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गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से इस प्रकार बचाऐं

हरियाणा कृषि विभाग की तरफ से गेहूं और जौ की फसल में लगने वाले चेपा कीट से जुड़ी आवश्यक सूचना जारी की है। इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को काफी कमजोर कर देते हैं। साथ ही, उसके विकास को प्रतिबाधित कर देते हैं। भारत के कृषकों के द्वारा गेहूं व जौ की फसल/ Wheat and Barley Crops को सबसे ज्यादा किया जाता है। क्योंकि, यह दोनों ही फसलें विश्वभर में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली साबुत अनाज फसलें हैं।

गेहूं व जौ की खेती राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विशेष रूप से की जाती है। किसान अपनी फसल से शानदार उत्पादन हांसिल करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यों को करते हैं। यदि देखा जाए तो गेहूं व जौ की फसल में विभिन्न प्रकार के रोग व कीट लगने की संभावना काफी ज्यादा होती है। वास्तविकता में गेहूं व जौ में चेपा (अल) का आक्रमण ज्यादा देखा गया है। चेपा फसल को पूर्ण रूप से  खत्म कर सकता है।

गेहूं व जौ की फसल को चेपा (अल) से बचाने की प्रक्रिया

गेहूं व जौ की फसलों में चेपा (अल) का आक्रमण होने पर इस कीट के बच्चे व प्रौढ़ पत्तों से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं. इसके नियंत्रण के लिए 500 मि.ली. मैलाथियान 50 ई. सी. को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ फसल पर छिड़काव करें. किसान चाहे तो इस कीट से अपनी फसल को सुरक्षित रखने के लिए अपने नजदीकी कृषि विभाग के अधिकारियों से भी संपर्क कर सकते हैं।

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चेपा (अल) से आप क्या समझते हैं और ये कैसा होता है ?

चेपा एक प्रकार का कीट होता है, जो गेहूं व जौ की फसल पर प्रत्यक्ष तौर पर आक्रमण करता है। यदि यह कीट एक बार पौधे में लग जाता है, तो यह पौधे के रस को आहिस्ते-आहिस्ते चूसकर उसको काफी ज्यादा कमजोर कर देता है। इसकी वजह से पौधे का सही ढ़ंग से विकास नहीं हो पाता है।

अगर देखा जाए तो चेपा कीट फसल में नवंबर से फरवरी माह के मध्य अधिकांश देखने को मिलता है। यह कीट सर्व प्रथम फसल के सबसे नाजुक व कमजोर भागों को अपनी चपेट में लेता है। फिर धीरे-धीरे पूरी फसल के अंदर फैल जाता है। चेपा कीट मच्छर की भाँति नजर आता है, यह दिखने में पीले, भूरे या फिर काले रंग के कीड़े की भाँति ही होता है।

किसानों को मुनाफा दिलाने वाली पुदीने की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसानों को मुनाफा दिलाने वाली पुदीने की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

पुदीना का वानस्पतिक नाम मेंथा है , इसे जड़ी बूटी वाला पौधा भी कहा जाता है। पुदीना के पौधे को स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। पुदीना के अंदर विटामिन ए और सी के अलावा खनिज जैसे पोषक तत्व भी पाए जाते है। गर्मियों के समय में पुदीने की अच्छी माँग रहती है , इसीलिए इसकी खेती कर किसान अच्छा मुनाफा भी कमा सकते है। 

पुदीने के पौधे की पत्तियां लगभग 2-2.5 अंगुल लम्बी और 1.5 से 2 अंगुल चौड़ी रहती है। इस पौधे में से सुगन्धित खुशबू आती रहती है , गर्मियों में इसका प्रयोग बहुत सी चीजों में किया जाता है। पुदीना एक बारहमासी पौधा है। 

कैसे करें पुदीने के खेत की तैयारी 

पुदीने की खेती के लिए अच्छे जल निकासी वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। पुदीने की बुवाई से पहले खेत की अच्छे से जुताई कर ले, उसके बाद भूमि को समतल कर ले। दुबारा जुताई करते वक्त खेत में गोबर की खाद का भी प्रयोग कर सकते है। इसके साथ पुदीने की अधिक उपज के लिए खेत में नाइट्रोजन , पोटाश और फोस्फोरस का भी उपयोग किया जा सकता है। पुदीने की खेती के लिए भूमि का पी एच मान 6 -7 के बीच होना चाहिए। 

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पुदीने के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी

वैसे तो पुदीने को बसंत ऋतू में लगाया जाना बेहतर माना जाता है। लेकिन यह एक बारहमासी पौधा है ज्यादा सर्दी के मौसम को छोड़कर इसकी खेती सभी मौसम में की जा सकती है। इसकी पैदावार के लिए उष्ण जलवायु को बेहतर माना जाता है। पुदीने की खेती के लिए ज्यादा उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता रहती है। पुदीना की खेती जल जमाव वाले क्षेत्र में भी की जा सकती है, इसकी खेती के लिए नमी की आवश्यकता रहती है।  

पुदीने की उन्नत किस्में

पुदीने की कुछ किस्में इस प्रकार है , कोसी , कुशाल , सक्ष्म, गौमती (एच वाई 77 ) ,शिवालिक , हिमालय , संकर 77 , एमएएस-1 यह सब पुदीने की उन्नत किस्में है। इन किस्मों का उत्पादन कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकता है। 

पुदीने की खेती की विधि क्या है 

पुदीने की खेती धान की खेती के जैसे की जाती है। इसमें पहले पुदीने को खेत की एक क्यारी में अच्छे से बो लिया जाता है। जब इसकी जड़े निकल आती है ,तो पुदीने को पहले से तैयार खेत में लगा दिया जाता है। पुदीने की खेती के लिए किसानो को उचित किस्मों का चयन करना चाहिए ,ताकि किसान ज्यादा मुनाफा कमा सके। 

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सिंचाई प्रबंधन

पुदीने के खेत में लगभग 8 -9 बार सिंचाई का कार्य किया जाता है। पुदीने की सिंचाई ज्यादातर मिट्टी की किस्म और जलवायु पर आधारित रहती है। अगर मॉनसून के बाद अच्छी बारिश हो जाती है , तो उसमे सिंचाई का काम कम हो जाता है। मानसून के जाने के बाद पुदीने की फसल में लगभग तीन बार पानी और दिया जाता है।  इसके साथ ही सर्दियों में पुदीने की फसल को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती है, किसानों द्वारा जरुरत के हिसाब से पानी दिया जाता है।

खरपतवार नियंत्रण 

पुदीने की फसल को खरपतवार से बचाने के लिए किसानों द्वारा समय समय पर गुड़ाई और नराई का काम किया जाना चाहिए। इसके साथ ही किसानों द्वारा कीटनाशक दवाइयों का भी उपयोग किया जा सकता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए किसान को एक ही फसल का उत्पादन नहीं करना चाहिए , उसे फसल चक्र अपनाना चाहिए। फसल चक्र अपनाने से खेत में खरपतवार जैसी समस्याएं कम होती है और फसल का उत्पादन भी अधिक होता है। 

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फसल की कटाई 

पुदीने की फसल लगभग 100 -120 में पककर तैयार हो जाती है। पुदीने की फसल की कटाई किसानो द्वारा हाथ से की जाती है। पुदीने के जब निचले भाग के पत्ते पीले पड़ने लग जाये तो  इसकी कटाई प्रारंभ कर दी जाती है। कटाई के बाद पुदीने के पत्तों का उपयोग बहुत से कामो में किया जाता है। पुदीने को लम्बे समय के लिए भी स्टोर किया जा सकता है। साथ ही इसके हरे पत्तों का उपयोग खाना बनाने के लिए भी किया जाता है। 

पुदीने का इस्तेमाल आमतौर पर बहुत सी चीजों में किया जाता है, जैसे : चटनी बनाने , छाछ में डालने के लिए और भी बहुत सी चीजों में इसका उपयोग किया जाता है। पुदीने की दो बार कटाई की जाती है पहली 100 -120 दिन बाद और दूसरी कटाई 80 दिन बाद। साथ ही पुदीना बहुत से औषिधीय गुणों से भरपूर है। पुदीने का ज्यादातर उत्पादन पंजाब , हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्य में किया जाता है। साथ ही पुदीना शरीर के अंदर इम्मुनिटी को बढ़ाता है। 

नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

नांदेड स्थित कपास अनुसंधान केंद्र ने विकसित की कपास की तीन नवीन किस्में

किसान भाइयों की जानकारी के लिए बतादें, कि नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने विगत छह साल के शोध के उपरांत कपास की तीन बीटी किस्में विकसित की हैं। 

इन किस्मों को हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित केंद्रीय किस्म चयन समिति की बैठक में स्वीकृत दी गई है। दावा यह भी किया गया है, क‍ि इनके बीजों का तीन वर्ष तक इस्तेमाल किया जा सकता है। 

वसंतराव नाइक मराठवाड़ा कृषि विश्वविद्यालय, परभणी के नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने कपास की तीन नवीन किस्में इजात की हैं। अब इन किस्मों से किसानों को अधिक फायदा होगा। 

किसानों के लिए बीज की लागत को कम करने में सहायता मिलेगी। बतादें, कि पैदावार भी काफी अच्छी होगी। इन क‍िस्मों को शुष्क जमीन वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है। 

यह बीटी क‍िस्म है, बीटी कॉटन के बीज के ल‍िए किसानों को निजी कंपनियों पर आश्रित रहना पड़ता था, ज‍िससे उन्हें बीज पर अधिक धनराशि खर्च करनी पड़ती थी। वर्तमान में नवीन क‍िस्में किसानों को एक विकल्प मुहैय्या कराएगी। यूनिवर्सिटी की तरफ से यह दावा किया गया है।

कपास की तीन नई किस्में इजात की गई

नांदेड़ मौजूद कपास अनुसंधान केंद्र ने विगत छह साल के शोध के पश्चात कपास की तीन बीटी किस्में इजात की हैं। इनमें एनएच 1901 बीटी, एनएच 1902 बीटी एवं एनएच 1904 बीटी शम्मिलित हैं। 

इन किस्मों को वर्तमान में नई दिल्ली में आयोजित केंद्रीय किस्म चयन समिति की बैठक में स्वीकृति दी गई है। इनकी बिजाई लागत संकर किस्मों की तुलना में कम होने का दावा क‍िया गया है। दावा यह भी किया गया है, क‍ि इनके बीजों का तीन वर्ष तक इस्तेमाल किया जा सकता है। 

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ये किस्में क‍िन राज्यों के ल‍िए विकसित की गई हैं

बतादें, कि इन किस्मों में खादों का उपयोग भी कम होगा। हालांकि, किसानों की तरफ से कपास की ऐसी किस्मों की मांग है। परंतु, किस्मों की अनुपलब्धता की वजह राज्य में सबसे ज्यादा संकर कपास की खेती की गई है। 

इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए ही नवीन क‍िस्में तैयार की गई हैं। महाराष्ट्र प्रमुख कपास उत्पादक राज्य है। यहां बड़े पैमाने पर क‍िसान कॉटन की खेती पर न‍िर्भर हैं। ये तीन नवीन क‍िस्में महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्य प्रदेश के ल‍िए उपयुक्त हैं।

दक्ष‍िण भारत के ल‍िए विकसित की गई अलग क‍िस्म

यह दावा किया गया है, क‍ि परभणी कृषि विश्वविद्यालय कपास की सीधी किस्मों को बीटी तकनीक में परिवर्तित करने वाला राज्य का पहला कृषि विश्वविद्यालय बन चुका है। 

इससे पूर्व यह प्रयोग नागपुर के केंद्रीय कपास अनुसंधान केंद्र ने किया था। यह किस्म अब किसानों को आगामी वर्ष में खेती के लिए उपलब्ध होगी।

साथ ही, परभणी के मेहबूब बाग कपास अनुसंधान केंद्र ने स्वदेशी कपास की एक सीधी किस्म 'पीए 833' विकसित की है, जो दक्षिण भारत के लिए अनुकूल है। 

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विकसित की गई इन तीन नवीन क‍िस्मों की विशेषता

कपास की इन तीन नवीन क‍िस्मों में संकर किस्म के मुकाबले में कम रासायनिक उर्वरकों की जरूरत होती है। इस किस्म में रस चूसने वाले कीट, जीवाणु झुलसा रोग और पत्ती धब्बा रोग नहीं लगता है। 

यह इन रोगों के प्रत‍ि बेहद सहनशील है। इस किस्म की कपास का उत्पादन 35 से 37 प्रतिशत है। धागों की लंबाई मध्यम है। मजबूती और टिकाऊपन भी काफी अच्छा है। यूनिवर्सिटी का दावा है, कि यह किस्म सघन खेती के लिए भी अच्छी है।

कपास की उन्नत किस्मों के बारे में जानें

कपास की उन्नत किस्मों के बारे में जानें

कपास की खेती भारत में बड़े पैमाने पर की जाती है। कपास को नकदी फसल के रूप में भी जाना जाता है। कपास की खेती ज्यादातर बारिश और खरीफ के मौसम में की जाती है। 

कपास की खेती के लिए काली मिट्टी को उपयुक्त माना जाता है। इस फसल का काफी अच्छा प्रभाव हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है, क्योंकि यह एक नकदी फसल है। कपास की कुछ उन्नत किस्में भी हैं ,जिनका उत्पादन कर किसान मुनाफा कमा सकता है। 

 1 सुपरकॉट BG II 115 क़िस्म

यह क़िस्म प्रभात सीड की बेस्ट वैरायटी में से एक है। इस किस्म की बुवाई सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में की जा सकती है। 

यह किस्म कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगना और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर की जाती है। इस किस्म के पौधे ज्यादातर लम्बे और फैले हुए होते है। 

इस बीज की बुवाई कर किसान एक एकड़ जमीन में 20 -25 क्विंटल की पैदावार प्राप्त कर सकता है। यह फसल 160 -170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

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2 Indo US 936, Indo US 955   

कपास की यह वैरायटी इंडो अमेरिकन की वेरायटीज में टॉप पर आती है। कपास की इस किस्म की खेती गुजरात और मध्य प्रदेश में की जाती है। इसकी खेती के लिए बहुत ही हल्की मिट्टी वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। 

इस किस्म में कपास के बोल का वजन 7 -10 ग्राम होता है। कपास की इस किस्म में 45 -48 दिन फूल आना शुरू हो जाते है। यह किस्म लगभग 155 -165 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

इस किस्म में आने वाले फूल का रंग क्रीमी होता है। Indo US 936, Indo US 955 की उत्पादन क्षमता प्रति एकड़ 15 -20 क्विंटल है। 

3 Ajeet 177BG II 

यह किस्म सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म में कपास के पौधे की लम्बाई 145 से 160 सेंटीमीटर होती है। कपास की इस किस्म में बनने वाली बोल का वजन 6 -10 ग्राम होता है। 

Ajeet 177BG II में अच्छे किस्म के रेशें होते हैं। कपास की इस किस्म में पत्ती मोड़क कीड़े लगने की भी बहुत कम संभावनाएं होती हैं। 

यह फसल 145 -160 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। प्रति एकड़ में इसकी उत्पादन क्षमता 22 -25 क्विंटल होती है।     

4 Mahyco Bahubali MRC 7361 

इस किस्म का ज्यादातर उत्पादन राजस्थान, महाराष्ट्रा, कर्नाटक, तेलंगना, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु में होता है। यह मध्यम काल अवधि में पकने वाली फसल है। 

कपास की इस किस्म का वजन भी काफी अच्छा रहता है। प्रति एकड़ में इस फसल की पैदावार 20 -25 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

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5 रासी नियो 

कपास की यह किस्म हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र,तेलंगाना,गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ज्यादातर उगाई जाती है। चूसक कीड़ों के लिए यह किस्म सहिष्णु होती है। 

