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हरा चारा गौ के लिए ( Green Fodder for Cow)

हरा चारा गौ के लिए ( Green Fodder for Cow)

जिस प्रकार मनुष्य को स्वस्थ रहने और कार्य करने की क्षमता बढ़ाने के लिए भोजन की आवश्यकता पड़ती हैं। उसी  प्रकार पशुओं, गायों को भी अच्छे हरे भरे चारों की आवश्यकता होती है।

ताकि वह उन्हें खाकर  दूध का निर्यात कर सकें। गौ, पशुओं के संतुलित आहार को देखते हुए किसानों द्वारा पशुओं को सूखा चारा, हरा चारा की पूर्ण मात्रा दी जाती है। 

जिससे उन गौ पशुओं को पर्याप्त पोषक तत्वों की सही मात्रा मिल सके। हरे चने द्वारा पशुओं को उनका शरीर विकास करने और ज्यादा से ज्यादा दूध उत्पादन करने की क्षमता मिलती है। यह पोषक तत्व सिर्फ हरे चने से ही प्राप्त हो सकता है।

गौ , पशु चारे के  प्रकार ( Types of Cow, Animal Feed)

best green fodder for cows

चारों के निम्नलिखित प्रकार होते हैं

किसान अपने गौ ,पशुओं को यह दो प्रकार के चारों द्वारा पोषक तत्व देता है। हरे चारों में  एकदलीय तथा द्विदलीय चारों में फसलें मौजूद होती है। हरे चारों के लिए किसान गिनीघास , ज्वार ,मकई, बाजरा, संकरित नेपियर, यशवंत दीनानाथ जयवंत घास आदि एकदलीय चारा की फसलें है। 

द्विदलीय चारा की फसलों के लिए ल्यूसर्न घास, बरसीम स्टाइलो तथा लोबिया आदि मौजूद होते हैं। द्विदलीय फसलों में बहुत मात्रा में पोषक तत्व की प्राप्ति होती है। 

तथा इसमें काफी प्रोटीन भी पाया जाता है। वहीं दूसरी ओर एकदलीय चारे में सिर्फ 4 से 7 प्रतिशत प्रोटीन की ही प्राप्ति होती है। द्विदलीय चारे से लगभग 2 गुना प्रोटीन प्राप्त किया जाता है इसमें अधिकतर 15 से 20% प्रोटीन मौजूद होते हैं।

हरे चारे की योगिता (Green Fodder Yogic)

benefits of green fodder

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पशु आहार के लिए हरे चारे की निम्नलिखित उपयोगिता आए हैं;

  • हरे चारे में पानी अधिक मात्रा में पाया जाता है जो सूखे चारों में नहीं होता। हरे चारे खाकर पशु अपने शरीर में पानी की कमी को दूर करते हैं।
  • हरा चारा काफी स्वादिष्ट व मुलायम होने के कारण पशु इसे बहुत आनंद के साथ खाते हैं।
  • हरे चारे पचने में भी आसान होते हैं। हरे चारे का सेवन करने से पशुओं को आसान मात्रा में घुलनशील शक्कर की प्राप्ति होती है।
  • द्विदलीय चारे के सेवन से पशुओं को खनिज तथा प्रोटीन की प्राप्ति होती है।
  • हरे चारे का सेवन कर पशु की भूख पूर्ण होती है, हरे चारे का सेवन करने से पशुओं का शरीर हमेशा स्वस्थ रहता है।
  • हरे चारे में प्राकृतिक रूप से पोषक तत्व  मौजूद होता है।
  • इसमें मौजूद पौष्टिक तत्व शरीर में विटामिन ए की पूर्ति करते हैं तथा पशुओं के अंधापन को कम करने की क्षमता रखते हैं।
  • हरे चारे द्वारा पशुओं के शरीर को आर्जीनीन, ग्लूटामिक एसिड जैसे महत्वपूर्ण पौष्टिक एसिड तत्वों की प्राप्ति होती है।
  • गर्भावस्था में पशुओं को हरा चना देने से बछड़ा स्वस्थ पैदा होता है।वहीं दूसरी ओर यदि पशुओं को गर्भावस्था में हरा चारा के माध्यम से पौष्टिक तत्व न मिले तो बछड़ा अंधा ,कमजोर या अन्य शारीरिक विकलांगता से पूर्ण पैदा होता है।

पशुओं की स्वास्थ्य की देख भाल : (Health care of animals)

Health care of animals

गौ ,गाय, पशुओं आदि को विभिन्न प्रकार के टीकाकरण करवाना चाहिए। ताकि उनके विभिन्न विभिन्न प्रकार के रोगों की रोकथाम हो सके। उन्हें कोई भी रोग - रोग ग्रस्त ना कर सके। 

इसीलिए नियमित रूप से पशुओं की समय-समय पर जांच कराते रहना उचित होगा। किसान को चाहिए कि वह गौ, पशुओं को कीड़ों की दवाई समय पर दे। साथ ही पशुओं को चिकित्सा अधिकारी द्वारा जांच कराएं।

जावी (जौ) क्या है ( What is Javi Barley)

Javi Barley

जौ गेहूं का ही स्वरूप है। जौ गेहूं कि ही जाति होती है। जिसको हम आटे में पीसकर रोटी बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। प्राचीन काल में ऋषि, मुनि, वैद्य कई कार्यों में जौ का प्रयोग करते थे। 

मुनि और ऋषि आहारों में जौ का सेवन भी करते थे।इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जौ गेहूं हमारे लिए कितना उपयोगी होगा। जौ का इस्तेमाल आयुर्वेद में कई प्रकार की औषधि बनाने के रूप में भी किया जाता है जो कई बीमारियों से हमारे शरीर की सुरक्षा करती है। 

जैसे पेट दर्द होना , कभी कभी भूख ना लगना, दस्त की शिकायत होना , सर्दी जुखाम जैसी समस्या का होना ,ज्यादा प्यास ना लगना आदि जैसे : रोगों से छुटकारा पाने के लिए जौ इस्तेमाल औषधि के रूप में किया जाता है।

जौ के फायदे ( Benefits of Barley)

जौ के एक नहीं बहुत सारे फायदे होते है।इसमें मौजूद पौष्टिक तत्व जैसे : कैल्शियम पोटैशियम, सैलीसिलिक एसिड ,फॉस्फोरस एसिड, आदि महत्वपूर्ण तत्व पाए जाते हैं। 

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यह महत्वपूर्ण तत्व कई प्रकार के इलाज के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।अतः हर दृष्टिकोण से देखें तो जौ हमारे लिए बहुत ही फायदेमंद है। 

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जौ कहां पाया जाता है ( Where is barley found)

जौ बलुई मिट्टी में बोया जाता है इसके अंदर शीत तथा नमी  सहने की बहुतअधिक क्षमता होती है। जौ का सबसे बड़ा उत्पादन क्षेत्र उत्तर प्रदेश को माना जाता है। 

