Ad

oils

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

भारत की मंडियों में तिलहन फसल सरसों की कीमतों में आई भारी गिरावट

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि वर्तमान में तिलहन फसलों में सर्वाधिक सरसों की कीमत प्रभावित हो रही है। विगत वर्ष के समापन में सरसों की कीमतों में काफी तीव्रता देखने को मिली थी। परंतु, अब सरसों की कीमतें एक दम नीचे गिरने लगी हैं। भारत भर की मंडियों में सरसों को क्या भाव मिल रहा है ? तिलहन फसलों का भाव निरंतर तीव्रता के पश्चात अब गिरावट की कवायद शुरू हो गई है। अधिकांश तिलहन फसलों की कीमतें अभी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।

कुछ एक फसलों में कमी दर्ज की जा रही है। तिलहन फसलोंकी बात करें तो सर्वाधिक सरसों के भाव प्रभावित हो रहे हैं। विगत वर्ष के अंत में सरसों की कीमतों में शानदार तीव्रता देखने को मिली थी। एक वक्त तो भाव 9000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया था। परंतु, अब भाव में एक दम से कमी आई है। आलम यह है, कि सरसों का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चला गया है, जिस कारण से कृषक भी काफी परेशान दिखाई दे रहे हैं। 

भारत भर की मंडियों में सरसों की कीमत क्या है

केंद्र सरकार ने सरसों पर 5650 रुपये का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया है। परंतु, भारत की अधिकतर मंडियों में किसानों को MSP तक की कीमत नहीं मिल रही है। सरसों की फसल को औसतन 5500 रुपये/क्विंटल की कीमत मिल रही है। केंद्रीय कृष‍ि व क‍िसान कल्याण मंत्रालय के एगमार्कनेट पोर्टल के मुताबिक, शनिवार (6 जनवरी) को भारत की एक दो मंडी को छोड़ दें, तो तकरीबन समस्त मंडियों में मूल्य MSP से नीचे ही रहा है। शनिवार को सरसों को सबसे शानदार भाव कर्नाटक की शिमोगा मंडी में हांसिल हुआ। जहां, सरसों 8800 रुपये/क्विंटल के भाव पर बिकी है।


ये भी पढ़ें: सरसों की फसल में माहू कीट की रोकथाम करने के लिए कीटनाशक का स्प्रे करें

 

इसी प्रकार, गुजरात की अमरेली मंडी में भाव 6075 रुपये/क्विंटल तक रहा है। इन दो मंडियों को छोड़ दें, तो बाकी समस्त मंडियो में सरसों 5500 रुपये/क्विंटल के नीचे ही बेची जा रही है, जो MSP से काफी कम है। वहीं, भारत की कुछ मंडियों में तो भाव 4500 रुपये/क्विंटल तक पहुंच गया। विशेषज्ञों का कहना है, की कम मांग के चलते कीमतों में काफी गिरावट आई है। यदि मांग नहीं बढ़ी, तो कीमतें और कम हो सकती हैं, जो कि कृषकों के लिए काफी चिंता का विषय है।


यहां पर आप बाकी फसलों की सूची भी देख सकते हैं 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल का भाव उसकी गुणवत्ता पर भी निर्भर रहता है। ऐसी स्थिति में व्यापारी क्वालिटी के हिसाब से ही भाव निर्धारित करते हैं। फसल जितनी शानदार गुणवत्ता की होगी, उसकी उतनी ही अच्छी कीमत मिलेंगे। यदि आप भी अपने राज्य की मंडियों में भिन्न-भिन्न फसलों का भाव देखना चाहते हैं, तो आधिकारिक वेबसाइट https://agmarknet.gov.in/ पर जाकर पूरी सूची की जाँच कर सकते हैं।

दिवाली से पूर्व केंद्र सरकार गेहूं सहित 23 फसलों की एमएसपी में इजाफा कर सकती है

दिवाली से पूर्व केंद्र सरकार गेहूं सहित 23 फसलों की एमएसपी में इजाफा कर सकती है

लोकसभा चुनाव से पूर्व ही केंद्र सरकार किसानों को काफी बड़ा तोहफा दे सकती है। ऐसा कहा जा रहा है, कि सरकार शीघ्र ही गेहूं समेत विभिन्न कई फसलों की एमएसपी बढ़ाने की स्वीकृति दे सकती है। वह गेहूं की एसएमसपी में 10 प्रतिशत तक भी इजाफा कर सकती है। लोकसभा चुनाव से पूर्व केंद्र सरकार द्वारा किसानों को बहुत बड़ा गिफ्ट दिए जाने की संभावना है। ऐसा कहा जा रहा है, कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार रबी फसलों के मिनिमम सपोर्ट प्राइस में वृद्धि कर सकती है। इससे देश के करोड़ों किसानों को काफी फायदा होगा। सूत्रों के अनुसार, केंद्र सरकार गेहूं की एमएसपी में 150 से 175 रुपये प्रति क्विंटल की दर से इजाफा कर सकती है। इससे विशेष रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार और पंजाब के किसान सबसे ज्यादा लाभांवित होंगे। इन्हीं सब राज्यों में सबसे ज्यादा गेहूं की खेती होती है।

केंद्र सरकार गेंहू की अगले साल एमएसपी में 3 से 10 प्रतिशत वृद्धि करेगी

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार आगामी वर्ष के लिए गेहूं की एमएसपी में 3 प्रतिशत से 10 प्रतिशत के मध्य इजाफा कर सकती है। अगर केंद्र सरकार ऐसा करती है, तो गेहूं का मिनिमम सपोर्ट प्राइस 2300 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच सकता है। हालांकि, वर्तमान में गेहूं की एमएसपी 2125 रुपए प्रति क्विंटल है। इसके अतिरिक्त सरकार मसूर दाल की एमएसपी में भी 10 प्रतिशत तक का इजाफा कर सकती है।

ये भी पढ़ें:
गेहूं समेत इन 6 रबी फसलों पर सरकार ने बढ़ाया MSP,जानिए कितनी है नई दरें?

