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अब हरे चारे की खेती करने पर मिलेंगे 10 हजार रुपये प्रति एकड़, ऐसे करें आवेदन

अब हरे चारे की खेती करने पर मिलेंगे 10 हजार रुपये प्रति एकड़, ऐसे करें आवेदन

हरा चारा (green fodder) पशुओं के लिए महत्वपूर्ण आहार है, जिससे पशुओं के शरीर में पोषक तत्वों की कमी दूर होती है। इसके अलावा पशु ताकतवर भी होते हैं और इसका प्रभाव दुग्ध उत्पादन में भी पड़ता है। जो किसान अपने पशुओं को हरा चारा खिलाते हैं, उनके पशु स्वस्थ्य रहते हैं तथा उन पशुओं के दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है। हरे चारे की खेती करके किसान भाई अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं, क्योंकि इन दिनों गौशालाओं में हरे चारे की जबरदस्त डिमांड है, 

जहां किसान भाई हरे चारे को सप्प्लाई करके अपने लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी का प्रबंध कर सकते हैं। इन दिनों गावों में पशुपालन और दुग्ध उत्पादन एक व्यवसाय का रूप ले रहा है। ज्यादातर किसान इसमें हाथ आजमा रहे हैं, लेकिन किसानों द्वारा पशुओं के आहार पर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण पशुओं की दूध देने की क्षमता में कमी देखी जा रही है। इसलिए पशुओं के आहार के लिए हरा चारा बेहद मत्वपूर्ण हो जाता है, जिससे पशु सम्पूर्ण पोषण प्राप्त करते हैं और इससे दुग्ध उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी होती है। 

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हरे चारे की खेती ज्यादातर राज्यों में उचित मात्रा में होती है जो वहां के किसानों के पशुओं के लिए पर्याप्त है। लेकिन हरियाणा में हरे चारे की कमी महसूस की जा रही है, जिसके बाद राज्य सरकार ने हरे चारे की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए 'चारा-बिजाई योजना’ की शुरुआत की है। इस योजना के तहत किसानों को हरे चारे की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान हरे चारे की खेती करना प्रारम्भ करें। 

इस योजना के अंतर्गत सरकार हरे चारे की खेती करने पर किसानों को 10 हजार रुपये प्रति एकड़ की सब्सिडी प्रदान करेगी। यह राशि एक किसान के लिए अधिकतम एक लाख रुपये तक दी जा सकती है। यह सब्सिडी उन्हीं किसानों को मिलेगी जो अपनी जमीन में हरे चारे की खेती करके उत्पादित चारे को गौशालाओं को बेंचेंगे। इस योजना को लेकर हरियाणा सरकार के ऑफिसियल ट्विटर अकाउंट MyGovHaryana से ट्वीट करके जानकारी भी साझा की गई है। https://twitter.com/mygovharyana/status/1524060896783630336

हरियाणा सरकार ने बताया है कि यह सब्सिडी की स्कीम का फायदा सिर्फ उन्हीं किसानों को मिलेगा जो ये 3 अहर्ताएं पास करते हों :

  1. सब्सिडी का लाभ लेने वाले किसान को हरियाणा का मूल निवासी होना चाहिए।
  2. किसान को अपने खेत में हरे चारे के साथ सूखे चारे की भी खेती करनी होगी, इसके लिए उसको फॉर्म में अपनी सहमति देनी होगी।
  3. उगाया गया चारा नियमित रूप से गौशालाओं को बेंचना होगा।

जो भी किसान इन तीनों अहर्ताओं को पूर्ण करता है वो सब्सिडी पाने का पात्र होगा।

कौन-कौन से हरे चारे का उत्पादन कर सकता है किसान ?

दुधारू पशुओं के लिए बहुत से चारों की खेती भारत में की जाती है। इसमें से कुछ चारे सिर्फ कुछ महीनों के लिए ही उपलब्ध हो पाते हैं। जैसे कि ज्वार, लोबिया, मक्का और बाजरा वगैरह फसलों के चारे साल में 4-5 महीनों से ज्यादा नहीं टिकते। इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए ऐसे चारा की खेती की जरुरत है जो साल में हर समय उपलब्ध हो, ताकि पशुओं के लिए चारे के प्रबंध में कोई दिक्कत न आये। भारत में किसान भाई बरसीम, नेपियर घास और रिजका वगैरह लगाकर अपने पशुओं के लिए 10 से 12 महीने तक चारे का प्रबंध कर सकते हैं। 

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बरसीम (Berseem (Trifolium alexandrinum))  एक बेहतरीन चारा है जो सर्दियों से लेकर गर्मी शुरू होने तक किसान के खेत में उपलब्ध हो सकता है। यह चारा दुधारू पशुओं के लिए ख़ास महत्व रखता है क्योंकि इस चारे में लगभग 22 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पाई जाती है। इसके अलावा यह चारा बेहद पाचनशील होता है जिसके कारण पशुओं के दुग्ध उत्पादन में साफ़ फर्क देखा जा सकता है। इस चारे को पशुओं को देने से उन्हें अतिरिक्त पोषण की जरुरत नहीं होती। बरसीम के साथ ही अब भारत में नेपियर घास (Napier grass also known as Pennisetum purpureum (पेन्नीसेटम परप्यूरियम), elephant grass or Uganda grass) या हाथी घास  आ चुकी है। 

यह किसानों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रही है, क्योंकि यह मात्र 50 दिनों में तैयार हो जाती है। जिसके बाद इसे पशुओं को खिलाया जा सकता है। यह एक ऐसी घास है जो एक बार लगाने पर किसानों को 5 साल तक हरा चारा उपलब्ध करवाती रहती है, जिससे किसानों को बार-बार चारे की खेती करने की जरुरत नहीं पड़ती और न ही इसमें सिंचाई की जरुरत पड़ती है। नेपियर घास की यह विशेषता होती है कि इसकी एक बार कटाई करने के बाद, घास के पेड़ में फिर से शाखाएं निकलने लगती हैं। 

घास की एक बार कटाई के लगभग 40 दिनों बाद घास फिर से कटाई के लिए उपलब्ध हो जाती है। यह घास पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाती है। रिजका (rijka also called Lucerne or alfalfa (Medicago sativa) or purple medic) एक अलग तरह की घास है जिसमें बेहद कम सिंचाई की जरुरत होती है। यह घास किसानों को नवंबर माह से लेकर जून माह तक हरा चारा उपलब्ध करवा सकती है। इस घास को भी पशुओं को देने से उनके पोषण की जरुरत पूरी होती है और दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है।

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सब्सिडी प्राप्त करने के लिए आवेदन कहां करें

जो भी किसान भाई अपने खेत में हरा चारा उगाने के इच्छुक हैं उन्हें सरकार की ओर से 10 हजार रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से सब्सिडी प्रदान की जाएगी। इस योजना के अंतर्गत अप्प्लाई करने के लिए हरियाणा सरकार की ऑफिसयल वेबसाइट 'मेरी फसल मेरा ब्यौरा' पर जाएं और वहां पर ऑनलाइन माध्यम से आवेदन भरें। आवेदन भरते समय किसान अपने साथ आधार कार्ड, निवास प्रमाण पत्र, बैंक खाता डिटेल, आधार से लिंक मोबाइल नंबर और पासपोर्ट साइज का फोटो जरूर रखें। ये चीजों किसानों को फॉर्म के साथ अपलोड करनी होंगी, जिसके बाद अपने खेतों में हरे चारे की खेती करने वाले किसानों को सब्सिडी प्रदान कर दी जाएगी। सब्सिडी प्राप्त करने के बाद किसानों को अपने खेतों में उत्पादित चारा गौशालाओं को सप्प्लाई करना अनिवार्य होगा।

पशुपालन में इन 5 घास का इस्तेमाल करके जल्द ही हो सकते हैं मालामाल

पशुपालन में इन 5 घास का इस्तेमाल करके जल्द ही हो सकते हैं मालामाल

भारत दुनिया का सबसे बाद दुग्ध उत्पादक देश है। दुनिया में उत्पादित होने वाले कुल दूध का 24 फीसदी उत्पादन अकेले भारत में होता है। 