जहां इसकी भारी मात्रा में पैदावार होती है। तथा जौ का उत्पादन इन राज्यों में भी पाया जाता है जैसे: राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा एवं पंजाब आदि। यह सभी क्षेत्र भारी मात्रा में जौ की पैदावार करते हैं।

जौ का दूसरा नाम ( another name for barley)

जौ दिखने में गेहूं की तरह होता है जौ को बार्ले नाम से भी पुकारा जाता है तथा या एक खाद्य पदार्थ हैं। लोग इसे आम भाषा में जौ के ही नाम से पहचानते हैं। 

बाकी अनाजों की नजर से देखे तो जौ को लोग काफी कम पसंद करते हैं। लेकिन इसमें कई तरह के पौष्टिक गुण होते हैं  जो बाकी अनाजों में नहीं होते। हरा चारे गौ के लिए कितना महत्वपूर्ण होता है हरे चारे के क्या लाभ होते हैं, तथा हरे चारे से जुड़ी कई प्रकार की जानकारी हमने अपने इस पोस्ट में दी हैं। 

हम उम्मीद करते हैं कि आपको हमारी यह पोस्ट जरूर पसंद आई होगी। यदि आप हमारी इस पोस्ट से संतुष्ट है।तो इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा सोशल मीडिया में और अपने दोस्तों के साथ शेयर करें।

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती से किसानों को ये किस्में दिलाएंगी शानदार मुनाफा

अरहर की खेती सदैव कृषकों के लिए फायदे का सौदा साबित हुई है। हालांकि, बाजार के उतार-चढ़ाव में अरहर का भाव कम-अधिक होता रहता है। 

परंतु, अरहर की खेती करने वाले कृषकों के समक्ष एक चुनौती यह आती है, कि यह फसल काफी लंबे समय में पककर तैयार होती है। किसान दूसरी फसलों की बुवाई नहीं कर पाता है। 

परंतु, वैज्ञानिकों ने अरहर की कुछ ऐसी भी किस्में तैयार की हैं, जो न सिर्फ कम समय में पककर तैयार होती हैं। साथ ही, उपज भी काफी अच्छी देती हैं। 

इसके अतिरिक्त किसानों को अरहर की खेती में कुछ विशेष सावधानियों की आवश्यकता पड़ती है। बतादें, कि कृषकों को अरहर की रोपाई से पहले उसका बीजोपचार करना पड़ता है। 

साथ ही, अरहर की बुवाई जून के माह में की जाती है। चलिए जानते हैं, कम समयावधि में तैयार होने वाली किस्मों की खूबियां व बीचोपचार के बारे में।

किसान भाई इन तीन किस्मों का उत्पादन कर अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं ?

अरहर की पूसा 992 किस्म

भूरे रंग, मोटा, गोल और चमकदार दाने वाली इस किस्म को वर्ष 2005 में विकसित किया गया था। ये किस्म अन्य किस्मों के मुकाबले कम दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसको पकने में तकरीबन 140 से 145 दिन का समय लगता है।

दरअसल, यह किस्म प्रति एकड़ भूमि द्वारा 7 क्विंटल उत्पादन प्रदान कर सकती है। जानकारी के लिए बतादें, कि इस किस्म की खेती सर्वाधिक पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान राज्य में की जाती है। 

अरहर की पूसा 16 किस्म 

पूसा 16 जल्दी तैयार होने वाली बेहतरीन प्रजाति है। अरहर की इस किस्म की समयावधि 120 दिन की होती है। इस फसल में छोटे आकार का पौधा 95 सेमी से 120 सेमी लंबा होता है, इस किस्म का औसत उत्पादन 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है। 

अरहर की आईपीए 203 किस्म  

अरहर की आईपीए 203 किस्म की विशेषता यह है, कि इस किस्म में बीमारियों का आक्रमण नहीं होता है। साथ ही, इस किस्म की बुवाई करके फसल को बहुत सारे रोगों से संरक्षित किया जा सकता है। 

साथ ही, इससे बेहतरीन उपज भी हांसिल कर सकते हैं। इसकी औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की होती है।

इस किस्म की समयावधि 150 दिन की होती है। साथ ही, अन्य किस्मों को तैयार होने में लगभग 220 से 240 दिन लगते हैं।

कृषक इस प्रकार बीज उपचार करें 

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि किसी भी फसल की खेती से पहले बीज उपचार अत्यंत आवश्यक है। बीज उपचार करने से रोगिक प्रभाव काफी कम पड़ते हैं। 

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इसके लिए कार्बेंडाजिम नामक दवा को दो ग्राम प्रति किलो की दर से मिला लें। इसमें पानी मिलाकर बीज को किसी छाया वाली जगह पर चार घंटे के लिए रख दें। इसके बाद इसकी बुवाई करें। ऐसा करने से बीज पर किसी प्रकार का रोग आक्रामण नहीं करता है। 

कृषक इस विधि से करें अरहर की खेती 

सामान्यतः किसान अरहर की खेती छींटा विधि के माध्यम से करते हैं, जिससे कहीं अधिक तो कहीं कम बीज जाते हैं। इससे कहीं घनी तो कहीं खाली फसल तैयार होती है। 

इससे फसलीय उपज में काफी कमी आती है, क्योंकि घना हो जाने से पौधों को समुचित धूप, पानी और खाद नहीं मिल पाता है। इसके लिए किसान को 20 सेंटीमीटर के फासले पर बीज लगाने चाहिए। इससे बीज दर भी काफी कम लगती है।

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

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वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

पोटाश, जिसे पोटेशियम (K) के रूप में भी जाना जाता है, केला सहित सभी पौधों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक आवश्यक मैक्रोन्यूट्रिएंट्स में से एक है। पोटेशियम पौधों के भीतर विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे प्रकाश संश्लेषण, एंजाइम सक्रियण, ऑस्मोरग्यूलेशन और पोषक तत्व ग्रहण। केले के पौधों में पोटाश की कमी से उनकी वृद्धि, फल विकास और समग्र उत्पादकता पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आइए जानते है केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रमुख लक्षणों के बारे में एवं उसे प्रबंधित करने के विभिन्न रणनीतियों के बारे में....