यह निर्णय मार्केटिंग सीजन 2024- 25 के लिए लिया जाएगा

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सरसों और सूरजमुखी (Sunflower) की एमएसपी में 5 से 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी की जा सकती है। दरअसल, ऐसी आशा है कि आने वाले एक हफ्ते में केंद्र सरकार रबी, दलहन एवं तिलहन फसलों की एमएसपी बढ़ाने के लिए स्वीकृति दे सकती है। मुख्य बात यह है, कि एमएसपी में वृद्धि करने का निर्णय मार्केटिंग सीजन 2024-25 के लिए लिया जाएगा।

एमएसपी में समकुल 23 फसलों को शम्मिलित किया गया है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश पर केंद्र मिनिमम सपोर्ट प्राइस निर्धारित करती है। एमएसपी में 23 फसलों को शम्मिलित किया गया है। 7 अनाज, 5 दलहन, 7 तिलहन और चार नकदी फसलें भी शम्मिलित हैं। आम तौर पर रबी फसल की बुवाई अक्टूबर से दिसंबर महीने के मध्य की जाती है। साथ ही, फरवरी से मार्च एवं अप्रैल महीने के मध्य इसकी कटाई की जाती है।

जानें एमएसपी में कितनी फसलें शामिल हैं

  • अनाज- गेहूं, धान, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी और जो
  • दलहन- चना, मूंग, मसूर, अरहर, उड़द,
  • तिलहन- सरसों, सोयाबीन, सीसम, कुसुम, मूंगफली, सूरजमुखी, निगर्सिड
  • नकदी- गन्ना, कपास, खोपरा और कच्चा जूट
इस फूल की खेती से किसान तिगुनी पैदावार लेकर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं

इस फूल की खेती से किसान तिगुनी पैदावार लेकर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं

किसान भाई आजकल कम खर्च में अधिक आय देने वाली फसलों की कृषि को अधिकाँश तवज्जो दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में किसानों के मध्य फूलों का उत्पादन को लेकर लोकप्रियता बहुत बढ़ी है। इसी क्रम में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के किसान उच्च स्तर पर सूरजमुखी की कृषि से मोटी आय अर्जित कर रहे हैं। रबी फसलों की कटाई केवल कुछ दिनों के अंदर ही चालू होने वाली है। इसके उपरांत कुछ माह खेत खाली रहेंगे, उसके उपरांत खरीफ की फसलों की खेती की शुरुआत हो जाएगी। रबी फसलों की कृषि आरंभ हो जाएगी। रबी फसलों की कटाई एवं खरीफ फसलों की बुवाई के मध्य किसान नगदी फसलों का उत्पादन कर सकते हैं। इसके चलते आप मार्च माह में सूरजमुखी के पौधों की भी कृषि कर सकते हैं। इस फसल की खेती पर भारत सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है।

सूरजमुखी के फूल की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी कौन-सी है

सूरजमुखी का पौधा तिलहन फसलों के अंतर्गत आता है। सूरजमुखी को साल में तीन बार उगाया जा सकता है। तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और महाराष्ट्र में इसका उत्पादन बड़े रकबे पर की जाती है। रेतीली दोमट मिट्टी एवं काली मिट्टी इसके उत्पादन हेतु सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है। जिस भूमि पर इसका खेती की जाती है। उसका पीएच मान 6.5 एवं 8.0 के मध्य होना आवश्यक है।

ये भी पढ़ें:
सूरजमुखी की फसल के लिए उन्नत कृषि विधियाँ (Sunflower Farming in Hindi)

सूरजमुखी के बीज का उपचार किस प्रकार होता है

खेतों में सूरजमुखी के बीज रोपने से पूर्व उसका उपचार करना काफी आवश्यक है। नहीं तो, विभिन्न बीज जनित बीमारियों से आपकी फसल प्रभावित होकर नष्ट हो सकती है। सर्व प्रथम सूरजमुखी के बीजों को साधारण जल में 24 घंटे के लिए भिगो दें एवं उसके बाद बुवाई से पूर्व छाया में सुखा लें। बीजों पर थीरम 2 ग्राम प्रति किग्रा व डाउनी फफूंदी से संरक्षण हेतु मेटालैक्सिल 6 ग्राम प्रति किलो अवश्य छिड़कें। इसके उपरांत ही एक निश्चित दूरी की क्यारियों में इसकी बुवाई करें। बुवाई के उपरांत जब पौधा निकल आए तब 20 से 25 दिनों के समयांतराल पर इसकी सिंचाई करते रहें।

सूरजमुखी फूल तैयार होकर कटाई के लिए कब तैयार हो जाता है

सूरजमुखी की फसल की कटाई तब की जाती है, जब समस्त पत्ते सूख जाते हैं। साथ ही, सूरजमुखी के फूल के सिर का पिछला हिस्सा नींबू पीला पड़ जाता है। समय लगने पर दीमक का संक्रमण हो सकता है एवं फसल नष्ट हो सकती है। सूरजमुखी के पौधे से तेल निकालने के अतिरिक्त औषधियों तक में इसका इस्तेमाल किया जाता है। कृषक इस फसल से कम खर्च, कम समय में लाखों की आय कर सकते हैं।

फूलों के उत्पादन से किसान लाखों कमा सकते हैं

फूलों के उत्पादन से किसान भाई काफी अच्छी आमदनी कर सकते हैं। यह बात अब किसान समझने भी लगे हैं। इसलिए आजकल किसान फूलों की खेती करने की दिशा में अपनी काफी रूचि दिखा रहे हैं। भारत के अधिकांश किसान आज भी परंपरागत खेती किया करते हैं। जिसकी वजह से किसानों को कोई खास प्रगति या उन्नति नहीं मिल पाती है। किसान भाई काफी सजग और जागरूक दिखाई दे रहे हैं। तभी आज फूलों की खेती के रकबे मे काफी वृद्धि देखने को मिल रही है।
केंद्र सरकार द्वारा चलाया जा रहा ऑयल पाम प्लांटेशन अभियान 12 अगस्त तक जारी रहेगा

