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किसानों को मुनाफा दिलाने वाली पुदीने की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसानों को मुनाफा दिलाने वाली पुदीने की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

पुदीना का वानस्पतिक नाम मेंथा है , इसे जड़ी बूटी वाला पौधा भी कहा जाता है। पुदीना के पौधे को स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माना जाता है। पुदीना के अंदर विटामिन ए और सी के अलावा खनिज जैसे पोषक तत्व भी पाए जाते है। गर्मियों के समय में पुदीने की अच्छी माँग रहती है , इसीलिए इसकी खेती कर किसान अच्छा मुनाफा भी कमा सकते है। 

पुदीने के पौधे की पत्तियां लगभग 2-2.5 अंगुल लम्बी और 1.5 से 2 अंगुल चौड़ी रहती है। इस पौधे में से सुगन्धित खुशबू आती रहती है , गर्मियों में इसका प्रयोग बहुत सी चीजों में किया जाता है। पुदीना एक बारहमासी पौधा है। 

कैसे करें पुदीने के खेत की तैयारी 

पुदीने की खेती के लिए अच्छे जल निकासी वाली भूमि की आवश्यकता रहती है। पुदीने की बुवाई से पहले खेत की अच्छे से जुताई कर ले, उसके बाद भूमि को समतल कर ले। दुबारा जुताई करते वक्त खेत में गोबर की खाद का भी प्रयोग कर सकते है। इसके साथ पुदीने की अधिक उपज के लिए खेत में नाइट्रोजन , पोटाश और फोस्फोरस का भी उपयोग किया जा सकता है। पुदीने की खेती के लिए भूमि का पी एच मान 6 -7 के बीच होना चाहिए। 

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पुदीने के लिए उपयुक्त जलवायु और मिट्टी

वैसे तो पुदीने को बसंत ऋतू में लगाया जाना बेहतर माना जाता है। लेकिन यह एक बारहमासी पौधा है ज्यादा सर्दी के मौसम को छोड़कर इसकी खेती सभी मौसम में की जा सकती है। इसकी पैदावार के लिए उष्ण जलवायु को बेहतर माना जाता है। पुदीने की खेती के लिए ज्यादा उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता रहती है। पुदीना की खेती जल जमाव वाले क्षेत्र में भी की जा सकती है, इसकी खेती के लिए नमी की आवश्यकता रहती है।  

पुदीने की उन्नत किस्में

पुदीने की कुछ किस्में इस प्रकार है , कोसी , कुशाल , सक्ष्म, गौमती (एच वाई 77 ) ,शिवालिक , हिमालय , संकर 77 , एमएएस-1 यह सब पुदीने की उन्नत किस्में है। इन किस्मों का उत्पादन कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकता है। 

पुदीने की खेती की विधि क्या है 

पुदीने की खेती धान की खेती के जैसे की जाती है। इसमें पहले पुदीने को खेत की एक क्यारी में अच्छे से बो लिया जाता है। जब इसकी जड़े निकल आती है ,तो पुदीने को पहले से तैयार खेत में लगा दिया जाता है। पुदीने की खेती के लिए किसानो को उचित किस्मों का चयन करना चाहिए ,ताकि किसान ज्यादा मुनाफा कमा सके। 

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सिंचाई प्रबंधन

पुदीने के खेत में लगभग 8 -9 बार सिंचाई का कार्य किया जाता है। पुदीने की सिंचाई ज्यादातर मिट्टी की किस्म और जलवायु पर आधारित रहती है। अगर मॉनसून के बाद अच्छी बारिश हो जाती है , तो उसमे सिंचाई का काम कम हो जाता है। मानसून के जाने के बाद पुदीने की फसल में लगभग तीन बार पानी और दिया जाता है।  इसके साथ ही सर्दियों में पुदीने की फसल को ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती है, किसानों द्वारा जरुरत के हिसाब से पानी दिया जाता है।

खरपतवार नियंत्रण 

पुदीने की फसल को खरपतवार से बचाने के लिए किसानों द्वारा समय समय पर गुड़ाई और नराई का काम किया जाना चाहिए। इसके साथ ही किसानों द्वारा कीटनाशक दवाइयों का भी उपयोग किया जा सकता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए किसान को एक ही फसल का उत्पादन नहीं करना चाहिए , उसे फसल चक्र अपनाना चाहिए। फसल चक्र अपनाने से खेत में खरपतवार जैसी समस्याएं कम होती है और फसल का उत्पादन भी अधिक होता है। 

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फसल की कटाई 

पुदीने की फसल लगभग 100 -120 में पककर तैयार हो जाती है। पुदीने की फसल की कटाई किसानो द्वारा हाथ से की जाती है। पुदीने के जब निचले भाग के पत्ते पीले पड़ने लग जाये तो  इसकी कटाई प्रारंभ कर दी जाती है। कटाई के बाद पुदीने के पत्तों का उपयोग बहुत से कामो में किया जाता है। पुदीने को लम्बे समय के लिए भी स्टोर किया जा सकता है। साथ ही इसके हरे पत्तों का उपयोग खाना बनाने के लिए भी किया जाता है। 

पुदीने का इस्तेमाल आमतौर पर बहुत सी चीजों में किया जाता है, जैसे : चटनी बनाने , छाछ में डालने के लिए और भी बहुत सी चीजों में इसका उपयोग किया जाता है। पुदीने की दो बार कटाई की जाती है पहली 100 -120 दिन बाद और दूसरी कटाई 80 दिन बाद। साथ ही पुदीना बहुत से औषिधीय गुणों से भरपूर है। पुदीने का ज्यादातर उत्पादन पंजाब , हरियाणा और उत्तर प्रदेश राज्य में किया जाता है। साथ ही पुदीना शरीर के अंदर इम्मुनिटी को बढ़ाता है। 

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरबी गर्मी की फसल है, इसका उत्पादन गर्मी और वर्षा ऋतू में किया जाता है। अरबी की तासीर ठंडी रहती है। इसे अलग अलग नामों से जाना जाता है जैसे अरुई , घुइया , कच्चु और घुय्या आदि है।

यह फसल बहुत ही प्राचीन काल से उगाई जा रही है। अरबी का वानस्पातिक नाम कोलोकेसिया एस्कुलेंटा है। अरबी प्रसिद्ध और सबसे परिचित वनस्पति है, इसे हर कोई जानता है। सब्जी के अलावा इसका उपयोग औषिधीय में भी किया जाता है।  

अरबी का पौधा सदाबहार साथ ही शाकाहारी भी है। अरबी का पौधा 3 -4 लम्बा होता है , इसकी पत्तियां भी चौड़ी होती है। अरबी सब्जी का पौधा है, जिसकी जड़ें और पत्तियां दोनों ही खाने योग्य रहती है। 

इसके पत्ते हल्के हरे रंग के होते है, उनका आकर दिल के भाँती दिखाई पड़ता है। 

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

अरबी की खेती के लिए जैविक तत्वों से भरपूर मिट्टी की  जरुरत रहती है। इसीलिए इसके लिए रेतीली और दोमट मिट्टी को बेहतर माना जाता है। 

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इसकी खेती के लिए भूमि का पी एच मान 5 -7 के बीच में होना चाहिए। साथ ही इसकी उपज के लिए बेहतर जल निकासी  वाली भूमि की आवश्यकता पड़ती है। 

अरबी की उन्नत किस्में 

अरबी की कुछ उन्नत किस्में इस प्रकार है, जो किसानों को मुनाफा दिला सकती है। सफ़ेद गौरिया, पंचमुखी, सहस्रमुखी, सी -9, श्री पल्लवी, श्री किरन, श्री रश्मी आदि प्रमुख किस्में है, जिनका उत्पादन कर किसान लाभ उठा सकता है। 

अरबी -1 यह किस्म छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए अनुमोदित की गयी है, इसके अलावा नरेंद्र - 1 भी अरबी की अच्छी किस्म है। 

अरबी की खेती का सही समय 

किसान साल भर में अरबी की फसल से दो बार मुनाफा कमा सकते है। यानी साल में दो बार अरबी की फसल उगाई जा सकती है एक तो रबी सीजन में और दूसरी खरीफ के सीजन में। 

रबी के सीजन में अरबी की फसल को अक्टूबर माह में बोया जाता है और यह फसल अप्रैल से मई माह के बीच में पककर तैयार हो जाती है। 

यही खरीफ के सीजन में अरबी की फसल को जुलाई माह में बोया जाता है, जो दिसंबर और जनवरी माह में तैयार हो जाती है। 

उपयुक्त वातावरण और तापमान 

जैसा की आपको बताया गया अरबी गर्मी की फसल है। अरबी की फसल को सर्दी और गर्मी दोनों में उगाया जा सकता है। लेकिन अरबी की फसल के पैदावार के लिए गर्मी और बारिश के मौसम को बेहतर माना जाता है। 

इन्ही मौसम में अरबी की फसल अच्छे से विकास करती है। लेकिन गर्मी में पड़ने वाला अधिक तापमान भी फसल को नष्ट कर सकता है साथ ही सर्दियों के मौसम में पड़ने वाला पाला भी अरबी की फसल के विकास को रोक सकता है। 

अरबी की खेती के लिए कैसे करें खेत को तैयार ?

