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अरहर की फसल को रोगों से बचाएं

अरहर की फसल को रोगों से बचाएं

अरहर मनुष्यों को ही नहीं वरन कीटों को भी खूब भाती है। अरहर की खेती को सुरक्षित रखने के लिए अरहर के कीट, बीमारियों की समझ और समय से नियंत्रण बेहद आवश्यक है।

 

फली भेदक कीट      arhar keet 

 फलियों में सूराख करके उसके दाने खा जाता है। इससे बचाव के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी  एक हजार मिली लीटर प्रति हैक्टेयर या फिर साइपरमैथरिन 20 ईसी का 400 मिली लीटर मात्रा का पानी में घोलकर छिड़काव करें। जैविक उपचार के लिए एनपीवी 350 एलई प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें। पौधे की पत्ती जब सिकुड़ी दिखें तो समझ लेना चाहिए कि पत्ती लपेटक का प्रभाव है। अरहर के इस कीट की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ईसी की 800 मिली लीटर मात्रा का छिड़काव करें।

फली मक्खी

  arhar makhi

फली के अंदर दाने को खाती है। इससे बचाव के लिए मोनोक्रोटोफास या डाईमिथोएट कीटनाशक का छिड़काव फूल आने की अवस्था पर करना चाहिए।

उकठा रोग

  Uktha rog 1

अरहर का प्रमुख रोग है। यह फ्यूजेरियम नामक फफूंद से पनता है। यह पूरी फसल को चौपट कर सकता है। यह पौधे को पोषक तत्व एवं पानी का संचार रोक देता है। इस रोग के बाचाव के लिए कार्बन्डाजिम या थीरम से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज को उपचारित करके बोना चाहिए। इसके अलावा जिस खेत में यह रोग एक बार आ जाए उसमें तीन साल तक अरहर नहीं लगानी चाहिए। खड़ी फसल पर रोग संक्रमण दिखे तो तत्काल फफूंदनाशक का छिड़काव करें।

भारत-कनाडा के बीच तकरार का असर मसूर की कीमतों पर पड़ेगा अथवा नहीं

भारत-कनाडा के बीच तकरार का असर मसूर की कीमतों पर पड़ेगा अथवा नहीं

भारत सरकार द्वारा दलहन की बढ़ती कीमतों पर रोक लगाने के लिए ऑस्ट्रेलिया से मसूर दाल का आयात बढ़ा दिया है। वर्तमान में ऑस्ट्रेलिया से तकरीबन दो लाख टन मसूर दाल का आयात होगा। इसी कड़ी में भारत ने रूस से भी मसूर दाल का आयात भी चालू कर दिया है। कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के बयान से भारत एवं कनाडा के बीच परेशानियां बढ़ती ही जा रही हैं। अब ऐसी स्थिति में अंदाजा लगाया जा रहा है, कि यदि दोनों देशों के मध्य तनाव और बढ़ता है, तो भारत में महंगाई काफी बढ़ जाएगी। विशेष कर मसूर दाल की काफी किल्लत हो जाएगी। क्योंकि कनाडा भारत के लिए मसूर दाल का प्रमुख आयातक देश है। परंतु, केंद्र सरकार के अधिकारियों ने समस्त प्रकार की अटकलों और अफवाहों को पूर्णतय खारिज कर दिया है।

भारत कनाडा के बीच संबंधों में बढ़ी तल्खी का असर आयात और निर्यात पर नहीं पड़ेगा

अधिकारियों का कहना है, कि भारत और कनाडा के मध्य रिश्तों में आई तल्खी का प्रभाव एक्सपोर्ट- इंपोर्ट पर नहीं पड़ने वाला है। हम फिलहाल कनाडा से दलहन आयात के मामले में कंफर्टेबल जोन में हैं। अधिकारियों की मानें तो दोनों देशों के बीच जारी तनाव के चलते कनाडा से एक लाख टन मसूर दाल भारतीय बंदरगाहों पर पहुंच चुकी है। अधिकारियों का कहना है, कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 23 लाख टन दाल की खपत होती है। परंतु, भारत के अंदर दलहन की पैदावार मात्र 16 लाख टन ही होती है। ऐसे में बची हुई जरूरतों को पूर्ण करने के लिए विदेशों से दलहन का आयात किया जाता है।

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भारत सरकार मसूर पर शून्य आयात शुल्क जारी रख सकती है

एक अधिकारी ने बताया है, कि कनाडा से तकरीबन 6 लाख टन मसूर दाल अब तक देश के बंदरगाहों पर पहुंच चुकी है। ऐसी स्थिति में भारत के अंदर दलहन को लेकर किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न होने वाली नहीं है। बाजार में मसूर दाल की आपूर्ति पहले की भांति ही होती रहेगी। सूत्रों ने यह भी कहा कि केंद्र सरकार विदेशी निर्यातकों को साफ संकेत देने के लिए मार्च 2024 के उपरांत भी मसूर पर शून्य आयात शुल्क जारी रख सकती है।

मसूर दाल के आयात को स्वीकृति दे दी है

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, फसल सीजन 2022-23 में भारत ने कनाडा से 3,012 करोड़ रुपये की 4.85 लाख टन मसूर दाल का आयात किया था। वहीं, इस साल अप्रैल से जून के मध्य करीब तीन माह में एक लाख टन मसूर दाल कनाडा से भारत पहुंची है। वहीं, सितंबर 2021 में केंद्र ने रूस से मसूर के आयात को मंजूरी दी थी। हालांकि, सरकार ज्यादा कीमत होने की वजह से रूस से मसूर दाल का आयात शुरू नहीं किया। ऐसे में कहा जा रहा है, कि मसूर दाल की खपत की आपूर्ति करने के लिए भारत उन देशों की सूची तैयार कर रहा है, जहां से सस्ती दरों पर मसूर का आयात किया जा सकता है। हालांकि, फिलहाल भारत में किसानों की दलहन की खेती के प्रति दिलचस्पी थोड़ी बढ़ी है। इससे घरेलू दालों की पैदावार भी बढ़ी है।
सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती कैसे होती है

सोयाबीन की खेती

सोयाबीन विश्व की प्रमुख तिलहनी फसल है। यह विश्व खाद्य तेल उत्पादन में करीब 30 फ़ीसदी का योगदान देती है। इसमें 20% तेल 40% प्रोटीन होता है। सोयाबीन का स्थान भारत की मुख्य फसलों में से एक है। 

विश्व में क्षेत्रफल एवं उत्पादन की दृष्टि से भारत उसमें प्रमुख स्थान रखता है।भारत में सोयाबीन की औसत उत्पादकता 11 से 12 कुंतल प्रति हेक्टेयर है। भारत में सोयाबीन खरीफ में उगाई जाने वाली एक प्रमुख  फसल है। 

