे वाहन वाली मशीन यानी सेल्फ प्रॉपलर मशीन (Self Propeller Machine)

जो किसान मध्यम श्रेणी में आते हैं और जिनकी खेती का रकबा थोड़ा बड़ा होता है, जो थोड़ा ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं तो वे छोटे वाहन यानी सेल्फ प्रॉपलरवाली मशीनों को खरीद कर फसल की आसान कटाई कर सकते हैं। इसमें एक सीटर वाहन होता है। उसमें रीपर में ब्लेड लगे होते हैं। इस एक सीटर वाहन में किसान भाई आराम से बैठ कर रीपर के माध्यम से फसलों की कटाई आसानी से कर सकते हैं। समय, पैसा दोनों ही बचा सकते हैं। ये भी पढ़े: कल्टीवेटर से खेती के लाभ और खास बातें

रीपर बाइंडर मशीन (Reaper Binding Machine)

रीपर बाइंडिंग मशीन ऐसी मशीन होती है जो खेत में फसल की कटाई के साथ पौधों का बडल यानी पूला बना देती है। इससे किसान भाइयों को काफी सुविधा होती है।
  1. ट्रैक्टर माउंटेड मशीन (Tractor Mounted Machine)

यह मशीन बड़े किसानों के लिए होती है। यह मशीन ट्रैक्टर में लगायी जाती है। यह मशीन उन किसानों के लिए है, जिनकी बड़ी काश्तकारी है और उनके पास काम करने वाले श्रमिकों की संख्या कम होती है। ऐसे किसान अपने खेत के काम निपटा कर दूसरों के खेतों पर कटाई का व्यवसाय कर सकते हैं। इस तरह से किसान इसको किराये पर चला कर अपना व्यवसाय भी कर सकते हैं।
धान की कटाई के बाद भंडारण के वैज्ञानिक तरीका

धान की कटाई के बाद भंडारण के वैज्ञानिक तरीका

हमारा देश विश्व का दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक देश है। हमारे देश में 50 प्रतिशत धान का इस्तेमाल खाने के रूप में होता है। धान की खेती की देखभाल समय से नहीं करने पर काफी नुकसान होता है। विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार धान की फसल की बुआई, सिंचाई, कटाई, मड़ाई, गहाई और भंडारण समय और सही तरीके ने नहीं करने से उत्पादन का 10 प्रतिशत का नुकसान होता है। इसमें थोड़ी सी लापरवाही भंडारण के समय हो जाये तो यह नुकसान काफी बढ़ जाता है। इसलिये किसान भाइयों को चाहिये कि वो धान के भंडारण के समय वैज्ञानिक तरीका अपनायें तो होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है। आइये जानते हैं कि धान के भंडारण के समय कौन-कौन सी सावधानियां बरती जानी चाहिये।

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  1. क्यों होती है भंडारण की आवश्यकता
  2. धान के भंडारण की प्रथम तैयारी
  3. भंडार गृह के लिए उचित स्थान
  4. भंडार गृह कैसा बनवायें
  5. कीटाणु रहित गोदाम बनवाने के लिए करें ये काम
  6. पुरानी बोरियों का इस तरह से करें इस्तेमाल
  7. कीट प्रबंधन के लिए करें ये काम
  8. बोरों को कीटाणु रहित बनाने के लिए करें ये उपाय
  9. हवा का रुख देखकर करें भंडारण

क्यों होती है भंडारण की आवश्यकता

पूरे साल पर धान यानी चावल मिलता रहे। इसके लिए धान के भंडारण की आवश्यकता होती है। इसके लिए किसान भाइयों को चाहिये कि धान का उचित तरीके से भंडारण करें। भंडारण से पूर्व नमी की मात्रा सुरक्षित कर लें। लम्बी अवधि के लिए धान के भंडारण के लिए उसमें नमी की मात्रा 12 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिये। यदि कम समय के लिए भंडारण करना है तो धान में नमी का प्रतिशत 14 तक चलेगा।
ये भी पढ़े: धान का हाल न बिगाड़ दे मौसम

धान के भंडारण की प्रथम तैयारी

धान के भंडारण करने के लिए एक अच्छी जगह तलाश करनी चाहिये। इस स्थान पर भंडार गृह बनाने से पहले जमीन को कीटमुक्त कर लेना चाहिये। उसके बाद भंडारण की तैयारी करनी चाहिये।