केले के पौधों में पोटाश की कमी के लक्षण

केले के पौधों में पोटेशियम की कमी कई प्रकार के लक्षणों के माध्यम से प्रकट होती है जो पौधे के विभिन्न भागों को प्रभावित करते हैं। समय पर निदान और प्रभावी प्रबंधन के लिए इन लक्षणों को समझना महत्वपूर्ण है। केले के पौधों में पोटाश की कमी के कुछ सामान्य लक्षण इस प्रकार हैं:

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पत्ती पर पोटाश के कमी के लक्षण

पत्ती के किनारों का भूरा होना: पुरानी पत्तियों के किनारे भूरे हो जाते हैं और सूख जाते हैं, इस स्थिति को पत्ती झुलसना कहा जाता है। पत्तियों का मुड़ना: पत्तियाँ ऊपर या नीचे की ओर मुड़ जाती हैं, जिससे उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। शिराओं के बीच पीलापन: शिराओं के बीच पत्ती के ऊतकों का पीला पड़ना, जिसे इंटरवेनल क्लोरोसिस कहा जाता है, एक सामान्य लक्षण है। पत्ती परिगलन: गंभीर मामलों में, पत्तियों पर नेक्रोटिक (मृत) धब्बे दिखाई दे सकते हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषक गतिविधि कम हो जाती है।

फल पर पोटाश के कमी के लक्षण

फलों का आकार कम होना: पोटाश की कमी से फलों का आकार छोटा हो जाता है, जिससे केले के बाजार मूल्य पर असर पड़ता है। असमान पकना: फल समान रूप से नहीं पकते हैं, जिससे व्यावसायिक उत्पादकों के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

तना और गुच्छा पर पोटाश के कमी के लक्षण

रुका हुआ विकास: केले के पौधे की समग्र वृद्धि रुक ​​सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उपज कम हो जाती है। छोटे गुच्छे: पोटाश की कमी से फलों के गुच्छे छोटे और पतले हो जाते हैं।

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जड़ पर पोटाश की कमी के लक्षण

कमजोर कोशिका भित्ति के कारण जड़ें कम सशक्त होती हैं और रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।

केले के पौधों में पोटाश की कमी का प्रबंधन

केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रबंधन में पोटेशियम के अवशोषण और उपयोग में सुधार के लिए मिट्टी और पत्तियों पर पोटेशियम के प्रयोग के साथ-साथ अन्य कृषि कार्य का संयोजन शामिल है। पोटाश की कमी को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए यहां कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं, जैसे:

मृदा परीक्षण

मिट्टी में पोटेशियम के स्तर का आकलन करने के लिए मिट्टी परीक्षण करके शुरुआत करें। इससे कमी की गंभीरता को निर्धारित करने और उचित पोटेशियम उर्वरक प्रयोग करने के संबंध में सही मार्गदर्शन मिलेगा।

उर्वरक अनुप्रयोग

मिट्टी परीक्षण की सिफारिशों के आधार पर पोटेशियम युक्त उर्वरक, जैसे पोटेशियम सल्फेट (K2SO4) या पोटेशियम क्लोराइड (KCl) का प्रयोग करें। रोपण के दौरान या केला के विकास के दौरान साइड-ड्रेसिंग के माध्यम से मिट्टी में पोटेशियम उर्वरकों को शामिल करें। मिट्टी के पीएच की निगरानी करें, क्योंकि अत्यधिक अम्लीय या क्षारीय मिट्टी पोटेशियम की मात्रा को कम कर सकती है। यदि आवश्यक हो तो पीएच स्तर समायोजित करें।

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पत्तियों पर छिड़काव करें

गंभीर कमी के मामलों में, पत्तों पर पोटेशियम का छिड़काव त्वरित उपाय है। पत्तियों को जलने से बचाने के लिए पोटेशियम नाइट्रेट या पोटेशियम सल्फेट को पानी में घोलकर सुबह या दोपहर के समय लगाएं। मिट्टी की नमी को संरक्षित करने और मिट्टी के तापमान को लगातार बनाए रखने के लिए केले के पौधों के चारों ओर जैविक गीली घास लगाएं। इससे जड़ों द्वारा पोटेशियम अवशोषण में सुधार होता है।

संतुलित पोषण

सुनिश्चित करें कि पोषक तत्वों के असंतुलन को रोकने के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्व, जैसे नाइट्रोजन (एन) और फास्फोरस (पी), भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो।आम तौर पर (प्रजाति एवं मिट्टी के अनुसार भिन्न भिन्न भी हो सकती है ), केले को मिट्टी और किस्म के आधार पर 150-200 ग्राम नत्रजन ( एन), 40-60 ग्राम फास्फोरस ( पी2ओ5) और 200-300 ग्राम पोटाश (के2ओ) प्रति पौधे प्रति फसल की आवश्यकता होती है। फूल आने के समय (प्रजनन चरण) में एक-चौथाई नत्रजन(N) और एक-तिहाई पोटाश (K2O) का प्रयोग लाभकारी पाया गया है। फूल आने के समय में नत्रजन का प्रयोग पत्तियों की उम्र बढ़ने में देरी करता है और गुच्छों के वजन में सुधार लाता है और एक तिहाई पोटाश का प्रयोग करने से फिंगर फिलिंग बेहतर होती है। ऊत्तक संवर्धन द्वारा तैयार केले के पौधे से खेती करने में नाइट्रोजन एवं पोटैशियम की कुल मात्रा को पांच भागों में विभाजित करके प्रयोग करने से अधिकतम लाभ मिलता है जैसे प्रथम रोपण के समय,दूसरा रोपण के 45 दिन बाद , तृतीय-90 दिन बाद, चौथा-135 दिन बाद; 5वीं-180 दिन बाद। फास्फोरस उर्वरक की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय या गड्ढे भरते समय डालनी चाहिए।

जल प्रबंधन

पानी के तनाव से बचने के लिए उचित सिंचाई करें, क्योंकि सूखे की स्थिति पोटेशियम की कमी को बढ़ा सकती है।

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फसल चक्र

मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के जोखिम को कम करने के लिए केले की फसल को अन्य पौधों के साथ बदलें।

रोग एवं कीट नियंत्रण

किसी भी बीमारी या कीट संक्रमण का तुरंत समाधान करें, क्योंकि वे पौधे पर दबाव डाल सकते हैं और पोषक तत्व ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न करते हैं।

कटाई छंटाई और मृत पत्तियों को हटाना

स्वस्थ, पोटेशियम-कुशल पर्णसमूह के विकास को बढ़ावा देने के लिए नियमित रूप से क्षतिग्रस्त या मृत पत्तियों की छंटाई करें।

निगरानी और समायोजन

पोटेशियम उपचारों के प्रति पौधे की प्रतिक्रिया की लगातार निगरानी करें और तदनुसार उर्वरक प्रयोगों को समायोजित करें। अंत में कह सकते है की केले के पौधों में पोटेशियम की कमी से विकास, फल की गुणवत्ता और उपज पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस कमी को दूर करने और स्वस्थ और उत्पादक केले की फसल सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी परीक्षण, उर्वरक प्रयोग और कृषि कार्यों सहित समय पर निदान और उचित प्रबंधन आवश्यक हैं। इन रणनीतियों को लागू करके, केला उत्पादक पोटेशियम पोषण को अनुकूलित करते हैं और बेहतर समग्र पौध स्वास्थ्य और फल उत्पादन प्राप्त करते हैं।

क्या है गूलर का पेड़ और इससे मिलने वाले विविध लाभ

क्या है गूलर का पेड़ और इससे मिलने वाले विविध लाभ

गूलर पेड़ एक प्रमुख पेड़ है जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। गूलर का पेड़ कई रोगों में भी इस्तेमाल किया जाता है। आज के इस लेख में हम आपको इसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी देंगे। 

इस लेख में आप  gular ka ped kaisa hota hai? gular ka phool kaisa hota hai? gular ka ped?gular ka phool? प्रशनों के बारे में विस्तार से जान सकते है। 

gular ka ped kaisa hota hai?