हमारे देश में सोयाबीन उत्पादन प्रमुख रूप से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक में होती है। सोयाबीन के कुल क्षेत्र एवं उत्पादन में मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र का विशेष योगदान है। 

देश में सोयाबीन उत्पादन में प्रथम स्थान पर है। सोयाबीन से तेल प्राप्त होने के अलावा दूध दही पनीर आदि खाद्य पदार्थ भी तैयार किए जाते हैं।

मिट्टी

सोयाबीन की अच्छी पैदावार के लिए समतल एवं जल निकासी वाली दोमट भूमि अच्छी रहती है।इसकी खेती क्षारीय तथा अम्लीय भूमियां छोड़कर हर तरह की जमीन में की जा सकती है। 

काली मिट्टी में भी सोयाबीन की खेती अच्छी होती है। वैज्ञानिक भाषा में जिस मिट्टी का पीएच मान 6:30 से 7:30 के बीच हो वह इसकी खेती के लिए अच्छी होती है।

बीज

खरीफ में लगाई जानी फसल के लिए 70 से 75 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है जबकि ग्रीष्म एवं वसंत ऋतु के लिए 100 से 125  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज चाहिए।

अच्छी पैदावार के लिए प्रमाणित या आधारित बीज लेना चाहिए और बुवाई से पूर्व थीरम या कार्जाबन्कडाजिम नामक दवा से ढाई ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचार करना चाहिए। 

इसके अलावा सोयाबीन में नाइट्रोजन स्थिरीकरण बाजार ग्रंथियों के शीघ्र विकास के लिए 20 को राइजोबियम कल्चर से उपचारित करना चाहिए । 

पौधों के अच्छे विकास के लिए बीज को पीएसबी कल्चर से भी उपचारित करना चाहिए। इससे जमीन में मौजूद तत्वों को व्यक्ति दिया पौधे की जड़ों तक पहुंचाने में सुगमता लाता है। 

उक्त कल्चरों से बीज को उपचारित करने के लिए एक बर्तन में पानी लेकर 100 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उसमें इन कल्चर को मिलाया जाता है और उनका लेप बीज पर कर दिया जाता है।

बुवाई का समय

अच्छे उत्पादन के लिए बुवाई के समय का प्रमुख स्थान होता है। खरीफ सीजन में 25 जून से 15 जुलाई के मध्य का समय इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। 

कम समय में पकने वाली किस्मों का चयन करें ताकि मौसमी दुष्प्रभाव से नुकसान को बचाया जा सके। मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों व दक्षिण भारत में सोयाबीन बसंत यानी कि जायद ऋतु में बोई जाती है । 

उसकी बुबाई का उपयुक्त समय 15 फरवरी से 15 मार्च के बीच रहता है। इसकी बिजाई में पंक्ति से पंक्ति की दूरी  45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 3 से 5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। इसके अलावा 20 30 से 4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा नहीं डालना चाहिए।

उर्वरक प्रबंधन

अच्छे उत्पादन के लिए 10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालनी चाहिए।इसके अलावा नाइट्रोजन 25 किलोग्राम, फास्फोरस 80, किलोग्राम एवं पोटाश 50 किलोग्राम की दर से डालाना चाहिए। 

इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम सल्फर का प्रयोग करने से कई तरह की बीमारियां नहीं आती हैं। फास्फोरस की पूर्ति के लिए यदि डीएपी डाला जा रहा है तो सल्फर अलग से नहीं देनी चाहिए।

जल प्रबंधन

चुकी सोयाबीन की खेती बरसात के सीजन में की जाती है इसलिए पानी की ज्यादा जरूरत नहीं होती लेकिन यदि बरसात कम हो तो क्रांतिक अवस्थाओं, शाखाओं के विकास के समय फूल बनते समय एवं फलियां बनते समय और दाने के विकसित होते समय पानी लगाना चाहिए। वसंत ऋतु में 12 से 15 दिन के अंतराल पर 45 से चाहिए करनी होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण

सोयाबीन की खरीफ ऋतु की फसल में खरपतवारओं का अधिक प्रयोग होता है जैसे उपज पर 40 से 50% तक नकारात्मक प्रभाव दिखता है। 

इसके नियंत्रण के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन बाद हैंड हो द्वारा कतारों को मध्य में होगे खरपतवार को नष्ट कर देना चाहिए। 

इसके बाद 30 से 40 दिन बाद निराई गुड़ाई करके और है साथ में किया जाना चाहिए। रसायनिक नियंत्रण के लिए भी बाजार में कई तरह की दवाई मौजूद हैं।

बीमारी नियंत्रण, रोग

  1. भूरा धब्बा रोग फसल में फूल के समय पर आता है। इस रोग के धब्बे टेढ़े मेढ़े, लाल भूरे व किनारों से हल्के हरे होते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां गिर जाती हैं। इससे बचाव के लिए स्वस्थ बीज का प्रयोग करें। मध्यम रोग प्रतिरोधी पालम सोया, हरित सोया, ली और ब्रैग जैसी किस्में लगाएं।
  2. बैक्टीरियल पश्चुयुल रोग के कारण पत्तियों के दोनों सदनों पर पीले उभरे हुए धब्बे प्रकट होते हैं जो बाद में लाल बुरे हो जाते हैं। छोटे-छोटे ऐसे ही धब्बे फलियों पर भी प्रकट होते हैं। इससे बचाव के लिए पंजाब नंबर 1 किस ना लगाएं रोग प्रतिरोधक किस्में ही लगाएं।
  3. पीला म्यूजिक विषाणु जनित रोग है। यह रोग सफेद मक्खी के माध्यम से फैलता है। इसके कारण पत्तों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं और पत्ते और पौधे छोटे रह जाते हैं फलियां कम लगती हैं । मौसम में नमी अधिक होने पर तथा तापमान 22 से 25 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच होने पर रोग तेजी से फैलता है। बचाव के लिए विषाणु रहित बीज का प्रयोग करें और एक ही पौधे को तुरंत खेत से निकाल दें। गर्म क्षेत्र में ब्रैग किस्म न लगाएं। निचले क्षेत्रों में शिवालिक किस्म लगाने से बचें।

