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अब हरे चारे की खेती करने पर मिलेंगे 10 हजार रुपये प्रति एकड़, ऐसे करें आवेदन

अब हरे चारे की खेती करने पर मिलेंगे 10 हजार रुपये प्रति एकड़, ऐसे करें आवेदन

हरा चारा (green fodder) पशुओं के लिए महत्वपूर्ण आहार है, जिससे पशुओं के शरीर में पोषक तत्वों की कमी दूर होती है। इसके अलावा पशु ताकतवर भी होते हैं और इसका प्रभाव दुग्ध उत्पादन में भी पड़ता है। जो किसान अपने पशुओं को हरा चारा खिलाते हैं, उनके पशु स्वस्थ्य रहते हैं तथा उन पशुओं के दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है। हरे चारे की खेती करके किसान भाई अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं, क्योंकि इन दिनों गौशालाओं में हरे चारे की जबरदस्त डिमांड है, 

जहां किसान भाई हरे चारे को सप्प्लाई करके अपने लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी का प्रबंध कर सकते हैं। इन दिनों गावों में पशुपालन और दुग्ध उत्पादन एक व्यवसाय का रूप ले रहा है। ज्यादातर किसान इसमें हाथ आजमा रहे हैं, लेकिन किसानों द्वारा पशुओं के आहार पर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण पशुओं की दूध देने की क्षमता में कमी देखी जा रही है। इसलिए पशुओं के आहार के लिए हरा चारा बेहद मत्वपूर्ण हो जाता है, जिससे पशु सम्पूर्ण पोषण प्राप्त करते हैं और इससे दुग्ध उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी होती है। 

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हरे चारे की खेती ज्यादातर राज्यों में उचित मात्रा में होती है जो वहां के किसानों के पशुओं के लिए पर्याप्त है। लेकिन हरियाणा में हरे चारे की कमी महसूस की जा रही है, जिसके बाद राज्य सरकार ने हरे चारे की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए 'चारा-बिजाई योजना’ की शुरुआत की है। इस योजना के तहत किसानों को हरे चारे की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान हरे चारे की खेती करना प्रारम्भ करें। 

इस योजना के अंतर्गत सरकार हरे चारे की खेती करने पर किसानों को 10 हजार रुपये प्रति एकड़ की सब्सिडी प्रदान करेगी। यह राशि एक किसान के लिए अधिकतम एक लाख रुपये तक दी जा सकती है। यह सब्सिडी उन्हीं किसानों को मिलेगी जो अपनी जमीन में हरे चारे की खेती करके उत्पादित चारे को गौशालाओं को बेंचेंगे। इस योजना को लेकर हरियाणा सरकार के ऑफिसियल ट्विटर अकाउंट MyGovHaryana से ट्वीट करके जानकारी भी साझा की गई है। https://twitter.com/mygovharyana/status/1524060896783630336

हरियाणा सरकार ने बताया है कि यह सब्सिडी की स्कीम का फायदा सिर्फ उन्हीं किसानों को मिलेगा जो ये 3 अहर्ताएं पास करते हों :

  1. सब्सिडी का लाभ लेने वाले किसान को हरियाणा का मूल निवासी होना चाहिए।
  2. किसान को अपने खेत में हरे चारे के साथ सूखे चारे की भी खेती करनी होगी, इसके लिए उसको फॉर्म में अपनी सहमति देनी होगी।
  3. उगाया गया चारा नियमित रूप से गौशालाओं को बेंचना होगा।

जो भी किसान इन तीनों अहर्ताओं को पूर्ण करता है वो सब्सिडी पाने का पात्र होगा।

कौन-कौन से हरे चारे का उत्पादन कर सकता है किसान ?

