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गाय

बन्नी नस्ल की भैंस देती है 15 लीटर दूध, जानिए इसके बारे में

बन्नी नस्ल की भैंस देती है 15 लीटर दूध, जानिए इसके बारे में

बन्नी भैंस पाकिस्तान के सिंध प्रान्त की किस्म है, जो भारत में गुजरात प्रांत में दुग्ध उत्पादन के लिए मुख्य रूप से पाली जाती है। बन्नी भैंस का पालन गुजरात के सिंध प्रांत की जनजाति मालधारी करती है। जो दूध की पैदावार के लिए इस जनजाति की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। बन्नी नस्ल की भैंस गुजरात राज्य के अंदर पाई जाती है। गुजरात राज्य के कच्छ जनपद में ज्यादा पाई जाने की वजह से इसे कच्छी भी कहा जाता है। यदि हम इस भैंस के दूसरे नाम ‘बन्नी’ के विषय में बात करें तो यह गुजरात राज्य के कच्छ जनपद की एक चरवाहा जनजाति के नाम पर है। इस जनजाति को मालधारी जनजाति के नाम से भी जाना जाता है। यह भैंस इस समुदाय की रीढ़ भी कही जाती है।

भारत सरकार ने 2010 में इसे भैंसों की ग्यारहवीं अलग नस्ल का दर्जा हांसिल हुआ

बाजार में इस भैंस की कीमत 50 हजार से लेकर 1 लाख रुपये तक है। यदि इस भैंस की उत्पत्ति की बात की जाए तो यह भैंस पाकिस्तान के सिंध प्रान्त की नस्ल मानी जाती है। मालधारी नस्ल की यह भैंस विगत 500 सालों से इस प्रान्त की मालधारी जनजाति अथवा यहां शासन करने वाले लोगों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पशुधन के रूप में थी। पाकिस्तान में अब इस भूमि को बन्नी भूमि के नाम से जाना जाता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि भारत के अंदर साल 2010 में इसे भैंसों की ग्यारहवीं अलग नस्ल का दर्जा हांसिल हुआ था। इनकी शारीरिक विशेषताएं अथवा
दुग्ध उत्पादन की क्षमता भी बाकी भैंसों के मुकाबले में काफी अलग होती है। आप इस भैंस की पहचान कैसे करें।

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बन्नी भैंस की कितनी कीमत है

दूध उत्पादन क्षमता के लिए पशुपालकों में प्रसिद्ध बन्नी भैंस की ज्यादा कीमत के कारण भी बहुत सारे पशुपालक इसे खरीद नहीं पाते हैं। आपको बता दें एक बन्नी भैंस की कीमत 1 लाख रुपए से 3 लाख रुपए तक हो सकती है।

बन्नी भैंस की क्या खूबियां होती हैं

बन्नी भैंस का शरीर कॉम्पैक्ट, पच्चर आकार का होता है। इसके शरीर की लम्बाई 150 से 160 सेंटीमीटर तक हो होती है। इसकी पूंछ की लम्बाई 85 से 90 सेमी तक होती है। बतादें, कि नर बन्नी भैंसा का वजन 525-562 किलोग्राम तक होता है। मादा बन्नी भैंस का वजन लगभग 475-575 किलोग्राम तक होता है। यह भैंस काले रंग की होती है, लेकिन 5% तक भूरा रंग शामिल हो सकता है। निचले पैरों, माथे और पूंछ में सफ़ेद धब्बे होते हैं। बन्नी मादा भैंस के सींग ऊर्ध्वाधर दिशा में मुड़े हुए होते हैं। साथ ही कुछ प्रतिशत उलटे दोहरे गोलाई में होते हैं। नर बन्नी के सींग 70 प्रतिशत तक उल्टे एकल गोलाई में होते हैं। बन्नी भैंस औसतन 6000 लीटर वार्षिक दूध का उत्पादन करती है। वहीं, यह प्रतिदिन 10 से 18 लीटर दूध की पैदावार करती है। बन्नी भैंस साल में 290 से 295 दिनों तक दूध देती है।
अपने दुधारू पशुओं को पिलाएं सरसों का तेल, रहेंगे स्वस्थ व बढ़ेगी दूध देने की मात्रा

अपने दुधारू पशुओं को पिलाएं सरसों का तेल, रहेंगे स्वस्थ व बढ़ेगी दूध देने की मात्रा

पशुपालन या डेयरी व्यवसाय एक अच्छा व्यवसाय माना जाता है। पशुपालन करके लोग को अच्छा लाभ मिल रहा हैं। गाय भैंस के दूध से पनीर मक्खन आदि सामग्री बनती है, जिनका बाजार में काफी अच्छा पैसा मिलता है। कई बार आपके पशु बीमार हो जाते हैं, जिसके कारण उनमें दूध देने की क्षमता कम हो जाती है। आपका पशु स्वस्थ होगा तभी वह अच्छी मात्रा में दूध दे सकेगा। पशु के अच्छे स्वास्थ्य के लिए पशु के अच्छे आहार का होना जरूरी है।


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सरसों का तेल ऊर्जा बढ़ाने में सहायक

डॉक्टर के अनुसार, जब आपके पशु बीमार हो तो उन्हें सरसों का तेल पिलाना चाहिए। क्योंकि सरसों के तेल में वसा की मात्रा अधिक होती है  तथा वह उनके शरीर को पर्याप्त ऊर्जा व ताक़त प्रदान करती है‌।

पशुओं को कब देना चाहिए सरसों का तेल ?

गाय भैंस के बच्चे होने के बाद भी उन्हें सरसों का तेल पिलाया जा सकता है, जिससे कि उनके अंदर आई हुई कमजोरी को दूर किया जा सके। पशु चिकित्सकों के अनुसार, गर्मियों में पशुओं को सरसों का तेल पिलाना चाहिए, जिससे कि लू लगने की संभावना कम हो तथा उनमें लगातार ऊर्जा का संचार होता रहे। इसके अलावा, सर्दियों में भी पशुओं को सरसों का तेल पिलाया जा सकता है, जिससे कि उनके अंदर गर्मी बनी रहे।

पशुओं के दूध देने की बढ़ेगी क्षमता

सरसों का तेल पिलाने से पशुओं में पाचन प्रक्रिया दुरूश्त रहती है। इससे पशु को एक अच्छा आहार मिलता है। पशु का स्वास्थ्य सही रहता है तथा स्वस्थ दुधारू पशु, दूध भी अच्छी मात्रा में देते हैं।

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क्या पशुओं को रोज पिलाना चाहिए सरसों का तेल ?

पशु चिकित्सकों के अनुसार, रोज सरसों का तेल पिलाना पशुओं के लिए फायदेमंद नहीं होगा। पशुओ को सरसों का तेल तभी देना चाहिए जब वे अस्वस्थ हो, ताकि उनके अंदर ऊर्जा का संचार हो सके।

क्या गैस बनने पर भी पिलाना चाहिए सरसों का तेल ?

यदि आपके पशुओं के पेट में गैस बनी है, तो उन्हें सरसों का तेल अवश्य पिलाना चाहिए। सरसों का तेल पीने से उनका पाचन प्रक्रिया या डाइजेशन सही होगा, जिससे कि वह स्वस्थ रहेंगे।
रघुपत सिंह जी कृषि जगत से गायब हुई ५५ से अधिक सब्जियों को प्रचलन में ला ११ नेशनल अवार्ड हासिल किये

रघुपत सिंह जी कृषि जगत से गायब हुई ५५ से अधिक सब्जियों को प्रचलन में ला ११ नेशनल अवार्ड हासिल किये

उत्तर प्रदेश राज्य में मुरादाबाद जनपद के बिलारी निवासी किसान रघुपत सिंह जी ५५ से ज्यादा सब्जियों की गायब हो चुकी किस्मों को पुनः खेती की धारा में लाये। साथ ही १०० से अधिक नवीन किस्म की सब्जियां व वनस्पति की प्रजाति विकसित की हैं। 

इस सराहनीय कार्य को करते हुए उन्होंने ११ अवार्ड हासिल किये हैं, साथ ही केंद्र सरकार भी उनकी आभारी है। रघुपत ने एक अलग और रचनात्मक सोच को प्रदर्शित किया है, खेती को अलग तरह से करकर उससे अच्छा खासा सम्मान व धन दोनों अर्जित किया जा सकता है। 

जमीनी तौर पर गायब हो चुकी सब्जियों की प्रजातियों को पुनः अस्तित्व में ला दिया है, साथ ही किसानों के लिए आय के अवसरों की एक नई राह प्रदर्शित की है।

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रघुपत जी की दिनचर्या भी अन्य किसानों से बिलकुल भिन्न है व उनकी खेती करने का तरीका व सोच भी, क्योंकि वह असाधारण खेती करके कृषि जगत में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। 

रघुपत का कहना है कि उन्होंने सामान्य खेती प्रणाली की अपेक्षा गायब हो चुकी सब्जियों की किस्मों को विकसित करने की पहल की जिनका अस्तित्व पूर्ण रूप से समाप्त हो चुका था। रघुपत के इस सकारात्मक एवं सराहनीय कार्य से देशभर में उनको खूब सम्मान मिल रहा है।

रघुपत जी द्वारा विकसित किस्मों से क्या लाभ होगा ?