अरबी की खेती के लिए अच्छे जलनिकास वाली और दोमट मिट्टी की आवश्यकता रहती है। खेत में जुताई करने के 15 -20 दिन पहले खेत में 200 -250 क्विंटल खाद को डाल दे।

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उसके बाद खेत में 3 -4 बार जुताई करें , ताकि खाद अच्छे से खेत में मिल जाए। अरबी की बुवाई का काम किसानों द्वारा दो तरीको से किया जाता है।  पहला मेढ़ बनाकर और दूसरा क्वारियाँ बनाकर। 

खेत को तैयार करने के बाद किसानों द्वारा खेत में 45 से.मी की दूरी पर मेढ़ बना दी जाती है।  वही क्यारियों में बुवाई करने के लिए पहले खेत को पाटा लगाकर समतल बनाया जाता है। 

उसके बाद 0.5 से.मी की गहरायी पर इसके कंद की बुवाई कर दी जाती है। 

बीज की मात्रा 

अरबी की बुवाई कंद से की जाती है , इसीलिए प्रति हेक्टेयर में कंद की 8 -9 किलोग्राम मात्रा की जरुरत पड़ती है। अरबी की बुवाई से पहले कंद को पहले मैंकोजेब 75 % डब्ल्यू पी 1 ग्राम को पानी में मिलाकर 10 मिनट तक रख कर बीज उपचार करना चाहिए। 

बुवाई के वक्त क्यारियों के बीच की दूरी 45 से.मी और पौधो की दूरी 30 से.मी और कंद की बुवाई 0.5 से.मी की गहराई में की जाती है।  

अरबी की खेती के लिए उपयुक्त खाद एवं उर्वरक 

अरबी की खेती करते वक्त ज्यादातर किसान गोबर खाद का प्रयोग करते है ,जो की फसल की उत्पादकता के लिए बेहद फायदेमंद रहता है।  लेकिन किसानों द्वारा अरबी की फसल के विकास लिए उर्वरको का उपयोग किया जाता है। 

किसान रासायनिक उर्वरक फॉस्फोरस 50 किलोग्राम , नत्रजन 90 -100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम का उपयोग करें, इसकी आधी मात्रा को खेत की बुवाई करते वक्त और आधी मात्रा को बुवाई के एक माह बाद डाले। 

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ऐसा करने से फसल में वृद्धि होगी और उत्पादन भी ज्यादा होगा। 

अरबी की फसल में सिंचाई 

अरबी की फसल यदि गर्मी के मौसम बोई गयी है ,तो उसे ज्यादा पानी आवश्यकता पड़ेगी। गर्मी के मौसम में अरबी की फसल को लगातार 7 -8  दिन लगातार पानी देनी की जरुरत रहती है। 

यदि यही अरबी की फसल बारिश के मौसम में की गयी है ,तो उसे कम पानी की जरुरत पड़ती है। अधिक सिंचाई करने पर फसल के खराब होने की भी संभावनाएं रहती है। 

सर्दियों के मौसम में भी अरबी को कम पानी की जरुरत पड़ती है। इसकी हल्की  सिंचाई  15 -20 के अंतराल पर की जाती है।  

अरबी की फसल की खुदाई 

अरबी की फसल की खुदाई उसकी किस्मों के अनुसार होती है , वैसे अरबी की फसल लगभग 130 -140  दिन में पककर तैयार हो जाती है। जब अरबी की फसल अच्छे से पक जाए उसकी तभी खुदाई करनी चाहिए।

अरबी की बहुत सी किस्में है जो अच्छी उपज होने पर प्रति हेक्टेयर में 150 -180 क्विंटल की पैदावार देती है।  बाजार में अरबी की कीमत अच्छी खासी रहती है। 

अरबी की खेती कर किसान प्रति एकड़ में 1.5 से 2 लाख रुपए की कमाई कर सकता है। 

अरबी की खेती कर किसान अच्छा मुनाफा कमा सकती है।  साथ ही कीट और रोगों से दूर रखने के लिए किसान रासायनिक उर्वरको का भी उपयोग कर सकते है।

साथ ही फसल में खरपतवार जैसी समस्याओ को भी नियंत्रित करने के लिए समय समय पर गुड़ाई और नराई का भी काम करना चाहिए। 

इससे फसल अच्छी और ज्यादा होती है, ज्यादा उत्पादन के लिए किसान फसल चक्र को भी अपना सकता है। 

मनरेगा पशु शेड योजना और इसके लिए आवेदन से संबंधित जानकारी

मनरेगा पशु शेड योजना और इसके लिए आवेदन से संबंधित जानकारी

खेती के उपरांत पशुपालन किसानों के लिए दूसरा सबसे बड़ा कारोबार है। बहुत सारे किसान खेती के साथ पशुपालन करना बेहद पसंद करते हैं, क्योंकि खेती के साथ पशुपालन काफी मुनाफे का सौदा होता है। 

पशुओं के लिए ज्यादा से ज्यादा हरा और सूखा चारा खेती से ही प्राप्त हो जाता है। यही कारण है, कि सरकार पशुपालक किसानों के लिए भी विभिन्न अच्छी योजनाएं लाती हैं, जिससे पशुपालक किसानों को ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित किया जा सके। 

किसान की आमदनी का मुख्य साधन कृषि होता है, जिसके माध्यम से भारत के ज्यादातर पशुपालक आवश्यकताओं को भी पूरा कर सकते हैं। अधिकांश किसान कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से पशुओं के लिए मकान निर्मित नहीं कर पाते हैं। 

ठंड के मौसम में समान्यतः पशुओं को परेशानी होती है। क्योंकि ठंड के समय ही मकान की जरूरत सबसे ज्यादा होती है। बारिश और ठंड से पशुओं को बचाने के लिए जरूरी है, कि पशुओं के लिए शेड का निर्माण किया जाए। 

सरकार पशुओं के लिए शेड या घर बनाने के लिए किसानों को 1 लाख 60 हजार रुपए का अनुदान प्रदान कर रही है।

कितना मिलेगा लाभ

मनरेगा पशु शेड योजना से किसानों को व्यापक स्तर पर लाभ मिलेंगे। गौरतलब यह है, कि किसानों को ठंड के मौसम में सामान्य तौर पर दुधारू पशुओं में दूध की कमी का सामना करना पड़ता है। 

दरअसल, इसकी बड़ी वजह पशुओं के लिए ठंड के मौसम में उचित घर या शेड का न होना भी है। मनरेगा पशु शेड योजना के अंतर्गत पशुओं के लिए घर निर्मित पर सरकार द्वारा किसानों को अनुदान उपलब्ध किया जाता है। 

इससे पशुओं की सही तरह से देखभाल सुनिश्चित हो सकेगी। शेड में यूरिनल टैंक इत्यादि की व्यवस्था भी कराई जा सकेगी। इससे पशुओं की देखभाल तो होगी ही साथ ही किसानों की आमदनी में भी बढ़ोतरी होगी। साथ ही, किसानों के जीवन स्तर में सुधार देखने को मिलेगा।