केंद्र सरकार द्वारा चलाया जा रहा ऑयल पाम प्लांटेशन अभियान 12 अगस्त तक जारी रहेगा

केंद्र सरकार के मिशन के अंतर्गत राज्य सरकारों ने ऑयल पाम प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ मिलकर भारत में ऑयल पाम की खेती को और प्रोत्साहन देने के लिए 25 जुलाई 2023 से एक मेगा ऑयल पाम प्लांटेशन अभियान जारी किया है। पाम तेल उत्पादन क्षेत्र को 10 लाख हेक्टेयर तक बढ़ाने एवं 2025-26 तक कच्चे पाम तेल की पैदावार को 11.20 लाख टन तक पहुँचाने के मकसद से भारत सरकार ने अगस्त 2021 में राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन- ऑयल पाम जारी किया है। मिशन खाद्य तेलों की पैदावार में वृद्धि के अतिरिक्त आयात बोझ को कम करके भारत को 'आत्मनिर्भर भारत' की दिशा में भी सफलतापूर्वक लेकर जा रहा है।

ये कंपनियां भी सक्रिय प्रचार और हिस्सेदारी कर रही हैं

मिशन के अंतर्गत राज्य सरकारों ने ऑयल पाम प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ मिलकर भारत में ऑयल पाम की खेती को और प्रोत्साहन देने के लिए 25 जुलाई 2023 से एक मेगा ऑयल पाम प्लांटेशन अभियान चालू किया है। तीन प्रमुख ऑयल पाम प्रोसेसिंग कंपनियां- पतंजलि फूड प्राइवेट लिमिटेड, गोदरेज एग्रोवेट एवं 3एफ (3F) विस्तार के लिए अपने-अपने राज्यों में किसानों के साथ सक्रिय तौर से प्रचार और हिस्सेदारी कर रहे हैं।

ये भी पढ़ें:
पॉम आयल उत्पादकों को छूट देगी सरकार

मेगा प्लांटेशन अभियान कब तक जारी रहेगा

मेगा प्लांटेशन अभियान की शुरुआत 25 जुलाई 2023 से हो चुकी है। बतादें, कि यह अभियान 12 अगस्त 2023 तक सुचारू रहेगा। इस पहल के अंतर्गत प्रमुख तेल पाम उत्पादक राज्यों जैसे कि ओडिशा, कर्नाटक, गोवा, असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु भागीदारी करेंगे। यह अभियान 25 जुलाई 2023 को रेस्ट ऑफ इंडिया (ROI) मतलब कि ओडिशा, गोवा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में शुरू हुआ और 08-08-2023 तक सुचारू रहेगा। यह तकरीबन 7000 हेक्टेयर क्षेत्रफल को कवर करेगा, जिसमें से 6500 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को कवर करने का संकल्प है।

ये भी पढ़ें:
सरसों का रकबा बढ़ने से किसान होंगे खुशहाल
पूर्वोत्तर क्षेत्र (NER) के राज्यों जैसे कि त्रिपुरा, मिजोरम, नागालैंड, असम और अरुणाचल प्रदेश में यह अभियान 27 जुलाई 2023 को आरंभ हुआ और 12 अगस्त 2023 तक 19 जनपदों में 750 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल को कवर करते हुए जारी रहेगा।

असम सरकार ने कितने हेक्टेयर रकबे को कवर करने का लक्ष्य तय किया

असम सरकार 75 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल को कवर करने का लक्ष्य निर्धारित कर रही है। बतादें, कि 27 जुलाई 2023 से 05 अगस्त 2023 तक मेगा प्लांटेशन अभियान 8 जनपदों में चलेगा। इस अभियान में हिस्सेदारी लेने वाली कंपनियां पतंजलि फूड्स प्राइवेट लिमिटेड, गोदरेज एग्रोवेट लिमिटेड, 3एफ ऑयल पाम लिमिटेड एवं विभिन्न कल्टीवेशन शम्मिलित हैं। अरुणाचल प्रदेश सरकार तकरीबन 700 हेक्टेयर रकबे को कवर करने का लक्ष्य तय कर रही है। 29 जुलाई 2023 से 12 अगस्त 2023 तक अभियान के दौरान 6 जनपदों में अभियान जारी रहेगा। राज्य के लिए इस अभियान में हिस्सा लेने वाली कंपनियां 3F प्राइवेट लिमिटेड और पतंजलि फूड्स प्रा. लिमिटेड हैं।
नारियल और जैतून के तेल से होने वाले शारीरिक लाभ, इनमें कितना अंतर है

नारियल और जैतून के तेल से होने वाले शारीरिक लाभ, इनमें कितना अंतर है

नारियल एवं जैतून दोनों तेल का उपयोग खाने के लिए किया जाता है। इनके औषधीय गुणों की वजह विगत कई सालों से बाजार में इसकी मांग लगातार बढ़ती जा रही है। खाना तैयार करने के लिए हम कई तरह के खाद्य तेलों का इस्तेमाल करते हैं। यह तेल हमारे रोजमर्रा के आहार का एक मूलभूत हिस्सा है और यह हमारे पसंदीदा व्यंजनों का स्वाद बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। नारियल और जैतून का तेल अपने स्वास्थ्य लाभों की वजह से जाने जाते हैं और इनके औषधीय गुणों की वजह से विगत कई वर्षों से बाजार में मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। चलिए आज हम इस लेख में आपको खाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले नारियल तथा जैतून के तेल की विशेषताऐं बताने जा रहे हैं। नारियल और जैतून के तेल से तैयार किया गया भोजन काफी स्वादिष्ट होता है।