भंडार गृह के लिए उचित स्थान

धान के भंडार गृह के निर्माण के लिए उचित स्थान एक ऊंची जगह होनी चाहिये।जहां पर पानी न भरता हो और बरसात आदि का पानी तत्काल निकल जाता हो। इसके साथ ही इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि भंडार गृह में नमी व अत्यधिक गर्मी, धान नाशक कीट, चूहों तथा खराब मौसम का प्रभाव न होता हो। भंडार गृह में जमीन से 20 से 25 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लकड़ी से प्लेटफार्म बनाकर उसमें बोरियों की छल्लियों को लगायें ताकि जमीन से सीलन न आ सके और अनाज को नुकसान से बचाया जा सके।

 भंडार गृह कैसा बनवायें

भंडारण से पहले या बाद में भंडारित कीटों से बचाव करने के लिए भी वैज्ञानिक प्रबंध करने जरूरी हैं। भंडारण के लिए पारंपरिक रूप से विभिन्न आकारों और विभिन्न सामग्रियों के बने बड़े बड़े पात्र प्रयोग किये जाते हैं। इन्हें कोठी, कुठला आदि ग्रामीण भाषा में कहा जाता है। ये पात्र लकड़ी, मिट्टी, बांस, जूट की बोरियों, ईंटों, कपड़ों आदि उपलब्ध वस्तुओं से बनाये जाते हैं। इस तरह के पात्रों में थोडे समय के लिए धान का भंडारण किया जा सकता है जबकि लम्बे समय के लिए भंडारण करने के लिए आधुनिक भंडार गृह बनवाने चाहिये। लम्बी अवधि के लिए धान के भंडारण के लिए पूसा कोठी, धातुओं की कोठी, साइलो स्टील जैसे आधुनिक भंडारण गृह आदि का प्रयोग किया जाता है। इसमें धान को लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। ये भी पढ़े: धान की फसल काटने के उपकरण, छोटे औजार से लेकर बड़ी मशीन तक की जानकारी

कीटाणु रहित गोदाम बनाने के लिए करें ये काम

आम तौर पर भवनों में बनने वाले भंडार गृह में धान के बोरों के दो ढेरों के बीच उचित हवा का संचारण के लिए पर्याप्त जगह उपलब्ध करानी चाहिये। साफ मौसम के दौरान उचित हवा संचारण होनी चाहिये जबकि वर्षा के मौसम से इससे बचना चाहिये। गोदाम मं धान या चावल के सुरक्षित भंडारण से पहले उसे उपयुक्त धुआं देकर कीटाणु रहित करना चाहिये। भंडार गृह को अच्छीतरह से साफ कर लेना चाहिये। वहां पर पुराने दाने नहीं रहने देना चाहिये। भंडार गृह की दरारों व छेदों को अच्छी तरह से भर देना चाहिये।

पुरानी बोरियों का इस तरह से करें इस्तेमाल

भंडारण के दौरान धान के नुकसान को कम करने के लिए रोगमुक्त बीट्वील पटसन के थैलों में सूखे हुए धान रखने चाहिये। केवल नयी व सूखी बोरियों का ही धान को रखने में प्रयोग करना चाहिये। यदि पुरानी बोरियों में ही धान की फसल को रखा जाना जरूरी हो तब उस दशा में पुरानी बोरियों को एक प्रतिशत मालाथियान के उबलते हुए घोल में 3 से 4 मिनट तक भिगोएं और फिर उसको धूप में अच्छी तरह से सुखा कर उसमें धान को रखें। यदि विद्युत चालित यंत्र से भी बोरियों को सुखाया जा सकता है तो उसे सुखा लें लेकिन यह तय कर लें कि उनमे नमी न रह जाये।

कीट प्रबंधन के लिए करें ये काम

भंडारण गृह में कीट प्रबंधन करना बहुत जरूरी होता है। इसके लिए गोदाम में साधारण मौसम में प्रत्येक 15 दिन में प्रति 100 वर्ग मीटर क्षेत्र में मालाथियान (Malathiyan) (50 प्रतिशत ईसी) 10 लीटर पानी में एक लीटर मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। सर्दियों के दिनों मे इस तरह के घोल का छिड़काव 21 दिन में एक बार अवश्य कर देना चाहिये।
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यदि किसी कारण से मालाथियान न मिल सके तो उसकी जगह पर किसान भाई 40 ग्राम डेल्टामेथ्रिन (Deltamethrin) (2.5 प्रतिशत) चूरन को एक लीटर पानी में मिलाकर  तीन महीने में प्रत्येक 100 वर्ग मीटर के क्षेत्र में छिड़काव करना चाहिये। इसके अलावा डीडीवीपी (DDVP) (75 प्रतिशत ईसी) () को 150 लीटर पानी में एक लीटर मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। इन दोनों कीटनाशकों का छिड़काव करते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि इनका छिड़काव प्रति 100वर्ग मीटर में कम से कम तीन लीटर हो।