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मनरेगा पशु शेड योजना

पशुपालक किसानों को पशुओं के लिए घर बनाने पर यह अनुदान प्रदान किया जाता है। इस योजना से ठंड या बारिश से पशुओं को बचाने के लिए घर बनाने के लिए धनराशि मिलती है। 

पशुओं का घर बनाकर किसान अपने पशु की देखभाल कर सकेंगे और पशु के दूध देने की क्षमता में भी वृद्धि कर सकेंगे। मनरेगा पशु शेड योजना से किसानों को व्यापक लाभ मिल पाएगा।

मनरेगा पशु शेड से कितना लाभ मिलता है

मनरेगा पशु शेड योजना के तहत किसानों को पशु शेड बनाने पर 1 लाख 60 हजार रुपए का अनुदान दिया जाता है। इस योजना का लाभ किसानों को बैंक के माध्यम से दिया जाता है। इस योजना से मिलने वाला पैसा एक तरह से किसानों के लिए ऋण होता है जिसकी ब्याज दर बहुत कम होती है।

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योजना के तहत किसको लाभ मिलेगा

मनरेगा पशु शेड योजना के तहत मिलने वाले लाभ की कुछ पात्रता शर्तें इस प्रकार है।

इस योजना का फायदा केवल भारतीय किसानों को ही मुहैय्या कराया जाएगा। पशुओं की तादात कम से कम 3 अथवा इससे अधिक होनी आवश्यक है।

योजना के लिए अनिवार्य दस्तावेज

पशुओं के लिए घर बनाने वाली इस योजना में आवेदन करने के लिए कुछ जरूरी दस्तावेजों का होना अनिवार्य है। जैसे कि - आधार कार्ड, पैन कार्ड, कृषक पंजीयन, बैंक पासबुक, मोबाइल नम्बर, ईमेल आईडी (अगर हो)

योजना में आवेदन करने की प्रक्रिया

पशुओं के लिए घर निर्मित करने की योजना में अनुदान लेने के लिए नजदीकी सरकारी बैंक शाखा में संपर्क करें। एसबीआई, इस योजना के अंतर्गत लोन प्रदान करती है। शाखा में ही आवेदन फॉर्म भर कर जमा करें। इस प्रकार इस योजना का लाभ किसानों को प्राप्त हो जाएगा।

सरसों की खेती से जुड़े सभी जरूरी कार्यों की जानकारी

सरसों की खेती से जुड़े सभी जरूरी कार्यों की जानकारी

सरसों एवं राई की फसल प्रमुख तिलहनी (मूंगफली, सरसों, सोयाबीन) फसलों के रूप में की जाती है। सरसों की फसल को कम खर्चा में ज्यादा मुनाफा देने के लिए जाना जाता है। सरसों की खेती विशेष रूप से राजस्थान के माधवपुर, भरतपुर सवई, कोटा, जयपुर, अलवर, करोली आदि जनपदों में की जाती है। सरसों का इस्तेमाल उसके दानो से तेल निकालकर किया जाता है। हमारे भारत में सरसों के तेल का उपयोग ज्यादा मात्रा में होता है। सरसों के बीजों से तेल के अतिरिक्त खली भी निकलती है। जिसको पशु आहार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इसकी खली में तकरीबन 2.5 प्रतिशत फास्फोरस, 1.5 प्रतिशत पोटाश और 4 से 9 प्रतिशत नत्रजन की मात्रा मौजूद रहती है। इस वजह से इसे बाहरी देशो में खाद के तौर पर भी उपयोग करते है। परंतु, भारत इसे केवल पशु आहार के रूप में इस्तेमाल में लाता है। सरसों के दानो में महज 30 से 48 प्रतिशत तक तेल विघमान रहता है। साथ ही, इसके सूखे तनो को ईंधन के रूप में भी उपयोग कर सकते हैं। आज हम आपको इस लेख में सरसों की खेती से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी देने जा रहे हैं।

सरसों के प्रकार

भारत में प्रमुख तौर पर सरसों दो प्रकार की पायी जाती है, जो काली सरसों एवं पीली सरसों के नामों से जानी जाती है। किसान भाई जिसकी मिटटी और मौसम के अनुसार खेत में बुवाई करके अच्छी पैदावार उठा सके। यदि सही मायने में देखा जाए तो अधिकांश किसान काली एवं भूरी सरसो की खेती करना ज्यादा पसंद करते हैं, जिनकी विस्तृत जानकारी इस प्रकार है:- यह भी पढ़ें: किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं

काली सरसों

काली सरसों गोल आकार के कड़े एवं पीली सरसों की तुलना में बड़े बीज होते हैं। इस सरसों का रंग गहरा भूरा से लेकर काला होता है। इस सरसों का प्रयोग किसान भाई अधिकांश खेती की फसल विक्रय के लिए करते हैं। इसकी पैदावार भी अधिक होती है। इसका प्रयोग खाने के तेल में अधिक होता है, तथा पेरने के बाद इसमें खली ज्यादा निकलती और जो जानवरों को भी खिलाने फायदेमंद होती है, या किसान भाई सीधे मंडी में भी बेच सकते है।

पीली सरसों

पीली सरसों को राई भी कहा जाता है, जिसके दाने काले सरसों के दानों की अपेक्षा में आकार में छोटे होते हैं। साथ ही, स्वाद भी दोनों में थोड़ा अंतराल होता है। जहां, काले सरसों के दाने का तेल निकालकर खाने में इस्तेमाल किया जाता है। वहीं, राई के दाने अचार में डालने एवं तड़का लगाने के लिए करते हैं। यदि इसके गुणों के संबंध में बात की जाए तो दोनों में समान गुण और पोषक तत्व होते हैं।

सरसों की खेती के लिए उपयुक्त मृदा जलवायु और तापमान

सरसों की फसल के लिए सर्दियो के मौसम को काफी अच्छा माना जाता है। इसके पौधों को अच्छे से विकास करने के लिए 18 से 24 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। सरसों के पौधों में फूल निकलने के वक्त वर्षा अथवा छायादार मौसम फसल के लिए हानिकारक होता है। सरसों की खेती को करने के लिए सर्वाधिक बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। क्षारीय और मृदा अम्लीय मिट्टी में इसकी फसल का उत्पादन नहीं किया जा सकता है। यह भी पढ़ें: सरसों की खेती से होगी धन की बरसात, यहां जानिये वैज्ञानिक उपाय जिससे हो सकती है बंपर पैदावार

पूसा बोल्ड

इस किस्म के पौधे 125 से 140 दिन के समयांतराल में उत्पादन देने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों की फलिया मोटी होती हैं। इसके दानो से 37-38 प्रतिशत तक ही तेल अर्जित किया जा सकता है। यह प्रति हेक्टेयर के मुताबिक 20 से 25 क्विंटल का उत्पादन देता है।

वसुंधरा (R.H. 9304)

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 180-190 CM होती है। इसमें निकलने वाली फली सफेद रोली तथा चटखने प्रतिरोधी है। इसके पौधे पककर 130-135 दिन में उत्पादन देने के लिए तैयार हो जाते है। साथ ही, यह किस्म प्रति हेक्टेयर के अनुसार 25 से 27 क्विंटल की पैदावार देती है।

अरावली (आर.ऍन. 393)

सरसों की इस किस्म में फसल को पककर तैयार होने में 135 से 140 दिन का वक्त लगता है। इसके पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं तथा इसके बीजों से 43 प्रतिशत तक का तेल प्राप्त हो जाता है। यह सफेद रोली प्रतिरोधी पौधा होता है, जिसकी पैदावार प्रति हेक्टेयर के अनुसार 22 से 25 क्विंटल होती है। यह भी पढ़ें: सरसों के फूल को लाही कीड़े और पाले से बचाने के उपाय इसके अलावा भी सरसों की विभिन्न किस्मों को उगाया जाता है। जैसे कि जगन्नाथ (बी.एस.5), बायो 902 (पूसा जय किसान), टी 59 (वरुणा), आर.एच. 30, आषीर्वाद (आर.के. 3-5), स्वर्ण ज्योति (आर.एच. 9802), लक्ष्मी (आर.एच. 8812) आदि।

