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अरंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसान भाइयों, अरंडी एक औषधीय वानस्पतिक तेल का उत्पादन करने वाली खरीफ की मुख्य व्यावसायिक फसल है। कम लागत में होने वाली अरंडी के तेल का व्यावसायिक महत्व होने के कारण इसको नकदी फसल भी कहा जा सकता है। किसान भाइयों अरंडी की फसल का आपको दोहरा लाभ मिल सकता है। इसकी फसल से पहले आप तेल निकाल कर बेच सकते हैं। उसके बाद बची हुई खली से खाद बना सकते हैं। इस तरह से आप अरंडी के खेती करके दोहरा लाभ कमा सकते हैं। आइये जानते हैं कि अरंडी की खेती कैसे की जाती है।

भूमि व जलवायु

अरंडी की फसल के लिए दोमट व बलुई दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है लेकिन इसकी फसल पीएच मान 5 से 6 वाली सभी प्रकार की मृदाओं में उगाई जा सकती है। अरंडी की फसल ऊसर व क्षारीय मृदा में नहीं की जा सकती। इसकी खेती के लिए खेत में जलनिकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये अन्यथा फसल खराब हो सकती है।
अरंडी की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में भी की जा सकती है। इसकी फसल के लिए 20 से 30 सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। अरंडी के पौधे की बढ़वार और बीज पकने के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। अरंडी की खेती के लिए अधिक वर्षा यानी अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इसकी जड़ें गहरी होतीं हैं और ये सूखा सहन करने में सक्षम होतीं हैं। पाला अरंडी की खेती के लिए नुकसानदायक होता है। इससे बचाना चाहिये।

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खेत की तैयारी कैसे करें

अरंडी के पौधे की जड़ें काफी गहराई तक जातीं हैं , इसलिये इसकी फसल के लिए गहरी जुताई करनी आवश्यक होती है। जो किसान भाई अरंडी की अच्छी फसल लेना चाहते हैं वे पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उसके बाद दो तीन जुताई कल्टीवेटर या हैरों से करें तथा पाटा लगाकर खेत को समतल बना लें। किसान भाइयों सबसे बेहतर तो यही होगा कि खेत में उपयुक्त नमी की अवस्था में जुताई करें। इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जायेगी और खरपतवार भी नष्ट हो जायेगा। इस तरह खेत को तैयार करके एक सप्ताह तक खुला छोड़ देना चाहिये। जिससे पूर्व फसल के कीट व रोग धूप में नष्ट हो सकते हैं ।

अरंडी की मुख्य उन्नत किस्में

अरंडी की मुख्य उन्नत किस्मों मे जीसीएच-4,5, 6, 7 व डीसीएच-32, 177 व 519, ज्योति, हरिता, क्रांति किरण, टीएमवी-6, अरुणा, काल्पी आदि हैं। Aranki ki plant

कब और कैसे करें बुआई

अरंडी की फसल की बुआई अधिकांशत: जुलाई और अगस्त में की जानी चाहिये। किसान भाई अरंडी की फसल की खास बात यह है कि मानसून आने पर खरीफ की सभी फसलों की खेती का काम निपटाने के बाद अरंडी की खेती आराम से कर सकते हैं। अरंडी की बुआई हल के पीछे हाथ से बीज गिराकर की जा सकती है तथा सीड ड्रिल से भी बुआई की जा सकती है। सिंचाई वाले क्षेत्रोंं अरंडी की फसल की बुआई करते समय किसान भाइयों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि लाइन से लाइन की दूरी एक मीटर या सवा मीटर रखें और पौधे से पौधे की दूरी आधा मीटर रखें तो आपकी फसल अच्छी होगी। असिंचित फसल के लिए लाइन और पौधों की दूरी कम रखनी चाहिये। इस तरह की खेती के लिए लाइन से लाइन की दूरी आधा मीटर या उससे थोड़ी ज्यादा होनी चाहिये और पौधों से पौधों की दूरी भी लगभग इतनी ही रखनी चाहिये।

कितना बीज चाहिये

किसान भाइयों अरंडी की फसल के लिए बीज की मात्रा , बीज क आकार और बुआई के तरीके और भूमि के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। फिर भी औसतन अरंडी की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। छिटकवां बुआई में बीज अधिक लगता है यदि इसे हाथ से एक-एक बीज को बोया जाता है तो प्रतिहेक्टेयर 8 किलोग्राम के लगभग बीज लगेगा। किसान भाइयों को चाहिये कि अरंडी की अच्छी फसल लेने के लिए उन्नत किस्म का प्रमाणित बीज लेना चाहिये। यदि बीज उपचारित नहीं है तो उसे उपचारित अवश्य कर लें ताकि कीट एवं रोगों की संभावना नहीं रहती है। भूमिगत कीटों और रोगों से बचाने के लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रतिकिलोग्राम पानी से घोल बनाकर बीजों को बुआई से पहले  भिगो कर उपचारित करें।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

किसान भाइयों खाद और उर्वरक काफी महंगी आती हैं इसलिये किसी भी तरह की खेती के लिए आप अपनी भूमि का मृदा परीक्षण अवश्य करवा लें और उसके अनुसार आपको खाद और उर्वरक प्रबंधन की अच्छी जानकारी मिल सकेगी। इससे आपका पैसा व समय दोनों ही बचेगा। खेती की लागत कम आयेगी। इसी तरह अरंडी की खेती के लिए जब आप खाद व उर्वरकों का प्रबंधन करें तो मिट्टी की जांच के बाद बताई गयी खाद व उर्वरक की मात्रा का प्रयोग करें। अरंडी की खेती के लिए उर्वरक का अच्छी तरह से प्रबंधन करना होता है। अच्छे खाद व उर्वरक प्रबंधन से अरंडी के दानों में तेल का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है। इसलिये इस खेती में किसान भाइयों को कम से कम तीन बार खाद व उवर्रक देना होता है। अरंडी चूंकि एक तिलहन फसल है, इसका उत्पादन बढ़ाने व बीजों में तेल की मात्रा अधिक बढ़ाने के लिए बुआई से पहले 20 किलोगाम सल्फर को 200 से 250 किलोग्राम जिप्सम मिलाकर प्रति हेक्टेयर डालना चाहिये। इसके बाद अरंडी की सिंचित  खेती के लिए 80 किलो ग्राम नाइट्रोजन और 40 किलो फास्फोरस  प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिये तथा असिंचित खेती के लिए 40 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल किया जाना चाहिये। इसमें से खेत की तैयारी करते समय आधा नाइट्रोजन और आधा किलो फास्फोरस का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालना चाहिये। शेष आधा भाग 30 से 35  दिन के बाद वर्षा के समय खड़ी फसल पर डालना चाहिये। Arandi ki kheti