गूलर का पेड़ विशालकाय वृक्ष हैं। गूलर के पेड़ की लम्बाई 30-40 फ़ीट होती है। गूलर के पेड़ पर हल्के हरे रंग का फल आता हैं जो पकने के बाद लाल रंग का दिखाई देता हैं। 

गूलर के पेड़ पर लगने वाले फल अंजीर के समान दिखाई पड़ते है। gular ka ped भारत देश में पाया जाने वाला बहुत ही आम पेड़ है। यह पेड़ अंजीर प्रजाति का हैं, इसे अंग्रेजी भाषा में कलस्टर फिग (Cluster Fig) भी कहते है। 

गूलर के पेड़ की सबसे मुख्य बात ये हैं की इसके पौधे में ज्यादा पानी नहीं देना पड़ता हैं इसमें 3-4 दिन में सिर्फ एक बार पानी दिया जाता हैं गूलर के पेड़ को अच्छे से विकसित होने में कम से कम 8-9 साल का वक्त लगता है। 

गूलर के पत्तों का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाई बनाने के लिए किया जाता हैं। गूलर के फल में बहुत सारे कीड़े होने की वजह से इसे जंतु फल भी कहा जाता है। 

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गूलर के फल में कीड़े क्यों पाए जाते हैं

गूलर और पीपल के पेड़ को एक ही प्रजाति का माना जाता है। गूलर का फल चाहे बंद हो लेकिन गूलर का फूल खिलता हैं इसमें परागण करने के लिए कीड़े प्रवेश करते है। यह कीड़े फल का रस चूसने के लिए इसमें प्रवेश करते है। 

gular ka phool kaisa hota hai ? 

गूलर के पेड़ पर फल तो लगते है पर इसपर कभी फूल दिखाई नहीं देते है। गूलर का फूल कब खिलता हैं और कैसा होता हैं ये आज तक कोई नहीं जान पाया। 

माना जाता हैं गूलर का फूल रात में खिलता हैं जो किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। गूलर के फूल को धन कुबेर से सम्बोधित किया जाता हैं, गूलर के पेड़ को धार्मिक रूप से अत्यधिक महत्व दिया जाता है।

गूलर के पेड़ से मिलने वाले फायदे क्या हैं 

  1. गूलर के दूध की 10-15 बूँदे पानी में मिलाकर पीने से बबासीर जैसे रोगों में फायदा मिलता हैं साथ ही इसके दूध को मस्सों पर लगाने से मस्से दब जाते है। 
  2. गूलर के फल का सेवन पेट दर्द जैसे रोगों में भी सहायक हैं। 
  3. गूलर का फल खाने से मधुमेह जैसे रोगों में सहायता मिलती हैं साथ ही ब्लड शुगर को भी नियंत्रित करता है। 
  4. गूलर के पत्तों के साथ मिश्री को पीस कर खाने से मुँह में गर्मी की वजह से होने वाले छालों में फायदेमंद रहता है। 

रक्त विकार में गूलर के फायदे 

रक्त विकार यानी शरीर के किसी भी अंग से अगर खून बहता हैं जैसे नाक से खून आना, मासिक धर्म जैसे रोगों में अधिक रक्तचाप होना इन सभी रोगो के लिए फायदेमंद है। इसमें गूलर के पके हुए 3-4 फलो को चीनी के साथ दिन में 2-3 बार लेने से आराम मिलता हैं।

घाव भरने में गूलर की छाल हैं उपयोगी 

gular ka ped कई रोगो में भी इस्तेमाल होता है। किसी भी घाव को जल्द से जल्द भरने के लिए गूलर की छाल का हम प्रयोग कर सकते है। 

gular ka ped की छाल का काढ़ा बनाकर उससे घाव को यदि रोजाना धोया जाये तो उससे घाव के भरने की ज्यादा सम्भावना रहती है। गूलर में रोपड़ नामक गुण पाया जाता हैं जो की घाव को भरने में सहायता करता है।

पाचन किर्या में हैं सहायक 

गूलर के फल को पाचन किर्या के लिए भी इस्तेमाल किया जाता हैं। गूलर का फल भूख को भी नियंत्रित करता हैं साथ ही स्वास्थ्य को भी स्वस्थ रखने में मददगार होता है। 

यह अल्सर जैसी बीमारियों को रोकने में भी लाभकारी साबित होता है। gular ka phool भी कई रोगों को ठीक करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

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गूलर से होने वाले नुक्सान 

गूलर का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाईयों के लिए भी किया जाता हैं, लेकिन कभी कभी गूलर का ज्यादा इस्तेमाल करना भी हानिकारक हो जाता हैं :

आँतो पर सूजन आने की संभावनाऐं  

gular ka ped के फल का सेवन ज्यादा नहीं करना चाहिए क्यूंकि इससे आँतों पर सूजन आने की ज्यादा आशंकाए रहती हैं, माना जाता हैं इसके ज्यादा इस्तेमाल से आँतों में कीड़े पड जाते हैं। 

गर्भवती महिलाओं को कभी भी इसका सेवन ज्यादा नहीं करना चाहिए, अगर वो इनका इस्तेमाल करती हैं तो डॉक्टर से परामर्श लेकर वो गूलर का उपयोग कर सकती है। 

ब्लड प्रेशर का कम होना 

गूलर के ज्यादा उपयोग से ब्लड प्रेशर के भी कम होने की ज्यादा सम्भावनाये रहती है। जो की हार्टअटैक से जुडी बीमारियों को भी जन्म देता हैं। 

ब्लड प्रेशर के कम होनी की वजह से शरीर में ब्लड का सर्कुलेशन बिगड़ जाता हैं और धीमा पड जाता है। इसीलिए गूलर के फल का बहुत ही कम उपयोग करना चाहिए। 

अलेर्जिक रिएक्शन 

गूलर के फल को खाने से इम्मुनिटी मिलती है। गूलर का फल फायदेमंद रहता हैं लेकिन इसके ज्यादा उपयोग से शरीर को नुक्सान पहुँच सकता हैं। 

गूलर के फल को खाने से शरीर में अलेर्जी जैसे बीमारियां भी उत्पन्न सकता हैं। यदि आपको लगे की गूलर के खाने से शरीर में कोई एलेर्जी महसूस हो रही हैं तो उसी वक्त उसका सेवन करना छोड़ दे। 

जैसा की आप को बताया गया की गूलर जड़ी बूटियों का पौधा है, जो की बबासीर, पिम्पल्स और मस्कुलर पैन में लाभकारी होता है। गूलर का इस्तेमाल बहुत से आयुर्वेदिक दवाइयों में भी इस्तेमाल किया जाता हैं।