इस बीच भारत की बड़ी जनसंख्या की बढ़ती हुई मांग को देखते हुए सरकार लगातार पशुपालन को प्रोत्साहित कर रही है। ताकि देश में पशुओं से प्राप्त उत्पादों की पूर्ति की जा सके। इसके लिए सरकार समय-समय पर कई योजनाएं लॉन्च करती रहती है।

जिससे किसानों को फायदा होता है और देश में पशुपालन में बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन इन सब के बीच किसानों के लिए सबसे बड़ी समस्या पशु चारे को लेकर है, जिसके बिना पशुपालन संभव नहीं है। 

भारत में ऐसे कई पशुपालक या किसान हैं जो अपने पशुओं को उच्च गुणवत्ता वाला पशु चारा उपलब्ध नहीं करवा पाते जिसके कारण कई बार दुग्ध उत्पादन में कमी आती है और किसानों को इस व्यवसाय से अपेक्षाकृत कमाई नहीं हो पाती।

इसलिए आज हम ऐसे हरे चारे की किस्मों के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं जिनकी मदद से दुग्ध उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी, साथ ही पशुओं को अतिरिक्त पोषण मिलेगा जिससे पशु स्वस्थ्य रहेंगे और उन्हें किसी प्रकार का रोग नहीं होगा। 

नेपियर घास :

यह घास गन्ने की तरह दिखती है, जिसे हाथी घास के नाम से भी जाना जाता है। यह बेहद कम समय में उग जाती है, साथ ही यह पशुओं में दूध की क्षमता बढ़ाती है, जिससे इसे बेहतरीन पशु आहार कहा जाता है। 

नेपियर घास मात्र 2 माह में तैयार हो जाती है। इसको खाने के बाद पशु चुस्त और तंदुरुस्त रहते हैं। नेपियर घास हर तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है। इस घास की खेती में ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं होती है। 

इस घास को एक बार लगाने के बाद किसान अगले 4 से 5 साल तक हरा चारा ले सकते हैं, इस हिसाब से इस घास की खेती में ज्यादा लागत भी नहीं आती है। 

जिन भी किसानों के पास 4 से 5 पशु हैं वो आधा बीघा खेत में नेपियर घास को लगा सकते हैं। इसे खेतों की मेड़ पर भी लगाया जा सकता है। 

इस घास में प्रोटीन 8-10 फ़ीसदी, रेशा 30 फ़ीसदी और कैल्सियम 0.5 फ़ीसदी होता है। अगर इस घास को दलहनी चारे के साथ मिलाकर पशुओं को खिलाया जाए तो यह ज्यादा लाभकारी साबित होती है।

बरसीम घास :

बरसीम घास खाने से पशुओं का पाचन सबसे अच्छा रहता है, इसलिए किसान भाइयों को पशुओं के खाने में इसे जरूर मिलाना चाहिए। 

यह घास कैल्शियम और फास्फोरस जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होती है, इसलिए इसके सेवन से पशुओं के दूध देने की क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है। सबसे पहले इसकी खेती प्राचीन मिस्त्र में की जाती थी। 

भारत में इसका उत्पादन उन्नीसवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ है। वर्तमान में अमेरिका और यूरोप में पशु चारे के रूप में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है। भारत में यह घास मुख्यतः नवम्बर से मई तक उगाई जाती है। 

यह एक दलहनी फसल है, इसलिए इसकी खेती से मृदा की उर्वरता में वृद्धि होती है। बरसीम में प्रोटीन, रेशा, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस, सोडियम तथा पोटेशियम जैसे तत्व पाए जाते हैं।  

जिरका घास :

यह एक ऐसी घास है जिसको उगाने के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती। इसलिए इसकी खेती मुख्यतः राजस्थान, गुजरात मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में की जाती है। 

इस घास को पशुओं को खिलाने से उनका हाजमा सही रहता है, जिससे दूध उत्पादन में वृद्धि होती है। इसकी बुवाई अक्टूबर से नवंबर माह के बीच की जाती है। जो भी किसान अपने पशुओं में दूध का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं, वो अपने पशुओं को जिरका घास जरूर खिलाएं। 

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पैरा घास :

पैरा घास की खेती दलदली और अधिक नमी वाली जमीनों पर की जाती है। अगर खेतों में 2 से 3 फीट तक पानी भरा होता है तो यह घास तेजी के साथ बढ़ती है। बुवाई के 70 से 80 दिनों के बाद इस घास की पहली कटाई कर सकते हैं।

इसके बाद 35 से 40 दिनों बाद इसकी कटाई की जा सकती है। इस घास में 6 से 7 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इसके अलावा घास में 0.76 फीसदी कैल्शियम, 0.49 फीसदी फास्फोरस और 33.3 फीसदी रेशा होता है। 

यह घास करीब 5 मीटर ऊंचाई तक बढ़ सकती है। आमतौर पर पैरा घास की बुवाई मई से लेकर अगस्त के बीच की जाती है। 

इस घास के खेती नदी और तालाब के किनारे ऐसी जगह पर भी की जा सकती है जहां जुताई बुवाई संभव नहीं होती। पैरा घास की पहली कटाई बुवाई से 70 से 75 दिन बाद की जा सकती है। इसके बाद हर 35 दिन बाद इसकी कटाई की जा सकती है  

गिनी घास :

गिनी घास की खेती छायादार जगहों में की जाती है। भारत में मुख्य तौर पर इसकी खेती फलों के बागों में की जाती है। इस घास की खेती के लिए दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी गई है। 

इसकी बुवाई जून और जुलाई माह में की जाती है। बुवाई के समय इस घास की जड़ों की रोपाई की जाती है। इस इस की पहली कटाई बुवाई के 4 माह बाद की जाती है। 

इसके बाद हर 40 दिन में इस घास की कटाई की जा सकती है। गिनी घास पोषक तत्वों से भरपूर होती है, इसलिए इस घास को पशुओं को खिलाकर अच्छा खासा दुग्ध उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

पशुओं का दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए करे ये उपाय, होगा दोगुना फायदा

पशुओं का दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए करे ये उपाय, होगा दोगुना फायदा

किसान भाइयों आजकल दूध और दूध से बने पदार्थ की बहुत मांग रहती है। पशुपालन से किसानों को बहुत लाभ मिलता है। पशुपालन का असली लाभ तभी मिलता है जब उसका पशु पर्याप्त मात्रा में दूध दे और दूध में अच्छा फैट यानी वसा हो। 

क्योंकि बाजार में दूध वसा के आधार पर महंगा व सस्ता बिकता है। आइये जानते हैं कि पशुओं में दूध उत्पादन कैसे बढ़ाया जाये। 

 किसान भाइयों आपको अच्छी तरह से जान लेना चाहिये कि पशुओं में दूध उत्पादन उतना ही बढ़ाया जा सकता है जितना उस नस्ल का पशु दे सकता है।  

ऐसा ही फैट के साथ होता है। दूध में वसा यानी फैट की मात्रा पशु के नस्ल पर आधारित होती है। ये बातें आपको पशु खरीदते समय ध्यान रखनी होंगी और जैसी आपको जरूरत हो उसी तरह का पशु खरीदें।

दूध उत्पादन कम होने के कारण (Due to low milk production)

  1. संतुलित आहार की कमी होना।
  2. पशुओें की देखभाल में कमी होना।
  3. बच्चेदानी की खराबी व अन्य बीमारियों का होना
  4. टीके लगाने का साइड इफेक्ट होना
  5. चारा-पानी के प्रबंधन में कमी होना।

पशुओं की देखभाल कैसे करें

दुधारू पशु की देखभाल किसान भाइयों को 24 घंटे करनी चाहिये। कोई-कोई किसान भाई कहते हैं कि अपने पशुओं के चारे-दाने पर बहुत ज्यादा खर्च कर रहे हैं लेकिन फिर भी उनका दूध उत्पादन नहीं बढ़ता है।  

आपने किसी जानवर को दूध के हिसाब से 5 किलो सुबह और 5 किलो शाम दाना खिला दिया , उसके बाद भी दूध उत्पादन नहीं बढ़ता है। आपको दो समय की जगह पर उतनी ही मात्रा को चार बार देना है और समय-समय पर पानी का प्रबंध भी करना है।

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कैसा होना चाहिये पशुओं का संतुलित आहार