बोरों को कीटाणु रहित बनाने के लिए करें ये उपाय

गोदाम या भंडार गृह में बोरियों में धान की फसल को रखने से पहले दूसरी जगह पर बोरों का धूम्रीकरण कर देना चाहिये। उसके बाद 5 से 7 दिनों के लिए 9 ग्राम प्रति मीट्रिक टन के हिसाब से एलुमिनियम फास्फाइड (Aluminium Phosphide) से धुआं दें। केवल पॉलीथिन से ढके गोदाम में किसान भाइयों को चाहिये कि धान की बोरियों में एलुमिनियम फास्फाइड से 10.8 ग्राम प्रति मीट्रिक टन की दर से धूम्रीकरण करें। पुरानी व नई बोरियों को अलग-अलग रखें और उनमें साफ सफाई का पूरा ध्यान रखें। जिससे दानों में किसी प्रकार का रोग न लग सके।

हवा का रुख देखकर करें भंडारण

धान का भंडारण करते समय हवा के रुख को ध्यान से देखना चाहिये। यदि पुरवैया हवा चल रही हो तब धान की फसल का भंडारण नहीं करना चाहिये।
तर वत्तर सीधी बिजाई धान : भूजल-पर्यावरण संरक्षण व खेती लागत बचत का वरदान (Direct paddy plantation)

तर वत्तर सीधी बिजाई धान : भूजल-पर्यावरण संरक्षण व खेती लागत बचत का वरदान (Direct paddy plantation)

* सीधी बिजाई धान क्रांतिकारी संरक्षण/टिकाऊ कृषि तकनीक *

* पर्यावरण हितेषी संरक्षण कृषि तकनीक * भूजल संरक्षण- ग्रीन हाउस गैसें का कम विसर्जन- सुगम फसल अवशेष पराली प्रबंधन! * किसान हितेषी टिकाऊ खेती तकनीक * एक तिहाही भूजल सिचाई, खेती की लागत, श्रम, डीज़ल, बिजली आदि की बचत * झंडा रोग मुक्त फसल व पूरी पैदावार ! फसल विविधिकरण किसान हितेषी वैकल्पिक फसल चक्र से ही सम्भव है! वर्षा ऋतु में आधा प्रदेश जल भराव ग्रस्त होने से, धान फसल का कोई व्यवहायरिक विकल्प नही है। सिवाय भूजल बर्बादी वाली धान की रोपाई पर, क़ानूनी प्रतिबंध 15 जुन की बजाय पहली जुलाई तक बढाकर, भूजल व खेती लागत बचत वाली तर-वत्तर
सीधी बिजाई धान तकनीक को प्रोत्साहन दिया जाए। वैसे भी धान फसल किसान हितेषी (40,000 रूपये/एकड लाभ) होने के साथ-2, राष्ट्रहित मे भी है जो भारत की खाध्य सुरक्षा और 63,000 करोड रूपये वार्षिक निर्यात भी सुनिश्चित करती है ! धान फ़सल से लगातार हो रही भूजल बर्बादी एक गंभीर समस्या है लेकिन लाइलाज नही है। ज़िसे किसान हितेषी व वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित “तर- वत्तर सीधी बिजाई धान" तकनीक को अपनाकर आसानी से हल किया जा सकता है। जो पिछले वर्ष पंजाब में लगभग सात लाख हेक्टर (यानि प्रदेश के कुल धान क्षेत्र के चोथाई हिस्से) और हरियाना मे लगभग 2 लाख हेक्टर भूमि पर सफलता से बहुत बड़े स्तर पर अपनायी गई और लगभग 28 किवंटल प्रति एकड़ की दर से रोपाई धान के बराबर ही पैदावार मिली। तर-वत्तर सीधी धान तकनीक अपनाने से रोपाई धान के बेकार झंझटों (बुआई से पहले खेत में पानी खड़ा करके पाड़े काटना/ कद्दु करना, पौध बोना, उखाड़ना और फिर से लगाना और तीन महीने खेत में पानी खड़ा रखना आदि) से मुक्ति मिलती है और फसल का झंडा/बकानी रोग से भी प्रभावी बचाव होता है । तर- वत्तर सीधी बिजाई धान तकनीक मे बुआई मूँग व गेंहू आदि फ़सलो की तरह बिल्कुल आसान है। जिसे इच्छुक किसान निम्नलिखित विधि अपनाकर, आने वाली पीढ़ियों के भूजल-पर्यावरण संरक्षण और खेती की लागत में भारी बचत कर सकते है। ये भी पढ़े: धान की कटाई के बाद भंडारण के वैज्ञानिक तरीका