कपास की इस किस्म के पौधे हरे भरे होते है। रासी नियो की उत्पादन क्षमता प्रति एकड़ 20 -22 क्विंटल होती है। इस किस्म को हल्की और मध्यम भूमि के लिए काफी उपयुक्त माना गया है। 

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

जायद में मूंग की इन किस्मों का उत्पादन कर किसान कमा सकते है अच्छा मुनाफा

मूंग की खेती अन्य दलहनी फसलों की तुलना में काफी सरल है। मूंग की खेती में कम खाद और उर्वरकों के उपयोग से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। मूंग की खेती में बहुत कम लागत आती है, किसान मूंग की उन्नत किस्मों का उत्पादन कर ज्यादा मुनाफा कमा सकते है। इस दाल में बहुत से पोषक तत्व होते है जो स्वास्थ के लिए बेहद लाभकारी होते है। 

मूंग की फसल की कीमत बाजार में अच्छी खासी है, जिससे की किसानों को अच्छा मुनाफा होगा। इस लेख में हम आपको मूंग की कुछ ऐसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी देंगे जिनकी खेती करके आप अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

मूंग की अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्में 

पूसा विशाल किस्म 

मूंग की यह किस्म बसंत ऋतू में 60 -75 दिन में और गर्मियों के माह में यह फसल 60 -65 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। यह मूंग पीला मोजक वायरस के प्रति प्रतिरोध है। यह मूंग गहरे रंग की होती है, जो की चमकदार भी होती है। यह मूंग ज्यादातर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में ज्यादा मात्रा में उत्पादित की जाती है। पकने के बाद यह मूंग प्रति हेक्टेयर में 12 -13 क्विंटल बैठती है। 

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पूसा रत्न किस्म 

पूसा रत्न किस्म की मूंग 65 -70 दिन में पककर तैयार हो जाती है। मूंग की यह किस्म IARI द्वारा विकसित की गई है। पूसा रत्न मूंग की खेती में लगने वाले पीले मोजक के प्रति सहनशील होती है। मूंग की इस किस्म पंजाब और अन्य दिल्ली एनसीआर में आने वाले क्षेत्रो में सुगम और सरल तरीके से उगाई जा सकती है। 

पूसा 9531 

मूंग की यह किस्म मैदानी और पहाड़ी दोनों क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इस किस्म के पौधे लगभग 60 -65 दिन के अंदर कटाई के लिए तैयार हो जाते है। इसकी फलिया पकने के बाद हल्के भूरे रंग की दिखाई पड़ती है। साथ ही इस किस्म में पीली चित्ती वाला रोग भी बहुत कम देखने को मिलता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 12 -15 प्रति क्विंटल होती है। 

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एच यू एम - 1 

मूंग की यह किस्म बनारस हिन्दू विश्वविधालय द्वारा तैयार की गई है, इस किस्म के पौधे पर बहुत ही कम मात्रा में फलिया पाई जाती है। मूंग की यह किस्म लगभग 65 -70 दिन के अंदर पक कर तैयार हो जाती है। साथ ही मूंग की फसल में लगने वाले पीले मोजक रोग का भी इस पर कम प्रभाव पड़ता है। 

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मूंग की यह किस्म जायद के मौसम में अच्छे से उगाई जा सकती है। इस किस्म की खेती खरीफ के मौसम में भी अच्छे से की जा सकती है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। साथ ही यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 8 -10 क्विंटल होती है। 

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सोना 12 /333 

मूंग की इस किस्म को जायद के मौसम के लिए तैयार किया गया है। इस किस्म के पौधे बुवाई के दो महीने बाद पककर तैयार हो जाते है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर में 10 क्विंटल के आस पास हो जाती है। 

पन्त मूँग -1 

मूंग की इस किस्म को जायद और खरीफ दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है। मूंग की इस किस्म पर बहुत ही कम मात्रा में जीवाणु जनित रोगों का प्रभाव देखने को मिलता है। यह किस्म लगभग 70 -75 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। पन्त मूंग -1 का औसतन उत्पादन 10 -12 क्विंटल देखने को मिलता है। 

रबी सीजन में सरसों की खेती के लिए ये पांच उन्नत किस्में काफी शानदार हैं

रबी सीजन में सरसों की खेती के लिए ये पांच उन्नत किस्में काफी शानदार हैं

सरसों रबी की प्रमुख फसलों में से एक है। बतादें, कि सरसों की खेती भारत के बहुत से राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। यदि सरसों की उन्नत किस्मों की बात की जाए तो उनमें राज विजय सरसों-2, पूसा मस्टर्ड 21, पूसा सरसों आरएच 30, पूसा बोल्ड और पूसा सरसों 28 हैं। दरअसल, भारत के तकरीबन समस्त राज्यों में फसलों की बिजाई से लेकर कटाई तक सबकुछ मौसम पर आश्रित रहता है। जैसा की आप जानते हैं, कि खरीफ की फसलों की कटाई का समय चल रहा है। साथ ही, किसान रबी फसलों की बिजाई की तैयारी कर रहे हैं। वहीं, रबी फसल में बोई जाने वाली प्रमुख फसलों में आलू, मटर, सरसों, गेंहू आदि हैं। आज हम आपको सरसों की बेहतरीन किस्मों के संबंध में आपको जानकारी देंगे। सरसों की इन उन्नत किस्मों के नाम पूसा बोल्ड, पूसा सरसों 28, राज विजय सरसों-2, पूसा मस्टर्ड 21 और पूसा सरसों आरएच 30 हैं। यह सभी भारत में तिलहन के उत्पादन में सर्वाधिक पसंद की जाने वाली सरसों की किस्में हैं। ये किस्में किसानों प्रति हेक्टेयर कम लागत में ज्यादा मुनाफा देती हैं। इनका उत्पादन भी बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा होता है। तो चलिए सरसों की इन किस्मों के संबंध में विस्तार से जानते हैं।

सरसों की खेती के लिए 5 उन्नत किस्में

सरसों पूसा बोल्ड

सरसों पूसा बोल्ड की कटाई हेतु पकने की समयावधि 100 से 140 दिन होती है। इसकी बुवाई करने के लिए राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं दिल्ली का क्षेत्र उपयुक्त माना जाता है। अगर हम इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार की बात करें तो यह 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार प्रदान करती है। इसके अंदर तेल की मात्रा तकरीबन 40 प्रतिशत तक होती है।

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पूसा सरसों 28

फसल पकने व कटाई की समयावधि 105 से 110 दिन होती है। इसकी बुआई हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में की जाती है। किसान भाई इससे प्रति हेक्टेयर 18 से 20 क्विंटल उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। तेल की मात्रा की बात की जाए तो तकरीबन 21 प्रतिशत तक है।

राज विजय सरसों-2

फसल पकने की समयावधि 120 से 130 दिन तक की होती है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में इसका उत्पादन किया जाता है। वहीं, इससे औसत पैदावार 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है। तेल की मात्रा तकरीबन 37 से 40 प्रतिशत तक होती है।

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पूसा सरसों आर एच 30

सरसों की इस किस्म की फसल को पकने में लगभग 130 से 135 दिनों का समय लगता है। इस किस्म की बुआई का इलाका हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान होता है। वहीं, अगर हम प्रति हेक्टेयर की बात करें तो वह 16 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। अगर हम इसके अंदर तेल की मात्रा की बात करें तो वह लगभग 39 प्रतिशत तक होती है।

पूसा मस्टर्ड 21

इस किस्म की फसल के पकने की समयवधि 137 से 152 दिनों के लगभग होती है। बतादें, कि पंजाब, राजस्थान और दिल्ली में प्रमुख तौर पर इसका उत्पादन किया जा सकता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इससे प्रति हेक्टेयर 18 से 21 क्विंटल उत्पादन लिया जा सकता है। इस किस्म की सरसों से तेल की मात्रा की बात करें तो वह करीब 37 से 40 प्रतिशत तक होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुवांशिकी संस्थान के मुताबिक इन इलाकों के किसान यदि ज्यादा उत्पादन चाहते हैं, तो सरसों की ये किस्में कृषकों के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो सकती हैं। ये समस्त किस्में प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन के साथ में अधिक प्रतिशत तेल की मात्रा पैदा करती हैं।
इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं - काला तिल (Black Sesame)