किसान भाइयों  आपको पशुओं की नस्ल, उनकी कद-काठी एवं दूध देने की क्षमता के अनुसार संतुलित आहार देना चाहिये। आइये जानते हैं कुछ खास बातें:-

  1. पशुओं के संतुलित आहार में, 60 प्रतिशत हरा चारा खिलाना चाहिये तथा 40 प्रतिशत सूखा चारा जिसमें दाना व खल भी शामिल है, खिलाना चाहिये।
  2. हरे चारे में घास, हरी फसल व बरसीम आदि देना चाहिये
  3. सूखे चारे में गेहूं, मक्का, ज्वार-बाजरा आदि का मिश्रण बनाकर भूसे के साथ देना चाहिये।
  4. पशुओं को दिन में 30 से 32 लीटर पानी देना चाहिये।
  5. पशुओं में दूध का उत्पादन बढ़ाने गाय को प्रतिदिन 5 किलो और भैंसको प्रतिदिन 10 किलो दाना खिलाना चाहिये।
  6. वैसे तो पशुओं को सुबह शाम सानी की जाती है लेकिन कोशिश करें कि कम से कम तीन बार तो आहार दें और कम से कम इतनी ही बार उन्हें पानी पिलायें।
  7. खली में सरसों ,अलसी व बिनौले की खली देना पशुओं के लिए उत्तम है। इससे दूध और उसका फैट बढ़ता है।

संतुलित आहार का मिश्रण कैसे तैयार करें

  1. गेहूं, जौ, बाजरा और मक्का का दानें से संतुलित आहार तैयार करें। आहार में दाने का हिस्सा 35 प्रतिशत रखना चाहिये।
  2. संतुलित आहार बनाते समय खली का विशेष ध्यान रखना चाहिये। क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग तरह की खली मिलती है। वैसे दूध की क्वालिटी अच्छी करने में सरसों की खली सबसे अच्छी मानी जाती है। यदि किसी क्षेत्र में सरसों की खली न मिले तो वहां पर मूंगफली की खली, अलसी की खली या बिनौला की खली का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। आहार में खली की मात्रा 30 प्रतिशत होनी चाहिये।
  3. चोकर या चूरी भी पशुओं के दूध बढ़ाने में बहुत सहायक हैं। चोकर या चूरी में गेहूं का चोकर,चना की चूरी, दालों की चूरी और राइस ब्रान आदि का प्रयोग संतुलित आहार में किया जाना चाहिये। आहार में चोकर या चूरी की मात्रा भी एक तिहाई रखनी चाहिये।
  4. खनिज लवण दो किलो या अन्य साधारण नमक एक किलो पशुओं को देने से उनका हाजमा सही रहता है तथा पानी भी अधिक पीते हैं। इससे उनके दूध उत्पादन की क्षमता में बढ़ोतरी होती है।
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मौसम के अनुसार करें पशुओं की देखभाल

हमारे देश में प्रमुख रूप से सर्दी, गर्मी और बरसात के मौसम होते हैं। इन मौसमों में पशुओं की देखभाल करनी जरूरी होती है।

  1. चाहे कोई सा मौसम हो पशुओं को स्वच्छ व ताजा पानी पिलाना चाहिये। ताजे पानी से वो पेट भर कर पानी पी लेगा। बासी व गंदा पानी पीने से अनेक तरह की बीमारियां होने का खतरा बना रहता है। सर्दियों में ठंडा बर्फीला और गर्मियों में गर्म पानी होने से पशु अपनी प्यास का आधा ही पानी पी पाता है। इससे उसके स्वास्थ्य को तो नुकसान होता ही है और उसके दुग्ध उत्पादन पर भी विपरीत असर पड़ता है।
  2. आवास का प्रबंधन करना होगा। गर्मियों में पशुओं को गर्मी के प्रकोप से बचाना होता है। उन्हें प्रचंड धूप व गर्म हवा लू से बचायें। धूप के समय उनको साये में बनी पशुशाला में रखें। उन्हें अधिक बार पानी पिलायें। पानी पर्याप्त मात्रा में हो तो दिन में एक बार उन्हें ताजे पानी से नहलायें। इससे उनके शरीर का तापमान सामान्य रहेगा और स्वस्थ रहकर दुग्ध उत्पादन बढ़ा पायेंगे।
  3. सर्दियों में पशुओं के आवास का विशेष प्रबंधन करना होता है। शाम को या जिस दिन अधिक सर्दी हो, तब उन्हें साये वाले पशुशाला में रखें। उनके शरीर पर बोरे की पल्ली ओढ़ायें। पशु शाला में थोड़ी देर के लिए आग जलायें। आग जलाते समय स्वयं मौजूद रहें। जब आपका कहीं जाना हो तो आग को बुझायें । यदि तसले आदि में आग जलाई हो तो वहां से हटा दें।

मौसम के अनुसार आहार पर भी दें ध्यान

मौसम के बदलाव के अनुसार पशुओं के आहार में भी बदलाव करना चाहिये। गर्मियों के मौसम में संतुलित आहार बनाते समय किसान भाइयों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वो अपने पशुओं को ऐसी कोई चीज न खिलायें जिसकी तासीर गर्म होती हो। इस समय गुड़ और बाजरे से परहेज करना चाहिये।

गर्मियों के मौसम का आहार

गर्मियों के लिए आहार में गेहूं, जौ, मक्के का दलिया,चने का खोल, मूंग का छिलका, चने की चूरी, सोयाबीन, उड़द, जौ, तारामीरा,आंवला और सेंधा नमक का मिश्रण तैयार करके पशुओं को देना चाहिये।

सर्दियों के मौसम का आहार

सर्दियों के मौसम के आहार में गेहूं, मक्का, बाजरा का दलिया, चने की चूरी, सोयाबीन, दाल की चूरी, हल्दी, खाद्य लवण व सादा नमक का मिश्रण तैयार करें। 

इसके अलावा सर्दियों के मौसम में गुड़ और सरसों का तेल भी दें। बाजरा और गुड़ का दलिया भी अलग से दे सकते हैं। यह ध्यान रहे कि यह दलिया केवल अधिक सर्दियों में ही दें। 

खास बात

पशुओं को खली देने के बारे में भी सावधानी बरतें। सर्दियों के समय हम खली को रात भर भिगोने के बाद पशुओं को देते हैं। गर्मियों में ऐसा नहीं करना चाहिये। सानी करने से मात्र दो-तीन घंटे पहले ही भिगो कर ही दें।

फैट्स बढ़ाने के तरीके

पशुओं में फैट्स उनकी नस्ल की सीमा से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता है। फिर भी कोई पशु अपनी नस्ल की सीमा से कम फैट देता है तो उसको बढ़ाने के लिए निम्न उपाय करें:-

  1. शाम को जब पशुओं को रात्रि विश्राम के लिए बांधा जाये तो उस समय 300 ग्राम सरसों के तेल को 300 ग्राम गेहूं के आटे में मिलाकर दें और उसके बाद पानी न दें।
  2. अच्छा फैट देने वाले किसान भाइयों को चाहिये कि वो दूध दुहने से दो घंटे पहले ही पानी पिलायें, उसके बाद नहीं । ऐसा करने से फैट बढ़ेगा।
  3. दूध दुहने से पहले बच्चे को पहले दूध पिलायें क्योंकि पहले वाले दूध में फैट कम होता है और बाद वाले दूध में फैट अधिक होता है। यदि आपका दुधारू पशु दस-12 लीटर दूध देता है तो उसको एक चौथाई दूध दुह कर बर्तन बदल लें। बाद में जो दूध दुहेंगे उसमें फैट पहले वाले से अधिक निकलेगा।

भारत में पहली बार जैविक कपास की किस्में हुईं विकसित, किसानों को कपास के बीजों की कमी से मिलेगा छुटकारा

भारत में पहली बार जैविक कपास की किस्में हुईं विकसित, किसानों को कपास के बीजों की कमी से मिलेगा छुटकारा