रघुपत जी द्वारा विकसित किस्मों से उन किसानों को बेहद लाभ होगा जो बड़े किसानों की भाँति पैदावार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए लघु किसानों को नए रास्तों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

रघुपत जी लगभग ३ लाख से ज्यादा किसानों को खेती के लाभ भी बता चुके हैं, देशभर में खेती से सम्बंधित समस्त संस्थान रघुपत जी के प्रसंशक हो चुके हैं। रघुपत जी खुद के द्वारा फसल का तैयार बीज आर्थिक रूप से कमजोर एवं छोटे किसानों तक पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। 

इसके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य यह है कि वह किसानों को अच्छा मुनाफा प्राप्त करने का जरिया दे सकें। लघु किसान इनके द्वारा विकसित बीजों की सहायता से अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं।

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रघुपत जी को विलुप्त हो चुकी सब्जियों की किस्मों को विकसित करने के लिए कितने अवार्ड मिले हैं ?

रघुपत जी अनेकों किसानों को फसल सम्बंधित प्रशिक्षण दे चुके हैं, साथ ही यह भी बताते हैं, कि किसान किस किस्म की फसल से कितना लाभ प्राप्त कर सकते हैं। किसानों को रघुपत द्वारा विकसित किस्मों का प्रयोग करना चाहिए, 

इससे जमीनी तौर पर गायब हो चुकी फसलों को दुबारा से अस्तित्व में आने का अवसर मिलेगा, साथ ही किसानों को भी बेहतर मुनाफा हासिल होगा। रघुपत जी ने कृषि जगत से गायब हो चुकी ५५ से ज्यादा सब्जियों को पुनः अस्तित्व में लाने के साथ साथ १०० से अधिक सब्जियों व वनस्पतियों की किस्म विकसित की हैं। 

रघुपत जी इस सराहनीय उपलब्धि के लिए कई पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। कृषि के क्षेत्र में रघुपत जैसे किसानों की बेहद आवश्यकता है।

एकीकृत कृषि प्रणाली से खेत को बना दिया टूरिज्म पॉइंट

एकीकृत कृषि प्रणाली से खेत को बना दिया टूरिज्म पॉइंट

इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम मॉडल (Integrated Farming System Model) यानी एकीकृत या समेकित कृषि प्रणाली मॉडल (ekeekrt ya samekit krshi pranaalee Model) को बिहार के एक नर्सरी एवं फार्म में नई दशा-दिशा मिली है। पटना के नौबतपुर के पास कराई गांव में पेशे से सिविल इंजीनियर किसान ने इंटीग्रेटेड फार्मिंग (INTEGRATED FARMING) को विलेज टूरिज्म (Village Tourism) में तब्दील कर लोगों का ध्यान खींचा है। कराई ग्रामीण पर्यटन प्राकृतिक पार्क नौबतपुर पटना बिहार (Karai Gramin Paryatan Prakritik Park, Naubatpur, Patna, Bihar) महज दो साल में क्षेत्र की खास पहचान बन चुका है।

लीज पर ली गई कुल 7 एकड़ भूमि पर खान-पान, मनोरंजन से लेकर इंटीग्रेटेड फार्मिंग के बारे में जानकारी जुटाकर प्रेरणा लेने के लिए काफी कुछ मौजूद है। एकीकृत कृषि प्रणाली से खेती किसानी को ग्रामीण पर्यटन (Village Tourism) का केंद्र बनाने के लिए सिविल इंजीनियर दीपक कुमार ने क्या कुछ जतन किए, इसके बारे में जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम (Integrated Farming System) यानी एकीकृत या समेकित कृषि प्रणाली (ekeekrt ya samekit krshi pranaalee) क्या है।

एकीकृत या समेकित कृषि प्रणाली (Integrated Farming System)

एकीकृत कृषि प्रणाली किसानी की वह पद्धति है जिसमे, कृषि के विभिन्न घटकों जैसे फसल पैदावार, पशु पालन, फल एवं साग-सब्जी पैदावार, मधुमक्खी पालन, कृषि वानिकी, मत्स्य पालन आदि तरीकों को एक दूसरे के पूरक बतौर समन्वित तरीके से उपयोग में लाया जाता है। इस पद्धति की खेती, प्रकृति के उसी चक्र की तरह कार्य करती है, जिस तरह प्रकृति के ये घटक एक दूसरे के पूरक होते हैं। 

इसमें घटकों को समेकित कर संसाधनों की क्षमता, उत्पादकता एवं लाभ प्रदान करने की क्षमता में वृद्धि स्वतः हो जाती है। इस प्रणाली की सबसे खास बात यह है कि इसमें भूमि, स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण का संतुलन भी सुरक्षित रहता है। हम बात कर रहे थे, बिहार में पटना जिले के नौबतपुर के नजदीकी गांव कराई की। यहां बिहार स्टेट हाउसिंग बोर्ड में कार्यरत सिविल इंजीनियर दीपक कुमार ने समेकित कृषि प्रणाली को विलेज टूरिज्म का रूप देकर कृषि आय के अतिरिक्त विकल्प का जरिया तलाशा है।

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सफलता की कहानी अब तक

जैसा कि हमने बताया कि, इंटीग्रेटेड फार्मिंग में खेती के घटकों को एक दूसरे के पूरक के रूप मेें उपयोग किया जाता है, इसी तर्ज पर इंजीनियर दीपक कुमार ने सफलता की इबारत दर्ज की है। उन्होंने अपनी पुश्तैनी जमीन बेचकर, पिछले साल 2 जून 2021 को 7 एकड़ लीज पर ली गई जमीन पर अपने सपनों की बुनियाद खड़ी की थी। बचपन से कृषि कार्य में रुचि रखने वाले दीपक कुमार इस भूमि पर समेकित कृषि के लिए अब तक 30 लाख रुपए खर्च कर चुके हैं। इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम के उदाहरण के लिए उनका फार्म अब इलाके के साथ ही, देश के अन्य किसान मित्रों के लिए आदर्श मॉडल बनकर उभर रहा है। उनके फार्म में कृषि संबंधी सभी तरह की फार्मिंग का लक्ष्य रखा गया है। 

इस मॉडल कृषि फार्म में बकरी, मुर्गा-मुर्गी, कड़कनाथ, मछली, बत्तख, श्वान, विलायती चूहों, विदेशी नस्ल के पिग, जापानी एवं सफेद बटेर संग सारस का लालन-पालन हो रहा है। मुख्य फसलों के लिए भी यहां स्थान सुरक्षित है। आपको बता दें प्रगतिशील कृषक दीपक कुमार ने इंटीग्रेटेड फार्मिंग के इन घटकों के जरिए ही विलेज टूरिज्म का विस्तार कर कृषि आमदनी का अतिरिक्त जरिया तलाशा है। मछली एवं सारस के पालन के लिए बनाए गए तालाब के पानी में टूरिस्ट या विजिटर्स नौकायन का लुत्फ ले सकते हैं।