दुधारू पशुओं के लिए बहुत से चारों की खेती भारत में की जाती है। इसमें से कुछ चारे सिर्फ कुछ महीनों के लिए ही उपलब्ध हो पाते हैं। जैसे कि ज्वार, लोबिया, मक्का और बाजरा वगैरह फसलों के चारे साल में 4-5 महीनों से ज्यादा नहीं टिकते। इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए ऐसे चारा की खेती की जरुरत है जो साल में हर समय उपलब्ध हो, ताकि पशुओं के लिए चारे के प्रबंध में कोई दिक्कत न आये। भारत में किसान भाई बरसीम, नेपियर घास और रिजका वगैरह लगाकर अपने पशुओं के लिए 10 से 12 महीने तक चारे का प्रबंध कर सकते हैं। 

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बरसीम (Berseem (Trifolium alexandrinum))  एक बेहतरीन चारा है जो सर्दियों से लेकर गर्मी शुरू होने तक किसान के खेत में उपलब्ध हो सकता है। यह चारा दुधारू पशुओं के लिए ख़ास महत्व रखता है क्योंकि इस चारे में लगभग 22 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पाई जाती है। इसके अलावा यह चारा बेहद पाचनशील होता है जिसके कारण पशुओं के दुग्ध उत्पादन में साफ़ फर्क देखा जा सकता है। इस चारे को पशुओं को देने से उन्हें अतिरिक्त पोषण की जरुरत नहीं होती। बरसीम के साथ ही अब भारत में नेपियर घास (Napier grass also known as Pennisetum purpureum (पेन्नीसेटम परप्यूरियम), elephant grass or Uganda grass) या हाथी घास  आ चुकी है। 

यह किसानों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रही है, क्योंकि यह मात्र 50 दिनों में तैयार हो जाती है। जिसके बाद इसे पशुओं को खिलाया जा सकता है। यह एक ऐसी घास है जो एक बार लगाने पर किसानों को 5 साल तक हरा चारा उपलब्ध करवाती रहती है, जिससे किसानों को बार-बार चारे की खेती करने की जरुरत नहीं पड़ती और न ही इसमें सिंचाई की जरुरत पड़ती है। नेपियर घास की यह विशेषता होती है कि इसकी एक बार कटाई करने के बाद, घास के पेड़ में फिर से शाखाएं निकलने लगती हैं। 

घास की एक बार कटाई के लगभग 40 दिनों बाद घास फिर से कटाई के लिए उपलब्ध हो जाती है। यह घास पशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाती है। रिजका (rijka also called Lucerne or alfalfa (Medicago sativa) or purple medic) एक अलग तरह की घास है जिसमें बेहद कम सिंचाई की जरुरत होती है। यह घास किसानों को नवंबर माह से लेकर जून माह तक हरा चारा उपलब्ध करवा सकती है। इस घास को भी पशुओं को देने से उनके पोषण की जरुरत पूरी होती है और दुग्ध उत्पादन में वृद्धि होती है।

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सब्सिडी प्राप्त करने के लिए आवेदन कहां करें

जो भी किसान भाई अपने खेत में हरा चारा उगाने के इच्छुक हैं उन्हें सरकार की ओर से 10 हजार रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से सब्सिडी प्रदान की जाएगी। इस योजना के अंतर्गत अप्प्लाई करने के लिए हरियाणा सरकार की ऑफिसयल वेबसाइट 'मेरी फसल मेरा ब्यौरा' पर जाएं और वहां पर ऑनलाइन माध्यम से आवेदन भरें। आवेदन भरते समय किसान अपने साथ आधार कार्ड, निवास प्रमाण पत्र, बैंक खाता डिटेल, आधार से लिंक मोबाइल नंबर और पासपोर्ट साइज का फोटो जरूर रखें। ये चीजों किसानों को फॉर्म के साथ अपलोड करनी होंगी, जिसके बाद अपने खेतों में हरे चारे की खेती करने वाले किसानों को सब्सिडी प्रदान कर दी जाएगी। सब्सिडी प्राप्त करने के बाद किसानों को अपने खेतों में उत्पादित चारा गौशालाओं को सप्प्लाई करना अनिवार्य होगा।

पशु प्रजनन की आधुनिक तकनीक (Modern Animal Breeding Technology in Hindi)

पशु प्रजनन की आधुनिक तकनीक (Modern Animal Breeding Technology in Hindi)