भारत कपास (cotton) के उत्पादन के मामले में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 53,34,000 मीट्रिक टन कपास का उत्पादन होता है, जिसका ज्यादातर हिस्सा भारतीय कपड़ा उद्योग में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा भारत सरकार कपास का निर्यात भी करती है। भारत कपास के निर्यात के मामले में दुनिया में शीर्ष स्थान रखता है। बांग्लादेश का कपड़ा उद्योग बहुत हद तक भारतीय कपास के ऊपर निर्भर है। भारत में कपास का उत्पादन ज्यादातर गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में किया जाता है। भारत सरकार कपास के उत्पादन में लगातार वृद्धि करने को लेकर प्रयासरत रहती है, ताकि सरकार ज्यादा से ज्यादा कपास का निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित कर सके, जिससे भारत का अन्य देशों के साथ व्यापारिक संतुलन बना रहे। लेकिन बहुत सालों से देखा जा रहा है कि भारत में कपास के अच्छे बीजों को लेकर किसानों के बीच संकट बना रहता है, इसलिए भारत सरकार ने इससे निपटने के लिए साल 2000 में कपास प्रौद्योगिकी मिशन शुरू किया था। इस मिशन के अंतर्गत एक लक्ष्य यह भी है कि किसानों की सहायता के लिए कपास अनुसंधान पर जोर दिया जाएगा तथा कपास के नए बीजों का निर्माण किया जाएगा, ताकि किसान कपास की उन्नत खेती कर सकें। इस योजना को कृषि एवं कपड़ा मंत्रालय द्वारा संयुक्त रूप से चलाया जाता है।

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साल दर साल इस मिशन के अंतर्गत भारत ने कपास के अनुसंधान में काफी प्रगति की है और ब्रीडिंग प्रोग्राम के परिणामस्वरूप कई नई किस्में विकसित की हैं, जो किसानों के लिए उत्पादन बढ़ाने में मददगार साबित हुईं हैं। अब कपास प्रौद्योगिकी मिशन के अंतर्गत वैज्ञानिकों ने दस साल से अधिक के ब्रीडिंग प्रोग्राम के परिणामस्वरूप पहली बार कपास की दो जैविक किस्में विकसित की हैं। वैज्ञानिकों द्वारा इन किस्मों का नाम आरवीजेके-एसजीएफ-1 (RVJK-SGF-1), आरवीजेके-एसजीएफ-2 (RVJK-SGF-2) बताया जा रहा है, जिन्हें हाल ही में किसानों को उपलब्ध करवाया गया है। यह कपास की पहली किस्में हैं जिन्हें पहली बार पूरी तरह से जैविक माध्यम से विकसित किया गया है और इनके पोषण के लिए भी पूरी तरह से जैविक परिस्थितियां उपलब्ध करवाई गई हैं। इन किस्मों को वैज्ञानिकों ने विशेष प्रजनन कार्यक्रम के तहत विकसित किया है, जिसमें FIBL स्विट्जरलैंड और अन्य लोगों का विशेष योगदान शामिल है। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीय बाजारों में इन दिनों निजी कंपनियों के आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीज उपलब्ध हैं, और किसान इन बीजों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं। ये आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्में अन्य किस्मों की शुद्धता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा हैं। अभी तक देश में पारंपरिक, गैर-जीएम बीज पर्याप्त मात्रा में विकसित नहीं हुए हैं। साथ ही ये पारम्परिक बीज किसानों की अपक्षाओं को भी पूरा नहीं करते हैं। यह एक बड़ी चुनौती है।

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इसलिए कृषि वैज्ञानिकों ने कपास के बीजों की इन दो नई किस्मों को विकसित किया है। फिलहाल इन बीजों को आधिकारिक तौर पर मध्य प्रदेश की राज्य बीज उप समिति द्वारा बाजार में किसानों के लिए उपलब्ध करवाया गया है। मध्य प्रदेश फ़िलहाल देश में सबसे ज्यादा जैविक कपास उगाने वाला राज्य है। कपास की जारी की गई ये दोनों जैविक किस्में उच्च गुणवत्ता युक्त हैं और औद्योगिक फाइबर गुणवत्ता की जरूरतों को पूरा करती हैं। इन बीजों के उत्पादन क्षमता भी सामान्य बीजों से ज्यादा है। यह सब देखते हुए राज्य बीज उप समिति ने इसी महीने इन दोनों किस्मों को स्वीकृति दी है।

कपास की नई जैविक किस्मों की विशेषताएं

जैविक कपास किस्म RVJK-SGF-1 में सामान्य कपास के मुकाबले 21.05 प्रतिशत ज्यादा उत्पादन देने की क्षमता है। इस किस्म के बीजों की फसल बुवाई के मात्र 144-160 दिनों बाद तैयार हो जाती है। अगर इस किस्म के फाइबर के लम्बाई की बात करें तो वो 28.77 मिमी के आस पास होती है, जबकि उच्च फाइबर शक्ति लगभग 27.12 ग्राम/टेक्स होती है। जैविक कपास किस्म RVJK-SGF-2 अन्य कपास की अपेक्षा अच्छी गुणवत्ता युक्त कपड़ा बनाने के लिए शानदार होती है। इसे कताई के लिए भी बेहतरीन माना जाता है। सामान्य फसल के मुकाबले 21.18% ज्यादा उत्पादन होता है। बुवाई के बाद इसके पौधे की लम्बाई लगभग 96-110 सेमी के आसपास होती है। इसके साथ ही यह फसल 145-155 दिनों में तैयार हो जाती है। इस किस्म के फाइबर की लम्बाई 29.87 मिमी और एक उच्च फाइबर शक्ति 29.92 ग्राम/टेक्स होती है।
गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

गोवंश में कुपोषण से लगातार बाँझपन की समस्या बढ़ती जा रही है

पशुओं में कुपोषण की वजह से बांझपन की बीमारियां निरंतर बढ़ती जा रही हैं। खास कर गोवंश में देखी जा रही है। गोवंश में बांझपन के बढ़ते मामलों के का सबसे बड़ा कारण कुपोषण है। इसका मतलब है, कि पशुओं को पौष्टिक आहार नहीं मिल पा रहा है। इस गंभीर समस्या से किसानों के साथ-साथ पशुपालन से संबंधित समस्त संस्थाऐं भी काफी परेशान हैं। सरदार बल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय वेटनरी कॉलेज के अधिष्ठाता डॉ राजीव सिंह ने बताया है, कि व्यस्क पशुओं में कम वजन व जननागों के अल्प विकास से पशुओं में प्रजनन क्षमता में कमी देखने को मिल रही है। जैसा कि उपरोक्त में बताया गया है, कि इसका मुख्य कारण कुपोषण है। इफ्को टोकियो जनरल इंश्योरेंस लिमिटेड के वित्तीय सहयोग से कृषि विश्व विद्यालय और पशुपालन विभाग द्वारा मेरठ के ग्राम बेहरामपुर मोरना ब्लॉक जानी खुर्द में निशुल्क पशु स्वास्थ्य शिविर का आयोजन कुलपति डॉ के.के. सिंह एवं पशुपालन विभाग के अपर निदेशक डॉ अरुण जादौन के निर्देश में हुआ है।

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इस उपलक्ष्य पर परियोजना के मार्ग दर्शक डॉ राजवीर सिंह ने कहा है, कि मादा पशुओं को संतुलित आहार के साथ-साथ प्रोटीन और खनिज मिश्रण जरूर देना चाहिए। जिसकी सहायता से उनकी गर्भधारण क्षमता बरकरार रहे। परियोजना प्रभारी डॉ अमित वर्मा का कहना है, कि पशुओं में खनिज तत्वों के अभाव की वजह से भूख ना लगना, बढ़वार एवं प्रजनन क्षमता में कमी जैसे समय पर गर्मी में ना आना, अविकसित संतानो की उत्पत्ति, दूध उत्पादन में कमी, एनीमिया इत्यादि समस्याऐं आ सकती हैं। बतादें, कि पशुओं को प्रतिदिन 30 - 50 ग्राम मिनरल मिक्सचर पाउडर पशु आहार के लिए जरूर देना चाहिए। पशु स्वास्थ्य शिविर में पशु चिकित्सा महाविद्यालय कॉलेज मेरठ के विशेषज्ञों इनमें डॉ. अमित वर्मा, डॉ अरविन्द सिंह, डॉ अजीत कुमार सिंह, डॉ विकास जायसवाल, डॉ प्रेमसागर मौर्या, डॉ आशुतोष त्रिपाठी और डॉ रमाकांत इत्यादि की टीम के द्वारा 157 पशुओं को कृमिनाशक, बाँझपन प्रबंधन, गर्भावस्था निदान, रक्त व गोबर की जाँच जैसी पशु चिकित्सा सेवाएं और तदानुसार मुफ्त दवाएं भी प्रदान की गईं। पशु चिकित्साधिकारी डॉ रिंकू नारायण एवं डॉ विभा सिंह ने पशुपालन के लिए सरकार की तरफ से दिए जाने वाले किसान क्रेडिट कार्ड तथा सब्सिड़ी योजनाओं के संबंध में जानकारी प्रदान की। प्रशांत कौशिक ग्राम प्रधान समेत अन्य ग्रामवासियों ने शिविर के आयोजन हेतु कृषि विवि की कोशिशों की सराहना करते हुए धन्यवाद व्यक्त किया।