नारियल का तेल किस तरह निकलता है

नारियल का तेल पके हुए नारियल के गूदे से निकाला जाता है। इसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में खाद्य के रुप में बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। आपको बता दें कि नारियल के तेल में काफी ज्यादा मात्रा में फैटी एसिड होता है, जिसका ज्यादा सेवन हमारे शरीर को नुकसान पहुंचा सकता है।

ये भी पढ़ें:
केंद्र सरकार ने ‘खोपरा’ नारियल के न्यूनतम समर्थन मूल्य को दी मंजूरी

नारियल तेल का सेवन करने से होने वाले लाभ

नारियल तेल वजन कम करने में अहम भूमिका निभाता है

नारियल तेल का इस्तेमाल वजन कम करने के लिए किया जा सकता है। तेल में मीडियम चेन फैटी एसिड की भाँति लॉरिक एसिड, कैप्रेटेलिक एसिड और कैपरिक एसिड होते हैं, जो हमारे शरीर का वजन घटाने में सहायता करते हैं। नारियल तेल और जैतून

नारियल के तेल से बेहतरीन पाचन होता है

नारियल के तेल से शरीर में अच्छा पाचन होता है। नारियल तेल का इस्तेमाल खाना पकाने में करने से हमारे शरीर का पाचन तंत्र बेहतर ढ़ंग से कार्य करता है। इसके अतिरिक्त यह इर्रिटेबल बॉवल सिंड्रोम जैसे कि कब्ज, डायरिया एवं गैस से संबंधित समस्याओं के लिए भी लाभदायक होता है।

नारियल का तेल डायबिटीज में फायदेमंद है

नारियल तेल को मधुमेह के उपचार के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। रिसर्च के मुताबिक, वर्जिन कोकोनट ऑयल में डायबिटीज नियंत्रित करने की क्षमता होती है, जिसका इस्तेमाल मधुमेह से जुड़े रोगियों को जरूर करना चाहिए।

ये भी पढ़ें:
दालचीनी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी (How to Grow Cinnamon)

जैतून के तेल के कितने फायदे होते हैं

जैतून का तेल मॉइस्चराइजिंग गुणों से युक्त होता है। बतादें, कि इसका नियमित रूप से इस्तेमाल करना हमारे शरीर को बहुत सारी बीमारियों एवं स्वास्थ्य समस्याओं से बचाता है। जैतून के तेल के अंदर विटामिन-ई, विटामिन के, आयरन, ओमेगा-3 फैटी एसिड, मिनरल और एंटीऑक्सीडेंट विघमान रहते हैं।

जैतून के तेल का उपयोग आंखों का बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करता है

आजकल हम सारा दिन कंप्यूटर, टीवी एवं मोबाइल पर कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में आँखों के विशेष ख्याल के लिए आपको अपने खाने में जैतून के तेल का उपयोग करना चाहिए। इसका सेवन करने से आपकी आंखों के आसपास रक्त संचार बढेगा। साथ ही, थकान भी दूर हो जाती है।

जैतून के तेल से उच्च रक्तचाप का खतरा कम हो जाता है

वर्तमान में सभी लोगों पर काम का दवाब, तनाव एवं अन्य समस्याओं की वजह से उच्च रक्तचाप की समस्या बनी रहती है। ऐसी स्थिति में अपनी डाइट में ऑलिव ऑयल मतलब कि जैतून के तेल को अवश्य शम्मिलित करना चाहिए। यह हमारे शरीर के हाई ब्लड प्रेशर के संकट को कम करता है।

ये भी पढ़ें:
किसान एक बार बादाम का पेड़ लगाकर 50 सालों तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं

जैतून का तेल कोलेस्ट्रॉल के स्तर को काबू करता है

कोलेस्ट्रॉल से बचाव के लिए आप ऑलिव ऑयल का उपयोग कर सकते हैं। इसमें मौजूद सैचुरेटेड फैट हमारे शरीर में रक्त कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करता है। जैतून के एक्स्ट्रा वर्जिन ऑयल में पॉलीफेनॉल से हमारे शारीरिक रक्त संचार को नियंत्रित करता है। इसके साथ साथ जैतून का तेल बहुत सारे अन्य फायदे भी मानव शरीर को पहुँचाता है।
अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

अलसी की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आज हम आपको अलसी की फसल से संबंधित विस्तृत जानकारी देने वाले हैं। विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। अलसी के फायदों को देखते हुए किसानों की इसकी खेती के प्रति निरंतर चिलचस्पी बढ़ती जा रही है। भारत में अलसी एक महत्वपूर्ण रबी तिलहन फसल साथ ही तेल और रेशे का एक प्रमुख स्रोत भी है। भारत के अंदर अलसी की खेती तकरीबन 2.96 लाख हेक्टेयर भूमि के हिस्से में होती है, जो विश्व के समकुल रकबे का 15 फीसद है। अलसी रकबे की दृष्टि से भारत का दुनियाभर में द्वितीय स्थान है। वहीं, उत्पादन में तीसरा और उपज प्रति हेक्टेयर में आठवाँ स्थान रखता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसल है। अलसी की भिन्न-भिन्न किस्मो के आधार पर इसका उत्पादन भी अलग होता है। इसकी फसल से 10 से 15 क्विंटल उत्पादन प्रति हेक्टेयर खेत से अर्जित किये जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र प्रमुख अलसी उत्पादक राज्य हैं। भारत में अलसी प्रमुख तौर पर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और बिहार राज्यों में पैदा की जाती है। अलसी के हर एक हिस्से का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल सामान्यतः खाने के तौर पर इस्तेमाल में नही लिया जाता है। इसका उपयोग दवाइयाँ निर्मित करने में किया जाता है।