सिंचाई प्रबंधन

अरंडी खरीफ की फसल है, उस समय वर्षा का समय होता है। वर्षा के समय में बुआई के डेढ़ से दो महीने तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। इस अवधि में पानी देने से जड़ें कमजोर हो जाती है, जो सीधा फसल पर असर डालती है। क्योंकि अरंडी की जड़ें गहराई में जाती हैं जहां से वह नमी प्राप्त कर लेतीं हैं। जब अरंडी के पौधों की जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो जायें और जमीन पर अच्छी तरह से पकड़ बना लें और जब खेती की नमी आवश्यकता से कम होने लगे तब पहला पानी देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक 15 दिन में वर्षा न होने पर पानी देना चाहिये। यदि सिंचाई के लिए टपक पद्धति हो तो उससे इसकी सिंचाई करना उत्तम होगा।

खरपतवार प्रबंधन

अरंडी की फसल में खरपतवार का प्रबंधन शुरुआत में ही करना चाहिये। जब तक पौधे आधे मीटर के न हो जायें तब तक समय-समय पर खरपतवार को हटाना चाहिये तथा गुड़ाई भी करते रहना चाहिये। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम पेंडीमेथालिन को 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के दूसरे या तीसरे दिन छिड़काव करने से भी खरपतवार का नियंत्रण होता  है। लेकिन 40 दिन बाद एक बार अवश्य ही निराई गुड़ाई करवानी चाहिये।

कीट-रोग एवं उपचार

अरंडी की फसल में कई प्रकार के रोग एवं कीट लगते हैं। उनका समय पर उपचार करने से फसल को बचाया जा सकता है। आईये जानते हैं कि कौन से कीट या रोग का किस प्रकार से उपचार किया जाता है:- 1. जैसिड कीट: अरंडी की फसल में जैसिड कीट लगता है। इसका पता लगने पर किसान भाइयों को मोनोक्रोटोफाँस 36 एस एल को एक लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव कर देना चाहिये। इससे फसल का बचाव हो जाता है। 2. सेमीलूपर कीट: इसकीट का प्रकोप सर्दियों में अक्टूबर-नवम्बर के बीच होता है। इस कीट को नियंत्रित करने के लिए 1 लीटर क्यूनालफॉस 25 ईसी , लगभग 800 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रतिहेक्टेयर में फसल पर छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण हो जाता है। 3. बिहार हेयरी केटरपिलर: यह कीट भी सेमीलूपर की तरह सर्दियों में लगता है और इसके नियंत्रण के लिए क्यूनालफॉस का घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिये। 4. उखटा रोग: उखटा रोग से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा विरिडि 10 ग्राम प्रतिकिलोग्राम बीज का बीजोपचार करना चाहिये तथा 2.5 ट्राइकोडर्मा को नम गोबर की खाद के साथ बुवाई से पूर्व खेत में डालना अच्छा होता है।

पाले सें बचाव इस तरह करें

अरंडी की फसल के लिए पाला सबसे अधिक हानिकारक है। किसान भाइयों को पाला से फसल को बचाने के लिए भी इंतजाम करना चाहिये। जब भी पाला पड़ने की संभावना दिखाई दे तभी किसान भाइयों को एक लीटर गंधक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रतिहेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करा चाहिये। यदि पाला पड़ जाये और फसल उसकी चपेट में आ जाये तो 10 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से यूरिया के साथ छिड़काव करें। फसल को बचाया जा सकता है।

कब और कैसे करें कटाई

अरंडी की फसल को पूरा पकने का इंतजार नहीं करना चाहिये। जब पत्ते व उनके डंठल पीले या भूरे दिखने लगें तभी कटाई कर लेनी चाहिये क्योंकि फसल के पकने पर दाने चिटक कर गिर जाते हैं। इसलिये पहले ही इनकी कटाई करना लाभदायक रहेगा। अरंडी की फसल में पहली तुड़ाई 100 दिनों के आसपास की जानी चाहिये। इसके बाद हर माह आवश्यकतानुसार तुड़ाई करना सही रहता है।

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पैदावार

अरंडी की फसल सिंचित क्षेत्र में अच्छे प्रबंधन के साथ की जाये तो प्रतिहेक्टेयर इसकी पैदावार 30 से 35 क्विंटल तक हो सकती है जबकि  असिंचित क्षेत्र में 15 से 23 क्विंटल तक प्रतिहेक्टेयर पैदावार मिल सकती है।
अदरक की खेती के लिए जलवायु, मृदा, उर्वरक, लागत और आय की जानकारी

अदरक की खेती के लिए जलवायु, मृदा, उर्वरक, लागत और आय की जानकारी

भारत में ऐसा कोई रसोई घर नहीं जहां आपको साग पात्र में अदरक की मौजूदगी ना मिले। क्योंकि अदरक का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए भी किया जाता है। 

साथ ही, अदरक एक विशेष महत्वपूर्ण औषधीय फसल है, जो सेहत के लिए अत्यंत फायदेमंद मानी जाती है। अदरक में कैल्शियम, मैंगनीज, फॉस्फोरस, जिंक और विटामिन सी सहित बहुत सारे औषधीय गुण विघमान होते हैं। 

अदरक का इस्तेमाल औषोधिक दवाई के तोर पर भी किया जाता है। बाजार में अदरक से निर्मित सोंठ की कीमत इससे अधिक होती है। 

भारतीय बाजार में वर्षभर अदरक की मांग बनी रहती है, जिससे किसान इसकी खेती से अच्छा-खासा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। 

अदरक की खेती के लिए उपयुक्त मृदा एवं जलवायु

अदरक की खेती के लिए बलुई दोमट मृदा को सर्वोत्तम माना जाता है। इस मिट्टी में इसकी फसल का शानदार विकास होता है। साथ ही, किसानों को अधिक उपज भी प्राप्त होती है। 

अदरक की खेती के लिए मृदा का pH स्तर 6.0 से 7.5 के मध्य उपयुक्त माना जाता है। अदरक के पौधों के लिए 25 से 35 सेल्सियस का तापमान सबसे अच्छा माना जाता है। 