2019 में जारी की गई बीसवीं पशु जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय 535 मिलियन (53 करोड़) पशुधन है, जिनमें सर्वाधिक संख्या मवेशियों की है, जोकि 2012 की तुलना में 4.6 प्रतिशत अधिक बढ़ी है। आज भी भारत के अधिकतम किसान खेती के साथ पशुधन पालन भी करते है। इतनी अधिक संख्या में उपलब्ध पशुधन से बेहतर उत्पाद प्राप्त करने के लिए, पिछले कुछ समय से पशु वैज्ञानिकों के द्वारा कई अनुसंधान कार्य किए जा रहे है, इन्हीं नए रिसर्च में पशु प्रजनन (pashu prajanan or animal breeding) पर भी काफ़ी ध्यान दिया गया है।

क्या है पशु प्रजनन (Animal Breeding) ?

इसे एक उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है, जैसे कि यदि एक भैंस एक दिन में 10 लीटर दूध देती है, अब यदि पशु विज्ञान (animal science) की मदद से उसकी अनुवांशिकता (Hereditary) में कुछ ऐसे परिवर्तन किए जाए, जिससे कि उस पशु से हमारी आवश्यकता अनुसार उन्नत उत्पाद तैयार करवाने के साथ ही दूध का उत्पादन भी बढ़ जाए। इस विधि अलग-अलग जीन वाले पशुओं के अनुमानित प्रजनन मूल्य को ध्यान में रखते हुए आपस में ही एक ही नस्ल के पशुओं या फिर अलग-अलग नस्लों के पशुओं में प्रजनन प्रक्रिया करवाई जाती है, इससे प्राप्त होने वाला उत्पाद पहली दोनों नस्लों की तुलना में श्रेष्ठ मिलता है। यह नई नस्ल अधिक उत्पादन प्रदान करने के अलावा कई बीमारियों और दूसरी प्रतिरोधक क्षमताओं में भी श्रेष्ठ प्राप्त होती है।
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पशु प्रजनन की आधुनिक तकनीक :

वर्तमान में विश्व स्तर पर कई प्रकार की प्रजनन विधियों को अपनाया गया है :
  • विशुद्ध प्रजनित तकनीक (Purebred Breeding) :

इस विधि में एक ही नस्ल के दो अलग-अलग पशुओं का प्रजनन करवाया जाता है। इस प्रजनन विधि के दौरान ध्यान रखा जाता है कि इस्तेमाल में आने वाली एक ही नस्ल के दो अलग-अलग पशु जीन की गुणवत्ता स्तर पर सर्वश्रेष्ठ होते है। इन से प्राप्त होने वाली नई नस्लें बहुत ही स्थाई होती है और उसके नई नस्ल के द्वारा हासिल किए गए यह गुण अगली पीढ़ी तक भी पहुंच सकते हैं।

इस विधि को अंतः प्रजनन तकनीक के नाम से भी जाना जाता है।

शरीर की बाहरी दिखावट, आकार तथा रंग रूप में एक समान दिखने वाले दो नर एवं मादा पशुओं की जनन की प्रक्रिया के द्वारा द्वारा वैसे ही दिखने वाली नई नस्ल तैयार की जाती है। इस तकनीक का सर्वश्रेष्ठ फायदा यह होता है कि इसमें अशुद्ध हानिकारक लक्षणों के लिए जिम्मेदार जीन से छुटकारा मिलने के साथ ही शुद्ध और अच्छी गुणवत्ता की जीन का संचय होता है।

हालांकि अंतः प्रजनन तकनीक के जरिए से कुछ नुकसान भी हो सकते है। लगातार अंत: प्रजनन विधि के पश्चात पर्याप्त होने वाली संतति पहले की तुलना में कमजोर होने लगती है और उन दोनों पशुओं की जनन एवं उत्पत्ति क्षमता में भी कमी आने लगती है।

  • बैकयार्ड प्रजनित तकनीक (Backyard Breeding) :

