Published on: 01-Jun-2023
ज्वार को अंग्रेजी भाषा में सोरघम कहा जाता है। मूलतः भारत में इसकी खेती खाद्य और पशुओं के लिए चारा के तौर पर की जाती है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के सस्य विज्ञान विभाग के प्राध्यापक डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर द्वारा अपने एक लेख में लिखा गया है, कि ज्वार की खेती भारत के अंदर तीसरे स्थान पर है। अनाज और चारे के लिए की जाने वाली ज्वार की खेती उत्तरी भारत के अंदर खरीफ के मौसम में एवं दक्षिणी भारत में रबी के मौसम में की जाती है।
ज्वार को अंग्रेजी में सोरघम कहा जाता है। मूलतः भारत में इसकी खेती खाद्य एवं जानवरों के लिए चारे के तौर पर की जाती है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) के सस्य विज्ञान विभाग के प्राध्यापक डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर के अनुसार ज्वार की खेती का भारत में तीसरा स्थान है। अनाज व चारे के लिए की उगाए जाने वाली ज्वार की खेती उत्तरी भारत में खरीफ के मौसम में और दक्षिणी भारत में रबी के मौसम में की जाती है। ज्वार की प्रोटीन में लाइसीन अमीनो अम्ल की मात्रा 1.4 से 2.4 फीसद तक पाई जाती है, जो कि पौष्टिकता की दृष्टि से बेहद कम है। इसके दाने में ल्यूसीन अमीनो अम्ल की ज्यादा उपलब्धता होने की वजह ज्वार खाने वाले लोगों में पैलाग्रा नामक रोग का संक्रमण हो सकता है। इसकी फसल ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में सबसे बेहतर होती है। ज्वार की अच्छी कीमतों को ध्यान में रखते हुए यदि कुछ किसान मिलकर अपने आस-पास लगे हुए खेतों में इस फसल को उत्पादित कर ज्यादा फायदा ले सकते हैं। क्योंकि इसके दाने एवं कड़वी दोनों ही अच्छे भाव पर बेचे जा सकते हैं।
ज्वार की खेती करने के लिए भूमि को किस प्रकार तैयार करें
डॉ. गजेन्द्र सिंह के अनुसार, ज्वार की फसल कम बारिश में भी अच्छा उत्पादन दे सकती है। कुछ वक्त के लिए जल-भराव रहने पर भी सहन कर लेती है। विगत फसल के कट जाने के उपरांत मृदा पलटने वाले हल से खेत में 15-20 सेमी. गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके उपरांत 4-5 बार देशी हल चलाकर मृदा को भुरभुरा कर लेना चाहिए। बुवाई से पहले पाटा चलाकर खेत को एकसार कर लेना चाहिए। मालवा व निमाड़ में ट्रैक्टर द्वारा चलने वाले कल्टीवेटर और बखर से जुताई करके भूमि को सही ढंग से भुरभुरी बनाते हैं। ग्वालियर संभाग में देशी हल अथवा
ट्रेक्टर द्वारा चलने वाले कल्टीवेटर से भूमि को भुरभुरी बनाकर पाटा से खेत को एकसार कर बुवाई करते हैं।
जमीन के अनुरूप ज्वार की उपयुक्त प्रजातियां कुछ इस प्रकार हैं
ज्वार की फसल समस्त प्रकार की भारी एवं हल्की मिट्टियां, लाल व पीली दोमट एवं यहां तक कि रेतीली मृदाओं में भी उगाई जाती है। परंतु, इसके लिए समुचित जल निकास वाली भारी मिट्टियां (मटियार दोमट) सबसे अच्छी होती हैं। असिंचित अवस्था में ज्यादा जल धारण क्षमता वाली मृदाओं में ज्वार की उपज ज्यादा होती है। मध्य प्रदेश में भारी जमीन से लेकर पथरीले जमीन पर इसका उत्पादन किया जाता है। छत्तीसगढ़ की भाटा-भर्री भूमिओं में इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। ज्वार की फसल 6.0 से 8.5 पी. एच. वाली मृदाओं में सफलतापूर्वक उत्पादित की जा सकती है। ज्वार से बेहतरीन पैदावार के लिए उन्नतशील प्रजातियों का शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। किस्म का चुनाव बोआई का वक्त एवं क्षेत्र अनुकूलता के आधार पर होना चाहिए। साथ ही, बीज प्रमाणित संस्थाओं का ही बिजाई के लिए उपयोग करें अथवा उन्नत प्रजातियों का खुद का बनाया हुआ बीज उपयोग करें। ज्वार में दो तरह की किस्मों के बीज मौजूद हैं-संकर एंव उन्नत किस्में। संकर किस्म की बिजाई के लिए हर साल नवीन प्रमाणित बीज ही उपयोग में लाना चाहिए। उन्नत प्रजातियों का बीज हर साल बदलना नहीं पड़ता है।
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ज्वार की संकर प्रजातियां निम्नलिखित हैं
मध्यप्रदेश के लिए ज्वार की समर्थित संकर प्रजातियां सीएसएच-14, सीएसएच-18, सीएसएच5, सीएसएच9 है। इनके अतिरिक्त जिनका बीज प्रति वर्ष नया नहीं बदलना पड़ता है। वो है एसपीवी 1022, एएसआर-1, जवाहर ज्वार 741, जवाहर ज्वार 938 और जवाहर ज्वार 1041 इनके बीजों के लिए ज्वार अनुसंधान परियोजना, कृषि महाविद्यालय इंदौर से संपर्क साध सकते हैं। ढाई एकड़ के खेत में बिजाई के लिए 10-12 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। उत्तर प्रदेश में सीएसबी-13, वषा, मऊ टी-1, मऊ टी-2, सीएसएच-16, सीएसएच-14, सीएमएच-9, सीएसबी-15 का उत्पादन किया जाता है।
ज्वार की कम समय में पकने वाली प्रजातियां
अगर ज्वार की देशी प्रजातियों के आकार की बात की जाए तो इसके पौधे ऊंचाई वाले, लंबे और गोल भुट्टों वाले होते थे। इनमें दाने एकदम सटे हुए लगते थे। पीला आंवला, लवकुश, विदिशा 60-1,
ज्वार की उज्जैन 3, उज्जैन 6 प्रमुख प्रचलित प्रजातियां थीं। इनका उत्पादन 12 से 16 क्विंटल दाना एवं 30 से 40 क्विंटल कड़वी (पशु चारा) प्रति एकड़ तक प्राप्त हो जाता था। इनका दाना मीठा और स्वादिष्ट होता था। बतादें कि यह प्रजातियां कम पानी और अपेक्षाकृत हल्की भूमि में उत्पादित हो जाने की वजह से आदिवासी क्षेत्रों की मुख्य फसल थी। यह उनके जीवन यापन का मुख्य जरिया था। साथ ही, इससे उनके मवेशियों को चारा भी प्राप्त हो जाता था। इनके झुके हुए ठोस भुटटों पर पक्षियों हेतु बैठने का स्थान न होने की वजह हानि कम होती थी। पैदावार को ध्यान में रखते हुए ज्वार में बुवाई का समय काफी महत्वपूर्ण है। ज्वार की फसल को मानसून आने के एक हफ्ते पूर्व सूखे में बुवाई करने से उत्पादन में 22.7 प्रतिशत वृद्धि देखी गई है।