इसके पौधों को अच्छी-खासी नमी और सही सिंचाई की आवश्यकता होती है। अदरक को बोने का कार्य मार्च-अप्रैल में किया जाता है और इसका उत्पादन अक्टूबर-नवंबर के दौरान होता है, जब इसके पौधे पूर्णतय विकसित हो जाते हैं।

अदरक की खेती में गोबर की खाद का प्रयोग  

अदरक के खेत से शानदार उत्पादन अर्जित करने के लिए कृषकों को इसके खेत में गोबर खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसके खेत में कृषकों को सड़े गोबर की खाद, नीम की खली और वर्मी कम्पोस्ट को डाल कर अच्छे से खेत की मृदा में मिला देना चाहिए। 

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इसके पश्चात मिट्टी को एकसार कर देना चाहिए। अब किसानों को इसे छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर लेना है और खेतों में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 2 से 3 क्विंटल बीजदर से बुवाई करनी है। दक्षिण भारत में अदरक की बुवाई मार्च-अप्रैल के माह में की जाती है और इसके बाद एक सिंचाई की जाती है। 

अदरक की खेती से किसान लाखों कमा सकते हैं 

अदरक के बीज की बुवाई के 8 से 9 महीने के पश्चात इसकी फसल पूर्णतय पककर तैयार हो जाती है। अदरक की फसल जब सही ढ़ंग से पककर तैयार हो जाती है, तब इसके पौधों का विकास होना बाधित हो जाता है 

और इसकी फसलें पीली पड़कर सूखने लग जाती हैं। किसान अदरक की खेती करके प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 150 से 200 क्विंटल तक का उत्पादन हांसिल कर सकते हैं।

 बाजारों में इसका एक किलोग्राम बीज लगभग 40 रुपये या इससे ज्यादा रहता है। किसान इसकी खेती कर सुगमता से 3.5 से 4 लाख तक की आमदनी कर सकते हैं। 

जीरे की खेती कैसे की जाती है?

जीरे की खेती कैसे की जाती है?

जीरा एक मसाला फसल है, जिसकी खेती मसाले के रूप में की जाती है। यह जीरा देखने में बिल्कुल सोंफ की तरह ही होता है, किन्तु यह रंग में थोड़ा अलग होता है | जीरे का उपयोग कई तरह के व्यंजनों में खुशबु उत्पन्न करने के लिए करते है।  

इसके अलावा इसे खाने में कई तरह से उपयोग में लाते है, जिसमे से कुछ लोग इससे पॉउडर या भूनकर खाने में इस्तेमाल करते है। जीरे का सेवन करने से पेट संबंधित कई बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। जीरे का पौधा शुष्क जलवायु वाला होता है, तथा इसके पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है भारत में जीरे की खेती सबसे अधिक राजस्थान और गुजरात में की जाती है, यहाँ पर पूरे देश का कुल 80% जीरा उत्पादित किया जाता है, जिसमे 28% जीरे का उत्पादन अकेले राजस्थान राज्य में होता है, इसके पश्चिमी क्षेत्र में राज्य का कुल 80% जीरा उत्पादन होता है | वही पड़ोसी राज्य गुजरात में राजस्थान की अपेक्षा अधिक पैदावार होती है | वर्तमान समय में जीरे की उन्नत किस्मो को ऊगा कर उत्पादन क्षमता को 25% से 50% तक बढ़ाया जा सकता है | अधिकतर किसान भाई जीरे की उन्नत किस्मो को उगाकर अच्छा लाभ भी कमा रहे है | यदि आप भी जीरे की खेती करना चाहते है, तो इस लेख में आपको जीरा की खेती कैसे करें (Cumin Farming in Hindi) तथा जीरा का भाव इसके बारे में जानकारी दी जा रही है।   

जीरे की खेती के लिए मिटटी की आवश्यकता                     

जीरे की अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है | इसकी खेती में भूमि उचित जल निकासी वाली होनी चाहिए, तथा भूमि का P.H. मान भी सामान्य होना चाहिए | जीरे की फसल रबी की फसल के साथ की जाती है, इसलिए इसके पौधे सर्द जलवायु में अच्छे से वृद्धि करते है | इसके पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है, तथा अधिक गर्म जलवायु इसके पौधों के लिए उपयुक्त नहीं होती है | जीरे के पौधों को रोपाई के पश्चात् 25 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है, तथा पौधों की वृद्धि के समय 20 डिग्री तापमान उचित होता है | इसके पौधे अधिकतम 30 डिग्री तथा न्यूनतम 20 डिग्री तापमान को आसानी से सहन कर सकते है |

जीरे की किस्में 

वर्तमान समय में जीरे की कई तरह की उन्नत किस्मो को तैयार किया गया है, जो अलग-अलग जलवायु के हिसाब से अधिक पैदावार देने के लिए उगाई जाती है। आर. जेड. 19 , जी. सी. 4 , आर. जेड. 209 , जी.सी. 1

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जीरे की बुवाई के लिए भूमि की तैयारी        

जीरे की फसल करने से पहले उसके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लिया जाता है। इसके लिए सबसे पहले खेत की मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर दी जाती है। जुताई के बाद खेत को कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है। इसके बाद खेत में प्राकृतिक खाद के तौर पर 10 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद डालकर जुताई कर दी जाती है, इससे खेत की मिट्टी में खाद अच्छी तरह से मिल जाती है।  खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है। जुताई के बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है। 

फसल में उर्वरक और खाद प्रबंधन 

पलेव के बाद खेत की आखरी जुताई के समय 65 किलो डी.ए.पी. और 9 किलो यूरिया का छिड़काव खेत में करना होता है | इसके बाद खेत में रोटावेटर लगाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर दिया जाता है | मिट्टी के भुरभुरा हो जाने के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है| इससे खेत में जलभराव की समस्या नहीं उत्पन्न होती है | इसके अतिरिक्त 20 से 25 KG यूरिया  की मात्रा को पौधों के विकास के समय तीसरी सिंचाई के दौरान पौधों को देना होता है |

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जीरे की बुवाई के लिए बीज दर                

जीरे के बीजों की रोपाई बीज के रूप में की जाती है| इसके लिए छिड़काव और ड्रिल तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है | ड्रिल विधि द्वारा रोपाई करने के लिए एक एकड़ के खेत में 8 से 10 KG बीजो की आवश्यकता होती है | वही छिड़काव विधि द्वारा बीजो की रोपाई के लिए एक एकड़ के खेत में 12 KG बीज की आवश्यकता होती है | बीजो को खेत में लगाने से पूर्व उन्हें कार्बनडाजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है | छिड़काव विधि के माध्यम से रोपाई के लिए खेत में 5 फ़ीट की दूरी रखते हुए क्यारियों को तैयार कर लिया जाता है |