अमेरिका और दूसरे विकसित देशों में इस्तेमाल में आने वाली यह तकनीक मुख्यतः पशुओं से प्राप्त होने वाले उत्पादन पर फोकस करती है और अच्छी सेहत वाली नई नस्ल तैयार करने के लिए एनिमल साइंस का इस्तेमाल किया जाता है।

इस तरह की ब्रीडिंग तकनीक को बिना डॉक्टर की मदद से किया जाता है और केवल मुनाफा कमाने के लिए पशुओं के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जाता है।

वर्तमान में कुत्ते और दूसरे पालतू जानवरों के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है।

  • बाह्य प्रजनन तकनीक :

अलग-अलग नस्ल के दो पशुओं के मध्य प्रजनन की क्रिया को बाह्य प्रजनन तकनीक के द्वारा संपन्न किया जाता है। इस प्रजनन प्रक्रिया के दौरान कुछ विधियों का इस्तेमाल किया जाता है :

    • बाह्यः संकरण विधि :

इस विधि के तहत किसी भी नस्ल की चार से छह पीढ़ी के बाद की नस्ल के मध्य संक्रमण की प्रक्रिया की जाती है।

इस विधि का सबसे ज्यादा फायदा यह होता है कि इसकी मदद से प्रजनन में आने वाले अवसादन को पूरी तरह से दूर किया जा सकता है और अब लगातार प्रजनन के बाद प्राप्त होने वाले संतति भी पहले किके जैसे ही है श्रेष्ठ गुणों के साथ मिल पाती है।

    • शंकर विधि :

दो अलग-अलग नस्लों के मध्य संगम करवाने की प्रक्रिया को संकरण कहते हैं और प्राप्त हुई नई संतति को शंकर संतति कहा जाता है। जैसे बेगूस गाय ब्राह्या मेल और एवरडीन फीमेल से प्राप्त की गई एक संकर नस्ल है।

शंकर विधि के दौरान की अतिविशिष्ट संस्करण प्रक्रिया को भी अपनाया जाता है, जिसमें दो निकटतम प्रजातियों में संकरण की प्रक्रिया करवाई जाती है। हालांकि इस प्रक्रिया से प्राप्त होने वाली नई संतति बांझ होती है, जैसे कि घोड़े और गधे की अतिविशिष्ट संकरण से प्राप्त हुई नई नस्ल खच्चर आगे की पीढ़ी में रेप्रोडूस नहीं कर पाती है।



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  • कृत्रिम वीर्य सेचन विधि ( Artificial sperm Implant method ) :

कृत्रिम संसाधनों और वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से नर पशु के वीर्य को प्राप्त करने के बाद उसे कोल्ड स्टोरेज में रखा जाता है और जरूरत पड़ने पर इस वीर्य को मादा के शरीर में डाला जाता है।

इस विधि का एक फायदा यह है कि यह बहुत ही सस्ती दर पर उपलब्ध हो जाती है और एक बार वीर्य प्राप्त करके कई मादाओं को गर्भित किया जा सकता है। साथ ही किसी उत्तम नस्ल की प्राप्ति के लिए पशुपालक को हर प्रकार के पशु चिकित्सालय में यह सुविधा आसानी से प्राप्त हो सकती है।



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पशु प्रजनन बढ़ाने के लिए किए जा रहे सरकारी प्रयास और स्कीम :

भारतीय पशु कल्याण बोर्ड भारत में पशु हिंसा जैसे मुद्दों को लेकर प्रयासरत है और पिछले पांच सालों से इसी बोर्ड की मदद से पशु प्रजनन बढ़ाने के लिए सरकार के द्वारा कुछ नई स्कीम लांच की गई है, जो कि निम्न प्रकार है :
  • राष्ट्रीय गोकुल मिशन :