अलसी की खेती के लिए भूमि का चयन

अगर आप अलसी की खेती करने की मन में ठान चुके हैं, तो सबसे पहले आपको अलसी की बिजाई से पूर्व खेत मतलब कि भूमि का चयन करना होगा। बतादें, कि अलसी की बुवाई से पूर्व अपने खेत की मृदा और जल की जांच जरूर कराएं। अलसी की खेती के लिए काली दोमट मृदा उपयुक्त मानी जाती है। यह मृदा ज्यादा उपजाऊ होती है। साथ ही, जमीन तैयार करते वक्त ख्याल रखें कि जमीन में जल निकास की बेहतरीन व्यवस्था हो। इससे फसल में सिंचाई करने में भी काफी सुविधा रहेगी। साथ ही, फसल का उत्पादन भी काफी बढेगा।

अलसी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

अलसी के लिए सामान्य पीएच मान वाली भूमि अनुकूल मानी जाती है।
अलसी की खेती को ठंडी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अलसी की खेती भारत में ज्यादातर रबी सीजन में की जाती है। इस दौरान वार्षिक वर्षा 50 से 55 सेटीमीटर के बीच होती है। वहां, अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के बेहतर अंकुरण के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान और बीज बनने के दौरान तापमान 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। अलसी को परिपक्व अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी और शुष्क वातावरण की जरूरत होती है। मतलब कि इसकी खेती के लिए सम-शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है।

अलसी की बिजाई कब की जाती है

किसान भाइयों को यह मशवरा दिया जाता है, कि वे अलसी के बीजों की बिजाई के लिए सिंचित जगहों पर नवंबर एवं असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे में बिजाई करें। इसके अतिरिक्त उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बिजाई की जानी चाहिये। बतादें, कि उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले इलाकों में प्रचलित है। धान की खेती में नमी का सदुपयोग करने के उद्देश्य से धान के खेत में अलसी बोई जाती है। उतेरा पद्धति में धान फसल कटाई के 7 दिन पूर्व ही खेत में अलसी के बीज को छटक दिया जाता है। इससे धान की कटाई से पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है। इससे यह लाभ होता है, कि संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार होती है। जल्दी बिजाई करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी और पाउडरी मिल्डयू इत्यादि से बचाया जा सकता है।

ये भी पढ़ें:
धान की खेती की शुरू से लेकर अंत तक संपूर्ण जानकारी, जानिए कैसे बढ़ाएं लागत

अलसी की प्रमुख उन्नत किस्में

अलसी की उन्नत किस्में कृषि अनुसंधान द्वारा विकसित की जाती हैं। असिंचित क्षेत्रों के लिए और सिंचित क्षेत्रों के लिए असली की प्रजातियों को दो हिस्सों में विभाजित किया है, जिन्हें अधिक उत्पादन और जलवायु के अनुरूप उगाया जाता है। सिंचित इलाकों के लिये- सुयोग, जे एल एस- 23, पूसा- 2, पी के डी एल- 41, टी- 397 इत्यादि प्रमुख किस्म हैं। इन किस्मों को सिंचित क्षेत्रों के लिए विकसित किया है। इन किस्मों को तकरीबन दोनों ही क्षेत्रों में उगा सकते हैं। वहीं, इनके उत्पादन की बात करें, तो 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो सकती है। असिंचित इलाकों के लिये - शीतल, रश्मि, भारदा, इंदिरा अलसी- 32, जे एल एस- 67, जे एल एस- 66, जे एल एस- 73 इत्यादि प्रमुख किस्में है। इन किस्मों को असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए तैयार किया गया है। इन किस्मों में लगने वाले पौधों की लम्बाई औसतन 2 फीट तक होती है। साथ ही, पैदावार 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हो सकती है। उपरोक्त किस्मों के अतिरिक्त भी अलसी की बहुत सारी अन्य उन्नत किस्में भी हैं। जैसे - पी के डी एल 42, जवाहर अलसी दृ 552, जे. एल. एस. - 27, एलजी 185, जे. एल. एस. - 67, पी के डी एल 41, जवाहर अलसी - 7, आर एल - 933, आर एल 914, जवाहर 23, पूसा 2 इत्यादि।

कैसे करें बीजोपचार ?

अलसी के बिजाई दो तरह से की जाती है। पहले ड्रिल विधि के माध्यम से और दूसरी उतेरा (छिडककर) पद्धति से बीजों की बुवाई की जा सकती है। ड्रिल विधि के माध्यम से अलसी की बुवाई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीजों की आवश्यकता होती है। इस विधि में कतार से कतार के मध्य का फासला 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिये। बीज को जमीन में 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिये। उतेरा पद्वति के लिये 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर अलसी की बुआई के लिए अच्छी मानी जाती है। बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा या ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बिजाई करनी चाहिए।

ये भी पढ़ें:
अलसी की खेती से भाग जाएगा आर्थिक आलस

अलसी की खेती के लिए खेत की तैयारी

अलसी की खेती में बीज के अंकुरण एवं उचित फसल बढ़ोतरी के लिए जरूरी है, कि बुआई से पहले खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लिया जाए। फसल कटाई के उपरांत खेत में 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गली गोबर की खाद का छिडक़ाव कर मृदा पलटने वाले देशी हल अथवा हैरो से 2 से 3 बार जुताई कर गोबर की खाद को मिलाकर जमीन तैयार करनी चाहिए। इसके उपरांत पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए, जिससे कि जमीन में नमी बरकरार बनी रहे।

