कंगनी (फॉक्सटेल मिलेट) की खेती: जलवायु, मिट्टी, और उपज बढ़ाने के टिप्स

Published on: 20-Jun-2024
Updated on: 20-Jun-2024

कंगनी, जिसे अंग्रेजी में फॉक्सटेल मिलेट (Foxtail Millet) कहा जाता है, एक महत्वपूर्ण मोटा अनाज है जिसे भारत में बहुतायत में उगाया जाता है। 

यह सूखे और कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी तरह से उगता है। फॉक्सटेल मिलेट की खेती दुनिया में सबसे पुराने मोटे अनाजों की खेती मानी जाती है।

एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के लगभग 23 देशों में इसकी खेती की जाती है। यह एक स्व-परागण, सी 4 और छोटी अवधि की फसल है।

ये अनाज, मानव उपभोग के लिए भोजन के रूप में अच्छा माना जाता है, कुक्कुट और पिंजरे के पक्षियों के लिए दाने के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है, फॉक्सटेल मिलेट दुनिया में मोटे अनाज उत्पादन में दूसरे स्थान पर है।

भारत में, मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक भारत के पूर्वोत्तर राज्य में इसकी खेती की जाती है। 

इसका उपयोग गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लिए, एक ऊर्जा के रूप में किया जाता है और बीमार लोग और बच्चे के लिए भी ये काफी पोषण युक्त है।

आज के इस लेख में हम आपको इसकी खेती से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकरी देंगे।

कंगनी की खेती के लिए जलवायु और मिट्टी

कंगनी गर्म और शुष्क जलवायु में अच्छी तरह से उगती है। यह फसल 20-30°C तापमान में सबसे अच्छी होती है। यह सूखा सहिष्णु फसल है और इसे कम बारिश वाले क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है।

कंगनी की फसल मध्यम भूमि में अच्छी उपज देती है। हालांकि, अच्छी पैदावार के लिए उपजाऊ अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी अच्छी मानी जाती है।

यह फसल रेतीली से भारी मिट्टी और चिकनी मिट्टी पर भी अच्छी उपज देती है। इसकी फसल 500-700 मि.मी. वार्षिक वर्षा वाली जगह में बेहतर उपज देती है। 

कंगनी की फसल जल भराव को सहन नहीं कर सकती और ज्याद सूखा होने पर भी फसल को नुकसान होता है।

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बुवाई का समय और बुवाई का तरीका

इसकी फसल जुलाई से अगस्त तक खरीफ के समय में बोई जाती है। यह मुख्य रूप से जून से जुलाई तक कर्नाटक में बोया जाता है। 

इसकी खेती जुलाई में तमिलनाडु, तेलंगाना और में होती है, और महाराष्ट्र में जुलाई के दूसरा-तीसरा सप्ताह में होती है।

बुवाई - सीधी बुवाई या पंक्तियों में की जा सकती है। पंक्तियों में बुवाई के लिए, पंक्तियों के बीच 25-30 से.मी. की दूरी रखें और पौधों के बीच 10-15 से.मी. की दूरी रखें।

खाद और उर्वरक प्रबंधन 

जुताई से पहले खेत में अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिलाएं। उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश (NPK) का संतुलित मात्रा में प्रयोग करें। 

20-30 किग्रा नाइट्रोजन, 15-20 किग्रा फॉस्फोरस, और 10-15 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें। 

नाइट्रोजन को दो भागों में विभाजित करें: पहला भाग बुवाई के समय और दूसरा भाग बुवाई के 30-35 दिनों बाद दें।

निराई और गुड़ाई

लाइन विधि से बुवाई की गई फसल में दो बार खरपतवार नियंत्रण के लिए हल या हैरो की मदद से निराई और गुड़ाई की जा सकती है और बाद में हाथ से निराई खरपतवार नियंत्रण में असरदार है।

इंटरकल्चरल ऑपरेशन में फसल 30 दिन पुरानी होने पर टाइन-हैरो का प्रयोग करना है।

हाथ से छिड़क कर बुवाई की गयी फसल में पहली निराई-गुड़ाई अंकुर निकलने के 15-20 दिन बाद करे और दूसरी गोडाई 15-20 दिन बाद की जाती है।

सिंचाई प्रबंधन

खरीफ सीजन की फसल के लिए नहीं या न्यूनतम सिंचाई की आवश्यकता होती है। ये फसल ज्यादातर वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है।

हालांकि, अगर लंबी अवधि तक शुष्क दौर बना रहता है, फिर 1-2 सिंचाइयां देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल के लिए 2-5 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।

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फसल की कटाई और उपज

फसल कटाई के लिए तैयार होती है जब पौधों की पत्तियाँ सूख जाती हैं और दाने कठोर हो जाते हैं। कटाई के बाद फसल को धूप में सुखाकर दाने निकालें। 

कंगनी की उपज भूमि की उर्वरता, जलवायु, और फसल प्रबंधन पर निर्भर करती है। औसतन 1.5 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।

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