दिसंबर 2014 में लांच की गई यह राष्ट्रीय गोकुल मिशन स्कीम (Rashtriya Gokul Mission - RGM) बेहतरीन प्रजनन तकनीक की मदद से स्थानीय प्रजातियों की नस्लों के विकास और उनकी संख्या बढ़ाने के लिए किए गए प्रयास का एक उदाहरण है। इस मिशन के तहत भारत के कई पशु चिकित्सकों को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से पशु प्रजनन से जुड़ी नई तकनीकों के बारे में भी जानकारियां दी जा रही है। कृषि मंत्रालय के द्वारा 2016 में लांच किया गया यह पोर्टल प्रजनन करवाने की विशेष दक्षता और उच्च गुणवत्ता वाले नर मवेशी रखने वाले किसानों को सामान्य किसान से सीधे संपर्क करवाता है
  • राष्ट्रीय पशुधन मिशन (National Livestock mission) :

2014 में कृषि मंत्रालय के द्वारा शुरू की गई राष्ट्रीय पशुधन मिशन (एनएलएम - NLM - National Livestock Mission) स्कीम के तहत पशुधन का पर्यावरण की हानि पहुंचाए बिना सस्टेनेबल विकास (Sustainable development) करने और नई वैज्ञानिक तकनीकों की मदद से प्रजनन की प्रक्रिया को जानवरों के लिए कम नुकसानदेह बनाते हुए गाय और भैंस की संख्या को बढ़ाकर अधिक उत्पादन प्राप्त करना है ।
  • राष्ट्रीय कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रम :

 2019 में 605 जिलों में शुरू हुआ यह कार्यक्रम अब तक 1500 से ज्यादा गांवों तक अपनी पहुंच बना चुका है और केवल 2 साल की अवधि में ही लगभग 50 लाख से ज्यादा मादा मवेशियों को उच्च गुणवत्ता वाले नर वीर्य से गर्भित किया जा चुका है। सन 2022 में इस प्रोग्राम के दूसरे फेज की शुरुआत करने की घोषणा भी की जा चुकी है।

पशु प्रजनन से किसान भाइयों को होने वाले फायदे :

पिछले कुछ सालों से पशु विज्ञान में हुए नए अनुसंधान की मदद से पशु प्रजनन में आयी दक्षता किसान भाइयों के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है।


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बेहतरीन पशु प्रजनन की प्रक्रिया किसान भाइयों को कम लागत में अधिक उत्पादन देने वाले पशुओं की उपलब्धता करवाने के साथ ही, इस तरह तैयार पशु कई पशुजन्य रोगों (Zoonotic Diseases) के खिलाफ बेहतरीन प्रतिरोधक क्षमता भी दिखा पाते है, जैसे कि हाल ही में केन्या में प्रजनन प्रक्रिया से तैयार की गई 'गाला बकरी', पशुओं में होने वाले खुरपका और मुंहपका रोगों के खिलाफ बेहतरीन प्रतिरोधक क्षमता दिखाती है और बकरी की यह नस्ल इन रोगों से ग्रसित नहीं होती। आशा करते हैं कि पशुपालन में सक्रिय हमारे किसान भाइयों को Merikheti.com की तरफ से पशु प्रजनन से जुड़ी संपूर्ण जानकारी मिल गई होगी और आने वाले समय में आप भी ऊपर बताई गई जानकारी का सही फायदा उठाकर सरकारी स्कीमों की मदद से एक बेहतरीन नस्ल वाली मवेशी का पालन कर उत्पादन बढ़ाने के साथ ही अधिक मुनाफा भी कमा पाएंगे।
चावल की बेहतरीन पैदावार के लिए इस प्रकार करें बुवाई

चावल की बेहतरीन पैदावार के लिए इस प्रकार करें बुवाई

धान की बेहतरीन पैदावार के लिए जुताई के दौरान प्रति हेक्टेयर एक से डेढ़ क्विंटल गोबर की खाद खेत में मिश्रित करनी है। आज कल देश के विभिन्न क्षेत्रों में धान की रोपाई की वजह खेत पानी से डूबे हुए नजर आ रहे हैं। किसान भाई यदि रोपाई के दौरान कुछ विशेष बातों का ध्यान रखें तो उन्हें धान की अधिक और अच्छी गुणवत्ता वाली पैदावार मिल सकती है। अमूमन धान की रोपाई जून के दूसरे-तीसरे सप्ताह से जुलाई के तीसरे-चौथे सप्ताह के मध्य की जाती है। रोपाई के लिए पंक्तियों के मध्य का फासला 20 सेंटीमीटर और पौध की दूरी 10 सेंटीमीटर होनी चाहिए। एक स्थान पर दो से तीन पौधे रोपने चाहिए। धान की फसल के लिए तापमान 20 डिग्री से 37 डिग्री के मध्य रहना चाहिए। इसके लिए दोमट मिट्टी काफी बेहतर मानी जाती है। धान की फसल के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2 से तीन जुताई कल्टीवेटर से करके खेत को तैयार करना चाहिए। साथ ही, खेत की सुद्रण मेड़बंदी करनी चाहिए, जिससे बारिश का पानी ज्यादा समय तक संचित रह सके।