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इसके अलावा यहां तैयार रेस्टॉरेंट में वे अपनी पसंद की प्रजाति के मुर्गा-मुर्गी और मछली के स्वाद का भी लुत्फ ले सकते हैं। इस फार्म के रेस्टॉरेंट में कड़कनाथ मुर्गे की चाहत विजिटर्स पूरी कर सकते हैं। इलाके के लोगों के लिए यह फार्म जन्मदिन जैसे छोटे- मोटे पारिवारिक कार्यक्रमों के साथ ही छुट्टी के दिन सैरगाह का बेहतरीन विकल्प बन गया है।

अगले साल से होगा मुनाफा

दीपक कुमार ने मेरीखेती से चर्चा के दौरान बताया, कि फिलहाल फार्म से होने वाली आय उसके रखरखाव में ही खर्च हो जाती है। इससे सतत लाभ हासिल करने के लिए उन्हें अभी और एक साल तक कड़ी मेहनत करनी होगी। नौकरी के कारण कम समय दे पाने की विवशता जताते हुए उन्होंने बताया कि पर्याप्त ध्यान न दिए जाने के कारण लाभ हासिल करने में देरी हुई, क्योंकि वे उतना ध्यान फार्म प्रबंधन पर नहीं दे पाते जितने की उसके लिए अनिवार्य दरकार है।

हालांकि वे गर्व से बताते हैं कि उनकी पत्नी उनके इस सपने को साकार करने में हर कदम पर साथ दे रही हैं। उन्होंने अन्य कृषकों को सलाह देते हुए कहा कि जितना उन्होंने निवेश किया है, उतने मेंं दूसरे किसान लगन से मेहनत कर एकीकृत किसानी के प्रत्येक घटक से लाखों रुपए की कमाई प्राप्त कर सकते हैं।

इनका सहयोग

उन्होंने बताया कि वेटनरी कॉलेज पटना के वीसी एवं डॉक्टर पंकज से उनको समेकित कृषि के बारे में समय-समय पर बेशकीमती सलाह प्राप्त हुई, जिससे उनके लिए मंजिल आसान होती गई। वे बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट पर उन्होंने किसी और से किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं जुटाई है एवं अपने स्तर पर ही आवश्यक धन राशि का प्रबंध किया।

युवाओं को जोड़ने की इच्छा

समेकित कृषि को अपनाने का कारण वे बेरोजगारी का समाधान मानते हैं। उनका मानना है कि ऐसे प्रोजेक्ट्स के कारण इलाके के बेरोजगारों को आमदनी का जरिया भी प्राप्त हो सकेगा।

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नए प्रयोग

आधार स्थापना के साथ ही अब दीपक कुमार के कृषि फार्म पर गोबर गैस प्लांट ने काम करना शुरू कर दिया है। उन्होंने बताया कि उनके फार्म पर गाय, बकरी, भैंस, सभी पशुओं के प्रिय आहार, सौ फीसदी से भी अधिक प्रोटीन से भरपूर अजोला की भी खेती की जा रही है। इस चारा आहार से पशु की क्षमता में वृद्धि होती है।

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आपको बता दें अजोला घास जिसे मच्छर फर्न (Mosquito ferns) भी कहा जाता है, जल की सतह पर तैरने वाला फर्न है। अजोला अथवा एजोला (Azolla) छोटे-छोटे समूह में गठित हरे रंग के गुच्छों में जल में पनपता है। जैव उर्वरक के अलावा यह कुक्कुट, मछली और पशुओं का पसंदीदा चारा भी है। इसके अलावा समेकित कृषि प्रणाली आधारित कृषि फार्म में हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) तकनीक द्वारा निर्मित हरा चारा तैयार किया जा रहा है। 

इसमेें गेहूं, मक्का का चारा तैयार होता है। आठ से दस दिन की इस प्रक्रिया के उपरांत चारा तैयार हो जाता है। अनुकूल परिस्थितियों में हाइड्रोपोनिक्स चारे में 9 दिन में 25 से 30 सेंटीमीटर तक वृद्धि दर्ज हो जाती है। इस स्पेशल कैटल डाइट में प्रोटीन और पाचन योग्य ऊर्जा का प्रचुर भंडार मौजूद है। उनके अनुभव से वे बताते हैं कि इस प्रक्रिया में लगने वाला एक किलो गेहूं या मक्का तैयार होने के बाद दस किलो के बराबर हो जाता है। अल्प लागत में प्रोटीन से भरपूर तैयार यह चारा फार्म में पल रहे प्रत्येक जीव के जीवन चक्र में प्राकृतिक रूप से कारगर भूमिका निभाता है।

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हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) अर्थात जल संवर्धन विधि से हरा चारा तैयार करने में मिट्टी की जरूरत नहीं होती। इसे केवल पानी की मदद से अनाज उगाकर निर्मित किया जा सकता है। इस विधि से निर्मित चारे को ही हाइड्रोपोनिक्स चारा कहते हैं। यदि आप भी इस फार्म के आसपास से यदि गुजर रहे हों तो यहां समेकित कृषि प्रणाली में पलने बढ़ने वाले जीवों और उनके जीवन चक्र को समझ सकते हैं। 

अन्य कृषि मित्र इस तरह की खेती से अपने दीर्घकालिक लाभ का प्रबंध कर सकते हैं। (फार्म संचालक दीपक कुमार द्वारा दूरभाष संपर्क पर दी गई जानकारी पर आधारित, आप इस फार्म के बारे में फेसबुक लिंक पर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।) 

संपर्क नंबर - 8797538129, दीपक कुमार 

फेसबुक लिंक- https://m.facebook.com/Karai-Gramin-Paryatan-Prakritik-Park-Naubatpur-Patna-Bihar-100700769021186/videos/1087392402043515/

यूट्यूब लिंक-https://youtube.com/channel/UCfpLYOf4A0VHhH406C4gJ0A

भारत में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय का दुग्ध उत्पादन में पहला स्थान

भारत में पाई जाने वाली इस नस्ल की गाय का दुग्ध उत्पादन में पहला स्थान

भारत के अंदर विभिन्न प्रकार की गायों की नस्लें पाई जाती हैं। कृषि के साथ-साथ पशुपालन किसानों की आय बढ़ाने में काफी सहयोगी भूमिका अदा करता है। 

पशुपालकों के लिए गाय पालन उनकी आय को बढ़ाने के लिए सबसे अच्छा स्त्रोत माना जाता है। अब ऐसे में पशुपालन करने वाले किसानों को गाय की अच्छी नस्ल का चयन करना महत्वपूर्ण होता है। 

इसलिए आज के इस लेख में हम आपको गाय की ऐसी नस्ल की जानकारी देंगे जो कि सबसे ज्यादा दूध देती है। दरअसल, हम आज आपको बताऐंगे गाय साहीवाल नस्ल (Sahiwal Breed Cow) के बारे में। 

वैज्ञानिक ब्रीडिंग के माध्यम से देसी गायों की नस्ल में सुधार कर उन्हें साहीवाल नस्ल में परिवर्तित किया जा रहा है। हरियाणा राज्य के अंदर बड़ी संख्या में इस नस्ल की गाय होती हैं। वहीं, पंजाब और राजस्थान में भी साहीवाल पशुओं के लिए कुछ गौशालाएं तैयार की गई हैं।

साहीवाल नस्ल की किस प्रकार जान-पहचान की जाती है

दुधारू गाय की साहीवाल नस्ल की गायों का सिर चौड़ा, सींग छोटे और मोटे साथ ही शरीर मध्यम आकार का होता है। गर्दन के नीचे लटकती हुई भारी चमड़ी और भारी लेवा होता है। 

साहीवाल गायों का रंग अधिकतर लाल और गहरे भूरे रंग का होता है। इस नस्ल की कुछ गायों के शरीर पर सफेद चमकदार धब्बे भी पाए जाते हैं। 

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इस नस्ल के वयस्क बैल का औसतन भार 450 से 500 किलो और मादा गाय का वजन 300-400 किलोग्राम तक हो सकता है। बैल की पीठ पर बड़ा कूबड़ जिसकी ऊंचाई 136 सेमी तथा मादा की पीठ पर बने कूबड़ की ऊंचाई 120 सेमी के आसपास होती है।

पशुपालक यहां से शुद्ध नस्ल के पशु या गाय प्राप्त कर सकते हैं  

साहीवाल गाय अधिकतम उत्तरी भारत में पाई जाने वाली महत्वपूर्ण नस्ल है। बतादें, कि इसका उदगम स्थल पाकिस्तान पंजाब के मोंटगोमरी जिले और रावी नदी के आसपास का है। 

सबसे ज्यादा दूध देने वाली यह नस्ल पंजाब के फिरोजपुर और अमृतसर जैसे जनपदों में पाई जाती है। वहीं, राजस्थान के श्री गंगानगर जिले में इस नस्ल की गाय हैं। 

वहीं, पंजाब में फिरोजपुर जिले के फाजिल्का और अबोहर कस्बों में शुद्ध साहीवाल गायों के झुंड के झुंड देखने को मिल जाएंगे।

साहीवाल गाय की विशेषताएं या खूबियां क्या-क्या हैं ?