कृषि वैज्ञानिक कपास की इन किस्मों की बुवाई करने की सलाह दे रहे हैं

कृषि वैज्ञानिक कपास की इन किस्मों की बुवाई करने की सलाह दे रहे हैं

वर्तमान में गेहूं की फसल की कटाई हो चुकी है। साथ ही, कपास की बुवाई (cotton sowing) का वक्त प्रारंभ हो गया है। अब ऐसी स्थिति में जो किसान गेहूं के पश्चात कपास की खेती (cotton cultivation) करना चाहते हैं, उनके लिए कपास की बुवाई की कई बेहतरीन किस्में हैं, जो बेहतर उत्पादन प्रदान कर सकती हैं। 

कृषि वैज्ञानिकों ने अमेरिकन कपास या नरमा की खेती करने वाले कृषकों के लिए सलाह भी जारी कर दी है। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों की तरफ से कपास की अनुशंसित किस्में लगाने की सलाह दी जा रही है। 

इसके साथ इसकी बुवाई में ध्यान रखने वाली आवश्यक बातों के विषय में भी बताया जा रहा है। विभाग की तरफ से राजस्थान के कृषकों को 20 मई तक कपास की बिजाई करने के लिए कहा जा रहा है, जिससे कि कपास में गुलाबी सुंडी का प्रकोप न हो सके। इसके साथ ही कपास की उन्नत किस्मों के विषय में भी बताया जा रहा है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 2818 किस्म 

RS of Narma (Cotton) 2818 नरमा आर.एस किस्म से 31 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज हांसिल की जा सकती है। इसके रेशे की लंबाई 27.36 मिलीमीटर, मजबूती 29.38 ग्राम टेक्स आंकी गई है। 

टिंडे का औसत भार 3.2 ग्राम होता है। बिनौलों में 17.85 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है। इसकी ओटाई 34.6 प्रतिशत आंकी गई है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 2827 किस्म 

RS of Narma (Cotton) 2827 नरमा (कपास) की आर.एस- 2827 किस्म से औसत 30.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है। 

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इसके रेशे की लंबाई 27.22 मिलीमीटर व मजबूती 28.86 ग्राम व टेक्स आंकी गई है। इसके टिंडे का औसत वजन 3.3 ग्राम होता है। इसके बिनौले में तेल की मात्रा 17.2 फीसद होती है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 2013 किस्म

RS of Narma (Cotton) 2013 नरमा (कपास) की आरएस 2013 किस्म की ऊंचाई 125 से 130 सेमी होती है। इसकी पत्तियां मध्यम आकार की व हल्के हरे रंग की होती हैं। 

इसके फूलों की पखुड़ियों का रंग पीला होता है। यह किस्म 165 से 170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म में गुलाबी सुड़ी द्वारा हानि अन्य किस्मों की अपेक्षा कम होती है। 

यह किस्म पत्ती मरोड़ विषाणु बीमारी के प्रति भी अवरोधी है। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 23 से 24 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

नरमा (कपास) की आरएसटी 9 किस्म 

RST 9 variety of Narma (cotton) नरमा (कपास) की आरएसटी 9 किस्म के पौधे की ऊंचाई 130 से 140 सेमी तक होती है। इसकी पत्तियां हल्के रंग की होती हैं और फूल का रंग हल्का पीला होता है। 

इसमें चार से छह एकांक्षी शाखाएं होती हैं। इसके टिंडे का आकार मध्यम है, जिसका औसत वजन 3.5 ग्राम होता है। यह किस्म 160 से 200 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

तेला (जेसिड) रोग से इस किस्म में कम हानि होती है। इस किस्म की ओटाई का प्रतिशत भी अन्य अनुमोदित किस्मों से अधिक है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 810 किस्म

RS of Narma (Cotton) 810 नरमा (कपास) की आर.एस. 810 किस्म के पौधे की ऊंचाई 125 से 130 सेमी होती है। इसके फूलों का रंग पीला होता है। इसके टिंडे का आकार छोटा करीब 2.50 से 3.50 ग्राम होता है। 

इसके रेशे की लंबाई 24 से 25 मिलीमीटर व ओटाई क्षमता 33 से 34 फीसद होती है। यह किस्म 165 से 175 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

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यह किस्म पत्ती मोड़क रोग की प्रतिरोधी है। इस किस्म से लगभग 23 से 24 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज हांसिल की जा सकती है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 875 किस्म

RS of Narma (Cotton) 875 नरमा (कपास) की आर.एस. 875 किस्म के पौधों की ऊंचाई 100 से 110 सेमी होती है। इसकी पत्तियां चौड़ी व गहरे हरे रंग की होती हैं। इसमें शून्य यानी जीरो से एक एकांक्षी शाखाएं पाई जाती हैं। 

इसके टिंडे का आकार मध्यम होता है और औसत वजन 3.5 ग्राम होता है। इसके रेशे की लंबाई 27 मिलीमीटर होती है। इसमें तेल की मात्रा 23 प्रतिशत पाई जाती है, जो कि अन्य अनुमोदित किस्मों से ज्यादा है। 

इस किस्म की फसल 150 से 160 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इससे उसी खेत में सामान्य समय पर गेहूं की बुवाई भी की जा सकती है।

बीकानेरी नरमा

बीकानेरी नरमा  (Bikaneri Narma) किस्म के पौधे की ऊंचाई लगभग 135 से 165 सेमी होती है। इसकी पत्तियां छोटी, हल्के हरे रंग की होती है और फूल छोटे और हल्के पीले रंग के होते हैं। 

इसमें चार से छह एकांक्षी शाखाएं पाई जाती हैं। इसके टिंडे का आकार मध्यम और औसत वजन 2 ग्राम होता है। इसकी फसल 160 से 200 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म में तेला (जेसिड) से अपेक्षाकृत कम हानि होती है।

मरू विकास (राज, एच.एच. 6) 

Desert Development (Kings, HH 6) नरमा (कपास) की मरू विकास (राज, एच.एच. 6) के पौधों की ऊंचाई 100 से 110 सेमी. और पत्तियां चौड़े आकार की होती हैं। इसका रंग हरे रंग का होता है। 

इसमें शून्य यानी जीरो से एक एकांक्षी शाखाएं पाई जाती हैं। इसके टिंडे का आकार मध्यम और औसत वजन 3.5 ग्राम होता है। इसके रेशे की लंबाई 27 मिलीमीटर होती है। 

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इसमे तेल की मात्रा 23 प्रतिशत पाई जाती है। इस किस्म की फसल 150 से 160 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इससे उसी खेत में सामान्य समय पर गेहूं की बुवाई कर सकते हैं।

नरमा कपास की उन्नत किस्मों की बुवाई का तरीका 

नरमा कपास की उन्नत किस्मों की बुवाई के लिए 4 किलोग्राम प्रति बीघा की दर से बीज की जरूरत पड़ती है। बुवाई के दौरान पंक्ति से पंक्ति का फासला 67.50 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे का फासला लगभग 30 सेंटीमीटर रखना चाहिए।

नरमा की बुवाई का समय 15 अप्रैल से 15 मई तक माना जाता है। लेकिन किसान मई के अंत तक इसकी बिजाई कर सकते हैं।

लहसुन की कीमतों में आए उछाल की क्या वजह है ?

लहसुन की कीमतों में आए उछाल की क्या वजह है ?