इस फसल को बंजर खेत में बोएं: मुनाफा उगाएं - काला तिल (Black Sesame)

तिल की खेती बहुत कम खर्च में ज्यादा मुनाफा देती है। तिल एक नकदी फसल है और अरसे से भारत में इसकी खेती की जाती रही है। आज भी भारत में इसकी खेती होती है।

गलत अवधारणा

तिल की खेती को लेकर कई प्रकार की गलत अवधारणाएं भी किसानों के मन में चलती रहती हैं। पहली तो गलत अवधारणा यह है कि अगर ऊपजाऊ भूमि पर तिल की खेती की जाएगी तो जमीन बंजर हो जाएगी। यह निहायत ही गलत अवधारणा है। ऐसा हो ही नहीं सकता। तिल की खेती सिर्फ और सिर्फ बंजर या गैर उपजाऊ भूमि पर ही होती है। जो जमीन आपकी नजरों में उसर है, बंजर है, अनुपयोगी है, वहां तिल की फसल लहलहा सकती है। फिर वह जमीन बंजर कैसे हो सकती है, यह समझना पड़ेगा। आखिर बंजर भूमि दोबारा बंजर कैसे होगी? ये सब भ्रांतियां हैं। इन भ्रांतियों को महाराष्ट्र में बहुत हद तक किसानों को शिक्षित करके दूर किया गया है पर देश भर के किसानों में आज भी यह भ्रांति गहरे तक बैठी है जिस पर काम करना बेहद जरूरी है। ये भी पढ़े: तिलहनी फसलों से होगी अच्छी आय

कैसी जमीन चाहिए

किसानों को यह समझना होगा कि काले तिल की खेती के लिए उन्हें जो जमीन चाहिए, वह रेतीली होनी चाहिए। यानी ऐसी जमीन, जहां पानी का ज्यादा ठहराव न हो। ध्यान रखें, तिल की पानी से जंग चलती रहती है। तिल की फसल को उतना ही पानी चाहिए, जितने में फसल की जड़ में जल पहुंच जाए। बस। तो, अगर आपके पास बेकार किस्म की, उबड़-खाबड़, रेतीली जमीन है तो आप उसे बेकार न समझें। वहां आप थोड़ा सा श्रम करके, थोड़ा उसे लेबल में लाकर तिल की खेती कर सकते हैं। भ्रांतियों के साये में रहेंगे तो कुछ नहीं होगा।

तिल के प्रकार

kale til ke prakar

तिल के तीन प्रकार होते हैं। पहला-उजला तिल, दूसरा-काला तिल और तीसरा-लाल तिल। ये तीनों किस्म के तिल अलग-अलग बीजों से होते हैं पर उनकी खेती का तरीका हरगिज अलग नहीं होता। जो खेती का तरीका लाल तिल का होता है, वही काले तिल का और वही सफेद तिल का। यह तो किसानों को सोचना है कि उन्हें लाल, काला और सफेद में से कौन सा तिल उपजाना है क्योंकि बाजार में तीनों किस्म के तिल के रेट अलग-अलग हैं। तो, यहां पर भी आप किसी भ्रम में न रहें कि इन तीनों किस्म के तिल की खेती के लिए आपको अलग-अलग व्यवस्था बनानी होगी। व्यवस्था एक ही होगी। जमीन से लेकर खेती का तौर-तरीका एक ही रहेगा। इसमें किसी किस्म का कोई कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।

तैयारी

अगर आप कहीं काले तिल की खेती करना चाहते हैं तो बस एक काम कर लें। मिट्टी को भुरभुरी कर लें। मिट्टी को भुरभुरी करने के दो रास्ते हैं-एक ये कि आप हल या ट्रैक्टर से पूरी जमीन को एक बार जोत लें और फिर उस पर पाड़ा चला लें। पाड़ा चलाने से मिट्टी स्वतः भुरभुरी हो जाती है। अगर उसमें भी कोई कसर रह गई हो तो दोबारा पाड़ा चला लें। अगर आपकी मिट्टी भुरभुरी हो गई हो तो आप फसल बो सकते हैं। ध्यान रहे, काला तिल या किसी किस्म भी किस्म का तिल तब बोएं, जब माहौल शुष्क हो। इसके लिए गर्मी का मौसम सबसे उपयुक्त है। माना जाता है कि मई-जून के माह में तिल की बुआई सबसे बेहतर होती है। ये भी पढ़े: भिंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

तिल के बीज

kale til ke bij

तिल के बीज कई प्रकार के होते हैं। बाजार में जो तिल उपलब्ध हैं, उनमें पी 12, चौमुखी, छह मुखी और आठ मुखी बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। आप जिस बीज को लेना चाहें, ले सकते हैं। लेकिन अगर आपको बीज की समुचित जानकारी नहीं है तो आप अपने ब्लाक के कृषि अधिकारी या सलाहकार से मिल सकते हैं और उनसे पूछ सकते हैं कि किस बीज से प्रति एकड़ कितनी पैदावार मिलेगी। उस आधार पर भी आप बीज का चयन कर सकते हैं। यह काम बहुत आराम से करना चाहिए।

बंपर पैदावार

मोटे तौर पर माना जाता है कि एक एकड़ में डेढ़ किलोग्राम बीज का छिड़काव अथवा रोपण करना चाहिए। एक एकड़ में अगर आप डेढ़ किलो बीज का इस्तेमाल करते हैं, सही तरीके से फसल की देखभाल करते हैं तो मान कर चलें कि आपकी उपज 5 क्विंटल या उससे भी ज्यादा हो सकती है। ये भी पढ़े: Fasal ki katai kaise karen: हाथ का इस्तेमाल सबसे बेहतर है फसल की कटाई में

बीज शोधन

एक दवा है। उसका नाम है ट्राइकोडर्मा। इस दवा को तिल के बीज के साथ मिलाया जाता है। बढ़िया से मिलाने के बाद उसे छांव में कई दिनों तक रख कर सुखाया जाता है। जब तक बीज पूरी तरह न सूख जाएं, उसका रोपण ठीक नहीं। जब दवा मिश्रित बीज सूख जाएं तो उसे खेत में रोपना ज्यादा फायदेमंद माना जाता है। कई किसान जानकारी के अभाव में बिना दवा के ही बीज रोप देते हैं। यह एकदम गलत कार्य है। बीजारोपण तभी करें जब उसमें ट्राइकोडर्मा नामक दवा बहुत कायदे से मिला दी गई हो। इसका इंपैक्ट सीधे-सीधे फसल पर पड़ता है। दवा देने से पौधे में कीट नहीं लगते। बिना दवा के कीट लगने की आशंका 100 फीसद होती है। फसल भी कम होती है।

कैसे करें बुआई

kale til ki Buwai

बेहतर यह हो कि जून-जुलाई में जैसे ही थोड़ी सी बारिश हो, आप खेत की जुताई कर डालें। जब जुताई हो जाए, मिट्टी भुरभुरी हो जाए तो उसे एक दिन सूखने दें। जब मिट्टी थोड़ी सूख जाए तब तिल के मेडिकेटेड बीज को आप छिड़क दें।

खर-पतवार को रोकें

आपने बीज का छिड़काव कर दिया। चंद दिनों के बाद उसमें से कोंपलें बाहर निकलेंगी। उन कोपलों के साथ ही आपको खर-पतवार पर नियंत्रण करना होगा। तिल के पौधे के चारों तरफ खर-पतवार बहुत तेजी से निकलते हैं। उन्हें उतनी ही तेजी से हटाना भी होगा अन्यथा आपकी फसल का विकास रूक जाएगा। तो, कोंपल निकलते ही आप खर-पतवार को दूर करने में लग जाएं। आप चाहें तो लासों नामक केमिकल का भी छिड़काव कर सकते हैं। ये खर-पतवार को जला डालते हैं। समय रहते आप निराई-गुड़ाई करते रहेंगे तो भी खर-पतवार नहीं उगेंगे। ये भी पढ़े: गेहूं की अच्छी फसल तैयार करने के लिए जरूरी खाद के प्रकार