सरसों उत्पादन के लिए खेत की तैयारी

सरसों के बीजों को खेत में लगाने से पूर्व उसके खेत को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लेना चाहिए, जिससे सरसों की बेहतरीन पैदावार अर्जित की जा सके। सरसों की खेती के लिए भुरभुरी मृदा की जरूरत पड़ती है। चूँकि सरसों की फसल खरीफ की फसल के पश्चात की जाती है, इस वजह से खेत की बेहतर ढ़ंग से गहरी जुताई करनी चाहिए। ऐसा करने से खेत में पुरानी फसल के अवशेष पूरी तरह से नष्ट किए जाऐं। इसके उपरांत खेत को कुछ दिनों के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दें, जिससे खेत की मृदा में बेहतर ढ़ंग से धूप लग जाये। इसके उपरांत रोटावेटर लगाकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दें। जुताई के उपरांत पाटा लगाकर चलवा दें, जिससे खेत बिल्कुल एकसार हो जायेगा। साथ ही, जल-भराव जैसी परेशानी भी नहीं होगी।

सरसों की बुवाई का उपयुक्त समय व तरीका

सरसों की बुवाई सितम्बर से लेकर अक्टूबर के बीच कर देनी चाहिए। अक्टूबर के अंत तक भी इसकी बुवाई को किया जा सकता है। परंतु, सिर्फ सिंचित क्षेत्रों में। इसकी बुवाई के लिए 25 से 27 डिग्री तापमान को काफी अच्छा माना जाता है। सरसों की बुवाई कतारों में की जाती है। इसके लिए खेत में 30 CM का फासला रखते हुए कतारों को तैयार कर लेना चाहिए। इसके उपरांत 10 CM का फासला रखते हुए सरसों के बीजों को लगाना चाहिए। बीजों की बुवाई से पूर्व उन्हें मैन्कोजेब की उपयुक्त मात्रा से उपचारित कर लेना चाहिए। इसके पश्चात भूमि की नमी के मुताबिक बीजों को गहराई में लगा देना चाहिए। प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 3 से 5 किलो बीजो की जरूरत पड़ती है। यह भी पढ़ें: खुशखबरी: इस राज्य में बढ़ा इतने हेक्टेयर सरसों की फसल का रकबा किसी भी फसल की बेहतरीन पैदावार लेने के लिए खेत को पर्याप्त मात्रा में खाद एवं उर्वरक देने की जरूरत होती है। इसके लिए खेत की जुताई के दौरान 8 से 10 टन पुरानी गोबर के खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक ड़ाल देना चाहिए। इसके पश्चात खेत में ट्रैक्टर चलवा कर गोबर को बेहतर ढ़ंग से मिला दें। रासायनिक खाद के तौर पर प्रति हेक्टेयर के मुताबिक 30 से 40 किलोग्राम फास्फोरस, 375 किलोग्राम जिप्सम, 80 KG नत्रजन और 60 KG गंधक की मात्रा को खेत में डालें। फास्फोरस की संपूर्ण व नत्रजन की आधी मात्रा को जुताई के दौरान और आधी मात्रा को शुरुआती सिंचाई के वक्त दें।

सरसों के पौधों की सिंचाई कब और किस तरह करें

चूंकि, सरसों के बीजों की रोपाई सर्दियों के मौसम में होती है। इस वजह से इन्हें ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती है। परंतु, समुचित वक्त पर सिंचाई कर बेहतर उत्पादन हांसिल किया जा सकता है। इसकी प्रथम सिंचाई बीजों की रोपाई के शीघ्र बाद कर देनी चाहिए। इसके उपरांत दूसरी सिंचाई को 60 से 70 दिन के समयांतराल में कर देना चाहिए। यदि खेत में सिंचाई की जरूरत होती है, तो उसमें पानी लगा देना चाहिए।

सरसों के खेत में खरपतवार पर कैसे नियंत्रण करें

सरसों के पौधे अच्छे से विकास करें इसके लिए खरपतवार पर नियंत्रण करना अनिवार्य होता है। इसके लिए प्राकृतिक ढ़ंग से निराई-गुड़ाई कर खरपतवार निकाल देना चाहिए। इसकी पहली गुड़ाई 25 से 30 दिन के समयांतराल में कर देनी चाहिए। इसके उपरांत वक्त-वक्त पर जब खेत में खरपतवार नजर आए तो उसकी गुड़ाई कर देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त फ्लूम्लोरेलिन की पर्याप्त मात्रा में सिंचाई के साथ छिड़काव कर रासायनिक ढ़ंग से खरपतवार पर काबू किया जा सकता है। यह भी पढ़ें: सरसों की खेती (Mustard Cultivation): कम लागत में अच्छी आय

सरसों की कटाई, उत्पादन एवं फायदा

सरसों की फसल लगभग 125 से 150 दिन के समयांतराल में पूर्ण रूप से पककर तैयार हो जाती है, जिसके पश्चात इसकी कटाई की जा सकती है। अगर समुचित समय पर इसके पौधों की कटाई नहीं की जाती है, तो इसकी फलियाँ चटखने लगती है, जिससे पैदावार 7 से 10 प्रतिशत की कमी हो सकती है। जब सरसों के पौधों में फलियाँ पीले रंग की नजर आने लगे तब इसकी कटाई कर लेनी चाहिए। सरसों के पौधे प्रति हेक्टेयर के अनुसार 25 से 30 क्विंटल का उत्पादन देते हैं। सरसों का बाजार भाव काफी अच्छा होता है, जिससे किसान भाई सरसों की फसल कर बेहतर आय कर सकते हैं।
चुकंदर की खेती के लिए भूमि प्रबंधन, उन्नत किस्में व मृदा और जलवायु

चुकंदर की खेती के लिए भूमि प्रबंधन, उन्नत किस्में व मृदा और जलवायु

भारत के अंदर अधिकतर लोग चुकंदर खाना काफी पसंद करते हैं। किसी को चुकंदर सलाद के रूप में तो किसी को जूस के रूप में चुकंदर काफी अच्छा लगता है। 

हालांकि, बहुत सारे लोग इसका जूस पीना भी काफी पसंद करते हैं। बतादें, कि चुकंदर में पोटेशियम, विटामिन सी, फोलेट, विटामिन बी9, मैंगनीज और मैग्नीशियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है। 

इसका सेवन करने से शरीर में रक्त की कमी नहीं होती है। यही कारण है, कि इसकी बाजार में मांग सदैव बरकरार बनी रहती है। अब ऐसे में यदि किसान भाई चुकंदर की खेती करते हैं, तो उनको एक शानदार और अच्छी कमाई आसानी से प्राप्त हो सकती है।

मुख्य बात यह है, कि चुकंदर औषधीय गुणों से भरपूर होता है। इस वजह से इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार में भी किया जाता है। साथ ही, इससे बहुत प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियां भी तैयार की जाती हैं। 

बाजार में इसका भाव हमेशा 30 से 40 रुपये किलो तक रहता है। अब ऐसी स्थिति में यदि किसान भाई चुकंदर की खेती करने की योजना बना रहे हैं, तो उनके लिए यह काफी अच्छी खबर है। यदि वैज्ञानिक विधि के माध्यम से चुकंदर की खेती की जाए, तो किसानों को बंपर पैदावार मिलेगी।

चुकंदर की सबसे लोकप्रिय व उन्नत किस्में कौन-सी हैं ?