साहीवाल (Sahiwal) नस्ल की गाय एक बार ब्याने पर 10 महीने तक दूध देती है। वहीं, दूध काल के दौरान ये गायें औसतन 2270 लीटर दूध देती हैं। यह प्रतिदिन 10 से 16 लीटर दूध देने की क्षमता रखती हैं। 

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साहीवाल गाय अन्य देशी गायों की अपेक्षा अधिक दूध देती हैं। इनके दूध में बाकी गायों के तुलनात्मक अधिक प्रोटीन और वसा मौजूद है।

साहीवाल गाय की प्रजनन प्रक्रिया क्या है ? 

गाय के पहले प्रजनन की अवस्था जन्म के 32-36 महीने में आती है। इसकी प्रजनन समयावधि में 15 महीने का समयांतराल होता है। 

गाय की देशी नस्ल होने की वजह से इसके रखरखाव और आहार पर भी अधिक खर्च करना नहीं पड़ता। यह नस्ल ज्यादा गर्म इलाकों में भी आसानी से रह सकती है। 

इनका शरीर बाहरी परजीवी के प्रति प्रतिरोधी होता है, जिससे इसे पालने में अधिक मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। 

साहीवाल गाय की कीमत कितनी होती है ?

साहीवाल गाय की कीमत (Sahiwal Cow Price) इसके दूध उत्पादन की क्षमता, उम्र, स्वास्थ्य इत्यादि पर निर्भर करती है। यदि अनुमानित तोर पर बात करें तो साहीवाल गाय तकरीबन 40 हजार से 60 हजार रुपए की कीमत के आसपास खरीदी जा सकती है।

गाय भैंस का बच्चा पेट में घूम जाए तो क्या करें किसान

गाय भैंस का बच्चा पेट में घूम जाए तो क्या करें किसान

गर्भित पशुओं में गर्भाशय का अपने लम्बे अक्ष पर घूम जाने को गर्भाशय में ऐंठन आना कहा जाता है। यह समस्या गाय भैंस में ज्यादा मिलती है। कभी-कभी घोड़ी, भेड़ तथा बकरी में भी यह परेशानी देखी जाती है। जो पशु पहले बच्चे दे चुके हैं उनमें इस बीमारी की सम्भावना अधिक होती है। यह समस्या गर्भावस्था की अन्तिम 2 माह में होने की ज्यादा सम्भावना होती है। इस दशा के होने पर पशु बहुत ही अधिक पीड़ा में होता है और तुरंत निवारण न होने पर पशु की मृत्यु हो सकती है। 

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 अन्य पशुओं की तुलना में गाय और भैंसों में गर्भाशय की शारीरिक रचना में अन्तर होने के अतिरिक्त गर्भित पशुओं के गर्भाशय का कम स्थिर होना इस दशा का मुख्य कारण है। गर्भाशय में अस्थिरता के कई कारण हो सकते हैं जैसे - पशु के उठने तथा बैठने दोनों ही दशाओं में शरीर का पिछला हिस्सा अधिक ऊॅचाई पर होता है और इस दशा में दूसरे पशु से धक्का लगने, फिसलने या गिरने पर गर्भाशय आसानी से घूम जाता है। बच्चे का गर्भाशय के दो में से किसी एक हार्न में होने के कारण भी गर्भाशय की स्थिरता कम रहती है और गर्भाशय आसानी से घूम जाता है। बच्चे के बहुत अधिक हलचल के कारण भी गर्भाशय में ऐंठन आ सकती है। गर्भित पशुओं का गर्भावस्था के अन्तिम महीनों में वाहन में लम्बी यात्रा, दूसरे पशुओं सेे झगड़ा, गिरना, कूदना, भागना इत्यादि भी गर्भाशय के घूम जाने के कारण हो सकते हैं। भैंसों का पानी या कीचड़ में लोटने की आदत भी गर्भाशय के घूम जाने का एक मुख्य कारण है। पशुओं के भोजन मेें पोषक तत्वों की कमी, पशुओं के रखने के स्थान का समतल न होना आदि भी इस समस्या के लिये उत्तरदायी हो सकता हैै। 

गर्भाशय में बच्चा घूमने से बचने के उपाय:

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लक्षण

जब गर्भाशय में बहुत कम डिग्री की ऐंठन होती है तो पशु में सामान्यतः कोई लक्षण नहीं मिलते हैं परंतु अधिक डिग्री होने पर कई प्रकार के लक्षण दिख सकते है। इस समस्या के चलते पशु के पेट में दर्द, भूख न लगना, जुगाली न करना तथा शरीर के ताप का गिर जाना, बार-बार उठना, बैठना तथा जमीन पर लोटना पैर खींचना अथवा पेट में लात मारना, बेचैन होना, ब्याने के लिए जोर लगाना इत्यादि दिक्कतें आमतौर पर दिखती हैं। गर्भावस्था के पूर्ण होने पर भी बच्चा न होना तथा योनी से किसी प्रकार के द्रव्य का स्राव न होना इस दशा के लक्षण है। कभी-कभी दशा अधिक खराब होने पर या समय पर उपचार न होने पर पशु की मृत्यु भी हो जाती है। 

रोकथाम के उपाय

गर्भावस्था के अंतिम दिनों में गर्भित पशु को लम्बी यात्रा पर न जायें। गर्भित पशुओं को दूसरे पशुओं से अलग स्थान पर रखने की व्यवस्था करें। गर्भित पशु को रखने का स्थान समलत होना चाहिए। गर्भित पशु को गर्भावस्था के दौरान बहुत अधिक हलचल जैसे - कूदना, भागना इत्यादि न करने दें। भैंसों को गर्भावस्था के अंतिम दिनों में पानी या कीचड़ में न छोड़ें । गर्भित पशुओं को पोषक तत्वों से भरपूर संतुलित आहार दें। गर्भावस्था के अंतिम दिनों में बताये गये लक्षणों के दिखने पर बिना विलम्ब किये किसी पशु चिकित्सक को पशु दिखायें अथवा सलाह लें।

गाय भैंसों की देखभाल गर्मी के दिनों में कैसे करें (Taking care of cow & buffaloes in summer in Hindi)

गाय भैंसों की देखभाल गर्मी के दिनों में कैसे करें (Taking care of cow & buffaloes in summer in Hindi)

आज हम बात करेंगे, कि बेहद गर्मियों के मौसम में गाय और भैंसों की देखभाल किस तरह से करनी चाहिए। ताकि उनको गर्मी के मौसम में किसी भी तरह का कोई नुकसान ना हो सके और वह किसी भी प्रकार से रोग ग्रस्त ना हो। 

गाय भैंसों की देखभाल गर्मियों के मौसम में

पशुपालन के लिए गर्मी का मौसम बहुत ही नुकसानदायक होता है क्योंकि गर्मियों के मौसम में पशुओं की देखभाल करना बेहद मुश्किल हो जाता है। ऐसे में पशुपालन अपनी कमर कस लेते हैं और अपने पशुओं जैसे: गाय-भैंसों की देखभाल की स्थिति को बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रयास करते हैं ताकि वह गाय-भैंसों को इस भीषण गर्मी के तापमान से बचा सके। गर्मियों के मौसम में वातावरण का तापमान लगभग 42 - 48 °c सेल्सियस तक पहुंच जाता है कभी-कभी और ज्यादा भी हो सकता है। जिसके चलते गर्मी में पशुपालन करते समय पशुओं की विशेष रूप से देखभाल की जरुरत होती है।तापमान के इस दबाव के चलते पशुओं की पाचन प्रणाली तथा दूध उत्पादन में भी काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। जब यह पशु नवजात शिशु को जन्म देते हैं, और इस गर्मी के मौसम में उनकी ज़रा भी देखभाल में की गई कमी उनकी जान के लिए घातक साबित हो सकती है।थोड़ी भी लापरवाही नवजात शिशुओं की जान पर बन आती है।