कीट नियंत्रण

  1. कूबड़ कीट की सुन्डियां पत्तों को क्षति पहुंचाती हैं। इससे पौधे की बढ़वार नहीं हो पाती है। बचाव के लिए फसल पर 50 मिलीलीटर मेलाथियान या 25 मिलीलीटर डाईक्लोरोवास 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। सुंडी को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। यह दवाएं अगर प्रतिबंधित की गई हैं तो इनके विकल्प के रूप में जो दवाएं बाजार में मौजूद हैं वह डालें।
  2. बीन बाग कीट युवा और प्रौढ़ अवस्था में पत्तों का रस चूसते हैं। इससे पत्तों की ऊपर की सतह पर छोटे-छोटे सफेद या पीले धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में यह पत्ते सूख कर गिर जाते हैं। बचाव के लिए 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस या 50 मिलीलीटर साइपरमैथरीन 50 लीटर पानी में घोलकर प्रति बीघा छिड़काव करना चाहिए।
  3. लपेटक बीटल भृंग फसल को शुरुआती दौर में 15 से 20 दिन तक तना, शाखा और पत्तियों को बहुत नुकसान पहुंचाता है। इसके बाद यह कीट तने में सुरंग बना देता है। इससे पौधे के ऊपर हिस्से मुरझा जाते हैं। बचाव के लिए फसल को खरपतवारओं से मुक्त रखें प्रकोप शुरू होने पर 50 मिलीलीटर मोनोक्रोटोफॉस 50 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

सोयाबीन में रासायनिक खरपतवार नियंत्रण

  1. घास समुदाय वाले खरपतवार के नियंत्रण के लिए पेंडीमिथालिन स्टांप की ढाई लीटर मात्रा डुबाई के दो दिन बाद पर्याप्त पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
  2. घास कुल वाले खरपतवार एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए फ्लूक्लोरालीन बाशालिन की 2 लीटर मात्रा बोने से पूर्व छिड़काव करें तथा अच्छी तरह से मिट्टी में मिला दें।
  3. केवल चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार ओं को मारने के लिए मेटसल्फ्यूरान 4 से 6 ग्राम प्रति हेक्टेयर मोबाइल के 20 से 25 दिन बाद छिड़काव करें।

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सोयाबीन की खेती ज्यादा हल्की, हल्की एवं रेतीली जमीन को छोड़कर हर तरह की जमीन पर सहजता से की जा सकती है। लेकिन, जल की निकासी वाली चिकनी दोमट मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये ज्यादा अच्छी होती है। ऐसे खेत जिनमें पानी टिकता हो, उनमें सोयाबीन न बोऐं। ग्रीष्मकालीन जुताई 3 साल में कम से कम एक बार जरुर करनी चाहिये। बारिश शुरू होने पर 2 या 3 बार बखर और पाटा चलाकर भूमि को तैयार करलें। इससे नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की समस्त अवस्थायें खत्म हो जाऐंगी। ढेला रहित एवं भुरभुरी मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये उपयुक्त होती है। खेत के अंदर जलभराव से सोयाबीन की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्यादा उपज के लिये खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था करना जरूरी होता है। जहां तक संभव हो अंतिम बखरनी और पाटा वक्त से करें, जिससे अंकुरित खरपतवार का खात्मा हो सकें। साथ ही, मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) तैयार कर सोयाबीन की बिजाई करें। अगर हम सोयाबीन की खेती के सन्दर्भ में बीज दर की बात करें, तो छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़, मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़, बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़ 

सोयाबीन की खेती में बीजोपचार

सोयाबीन के अंकुरण को बीज एवं मृदा जनित रोग काफी प्रभावित करते हैं। इनको नियंत्रित करने हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। या फिर ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बिजाई करें।

कल्चर का इस्तेमाल

आपकी जानकारी के लिए फफूंदनाशक ओषधियों से बीजोपचार के बाद बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए और जल्दी बुवाई करनी चाहिये। याद रहे कि फफूंद नाशक ओषधि और कल्चर को एक साथ नहीं मिलाऐं। 

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सोयाबीन की बिजाई हेतु समुचित वक्त और तरीका

सोयाबीन की बिजाई हेतु जून के आखिरी सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक की समयावधि सबसे उपयुक्त है। बिजाई के दौरान अच्छे अंकुरण के लिए जमीन में 10 सेमी गहराई तक समुचित नमी होनी चाहिये। जुलाई के पहले सप्ताह के बाद बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत अधिक कर देनी चाहिए। कतारों से कतारों का फासला 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) और 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये होता है। 20 कतारों के पश्चात एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण हेतु रिक्त छोड़ देना चाहिए। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहराई पर ही बोयें। सोयाबीन एक नकदी फसल है, जिसको किसान बाजार में बेचकर तुरंत धन अर्जित कर सकते हैं। 

सोयाबीन की फसल के साथ अंतरवर्तीय फसलें कौन-कौन सी हैं

सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के तौर पर अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें अच्छी मानी जाती हैं। 

समन्वित पोषण प्रबंधन कैसे करें

बतादें, कि बेहतर ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ आखिरी बखरनी के दौरान खेत में बेहतर ढ़ंग से मिला दें। साथ ही, बिजाई के दौरान 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ के अनरूप दें। यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम-ज्यादा की जा सकती है। नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के इस्तेमाल को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में तकरीबन 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। वहीं, गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मृदाओं में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 5 से 6 फसलें लेने के उपरांत इस्तेमाल करना चाहिये। 

सोयाबीन की खेती में खरपतवार प्रबंधन कैसे करें

फसल के शुरूआती 30 से 40 दिनों तक खरपतवार को काबू करना बेहद जरूरी होता है। तो वहीं बतर आने पर डोरा अथवा कुल्फा चलाकर खरपतवार की रोकथाम करें एवं दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन उपरांत करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को समाप्त करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ और घास कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के उपयोग में बिजाई के पहले फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को बेहतर ढ़ंग से बखर चलाकर मिला दें। बिजाई के पश्चात और अंकुरण के पहले एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर जल में मिलाकर फ्लैटफेन अथवा फ्लैटजेट नोजल की मदद से सारे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों की जगह पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बिजाई के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों हेतु मृदा में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना काफी जरूरी है। 

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सोयाबीन की खेती में सिंचाई किस तरह करें

सोयाबीन खरीफ मौसम की फसल होने की वजह से आमतौर पर सोयाबीन को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। फलियों में दाना भरण के दौरान मतलब कि सितंबर माह में अगर खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन की बेहतरीन पैदावार लेने के लिए फायदेमंद है। 

सोयाबीन की फसल में लगने वाले कीट

सोयाबीन की फसल में बीज और छोटे पौधे को हानि पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को दुष्प्रभावित करने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का संक्रमण होता है। कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक उपज में गिरावट आ जाती है। इन कीटों की रोकथाम करने के उपाय निम्नलिखित हैं: 

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कृषिगत स्तर पर कीटों की रोकथाम