* तर-वत्तर सीधी बीजाई धान तकनीक *

तर वत्तर सीधी बिजाई धान की तकनीक से बने खेत औरधान की फसल [Paddy fields after direct plantation ]

1) तर-वत्तर सीधी बीजाई धान की किस्मे

धान की सभी किस्मे कामयाब है!

2) बुआई का समय

25 मई से 5 जुन तक अच्छी नमी वाले तर- वत्तर खेत मे करे (मानसुन आगमन से एक महीना पहले बुआई करे) यानि सीधी बीजाई धान की बुआई रोपाई धान की पौध नर्सरी की बुआई के समय पर ही करनी है !

3) सीधी बिजाई धान के लिए खेत की तैयारी

पहले खेत को समतल बनाए, फिर गहरी सिचाई, जुताई व तर-वत्तर (अच्छी नमी) तैयार खेत मे शाम के समय बुआई करे !

4) बीज की मात्रा व उपचार

बुआई से पहले बीज उपचार बहुत ज़रुरी है ! एक एकड के लिए 8 किलो बीज को 12 घंटे 25 लीटर पानी मे डूबोये, फिर 8 घंटे छाया मे सुखाकर, 2 ग्राम बाविस्टीन और एक मि.ली. क्लोरोपायरीफास प्रति किलो बीज उपचार करे !

5) सीधी बिजाई धान की बुआई का तरीका

लाईन से लाईन की दूरी : 8-9 इंच , बीज की गहराई: मात्र एक इंच रखे!  बुआई बीज मशीन के ईलावा छींटा विधि से भी हो सकती है ! बुआई के बाद खेत की नमी बचाने के लिए हलका पाटा(सुहागा) लगाये!

6) खरपतवार नियंत्रण

खरपतवार ज़माव रोकने को, बुआई के तुरंत बाद 1.5 लीटर पेंडामेथेलीन प्रति एकड 200 लीटर पानी मे  छिडकाव ज़रूर करे और आवश्कता पड़ने पर 20- 25 दिन बाद 100 लीटर पानी प्रति एकड मे 100 मि. ली. नामिनी गोल्ड (बिस्पाईरीबेक सोडीयम), या 400 मि.ली. राईस स्टार (फेनोक्सापरोप पी ईथाइल) या 8 ग्राम अलमिक्स (क्लोरीम्यूरान ईथाइल मेटसल्फूरान मिथाइल) या 90 ग्राम कौंसील एकटीव (ट्राईमाफोन 20: एथोक्सीसल्फूरान 10) य़ा 250 ग्राम  2,4- डी 80 प्रतिशत सोडीयम साल्ट का छिडकाव करे!

7) सीधी बिजाई धान की सिचाई

पहली सिचाई देर से 21 दिन के बाद और बाद की सिचाई 10 दिन के अंतराल पर गीला - सुखा प्रणाली से वर्षा आधारित करे ! बुआई के बाद अगर पहले सप्ताह मे बे-मौसम वर्षा से भूमि की ऊपरी सतह पर करंड (मिट्टी सख्त हो), तो तुरंत हलकी सिचाई करे वर्ना धान के उगे नये पौधे भूमि की सतह से बाहर नही निकल पायेंगे ! धान के तर बत्तर खेत [watered paddy fields]  