फसल की सुरक्षा

तिल के पौधों में एक महक होती है जो जंगली पशुओं को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। अब यह आपकी जिम्मेदारी है कि आप फसल की सुरक्षा जानवरों से कैसे करते हैं। आवार पशु तिल के फसल को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। इनमें छुट्टा गाय-बैल तो होते ही हैं, जंगली सूअर, नीलगाय भी होते हैं। ये एक ही रात में पूरी खेत चट कर जाने की हैसियत रखते हैं। तो आपको फसल की सुरक्षा के लिए खुद ही तैयार रहना होगा। पहरेदारी करनी होगी, अलाव जलाना होगा ताकि जानवर केत न चर जाएं।

4 माह में तैयार होती है फसल

मोटे तौर पर माना जाता है कि काला तिल 120 दिनों में तैयार हो जाता है। लेकिन, ये 120 दिन किसानों के बड़े सिरदर्दी वाले होते हैं। खास कर आवारा पशुओं से फसल की रक्षा करना बहुत मुश्किल काम होता है।

कटाई

kale til ki katai

120 दिनों के बाद जब आपकी फसल तैयार हो गई तो अब बारी आती है उसकी कटाई की। कटाई कैसे करें, यह बड़ा मसला होता है। अब हालांकि स्पेशियली तिल काटने के लिए कटर आ गया है पर हमारी राय है कि आप फसल को अपने हाथों से ही काटें। इसके लिए हंसुली या तेज धार वाले हंसिया-चाकू का इस्तेमाल सबसे बढ़िया होता है। फसल काटने के बाद उसे खेत में कम से कम 8 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए। इन 8 दिनों में फसल सूखती है। जब फस सूख जाए तो उसका तिल झाड़ लें। इस प्रक्रिया को कम से कम 4 बार करें। इससे जो भी फसल होगी, उसका पूरा तिल आप झाड़ लेंगे। मोटे तौर पर अगर फसल को जानवरों ने नहीं चरा, कीट नहीं लगे, तो मान कर चलें कि एक एकड़ में पांच क्विंटल से ज्यादा तिल आपको मिल जाएगा। अब आप देखें कि तिल को रखेंगे, बेचेंगे या कुछ और करेंगे।

काला तिल है गुणकारी

काला तिल बेहद फायदेमंद है। आप इसे भून कर खा सकते हैं। पूजा में भी इसका इस्तेमाल होता है। तावीज-गंडे में भी लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। नए शोधों में यह पता चला है कि काला तिल उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में बहुत मददगार होता है।

महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा पैदावार

देश में महाराष्ट्र में काला, उजला और लाल, तीनों किस्म के तिल की सबसे ज्यादा पैदावार होती है। कारण है, वहां की शीतोष्ण जलवायु। महाराष्ट्र के कई जिले ऐसे हैं, जहां कभी बारिश होती है या फिर नहीं। ऐसे इलाकों में तिल की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में भी तिल की खेती जबरदस्त होती है तो मध्य प्रदेश और गुजरात भी इसमें पीछे नहीं।

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

गन्ना किसानों के लिए 10 उन्नत किस्में बाजार में उपलब्ध की गई हैं। बतादें, कि गन्ने की इन उन्नत किस्मों की खेती आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, यूपी, हरियाणा, मध्य प्रदेश और पंजाब के किसान बड़ी सुगमता से कर सकते हैं। चलिए आज हम आपको इस लेख में गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के संबंध में विस्तार से जानकारी प्रदान करेंगे। भारत में गन्ना एक नकदी फसल है। गन्ने की खेती किसान वाणिज्यिक उद्देश्य से भी किया करते हैं। बतादें, कि किसान इससे चीनी, गुड़, शराब एवं इथेनॉल जैसे उत्पाद भी तैयार किए जाते हैं। साथ ही, गन्ने की फसल से तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों के किसानों को बेहतरीन कमाई भी होती है। किसानों द्वारा गन्ने की बुवाई अक्टूबर से नवंबर माह के आखिर तक और बसंत कालीन गन्ने की बुवाई फरवरी से मार्च माह में की जाती है। इसके अतिरिक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गन्ना फसल को एक सुरक्षित फसल माना गया है। इसकी वजह यह है, कि गन्ने की फसल पर जलवायु परिवर्तन का कोई विशेष असर नहीं पड़ता है।

भारत सरकार ने जारी की गन्ने की 10 नवीन उन्नत किस्में

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के पश्चात गन्ने की 10 नवीन किस्में जारी की हैं। इन किस्मों को जारी करने का प्रमुख लक्ष्य गन्ने की खेती करने के लिए गन्ने की उन्नत किस्मों को प्रोत्साहन देना है। इसके साथ ही गन्ना किसान ज्यादा उत्पादन के साथ बंपर आमदनी अर्जित कर सकें।

जानिए गन्ने की 10 उन्नत किस्मों के बारे में

गन्ने की ये समस्त उन्नत किस्में ओपन पोलिनेटेड मतलब कि देसी किस्में हैं। इन किस्मों के बीजों की उपलब्धता या पैदावार इन्हीं के जरिए से हो जाती है। इसके लिए सबसे बेहतर पौधे का चुनाव करके इन बीजों का उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन किस्मों के बीजों का एक फायदा यह भी है, कि इन सभी किस्मों का स्वाद इनके हाइब्रिड किस्मों से काफी अच्छा होता है। आइए अब जानते हैं गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के बारे में।

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इक्षु -15 (सीओएलके 16466)

इक्षु -15 (सीओएलके 16466) किस्म से बेहतरीन उत्पादन हांसिल होगा। यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

राजेंद्र गन्ना-5 (सीओपी 11438)

गन्ने की यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के लिए अनुमोदित की गई है।

गन्ना कंपनी 18009

यह किस्म केवल तमिलनाडु राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

सीओए 17321

गन्ना की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

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सीओ 11015 (अतुल्य)

यह किस्म बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा उत्पादन देती है। क्योंकि इसमें कल्लों की संख्या ज्यादा निकलती है। गन्ने की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की जलवायु के अनुकूल है।

सीओ 14005 (अरुणिमा)

गन्ने की उन्नत किस्म Co 14005 (Arunima) की खेती तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

फुले गन्ना 13007 (एमएस 14082)

गन्ने की उन्नत किस्म Phule Sugarcane 13007 (MS 14082) की खेती तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

इक्षु -10 (सीओएलके 14201)

गन्ने की Ikshu-10 (CoLK 14201) किस्म को आईसीएआर के द्वारा विकसित किया गया है। बतादें, कि किस्म के अंदर भी लाल सड़न रोग प्रतिरोध की क्षमता है। यह किस्म राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य), उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र), पंजाब, हरियाणा की जलवायु के अनुरूप है।

इक्षु -14 (सीओएलके 15206) (एलजी 07584)

गन्ने की Ikshu-14 (CoLK 15206) (LG 07584) किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य) और उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र) के किसान खेती कर सकते हैं।

सीओ 16030 (करन 16)

गन्ने की किस्म Co-16030, जिसको Karan-16 के नाम से भी जाना जाता है। इस किस्म को गन्ना प्रजनन संस्थान, करनाल के वैज्ञानिकों की ओर से विकसित किया गया है। यह किस्म उच्च उत्पादन और लाल सड़न रोग प्रतिरोध का एक बेहतरीन संयोजन है। इस किस्म का उत्पादन उत्तराखंड, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
किसान पूसा से धान की इन किस्मों का बीज अब ऑनलाइन खरीद सकते हैं

किसान पूसा से धान की इन किस्मों का बीज अब ऑनलाइन खरीद सकते हैं

भारत विश्व में चावल उत्पादन के मामले में दूसरे स्थान पर है। भारत में खरीफ की प्रमुख फसलों में धान का विशेष स्थान है। धान की खेती भारत के उत्तरी और दक्षिणी प्रदेशों में मानसून के मौसम में की जाती है। 