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गर्मियों के मौसम में पशुओं की स्वास्थ्य की देखभाल

गर्मियों के मौसम में  किसी भी स्थिति में पशुओं के स्वास्थ्य के साथ की गई लापरवाही।उनके स्वास्थ्य पर काफी हानिकारक प्रभाव डालती है। जिसके चलते पशु पालन करने वालो का निर्यात का साधन भी बंद हो सकता है ऐसे में पशुपालन को चाहिए कि अपना निर्यात का साधन बनाए रखने के लिए पशुओं की खास देखभाल करें।पशुओं की खास देखभाल करने के लिए निम्न बातों का पूर्ण रुप से ध्यान रखे:

  • सर्वप्रथम पशु पालन करने वाले भाइयों को हरा चारा अधिक से अधिक गर्मियों के मौसम में गाय और भैंसों को देना चाहिए। क्योंकि गाय और भैंस इन हरे चारों को बहुत ही चाव से खाते हैं , हरे चारे में मौजूद 70 से 90% जल की पूर्ण मात्रा होती है जिससे पशुओं के शरीर में जल की पूर्ति होती है।
  • गर्मियों के मौसम में गाय भैंस और अन्य पशुओं को भूख कम लगती हैं अथवा प्यास ज्यादा लगती हैं। ऐसी स्थिति में पशुपालन को दिन में कम से कम 3 बार स्वच्छ और साफ सुथरा पानी गाय ,भैंसों को देना चाहिए। जिसे पीकर उनके शरीर का तापमान पूर्ण रूप से नियंत्रण में रहता है, कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार पानी में थोड़ा सा आटा व नमक मिलाकर पिलाना पशुओं के लिए उपयोगी होता है।शुष्क मौसम के लिए ऐसा करना लाभदायक होता है तथा शरीर में पानी की कमी को पूरा करता है।
  • पशुपालन गर्मियों के दिनों में अपने पशुओं को चारे में एमिनो पाउडर तथा ग्रो बी-प्लेक्स का मिश्रण देते हैं जो पशुओं के लिए बहुत ही उपयोगी होता है।
  • बढ़ती गर्मी के कारण पशुओं को भूख कम लगना शुरू हो जाती है ऐसी स्थिति में पशुपालन उनको ग्रोलिव फोर्ट (Grow live Forte) देते हैं। जिसे खाकर उनके शरीर में भोजन का पूर्ण निर्यात हो सके। गर्मियों के प्रभाव से पशुओं की पाचन प्रणाली पर काफी बुरा असर पड़ता है। ऐसे में ग्रोलिव फोर्ट पशुओं में खुराक की मात्रा को बढ़ाता है।
  • पशुओं से दूध प्राप्त करने के बाद उन्हें हो सके, तो ठंडा पानी पिलाएं ऐसा करने से उनके शरीर में ठंडक पहुंचेगी। तीन से चार बार पशुओं को ताजा ठंडा पानी पिलाना बहुत ही जरूरी है प्रतिदिन गर्मियों के मौसम में पशुपालन को अपने पशुओं को ठंडे पानी से स्नान कराना चाहिए।पशुपालन भैंसों को तीन से चार बार गर्मियों के दिनों मे स्नान कराते हैं तथा गायों को दो बार नहलाते हैं।
  • गर्मियों के मौसम में गाय भैंस आदि पशुओं को खाद पदार्थ जैसे रोटी, आटा ,चावल आदि पशुओं को नहीं खिलाना चाहिए।यह कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाले खाद्य पदार्थ हैं।पशुओं को संतुलित आहार के रूप में चारे तथा दाना जिसकी मात्रा 40 और 60 के बीच की हो आहार के रूप में दें।
  • आने वाली बरसात से पशुओं को बचाने के लिए उनका टीकाकरण जरूर कराएं। टीकाकरण कराने से पशु कई प्रकार की बीमारियां जैसे गलाघोंटू , खुरपका मुंहपका , लंगड़ी बुखार आदि से खुद का बचाव कर सकेंगे। समय-समय पर गाय भैंस पशुओं को एलेक्ट्रल एनर्जी की भी आवश्यकता होती है। ऐसे में इन को समय-समय पर आपको एलेक्ट्रल एनर्जी एनर्जी देनी होगी

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गर्मियों के दिनों में पशु आवास की व्यवस्था

  • गर्मियों के दिनों में गाय और भैंसों के लिए उचित आवास व्यवस्था करनी चाहिए , क्योंकि गर्मियों के दिनों में तापमान तेज होने के कारण भूमि पूरी तरह से गर्म रहती है जिसके चलते उनके शरीर पर काफी बुरा प्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में आपको कुछ सावधानी बरतनी चाहिए यह सावधानियां कुछ इस प्रकार हैं:
  • सर्वप्रथम गर्मियों के दिनों में गाय और भैंसों को हमेशा पेड़ की छांव के नीचे बांधना चाहिए जिससे उनका धूप से बचाव हो सके।
  • जिस भी जगह पर आप अपने पशुओं को बांधे उसकी छत पर आपको सूखी घास या फिर आपको कडबी रखनी चाहिए। ऐसा करने से छत को गर्म होने से पूरी तरह से रोका जा सकता है और छत का तापमान ठंडा रहेगा। पशुपालकों को पशुओं के आवास के लिए अपने पक्के मकानों में इस तरह की व्यवस्था करनी चाहिए।
  • जरूरत से ज्यादा आपको पशुओं को बांधकर नहीं रखना है। जैसे ही शाम होने लगे आपको पशुओं को चरने के लिए छोड़ देना है और जहां भी पशु आवास करते हैं। उन जगहों पर बोरे की छाल लगा देनी चाहिए जिससे कि ताजी और ठंडी हवा उन तक पहुंच सके।
  • यदि पशुपालन करने वाले पशुओं को छायादार वृक्षों के नजदीक पशुशाला का निर्माण करते हैं। तो इससे पशुओं का तापमान संतुलित बनाए रखने में सहायता मिलती हैं।
  • इन आसान तरीकों को अपनाकर नवजात पशु तथा गाय-भैंसों वह दुधारू पशुओं की उच्च ढंग से देखभाल की जा सकती है। तथा इन उपायों के अनुसार गर्मियों के भयानक प्रकोप से पशुओं का बचाया किया जा सकता है और उनसे विभिन्न प्रकार के उत्पादन की भी प्राप्ति की जा सकती है।

हमारी इस पोस्ट में गाय और भैंसों की देखभाल करने की पूर्ण जानकारी दी गई है। कि किस प्रकार गर्मियों के दिनों में उनकी खास देखभाल की जरूरत है ताकि उनको किसी भी तरह की कोई भी परेशानी ना हो और वह ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर सकें। यदि आपको हमारी दी हुई जानकारी अच्छी लगी हो, तो आप हमारी इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

दूध की नदियां बहाने वाला देश और सोने की चिड़िया उपनामों से विख्यात, भारत देश के अंग्रेजों के राज में इंडिया कंट्री बनने के बाद, देश में सनातन शिक्षा विधि, स्वास्थ्य रक्षा, कृषि तरीकों एवं सांस्कृतिक विरासत का व्यापक पतन हुआ है।

आलम यह है कि, कालगणना (कैलेंडर), ऋतु चक्र जैसे विज्ञान से दुनिया को परिचित कराने वाले देश में, आज गौ आधारित प्राकृतिक कृषि को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करना पड़ रहा है।

घर-घर गौपालन करने वाले भारत में सरकार को सार्वजनिक गौशाला बनाना पड़ रही हैं। पुरातन इतिहास में एक नहीं बल्कि ऐसे कई प्रमाण हैं कि कृषि प्रधान भारत में गौ आधारित कृषि को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया था। जैविक तरीकों की आधुनिक खेती में अब गौवंश के महत्व को स्वीकारते हुए, गौमूत्र एवं गाय के गोबर का प्रचुरता से उपयोग किया जा रहा है।