खेती के स्तर पर यदि हम कीट नियंत्रण की बात करें तो खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना। मानसून की वर्षा के पूर्व बिजाई ना करना अति आवश्यक बातें हैं। साथ ही, मानसून आगमन के बाद बिजाई शीघ्रता से संपन्न करें। खेत नींदा रहित ही रखें। सोयाबीन की फसल के साथ ज्वार या मक्का की अंतरवर्तीय फसल करें। खेतों को फसल अवशेषों से पूर्णतय मुक्त रखें और मेढ़ों को बिल्कुल साफ रखें। 

रासायनिक स्तर पर कीटों की रोकथाम

सोयाबीन की बिजाई के दौरान थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से शुरूआती कीटों की रोकथाम होती है। वहीं, अंकुरण की शुरुआत होते ही नीले भृंग कीट की रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें। विभिन्न तरह की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों एवं फलों को खाके खत्म कर देती हैं। इन कीटों की रोकथाम करने के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर जल में घोल कर छिड़काव करें। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला हिस्सा चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों एवं फलियों को खाकर खत्म कर देती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली तकरीबन एक साथ ही आक्रमण करते हैं। अत: पहला छिड़काव 25 से 30 दिन पर और दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर जरूर करें। 

जैविक तौर पर कीट नियंत्रण

कीटों की शुरुआती अवस्था में जैविक कीट पर काबू करने के लिए बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिनों के उपरांत छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर जल में घोल बनाके प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशकों को परिवर्तित कर डालना फायदेमंद होता है। गर्डल बीटल प्रभावित इलाकों में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगाऐं। निंदाई के दौरान प्रभावित टहनियां तोड़कर बर्बाद कर दें। कटाई के उपरांत बंडलों को प्रत्यक्ष तौर पर गहाई स्थल पर ले जाएं। तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें। 

सोयाबीन की फसल की कटाई और गहाई

ज्यादातर पत्तियों के सूख कर झड़ जाने की स्थिति में और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरा होने पर फसल की कटाई हेतु तैयार हो जाती है। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के तकरीबन 10 दिन उपरांत चटकना शुरू हो जाती है। कटाई के उपरांत गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना जरूरी है। बतादें, कि फसल कटाई के उपरांत जब फसल पूर्णतय सूख जाए तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई बैलों, थ्रेसर, ट्रेक्टर तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक मुमकिन हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण को हानि न पहुँचे।

दलहनी फसलों में लगने वाले रोग—निदान

दलहनी फसलों में लगने वाले रोग—निदान

दलहनी फसलें बड़ी नाजुक होती हैं। इनमें जरा सा रोग संक्रमण फसल को नुकसान पहुंचाता है। इसका दूसरा कारण यह भी है क्योंकि दलहनी फसलों में खर्चा कम आता है इस लिहाज से किसान अन्य फसलों की तरह चौकन्ना रह कर नियंत्रण नहीं करते। 

मसलन धान जैसी फसलों में हर समय निगरानी करनी होती है जबकि दलहन में ऐसा नहीं होता। इस तरह की छोटी छोटी चीजें ही फसल को नुकसान पहुंचा देती हैं।

अरहर की फसल को उकठा, अंगमारी झुलसा एवं अल्टरनेरिया झुलसा प्रभावित करते हैं। बचाव के लिए रोग रोधी किस्मों का चयन करें।

उकठा रोग रोधी किस्मों में बीडीएन 2, एनपीडब्ल्यू, शारदा, सी 11, आर 15, बीएसएमआर 726, 736, 853, टीटी 7, आशा, मारुति, आईपीए 203,206, पीटी 012, नरेन्द्र अरहर 1, अमर, आजाद,  मालवीय अरहर प्रमुख हैं। 

अंगमारी या बांझ रोग रोधी किस्मों में बीएसएमआर 726, 736, 853,आशा, बहार, एचवाई 3 सी, शरद, पूसा 9, अमर, आजाद, मालवीय। 

आल्टरनेरिया ब्लाइट रोग रोधी किस्में में शरद एवं पूसा 9 आदि किस्में हैं। 

चना में उकठा रोग देश के काफी बड़े हिस्से में लगता है। यह फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम के कारण लगता है। इसके अलावा जड़ गलन, धूसर रोग, तना गलन एवं एस्कोकाइटा झुलसा रोग प्रमुख रूप से लगते हैं। 

बचाव:— कई फफूंद जनित रोगों का कारण बीज को उपचारित करके न बोना होता है। बीज को किसी भी प्रचलित फफूंद नाशक दवा की दो से ढ़ाई ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से आवश्यक रूप से उपचारित करना चा​हिए। 

रोग रोधी किस्में:— ​ज्यादातर रोगों के नियंत्रण के लिए जरूरत इस बात की होती है कि वैज्ञानिकों द्वारा तैयार रोग रोधी किस्में ही सरकारी संस्थानों से लें। यदि प्राईवेट कंपनी का बीज ले रहे हैं तो वहां बीज के विषय में इस तरह की जानकारी नहीं मिलती कि बीज रोग रोधी है या नहीं। यदि इस श्रेणी का बीज बाजार में मिलता है तो पक्के बिल के साथ भरोसेमंद दुकान से लेंं। 

चने की डीसीपी 92—3, जीएनजी 1581, पूसा 362, पूसा 372, पूसा चमत्कार, राजस, एच 82—2, आरएसजी 963, 888, जीएनजी 469, 663, के डब्ल्यूआर 108, जेजी 74, केजीडी 1168, पूसा 372, 1003, विशाल, बीजीडी, जेजी 11, श्वेता,  जीसीपी 105 आदि अनेक किस्में उकठा रोग प्रतिरोधी हैं। किसानों को अपने क्षेत्र के लिए उपयुक्त किसी किस्म का चयन करना चाहिए। 

मूंग एवं उड़द में पर्ण बुंदकी, चूर्णिल असिता, पीला चितेरी रोग प्रमुख रूप से लगते हैं। इन्हें रोकने के भी तरीके बीज उपचार, भूमि उपचार, प्रतिरोधी किस्मों के बीजों का खेती में उपयोग करके इन समस्याओं से काफी हद तक निजात मिल सकती है। 

निदान:— मूंग के पीला चिरेती रोग की रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्म एमयूएम 2, नरेन्द्र मूंग 1,पूसा विशाल ग्रीष्मकालीन, पंत मूंग 6, एचयूएम 1, पंत मूंग 6, केएम 2241, श्वेता, पूसा 105, एचयूएम 12 की बिजाई करेंं। इसके अलावा भी कई नई किस्में सरकारी संस्थानों ने विकसित की हैं। पूरी जानकारी करके ही रोग रोधी किस्मों का अपने क्षेत्र के लिए चयन करें।