बलुई दोमट मृदा में चुकंदर की खेती करने पर काफी बेहतरीन उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए मृदा का पीएच मान 6 से 7 के मध्य उचित माना गया है। 

वहीं, गर्मी, बारिश और सर्दी किसी भी मौसम में इसकी आसानी से खेती की जा सकती है। यदि किसान भाई गर्मी के मौसम में चुकंदर की खेती करने की योजना बना रहे हैं, तो सर्वप्रथम अच्छी और बेहतरीन किस्मों का चयन करें। 

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अर्ली वंडर, मिस्त्र की क्रॉस्बी, डेट्रॉइट डार्क रेड, क्रिमसन ग्लोब, रूबी रानी, रोमनस्काया और एमएसएच 102 चुकंदर की सबसे लोकप्रिय किस्में हैं। इन किस्मों की खेती करने पर किसान को बंपर पैदावार हांसिल होती है। 

चुकंदर की बुवाई एवं भूमि प्रबंधन इस तरह करें 

चुकंदर की बुवाई करने से पूर्व खेत की कई बार जुताई की जाती है। उसके बाद 4 टन प्रति एकड़ की दर से खेत में गोबर की खाद डालें और पाटा लगाकर जमीन को एकसार कर दें। अब इसके बाद क्यारी बनाकर चुकंदर की बुवाई करें।

विशेष बात यह है, कि छिटकवां और मेड़ विधि से चकुंदर की बुवाई की जाती है। अगर आप छिटकवां विधि से चुकंदर की बुवाई कर रहे हैं, तो आपको एक एकड़ में 4 किलो बीज की आवश्यकता पड़ेगी। 

वहीं, यदि आप मेड़ विधि से बुवाई करते हैं तो किसान को कम बीज की आवश्यकता पड़ती है। मेड़ विधि में पहले 10 इंच ऊंची मेड़ बनाई जाती है। अब इसके बाद मेड़ पर 3-3 इंच की दूर पर बीजों को बोया जाता है। 

बुवाई के कितने दिन बाद फसल पूर्णतय तैयार हो जाती है ?

बतादें, कि चुकंदर एक कंदवर्गीय श्रेणी में आने वाली फसल है। इसलिए समय-समय पर इसकी निराई- गुड़ाई की जाती है। साथ ही, आवश्यकता के अनुरूप सिंचाई भी करनी पड़ती है। 

बुवाई करने के 120 दिन पश्चात फसल पककर तैयार हो जाती है। अगर आपने एक हेक्टेयर में खेती कर रखी है, तो 300 क्विंटल तक उपज मिलेगी। यदि 30 रुपये किलो के हिसाब से चुकंदर बेचते हैं, तो इससे आसानी से लाखों रुपये की आय होगी।

अरहर की खेती (Arahar dal farming information in hindi)

अरहर की खेती (Arahar dal farming information in hindi)

दोस्तों आज हम बात करेंगे अरहर की दाल के विषय पर, अरहर की दाल को बहुत से लोग तुअर की दाल भी कहते हैं। अरहर की दाल बहुत खुशबूदार और जल्दी पच जाने वाली दाल कही जाती है। 

अरहर की दाल से जुड़ी सभी आवश्यक बातों को भली प्रकार से जानने के लिए हमारे इस पोस्ट के अंत तक जरूर बने रहे:

अरहर की दाल का परिचय:

आहार की दृष्टिकोण से देखे तो अरहर की दाल बहुत ही ज्यादा उपयोगी होती है। क्योंकि इसमें विभिन्न प्रकार के आवश्यक तत्व मौजूद होते हैं जैसे: खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम आदि भरपूर मात्रा में मौजूद होता है। 

अरहर की दाल को रोगियों को खिलाना लाभदायक होता है। लेकिन जिन लोगों में गैस कब्ज और सांस जैसी समस्या हो उनको अरहर दाल का सेवन थोड़ा कम करना होगा। 

अरहर की दाल शाकाहारी भोजन करने वालो का मुख्य साधन माना जाता है शाकाहारी अरहर दाल का सेवन बहुत ही चाव से करते हैं।

अरहर दाल की फसल के लिए भूमि का चयन:

अरहर की फ़सल के लिए सबसे अच्छी भूमि हल्की दोमट मिट्टी और हल्की प्रचुर स्फुर वाली भूमि सबसे उपयोगी होती है। यह दोनों भूमि अरहर दाल की फसल के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। 

बीज रोपण करने से पहले खेत को अच्छी तरह से दो से तीन बार हल द्वारा जुताई करने के बाद, हैरो चलाकर खेतों की अच्छी तरह से जुताई कर लेना चाहिए। 

अरहर की फ़सल को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए जल निकास की व्यवस्था को बनाए रखना उचित होता है। तथा पाटा चलाकर खेतों को अच्छी तरह से समतल कर लेना चाहिए। अरहर की फसल के लिए काली भूमि जिसका पी.एच .मान करीब 7.0 - 8. 5 सबसे उत्तम माना जाता है।

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अरहर दाल की प्रमुख किस्में:

अरहर दाल की विभिन्न विभिन्न प्रकार की किस्में उगाई जाती है जो निम्न प्रकार है:

  • 2006 के करीब, पूसा 2001 किस्म का विकास हुआ था। या एक खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली किस्म है। इसकी बुवाई में करीब140 से लेकर 145 दिनों का समय लगता है। प्रति एकड़ जमीन में या 8 क्विंटल फ़सल की प्राप्ति होती है।
  • साल 2009 में पूसा 9 किस्म का विकास हुआ था। इस फसल की बुवाई खरीफ रबी दोनों मौसम में की जाती है। या फसल देर से पकती है 240 दिनों का लंबा समय लेती है। प्रति एकड़ के हिसाब से 8 से 10 क्विंटल फसल का उत्पादन होता है।
  • साल 2005 में पूसा 992 का विकास हुआ था। यह दिखने में भूरा मोटा गोल चमकने वाली दाल की किस्म है।140 से लेकर 145 दिनों तक पक जाती है प्रति एकड़ भूमि 6.6 क्विंटल फसल की प्राप्ति होती है। अरहर दाल की इस किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, पश्चिम तथा उत्तर प्रदेश दिल्ली तथा राजस्थान में होती है।
  • नरेंद्र अरहर 2, दाल की इस किस्म की बुवाई जुलाई मे की जाती हैं। पकने में 240 से 250 दिनों का टाइम लेती है। इस फसल की खेती प्रति एकड़ खेत में 12 से 13 कुंटल होती है। बिहार, उत्तर प्रदेश में इस फसल की खेती की जाती।
  • बहार प्रति एकड़ भूमि में10 से 12 क्विंटल फसलों का उत्पादन होता है। या किस्म पकने में लगभग 250 से 260 दिन का समय लेती है।
  • दाल की और भी किस्म है जैसे, शरद बी आर 265, नरेन्द्र अरहर 1और मालवीय अरहर 13,

आई सी पी एल 88039, आजाद आहार, अमर, पूसा 991 आदि दालों की खेती की प्रमुख है।

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अरहर दाल की फ़सल बुआई का समय:

अरहर दाल की फसल की बुवाई अलग-अलग तरह से की जाती है। जो प्रजातियां जल्दी पकती है उनकी बुवाई जून के पहले पखवाड़े में की जाती है विधि द्वारा। 

दाल की जो फसलें पकने में ज्यादा टाइम लगाती है। उनकी बुवाई जून के दूसरे पखवाड़े में करना आवश्यक होता है। दाल की फसल की बुवाई की प्रतिक्रिया सीडडिरल यह फिर हल के पीछे चोंगा को बांधकर पंक्तियों द्वारा की जाती है।

अरहर दाल की फसल के लिए बीज की मात्रा और बीजोपचार:

जल्दी पकने वाली जातियों की लगभग 20 से 25 किलोग्राम और धीमे पकने वाली जातियों की 15 से 20 किलोग्राम बीज /हेक्टर बोना चाहिए। 

जो फसल चैफली पद्धति से बोई जाती हैं उनमें बीजों की मात्रा 3 से 4 किलो प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। फसल बोने से पहले करीब फफूदनाशक दवा का इस्तेमाल 2 ग्राम थायरम, 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम यह फिर वीटावेक्स का इस्तेमाल करे, लगभग 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए। 

उपचारित किए हुए बीजों को रायजोबियम कल्चर मे करीब 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करने के बाद खेतों में लगाएं।

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अरहर की फसल की निंदाई-गुडाईः

अरहर की फसल को खरपतवार से सुरक्षित रखने के लिए पहली निंदाई लगभग 20 से 25 दिनों के अंदर दे, फूल आने के बाद दूसरी निंदाई शुरू कर दें। खेतों में दो से तीन बार कोल्पा चलाने से अच्छी तरह से निंदाई की प्रक्रिया होती है।

तथा भूमि में अच्छी तरह से वायु संचार बना रहता है। फसल बोने के नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर का इस्तेमाल करे। नींदानाषक का इस्तेमाल करने के बाद नींदाई करीब 30 से 40 दिन के बाद करना आवश्यक होता है।