साथ ही, कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां धान का सीजन (Paddy Season) वर्ष में दो बार आता है। धान की खेती सिंचित और असिंचित दोनों ही तरह के इलाकों में की जाती है। बतादें, कि धान की खेती छिड़काव और रोपाई विधि के माध्यम से की जाती है। 

बतादें, कि रोपाई विधि से धान का उत्पादन काफी अच्छा हांसिल होता है। भारत में धान की बहुत सारी ऐसी उन्नत किस्में हैं, जिनकी खेती करके आप काफी शानदार लाभ कमा सकते हैं। 

इनमें धान की PB 1692" और "PB 1509" किस्म शामिल है, जिन्हें आप ऑनलाइन भी खरीद सकते हैं।

धान की पीबी 1692 किस्म / Paddy PB 1692 Variety

पूसा बासमती 1692 धान की उन्नत किस्मों में से एक है। यह एक शीघ्र पकने वाली बासमती धान की प्रजाति है। इसको पकने में तकरीबन 110 से 115 दिनों का समय लगता है और ज्यादा उत्पादन होता है। 

इसी खूबी की वजह से यह बासमती उत्पादक क्षेत्र में धान की फसल की समय पर कटाई करने में सहयोग करता है। ताकि फसल के पश्चात अन्य कार्यों को करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। 

अगर समय पर खेतों की सफाई की जाती है, तो इससे पर्यावरण प्रदूषण को भी कम करने में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त बासमती जीआई क्षेत्र में आने वाली गेहूं की फसल की भी वक्त पर बुवाई में सहायता मिलती है। 

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किसान धान की पीबी 1692 किस्म की खेती कर करीब 20 से 24 क्विंटल प्रति एकड़ फसल हांसिल कर सकते हैं। वहीं, प्रति एकड़ में रोपाई के लिए 5 किलो बीज पर्याप्त होते हैं।

धान की पीबी 1509 किस्म / Paddy PB 1509 Variety

पूसा बासमती 1509 धान भी उन्नत किस्मों में से एक है। इसको 2013 में सीवीआरसी द्वारा बासमती उगाने वाले इलाकों जैसे कि - दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी, उत्तराखंड और जम्मू और कश्मीर के लिए जारी किया गया था। 

यह एक शीघ्रता से पकने वाली बासमती धान की किस्म है। इसको पकने में 115 से 120 दिनों का वक्त लगता है। पूसा बासमती 1509 धान की किस्म 5 से 6 सिंचाई तक बचाने में मदद करती है, जिससे आप लगभग 33% प्रतिशत तक पानी की बचत कर सकते हैं। 

किसान धान की इस किस्म की खेती से करीब 27 से 28 क्विंटल प्रति एकड़ फसल हांसिल कर सकते हैं। प्रति एकड़ भूमि में इस किस्म की धान की रोपाई के लिए 4 से 5 किलो बीज पर्याप्त होते हैं। 

धान की ऑनलाइन खरीद कैसे करें 

अगर आप धान की “PB 1692" और "PB 1509" किस्म को खरीदना चाहते हैं, तो आप इसको घर बैठे ऑनलाइन माध्यम से भी ऑर्डर कर सकते हैं। 

अब आप एनएससी के उत्तम किस्म के धान ‘पीबी 1692’ और पीबी’ किस्म के सर्टिफाइड बीज के 10 किलोग्राम के पैकट को ऑनलाइन माध्यम से खरीद सकते हैं। 

यहां आपको NSC धान पीबी 1509 बीज के 10 किलोग्राम का पैकट 850 रुपये में मिलता है। वहीं, NSC धान पीबी 1509 बीज के 10 किलोग्राम के पैकट की कीमत 800 रुपये निर्धारित की गई है। अभी ऑर्डर करने के लिए https://mystore.in/en/search/nsc-paddy लिंक पर क्लिक करें। 

चावल की कम समय और कम जल खपत में तैयार होने वाली किस्में

चावल की कम समय और कम जल खपत में तैयार होने वाली किस्में

चावल उत्पादन के मामले में भारत दूसरे स्थान पर आता है। धान की फसल के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती हैं इसके पौधों को जीवनकाल में औसतन 20 डिग्री सेंटीग्रेट से 37 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती हैं। 

धान की खेती के लिए मटियार एवम दोमट भूमि उपयुक्त मानी जाती हैं। प्रदेश में धान की खेती असिंचित व् सिंचित दशाओं में सीधी बुवाई व रोपाई द्वारा की जाती हैं।

बतादें, कि निरंतर घटते भू-जल स्त्रोत की वजह से आज पानी का संकट होता जा रहा है। गर्मियों के दिनों में तो पेयजल संकट और ज्यादा गहरा हो जाता है। धान की खेती करने वाले कृषकों के समक्ष सिंचाई की चुनौतियां आती हैं। 

धान की खेती में सर्वाधिक पानी की जरूरत पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक, एक किलोग्राम धान उत्पन्न करने में लगभग 2500 से 3000 लीटर जल की आवश्यकता होती है। 

वर्तमान में हमें कम समय और कम पानी में तैयार होने वाले ऐसे चावल की किस्मों की आवश्यकता है, जिससे कि उनकी सिंचाई में पानी की खपत को कम करके पर्यावरण को सुरक्षित किया जा सके और कम पानी में उत्तम पैदावार हांसिल की जा सके। 

इस बात को मद्देनजर रखते हुए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीयू) के विशेषज्ञों ने चावल की कम व मध्यम अवधि में तैयार होने वाली किस्मों की सिफारिश की है। इसमें चावल की पीआर 126 और पीआर 131 के अच्छे परिणाम मिले हैं। 

यह दोनों ही प्रजातियां कम पानी व समयावधि में तैयार होने वाली चावल की प्रजातियां हैं। आगे आपको बताएंगे कि कृषक इन किस्मों की बुवाई करके कम खर्चा में चावल की अच्छी-खासी उपज प्राप्त कर सकते हैं।

चावल की पीआर 126 किस्म

धान (चावल) की पीआर 126 किस्म को पंजाब कृषि विभाग के द्वारा विकसित किया गया है, जो कम समयावधि में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म की ऊंचाई 102 सेमी तक होती है। 

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यह किस्म 123 से 125 दिनों के समयांतराल में पक जाती है। इस किस्म को कम जल की जरूरत होती है। इतना ही नहीं यह किस्म सात अलग-अलग बैक्टीरियल ब्लाइट रोगजनकों के लिए प्रतिरोधी प्रजाति है। इसकी उपज की बात करें तो इस किस्म से प्रति एकड़ 31 क्विंटल की उपज हांसिल की जा सकती है।

चावल की पीआर 131 किस्म की क्या खूबी है ?

चावल की पीआर 131 किस्म की ऊंचाई 111 सेमी है। यह किस्म रोपाई के लगभग 110 दिन में पककर तैयार हो जाती है। यह वैक्टीरियल ब्लाइट रोगजनक के समस्त 10 रोगों के लिए प्रतिरोधी प्रजाति है। इसके उत्पादन की बात करें तो इस किस्म से प्रति एकड़ लगभग 31 क्विंटल की उपज प्राप्त की जा सकती है।

बतादें, कि इन किस्मों के अतिरिक्त भी धान की कम पानी में उगने वाली बाकी किस्में भी हैं, जिनकी खेती करके लघु या मध्यम अवधि में धान की शानदार उपज हांसिल की जा सकती है। इन किस्मों में पूसा सुगंध- 5, पूसा बासमती- 1509, पूसा बासमती-1121 व पूसा-1612 आदि शम्मिलित हैं।

चावल की धान पूसा सुगंध-5 किस्म 

धान की पूसा सुगंध-5 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) पूसा दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है। यह चावल की संकर प्रजाति है। इसके दाने पतले, सुगंधित और लगभग 7 से 8 मिमी लंबे होते हैं। 

इसके दाने की गुणवत्ता काफी अच्छी होती है और उपज क्षमता भी काफी अच्छी होती है। यह किस्म 120 से 125 दिन के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। 