बीज की बुवाई 

इन क्यारियों में बीजो का छिड़काव कर उन्हें हाथ या दंताली से दबा दिया जाता है| इससे बीज एक से डेढ़ CM नीचे दब जाता है | इसके अलावा यदि आप ड्रिल विधि द्वारा बीजो की रोपाई करना चाहते है, तो उसके लिए आपको खेत में पंक्तियो को तैयार कर लेना होता है, तथा प्रत्येक पंक्ति के मध्य एक फ़ीट की दूरी रखी जाती है | पंक्तियों में बीजो की रोपाई 10 से 15 CM की दूरी पर की जाती है | चूंकि जीरे की फसल रबी की फसल के साथ लगाई जाती है, इसलिए इसके बीजो को नवंबर माह के अंत तक लगाना उचित होता है। 

फसल में सिचांई प्रबंधन  

जीरे के पौधों को सिंचाई की सामान्य जरुरत होती है।  इसकी प्रारंभिक सिंचाई बीज रोपाई के तुरंत बाद कर दी जाती है, तथा प्रारंभिक सिंचाई को पानी के धीमे बहाव के साथ करना होता है, ताकि बीज पानी के तेज बहाव से बहकर किनारे न आ जाये। इसके पौधों को अधिकतर 5 से 7 सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई के बाद बाकी की सिंचाई को 10 से 12 दिन के अंतराल में करना होता है |

फसल में खरपतवार नियंत्रण 

जीरे के खेत में खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक और प्राकृतिक दोनों ही विधियों का इस्तेमाल किया जाता है। रासायनिक विधि में आक्साडायर्जिल की उचित मात्रा को पानी के साथ मिलाकर घोल बना लिया जाता है, जिसे बीज रोपाई के तत्पश्चात खेत में छिड़क दिया जाता है| प्राकृतिक विधि में पौधों की निराई-गुड़ाई की जाती है। इसकी पहली गुड़ाई बीज रोपाई के तक़रीबन 20 दिन बाद की जाती है, तथा बाकी की गुड़ाई को 15 दिन के अंतराल में करना होता है। इसके पौधों को अधिकतम दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। 

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फसल की उपज 

जीरे की उन्नत किस्में बीज रोपाई के तक़रीबन 100 से 120 दिन पश्चात् पैदावार देने के लिए तैयार हो जाती है। जब इसके पौधों में लगे बीजो का रंग हल्का भूरा दिखाई देने लगे उस दौरान पुष्प छत्रक को काटकर एकत्रित कर खेत में ही सूखा लिया जाता है। इसके बाद सूखे हुए पुष्प छत्रक से मशीन द्वारा दानो को निकल लिया जाता है। उन्नत किस्मो के आधार पर जीरे के एक हेक्टेयर के खेत से लगभग 7 से 8 क्विंटल की पैदावार प्राप्त हो जाती है।  जीरा का बाज़ारी भाव 200 रूपए प्रति किलो तक होता है, जिस हिसाब से किसान भाई जीरे की एक बार की फसल से 40 से 50 हज़ार तक की कमाई कर अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

सतावर की खेती से बदली तकदीर

सतावर की खेती से बदली तकदीर

उत्तर प्रदेश के कासगंज में जन्मे श्याम चरण उपाध्याय अच्छी खासी नौकरी छोड़कर किसान बन गए। किसानी यूंतो कांटों भरी डगर ही होती है लेकिन उन्होंने इसके लिए कांटों वाली सतावर की खेती को ही चुना। सीमैप लखनऊ से प्रशिक्षण प्राप्त कर उन्होंने एक दशक पूर्व खेती शुरू की और पहले ही साल एक एकड़ की सतावर को पांच लाख में बेच दिया। उनकी शुरूआत और जानकारी ठीक ठाक होने के कारण वह सफलता की सीढिंयां चढ़ते गए। आज वह एक सैकड़ा किसानों के लिए मार्ग दर्शक का काम कर रहे हैं। उन्होंने एक फार्मर प्रोड्यूशर कंपनी बनाई है। मेडी एरोमा एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी प्राईवेट लिमिटेड नामक इस किसान कंपनी में 517 सदस्य हैं। विषमुक्त खेती, रोग मुक्त जीवन के मंत्र पर काम करने वाले उपाध्याय आज अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। कासंगज की पटियाली तहसील के बहोरा गांव में जन्मे श्याम चरण उपाध्याय रीसेंट इंश्योरेंस कंपनी में एक्जीक्यूटिव आफीसर थे। उन्हें वेतन भी 50 हजार के पार मिलता था लेकिन उनकी आत्मा गांव में बसी थी। वह नौकरी के दौरान भी गांव से अपना मोह नहीं छोड़ पाए। उन्होंने यहां  2007 तक काम किया। इसके बाद नौकरी छोड़कर गांव चले आए। गांव आकर उन्होंने खेती में कुछ लीक से हटकर करने का मन बनाया। उन्होंने परंपरागत खेती के अलावा कुछ नया करने की धुन को साकार करने की दिशा में काम शुरू कर दिया। इस काम में उनकी मदद उनकी शिक्षा बायो से बीएससी एवं बाराबंकी के जेपी श्रीवास्तव ने की। वह ओषधीय पौधों की खेती का गुड़ा भाग लगाकर मन पक्का कर चुके थे। सगंधीय पौध संस्थान, सीमैप लखनउू से प्रशिक्षण प्राप्त कर वक काम में जुट गए।

क्या है सतावर की खेती का गणित

श्री उपाध्याय ने बाताया कि एक एकड में सतावर के 11 हजार पौधे लगते हैं। हर पौधे में गीली जड़ दो से पांच किलोग्राम निकलती है। सूखने के बाद यह न्यूनतम 15 प्रतिशत बजनी रहने पर भी 300 ग्राम प्रति पौधे के हिसाब से बैठ जाती है। उनकी एक एकड़ जमीन में उन्हें करीब 30 कुंतल सूखी सतावर प्राप्त हुई। सतावर की कीमत 200 से 500 रुपए प्रति किलोग्राम तक बिक जाती है। उन्होंने पहले साल अपनी पूूरी फसल एक औषधीय फसलों की खरीद करने वाले को पांच लाख में बेच दी। खुदाई से लेकर प्रोसेसिंग का सारा जिम्मा उन्हीं का था।