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की केयू 300, केयूजी 479, नरेन्द्र उड़द 1, पंत यू 19, केयू 92—1 बसन्तकालीन, टीयू 40 रबी, वीबीजी 8, पंत यू 30 प्रमुख किस्में हैं। पाउड्री मिल्ड्यू रोग रोधी मूंग की पूसा 105, एडीटी 3, बीएम 4, टार्म 2, 18, पूसा 9072 आदि। उक्त रोग रोधी उड़द की एलबीजी  17, 20, एडीटी 4, एकेयू 4, आईपीयू 2, टीयू 40 आदि किस्मों को चुनें। 

मटर में चूर्णिल असिता एवं रतुआ रोग का प्रभाव होता है। बचाव के​ लिए अच्छी रोग रोधी किस्मों का चयन करेंं। चूर्णिल असिता रोग रोधी मटर की लम्बी किस्मों में पंत 5, शिखा, अलंकार,  पंत पी 42, मालवीय मटर 2, वीएल 42, गोमती आदि कई किस्में हैं। 

बौनी किस्मों में अपर्णा, एचएफपी 29, 9907, पूसा पन्ना, पंत पी 74, उत्तरा, पूसा प्रभात, मालवीय मटर 15, सपना आदि कस्में लगाएं। रतुआ रोग रोधी मालवीय मटर 15, आईपीएफडी 1—10 किस्म लगाएं। मसूर में रतुआ, उकठा, तना गलन, मूल विगलन जैसे रोग लगते हैं। 

रतुआ रोग से बचाव के लिए पंत एल 4, डीपीएल 62, 15, आईपीएल 406, केएलएस 218, लेंस 4036 किस्म लगाएं।

मसूर की उकठा रोग रोधी पंत एल 4, डीपीएल 15, पतं एल 406, नरेन्द्र मसूर 1, जेएल 3, आईपीएल 81 आदि किस्में सरकारी सं​स्थान से लेकर लगाएं।

विश्व दलहन दिवस, जानें दालों से जुड़ी खास बातें

विश्व दलहन दिवस, जानें दालों से जुड़ी खास बातें

हर साल आज के दिन यानि की 10 फरवरी को विश्व दलहन दिवस मनाया जाता है. इस खास दिन को मनाने के पीछे दालों के पोषण और पर्यावरण से जुड़े लाभ छुपे हुए हैं. पर्यावरण और पोषण से जुड़े फायदों के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से हर साल 10 फरवरी को विश्व दलहन दिवस को मनाया जाता है. जैसा की हम सब जानते हैं कि, दालों को फलियां भी कहा जाता है. पूरे विश्व में मिलने वाले दाल एक मात्र ऐसा खाद्य पदार्थ है, जिसका उत्पादन लगभग हर देश में किया जाता है. साल 2019 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पूरे विश्व में दालों को लेकर जागरूकता फैलाने का फैसला लिया और इसकी पहुंच बढ़ाने के लिए आज का खास दिन दालों पर समर्पित कर दिया.

क्या है थीम?

कृषि और पर्यावरण के लिए दालें काफी फायदेमंद होती हैं. साल 2023 में इस बार विश्व दलहन दिवस की थीम ‘एक सतत भविष्य के लिए दलहन’ के रूप में चुनी गयी है. इस साल इस खास दिन का जश्न मानाने के लिए मिट्टी की उत्पादकता में सुधार करने और कृषि प्रणालियों के लचीलेपन को बढ़ाने के अलावा पानी के कमी वाली जगहों में रहा रहे किसानों को अच्छी लाइफ देने के लिए दालों के योगदान के बारे में बताया जा रहा है. ये भी देखें:
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इस दिन से जुड़ा इतिहास, विश्व दलहन दिवस क्यों मनाया जाता है

  • साल 2013 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दालों के दामों को मान्यता दी.
  • साल 2016 में अंतराष्ट्रीय दलहन वर्ष के रूप में अपनाया गया.
  • एफएओ ने दालों की पौष्टिकता और पर्यावरण से जुड़े लाभों के बारे में सार्वजिनक रूप से जागरूकता बढ़ाई.
  • बुर्किना फासो और लैंडलॉक देश ने विशव दलहन दिवस को मनाना जारी रखने का प्रस्ताव रखा.
  • साल 2019 में संयुक्त महासभा ने 10 फरवरी को विश्व दलहन दिवस के रूप में समर्पित किया.

दालों से जुड़ा महत्व

  • दाल को प्रोटीन और जरूरी तत्वों से भरपूर अच्छा स्रोत माना जाता है.
  • दाल में कम फैट और ज्यादा फाइबर होता है.
  • कोलेस्ट्रोल कम करने और ब्लड शुगर को कंट्रोल करने में दाल मददगार है.
  • मोटापे से निपटने में भी दाल मददगार होती है.
  • डायबिटीज और दिल की बिमारी से बचने में भी दाल मददगार हो सकती है.
दालें किसानों की आय के लिए महत्वपूर्ण संसाधन है. जिसे वह बेच भी सकता है और खा भी सकता है. दालों की खेती करना बेहद आसान है. इन्हें फलने और फूलने के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती. इसके अलावा अगर कोई आपदा आ जाए तो किसान इससे बेहतर तरीके से निपट सकते हैं.
केंद्र सरकार ने धान सहित इन फसलों की एमएसपी में की बढ़ोत्तरी

केंद्र सरकार ने धान सहित इन फसलों की एमएसपी में की बढ़ोत्तरी

धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 143 रुपये प्रति क्विंटल की दर से वृद्धि की गई है। इसी प्रकार तुअर एवं उड़द दाल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी काफी ज्यादा इजाफा हुआ है। मानसून के आने से पहले केंद्र सरकार ने किसानों को बड़ा उपहार दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा धान समेत विभिन्न फसलों की एमएसपी बढ़ा दी है। जानकारी के अनुसार, धान की एमएसपी में 143 रुपये प्रति क्विंटल की दर से इजाफा किया गया है। इसी प्रकार तुअर एवं उड़द दाल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी खूब वृद्धि की गई है। साथ ही, इस खबर से किसानों के मध्य खुशी की लहर दौड़ रही है। किसानों ने केंद्र सरकार के इस कदम की काफी सराहना की है।

केंद्र सरकार ने धान सहित दलहन की एमएसपी में किया इजाफा

कैबिनेट बैठक के पश्चात मोदी सरकार ने धान के साथ- साथ दलहन के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की स्वीकृति दी है। विशेष बात यह है, कि खरीफ फसलों की एमएसपी में 3 से 6 प्रतिशत का इजाफा किया गया है। तुअर दाल की एमएसपी में 400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से वृद्धि की गई है। इस तरह अब तुअर दाल का भाव बढ़कर 7000 रुपये क्विंटल तक पहुँच चुका है। साथ ही, उड़द दाल के न्यूनतम समर्थम मूल्य में 350 रुपये की वृद्धि की गई है। फिलहाल, एक क्विटंल उड़द दाल की कीमत 6950 रुपये हो चुकी है।