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इस किस्म से औसत पैदावार लगभग 5.5 से 6 टन प्रति हैक्टेयर अर्जित की जा सकती है। पूसा सुगंध की खेती भारत में दिल्ली, पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश में विशेष तोर पर की जाती है।

चावल की पूसा बासमती- 1509 किस्म 

धान (चावल) की पूसा बासमती 1509 किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर), नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई कम समयावधि में तैयार होने वाली प्रजाति है। यह किस्म 120 दिन की समयावधि में तैयार हो जाती है।

इसकी औसत उपज की बात की जाए तो इस प्रजाति से लगभग 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उत्पादन हांसिल किया जा सकता है। पूसा बासमती- 1509 किस्म के दाने लंबे व पतले हाते हैं, जिनकी लंबाई लगभग 8.19 मिमी होती है। 

यह चावल की अत्यंत सुगंधित किस्म है। इस किस्म में चार सिंचाई के जल की रक्षा में सहयोग मिल सकता है। यह किस्म धान की 1121 किस्म की तुलना में कम जल खपत में तैयार हो जाती है, जिससे पानी की 33% प्रतिशत बचत होती है। 

यह किस्म सिंचित अवस्था में धान-गेहूं फसल प्रणाली के लिए अनुकूल बताई गई है। इसके पौधे आधे बौने होते हैं और गिरते नहीं है। 

बतादें, कि इसके साथ ही फसल पकने पर दाने झड़ते नहीं है। यह किस्म पूर्ण झुलसा व भूरा धब्बा रोग के प्रति मध्यम प्रतिरोधी किस्म है। 

चावल की पूसा बासमती-1121 किस्म

धान की पूसा बासमती-1121 किस्म को सिंचित इलाकों में उगाया जा सकता है। यह किस्म 140 से 145 दिन के अंदर पककर तैयार हो जाती है। 

यह धान की अगेती प्रजाति है, इसका दाना लंबा व पतला और खाने में अत्यंत स्वाद से परिपूर्ण होता है। धान की इस प्रजाति से 40 से 45 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन हांसिल किया जा सकता है।

चावल की पूसा-1612 किस्म

धान की पूसा-1612 किस्म को 2013 में विमोचित किया गया था। यह धान की सुगंध-5 किस्म का विकसित स्वरूप है। यह किस्म 120 दिन के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। 

यह सिंचित अवस्था में रोपाई के लिए अत्यंत अनुकूल मानी जाती है। यह किस्म ब्लास्ट बीमारी के प्रति प्रतिरोधी किस्म मानी जाती है। बतादें, कि इस किस्म से तकरीबन 55 से 60 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है।

जानिए कैसे करें बरसीम,जई और रिजका की बुआई

जानिए कैसे करें बरसीम,जई और रिजका की बुआई

पशुओं को पौष्टिक आहार देने के लिए हरे चारे की जरूरत होती है। हरे चारे के लिए बरसीम, जई और रिजका की खेती बहुत ही फायदे वाली है। बरसीम के शुष्क पदार्थ में पाचनशीलता 70 प्रतिशत होती है तथा 20 प्रतिशत प्रोटीन होता है। बरसीम की तरह जई भी रबी के मौसम का एक गैर दलहनी पौष्टिक चारा है। दुग्ध उत्पादन के लिए लाभप्रद है। यह पशुओं को भरपेट खिलाई जा सकती है। बरसीम, जई के अलावा रिजका भी रबी में उगाई जाने वाली फलीदार चारे की सिंचित फसल है। इसमें प्रोटीन 15 प्रतिशत होता है। आइये जानते हैं कि बरसीम, जई और रिजका की खेती किस प्रकार की जाती है।

बरसीम की बुआई कैसे करें

jaee दोमट व जलसोखन की अधिक क्षमता वाली जमीन में बरसीम की खेती अच्छी पैदावार देती है। इसकी खेती के लिए अधिक सिंचाई की जरूरत होती है। बरसीम की बुआई के लिए गहरी जुताई कर भुरभुरी मिट्टी वाला खेत होना चाहिये। एक हेक्टेयर में 20 क्यारियां बनाकर बुआई करना चाहिये। इससे सिंचाई में सुविधा होती है। बरसीम की अच्छी उपज लेने के लिए गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद 10 टन तथा 20किलो नाइट्रोजन, 60 किलो फास्फोरस और 20 किलो पोटाश बुआई से पूर्व खेत में बिखेरनी चाहिये। प्रत्येक हेक्टेयर में 20 से 25 किलो बीज आवश्यक होता है। बुआई से पहले बीज का 5 प्रतिशत नमक के घोल वाले पानी में डुबाना चाहिये। हल्के तैरने वाले बीज को निकाल देना चाहिये। उसके बाद बीजों को एक ग्राम कार्बनडेजिम+दो ग्राम थायरम नामक फफूंद नाशक दावा मिलाकर उपचारित करना चाहिये। इसके बाद राइजोबियम कल्चर से बीज उपचारित करें । इसके बाद बुआई करें। बुआई का समय अक्टूबर से नवंबर तक सर्वोत्तम माना जाता है। बुआई में देरी होने पर कटाई की संख्या कम हो जाती है।

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दो तरीके से बरसीम की बुआई की जाती है:-

1. खेत में बनी क्यारियों में पानी भरे और उपचारित बीज को समान से छिटक कर बुआई करें। किसान भाई ध्यान रखें कि खेत में पानी की सतह 5 सेमी से कम ही रहें। 2. दूसरी विधि में खेत में बनी क्यारियों में उपचारित बीज को छिटक दें और उसके बाद सिंचाई कर दें। सिंचाई करते वक्त इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि पानी की धार तेज न हो वरना सारा बीज बहकर एक जगह पर इकट्ठा हो जायेगा। बरसीम की फसल पहली सिंचाई बुआई के 5-6 दिनों बाद ही की जानी चाहिये। इसके बाद प्रत्येक 15 दिनों बाद सिंचाई करनी चाहिये। पहली कटाई 50 दिन के बाद करनी चाहिये। उसके बाद प्रत्येक 20 से 25 दिन के अन्तर पर कटाई करते रहें। इसके बाद प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करनी जरूरी होती है।

पशु चारे के रूप में जई की बुआई कैसे करें

jaee जई को मटर, बरसीम, लुसर्न के साथ बुआई करने से बहुत लाभ होता है। जई की खेती के लिए दोमट भूमि, बलुई दोमट, मटियारी दोमट मिट्टी सबसे उत्तम बताई गई है। खरीफ की फसल में खाली छोड़े गये खेत में जई की खेती अच्छी तरह से होती है। इसके लिए खेत को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा उसके बाद देशी हल से तीन से चार बार की जुताई की जानी चाहिये। फिर पाटा लगाया जाना चाहिये। जिससे खेत में ढेले व जड़ें न रहें। आखिरी जुताई करते समय खेत में 60 किलो नाइट्रोजन 40 किलो फास्फोरस डालकर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये। नाइट्रोजन की तीन बराबर मात्रा बना लेनी चाहिये। एक जुताई के समय और दो 20-20 किलो की मात्रा को बुआई के 20-25 दिन के बाद पहली सिंचाई के साथ देना चाहिये। दूसरी बार उस समय नाइट्रोजन की मात्रा डालनी चाहिये जब दूसरी बार चारे की कटाई कर लें। वैसे तो जई की बुआई का सही समय अक्टूबर का प्रथम सप्ताह माना जाता है लेकिन इसकी बुआई दिसम्बर तक की जा सकती है। लाइन से लाइन की दूरी कम से कम 20 सेमी रहनी चाहिये। खेत में नमी कुछ कम दिखाई पड़ रही हो तो बांस के पोरे से बुआई करनी चाहिये ताकि बीज गहराई तक जा सके। उसके बाद क्यारियां बना लें। जई की बुआई के एक माह बाद पहली सिंचाई करनी चाहिये। खेत में पानी बहुत न भरें और एक माह के अंतराल से सिंचाई करते रहें। वैसे जई की फसल को एक बार ही काटा जाता है लेकिन खेत की उर्वरा शक्ति अच्छी हो और फसल अच्छी दिख रही हो तो इसे दो बार भी काटा जा सकता है। पहली बार उस समय कटाई की जा सकती है जब पौधे 60 सेमी ऊंचे हो जायें ।  दो माह बाद भी कटाई की जा सकती है। पौधों की कटाई 6-7 सेमी की ऊंचाई से कर लेनी चाहिये। जनवरी से मार्च तक चारा खिलाया जा सकता है।