खाद किस तरह से डालें

बतादें, कि अलसी की खेती के लिए भूमि की तैयारी के दौरान 8 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद अंतिम जुताई में मृदा में बेहतर ढंग से मिलाकर करें। इसके साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों के लिए नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। असिंचित इलाकों के लिए बेहतरीन पैदावार पाने हेतु नाइट्रोजन 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस 40 कि.ग्रा. और 40 कि.ग्रा. पोटाश की दर से प्रयोग करें। असिंचित स्थिति में नाइट्रोजन व फॉस्फोरस और पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नाइट्रोजन की आधी मात्रा व फॉस्फोरस की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय चोगे द्वारा 2-3 से.मी. नीचे प्रयोग करें। सिंचित दशा में नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा टॉप ड्रेसिंग के रुप में पहली सिंचाई के पश्चात करें।

किसान अपनी अलसी की फसल में लगने वाले रोग और कीटों कैसे संरक्षण करें

अलसी की खेती में अल्टरनेरिया झुलसा, रतुआ अथवा गेरुई, उकठा और बुकनी रोग लगता है। इन रोगों की रोकथाम के लिए फसल में मैन्कोजेब 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 40 से 50 दिन बुवाई के बाद छिडकाव करें। हर 15 दिन के समयांतराल पर छिडकाव करते रहना चाहिए, जिससे की रोग न लग सके। रतुआ अथवा गेरुई और बुकनी रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

ये भी पढ़ें:
रोग व कीटों से जुड़ी समस्त समस्याओं के हल हेतु हेल्पलाइन नंबर जारी हुआ कीट प्रकोप - अलसी की फसल में फली मक्खी, इल्ली इत्यादि विभिन्न प्रकार के कीटों का प्रकोप होता है। इसके प्रौढ़ कीट गहरे नारंगी रंग के छोटी मक्खी जैसे होते हैं। ये कीट अपने अंडे फूलो की पंखुडियों में देते है, जिससे पौधे में फूलों से बीज नहीं बन पाते हैं। यह कीट उत्पादन को 70 फीसद तक प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी, 750 मिलीलीटर या क्युनालफास 1.5 लीटर मात्रा 900 से 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

अलसी का तेल कितनी चीजों में उपयोग किया जाता है

अलसी भारत की महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसलों में से एक है। भारत में अलसी की फसल का व्यापारिक उद्देश्य से उत्पादन किया जाता है। इसकी खेती रेशेदार फसल के तौर पर की जाती है। अलसी के बीजो में तेल की मात्रा काफी ज्यादा विघमान होती है। परंतु, इसके तेल का इस्तेमाल खाने में न करके दवाइयों को निर्मित करने में किया जाता है। इसके तेल को वार्निश, स्नेहक, पेंट्स को तैयार करने के अलावा प्रिंटिंग प्रेस के लिए स्याही एवं इंक पैड को तैयार करने में किया जाता है। म.प्र. के बुन्देलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में, साबुन बनाने और दीपक जलाने में किया जाता है। अलसी का बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा अर्जित किया जाता है। साथ ही, रेशे से लिनेन भी निर्मित किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। वहींं, खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होने की वजह से इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जाता है।

अलसी का सेवन करने से बहुत सारी बीमारियों में फायदा मिलता है

अलसी का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद होता है। इसके बीज एवं इसका तेल बहुत सारी बीमारियों की रोकथाम में फायदेमंद है। अलसी विश्व की छठी सबसे बड़ी तिलहन फसल है। इसमें लगभग 33 से 45 प्रतिशत तेल और 24 प्रतिशत कच्चे प्रोटीन होता है, यह एक चमत्कारी आहार है। इसमें दो आवश्यक फैटी एसिड पाए जाते हैं, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड और लिनोलेनिक एसिड। अलसी के नियमित सेवन किया जाए तो कई प्रकार के रोगों जैसे कैंसर, टी.बी., हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कब्ज, जोड़ों का दर्द आदि कई रोगों से बचा जा सकता है। यह हमारे शरीर में अच्छे कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को बढ़ाता है और ट्राइग्लिसराइड कॉलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करने में सहायक होता है। यह हमारे हृदय की धमनियों में खून के थक्के बनाने से रोकता है और हृदय घात व स्ट्रोक जैसी बीमारियों से भी हमारा बचाव करता है। यह एंटीबैक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीफंगल, एंटीऑक्सीडेंट तथा कैंसर रोधी है। अलसी में तकरीबन 28 फीसद रेशा होता है और यह कब्ज के रोगियों के लिए काफी फायदेमंद साबित होता है।

फसल कटाई के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें

अलसी की फसल बिजाई के करीब 100 से 120 दिनों पश्चात तैयारी हो जाती है। जब अलसी की फसल पूरी तरह से सूखकर पक जाए तभी इसकी कटाई करनी चाहिए। फसल की कटाई के शीघ्र बाद मड़ाई कर लेनी चाहिए। इससे इसके बीजों को कोई ज्यादा हानि नहीं होगी। अलसी की फसल की उपरोक्त विधि से खेती करने पर भिन्न-भिन्न किस्मों का उत्पादन भिन्न भिन्न होता है। प्रथम बीज उद्देशीय सिंचित दशा में 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और असिंचित दशा में 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और दो-उद्देशीय संचित और असिंचित दशा में 20 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और 13 से 17 प्रतिशत तेल व 38 से 45 प्रतिशत तक रेशा अर्जित किया सकता है।
विविधताओं वाले भारत देश में मिट्टी भी अलग अलग पाई जाती है, जानें इनमे से सबसे ज्यादा उपजाऊ कौन सी मिट्टी है ?

विविधताओं वाले भारत देश में मिट्टी भी अलग अलग पाई जाती है, जानें इनमे से सबसे ज्यादा उपजाऊ कौन सी मिट्टी है ?