गूलर खून के अंदर आरबीसी (रेड ब्लड सेल) को बढ़ाता हैं, जो पूरे शरीर में ब्लड सर्कुलेशन ( खून के रक्तचाप ) को संतुलित बनाये रखती है। गूलर का पेस्ट बनाकर और उसे शहद में मिलाकर लगाने से जलने के निशान भी चले जाते है।

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

लंपी वायरस एक संक्रामक रोग है। यह पशुओं के लार के माध्यम से फैलता है। लंपी वायरस गाय बकरी आदि जैसे दूध देने वाले पशुओं पर प्रकोप ड़ालता है। इस वायरस के प्रकोप से बकरियों के शरीर पर गहरी गांठें हो जाती हैं। साथ ही, यह बड़ी होकर घाव के स्वरूप में परिवर्तित हो जाती हैं। इसको सामान्य भाषा में गांठदार त्वचा रोग के नाम से भी जाना जाता है। बकरियों के अंदर यह बीमारी होने से उनका वजन काफी घटने लगता है। सिर्फ यही नहीं बकरियों के दूध देने की क्षमता भी कम होनी शुरू हो जाती है। 

लंपी वायरस के क्या-क्या लक्षण होते हैं

इस रोग की वजह से बकरियों को बुखार आना शुरू हो जाता है। आंखों से पानी निकलना, लार बहना, शरीर पर गांठें आना, पशु का वजन कम होना, भूख न लगना एवं शरीर पर घाव बनना इत्यादि जैसे लक्षण होते हैं। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लंपी रोग केवल जानवरों में होता है। यह लंपी वायरस गोटपॉक्स एवं शिपपॉक्स फैमिली का होता है। इन कीड़ों में खून चूसने की क्षमता काफी अधिक होती है।

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लंपी वायरस से बकरियों के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस वायरस की चपेट में आने के पश्चात बकरियों में इसका संक्रमण 14 दिन के अंदर दिखने लगता है। जानवर को तीव्र बुखार, शरीर पर गहरे धब्बे एवं खून में थक्के पड़ने लगते हैं। इस वजह से बकरियों का वजन कम होने लग जाता है। साथ ही, इनकी दूध देने की क्षमता भी काफी कम होने लगती है। दरअसल, इसके साथ-साथ पशु के मुंह से लार आनी शुरू हो जाती है। गर्भवती बकरियों का गर्भपात होने का भी खतरा बढ़ जाता है। 

लंपी वायरस की शुरुआत किस देश से हुई है

विश्व में पहली बार लंपी वायरस को अफ्रीका महाद्वीप के जाम्बिया देश के अंदर पाया गया था। हाल ही में यह पहली बार 2019 में चीन में सामने आया था। भारत में भी यह 2019 में ही आया था। भारत में पिछले दो सालों से इसके काफी सारे मामले सामने आ रहे हैं। 

बकरियों का दूध पीयें या नहीं

लंपी वायरस मच्छर, मक्खी, दूषित भोजन एवं संक्रमित पाशुओं के लार के माध्यम से ही फैलता है। इस वायरस को लेकर लोगों के भीतर यह भय व्याप्त हो गया है, कि क्या इस वायरस से पीड़ित पशुओं के दूध का सेवन करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि पशुओं के दूध का उपयोग किया जा सकता है। परंतु, आपको दूध को काफी अच्छी तरह से उबाल लेना चाहिए। इससे दूध में विघमान वायरस पूर्णतय समाप्त हो जाए।

खाद-बीज के साथ-साथ अब सहकारी समिति बेचेंगी आरओ पानी व पशु आहार

खाद-बीज के साथ-साथ अब सहकारी समिति बेचेंगी आरओ पानी व पशु आहार

खाद-बीज के साथ-साथ अब सहकारी समिति बेचेंगी आरओ पानी व पशु आहार - सहकारिता विभाग ने शासन को भेजा प्रस्ताव

मथुरा।
सहकारिता विभाग ने अपनी शाखाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक योजना तैयार की है। आत्मनिर्भर भारत योजना के अंतर्गत सहकारी समितियों को आत्मनिर्भर बनाने की पहल की जा रही है। सहकारिता विभाग प्रस्ताव तैयार करके शासन को भेजा है। इस प्रस्ताव में सहकारी समितियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए समिति पर खाद-बीज के साथ-साथ आरओ पानी व पशु आहार बेचने की योजना तैयार की जा रही है। सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक रवीन्द्र कुमार द्वारा समितियों को आत्मनिर्भर बनाने और अन्य व्यवसायों के लिए प्रेरित करने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। आत्मनिर्भर भारत योजना के अंतर्गत कृषि अवस्थापना निधि से प्रथम चरण में मथुरा जनपद की 6 समितियों को आत्मनिर्भर बनाने का प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। इस योजना के तहत सहकारी समितियों पर अब खाद-बीज के साथ-साथ आरओ पानी व पशु आहार उचित मूल्यों पर मिलेगा।

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सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक रवीन्द्र कुमार ने बताया कि सहकारी समितियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पहले आरओ पानी व पशु आहार बेचने का प्रस्ताव तैयार किया गया है। इसके तहत शुरुआत में 6 सहकारी समितियों का चयन किया गया है। इसके बाद पूरे जनपद की 78 सहकारी समितियों को आत्मनिर्भर बनाने की योजना है। इसमें किसान स्वंय सहायता समूह, क्षेत्रीय सहकारी समितियों, कोल्ड स्टोरेज, कोल्ड पैन को चार प्रतिशत की मासिक ब्याज दर से बैंकों को ऋण दिलाया जाएगा। जिसमें कृषि उपकरण, ट्रैक्टर, कल्टीवेटर, मेज व हैरों आदि खरीदे जा सकेंगे। इसके अलावा नाबार्ड के सहयोग से इस योजना में सहकारिता विभाग 17 गोदाम बनाएगा। उन्होंने बताया कि इस योजना का मूल उद्देश्य सहकारी समितियों को स्वाबलंबी बनाना है। जिससे ज्यादा से ज्यादा किसान व ग्रामीण समितियों से जुड़े रहें।

इन समितियों का किया गया है चयन :

- सहकारी समितियों को आत्मनिर्भर बनाने की योजना के अंतर्गत पहले चरण के लिए चौमुहां, बेरी, देवीआटस, सहपऊ, सेही और वृंदावन सहकारी समितियों को चयनित किया गया है। जल्दी जी शासन से स्वीकृति मिलने के बाद इन समितियों पर आरओ पानी व पशु आहार की बिक्री होगी। ------ लोकेन्द्र नरवार
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के ट्वीट में छिपी है यह तारांकित खुशखबरी

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के ट्वीट में छिपी है यह तारांकित खुशखबरी