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मोटे अनाज की फसलों पर कितने रुपये प्रति क्विंटल की दर से वृद्धि की गई है

विशेष बात यह है, कि मोटे अनाज की एमएसपी में भी वृद्धि दर्ज की गई है। केंद्र सरकार द्वारा मोटे अनाज की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए यह कदम उठाया गया है। केंद्रीय कैबिनेट ने मक्के की एमएसपी में 128 रुपये प्रति क्विंटल की दर से वृद्धि की है।

करोड़ों गरीबों को खाद्य उपलब्ध कराया गया है

साथ ही, बैठक के पश्चात मीडिया को संबोधित करते हुए केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है, कि खरीफ की पैदावार 2018 में 2850 लाख टन था। जो कि अब बढ़कर 330 मिलियन टन पर पहुँच जाएगा। उनकी माने तो मूंग दाल की एमएसपी में 10% प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि हुई है। अब मूंग दाल की कीमत 8558 रुपये क्विंटल तक पहुँच गई है। वहीं, सोयाबीन, रागी, ज्वार, बाजारा और मेज की एमएसपी में 6 से 7% प्रतिशत का इजाफा किया गया है। इसी प्रकार कपास के समर्थन मूल्य में भी 10% प्रतिशत तक की वृद्धि की गई है। विशेष बात यह है, कि सरकार ने फर्टिलाइजर के भाव में किसी प्रकार की बढ़ोत्तरी नहीं की है। सरकार का यह कहना है, कि हमारी सरकार ने 16-17 करोड़ गरीबों को खाद्य उपलब्ध कराया है।

केंद्र सरकार प्रतिवर्ष 23 फसलों के लिए एमएसपी जारी करती है

बतादें, कि कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) की सिफारिशों के आधार पर सरकार प्रति वर्ष 23 फसलों के लिए एमएसपी निर्धारित करती है। CACP 23 फसलों पर एमएसपी की सिफारिश लागू करता है। इसके अंतर्गत सात अनाज, सात तिलहन, पांच दलहन और चार कमर्शियल फसलें शम्मिलित हैं। इन 23 फसलों में से 15 खरीफ फसलें हैं और अन्य रबी फसलें हैं।

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पिछले साल बासमती चावल के निर्यात का आंकड़ा क्या था

बतादें, कि धान की एमएसपी में वृद्धि किए जाने से पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार समेत विभिन्न राज्यों के किसानों को मोटा मुनाफा अर्जित होगा। क्योंकि, इन राज्यों में धान का काफी अच्छा उत्पादन होता है। एकमात्र पश्चिम बंगाल 54.34 लाख हेक्टेयर में धान की खेती करता है, जिससे 146.06 लाख टन धान की पैदावार होती है। विशेष बात यह है, कि भारत सबसे ज्यादा बासमती चावल का निर्यात करता है। विगत वर्ष भारत ने 24.97 लाख टन बासमती चावल का निर्यात किया था।
बरसात आने से किसानों के चेहरे पर आई मुस्कान, इससे फसलों को जरूर फायदा मिलेगा

बरसात आने से किसानों के चेहरे पर आई मुस्कान, इससे फसलों को जरूर फायदा मिलेगा

धान बाजरा के लिए बारिश बेहद जरूरी होती है। साथ ही, किसानों के लिए पश्चिमी यूपी के विभिन्न जनपदों में हुई बरसात से कृषकों को फायदा मिलेगा। मौसम विभाग की ओर से विगत दिनों दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत कई सारे राज्यों में बारिश को लेकर अलर्ट जारी किया था। मौसम विभाग का अनुमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों के लिए सही सिद्ध हुआ। यूपी के बहुत से शहरों में जमकर बारिश हुई है, जिससे जगह-जगह पर जलभराव हो गया। जहां आम लोगों को बरसात की वजह से कठिनाइयों का समाना करना पड़ा तो वहीं किसानों के चेहरों पर खुशी भी देखने को मिली। विशेषज्ञ भी इस बरसात को फसलों के लिए वरदान बता रहे हैं।

किसानों का इस पर क्या कहना है

किसानों का कहना है, कि
धान की फसल के लिए ये बरसात अत्यंत आवश्यक थी। अब उनकी फसल की उपज भी काफी अच्छी होगी। किसान मुकेश ठेनुआ का कहना है, कि विगत कई दिनों से भीषण गर्मी थी, जिस वजह से खेतों को सिंचाई की काफी जरूरत थी। मगर इस बारिश से खेतों की आवश्यकता पूरी हुई है। खेतों में लगी सब्जी की फसलों हेतु यह बरसात बेहद लाभकारी है। ये भी पढ़े: भारत के इन हिस्सों में होने वाली है बारिश, IMD ने ऑरेंज अलर्ट जारी किया है

मौसम विभाग द्वारा अलर्ट जारी किया गया था

मौसम विभाग की ओर से विगत दिनों उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में तीव्र बरसात की संभावना जताई थी। मौसम विभाग ने महोबा, झांसी, कानपुर नगर, उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली, आगरा, हाथरस, अलीगढ़, फिरोजाबाद, इटावा, जालौन और हमीरपुर आदि जनपदों में बारिश होने की संभावना जताई गई थी।

विशेषज्ञों का इस पर क्या कहना है

वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ. एस आर सिंह का कहना है, कि इस बरसात से निश्चित ही फसलों को फायदा होगा। उन्होंने बताया कि आज हुई बारिश सभी फसलों के लिए अत्यंत आवश्यक थी। इस वक्त फील्ड में उपस्थित समस्त फसलों के लिए बारिश का पानी बेहद काम का है। इससे कोई भी हानि नहीं है। पानी की कमी के चलते फसलें काफी प्रभावित थीं। परंतु, आज हुई बरसात से काफी हद तक ये कमी पूरी होगी। विशेषज्ञों का कहना है, कि धान, बाजरा, सब्जियों, उर्द, मूँग आदि के लिए पानी काफी ज्यादा जरूरी था। तेज धूप और गर्मी के चलते खेतों को सिंचाई की जरूरत थी।
केंद्र सरकार ने इस राज्य में बिना राशन कार्ड के कम कीमत पर आटा व दाल देने की घोषणा की

केंद्र सरकार ने इस राज्य में बिना राशन कार्ड के कम कीमत पर आटा व दाल देने की घोषणा की