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सरकारें भी गौपालन के लिए नागरिक एवं कृषकों को प्रेरित कर रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो किसान एवं पंचायत समितियों से गौमूत्र एवं गाय का गोबर खरीदने तक की योजना को प्रदेश मे लागू कर दिया है।

क्यों पूजनीय है गौमाता

गौमाता के नाम से सम्मानित गाय को भारत में पूजनीय माना जाता है। हिंदू धर्म के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास मानकर गौमाता की पूजा अर्चना की जाती है। प्रमुख त्यौहारों खासकर दीपावली के दिन एवं अन्नकूुट पर गाय का विशिष्ट श्रृंगार कर पूजन करने का भारत में विधान है।

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हिंदू पूजन विधियों में गौमय (गोबर) तथा गोमूत्र को भारतीय पवित्र और बहुगुणी मानते हैं। गाय के गोबर से बने कंडों का हवन में उपयोग किया जाता है। वातावरण शुद्धि में इसके कारगर होने के अनेक प्रमाण हैं। अब तक अपठित सिंधु-सरस्वती सभ्यता में गौवंश संबंधी लाभों के अनेक प्रमाण मिले हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी एवं वैदिक सभ्यता में गौ आधारित किसानी से स्पष्ट है कि भारत में गौ आधारित कृषि कितनी महत्वपूर्ण रही है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़े अब तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार इस सभ्यता काल में मानव बस्तियों के साथ खेत, अनाज की प्रजातियों आदि के बारे में कृषकों ने काफी तरक्की कर ली थी। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़ी अब तक प्राप्त हुई मुद्राओं में बैल के चित्र अंकित हैं। इससे इस कालखंड में गाय-बैल के महत्व को समझा जा सकता है।

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खेत, जानवर, गाड़ी/ गाड़ी चालक, यव (बार्ली), चलनी, बीज आदि संबंधी चित्र भी इस दौर की कृषि पद्धति की कहानी बयान करते हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अब तक प्राप्त प्रमाणों में अनाज का संग्रह करने के लिये कोठार (भंडार) की भी पुष्टि हुई है। संस्कृत लिपि में प्रयोग में लाए जाने वाले लाङ्गल, सीर, फाल, सीता, परशु, सूर्प, कृषक, कृषीवल, वृषभ, गौ शब्द अपना इतिहास स्वयं बयान करने के लिए पर्याप्त हैं।

 वैदिक संस्कृत और आधुनिक फारसी में भी बहुत से साम्य हैं। फारसी में उच्चारित गो शब्द का मूल अर्थ गाय से ही है। मतलब गाय भारत में पनपी कई संस्कृतियों का अविभाज्य अंग रही है। गाय के गोबर का खेत में खाद, मकान की लिपाई-पुताई में उपयोग भारत में विधि नहीं बल्कि परंपरा का हिस्सा है। रसोई में चूल्हे को सुलगाने से लेकर पूजन हवन तक गाय के गोबर के कंडों की अपनी उपयोगिता है। गाय की उपयोगिता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि पुरातन कृषि मेें गौपालक को दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी का पौष्टिक आहार प्राप्त होता था वहीं खेती कार्य के लिए तगड़े बैल भी गाय से प्राप्त होते थे।

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खेत में हल जोतने, अनाज ढोने, गाड़ी खींचने के लिये बैलों का उपयोग पुराने समय से भारत में होता रहा है। खेत की सिंचाई के लिए रहट चलाने में भी बैलों की तैनाती रहती थी।

कभी चलता था 24 बैलों वाला हल गौवंश से मिली इंसान, शहर को पहचान कामधेनु करे इतनी कामनाओं की पूर्ति

24 बैलों वाला हल

कई हॉर्स पॉवर वाले आज के प्रचलित आधुनिक ट्रैक्टर का काम पुराने समय में बैल करते थे। पुरातन ग्रंथों में दो, छह, आठ, बारह, यहां तक कि, 24 बैलों वाले भारी भरकम हलों का भी उल्लेख है।

गाय के नाम अनेक

आपको अचरज होगा कि अनेक शब्दों, नामों का आधार गाय से संबंधित है। गोपाल, गोवर्धन, गौशाला, गोत्र, गोष्ठ, गौव्रज, गोवर्धन, गौधूलि वेला, गौमुख, गौग्रास, गौरस, गोचर, गोरखनाथ (शब्द अभी और शेष हैं) जैसे प्रतिष्ठित शब्दों की अपनी विशिष्ट पहचान है। उपरोक्त वर्णित शब्दों से उसकी प्रकृति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती है। जैसे गौधूली बेला से सूर्यास्त के समय का भान होता है, इसी तरह गाय के बछड़े को वसु कहा जाता है। इससे ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम वसुदेव रखा गया। हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार दीपावली के कुछ दिन पहले वसुबारस मनाकर गौवंश का पूजन कर पशुधन के प्रति कृतज्ञता जताई जाती है।

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ऋग्वेद काल में भी रथों में बैल जोतने का जिक्र है। मतलब गाय कृषक, कृषि के साथ ही ग्राम वासियों का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से सहयोगी रही है। गाय और बैल पुरातन काल से भारतीय जनजीवन का आधार रहे हैं। गाय की इन बहुआयामी उपयोगिताओं के कारण ही गौमाता को ‘कामधेनु’ भी कहा जाता है। मानव की इतनी सारी कामनाएं पूरी करने वाली बहुउपयोगी ‘कामधेनु’ (इच्छा पूर्ति करने वाली गाय) वर्तमान मशीनी युग (कलयुग) में और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।

गबरबंद

प्राचीन भारत में पानी रोकने के लिए मिट्टी पत्थर से बनाए जाने वाले गबरबन्द को बनाने में गोबर, मिट्टी, घासफूस का उपयोग किया जाता था। महाभारत में गायों की गिनती से संबंधित घोषयात्रा, गोग्रहण का भी उल्लेख है।

गौ अधारित खेती एवं फसल चक्र

भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम जहां गौवंश पर आधारित वसुदेव है, वहीं उनके भाई बलराम को ‘हलधर’ भी कहा जाता है। हल बलराम का अस्त्र नहीं, बल्कि कृषि कार्य में उपयोगी था। इससे उस कालखंड की खेती-किसानी के तरीकों का भी बोध होता है।

चक्र का महत्व समझिये

प्राचीन भारत में बैल गाड़ियों में प्रयुक्त होने पहिये, कुएं से पानी खींचने के लिये रहट में लगने वाला चक्र, कोल्हू के बैल की चक्राकार परिक्रमा के अपने-अपने महत्व हैं। मतलब कृषि की सुरक्षा में भी चक्र महत्वपूर्ण है। खेती के महत्वपूर्ण चक्र को काल या ऋतु चक्र कहा जाता है। 

 भारत के पूर्वज किसानों ने साल में मौसम के बदलाव के आधार पर फसल चक्र का तक निर्धारण कर लिया था। ऋतुचक्र के मुताबिक ही किसान रवि और खरीफ की फसल का निर्धारण करते आए हैं। बीज बोने, क्यारी बनाने आदि में गौवंश का उल्लेखनीय उपयोग होता आया है। गौ एवं पशु पालन के लिए भी ऋतु चक्र में पूर्वजों ने बहुमूल्य व्यवस्थाएं की थीं। फसल चक्र का खेती, कृषि पैदावार के साथ ही गौ एवं अन्य पशु पालन से पुराना बेजोड़ नाता रहा है।

गौ अधारित खेती

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में गौपालन, गोकुल और बृंदाबन से जुड़ी बातें गौपालन के महत्व को रेखांकित करती हैं। पुरातन व्यवस्था में पालतू गायों का दूध, दही, मक्खन जहां अर्थव्यवस्था की धुरी था वहीं खेती में भी गाय की भूमिका अतुलनीय रही है। मानव उदर पोषण हेतु अनाज की पूर्ति के लिए गौ एवं पशु-पालन के साथ खेती किसानी के मिश्रित प्रबंधन का भारत में इतिहास बहुत पुराना है। गाय-बैलों के पालन का प्रबंध, खाद बनाने में गौमूत्र एवं गोबर का उपयोग, बीजारोपण, सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण आदि के लिए भारतवासी पुरातनकाल से गौवंश का बखूबी उपयोग करते आए हैं।