अरहर दाल की फसल की सिंचाईः

किसानों के अनुसार यदि सिंचाई की व्यवस्था पहले से ही उपलब्ध है, तो वहां एक सिंचाई फूल आने से पहले करनी चाहिए। 

तथा दूसरे सिंचाई की प्रक्रिया खेतों में फलिया की अवस्था बन जाने के बाद करनी चाहिए। इन सिंचाई द्वारा खेतों में फसल का उत्पादन बहुत अच्छा होता है।

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अरहर की फसल की सुरक्षा के तरीके:

कीटो से फसलों की सुरक्षा करने के लिए क्यूनाल फास या इन्डोसल्फान 35 ई0सी0, 20 एम0एल का इस्तेमाल करें। फ़सल की सुरक्षा के लिए आप क्यूनालफास, मोनोक्रोटोफास आदि को पानी में घोलकर खेतों में छिड़काव कर सकते हैं।

इन प्रतिक्रियाओं को अपनाने से खेत कीटो से पूरी तरह से सुरक्षित रहते हैं। दोस्तों हम उम्मीद करते हैं, कि आपको हमारा या आर्टिकल अरहर पसंद आया होगा। 

हमारे इस आर्टिकल में अरहर से जुड़ी सभी प्रकार की आवश्यक जानकारियां मौजूद हैं। जो आपके बहुत काम आ सकती है। 

यदि आप हमारी दी गई जानकारियों से संतुष्ट है तो हमारे इस आर्टिकल को ज्यादा से ज्यादा अपने दोस्तों के साथ और सोशल मीडिया पर शेयर करें। धन्यवाद।

फरवरी माह में भिंडी की इन किस्मों का करें उत्पादन मिलेगा बेहतरीन लाभ

फरवरी माह में भिंडी की इन किस्मों का करें उत्पादन मिलेगा बेहतरीन लाभ

फरवरी का महीना चल रहा है और इस माह में किसानों को अपनी आय को बढ़ाने के लिए भिंडी की इन टॉप 5 उन्नत किस्मों की खेती करनी चाहिए। जो कम वक्त में शानदार उपज देने में सक्षम हैं। भिंडी की यह किस्में अर्का अनामिका, पंजाब पद्मिनी, अर्का अभय, पूसा सावनी और परभनी क्रांति है। किसान अपनी आय को बढ़ाने के लिए खेत में सीजन के मुताबिक फल व सब्जियों का उत्पादन करते हैं। इसी कड़ी में आज हम देश के कृषकों के लिए भिंडी की टॉप 5 उन्नत किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं। हम जिन भिंडी की उन्नत किस्मों की बात कर रहे हैं, वह पूसा सावनी, परभनी क्रांति, अर्का अनामिका, पंजाब पद्मिनी और अर्का अभय किस्म है।

ये समस्त किस्में कम वक्त में शानदार उपज देने में सक्षम हैं। बतादें, कि भिंडी की इन किस्मों की बाजार में वर्षभर मांग बनी रहती है। भारत के कई राज्यों में भिंडी की इन किस्मों का उत्पादन किया जाता है। भिंडी की इन टॉप 5 उन्नत किस्मों में विटामिन,फाइबर, एंटीऑक्सीडेंट और मिनरल्स के साथ-साथ मैग्नीशियम, फास्फोरस, आयरन, कैल्शियम और पोटैशियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है।

भिंडी की शानदार 5 उन्नत किस्में निम्नलिखित हैं 

भिंडी की पूसा सावनी किस्म - भिंडी की यह उन्नत किस्म गर्मी, ठंड और बारिश के मौसम में सुगमता से उत्पादित की जा सकती है। भिंडी की पूसा सावनी किस्म बारिश के मौसम में लगभग 60 से 65 दिन के समयांतराल में तैयार हो जाती है। 

भिंडी की परभनी क्रांति किस्म- भिंडी की इस किस्म को पीता-रोग का प्रतिरोध माना जाता है। अगर किसान इनके बीज खेती में लगाते हैं, तो यह करीब 50 दिनों के समयांतराल पर ही फल देने लगते हैं। बतादें, कि परभनी क्रांति किस्म की भिंडी गहरे हरे रंग की होती है। साथ ही, इसकी लंबाई 15-18 सेमी तक की होती है।

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भिंडी की अर्का अनामिका किस्म- यह किस्म येलोवेन मोजेक विषाणु रोग से लड़ने में काफी सक्षम है। इस किस्म की भिंडी में रोए नहीं पाए जाते। साथ ही, इसके फल काफी ज्यादा मुलायम होते हैं। भिंडी की यह किस्म गर्मी और बारिश दोनों ही सीजन में शानदार उत्पादन देने में सक्षम है।

भिंडी की पंजाब पद्मिनी किस्म- भिंडी की इस किस्म को पंजाब विश्वविद्यालय के द्वारा विकसित किया गया है। इस किस्म की भिंडी एक दम सीधी और चिकनी होती है। साथ ही, यदि हम इसके रंग की बात करें, तो यह भिंडी गहरे रंग की होती है।

भिंडी की अर्का अभय किस्म- यह किस्म येलोवेन मोजेक विषाणु रोग से लड़ने में सक्षम है। भिंडी की अर्का अभय किस्म खेत में लगाने से कुछ ही दिनों में अच्छा उत्पादन देती है। इस किस्म की भिंडी के पौधे 120-150 सेमी लंबे और सीधे होते हैं।

मसूर की फसल में रोग एवं कीट नियंत्रण की जानकारी

मसूर की फसल में रोग एवं कीट नियंत्रण की जानकारी

मसूर एक ऐसी दलहनी फसल है, जिसकी खेती भारत के लगभग सभी राज्यों में की जाती है । मसूर दोमट एवं भारी मिट्टी में होने वाली दलहनी फसल है। इसे बरसात के दिनों में संरक्षित नमी में ही किया जा सकता है। इसकी बिजाई मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर तक की जा सकती है। चावल के साथ अरहर के बाद प्रयोग में लाई जाने वाली यह प्रमुख दलहन है।  मसूर की में मेहनत व लागत दोनों कम लगती हैं। इसकी खेती धान के खाली पड़े खेतों या परती जमीन में भी की जा सकती है। राजस्थान में बाजारा की कटाई के बाद इसकी फसल लगाई जाती है। मसूर की खेती के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 बार जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए। अगर रोटावेटर या पावर हैरो से जुताई की जा रही है, तो 1 बार जुताई करना ही काफी होता है।  मसूर की समय से बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 40-60 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। बोआई समय से न करने की हालत में 65-80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है। बीज को खेत में बोने से पहले उपचारित किया जाना जरूरी होता है। मसूर बीज का उपचार राइजोबियम कल्चर से किया जाना ज्यादा सही होता है। 10 किलोग्राम बीज के उपचार के लिए 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर की जरूरत पड़ती है। किसी खेत में मसूर की खेती पहली बार की जा रही हो, तो बीजोपचार से पहले बीज का रासायनिक उपचार भी किया जाना चाहिए। चूंकि मसूर की जड़ों में राइजोबियम गांठें होती हैं, इसलिए इस की फसल में ज्यादा उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर सामान्य तरीके से खाली खेत में मसूर की बोआई की जा रही हो, तो प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 20 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करना चाहिए। अगर धान की कटाई के बाद खेत में मसूर की बोआई करनी है, तो 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से टापड्रेसिंग करना चाहिए। इसके बाद 30 किलोग्राम फास्फोरस का छिड़काव 2 बार फूल आने पर व फलियां बनते समय करना चाहिए। ये भी पढ़े: घर पर करें बीजों का उपचार, सस्ती तकनीक से कमाएं अच्छा मुनाफा मसूर की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। अगर बोआई के समय नमी न हो तो फली बनते समय सिंचाई करनी चाहिए। इससे पहले फूल आने पर भी सिंचाई जरूरी होती है। मसूर की बोआई के 20-25 दिनों बाद खरपतवार निकाल देने चाहिए।