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इसके बाद उन्होंने खस बटीवर, पामारोजा, सतावर, स्टीविया, अश्वगंधा, केमोमाइल, लेमनग्रास आदि की खेती कर रहे हैं। किसी भी औषधीय फसल को लगाने से पूर्व वह बाजार की मांग का विशेष ध्यान रखते हैं। बाजार में जिन चीजों की मांग ठीक ठाक हो उन्हें ही वह प्राथमिकता से लगाते हैं।  अब वह कृषक शसक्तीकरण परियोजना में अन्य किसानों को जोड रहे हैं। बंजर में चमन खिलाएंगे श्री उपाध्याय का सपना है कि धान-गेहूं फसल चक्र के चलते जमीन खराब हो रही है। बंजर होते खेतों से भी वह किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं। बंजर में खस अच्छी लगती है। वह किसानों को खस की खेती करना सिखा रहे हैं। इससे उनकी आय होगी। साथ ही खेती की जमीन भी धीरे धीरे सुधर जाएगी। वह बताते हैं कि ज्यातार किसान जिस खेती को करते हैं उससे अच्छी आय नहीं हो सकता। इस लिए किसानों को लीक से हटकर नई खेती को अपनाना चाहिए। पहली बार में इसे ज्यादा न करें। बाजार आदि की पूरी जानकारी होने के बाद ही काम को धीरे धीरे बढ़ाएं।
जाने कैसे लेमन ग्रास की खेती करते हुए किसानों की बंजर जमीन और आमदनी दोनों में आ गई है हरियाली

जाने कैसे लेमन ग्रास की खेती करते हुए किसानों की बंजर जमीन और आमदनी दोनों में आ गई है हरियाली

आजकल किसान खेती में अलग-अलग तरह के प्रयोग कर रही हैं. पारंपरिक फसलों की खेती से हटकर आजकल के साथ ऐसी फसलें उगा रहे हैं जो उन्हें इनके मुकाबले ज्यादा मुनाफा देती हैं और उनकी आमदनी बढ़ाने में भी मदद करती हैं. इसी तरह की फसलों में बागवानी सच में काफी ज्यादा चलन में हैं. आज हम लेमन ग्रास/ मालाबार ग्रास या हिंदी में नींबू घास के नाम से जाने वाली फसल के बारे में बात करने वाले हैं जिसे उगा कर आजकल किसान अच्छा खासा लाभ और मुनाफा कमा रहे हैं. इस फसल की सबसे अच्छी बात यह है कि इसे बंजर जमीन में भी आसानी से उगाया जा सकता है और इसे बहुत ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है.  इसके अलावा इस फसल को उगाने में बहुत ज्यादा कीटनाशक दवाइयां वेतनमान नहीं करनी पड़ती है. यह एक औषधीय फसल मानी जाती है और पशु लेमन ग्रास को नहीं खाते हैं इसलिए आपको अपने खेतों में पशुओं से बचाव करने की भी जरूरत नहीं है. आप बिना कोई  बाड़ा बनाई भी खुले खेत में नींबू घास की फसल आसानी से उग सकते हैं.

बिहार सरकार दे रही है लेमन ग्रास की फसल उगाने पर सब्सिडी

लेमन ग्रास की फसल से जुड़ी हुई एक बहुत बड़ी खबर बिहार राज्य सरकार की तरफ से सामने आ रही है. बिहार सरकार किसानों को नींबू घास की खेती करने पर सब्सिडी दे रही है.  पिछले साल ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड में बहुत ही महिला किसानों की तारीफ भी की थी जो उच्च स्तर पर लेमन ग्रास की खेती कर रही है.इसी झारखंड के साथ-साथ बिहार में भी यह फसल उगाने का चलन पिछले कुछ समय में बहुत बढ़ गया है. बिहार के बांका, कटोरिया, फुल्लीडुमर, रजौन, धोरैया, सहित अन्य जिलों के किसान में नींबू घास की खेती कर रहे हैं.

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इस राज्य के किसान अब करेंगे औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती

प्रति एकड़ लेमन ग्रास की फसल पर दी जाएगी ₹8000 की सब्सिडी

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि नींबू घास की खेती बंजर जमीन पर भी की जा सकती है. ऐसे में बिहार सरकार बंजर जमीन का इस्तेमाल करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है और इसी कड़ी में अगर किसान बंजर भूमि में लेमन ग्रास की खेती करते हैं तो उन्हें प्रति एकड़ की दर से ₹8000 की सब्सिडी बिहार सरकार द्वारा दी जाएगी. अब वहां पर आलम ऐसा है कि कई वर्षों से खाली पड़ी हुई बंजर जमीन पर किसान बढ़-चढ़कर नींबू घास की खेती कर रहे हैं और इससे पूरे राज्य भर में हरियाली तो आई ही है साथ ही किसानों की आमदनी में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है.

लेमन ग्रास का इस्तेमाल कहां किया जाता है?

यह एक औषधि है और लेमन ग्रास का तेल निकाला जा सकता है जो कई तरीकों से इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके तेल से बहुत ही दवाइयां, घरेलू उपयोग की चीजें, साबुन तेल और बहुत से कॉस्मेटिक प्रोडक्ट (Cosmetic Product) भी बनाए जा सकते हैं. नींबू घास की फसल से बनने वाले तेल में पाया जाने वाला सिट्रोल उसे विटामिन ई का एक बहुत बड़ा स्त्रोत बनाता है.

कम पानी में भी आसानी से उगाई जा सकती है यह फसल

अगर आपके पास पानी का स्रोत नहीं है तब भी आप आसानी से लेमन ग्रास की खेती कर सकते हैं. इसके अलावा इस फसल को बहुत ज्यादा कीटनाशक या उर्वरक की भी जरूरत नहीं पड़ती है.  जानवर एक खास को नहीं खाते हैं इसलिए किसानों को जानवरों से भी फसल को किसी तरह के नुकसान होने का डर नहीं है. एक बार लगाने के बाद इस फसल की बात से छह बार कटाई की जा सकती है.

कितनी लगती है लागत?