रिजका की बुआई किस प्रकार की जाती है

रिजका रबी में पैदा की जाने वाले फलीदार चारे की फसल है। एक बार बोने के बाद लगभग 3 से 4 वर्ष तक यह पैदावार देती रहती है।  रिजका की बुआई से किसान को दोहरा लाभ मिलता है। पहला यह कि पशुओं को हरा चारा मिलता है दूसरा यह कि इसकी जड़ों को खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। रिजका में प्रोटीनकी मात्रा 15 प्रतिशत अधिक है। इसलिये रिजिका को ज्वार, बाजरा, जई, जौ, सरसो, शलजम आदि के साथ मिक्स कर पशुओं को खिलाना चाहिये। 27 डिग्री तापमान में होने वाली रिजका की फसल दोमट मिट्टी के अलावा रेतीली दोमट, चिकनी दोमट मिट्टी में उगाई जा सकती है। क्षारीय भूमि में इसकी खेती नहीं की जा सकती है। रिजका की अच्छी फसल लेने के लिए एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें उसके बाद देशी हल या हैरों से दो तीन जुताई करें। जब मिट्टी भुरभुरी हो जाये तब खेत में क्यारियां बनायें। रिजका की अकेली फसल के लिए प्रत्येक हेक्टेयर के लिए 20 से 25 किलो बीज की जरूरत होती है। इसकी बुआई लाइन से लाइन की दूरी 25 सेन्टीमीटर रखकर की जा सकती है। इसकी बुआर्ई सीड ड्रिल से भी की जा सकती है और छिटका कर भी बुआई होती है। अधिक चारा प्राप्त करने के लिए रिजका के साथ दो किलो सरसो और 12 किलो मैथी व 3 किलो चाइनीज कैबेज यानी जापानी सरसों की बुआई करनी चाहिये।  बुआई से पहले बीज का उपचार व शोधन करना चाहिये। रिजका की बुआई नवम्बर के मध्य में की जानी चाहिये। इसके बीजों का छिलका काफी कड़ा होता है । इसलिये बीजों को 8 घंटें तक पानी में भिगो कर रखना चाहिये उसके बार राइजोबियम कल्चर मिलाकर बुआई करें। रिजका की अच्छी खेती के लिए शुरुआत में बढ़वार के लिए जैविक खाद के साथ 20 से 30 किलो नाइट्रोजन , 100 किलो फास्फोरस तबा 30 किलो पोटाश डालनी चाहिये। नाइट्रोजन की आधी मात्रा अंतिम जुताई के समय डाली जानी चाहिये। बाकी आधी मात्रा को तीन बराबर हिस्से बनाकर प्रत्येक दूसरी कटाई के बाद छिटकना चाहिये। रिजका की फसल को बरसीम की अपेक्षा कम सिंचाई की जरूरत होती है। पौध निकलने के बाद हल्की सिंचाई करें। हल्की मिट्टी में सर्दियों के मौसम में 10 से 12 दिन के अन्तर में सिंचाई करें। गर्मियों में 5 से 7 दिन में सिंचाई करें। रिजका में मोयला और मृदु आसिल रोमिता का प्रकोप होता है। इससे बचाव के उपाय करें।  इस फसल से दिसम्बर से जुलाई तक चारा मिलता रहता है। पहली कटाई बुआई के 60 दिन के बाद करनी चाहिये। अगली कटाई पौधे की बढ़वार के अनुसार एक माह के अन्तर में करते रहें। मार्च के बाद कटाई 10 प्रतिशत फूल आने पर ही करें।
अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती सदैव कृषकों के लिए फायदे का सौदा साबित हुई है। हालांकि, बाजार के उतार-चढ़ाव में अरहर का भाव कम-अधिक होता रहता है। 

परंतु, अरहर की खेती करने वाले कृषकों के समक्ष एक चुनौती यह आती है, कि यह फसल काफी लंबे समय में पककर तैयार होती है। किसान दूसरी फसलों की बुवाई नहीं कर पाता है। 

परंतु, वैज्ञानिकों ने अरहर की कुछ ऐसी भी किस्में तैयार की हैं, जो न सिर्फ कम समय में पककर तैयार होती हैं। साथ ही, उपज भी काफी अच्छी देती हैं। 

इसके अतिरिक्त किसानों को अरहर की खेती में कुछ विशेष सावधानियों की आवश्यकता पड़ती है। बतादें, कि कृषकों को अरहर की रोपाई से पहले उसका बीजोपचार करना पड़ता है। 

साथ ही, अरहर की बुवाई जून के माह में की जाती है। चलिए जानते हैं, कम समयावधि में तैयार होने वाली किस्मों की खूबियां व बीचोपचार के बारे में।

किसान भाई इन तीन किस्मों का उत्पादन कर अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं ?

अरहर की पूसा 992 किस्म

भूरे रंग, मोटा, गोल और चमकदार दाने वाली इस किस्म को वर्ष 2005 में विकसित किया गया था। ये किस्म अन्य किस्मों के मुकाबले कम दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसको पकने में तकरीबन 140 से 145 दिन का समय लगता है।

दरअसल, यह किस्म प्रति एकड़ भूमि द्वारा 7 क्विंटल उत्पादन प्रदान कर सकती है। जानकारी के लिए बतादें, कि इस किस्म की खेती सर्वाधिक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान राज्य में की जाती है। 

अरहर की पूसा 16 किस्म 

पूसा 16 जल्दी तैयार होने वाली बेहतरीन प्रजाति है। अरहर की इस किस्म की समयावधि 120 दिन की होती है। इस फसल में छोटे आकार का पौधा 95 सेमी से 120 सेमी लंबा होता है, इस किस्म का औसत उत्पादन 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। 

अरहर की आईपीए 203 किस्म  

अरहर की आईपीए 203 किस्म की विशेषता यह है, कि इस किस्म में बीमारियों का आक्रमण नहीं होता है। साथ ही, इस किस्म की बुवाई करके फसल को बहुत सारे रोगों से संरक्षित किया जा सकता है। 

साथ ही, इससे बेहतरीन उपज भी हांसिल कर सकते हैं। इसकी औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की होती है।

इस किस्म की समयावधि 150 दिन की होती है। साथ ही, अन्य किस्मों को तैयार होने में लगभग 220 से 240 दिन लगते हैं।

कृषक इस प्रकार बीज उपचार करें 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल की खेती से पहले बीज उपचार अत्यंत आवश्यक है। बीज उपचार करने से रोगिक प्रभाव काफी कम पड़ते हैं। 

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इसके लिए कार्बेंडाजिम नामक दवा को दो ग्राम प्रति किलो की दर से मिला लें। इसमें पानी मिलाकर बीज को किसी छाया वाली जगह पर चार घंटे के लिए रख दें। इसके बाद इसकी बुवाई करें। ऐसा करने से बीज पर किसी प्रकार का रोग आक्रामण नहीं करता है। 

कृषक इस विधि से करें अरहर की खेती 

सामान्यतः किसान अरहर की खेती छींटा विधि के माध्यम से करते हैं, जिससे कहीं अधिक तो कहीं कम बीज जाते हैं। इससे कहीं घनी तो कहीं खाली फसल तैयार होती है। 

इससे फसलीय उपज में काफी कमी आती है, क्योंकि घना हो जाने से पौधों को समुचित धूप, पानी और खाद नहीं मिल पाता है। इसके लिए किसान को 20 सेंटीमीटर के फासले पर बीज लगाने चाहिए। इससे बीज दर भी काफी कम लगती है।