मसूर की फसल में रोग

masoor ki kheti मसूर की बोआई से पहले उस के बीज को 2.5 ग्राम थीरम या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा या 1 ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति किलोग्राम की बीज की दर से उपचारित करने पर बीमारियां लगने का खतरा काफी कम हो जाता है। फिर भी मसूर की फसल में अक्सर उकठा, गेरुई गलन रोग, ग्रीवा गलन व मूल विगलन रोग का असर दिखाई पड़ता है। ये भी पढ़े: अचानक कीट संक्रमण से 42 प्रतिशत आम की फसल हुई बर्बाद अगर खेत में उकठा या गेरुई रोग का प्रकोप हो तो मसूर की रोग प्रतिरोधी प्रजातियों जैसे नरेंद्र मसूर 1 जिसके पकने की अवधि 140 दिन व उत्पादन 22 कुंतल प्रति हैक्टेयर, पंत मसूर 4, पंत मसूर 5, डीपीएल 15, एल 4076, पूसा वैभव, के 75, एचयूएल 57, केएलएस 218, आईपीएल 406, शेखर 2 और 3, प्रिया, वैभव जैसी प्रजातियों की बोआई करनी चाहिए। अगर ग्रीवा गलन या मूल विगलन जैसे रोगों से फसल को बचाना है तो बीज का फफूंदनाशक से उपचार आवश्यक है। भूमि शोधन के लिए ट्राईकोडर्मा को गोबर की खाद में मिलाकार एक हफ्ते बाद खेत में डालें। खेत की गर्मी की गहरी जुताई करें। साथ ही जिस खेत में पिछले सालों में मसूरी की फसल ली गई है उसमें फसल न लगाएं। अन्यथा पूर्व का संक्रमण भी प्रभावी हो सकता है।

मसूर की फसल में कीट नियंत्रण

mahu keet podhe माहू कीट पौधे के कोमल भागों का रस चूस कर पौधे का विकास रोकता हैैै। वहीं फलीछेदक कीट फली के दानों को खा कर उत्पादन घटाता है। ऐसे में मिथाइल ओ डिमटोन 25 र्इ्सी की एक लीटर मात्रा, क्यूनालफास की 1 लीटर मात्रा या मेलाथियान 50 र्इ्सी की दो लीटर मात्रा का प्रति हैक्टेयर उचित पानी में मिलाकार ​छिड़काव करें। छिड़काव तीनों में से किसी एक दवा का करना है।

कटाई व भंडारण

  masur fali मसूर की फलियां जब सूख कर भूरे रंग की हो जाएं, तो फसल की कटाई कर के उस में अल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति मीट्रिक टन के हिसाब से डाल कर भंडारित करें।
कहां कराएं मिट्टी के नमूने की जांच

कहां कराएं मिट्टी के नमूने की जांच

जमीन की सेहत लगातार बिगड़ रही है।इसका प्रमुख कारण यह है कि किसान भाई पिछले कुछ दशकों में खेती में कार्बनिक खादों का प्रयोग बंद प्रायः कर चुके हैं। जमीन से लगातार फसलें ली जा रही हैं। दावेदार फैसले लेने से जमीन की उपज क्षमता लगातार प्रभावित हुई है। देश के हर राज्य में एवं जिला मुख्यालय स्तर पर मृदा नमूना जांचने के लिए प्रयोगशाला स्थापित है जहां किसान अपनी नमूने की जांच निशुल्क या अधिकतम 5-7 रुपए मैं करा सकते हैं। वेस्ट बंगाल में 48, उत्तराखंड में 44, यूपी में 180, त्रिपुरा में 21, तेलंगाना में 64, तमिलनाडु में 321, आंध्र प्रदेश में 951, पंजाब में 149 ,हरियाणा में 65 मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित हैं। देश के अन्य राज्यों में भी इसी तरह प्रयोगशाला स्थापित हैं।

 

जिला स्तर पर प्रयोगशाला कहां पर स्थित है उसकी जानकारी farmer.gov.in पोर्टल पर जाकर राज्यवार ली जा सकती है। इसके अलावा जिला मुख्यालय पर स्थित जिला कृषि अधिकारी एवं उप कृषि निदेशक कार्यालय तथा कृषि विज्ञान केंद्र के माध्यम से जानकारी लेकर नमूना दिया जा सकता है। इतना ही नहीं उर्वरक कंपनी इफको एवं क्रभको के केंद्रों पर भी म्रदा जांच की व्यवस्था कई जगह रहती है। भारत सरकार के फार्मर पोर्टल पर दिए गए विवरण के अनुसार देश में 3887 मृदा परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित हैं। मृदा परीक्षण के लिए कई इलाकों में प्राइवेट लोगों ने भी प्रयोगशाला स्थापित की हैं जहां 50 से ₹100 में मृदा नमूने की जांच कराई जा सकती है। 

अच्छे रोजगार का है माध्यम

मृदा परीक्षण का काम रोजगार के नजरिए से भी काफी अच्छा है। ₹25000 से ₹50000 के सेटअप के माध्यम से मृदा परीक्षण प्रयोगशाला शुरू की जा सकती है। पूसा संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित मृदा परीक्षण किट तकनीकी प्राइवेट कंपनियों को दी जा चुकी है । यह कंपनी एक छोटी सी किट गो मार्केट में उतार चुकी हैं। स्केट के माध्यम से दिन में 100 से 200 नमूनों की जांच की जा सकती है। 

सोयल हेल्थ कार्ड को लेकर भ्रम

सॉइल हेल्थ कार्ड किसी क्षेत्र विशेष में कृषि विभाग के लोगों द्वारा खुद-ब-खुद लिए गए नमूनों के आधार पर तैयार किए जाते हैं। इस कार्ड को बनाने के पीछे और नमूना लेने के पीछे सिर्फ यही उद्देश्य है के देश के हर गांव और क्षेत्र की मृदा में मौजूद तत्वों की स्थिति का पता सरकार को रहे। हर किसान को कार्ड देना इस स्कीम में सरकार का उद्देश्य नहीं है।

सरकार के प्रोत्साहन से हरियाणा के मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती की तरफ बढ़ी रुची

सरकार के प्रोत्साहन से हरियाणा के मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती की तरफ बढ़ी रुची

मोरनी क्षेत्र के कृषकों के लिए मशरूम की खेती वरदान सिद्ध होते दिख रही है। यहां के युवा भी मशरूम की खेती में अपनी तकदीर चमकाते दिखाई नजर रहे हैं। हरियाणा सरकार मशरूम की खेती के लिए अनुदान देकर कृषकों का होसला बुलंद कर रही है। पंचकूला जनपद के मोरनी इलाके के कृषकों के लिए मशरूम की खेती वरदान सिद्ध हो रही है। यहां के अधिकांश बेरोजगार युवा सरकार से अनुदान हांसिल कर मशरूम की खेती मे अपनी तकदीर चमका रहे हैं। मोरनी क्षेत्र के कृषकों के लिए सर्वाधिक मुनाफा इस खेती से हांसिल हो रहा है। यहां पर पहले किसान परंपरागत ढंग से खेती किया करते थे, जिसमें सरसों, तिल, गेंहू, टमाटर और मक्का के अतिरिक्त बाकी नकदी फसलें उगाई जाती थी। मगर जंगली जानवरों के  भय की वजह से ज्यादातर किसान इन फसलों को उगाना बंद करके मशरूम की खेती पर ज्यादा ध्यान देने लगे। हरियाणा सरकार भी अनुदान देकर कृषकों के हौसलों को बुलंद कर रही है। 

खेती के लिए सबसे उपयुक्त समय कौन-सा होता है 

मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती के लिए अनुकूल वक्त दिसंबर के प्रथम हफ्ते से शुरू होकर मार्च के आखिर तक होता है। इसी से जागरूक होकर मोरनी गांव के बहलों निवासी युद्ध सिंह परमार कौशिक ने मशरूम की खेती आरंभ कर दी, जिसमें उन्हें काफी शानदार मुनाफा मिलने की आशा है। हरियाणा के मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती के लिए अनुकूल वातावरण है। इस काम को करने के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता नहीं होती। किसान इसको छोटे से कमरे से भी चालू कर सकते हैं। इसके पश्चात सरकार द्वारा अनुदान लेकर बड़ा व्यवसाय भी आरंभ कर सकते हैं। 

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मशरूम उत्पादन का शानदार तरीका