गौशालाओं से होगी अच्छी कमाई, हरियाणा सरकार ने योजना बनाई

गौशालाओं से होगी अच्छी कमाई, हरियाणा सरकार ने योजना बनाई

हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने जनपद फतेहाबाद में स्थित स्वामी सदानंद प्रणामी गौ सेवा चैरिटेबल ट्रस्ट(Swami Sadanand Parnami Charitable Trust) के वार्षिक उत्सव में संबोधन के उपरांत "अपना घर" में रहने वाले दीनहीन बेसहारा लोगों से उनका दुःख दर्द एवं हाल चाल जाना। साथ ही गौ नस्ल की बेहतरी के वैज्ञानिक तरीकों को प्रचलन में लाने का आग्रह किया।

उपमुख्यमंत्री ने कहा कि गौशालाओं में गौवंश के संरक्षण एवं उसके मूत्र व गोबर से उत्पाद निर्मित करने की अत्यंत आवश्यकता है, जिससे गौशालाएं किसी पर निर्भर न रहें। इसी सन्दर्भ में उपमुख्यमंत्री द्वारा लाडवा की गौशाला का जिक्र करते हुए कहा है, कि वहां गोबर एवं मूत्र के प्रयोग से विभिन्न प्रकार के उत्पाद निर्मित किये जा रहे हैं, जो गौशालाओं की आय का स्त्रोत बन रहे हैं। इसी के मध्य चौटाला ने कहा कि गाय के गोबर से पेंट भी बनाया जा सकता है, जिसका पिंजौरा की एक गौशाला उत्तम उदाहरण है।

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हरियाणा राज्य के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने बताया कि समस्त सरकारी संस्थानों में गाय के गोबर से निर्मित पेंट का इस्तेमाल हो, इसके लिए वह हर संभव कोशिश करेंगे। उनकी इस पहल से और भी गौशालाओं को प्रोत्साहन मिलेगा, साथ साथ इसी तरह से गौशालाओं में बायोगैस प्लांट स्थापित कर रसोई गैस बनाई जा सकती है जो आय का प्रमुख स्त्रोत भी बन सकता है, बायोगैस प्लांट स्थापित करने के लिए हरियाणा सरकार सहयोग करेगी।

चौटाला ने की सोलर प्लांट लगवाने की घोषणा

हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने जनपद फतेहाबाद में स्तिथ स्वामी सदानंद प्रणामी गौ सेवा चैरिटेबल ट्रस्ट के वार्षिक उत्सव में संबोधन के उपरांत "अपना घर" में रहने वाले दीनहीन बेसहारा लोगों से उनका दुःख दर्द एवं हाल चाल जाना। आश्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आये दुष्यंत चौटाला ने रक्तदान शिविर में खुद रक्तदान किया एवं गौसेवा के साथ ही फतेहाबाद के स्वामी सदानंद गौ सेवा चैरिटेबल ट्रस्ट आश्रम में स्वयं कोष से सोलर प्लांट लगवाने का एलान किया। गौवंश को अच्छे तरीके से रखने के लिए राज्य सरकार सम्पूर्ण प्रयास करेगी।

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दीनहीन लोगों की सहायता कर सराहनीय कार्य किया जा रहा है।

वार्षिक उत्सव के दौरान हरियाणा उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने कहा है, कि संस्थान स्थापित करना बेहद सरल है जबकि, संस्थान को बेहतर तरीके से निरंतर चलाना बेहद कठिन है। श्रीकृष्ण प्रणामी आश्रम गौशाला के साथ-साथ ''अपना घर'' के माध्यम से दीनहीन व असहाय प्राणियों की सेवा की जा रही है। उन्होंने कहा कि गौ संरक्षण हेतु गौशाला निर्माण व वैज्ञानिक तरीकों से गायों की नस्ल बेहतरी के साथ दुग्ध उत्पादन में वृद्धि की अत्यंत आवश्यकता है। दुष्यंत चौटाला ने बताया, कि लगभग 40 वर्ष पूर्व गीर नस्ल के गौवंश को भारत से ही ब्राजिल ले जाया गया था। गीर नस्ल जो अब ब्राजील में ७० से ७२ लीटर तक रोजाना दूध देती हैं, एवं उन लोगों के आय का मुख्य स्त्रोत भी बनी है।

इन नस्लों की गायों का पालन करके किसान अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं

इन नस्लों की गायों का पालन करके किसान अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं

हमारे देश का किसान हमेशा से ही खेती के साथ मुनाफा कमाने के लिए पशुपालन भी करता आ रहा है। लेकिन कई किसानों को पता नहीं होता कि कौन से नस्ल के पशु चुनने होते हैं, ताकि वह उन से अच्छा मुनाफा कमा सके। 

ज्यादातर हमारे देश के किसान विदेशी नस्ल की गाय पालते हैं, ये गाय दूध तो ज्यादा देती है पर इन के दूध का रेट किसान को कम मिलता है। क्योंकि इन के दूध में फैट कम होता है और बीटा-कैसिइन A1 पाया जाता है, जो हमारे शरीर में कई बीमारियाँ उत्पन करता है। 

इसलिए आजकल लोगों का रुझान देसी गाय की तरफ हो रहा है। क्योंकि देसी गाय का दूध बहुत अच्छा होता है, इस में बीटा-कैसिइन A2 पाया जाता है और ये हमारे शरीर में ऊर्जा पैदा करता है। 

जिससे हम कम बीमार होते हैं, तभी आज कल देसी गाय के दूध का मूल्य 120 रूपये प्रति किलो हो गया है। इसलिए अगर किसान देसी नस्ल की गाय पालन करे तो उन का अच्छा मुनाफा हो सकता है।

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देसी गायों की प्रमुख नस्ले इस प्रकार हैं -

साहीवाल

ये नस्ल भारत की सब से ज्यादा दूध देने वाली देसी नस्ल है। इस का रंग लाल भूरे रंग से लेकर अधिक लाल तक हो सकता है। ये एक दिन में 18 लीटर तक दूध दे सकती है। 

दूध दुहते समय साहीवाल बहुत शांत होती है, इस की गर्मी सहनशीलता और उच्च दूध उत्पादन के कारण उन्हें अन्य एशियाई देशों के साथ-साथ अफ्रीका और कैरिबियन में निर्यात किया जाता है।

गिर

ये नस्ल गुजरात की नस्ल है। इस नस्ल की गाय बहुत सहनशील होती है और अच्छा दूध उत्पादन करती है। गिर दिखने में विशिष्ट है, आमतौर पर एक गोल और गुंबददार माथे, लंबे पेंडुलस कान और सींग जो बाहर और पीछे मुड़े होते हैं। 

गिर आमतौर पर लाल से लेकर पीले से लेकर सफेद तक के रंग के साथ धब्बेदार होते हैं। इस नस्ल की गायें रोग प्रतिरोधी होती हैं। गायों का वजन औसतन 385 किलोग्राम और ऊंचाई 130 सेमी होती है। 

140 सेमी की ऊंचाई के साथ बैल का वजन औसतन 545 किलोग्राम होता है। जन्म के समय बछड़ों का वजन लगभग 20 किलो होता है। इसके दूध में 4.5% फैट होता है और ये एक दिन में 15 से 16 लीटर तक दूध दे सकती है।

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देसी / हरियाणा

यह हरियाणा राज्य के रोहतक, करनाल, कुरुक्षेत्र, जींद, हिसार, भिवानी, चरखीदादरी और गुरुग्राम जिलों में ज्यादा मिलती है। मवेशी मध्यम से बड़े आकार के होते हैं और आम तौर पर सफेद से भूरे रंग के होते हैं। 

इसके दूध में फुर्ती बहुत होती है, ये गाय एक दिन में 10 - 15 लीटर तक दूध दे सकती है | इस नस्ल के बैल बहुत अच्छे बनते हैं, ये नस्ल गर्मी के मौसम में भी अच्छा दूध उत्पादन करती है। 