लहसुन की कीमतों में अचानक से काफी उछाल आया है। भुवनेश्वर की मंडी में तो कीमत 400 रुपये प्रति किलो ग्राम तक पहुंच गई थी। लहसुन की फसल बर्बाद होने से यह हो रहा है। इस माह भाव कम होने की संभावना है।

आम जनता को महंगाई की काफी मार सहन करनी पड़ रही है। समस्त चीजों में खूब महंगाई बढ़ी है और वहीं खाने की चीजों की बात की करें तो इसमें भी बेहद इजाफा हुआ है। घरों में जो सब्जियां तैयार की जाती हैं, उनमें स्वाद बढ़ाने के लिए लहसुन आवश्यक होता है। परंतु, वर्तमान में देखा जाए तो लहसुन की कीमतें भी आसमान को छू रहे हैं। लहसुन ₹400 किलो तक की कीमत तक पहुँच चुका है। 

आखिर किस वजह से लहसुन की कीमतें बढ़ रही हैं ?

बीते कुछ सप्ताह की बात करें तो लहसुन की कीमतों में प्रचंड तेजी से इजाफा हुआ है। भुवनेश्वर की मंडी में तो कीमत 400 रुपये प्रति किलो ग्राम तक पहुंच गए थी। दरअसल, लहसुन की कीमत बढ़ने के पीछे जो अहम वजह है। वह लहसुन की फसल का खराब होना है। विभिन्न राज्यों में बेकार मौसम की वजह से लहसुन की फसलें बर्बाद हुई हैं। इसके चलते कीमतों में काफी उछाल देखा गया है। फसल खराब होने के चलते दूसरी फसल की रोपाई में समय लगेगा। इस वजह से लहसुन की नई उपज की आवक में देरी है, जिसके चलते कीमतें बढ़ रही हैं। 

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मध्य प्रदेश में कीमतें कब कम होंगी ?

मध्य प्रदेश में लहसुन की सर्वाधिक खेती की जाती है। परंतु, मौसम की मार की वजह से फसल काफी प्रभावित हुई है, जिसकी वजह से नई फसल आने में काफी विलंब हो रहा है। जैसे ही बाजार में लहसुन की नई फसल आ जाती है। लहसुन की कीमतों में गिरावट आऐगी। मंडी व्यापारियों के मुताबिक, खरीफ लहसुन के आने के पश्चात कीमत अत्यंत कम हो जाऐगी। मतलब कि फरवरी के माह में लहसुन की कीमतों के कम होने की संभावना है। 

सरसों की फसल में प्रमुख रोग और रोगों का प्रबंधन

सरसों की फसल में प्रमुख रोग और रोगों का प्रबंधन

सरसों की फसल भारत में तिलहन के रूप में लगायी जाती है सरसों के तेल का इस्तेमाल भी भारत में सबसे ज्यादा किया जाता है। भारत में सरसों की फसल की पैदावार अच्छी होती है पर रोगों के कारण फसल की पैदावार घटती रहती है। रोगों के कारण किसानों की फसल की पैदावार कम हो जाती है जिससे किसानो को नुकसान होता है इस नुकसान को कम करने के लिए आपको सही समय पर फसल में रोग प्रबंधन करना जरुरी है। हमारे इस लेख  के माध्यम से आप सरसों की फसल में रोगों की पहचान और उनके उपचार के बारे में जानेगे।

सरसों की फसल के रोग एवं उपचार

   1.अल्टरनेरिया ब्लाइट

यह लक्षण - सरसों की फसल में अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट के नाम से सबसे पहले पत्तियों पर दिखाई देती है। जिसमें छोटे, गहरे भूरे या काले धब्बे पीले प्रभामंडल और केंद्रित, लक्ष्य-जैसे छल्ले के साथ दिखाई देते हैं। संकेंद्रित वलय वाले गोल धब्बे होते है कई धब्बे आपस में मिलकर बड़े-बड़े धब्बे बना लेते हैं| पत्तियों को झुलसा देते हैं और झड़ जाते हैं रोग के लक्षण पहले निचली और पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं धब्बे तनों और फूलों पर भी दिखाई देते हैं। इस रोग के कारण बीज सिकुड़े हुए और छोटे आकार के हो जाते है alternaria blight
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उपचार और प्रबंधन

  • बुवाई के लिए स्वस्थ बीजों के प्रयोग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
  • जैसे ही पौधों पर लक्षण दिखाई देने लगें मैनकोजेब 75 डब्ल्यूपी 2kg  की दर से 200 लीटर पानी प्रति एकड़ की दर से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें।
  • फसल की कटाई के बाद प्रभावित पौधों के हिस्सों को इकट्ठा करके जला दें |

   2. सफेद रतुआ

यह लक्षण- पौधे के पत्तों, टहनियों, तनों, फूलो,और फलियों पर दिखाई देते है। पत्तियों की निचली सतह पर सफेद दाने और ऊपरी पत्ती की सतह पर पीले रंग का पीलापन दिखाई देता है। बाद की अवस्था में, पीले प्रभामंडल के साथ दाने गाढ़े रूप में दिखाई दे सकते हैं। जब युवा तना और पुष्पक्रम संक्रमित होते हैं, तो कवक प्रणालीगत हो जाता है और पौधों में विकृतियों को उत्तेजित करता है। सफेद रतुआ बीमारी फलियों तने पर अधिक आती है। इससे तना सिकुड़ जाता है। इससे फसल के उत्पादन पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है। सफ़ेद रतुआ का प्रकोप ज्यादा तर पिछेती फसल में होता है। White rust

उपचार और प्रबंधन

  • समय से बुवाई करें (10-25 अक्टूबर), फसल के अवशेषों को नष्ट करें, विशेष रूप से पिछली फसलों के अवशेषों को। 
  • रोगमुक्त बीजों का प्रयोग करें, बीज को एप्रन 35एसडी @ 6 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें,फसल की अधिक सिंचाई से बचें
  • फसल पर डाइथेन एम-45 @ 0.2% का छिड़काव करें और 15 दिनों के अंतराल पर दोहराएं या सफेद रतुआ आने पर खेत में मैनकोजैब दवाई 600 से 800 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 200 लीटर पानी मिलाकर अवश्य स्प्रे करें दूसरा स्प्रे 15 दिन के बाद करें।

  3. डाउनी मिल्ड्यू

इसका पहला लक्षण नयी पत्तियों पर जामुनी कत्थई धब्बों के रूप में प्रकट होता है। पत्ती की ऊपरी सतह पर घाव हलके रंग से लेकर पीले रंग का होता है
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इन घावों की निचली सतह पर आमतौर पर कवक की कोमल वृद्धि दिखाई देती है। प्रणालीगत संक्रमण में, सफेद जंग के रूप में लक्षण बहुत स्पष्ट होते हैं। रोग जायदा फैलने पर फूलों के गुच्छे बन जाते है और फूल फली बनाने में असमर्थ हो जाते है। इस रोग से फसल की पैदावार कम हो जाती है। Downy mildew

उपचार और प्रबंधन

  • फसल अवशेषों को नष्ट करें,रोगमुक्त बीजों का प्रयोग करें,बीज को एप्रन एसडी 35 @ 6 ग्राम/किलो बीज से उपचारित करें,फसल पर डाइथेन एम-45 @ 0.2% का छिड़काव करें। 

4. पाउडर फफूंदी

इस रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी, निचली सतह और पौधे के अन्य ऊपरी भागों पर सफेद चूर्ण जैसा दिखाई देते है। इस रोग के कारण होने वाली उपज हानि फसल के संक्रमण की अवस्था पर निर्भर करती है। यदि फसल के विकास के प्रारंभिक चरण में रोग फसल को संक्रमित करता है, तो नुकसान भारी होता है। रोग आमतौर पर बुवाई के बाद देर से प्रकट होता है। गंभीर संक्रमण में, पत्तियाँ पीली हो जाती हैं, जिससे समय से पहले पत्तियाँ झड़ जाती हैं और जबरन परिपक्वता जाती है। Powdery mildew  
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उपचार और प्रबंधन

  • मई-जून के दौरान गहरी जुताई करें और फसल चक्र का पालन करें
  • समय से बुवाई करें और देर से बोने से बचें, फसल के अवशेषों को जला दें, रोग की शुरुआत के समय वेटेबल सल्फर @ 0.2% या कैराथेन @ 0.1% का छिड़काव करें।