धान शोधन कराकर खेत में बीज डालें

धान की बुवाई के लिए 40 से 50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के अनुसार बिजाई करनी चाहिए। साथ ही, एक हेक्टेयर रोपाई करने के लिए 30 से 40 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है। हालांकि, इससे पहले बीज का शोधन करना आवश्यक होता है। ये भी पढ़े: भूमि विकास, जुताई और बीज बोने की तैयारी के लिए उपकरण

खाद और उवर्रकों का इस्तेमाल किया जाता है

धान की बेहतरीन उपज के लिए जुताई के दौरान प्रति हेक्टेयर एक से डेढ़ क्विंटल गोबर की खाद खेत में मिलाते हैं। उर्वरक के रूप में नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फोरस का इस्तेमाल करते हैं।

बेहतर सिंचाई प्रबंधन किस प्रकार की जाए

धान की फसल को सबसे ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। रोपाई के उपरांत 8 से 10 दिनों तक खेत में पानी का बना रहना आवश्यक है। कड़ी धूप होने पर खेत से पानी निकाल देना चाहिए। जिससे कि पौध में गलन न हो, सिंचाई दोपहर के समय करनी चाहिए, जिससे रातभर में खेत पानी सोख सके।

कीट नियंत्रण किस प्रकार किया जाता है

धान की फसल में कीट नियंत्रण के लिए जुताई, मेंड़ों की छंटाई और घास आदि की साफ सफाई करनी चाहिए। फसल को खरपतवारों से सुरक्षित रखना चाहिए। 10 दिन की समयावधि पर पौध पर कीटनाशक और फंफूदीनाशक का ध्यान से छिड़काव करना चाहिए।
अरंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

अरंडी की खेती की सम्पूर्ण जानकारी

किसान भाइयों, अरंडी एक औषधीय वानस्पतिक तेल का उत्पादन करने वाली खरीफ की मुख्य व्यावसायिक फसल है। कम लागत में होने वाली अरंडी के तेल का व्यावसायिक महत्व होने के कारण इसको नकदी फसल भी कहा जा सकता है। किसान भाइयों अरंडी की फसल का आपको दोहरा लाभ मिल सकता है। इसकी फसल से पहले आप तेल निकाल कर बेच सकते हैं। उसके बाद बची हुई खली से खाद बना सकते हैं। इस तरह से आप अरंडी के खेती करके दोहरा लाभ कमा सकते हैं। आइये जानते हैं कि अरंडी की खेती कैसे की जाती है।

भूमि व जलवायु

अरंडी की फसल के लिए दोमट व बलुई दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है लेकिन इसकी फसल पीएच मान 5 से 6 वाली सभी प्रकार की मृदाओं में उगाई जा सकती है। अरंडी की फसल ऊसर व क्षारीय मृदा में नहीं की जा सकती। इसकी खेती के लिए खेत में जलनिकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिये अन्यथा फसल खराब हो सकती है।
अरंडी की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में भी की जा सकती है। इसकी फसल के लिए 20 से 30 सेंटीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। अरंडी के पौधे की बढ़वार और बीज पकने के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। अरंडी की खेती के लिए अधिक वर्षा यानी अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इसकी जड़ें गहरी होतीं हैं और ये सूखा सहन करने में सक्षम होतीं हैं। पाला अरंडी की खेती के लिए नुकसानदायक होता है। इससे बचाना चाहिये।