गाय का दूध विटामिन डी, पोटेशियम एवं कैल्शियम का अच्छा स्रोत है, जो कि हड्डियों की मजबूती के लिए जरूरी है। इसके साथ ही गाय के दूध में कैरोटीन भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह कैरोटीन मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता को 115 प्रतिशत तक बढ़ाता है। 

गाय का दूध, देशी घी को श्रेष्ठ स्रोत माना गया है, गौ, मूत्र, गैस, कब्ज, दमा, मोटापा, रक्तचाप, जोड़ों का दर्द, मधुमेह, कैंसर आदि अनेक बीमारियों की रोकथाम के लिए बहुत उपयोगी होता है। 

गाय के दूध में विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है, जो आँखों में होने वाले रतोंधी रोग की रोकथाम के लिए आवश्यक है। इसके साथ विटामिन बी 12 व राइबोफ्लेविन भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो हृदय को स्वस्थ रखने में सहायक होता है।

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थारपारकर

ये नस्ल राजस्थान, हरियाणा में ज्यादा पाली जाती है। इसका रंग सफेद होता है और लटकती हुई नाभि और गलकम्बल होता है। इस नस्ल की गाय दूध ज्यादा देती है। 

15 लीटर तक दूध एक दिन में देती है, माना जाता है कि ये गाय राजस्थान में थार का रेगिस्तान पार कर के आयी थी। इसलिए इस का नाम थारपारकर पड़ गया।

गंगातीरी गाय कहाँ पाई जाती है और किन विशेषताओं की वजह से जानी जाती है

गंगातीरी गाय कहाँ पाई जाती है और किन विशेषताओं की वजह से जानी जाती है

गंगातीरी गाय की अद्भुत विशेषता के विषय में जानकर आप भौंचक्के हो जाएंगे। यह एक दिन के अंदर दस लीटर से भी अधिक दूध प्रदान करती है। क्या आपने कभी गंगातीरी गाय के विषय में सुना है? यदि आप पशुपालन का व्यवसाय करते होंगे, तो इस गाय के संबंध में आपको भली भांति जानकारी है। दरअसल, यह गाय उत्तर प्रदेश एवं बिहार में काफी मशहूर है। इस गाय की विशेषता के संबंध में जानकर आप पूरी तरह से दंग रह जाएंगे। गंगातीरी गाय रखने वाले लोगों का कहना है, कि यह एक दिन में 10 से 16 लीटर तक दूध प्रदान करती है। इतना ही नहीं, इस गाय की और भी बहुत सारी विशेषताएं हैं, जिसके बारे में हम इस कहानी के जरिए से बताने जा रहे हैं। तो चलिए आज हम इस लेख में गंगातीरी गाय के संबंध में विस्तार पूर्वक जानें। 

गंगातीरी गाय के संबंध में विस्तृत जानकारी

इस प्रजाति की गाय कहाँ कहाँ पाई जाती है

गंगातीरी गाय एक प्रकार से देसी प्रजाति की गाय है। बतादें कि इस नस्ल की गायें अधिकांश उत्तर प्रदेश और बिहार के जनपदों में देखी जाती हैं। यह प्रमुख तौर पर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर और बलिया तो वहीं बिहार के रोहतास और भोजपुर जनपद के अंतर्गत पाई जाती हैं। उत्तर प्रदेश में गंगातीरी गायों की तादात तकरीबन 2 से 2.5 लाख रुपए तक है। यह गाय भी दूसरी आम गायों की भांति ही दिखती है। परंतु, इसे पहचानना काफी ज्यादा आसान रहता है। गंगातीरी नस्ल की गायें भूरे और सफेद रंग की होती हैं। 

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जानें इस गाय की पहचान किस प्रकार की जाती है

दरअसल, हम पहले भी बता चुके हैं, कि गंगातीरी गाय का रंग भूरा और सफेद होता है। इसके अतिरिक्त इन गायों के सिंघ छोटे व नुकीले होते हैं, जो कि दोनों तरफ से फैले होते हैं। वहीं, इस गाय के कान थोड़ी नीचे की ओर झुके होते हैं। इस प्रजाति के जो बैल होते हैं, उनकी ऊंचाई तकरीबन 142 सेन्टमीटर होती है। वहीं, गाय की ऊंचाई की बात की जाए तो 124 सेन्टीमीटर तक होती है।

गंगातीरी गायों का वजन तकरीबन 235-250 किलो तक रहता है। इस नस्ल की गायें बाजार में बेहद ही महंगी बिकती हैं। इनकी कीमत 40 से 60 हजार रुपये तक होती है। यहां ध्यान देने योग्य जो बात है, वह यह कि इन गायों का ख्याल थोड़ा ज्यादा रखने की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि, पर्याप्त आहार न मिलने की स्थिति में यह गायें बीमार भी हो सकती हैं। इस गाय के दूध में फैट तकरीबन 4.9 प्रतिशत तक पाया जाता है। इसका दूध साधारण गायों के मुकाबले ज्यादा कीमतों पर बिकता है।

जानें कांकरेज नस्ल की गाय की कीमत, पालन का तरीका और विशेषताओं के बारे में

जानें कांकरेज नस्ल की गाय की कीमत, पालन का तरीका और विशेषताओं के बारे में

भारत के अंदर बहुत सारी नस्लों की गाय पाई जाती हैं। प्रत्येक नस्ल की गाय की अपनी अपनी खूबियां होती हैं। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे कांकरेज नस्ल की गाय के बारे में। इस नस्ल की गाय राजस्थान और गुजरात में पाई जाती है, जो कि बहुत ही प्रसिद्ध गाय है। बतादें कि यह एक दिन में 10 से 15 लीटर दूध का उत्पादन करती है। कांकरेज गाय देशी नस्ल की गाय होती है। यह भारत के गुजरात एवं राजस्थान राज्य में पाई जाती है। यह गाय देश में अपनी दूध उत्पादन की क्षमता के लिए काफी मशहूर है। इस नस्ल की गाय दिन में 6 से 10 लीटर दूध देती है। कांकरेज नस्ल की गाय और बैल दोनों की ही बाजार में बहुत मांग है। बतादें कि इनका इस्तेमाल दूध के साथ-साथ कृषि कार्यों के लिए भी किया जाता है। इसे लोकल भाषा में बोनाई, तलबाडा, वागडिया, वागड़ और नागर आदि नामों से जाना जाता है। चलिए आज हम आपको कांकरेज नस्ल की इस गाय से संबंधित विशेषताओं के विषय में बताते हैं। 

कांकरेज गाय की कितनी कीमत होती है

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि इन गायों की कीमत बाजार में सामान्य तौर पर उम्र और नस्ल के आधार पर निर्धारित की जाती है। बाजार में इस गाय की कीमत 25 हजार रुपये से लेकर 75 हजार रुपये तक की है। बहुत सारे राज्यों में इसकी कीमत और भी अधिक होती है।

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कांकरेज गाय का किस प्रकार पालन किया जाता है

कांकरेज गायों को गर्भ के दौरान विशेष देखभाल की आवश्यकता पड़ती है। इस दौरान इसे रोगों से संरक्षण के लिए वक्त - वक्त पर टीकाकरण की आवश्यकता होती रहती है। इससे बछड़े बेहतर एवं स्वस्थ पैदा होते हैं। साथ ही, दूध की पैदावार भी काफी ज्यादा होती है। 

कांकरेज गाय की खासियतें

कांकरेज नस्ल की गायें एक महीने में औसतन 1730 लीटर तक दूध प्रदान करती है। इस गाय के दूध में वसा 2.9 और 4.2 प्रतिशत के मध्य विघमान रहता है। इसके वयस्क बच्चों की लंबाई 25 सेमी है, जबकि वयस्क बैल की औसत ऊंचाई 158 सेमी होती है। इन गायों का वजन 320 से 370 किलोग्राम तक होता है। कांकरेज नस्ल के मवेशी सिल्वर-ग्रे एवं आयरन ग्रे रंग के होते हैं। इसका खान-पान बेहद ही अच्छा होता है। इन गायों के लिए पर्याप्त चारे, पानी, खली और चोकर की बेहद जरूरत होती है।