5. तना गलन या ओगल

इस रोग के लक्षण बढ़े हुए और पानी से भरे हुए होते है इसके घाव ज्यादातर तने पर विकसित होते हैं। जो कॉटनी मायसेलियल ग्रोथ से ढके होते हैं ,केंद्रीय तना पूरी तरह से नष्ट हो जाता है और सफेद कवक जाल से भर जाता है जो बाद में सख्त हो जाता है और काला स्क्लेरोशिया बनता है| कवक के काले अनियमित शरीर प्रभावित पौधों पर या अंदर देखे जा सकते हैं। प्रभावित पौधों में बौनापन और समय से पहले पकने के लक्षण दिखाई देते है। ज्यादा संक्रमण होने पर तने का टूटना, मुरझाना और सूखना दिखाई देता है। Stem Rot

उपचार और प्रबंधन

  • गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें, बिजाई के लिए स्क्लेरोटियल मुक्त बीज का प्रयोग करें
  • गैर-मेज़बान फ़सलों जैसे जौ, गेहूँ के साथ फ़सल चक्रीकरण करें,फसल अवशेषों को नष्ट करें
  • कार्बेन्डाजिम @ 0.2% के साथ बीज उपचार के बाद कार्बेन्डाजिम @ 0.1% के दो छिड़काव बुवाई के 45 और 60 दिनों के बाद करे।
जानें सबसे ज्यादा सरसों की खरीद किस राज्य में हुई है, नाफेड को खुद भी क्यों करनी पड़ी खरीद शुरू

जानें सबसे ज्यादा सरसों की खरीद किस राज्य में हुई है, नाफेड को खुद भी क्यों करनी पड़ी खरीद शुरू

नाफेड ने मार्केटिंग सीजन 2023-24 के लिए सरसों की एमएसपी दर 5450 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। अगर हम राजस्थान की बात करें तो यह भारत का एकमात्र प्रदेश है, जो अकेला 42 फीसदी सरसों की पैदावार करता है। गेहूं समेत भारत के ज्यादातर राज्यों में तिलहन की खरीद भी चालू हो चुकी है। हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान समेत विभिन्न राज्यों में एमएसपी पर सरसों की खरीद की जा रही है। मौसम के गर्म होते-होते सरसों की खरीद में तीव्रता भी होती जा रही है। यही कारण है, कि भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नाफेड) द्वारा अब तक 169217.45 मिट्रिक टन सरसों की खरीद की जा चुकी है। साथ ही, इसके एवज में किसान भाइयों के खाते में करोड़ों रुपये की धनराशि भी भेजी जा चुकी है। इससे सरसों का उत्पादन करने वाले कृषक काफी खुश हैं। ऐसी स्थिति में किसानों को आशा है, कि आगामी दिनों में सरसों खरीदी में और ज्यादा तीव्रता आएगी।

नाफेड ने खुद की सरसों की खरीद शुरू

किसान तक की खबरों के अनुसार, तीन वर्ष बाद ऐसा हुआ है, कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दर होने के कारण नाफेड स्वयं सरसों की खरीदी कर रहा है। इससे पूर्व किसान स्वयं मंडियों में जाकर व्यापारियों को एमएसपी से महंगी कीमत पर सरसों विक्रय करते थे। अब तक 84914 किसानों ने एमएसपी पर सरसों विक्रय करते है। इसके एवज उनके खाते में 922.24 रुपये भेजे जा चुके हैं। आहिस्ते-आहिस्ते सरसों खरीद केंद्रों पर किसानों की संख्या काफी बढ़ती जा रही है। हालाँकि, बेमौसम बारिश के कारण से राजस्थान एवं मध्य प्रदेश समेत बहुत से तिलहन उपादक राज्यों में फसल की कटाई में विलंब हो गया था। साथ ही, बरसात से सरसों की फसल को काफी क्षति भी पहुंची है। यह भी पढ़ें: न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के लिए 25 फरवरी तक करवा सकते हैं, रजिस्ट्रेशन मध्य प्रदेश के किसान

हरियाणा में विगत 20 मार्च से सरसों की खरीद शुरू हो चुकी है

भारत में राजस्थान सरसों का सर्वाधिक उत्पादन करता है। परंतु, इस बार हरियाणा सरसों की खरीद करने के संबंध में राजस्थान से आगे है। नाफेड ने अब तक हरियाणा के अंदर 139226.38 मिट्रिक टन सरसों की खरीद करली है। हालाँकि, हरियाणा राज्य में भी देश के कुल उत्पादन का अकेले 13.5 फीसद सरसों का उत्पादन किया जाता है। इसके बदले में कृषकों को 758.78 करोड़ रुपये दिए गए हैं। विशेष बात यह है, कि हरियाणा में विगत 20 मार्च से सरसों की खरीद शुरू की गई है।

इन राज्यों में इतने मीट्रिक टन सरसों की एमएसपी पर खरीद की जा चुकी है

नाफेड ने मार्केटिंग सीजन 2023-24 हेतु सरसों की एमएसपी दर 5450 रुपये प्रति क्विंटल तय कर दी है। यदि हम राजस्थान की बात करें तो यहां की जलवायु के अनुरूप यह भारत का एकमात्र राज्य है, जो अकेला 42 फसदी सरसों का उत्पादन करता है। इसके बावजूद भी राजस्थान में अब तक 4708.40 मिट्रिक टन ही सरसों की खरीद हो सकती है। साथ ही, सरसों उत्पादन में मध्य प्रदेश भी कोई पीछे नहीं है। यह 12 प्रतिशत सरसों का उत्पादन किया करता है। मध्य प्रदेश में अब तक 9977.74 मीट्रिक टन सरसों की खरीद संपन्न हुई है। इसके उपरांत गुजरात 4.2 फीसद सरसों का उत्पादन करता है।
किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं

किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि नवगोल्ड किस्म के सरसों का उत्पादन आम सरसों के मुकाबले अच्छी होती है। जानें इसकी खेती के तरीके के बारे में। हमारे भारत देश में सरसों की खेती रबी के सीजन में की जाती है। इसकी खेती के लिए खेतों की बेहतरीन जुताई सहित सिंचाई की उत्तम व्यवस्था भी होनी चाहिए। बाजार में आजकल कई तरह की सरसों की किस्में पाई जाती हैं। ऐसी स्थिति में नवगोल्ड भी सरसों की एक विशेष किस्म की फसल हैं, जिसकी खेती कर आप कम परिश्रम में अधिक पैदावार कर सकते हैं।

नवगोल्ड किस्म के सरसों के उत्पादन हेतु तापमान

नवगोल्ड किस्म के सरसों की पैदावार 20 से 25 डिग्री सेल्सियस के तापमान में की जाती है। इसकी खेती समस्त प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। परंतु, बलुई मृदा में इसकी बेहतरीन पैदावार होती है। इसके बीज की बुआई बीजोपचार करने के बाद ही करें, जिससे पैदावार काफी बेहतरीन होती है।

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नवगोल्ड किस्म के सरसों के उत्पादन हेतु सर्वप्रथम खेत को रोटावेटर के माध्यम से जोत लें। साथ ही, पाटा लगाकर खेत को एकसार करलें। साथ ही, इस बात का खास ख्याल रखें कि एकसार भूमि पर ही सरसों के पौधों का अच्छी तरह विकास हो पाता है।

नवगोल्ड किस्म की फसल में सिंचाई

नवगोल्ड किस्म के बीजों का निर्माण नवीन वैज्ञानिक विधि के माध्यम से किया जाता है। इस फसल को पूरी खेती की प्रक्रिया में बस एक बार ही सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। फसल में सिंचाई फूल आने के दौरान ही कर देनी चाहिए।

नवगोल्ड किस्म की खेती के लिए खाद और उर्वरक

नवगोल्ड किस्म के बीजों के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल अच्छा माना जाता है। इसके उत्पादन के लिए गोबर के खाद का इस्तेमाल करना चाहिए। मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश की मात्रा एवं फास्फोरस को संतुलन में रखना चाहिए।