ट्रैक्टर से जुड़ी है गुड न्यूज़, जानिये कब मिलेगी सौगात

भारत की केंद्रीय सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने अधिकृत ट्विटर हैंडल से कृषक हितैषी तारांकित खुशखबरी दी है। यूनियन एग्रीकल्चर मिनिस्टर (Union Agriculture Minister)
नरेंद्र सिंह तोमर (Narendra Singh Tomar) ने जुलाई मासांत, दिवस 31 जुलाई 2022 को दोपहर 1.24 बजे ट्वीट के जरिए किसान और किसानी के हित से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी जारी की। केंद्रीय कृषि मंत्री तोमर ने अपने ट्वीट (Tweet) में मध्य प्रदेश के केंद्रीय कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान बुदनी (Central Farm Machinery Training & Testing Institute, Budni, Madhya Pradesh, INDIA/सीएफएमटीटीआई/CFMTTI), द्वारा लिए गए निर्णय के बारे में जानकारी दी। उन्होंने #आजादीकाअमृतमहोत्सव (#AzadiKaAmritMahotsav) एवं #आत्मनिर्भरकृषि (#AatmaNirbharKrishi) हैश टैग के साथ ट्रैक्टर से जुड़े बड़े फैसले के बारे में जानकारी दी।
आत्मनिर्भर कृषि ऐप्प (Atmanirbhar Krishi app) से सम्बंधित सरकारी प्रेस रिलीज़ दस्तावेज पढ़ने या पीडीऍफ़ डाउनलोड के लिए, यहां क्लिक करें
उन्होंने ट्वीट में सीएफएमटीटीआई बुदनी द्वारा खेती कार्य में प्रयुक्त होने वाले ट्रैक्टर्स की टेस्टिंग प्रोसेस यानी परीक्षण प्रक्रिया के लिए पूर्व में निर्धारित समय सीमा 9 माह को घटाकर 75 दिन करने के बारे में सूचना प्रदान की। अपने ट्वीट में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक पोस्टर शेयर किया है। इस पोस्टर में किसान, ट्रैक्टर के साथ स्वयं केंद्रीय मंत्री तोमर भी दृष्टव्य हैं। गौर करने वाली बात यह है कि यूनियन मिनिस्टर ऑफ स्टेट फॉर एग्रीकल्चर एंड फार्मर वेलफेयर नरेंद्र सिंह तोमर द्वारा साझा किए गए पोस्टर में तारांकित सूचना पर आपको जरा बारीकी से नजर डालनी होगी। दरअसल पोस्टर में ट्रैक्टर परीक्षण प्रक्रिया डेडलाइन कम करने, आजादी के अमृत महोत्सव आदि सभी को तो बड़े अक्षरों में प्रदर्शित किया गया है, लेकिन इस बात का खुलासा तारांकित चिह्न के साथ अपेक्षाकृत महीन अक्षरों में जाहिर किया गया है कि, प्रक्रियागत यह बदलाव कब से लागू होगा। इमेज को जूम कर गौर से पढ़ने पर पता चलता है कि, ट्रैक्टर परीक्षण प्रक्रिया 9 माह से घटाकर 75 दिन करने संबंधी प्रोसेस इस महीने 15 अगस्त से लागू होगी।


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इस लिंक में आप भी पढ़िये केंद्रीय मंत्री तोमर का ट्वीट एवं देखिए ट्वीट में साझा किए गए पोस्टर को। सौजन्य- ट्विटर: https://twitter.com/nstomar/status/1553650290603110400

ट्वीट पर प्रतिक्रिया

जैसा कि ट्विटर पर क्रिया की प्रतिक्रिया की प्रक्रिया की रवायत है, तो आपको बता दें इस सिलसिले में 31 जुलाई 2022 को दोपहर 1.24 बजे केंद्रीय मंत्री के सोशल मीडिया अकाउंट से जारी इस ट्वीट पर तीन शाब्दिक प्रतिक्रियाएं ही दर्ज हुईं, जिसमें से दो बधाई संबंधी हैं, तो एक में शिकायती भाव में किसान का दुखड़ा दर्ज है। हिसार, हरियाणा के एक यूजर ने रिप्लाई में बीमा योजना का लाभ अपात्रों को प्रदान करने एवं पात्र हितग्राहियों के वंचित रहने की परेशानी का जिक्र किया है, आप भी पढ़िये। सौजन्य- ट्विटर : https://twitter.com/yaarabmole/status/1553677560214863872?t=1ZUT0NhVtICm6cKYpKZTLw&s=19 वैसे ट्रैक्टर परीक्षण प्रक्रिया में लगने वाले समय को कम करने से क्या लाभ और परिणाम होंगे, इस बारे में आप अपने विचार हमारे साथ साझा करें।
इस राज्य में सबसे ज्यादा किसान कर रहे हैं आत्महत्या, जाने क्या है कारण

इस राज्य में सबसे ज्यादा किसान कर रहे हैं आत्महत्या, जाने क्या है कारण

एक बार फसल लगाने के बाद किसानों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सूखा और बहुत ज्यादा बारिश उनमें से एक हैं। बहुत ज्यादा बारिश होने से कभी-कभी खेतों में खड़ी पूरी की पूरी फसल बर्बाद हो जाती है। जो किसानों के ऊपर भारी कर्ज और परेशानी छोड़ देता है। पिछले साल बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में भारी बारिश हुई, जिससे कई इलाकों में बाढ़ का पानी भर गया। इससे खेतों में खड़ी फसलें बर्बाद हो गईं, ऐसे में किसान कर्ज में डूब गए। मीडिया की रिपोर्ट की मानें तो साल 2022 में महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में लगभग 1000 से ज्यादा किसानों ने इन समस्याओं के चलते आत्महत्या की है। यह आंकड़े बहुत ज्यादा परेशान करने वाले हैं। कार्यालय के अधिकारियों की मानें तो इससे पिछले साल की गई आत्महत्या 887 थी जो इस साल बढ़कर 1023 हो गई हैं। किसानों की आत्महत्या एक ऐसा आंकड़ा है, जो कोई भी सरकार बढ़ाना नहीं चाहती है। मीडिया की रिपोर्ट की मानें तो साल 2001 और साल 2010 के बीच हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से बहुत से रिपोर्ट मीडिया में दर्ज भी नहीं होती है। यह आंकड़े ना सिर्फ चौकाने वाले हैं बल्कि दुखदाई भी हैं। एक बार फसल बर्बाद हो जाने के बाद किसानों के पास कोई रास्ता नहीं रह जाता है। वह मौत को गले लगाना ही सबसे सही समझते हैं। पिछले कुछ वर्षों में, इस क्षेत्र में कुछ वर्षों में सूखे जैसी स्थिति और अन्य में अत्यधिक बारिश देखी गई है, जिसने फसल उत्पादकों की कठिनाइयों को बढ़ा दिया है। उन्होंने कहा कि क्षेत्र में सिंचाई नेटवर्क का भी पूरी क्षमता से उपयोग नहीं किया जा रहा है।