जैसा कि हम जानते हैं, कि हिंदुस्तान विविधताओं का देश है। यहां तक कि भारत में मिट्टी भी विभिन्न प्रकार की पाई जाती है। मिट्टी (Soil) के कारण यहां फसलों में भी विविधता पाई जाती है। भारत का किसान विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन करता है। मुख्य बात ये है, कि भारत में जिस प्रकार भिन्न भिन्न फसल होती है, वैसे ही देश में अलग-अलग मिट्टी भी है, जो कि फसलों को सही पोषण देकर उन्हें उगने में सहायता करती है। आपने बचपन में अपनी किताबों में भारत में पाई जाने वाली मिट्टी के विषय में अवश्य पढ़ा होगा। क्या आपको मालूम है, कि हिंदुस्तान में कितने तरह की मिट्टी पाई जाती है ? यदि नहीं, तो इस लेख के जरिए आपको इनके सभी प्रकारों के बारे में जानकारी देंगे। भारत में पाई जाने वाली प्रमुख प्रकार की मृदाएं जैसे कि - जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil), लाल मिट्टी (Red And Yellow Soil), काली मिट्टी (Black Or Regur Soil), पहाड़ी मिट्टी (Mountain Soil), रेगिस्तानी मिट्टी (Desert Soil), लेटराइट मिट्टी (Laterite Soil) हैं।

भारत में पाई जाने वाली प्रमुख मृदाएँ:

1. जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)

इस मिट्टी का निर्माण नदी द्वारा ढो कर लाए गए जलोढ़ीय पदार्थों के जरिए हुआ है। यह मिट्टी भारत की सबसे महत्वपूर्ण मिट्टी है। इसका विस्तार मुख्य रूप से हिमालय की तीन प्रमुख नदी तंत्रों गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी बेसिनों में देखा जाता है। इसके अंतर्गत पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, असम के मैदानी क्षेत्र और पूर्वी तटीय मैदानी क्षेत्र आते हैं।

ये भी पढ़ें:
घर पर मिट्टी के परीक्षण के चार आसान तरीके

2. लाल मिट्टी (Red And Yellow Soil)

यह मिट्टी ग्रेनाइट से निर्मित है। इस मिट्टी में लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लौह धातु की वजह है। इसका पीला रंग इसमें जलयोजन की वजह से होता है। प्रायद्वीपीय पठार के पूर्वी और दक्षिणी क्षेत्रों में बहुत बड़े हिस्से पर लाल मिट्टी पाई जाती है, जिसमें दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, छोटा नागपुर का पठार, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, उत्तर-पूर्वी राज्यों के पठार शम्मिलित हैं।

3. काली मिट्टी (Black Or Regur Soil)

यह मिट्टी ज्वालामुखी के लावा से निर्मित हुई है। इस वजह से इस मिट्टी का रंग काला है। इसे स्थानीय भाषा में रेगर या रेगुर मिट्टी के नाम से भी जाना जाता है। इस मिट्टी के निर्माण में जनक शैल और जलवायु ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

4. पहाड़ी मिट्टी (Mountain Soil)

पहाड़ी मिट्टी हिमालय की घाटियों की ढ़लानों पर 2700 मी• से 3000 मी• की ऊंचाई के मध्य पाई जाती है। इन मिट्टी के निर्माण में पर्वतीय पर्यावरण के मुताबिक परिवर्तन आता है। नदी घाटियों में यह मिट्टी दोमट और सिल्टदार होती है। परंतु, ऊपरी ढ़लानों पर इसका निर्माण मोटे कणों में होता है। नदी घाटी के निचले क्षेत्रों विशेष तौर पर नदी सोपानों और जलोढ़ पखों आदि में यह मिट्टियां उपजाऊ होती है। पर्वतीय मृदा में विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाया जाता है। इस मृदा में चावल, मक्का, फल, और चारे की फसल प्रमुखता से उगाई जाती है।

ये भी पढ़ें:
विश्व मृदा दिवस: 5 दिसंबर को मनाया जाता है

5. रेगिस्तानी मिट्टी (Desert Soil)

मरूस्थलों में दिन के वक्त ज्यादा तापमान की वजह से चट्टानें फैलती हैं और रात्रि में अधिक ठंड की वजह से चट्टानें सिकुड़ती हैं। चट्टानों के इस फैलने और सिकुड़ने की प्रक्रिया के कारण राजस्थान में मरुस्थलीय मिट्टी का निर्माण हुआ है। इस मिट्टी का विस्तार राजस्थान, पंजाब और हरियाणा के दक्षिण-पश्चिमी हिस्सों में है।

6. लेटराइट मिट्टी (Laterite Soil)

लैटराइट मिट्टी उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले इलाकों में विकसित होती है। यह अत्यधिक वर्षा से अत्यधिक निक्षालन (Leaching) का परिणाम है। यह मिट्टी मुख्यतः ज्यादा वर्षा वाले राज्य महाराष्ट्र, असम, मेघालय, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के पहाड़ी क्षेत्रों में एवं मध्यप्रदेश व उड़ीसा के शुष्क क्षेत्रों पाई जाती है।
कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

ट्राइकोडर्मा कवक की एक प्रजाति है जो पौधों पर अपने विविध लाभकारी प्रभावों के कारण कृषि और बागवानी में निरंतर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कवक का यह बहुमुखी समूह अपने माइकोपरसिटिक, बायोकंट्रोल और पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले गुणों के लिए बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही  है।

 1. माइकोपैरासिटिक क्षमताएं

ट्राइकोडर्मा प्रजातियां निपुण माइकोपैरासाइट हैं, जिसका अर्थ है कि वे अन्य कवक के विकास को परजीवीकृत और नियंत्रित करते हैं। यह विशेषता कृषि में विशेष रूप से मूल्यवान है, जहां मिट्टी से पैदा होने वाले रोगज़नक़ फसल को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचाते हैं। वही ट्राइकोडर्मा की विविध प्रजातियां पोषक तत्वों और स्थान के लिए हानिकारक कवक से प्रतिस्पर्धा करके सक्रिय रूप से हमला करते हैं और उनके विकास को रोकते हैं।

ये भी पढ़ें: सरसों की फसल के रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