सरसों की खेती के लिए खरपतवार का नियंत्रण

सरसों की खेती के लिए इसके खेत को समयानुसार निराई एवं गुड़ाई की जरूरत पड़ती है। बुवाई के 15 से 20 दिन उपरांत खेत में खर पतवार आने शुरू हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप खरपतवार नाशी पेंडामेथालिन 30 रसायन का छिड़काव मृदा में कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि इसमें लगने वाले प्रमुख रोग सफ़ेद किट्ट, चूणिल, तुलासिता, आल्टरनेरिया और पत्ती झुलसा जैसे रोग लगते हैं, तो आप फसलों पर मेन्कोजेब का छिड़काव कर सकते हैं। नवगोल्ड किस्म के सरसों में सामान्य किस्म के मुकाबले अधिक तेल का उत्पादन होता है। साथ ही, इसकी खेती के लिए भी अधिक सिंचाई एवं परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
रबी सीजन में सरसों की खेती के लिए ये पांच उन्नत किस्में काफी शानदार हैं

रबी सीजन में सरसों की खेती के लिए ये पांच उन्नत किस्में काफी शानदार हैं

सरसों रबी की प्रमुख फसलों में से एक है। बतादें, कि सरसों की खेती भारत के बहुत से राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। यदि सरसों की उन्नत किस्मों की बात की जाए तो उनमें राज विजय सरसों-2, पूसा मस्टर्ड 21, पूसा सरसों आरएच 30, पूसा बोल्ड और पूसा सरसों 28 हैं। दरअसल, भारत के तकरीबन समस्त राज्यों में फसलों की बिजाई से लेकर कटाई तक सबकुछ मौसम पर आश्रित रहता है। जैसा की आप जानते हैं, कि खरीफ की फसलों की कटाई का समय चल रहा है। साथ ही, किसान रबी फसलों की बिजाई की तैयारी कर रहे हैं। वहीं, रबी फसल में बोई जाने वाली प्रमुख फसलों में आलू, मटर, सरसों, गेंहू आदि हैं। आज हम आपको सरसों की बेहतरीन किस्मों के संबंध में आपको जानकारी देंगे। सरसों की इन उन्नत किस्मों के नाम पूसा बोल्ड, पूसा सरसों 28, राज विजय सरसों-2, पूसा मस्टर्ड 21 और पूसा सरसों आरएच 30 हैं। यह सभी भारत में तिलहन के उत्पादन में सर्वाधिक पसंद की जाने वाली सरसों की किस्में हैं। ये किस्में किसानों प्रति हेक्टेयर कम लागत में ज्यादा मुनाफा देती हैं। इनका उत्पादन भी बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा होता है। तो चलिए सरसों की इन किस्मों के संबंध में विस्तार से जानते हैं।

सरसों की खेती के लिए 5 उन्नत किस्में

सरसों पूसा बोल्ड

सरसों पूसा बोल्ड की कटाई हेतु पकने की समयावधि 100 से 140 दिन होती है। इसकी बुवाई करने के लिए राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र एवं दिल्ली का क्षेत्र उपयुक्त माना जाता है। अगर हम इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार की बात करें तो यह 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार प्रदान करती है। इसके अंदर तेल की मात्रा तकरीबन 40 प्रतिशत तक होती है।

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किसान सरसों की इस किस्म की खेती कर बेहतरीन मुनाफा उठा सकते हैं

पूसा सरसों 28

फसल पकने व कटाई की समयावधि 105 से 110 दिन होती है। इसकी बुआई हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में की जाती है। किसान भाई इससे प्रति हेक्टेयर 18 से 20 क्विंटल उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। तेल की मात्रा की बात की जाए तो तकरीबन 21 प्रतिशत तक है।

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फसल पकने की समयावधि 120 से 130 दिन तक की होती है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में इसका उत्पादन किया जाता है। वहीं, इससे औसत पैदावार 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है। तेल की मात्रा तकरीबन 37 से 40 प्रतिशत तक होती है।

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सरसों की इस किस्म की फसल को पकने में लगभग 130 से 135 दिनों का समय लगता है। इस किस्म की बुआई का इलाका हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान होता है। वहीं, अगर हम प्रति हेक्टेयर की बात करें तो वह 16 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। अगर हम इसके अंदर तेल की मात्रा की बात करें तो वह लगभग 39 प्रतिशत तक होती है।

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इस किस्म की फसल के पकने की समयवधि 137 से 152 दिनों के लगभग होती है। बतादें, कि पंजाब, राजस्थान और दिल्ली में प्रमुख तौर पर इसका उत्पादन किया जा सकता है। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इससे प्रति हेक्टेयर 18 से 21 क्विंटल उत्पादन लिया जा सकता है। इस किस्म की सरसों से तेल की मात्रा की बात करें तो वह करीब 37 से 40 प्रतिशत तक होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुवांशिकी संस्थान के मुताबिक इन इलाकों के किसान यदि ज्यादा उत्पादन चाहते हैं, तो सरसों की ये किस्में कृषकों के लिए मुनाफे का सौदा साबित हो सकती हैं। ये समस्त किस्में प्रति हेक्टेयर अधिक उत्पादन के साथ में अधिक प्रतिशत तेल की मात्रा पैदा करती हैं।
सरसों की फसल में सफेद रतवे का प्रबंधन

सरसों की फसल में सफेद रतवे का प्रबंधन

सरसों की फसल कई रोगों से प्रभावित होती है। जिससे की किसानो को कम पैदावार प्राप्त होती है। सफेद रतवे (White Rust) रोग से फसल को अधिक नुकसान होता है। आज इस लेख में हम आपको सफेद रतवे (White Rust) की रोकथाम के बारे में जानकारी देंगे जिससे की आप समय से फसल में इस बीमारी का नियंत्रण कर सके। 

सरसों की फसल में सफेद रतवे (White Rust) से बचाव के लिए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश निम्नलिखित हैं:

सही बीज बुवाई :

 सबसे पहले आपको ध्यान देना है कि फसल की बुवाई के लिए स्वस्थ बीजों का चयन करें जो रोगों से मुक्त हों। स्वस्थ बीजों का चयन करने से फसल में ये रोग नहीं आएगा।   

फसल की समय पर बोना:

 समय पर सरसों की बुवाई की जानी चाहिए ताकि फसल में बीमारी का प्रसार कम हो। देरी से बुवाई की गयी फसल में अधिक रोग का खतरा होता है। कई बार रोग अधिक लग जाता है जिससे आधी पैदावार कम हो जाती है। 

समुचित जल सिंचाई:

जल सिंचाई को समुचित रूप से प्रबंधित करें ताकि पौधों पर पानी जमा नहीं हो, जिससे सफेद रतवे का प्रसार कम हो। फसल में अधिक नमी होने के कारण भी रोग अधिक लगता है। 

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उचित फफूंदनाशकों का प्रयोग:

सरसों की सफेद रतवे के खिलाफ उचित फफूंदनाशकों का प्रयोग करें। कृषि विज्ञानी से सलाह लें और सुरक्षित रोगनाशकों का चयन करें। सफेद रतवा के नियंत्रण के लिए खड़ी फसल में मैंकोजेब(एम 45) फफुंदनाशक 400 से 500ग्राम को 200/250 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतर पर कम से कम 2 छिड़काव अवश्य करें जिससे सफेद रतवा का नियंत्रण संभव हो सकता है।

फसल की देखभाल:

 फसल की देखभाल के लिए समय समय पर पौधों की सुरक्षा और मूल से देखभाल करें।

प्रभावित पौधों का हटाएं:

यदि किसी पौधे पर सफेद रतवे के प्रमुख संकेत हैं, तो उन्हें तुरंत उखाड़ कर मिट्टी में दबा दें ताकि बीमारी और फैलने से बचा जा सके।उचित तकनीकी तरीके का प्रयोग करें, जैसे कि स्थानीय परिस्थितियों, जलवायु और मौसम की विशेषताओं के आधार पर सिंचाई और पोषण का प्रबंधन करें।इन उपायों का अनुसरण करके, सरसों की फसल में सफेद रतवे से बचाव किया जा सकता है। ध्यान रहे कि स्थानीय कृषि विभाग या कृषि विज्ञानी से सलाह लेना हमेशा उत्तम होता है ताकि आपको विशेष रूप से अपने क्षेत्र के लिए सबसे उपयुक्त नियंत्रण उपायों की जानकारी मिले।