दिसंबर और जून के बीच बढ़ रही हैं ऐसी घटनाएं

जिला प्रशासन के सहयोग से उस्मानाबाद में किसानों के लिए एक परामर्श केंद्र चलाने वाले विनायक हेगाना ने किसान आत्महत्याओं का विश्लेषण करते हुए छोटे से छोटे स्तर पर काम करने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि ऊंचे लेवल पर कई तरह की नीतियां और योजनाएं बनाई जा रही हैं और साथ ही जमीनी स्तर पर भी कई तरह के सुधार किए जा रहे हैं। ताकि इस तरह की घटनाओं को कम किया जा सके। इससे पहले जुलाई और अक्टूबर के बीच सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं दर्ज की गई थी। लेकिन पैटर्न बदल गया है। उन्होंने कहा कि अब किसानों की आत्महत्या की घटनाएं दिसंबर और जून के बीच संख्या बढ़ रही हैं।

किसानों को अपनी उपज का अच्छा रिटर्न मिलना है जरूरी

संख्या पर अंकुश लगाने की नीतियों पर हेगाना ने कहा कि इन नीतियों में खामियां ढूंढना और उन्हें बेहतर बनाना एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए। साथ ही जरूरी है, कि कुछ ऐसे लोगों का समूह बनाया जा सके जो इस पर काफी एक्टिव हो कर काम करें। संपर्क किए जाने पर, महाराष्ट्र विधान परिषद में विपक्ष के नेता अंबादास दानवे ने कहा कि हालांकि किसानों के लिए कई बार कर्जमाफी हुई है। लेकिन आंकड़े (आत्महत्या के) बढ़ रहे हैं। उन्होंने मीडिया में कहा कि केवल किसानों का कर्ज माफ कर देना ही काफी नहीं है। ये भी देखें: महाराष्ट्र में फसलों पर कीटों का प्रकोप, खरीफ की फसल हो रही बर्बाद हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि किसानों को उनकी उपज का अच्छा खासा रिटर्न मिले। जब किसान फसल लगाते हैं, तो उस पर काफी तरह का खर्चा करते हैं। अगर वह खर्चा ही ना निकाल पाए तो यह उनके लिए बहुत बड़ा आर्थिक संकट बन कर सामने आता है। दानवे ने बहुत ही ऊंचे दामों पर बेचे जा रहे घटिया किस्म के बीज और खाद के बारे में भी बात की और इस पर चिंता व्यक्त की है। अगर किसानों को सही तरह के बीज और खाद ही नहीं मिल पाएंगे तो उत्पादन को बढ़ाना मुश्किल है।
दिल्ली में होने जा रहा है 2-4 मार्च को पूसा कृषि विज्ञान मेला जाने यहां क्या होगा खास

दिल्ली में होने जा रहा है 2-4 मार्च को पूसा कृषि विज्ञान मेला जाने यहां क्या होगा खास

दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के ग्राउंड में लगने वाला कृषि मेला 2 से 4 मार्च तीन दिनों तक चलेगा। आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निदेशक डॉ अशोक कुमार सिंह ने कृषि मेला की जानकारी देते हुए कहा,

"इस बार पूसा कृषि विज्ञान मेला मार्च 2 से 4 तक लगाया जाएगा। मेले का उद्घाटन 2 मार्च को केंद्रीय कृषि एवं कल्याण मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर करेंगे।"

पूसा कृषि विज्ञान मेले का मुख्य आकर्षण क्या होगा

अगर आप भी संरक्षित खेती, प्राकृतिक खेती और
मोटे अनाजों के बारे जानकारी चाहते हैं, तो आपके लिए बढ़िया मौका है, पूसा कृषि विज्ञान मेला में सारी जानकारियां आपको एक ही जगह पर एक साथ मिल जाएंगी। 

इस बार कृषि मेले में अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष 2023 के अंर्तगत मोटा अनाज आधारित मुल्य श्रृंखला विकास, स्मार्ट खेती/ संरक्षित खेती मॉडल, जलवायु तन्यक एवं संपोषक, कृषि विपणन एवं निर्यात, किसानों के नवाचार- संभावनाएं एवं समस्याएं, किसान उत्पादक संगठन- स्टार्टअप लिंकेज जैसी जानकारियां दी जाएंगी। 

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पूसा कृषि विज्ञान मेले में उन्नतशील किसानों को किया जाएगा सम्मानित

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा कृषकों के नवाचारों को महत्ता देता है तथा व्यावहारिक कृषि प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों को विकसित और प्रसारित करने वाले प्रतिभावान कृषकों को प्रोत्साहित करने के लिए हर वर्ष पूसा कृषि विज्ञान मेले में  लगभग 25-30 उन्नतशील किसानों को उनके नवाचार सृजन और प्रसार में उत्कृष्ट योगदान के लिए भाकृअनुसं-नवोन्मेषी किसान और भाकृअनुसं-अध्येता किसान पुरस्कारों से सम्मानित करता है । 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान वर्ष 2023 के भाकृअनुसं-नवोन्मेषी किसान और भाकृअनुसं-अध्येता किसान पुरस्कारों के लिए योग्य नवोन्मेषी कृषकों के आवेदन आमंत्रित करता है, जिन्हें मार्च 2-4, 2023 के दौरान आयोजित होने वाले पूसा कृषि विज्ञान मेले में प्रदत्त किया जाएगा। 

मेरीखेती की टीम भी इस कृषि मेले में उपस्थित रहने वाली है अगर आप इस मेले से जुड़ी जानकारी प्राप्त करना चाहते है तो हमारे यूट्यूब चैनल https://www.youtube.com/c/MeriKheti/ पर देख सकते है।

बदली MBA पास की किस्मत, अमरूद की खेती से बना करोड़पति

बदली MBA पास की किस्मत, अमरूद की खेती से बना करोड़पति

आज का अधिकांश युवा वर्ग खेती किसानी की तरफ रुख कर रहा है. इससे उन्हें उनके सुनहरे भविष्य को नये पंख लग रहे हैं. नई सोच और नई तकनीक से खेती के मायने बदलने वाले युवाओं में से एक हैं MBA पास राजीव भास्कर. जो अमरूद बेचकर करोड़पति बन गये हैं. राजीव भास्कर का जन्म नैनीताल में हुआ था. उन्होंने रायपुर की एक बीज कंपनी में भी काम किया. जिसमें उन्हें विशेषज्ञता मिली. जिस वजह से वो आज एक समृद्ध और उद्यमी किसान बन सके. राजीव ने बताया कि, उन्होंने बिक्री और मार्केटिंग के मेंबर के तौर पर VNR सीड्स कंपनी में करीब चार सालों तक काम किया. इस दौरान उन्होंने देश के अलग अलग क्षेत्र के कई किसानों के साथ मुलाकात की. जिसके बाद उन्हें खेती और किसानी से जुड़ी कई अहम जानकारियां मिली. इन्हीं जानकारियों के दम पर राजीव भास्कर ने नौकरी छोड़ कर खेती करने का फैसला किया.