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8) खाद की मात्रा

रोपाई धान की अनुमोदित दर और विधि से ही करे ! धान फसल मे प्रति एकड सामान्यता 40 किलो नाईट्रोजन, 16 किलो फासफोरस और 8-10 किलो पोटाश की ज़रूरत होती है!नाईट्रोजन की एक तिहाही और फासफोरस की पूरी मात्रा बुआई के समय प्रयोग करे, जो एक बेग डी.ए. पी. प्रति एकड से पूरी हो जाती  है! यूरिया और म्यूरेट आफ पोटाश (MOP) उर्वरको का प्रयोग मशीन के खाद बक्से मे नही रखना चाहिए! इन उर्वरको का प्रयोग टाप ड्रेसिंग के रुप मे पहली सिचाई यानि 21दिन बाद करना  चाहिए, उसी समय 10 किलो ज़िंक सल्फेट प्रति एकड भी डालना  चाहिए ! इस विधि से ऊगाई धान फसल की शुरुवाती अवस्था मे अक्सर , आयरन की कमी से पौधो मे पीलापन देखा जाता है उसके लिए, एक प्रतिशत आयरन सल्फेट का छिडकाव एक सप्ताह अंतराल पर दो बार करे ! फसल मे बालिया निसरने पर एक किलो  घूलनशील इफको उर्वरक 13:0:45 प्रति एकड छिडकाव करे !

9) कीट-बिमारीया प्रबंधन

रोपाई धान की अनुमोदित दर और विधि से ही करे, लेकिन ध्यान रखे कि रसायनिक दवायो का प्रयोग अनुमोदित दर से ज्यादा कभी नही करे ! तने की सुंडी (गोभ के  कीडे) के 25-35 दिन के फसल अवस्था पर 8 किलो कारटेप रेत मे  मिलाकर तथा पत्ता लपेट/ तना छेदक के लिए 200 मि .ली . मोनोक्रोटोफास या कलोरोपायरीफास या 400 मि .ली. क्वीनलफास 100 लीटर पानी मे प्रति एकड प्रयोग करे! धान  निसरने के समय, ह्ल्दी रोग या ब्लास्ट से बचाव के लिए 200 ग्राम  कार्बेंडाज़िम या प्रोपीकानाजोल (टिलट) 200 लीटर पानी प्रति एकड छिडकाव करे ! शीट ब्लाईट के लिए 400 मि. ली. वैलिडामाईसिन (अमीस्टार/लस्टर आदि) 200 लीटर पानी प्रति  एकड छिडकाव करे ! फसल मे दीमक की शिकायत होने पर , एक  लीटर कलोरोपायरीफास प्रति एकड सिचाई पानी के साथ चलाये ! धान की लह लहाती फसल [lush green paddy field]

10) सीधी बीजाई तकनीक के बारे मे सावधानिया

- इस विधि से बोयी गई फसल रोपाई धान के मुकाबले पहले 40 दिन हलकी नजर आयेंगी, इसलिये किसान होसला बनाए रखे! - सीधी बुआई धान खारे पानी और सेम व लवनीय भूमि मे खास सफल नही है ! ऐसे क्षेत्रो मे किसान रोपाई धान ही लगाये! - 15 जुन के बाद धान की सीधी बिजाई नही करे और तब रोपाई विधि से धान की खेती फायदेमन्द रहेंगी ! -बुआई समय पर कम तापमान व फसल पकाई समय पर मानसुन वर्षा के कारण साठी धान (मार्च-अप्रेल बुआई) मे सीधी बीजाई तकनीक कामयाब नही है !

11) सुगम पराली (फसल अवशेष) प्रबंधन

सीधी बिजाई धान फसल आमतौर पर रोपाई धान के मुकाबले 7-10 दिन पहले पकती है ज़िससे किसानो को पराली प्रबंधन मे धान कटाई के बाद ज्यादा मिलने से भी पराली प्रबंधन मे सहायता मिलती है ! इस विधि मे किसान जल्दी पकने वाली कम अवधी (125 दिन) की किस्मो पूसा बासमती- 1509, पी.आर -126 आदि की खेती से, धान फसल की कटाई सितम्बर महीने मे कर सकते है! ज़िससे फसल अवशेष (पराली) को भूमि मे दबाकर, गेंहू फसल की बुआई से पहले ढ़ेंचा या मूँग की हरी खाद के लिए फसल ली ज़ा सकती है! जो भूमि ऊर्वरा शक्ती बढाने और पराली जलाने से उत्पन होने वाले वायु प्रदूषण को रोकने मे भी रामबाण साबित होगी !

डा. वीरेन्द्र सिह लाठर , पूर्व प्रधान वैज्ञानिक, भारतीय कृषि  अनुसंधान संस्थान, नयी  दिल्ली drvslather@gmail.com