 2. बायोकंट्रोल एजेंट

ट्राइकोडर्मा फ्यूसेरियम, राइजोक्टोनिया और पाइथियम की प्रजातियों सहित पौधों के रोगजनकों की एक विस्तृत श्रृंखला के खिलाफ एक प्राकृतिक बायोकंट्रोल एजेंट के रूप में कार्य करता है। राइजोस्फीयर और जड़ सतहों पर कॉलोनी बनाकर, ट्राइकोडर्मा एक सुरक्षात्मक अवरोध स्थापित करता है, जो रोगजनक कवक को पौधों की जड़ों को संक्रमित करने से रोकता है। यह जैव नियंत्रण तंत्र सिंथेटिक रासायनिक कवकनाशी की आवश्यकता को कम करता है, टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देता है।

 3. पौधों की रक्षा तंत्र को शामिल करना

ट्राइकोडर्मा पौधे की अपनी रक्षा तंत्र को प्रेरित करता है, जिससे रोगों के प्रति उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।  कवक पौधों में विभिन्न रक्षा-संबंधी यौगिकों, जैसे फाइटोएलेक्सिन और रोगजनन-संबंधी प्रोटीन के उत्पादन को उत्तेजित करता है।  यह प्रणालीगत प्रतिरोध फसलों को संक्रमण और तनाव का सामना करने में मदद करता है, जिससे पौधों के समग्र स्वास्थ्य में योगदान होता है।

 4. पोषक तत्व घुलनशीलता

कुछ ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां फॉस्फोरस,लोहा जिंक के साथ साथ अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे आवश्यक पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने की क्षमता प्रदर्शित करती हैं, जिससे वे पौधों के लिए अधिक उपलब्ध हो जाते हैं। यह पोषक तत्व घुलनशीलता पौधों की वृद्धि और विकास को बढ़ाती है, विशेष रूप से पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी में, और सिंथेटिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करती है।

ये भी पढ़ें: क्यों बढ़ रहा है सरकार का उर्वरक सब्सिडी का बिल?

5. उन्नत जड़ विकास

ट्राइकोडर्मा ऑक्सिन और अन्य पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले पदार्थों का उत्पादन करके जड़ विकास और शाखाओं को बढ़ावा देता है।  बेहतर जड़ प्रणालियों के परिणामस्वरूप बेहतर पोषक तत्व और पानी ग्रहण होता है, जिससे पौधों की ताकत और समग्र फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।

6. तनाव सहनशीलता

ट्राइकोडर्मा पौधों को विभिन्न पर्यावरणीय तनावों, जैसे सूखा, लवणता और अत्यधिक तापमान से निपटने में मदद करता है।  ट्राइकोडर्मा और पौधों के बीच बनने वाला सहजीवी संबंध पौधों की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अनुकूलन और जीवित रहने की क्षमता को बढ़ा सकता है, जिससे अंततः अधिक लचीली फसलें पैदा होती हैं।

7. कार्बनिक पदार्थ का जैव निम्नीकरण

 ट्राइकोडर्मा प्रजातियाँ मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ के विघटन में योगदान करती हैं।  वे एंजाइमों का स्राव करते हैं जो कार्बनिक अवशेषों के अपघटन की सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे पोषक तत्व मिट्टी में वापस आ जाते हैं।  यह पुनर्चक्रण प्रक्रिया मिट्टी की संरचना और उर्वरता में सुधार करती है, जिससे पौधों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनता है।

ये भी पढ़ें: जैविक खाद का करें उपयोग और बढ़ाएं फसल की पैदावार, यहां के किसान ले रहे भरपूर लाभ

 8. व्यावसायिक प्रयोग

ट्राइकोडर्मा-आधारित जैव कवकनाशी और जैव उर्वरकों ने कृषि उद्योग में लोकप्रियता हासिल की है।  जीवित ट्राइकोडर्मा इनोकुलेंट्स युक्त इन वाणिज्यिक उत्पादों को ऊपर चर्चा किए गए विभिन्न लाभ प्रदान करने के लिए बीज, मिट्टी या पौधों की सतहों पर लगाया जाता है।  टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने के लिए किसान इन जैविक एजेंटों को अपनी फसल प्रबंधन प्रथाओं में तेजी से एकीकृत कर रहे हैं।

9. नेमाटोड का जैविक नियंत्रण

कुछ ट्राइकोडर्मा उपभेद पौधे-परजीवी नेमाटोड के खिलाफ विरोधी गतिविधि प्रदर्शित करते हैं।  यह जैव नियंत्रण क्षमता नेमाटोड संक्रमण के प्रबंधन में मूल्यवान है, जो फसल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

10. बीज उपचार

ट्राइकोडर्मा-आधारित फॉर्मूलेशन का उपयोग बीज उपचार, मिट्टी-जनित रोगजनकों से बीज की रक्षा करने और अंकुर स्थापना को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।  यह निवारक उपाय विकास के प्रारंभिक चरण से ही फसलों को स्वस्थ बनाने में योगदान देता है।

सारांश 

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के बहुमुखी फायदे इसकी माइकोपरसिटिक क्षमताओं, जैव नियंत्रण तंत्र, पौधों की रक्षा प्रतिक्रियाओं को शामिल करने, पोषक तत्व घुलनशीलता, जड़ विकास को बढ़ावा देने, तनाव सहनशीलता बढ़ाने और कार्बनिक पदार्थ अपघटन में योगदान से उत्पन्न होते हैं।  जैसे-जैसे कृषि क्षेत्र टिकाऊ प्रथाओं को अपनाना जारी रखता है, ट्राइकोडर्मा-आधारित उत्पादों का उपयोग पौधों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, रासायनिक इनपुट को कम करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।



Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,
पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी,
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार
Send feedback sksraupusa@gmail.com/sksingh@rpcau.ac.in