MBA पास कर शुरू की खेती

राजीव भास्कर ने कृषि से BSC पूरा किया. हालांकि जब तक उन्होंने VNR बीजों के साथ काम करना नहीं शुरू किया था, तब तक खेती किसानी की दिशा में उन्होंने आगे बढ़ने के बारे में भी नहीं सोचा था. जिस बीच राजीव ने MBA का कोर्स कर लिया. जो Distance Learning था. राजीव भास्कर बताते हैं कि, जैसे जैसे उन्होंने बीजों और पोधौं को बेचने का काम शूरू किया, वैसे वैसे कृषि में उनकी दिलचस्पी भी बढ़ती गयी. जिसके बाद उन्होंने इस ओर काम करने का मन बना लिया. नौकरी के साथ ही राजीव ने अमरूद की थाई किस्म के बारे में जाना और समझा. जिसने बाद उन्होंने इसकी खेती करने का फैसला लिया, और काम शुरू कर दिया. ये भी देखें:
देश में सासनी का सुप्रशिद्ध अमरूद रोगग्रसित होने की वजह से उत्पादन क्षेत्रफल में भी आयी गिरावट

5 एकड़ जमीन पर की खेती, चमक गयी किस्मत

राजीव ने अमरूद की खेती के लिए सबसे पहले 5 एकड़ जमीन किराए पर ली. उन्होंने इसकी खेती हरियाणा के पंचकुला में की. उन्होंने अमरूद की थाई किस्म की खेती की और उसके लिए अपनी नौकरी तक छोड़ दी. जिसके बाद राजीव के उगाए थाई किस्म के अमरूदों ने पूरे हरियाणा में तहलका मचा दिया और इसकी डिमांड बढ़ गयी. जिसके चलते सिर्फ पांच सालों में ही राजीव करोड़पति बन गये. लेकिन इन पांच सालों में उनकी खेती का रकबा बढ़ा और आज वो 5 नहीं बल्कि 25 एकड़ की जमीन में थाई किस्म के अमरूद की खेती कर रहे हैं.

अच्छी पैदावार के लिए जैविक खेती जरूरी

राजीव भास्कर की उम्र महज 30 साल ही है. उनकी मानें तो अब तक उनके खेत में लगभग 12 हजार अमरूद के पेड़ हैं. जिसके चलते वो एक साल में करीब एक से डेढ़ करोड़ तक की कमाई कर रहे हैं. राजीव बताते हैं कि, नौकरी छोड़ने के बाद जब उन्होंने पहली बार खेती करनी शुरू की थी तो, उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि, ज्यादा विकास और ज्यादा उत्पादन के लिए अच्छे उर्वरक और सिंचाई की जरूरत होती है. राजीव भास्कर अपने उगाए हुए अमरूद की खेती के बारे में बताते हुए कहते हैं कि, उनके अमरूद ना सिर्फ टेस्टी बल्कि हेल्दी और पौष्टिक तत्वों से भरपूर हैं. इसके अलावा उनका यह भी कहना है कि, अगर आप जमीन पर खेती कर रहे हैं, और उर्वरकों का कम इस्तेमाल कर रहे हैं, तो उस जगह पर जैविक खेती करने से अच्छी पैदावार मिल सकती है. राजीव कहते हैं कि, वो अपना सारा सामान दिल्ली एपीएमसी मार्केट तक पहुंचाते है. जहां उन्हें एक हफ्ते की पेमेंट दी जाती है. अच्छी वैरायटी और मौसम के हिसाब से उन्हें प्रति किलो अमरूद के 40 से 100 रुपये के बीच तक होती है. जिस तरह वो सालाना प्रति एकड़ के हिसाब से लगभग 6 लाख रुपये तक कमाते हैं.
ड्रोन करेंगे खेती, इंसान करेंगे आराम, जानिए क्या है मास्टर प्लान

ड्रोन करेंगे खेती, इंसान करेंगे आराम, जानिए क्या है मास्टर प्लान

देशभर में ड्रोन के जरिये कृषि को बढ़ावा देने पर जोर दिया जा रहा है. इसी की तर्ज पर एक कम्पनी ने बड़ा मास्टर प्लान तैयार किया है. जिसमें खेती के लिए ड्रोन ही काफी होंगे. और इंसानों की जरूरत नहीं पड़ेगी. ताजा जानकारी के मुताबिक कृषि में इस्तेमाल किये जाने वाले ड्रोन को बनाने वाली आयोटेक वर्ल्ड एविगेशन ने बड़ा समझौता किया है. यह समझौता कृषि सेक्टर में इंसानों के बजाय ड्रोन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए किया गया है. महाराष्ट्र के वसंतराव नाईक मराठवाडा कृषि विद्यापीठ के साथ इस समझौते को किया गया है. इस समझौते को लेकर कंपनी ने अपना बयान जारी करते हुए कहा कि, इसका उद्देश्य ड्रोन को प्रद्योगिकी में आगे बढ़ाने के अलावा कृषि उत्पादन को बढ़ाने का है. साथ किसानों के बीच जागरूकता फैलाना भी इसका मुख्य उद्देश्य है.

पहले ही हुई थी साझेदारी की घोषणा

समझौते ज्ञापन की बात करें तो, वसंतराव नाइक मराठवाड़ा कृषि विद्यापीठ के कुलपति डॉक्टर इंद्र मणि और स्टार्ट-अप
आईओटी का वर्ल्ड एविगेशन की तरफ से निदेश अनूप कुमार ने साइन किये. बता दें साल 2017 में इसी तरह की साझेदारी की घोषणा की गयी थी.

कृषि क्षेत्र में ड्रोन के इस्तेमाल को मिलेगा बढ़ावा

जानकारी के मुताबिक समझौता करने वाले दोनों पक्ष कृषि के क्षेत्र में ड्रोन के इस्तेमाल करने को बढ़ावा देंगे. इसके अलावा कृषि प्रशिक्षण केंद्र और आरपीटीओ को बनाने के लिए मिलाकर काम किया जाएगा. आयोतेक वर्ल्ड के सह संस्थापक दीपक भारद्वाज के मुताबिक युनिवर्सिटी के साथ समझौते से कंपनी को ड्रोन टेक्नोलॉजी में और भी ज्यादा खोज करने में मदद मिल सकती है. इसके अलावा कृषि ड्रोन के लिए रिमोट पायलट आईओटी का वर्ल्ड वीएनएमकेवी के साथ मिलकर इसकी स्थापना में भागीदार होगा. आपको बता दें इससे देश में ड्रोन पायलट की कमी को दूर करने में मदद मिलेगी. ये भी पढ़ें: सरकार से मिल रहा ड्रोन लेने पर १०० % तक अनुदान, तो क्यों न लेगा किसान मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक स्टार्टअप का अपना अलग रिमोट ट्रेनिंग ऑर्गनाइजेशन है. इस ऑर्गनाइजेशन में ड्रोन उड़ाने की ट्रेनिंग के साथ ड्रोन पायलेट को लाइसेंस भी दिया जाता है.