शुरुआत में अगर आप 1 एकड़ जमीन में है फसल उगाना चाहते हैं तो लगभग बीज और खाद आदि को मिलाकर 30 से 40,000 तक खर्च आ सकता है. 1 एकड़ के खेत में यह फसल उगाने के लिए लगभग 10 किलो बीज की आवश्यकता पड़ती है. बीज लगाने के बाद 2 महीने के अंदर-अंदर इसके पौधे तैयार हो जाते हैं. अगर किसान चाहे तो किसी नर्सरी से सीधे ही लेमन ग्रास के पौधे भी खरीद सकते हैं

1 साल में नींबू घास की फसल की 5 से 6 बार कटाई करके पत्तियां निकाली जा सकती हैं.

अगर आप इस फसल को किसी बंजर या कम उपजाऊ जमीन पर भी लगा रहे हैं तो एक बार लगाने के बाद यह लगभग अगले 6 सालों तक आपको अच्छा खासा मुनाफा देती है.

एक्सपर्ट बताते हैं कि अगर आप नींबू घास की अच्छी पैदावार करना चाहते हैं तो खेत में गोबर और लकड़ी की राख डालते रहें.

बिहार में बनवाए जा रहे हैं लेमन ग्रास का तेल निकालने के लिए प्रोसेसिंग यूनिट

बिहार में राजपूत और कटोरिया में लेमन ग्रास तेल निकालने के लिए प्रोसेसिंग यूनिट बनाई जा चुकी है. इसका तेल निकालने के लिए काम में आने वाली मशीन लगभग ₹400000 की आती है.  नींबू घास के 1 लीटर तेल की कीमत बाजार में 1200  से ₹2000 तक लगाई जाती है. इस तरह से किसान कुछ एकड़ में यह फसल उगा कर लाखों का मुनाफा थाने से कमा सकते हैं. अगर 1 एकड़ में भी है फसल लगाई जाती है तो उसमें इतनी फसल आसानी से हो जाती है कि उससे 100 लीटर के लगभग तेल की निकासी की जा सके. यहां के किसानों से हुई बातचीत में पता चला है कि कृषि विभाग भी इस फसल को उगाने में किसानों की आगे बढ़कर मदद कर रहा है. किसानों का कहना है कि इस फसल की मदद से उनकी बंजर  भूमि में तो हरियाली आती ही है साथ ही उनकी आर्थिक स्थिति में भी हरियाली आई है.
इस औषधीय पौधे की खेती करने के लिए सरकार देती है 75 फीसदी सब्सिडी, योजना का लाभ उठाकर किसान बनें मालामाल

इस औषधीय पौधे की खेती करने के लिए सरकार देती है 75 फीसदी सब्सिडी, योजना का लाभ उठाकर किसान बनें मालामाल

देश के साथ दुनिया में इन दिनों औषधीय पौधों की खेती की लगातार मांग बढ़ती जा रही है। इनकी मांग में कोरोना के बाद से और ज्यादा उछाल देखने को मिला है क्योंकि लोग अब इन पौधों की मदद से अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखना चाहते हैं। 

जिसको देखेते हुए केंद्र सरकार ने इस साल 75 हजार हेक्टेयर में औषधीय पौधों की खेती करने का लक्ष्य रखा है। सरकारी अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि पिछले ढ़ाई साल में औषधीय पौधों की मांग में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है जिसके कारण केंद्र सरकार अब औषधीय पौधों की खेती पर फोकस कर रही है। 

किसानों को औषधीय पौधों की खेती की तरफ लाया जाए, इसके लिए सरकार अब सब्सिडी भी प्रदान कर रही है। राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में औषधीय पौधों की खेती पर राज्य सरकारें भी अलग से सब्सिडी प्रदान कर रही हैं।

75 फीसदी सब्सिडी देती है केंद्र सरकार

सरकार ने देश में औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए एक योजना चलाई है, जिसे 'राष्ट्रीय आयुष मिशन' का नाम दिया गया है। 

इस योजना के अंतर्गत सरकार  औषधीय पौधों और जड़ी बूटियों के उत्पादन को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इस मिशन के अंतर्गत सरकार 140 जड़ी-बूटियों और हर्बल प्लांट्स की खेती के लिए अलग-अलग सब्सिडी प्रदान कर रही है।

यदि कोई किसान इसकी खेती करना चाहता है और सब्सिडी के लिए आवेदन करता है तो उसे 30 फीसदी से लेकर 75 फीसदी तक की सब्सिडी प्रदान की जाएगी। 

ये भी पढ़े: मिल गई किसानों की समृद्धि की संजीवनी बूटी, दवाई के साथ कमाई, भारी सब्सिडी दे रही है सरकार 

अगर किसान भाई किसी औषधीय पौधे की खोज रहे हैं तो वह करी पत्ता की खेती कर सकते हैं। करी पत्ता का इस्तेमाल हर घर में मसालों के रूप में किया जाता है। 

इसके साथ ही इसका इस्तेमाल जड़ी-बूटी के तौर पर किया जाता है, साथ ही इससे कई प्रकार की दवाइयां भी बनाई जाती हैं। जैसे वजन घटाने की दवाई, पेट की बीमारी की दवाई और एंफेक्शन की दवाई करी पत्ता से तैयार की जाती है।

इस प्रकार की जलवायु में करें करी पत्ता की खेती

करी पत्ता की खेती के लिए उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे बेहतर मानी जाती है। इसकी खेती ऐसी जगह पर करनी चाहिए जहां सीधे तौर पर धूप आती हो। इसकी खेती छायादार जगह पर नहीं करना चाहिए।

करी पत्ता की खेती के लिए इस तरह से करें भूमि तैयार

करी पत्ता की खेती के लिए PH मान 6 से 7 के बीच वाली मिट्टी उपयुक्त होती है। इस खेती में किसान को खेत से उचित जल निकासी की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। इसके साथ ही चिकनी काली मिती वाले खेत में इन पौधों की खेती नहीं करना चाहिए। 

सबसे पहले खेत की गहरी जुताई करना चाहिए, इसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर दें। इसके बाद हर चार मीटर की दूरी पर पंक्ति में गड्ढे तैयार करें। गड्ढे तैयार करने के बाद बुवाई से 15 दिन पहले गड्ढों में जैविक खाद या गोबर की सड़ी खाद भर दें। 

इसके बाद गड्ढों में सिंचाई कर दें। भूमि बुवाई के लिए तैयार है। करी पत्ता के पौधों की रोपाई वैसे तो सर्दियों को छोड़कर किसी भी मौसम में की जा सकती है। लेकिन मार्च के महीने में इनकी रोपाई करना सर्वोत्तम माना गया है। 