आज से दिल्लीवासियों को बिना राशन कार्ड के भी कम कीमतों पर 10 किलोग्राम आटा और दाल की सुविधा मुहैय्या कराई जाऐगी। इसके लिए केंद्रीय भंडार प्रबंधक व दिल्ली सरकारी राशन डीलर्स संघ/DSRDS के बीच एक MOU किया गया है। बतादें, कि इस एमओयू के अंतर्गत दिल्ली की लगभग दो हजार राशन की दुकान पर 10 किलोग्राम आटा एवं दाल कम कीमतों पर प्रदान की जाएगी। दिल्ली के अंदर ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। लेकिन, वह भी सस्ते में राशन की सुविधा प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में दिल्ली के गैर राशन कार्ड धारकों के लिए काफी अच्छी खुशखबरी है। बतादें, कि दिल्ली की दो हजार राशन की दुकानों पर आटा, दाल की कीमत सस्ती होंगी। साथ ही, सरकार के इस कदम को दिल्ली के पश्चात बाकी राज्यों में भी सफलतापूर्वक प्रारंभ किया जाएगा।

आटा-दाल कितने रुपए में दिया जाऐगा  

मीडिया एजेंसियों के अनुसार, दिल्लीवासियों को बिना राशन कार्ड के भी कम कीमतों पर आटा–दाल प्रदान किया जाएगा। दिल्ली की जनता को लगभग 10 किलोग्राम आटे का पैकेट 275 रुपये और चना दाल 60 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिलेगा। लेकिन, इसमें में नियम है, कि एक परिवार को दाल के एक बार में अधिकतम पांच पैकेट ही प्रदान किए जाएंगे। वहीं, आटे के दो पैकेट दिए जाऐंगे। राशन की इस सुविधा का फायदा राशन कार्ड धारक भी आसानी से उठा सकते हैं। 

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प्राप्त जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार के खाद्य, उपभोक्ता मामले सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की मंजूरी दी गई, जिसके अंतर्गत सार्वजनिक वितरण विभाग ने नोडल एजेंसी केंद्रीय भंडार सेभारत आटाब्रांड के अंतर्गत आटा औरभारत दालके अंतर्गत चने की दाल को खुदरा उपभोक्ताओं को देने की मंजूरी प्रदान की है। दिल्ली में डीएसआरडीएस के जरिए हर एक सर्किल में एक दुकान का चयन किया जाएगा, जिससे केंद्रीय भंडार को सूचित किया जाएगा। वहीं, सर्किल के बाकी कोटा धारकों को राशन दुकानों तक आपूर्ति वाहनों के माध्यम से करनी पड़ेगी।

यह योजना भारत के बाकी राज्यों में भी शुरू की जाऐगी 

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में राशन की इस तरह सुविधा पहली बार शुरू की गई है. इस संदर्भ में डीएसआरडीएस के अध्यक्ष शिवकुमार गर्ग का कहना है “लंबे समय से हमारी यूनियन गैर राशन कार्ड धारक और राशन कार्ड धारक को रियायती दरों पर राशन की सुविधा को लेकर प्रयास कर रही था, जिसे अब जाकर मंजूरी प्राप्त हुई है।” बताया जा रहा है कि राशन की इस योजना को दिल्ली के बाद देश के अन्य राज्यों में भी शुरू किया जाएगा.

केंद्र सरकार ने तुअर दाल के लिए वेब पोर्टल लांच किया, किसानों को समय पर मिलेगा दाल का अच्छा भाव

केंद्र सरकार ने तुअर दाल के लिए वेब पोर्टल लांच किया, किसानों को समय पर मिलेगा दाल का अच्छा भाव

भारत के कृषकों को तुअर दाल का समुचित मूल्य मुहैय्या कराने के लिए भारत सरकार ने नई दिल्ली में Tur Dal Procurement Portal को लॉन्च कर दिया। इस वेब पोर्टल में कृषकों की सुविधाओं के लिए विभिन्न भाषाएं सम्मिलित की गई हैं। सरकार ने कृषकों के लिए एक बड़ी खुशखबरी दी है। दरअसल, सरकार ने आज मतलब कि गुरुवार के दिन तुअर दाल की खरीद के लिए वेब पोर्टल की शुरुआत की है। दिल्ली में दलहन की आत्मनिर्भरता पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित किया गया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के "आत्मनिर्भर भारत" के दृष्टिकोण की दिशा में एक और शानदार कदम उठाते हुए केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने तुअर उत्पादक किसानों के पंजीकरण, खरीद और भुगतान के लिए वेब पोर्टल का लोकार्पण किया गया। अब इससे किसान अपनी दाल की ऑनलाइन बिक्री करके सीधे भुगतान की राशि अपने खाते में प्राप्त कर सकते हैं। इस पोर्टल का नाम Tur Dal Procurement Portal निर्धारित किया गया है। सरकार की इस नवीन कवायद से घरेलू दाल उपज को प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही, आयात निर्भरता में भी कमी देखने को मिलेगी।

Tur Dal Procurement Portal का प्रमुख लक्ष्य क्या है ?

सरकार की इस कवायद का प्रमुख लक्ष्य तुअर दाल उत्पादकों को NAFED एवं NCCF द्वारा खरीद, सुव्यवस्थित प्रक्रियाओं एवं सीधे बैंक हस्तांतरण के जरिए शानदार कीमतों के साथ मजबूत बनाना है, जिससे घरेलू दाल उपज को प्रोत्साहन मिलेगा। साथ ही, आयात निर्भरता काफी कम होगी। इसके अंतर्गत उपभोक्ता मामले विभाग, भारत सरकार के दिशा निर्देशों के मुताबिक नेफेड एवं एनसीसीएफ के पोर्टल पर पंजीकृत कृषकों से दालों के बफर स्टॉक के लिए खरीद की जाऐगी। ये भी पढ़ें: दालों की कीमतों में उछाल को रोकने के लिए सरकार ने उठाया कदम साथ ही, एमएसपी अथवा बाजार मूल्य, जो भी ज्यादा हो उसका भुगतान कृषकों को किया जाऐगा। इस पोर्टल का प्रमुख उद्देश्य कृषकों से सीधे 80% फीसद बफर स्टॉक खरीदकर आयात पर निर्भरता को कम करना है। यह केवल खाद्य उत्पादन को सुरक्षित करेगा बल्कि राष्ट्र की भविष्य की खाद्य सुरक्षा को भी सुनिश्चित करेगा। 

Tur Dal Procurement Portal में कोई भी एजेंसी शामिल नहीं होगी 

सूत्रों से प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार, पोर्टल पर पंजीकरण, खरीद एवं भुगतान तक की समस्त प्रक्रिया एक ही जरिए पर उपलब्ध रहेगी। किसान का पोर्टल पंजीकरण सीधा या PACS FPO के जरिए कर सकते हैं। साथ ही, किसान को भुगतान नाफेड द्वारा सीधे उनके लिंक्ड बैंक खाते में किया जाएगा। साथ ही, इस मध्य में किसी भी एजेंसी को शामिल नहीं किया जाऐगा। यह संपूर्ण प्रक्रिया किसान केन्द्रित है, जिसमें पंजीकरण से लेकर भुगतान तक की गतिविधियों को किसान स्वयं ट्रैक कर सकते हैं।
कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