कम्पोस्ट को निर्मित करने के लिए धान की पुआल को भिगोकर एक दिन पश्चात इसमें डीएपी, यूरिया, पोटाश, गेहूं का चोकर, जिप्सम तथा कार्बोफ्यूडोरन मिलाकर इसे सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। करीब डेढ़ माह के उपरांत कम्पोस्ट तैयार होता है। वर्तमान में गोबर की खाद और मिट्टी को बराबर मिलाकर लगभग डेढ़ इंच मोटी परत बिछाकर उस पर कम्पोस्ट की दो-तीन इंच मोटी परत चढ़ाई जाती है। इसमें नमी स्थिर बनी रहे, इसलिए स्प्रे से मशरूम पर दिन में दो से तीन बार छिड़काव किया जाता है। इसके ऊपर एक-दो इंच कम्पोस्ट की परत और चढ़ाई जाती है। इस प्रकार से मशरूम का उत्पादन आरंभ हो जाता है। 

सरकार कितना अनुदान प्रदान कर रही है 

सरकार ने मशरूम उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए जिन तीन योजनाओं पर अनुदान देने का निर्णय किया है, उसमें मशरूम उत्पादन इकाई, मशरूम स्पॉन इकाई और मशरूम कंपोस्ट उत्पादन इकाई शम्मिलित है। इन तीनों योजनाओं की समकुल लागत 55 लाख रुपये है। इसपर कृषकों को 50 प्रतिशत मतलब 27.50 लाख रुपये का अनुदान प्रदान किया जाता है। यदि किसान भिन्न-भिन्न योजनाओं का फायदा लेना चाहें तो इसकी भी छूट है। किसान किसी भी योजना का आसानी से चयन कर सकते हैं।
मूंगफली की इस किस्म की खेती करने वाले किसानों की बेहतरीन कमाई होगी

मूंगफली की इस किस्म की खेती करने वाले किसानों की बेहतरीन कमाई होगी

मूगंफली की किस्म डी.एच. 330 की खेती कम जल उपलब्धता वाले क्षेत्रों में भी की जा सकती है। मूंगफली की पैदावार मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में की जाती है। इन राज्यों में सूखे के कारण मूंगफली की पैदावार में किसानों के समक्ष काफी चुनौतियां आती हैं। यहां पर कम बारिश होने के कारण मूंगफली की कम पैदावार होती है। साथ ही, किसान भाइयों की कमाई भी कम होती है। ऐसी स्थिति में आज हम मूगंफली की प्रजाति डी.एच. 330 के विषय में जानकारी देने जा रहे हैं, जिसकी खेती के लिए कम पानी की जरूरत पड़ती है।

मूंगफली की बुवाई कब की जाती है

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि
मूंगफली की बुवाई जुलाई के माह में की जाती है। यह बिजाई के 30 से 40 दिन पश्चात अंकुरित होने लगती है। इसमें फूल निर्माण के उपरांत फलियां आने लगती हैं। यदि आपके क्षेत्र में कम बारिश एवं सूखे की संभावना बनी रहती है, तो इसकी उत्पादकता में गिरावट नहीं होगी। इसके लिए 180 से 200 एमएम की वर्षा काफी होती है।

मूंगफली की खेती के लिए मृदा की तैयारी

मृदा की तैयारी करने के लिए खेत की जुताई के पश्चात एक बार इसमें सिंचाई कर दें। बुवाई के उपरांत जब पौधों में फलियां आना शुरू हो जाऐं तो पौधों की जड़ों की चारों तरफ मिट्टी को चढ़ा दें। इससे फली की पैदावार अच्छी तरह से होती है। मृदा की तैयारी करना बेहतर फसल उत्पादकता के लिए काफी अहम होती है। यह भी पढ़ें: मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

मूंगफली का अच्छा उत्पादन कैसे प्राप्त करें

किसान मूंगफली का उत्पादन बढ़ाने के फसल की बुवाई के समय जैविक खाद का छिड़काव कर सकते हैं। इसके अरिरिक्त इंडोल एसिटिक को 100 लीटर पानी में मिला कर वक्त-वक्त पर फसल पर छिड़काव करते रहें। यह भी पढ़ें: मूंगफली की अच्छी पैदावार के लिए सफेद लट कीट की रोकथाम बेहद जरूरी है

मूंगफली की फसल में लगने वाले रोगों से बचाव

मूंगफली की फसल के अंतर्गत कॉलर रॉट रोग, टिक्का रोग एवं दीमक लगने की संभावना काफी अधिक रहती है। इसके लिए कार्बेंडाजिम, मैंकोजेब जैसे फफूंदनाशक एवं मैंगनीज कार्बामेट की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर 15 दिन के समयांतराल पर लगभग 4 से 5 बार छिड़काव करना चाहिए। किसान भाइयों को मूंगफली की इस किस्म डी.एच. 330 की बुवाई से बेहतरीन उत्पादन के लिए और किसी भी रोग से जुड़ी जानकारी हेतु कृषि विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों की सलाह अवश्य लें।
किसान भाई मूंगफली की इस किस्म की खेती कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं

किसान भाई मूंगफली की इस किस्म की खेती कर अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं

मूंगफली की डी.एच. 330 किस्म की खेती के लिए कम जल की जरूरत होती है। साथ ही, इसको तैयार होने में तकरीबन 4 से 5 महीने का वक्त लग जाता है। मूंगफली एक बेहद ही स्वादिष्ट एवं फायदेमंद फसल है।

भारत के तकरीबन प्रत्येक व्यक्ति को मूंगफली काफी पसंद होती है। भारत में मूंगफली का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य गुजरात है। उसके पश्चात महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और मध्य प्रदेश आते हैं।

यदि आप किसान भाई भी इसकी खेती कर बेहतरीन कमाई करने का सोच रहे हैं। तो आगे इस लेख में आज हम आपको इसकी खेती के विषय में जानकारी देंगे, जिसे अपनाकर आप केवल 4 माह में ही मूंगफली का बेहतरीन उत्पादन कर मोटी आय अर्जित कर सकते हैं।

मूंगफली की खेती का बेहतरीन तरीका

मूंगफली की उन्नत और शानदार खेती के लिए अच्छे बीज के साथ-साथ आधुनिक तकनीक की भी आवश्यकता होती है। मूंगफली की डी.एच. 330 फसल के लिए खेतों में तीन से चार बार जुताई करने के उपरांत ही बिजाई करनी होती है।

इसके उपरांत मृदा को एकसार करने के पश्चात खेत में आवश्यकता के हिसाब से जैविक खाद, उर्वरक एवं पोषक तत्वों को मिला देना चाहिए। डी.एच. 330 एक ऐसी प्रजाति की मूंगफली है, जिसे अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। 

खेत तैयार करने के उपरांत मूंगफली की बुवाई करनी चाहिए। आपको इस बात का खास ख्याल रखना चाहिए कि इसकी बेहतरीन पैदावार के लिए स्वस्थ बीजों का चुनाव करें।

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मूंगफली की खेती में सिंचाई बेहद आवश्यक है

मूंगफली की डी.एच. 330 की फसल को तैयार होने में कम बारिश की आवश्यकता होती है। इस वजह से इसे पानी बचाने वाली फसल के नाम से भी जाना जाता है। 

अगर आपके क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होने की संभावना रहती है, तो आप इस किस्म की खेती बिल्कुल भी ना करें। मूंगफली की फसल में पानी भरने से सड़ने का खतरा काफी बढ़ जाता है और कीड़े लगने का भी खतरा रहता है।

मूंगफली की फसल में जैविक कीटनाशक

डी.एच. 330 मूंगफली की फसल में अत्यधिक खरपतवार निकलने की संभावना बनी रहती है। अब ऐसी स्थिति में आप जैविक खाद के इस्तेमाल से अपनी पैदावार को अच्छा कर सकते हैं। 

मूंगफली की बिजाई के 25 से 30 दिन उपरांत खेतों में निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए। खेत में उत्पादित होने वाली घास को हटा दें। साथ ही, फसल को कीटों एवं रोगों से सुरक्षा के लिए माह में दो से तीन बार कीटनाशक का स्प्रे करते रहें।