करी पत्ता की बुवाई बीज के साथ-साथ कलम से भी की जा सकती है। अगर किसान बीजों से बुवाई करने का चयन करते हैं तो उन्हें एक एकड़ में बुवाई करने के लिए करी पत्ता के 70 किलो बीजों की जरूरत पड़ेगी। 

यह बीज खेत में किए गए गड्ढों में बोए जाते हैं। इन बीजों को गड्ढों में 4 सेंटीमीटर की गहराई में लगाने के बाद हल्की सिंचाई की जाती है। इसके साथ ही जैविक खाद का भी प्रयोग किया जाता है।

सुगंधित फसलों को उगाने के लिए सरकार दे रही है ट्रेनिंग, होगा बंपर मुनाफा

सुगंधित फसलों को उगाने के लिए सरकार दे रही है ट्रेनिंग, होगा बंपर मुनाफा

इन दिनों देश में विभिन्न प्रकार की फसलों का चलन बढ़ा है। अलग-अलग तरह की फसलों को उत्पादित करने से किसानों को मोटा मुनाफा हो रहा है। इसलिए किसानों का रुझान इस ओर तेजी से बढ़ता जा रहा है। इसको देखते हुए सरकार अब सुगंधित फसलों की खेती करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर रही है। इसके लिए सरकार ने एक योजना लॉन्च की है, जिसे 'एरोमा मिशन' का नाम दिया गया है। इस योजना के अंतर्गत किसानों को लेमन ग्रास, पामारोजा, मिंट, तुलसी, जिरेनियम, अश्वगंधा, कालमेघ, पचौली और कैमोमाइल जैसी फसलों को उगाने की ट्रेनिंग दी जा रही है। यह ट्रेनिंग लखनऊ में आयोजित की जाएगी। सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय एवं सगंध अनुसंधान संस्थान मिलकर आगामी 26 से 28 अप्रैल तक किसानों के लिए एक ट्रेनिंग कार्यक्रम शुरू कर रहा है। जिसमें किसानों को सुगंधित फसलों की खेती के लिए प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस ट्रेनिंग में फसलों की प्रोसेसिंग की भी पूरी जानकारी दी जाएगी। साथ ही फसलों की गुणवत्ता और बाजार में उनके भाव को लेकर भी जागरुख किया जाएगा। यह भी पढ़ें: इस राज्य के किसान अब करेंगे औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती जो भी किसान भाई इस ट्रेनिंग प्रोग्राम में हिस्सा लेना चाहते हैं वो डायरेक्टर सीआईएमएपी, लखनऊ के नाम पर भारतीय स्टेट बैंक में 3 हजार रुपये की फीस का भुगतान कर सकते हैं। जिसका खाता नंबर 30267691783 है तथा IFSC कोड SBIN000012 है । इसके बाद रुपये भेजने का प्रमाण पत्र या रशीद मेल आईडी training@cimap.res.in पर भी भेजें। सीएसआईआर-केंद्रीय औषधीय एवं सगंध अनुसंधान संस्थान ने अपने नोटिफिकेशन में बताया है कि किसानों का चयन पहले आओ पहले पाओ के आधार पर किया जाएगा। किसान को ट्रेनिंग के दौरान लखनऊ में रहने की व्यवस्था खुद करनी होगी। ट्रेनिंग के दौरान किसानों को दोपहर का खाना उपलब्ध करवाया जाएगा। इस बार की ट्रेनिंग के लिए मात्र 50 सीटें उपलब्ध हैं। अधिक जानकारी के लिए किसान भाई  0522-2718596, 598, 606, 599, 694 पर संपर्क कर सकते हैं।
इस फूल की खेती से किसान कम समय में अच्छा-खासा मुनाफा कमा सकते हैं

इस फूल की खेती से किसान कम समय में अच्छा-खासा मुनाफा कमा सकते हैं

आजकल किसान फूलों की खेती करके काफी ज्यादा आय करते हैं। गुलखैरा का फूल तकरीबन 10,000 रुपये क्विंटल तक के हिसाब से बिकता है। किसान एक बीघे में कम से कम 5 से 6 क्विंटल फूल बड़ी आसानी से उत्पादन कर सकते हैं। वो भी बाकी फसलों की पैदावार करते हुए। आज के समय में किसान पारंपरिक खेती की लीक से हट कर अन्य विभिन्न प्रकार के फलों, फूलों और मसालों की खेती कर रहे हैं। आज हम आपको एक ऐसे ही फूल के विषय में बताने वाले हैं, जिसकी खेती यदि आपने करते हैं, तो गत कुछ ही माह में मालामाल हो सकते हैं। बतादें, कि हम जिस फूल के बारे में बात कर रहे हैं, यह कोई साधारण फूल नहीं है। यह एक ऐसा फूल है, जिसके विभिन्न औषधीय लाभ होते हैं। विभिन्न प्रकार की बीमारियों का उपचार करने में इस फूल का उपयोग होता है। आइए अब इस फूल के बारे में जानते हैं।

गुलखैरा के फूल की क्या-क्या विशेषता होती है

दरअसल, हम जिस फूल के विषय में बात कर रहे हैं, उस फूल का नाम गुलखैरा है। बतादें कि किसान भाई इस फूल की खेती कर के काफी मोटी आमदनी कर सकते हैं। इस फूल की फसल की सबसे विशेष बात यह है, कि इसे किसी भी फसल के साथ किसान उगा सकते हैं। उसके बाद इसे बाजार में बेच कर अच्छी-खासी आमदनी कर सकते हैं। दरअसल, इस फूल का मूल रूप से सर्वाधिक उपयोग ओषधि निर्मित करने हेतु किया जाता है। ये भी देखें: इस औषधीय गुणों वाले बोगनविलिया फूल की खेती से होगी अच्छी-खासी कमाई

गुलखैरा का फूल कितने रुपये प्रति क्विंटल बिकता है

मीडिया एजेंसियों की खबरों के अनुसार, गुलखैरा का फूल तकरीबन 10,000 रुपये क्विंटल तक बेचा जाता है। बतादें, कि एक बीघे में कम से कम आप 5 से 6 क्विंटल फूल बड़ी आसानी से उत्पादित कर सकते हैं, वह भी बाकी फसलों के समेत। इस फूल की एक और सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि इसकी एक बार बुआई कर लेने के उपरांत आपको दूसरी बार बीज बाजार से खरीदने की जरुरत नहीं पड़ेगी। अप्रैल से मई के मध्य यह फसल पककर तैयार हो जाती है।