ट्राइकोडर्मा कवक की एक प्रजाति है जो पौधों पर अपने विविध लाभकारी प्रभावों के कारण कृषि और बागवानी में निरंतर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कवक का यह बहुमुखी समूह अपने माइकोपरसिटिक, बायोकंट्रोल और पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले गुणों के लिए बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही  है।

 1. माइकोपैरासिटिक क्षमताएं

ट्राइकोडर्मा प्रजातियां निपुण माइकोपैरासाइट हैं, जिसका अर्थ है कि वे अन्य कवक के विकास को परजीवीकृत और नियंत्रित करते हैं। यह विशेषता कृषि में विशेष रूप से मूल्यवान है, जहां मिट्टी से पैदा होने वाले रोगज़नक़ फसल को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचाते हैं। वही ट्राइकोडर्मा की विविध प्रजातियां पोषक तत्वों और स्थान के लिए हानिकारक कवक से प्रतिस्पर्धा करके सक्रिय रूप से हमला करते हैं और उनके विकास को रोकते हैं।

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 2. बायोकंट्रोल एजेंट

ट्राइकोडर्मा फ्यूसेरियम, राइजोक्टोनिया और पाइथियम की प्रजातियों सहित पौधों के रोगजनकों की एक विस्तृत श्रृंखला के खिलाफ एक प्राकृतिक बायोकंट्रोल एजेंट के रूप में कार्य करता है। राइजोस्फीयर और जड़ सतहों पर कॉलोनी बनाकर, ट्राइकोडर्मा एक सुरक्षात्मक अवरोध स्थापित करता है, जो रोगजनक कवक को पौधों की जड़ों को संक्रमित करने से रोकता है। यह जैव नियंत्रण तंत्र सिंथेटिक रासायनिक कवकनाशी की आवश्यकता को कम करता है, टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देता है।

 3. पौधों की रक्षा तंत्र को शामिल करना

ट्राइकोडर्मा पौधे की अपनी रक्षा तंत्र को प्रेरित करता है, जिससे रोगों के प्रति उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।  कवक पौधों में विभिन्न रक्षा-संबंधी यौगिकों, जैसे फाइटोएलेक्सिन और रोगजनन-संबंधी प्रोटीन के उत्पादन को उत्तेजित करता है।  यह प्रणालीगत प्रतिरोध फसलों को संक्रमण और तनाव का सामना करने में मदद करता है, जिससे पौधों के समग्र स्वास्थ्य में योगदान होता है।

 4. पोषक तत्व घुलनशीलता

कुछ ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां फॉस्फोरस,लोहा जिंक के साथ साथ अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे आवश्यक पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने की क्षमता प्रदर्शित करती हैं, जिससे वे पौधों के लिए अधिक उपलब्ध हो जाते हैं। यह पोषक तत्व घुलनशीलता पौधों की वृद्धि और विकास को बढ़ाती है, विशेष रूप से पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी में, और सिंथेटिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करती है।

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5. उन्नत जड़ विकास

ट्राइकोडर्मा ऑक्सिन और अन्य पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले पदार्थों का उत्पादन करके जड़ विकास और शाखाओं को बढ़ावा देता है।  बेहतर जड़ प्रणालियों के परिणामस्वरूप बेहतर पोषक तत्व और पानी ग्रहण होता है, जिससे पौधों की ताकत और समग्र फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।

6. तनाव सहनशीलता

ट्राइकोडर्मा पौधों को विभिन्न पर्यावरणीय तनावों, जैसे सूखा, लवणता और अत्यधिक तापमान से निपटने में मदद करता है।  ट्राइकोडर्मा और पौधों के बीच बनने वाला सहजीवी संबंध पौधों की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अनुकूलन और जीवित रहने की क्षमता को बढ़ा सकता है, जिससे अंततः अधिक लचीली फसलें पैदा होती हैं।

7. कार्बनिक पदार्थ का जैव निम्नीकरण

 ट्राइकोडर्मा प्रजातियाँ मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ के विघटन में योगदान करती हैं।  वे एंजाइमों का स्राव करते हैं जो कार्बनिक अवशेषों के अपघटन की सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे पोषक तत्व मिट्टी में वापस आ जाते हैं।  यह पुनर्चक्रण प्रक्रिया मिट्टी की संरचना और उर्वरता में सुधार करती है, जिससे पौधों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनता है।

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 8. व्यावसायिक प्रयोग

ट्राइकोडर्मा-आधारित जैव कवकनाशी और जैव उर्वरकों ने कृषि उद्योग में लोकप्रियता हासिल की है।  जीवित ट्राइकोडर्मा इनोकुलेंट्स युक्त इन वाणिज्यिक उत्पादों को ऊपर चर्चा किए गए विभिन्न लाभ प्रदान करने के लिए बीज, मिट्टी या पौधों की सतहों पर लगाया जाता है।  टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने के लिए किसान इन जैविक एजेंटों को अपनी फसल प्रबंधन प्रथाओं में तेजी से एकीकृत कर रहे हैं।

9. नेमाटोड का जैविक नियंत्रण

कुछ ट्राइकोडर्मा उपभेद पौधे-परजीवी नेमाटोड के खिलाफ विरोधी गतिविधि प्रदर्शित करते हैं।  यह जैव नियंत्रण क्षमता नेमाटोड संक्रमण के प्रबंधन में मूल्यवान है, जो फसल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

10. बीज उपचार

ट्राइकोडर्मा-आधारित फॉर्मूलेशन का उपयोग बीज उपचार, मिट्टी-जनित रोगजनकों से बीज की रक्षा करने और अंकुर स्थापना को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।  यह निवारक उपाय विकास के प्रारंभिक चरण से ही फसलों को स्वस्थ बनाने में योगदान देता है।

सारांश 

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के बहुमुखी फायदे इसकी माइकोपरसिटिक क्षमताओं, जैव नियंत्रण तंत्र, पौधों की रक्षा प्रतिक्रियाओं को शामिल करने, पोषक तत्व घुलनशीलता, जड़ विकास को बढ़ावा देने, तनाव सहनशीलता बढ़ाने और कार्बनिक पदार्थ अपघटन में योगदान से उत्पन्न होते हैं।  जैसे-जैसे कृषि क्षेत्र टिकाऊ प्रथाओं को अपनाना जारी रखता है, ट्राइकोडर्मा-आधारित उत्पादों का उपयोग पौधों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, रासायनिक इनपुट को कम करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।



Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,
पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी,
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार
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