गुलखैरा के फूल का उपयोग किस प्रकार की दवाई बनाने में किया जाता है

गुलखैरा के फूल का उपयोग यूनानी औषधियां तैयार करने में किया जाता है। इसके साथ ही मर्दाना शक्ति के लिए भी इस फूल से दवाई तैयार की जाती है। बुखार, खांसी और विभिन्न प्रकार की वायरस वाले रोगों के उपचार के लिए भी इस फूल का इस्तेमाल किया जाता है। इस समय इस फूल की खेती उत्तर प्रदेश के उन्नाव, कन्नौज और हरदोई में अधिक होती है।
15 बीघे में लाल चंदन की खेती कर कैसे हुआ किसान करोड़पति

15 बीघे में लाल चंदन की खेती कर कैसे हुआ किसान करोड़पति

सभी तरह के केमिकल फ़र्टिलाइज़र दिनोंदिन महंगे होते जा रहे हैं, जिसका सीधा असर खेती पर पड़ रहा है। आजकल किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई है। ऐसे में किसानों का जागरूक होना बहुत ज्यादा जरूरी है। जागरूक किसान परंपरागत फसल जैसे गन्ना, आलू, गेहूं और धान की खेती छोड़ मुनाफे की खेती की ओर रुख कर करे हैं। बिजनौर के किसान भी ऐसे ही अलग तरह की खेती की ओर रुख कर रहे हैं और वह है लाल चंदन की खेती। इसके अलावा बहुत से किसान ड्रैगनफ्रूट, कीवी और आवाकाडो जैसे फलों की बागवानी कर रहे हैं। इसके साथ ही अनेक किसान मेडिसिनल प्लांट्स जैसे अश्वगंधा, एलोवेरा, शतावर और तुलसी की भी खेती कर रहे हैं। 

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आज हम आपको बिजनौर के बलीपुर गांव के किसान चंद्रपाल सिंह के बारे में बताने वाले हैं, जो पिछले लगभग 10 वर्षों से सफेद और लाल चंदन की खेती कर रहे हैं। चंद्रपाल सिंह से हुई बातचीत में पता चला कि चंदन का पौधा 150 रुपए में मिल जाता है और उसके बाद जब 12 साल बाद ही यह तैयार होता है तो इसकी कीमत लगभग डेढ़ लाख रुपए हो जाती है। दुनिया भर में चंदन की डिमांड के बारे में हम सब जानते हैं, चंदन की लकड़ी उस का तेल और बुरादा सभी चीजें लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं और बाजार में बहुत ज्यादा मांग में रहती हैं। चंद्रपाल सिंह ने बताया कि चंदन की खेती की ढंग से देखभाल करते हुए आप करोड़पति बन सकते हैं। बस आपको जरा सब्र रखने की जरूरत है, उन्होंने कहा कि बिजनोर के अनेकों किसानों ने शुरुआत में कर्नाटक और तमिलनाडु से चंदन की पौध लाकर अपने खेतों में लगाई थी।

 

कुछ सालों में करोड़ों हो जाएगी कीमत

इसके अलावा चांदपुर में रहने वाले किसान शिवचरण सिंह ने 15 बीघा जमीन में लाल चंदन के पौधे लगाए थे, जो अब लगभग 20 फीट ऊंचे पेड़ बन गए हैं। उन्होंने कहा कि उनके खेत में लगभग 1500 पेड़ लाल चंदन के हैं, जिनकी कीमत लगभग दो करोड़ रुपए लग चुकी है। व्यापारी बार-बार आकर इन के पेड़ों को करोड़ों में खरीदना चाहते हैं, लेकिन वह अभी इसकी कीमत को और बढ़ाना चाहते हैं। लिहाजा उनका इरादा 3 साल के बाद पेड़ों को बेचने का है। शिवचरण सिंह को उम्मीद है, कि उनके पेड़ों की कीमत 3 साल बाद 3 करोड़ रुपए होगी। चंदन के पेड़ों की बागवानी करने के साथ-साथ चंद्रपाल सिंह दूसरे किसानों को तमिलनाडु और कर्नाटक से चंदन की पौध भी लाकर बेचते हैं और गाइड भी करते हैं।

 

बड़े लेवल पर कर रहे हैं किसान चंदन की खेती

बिजनौर के डीएम उमेश मिश्रा ने बताया कि बिजनौर में अब तक 200 से ज्यादा किसानों ने चंदन की खेती बड़े लेवल पर करनी शुरू कर दी है। इसके साथ ही कुछ किसान ड्रैगन फ्रूट की बागवानी कर रहे हैं। बिजनौर के बलिया नगली गांव के जयपाल सिंह ने 1 एकड़ जमीन में पर्पल ड्रैगन लगा रखा है, जिससे उन्हें हर साल 5 लाख रुपए की आमदनी हो रही है। थाईलैंड और चाइना का यह फल सौ से डेढ़ सौ रुपए में मिलता है।

 

क्यों बिजनौर का वातावरण है अलग अलग तरह की खेती के लिए एकदम सही

बिजनौर में किसान बाकी खेती के साथ साथ ड्रैगन फ्रूट की खेती भी कर रहे हैं। इस फल को उगाने के लिए खर्चा थोड़ा ज्यादा आता है, लेकिन बाजार में बेचते समय इसकी कीमत भी काफी ज्यादा लगाई जाती है। ऐसा ही कीवी और आवाकार्डो के साथ भी है, आमतौर पर यह सब फल ठंडे इलाकों में पैदा होते हैं। लेकिन उत्तराखंड की पहाड़ी से लगे होने की वजह से बिजनौर का वातावरण इन्हें अच्छा खासा सूट कर रहा है।

 

यह खेती किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है

बिजनौर में किसान बहुत लंबे समय से गन्ने की खेती करते आ रहे हैं और इसके अलावा यहां पर गेहूं या आलू आदि भी उगाया जाता था। लेकिन समय और प्राकृतिक मार के कारण इस तरह की खेती में किसानों को ज्यादा लाभ नहीं मिल रहा था। इसलिए उन्होंने अपना रुख बागवानी और औषधीय पौधे की तरफ किया है। बिजनौर के कई किसान एलोवेरा, अश्वगंधा, सतावर और तुलसी आदि औषधीय पौधे की भी खेती कर रहे हैं, जिनका प्रयोग आयुर्वेदिक दवाइयों में होने की वजह से बाजार में अच्छी कीमतों पर उपज बिक जाती है।