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खेत की तैयारी कैसे करें

अरंडी के पौधे की जड़ें काफी गहराई तक जातीं हैं , इसलिये इसकी फसल के लिए गहरी जुताई करनी आवश्यक होती है। जो किसान भाई अरंडी की अच्छी फसल लेना चाहते हैं वे पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। उसके बाद दो तीन जुताई कल्टीवेटर या हैरों से करें तथा पाटा लगाकर खेत को समतल बना लें। किसान भाइयों सबसे बेहतर तो यही होगा कि खेत में उपयुक्त नमी की अवस्था में जुताई करें। इससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जायेगी और खरपतवार भी नष्ट हो जायेगा। इस तरह खेत को तैयार करके एक सप्ताह तक खुला छोड़ देना चाहिये। जिससे पूर्व फसल के कीट व रोग धूप में नष्ट हो सकते हैं ।

अरंडी की मुख्य उन्नत किस्में

अरंडी की मुख्य उन्नत किस्मों मे जीसीएच-4,5, 6, 7 व डीसीएच-32, 177 व 519, ज्योति, हरिता, क्रांति किरण, टीएमवी-6, अरुणा, काल्पी आदि हैं। Aranki ki plant

कब और कैसे करें बुआई

अरंडी की फसल की बुआई अधिकांशत: जुलाई और अगस्त में की जानी चाहिये। किसान भाई अरंडी की फसल की खास बात यह है कि मानसून आने पर खरीफ की सभी फसलों की खेती का काम निपटाने के बाद अरंडी की खेती आराम से कर सकते हैं। अरंडी की बुआई हल के पीछे हाथ से बीज गिराकर की जा सकती है तथा सीड ड्रिल से भी बुआई की जा सकती है। सिंचाई वाले क्षेत्रोंं अरंडी की फसल की बुआई करते समय किसान भाइयों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि लाइन से लाइन की दूरी एक मीटर या सवा मीटर रखें और पौधे से पौधे की दूरी आधा मीटर रखें तो आपकी फसल अच्छी होगी। असिंचित फसल के लिए लाइन और पौधों की दूरी कम रखनी चाहिये। इस तरह की खेती के लिए लाइन से लाइन की दूरी आधा मीटर या उससे थोड़ी ज्यादा होनी चाहिये और पौधों से पौधों की दूरी भी लगभग इतनी ही रखनी चाहिये।

कितना बीज चाहिये

किसान भाइयों अरंडी की फसल के लिए बीज की मात्रा , बीज क आकार और बुआई के तरीके और भूमि के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। फिर भी औसतन अरंडी की फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। छिटकवां बुआई में बीज अधिक लगता है यदि इसे हाथ से एक-एक बीज को बोया जाता है तो प्रतिहेक्टेयर 8 किलोग्राम के लगभग बीज लगेगा। किसान भाइयों को चाहिये कि अरंडी की अच्छी फसल लेने के लिए उन्नत किस्म का प्रमाणित बीज लेना चाहिये। यदि बीज उपचारित नहीं है तो उसे उपचारित अवश्य कर लें ताकि कीट एवं रोगों की संभावना नहीं रहती है। भूमिगत कीटों और रोगों से बचाने के लिए बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रतिकिलोग्राम पानी से घोल बनाकर बीजों को बुआई से पहले  भिगो कर उपचारित करें।

खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

किसान भाइयों खाद और उर्वरक काफी महंगी आती हैं इसलिये किसी भी तरह की खेती के लिए आप अपनी भूमि का मृदा परीक्षण अवश्य करवा लें और उसके अनुसार आपको खाद और उर्वरक प्रबंधन की अच्छी जानकारी मिल सकेगी। इससे आपका पैसा व समय दोनों ही बचेगा। खेती की लागत कम आयेगी। इसी तरह अरंडी की खेती के लिए जब आप खाद व उर्वरकों का प्रबंधन करें तो मिट्टी की जांच के बाद बताई गयी खाद व उर्वरक की मात्रा का प्रयोग करें। अरंडी की खेती के लिए उर्वरक का अच्छी तरह से प्रबंधन करना होता है। अच्छे खाद व उर्वरक प्रबंधन से अरंडी के दानों में तेल का प्रतिशत काफी बढ़ जाता है। इसलिये इस खेती में किसान भाइयों को कम से कम तीन बार खाद व उवर्रक देना होता है। अरंडी चूंकि एक तिलहन फसल है, इसका उत्पादन बढ़ाने व बीजों में तेल की मात्रा अधिक बढ़ाने के लिए बुआई से पहले 20 किलोगाम सल्फर को 200 से 250 किलोग्राम जिप्सम मिलाकर प्रति हेक्टेयर डालना चाहिये। इसके बाद अरंडी की सिंचित  खेती के लिए 80 किलो ग्राम नाइट्रोजन और 40 किलो फास्फोरस  प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिये तथा असिंचित खेती के लिए 40 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस का इस्तेमाल किया जाना चाहिये। इसमें से खेत की तैयारी करते समय आधा नाइट्रोजन और आधा किलो फास्फोरस का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालना चाहिये। शेष आधा भाग 30 से 35  दिन के बाद वर्षा के समय खड़ी फसल पर डालना चाहिये। Arandi ki kheti

सिंचाई प्रबंधन

अरंडी खरीफ की फसल है, उस समय वर्षा का समय होता है। वर्षा के समय में बुआई के डेढ़ से दो महीने तक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। इस अवधि में पानी देने से जड़ें कमजोर हो जाती है, जो सीधा फसल पर असर डालती है। क्योंकि अरंडी की जड़ें गहराई में जाती हैं जहां से वह नमी प्राप्त कर लेतीं हैं। जब अरंडी के पौधों की जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो जायें और जमीन पर अच्छी तरह से पकड़ बना लें और जब खेती की नमी आवश्यकता से कम होने लगे तब पहला पानी देना चाहिये। इसके बाद प्रत्येक 15 दिन में वर्षा न होने पर पानी देना चाहिये। यदि सिंचाई के लिए टपक पद्धति हो तो उससे इसकी सिंचाई करना उत्तम होगा।

खरपतवार प्रबंधन

अरंडी की फसल में खरपतवार का प्रबंधन शुरुआत में ही करना चाहिये। जब तक पौधे आधे मीटर के न हो जायें तब तक समय-समय पर खरपतवार को हटाना चाहिये तथा गुड़ाई भी करते रहना चाहिये। इसके अलावा खरपतवार नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम पेंडीमेथालिन को 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के दूसरे या तीसरे दिन छिड़काव करने से भी खरपतवार का नियंत्रण होता  है। लेकिन 40 दिन बाद एक बार अवश्य ही निराई गुड़ाई करवानी चाहिये।

कीट-रोग एवं उपचार

अरंडी की फसल में कई प्रकार के रोग एवं कीट लगते हैं। उनका समय पर उपचार करने से फसल को बचाया जा सकता है। आईये जानते हैं कि कौन से कीट या रोग का किस प्रकार से उपचार किया जाता है:- 1. जैसिड कीट: अरंडी की फसल में जैसिड कीट लगता है। इसका पता लगने पर किसान भाइयों को मोनोक्रोटोफाँस 36 एस एल को एक लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव कर देना चाहिये। इससे फसल का बचाव हो जाता है। 2. सेमीलूपर कीट: इसकीट का प्रकोप सर्दियों में अक्टूबर-नवम्बर के बीच होता है। इस कीट को नियंत्रित करने के लिए 1 लीटर क्यूनालफॉस 25 ईसी , लगभग 800 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रतिहेक्टेयर में फसल पर छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण हो जाता है। 3. बिहार हेयरी केटरपिलर: यह कीट भी सेमीलूपर की तरह सर्दियों में लगता है और इसके नियंत्रण के लिए क्यूनालफॉस का घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिये। 4. उखटा रोग: उखटा रोग से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा विरिडि 10 ग्राम प्रतिकिलोग्राम बीज का बीजोपचार करना चाहिये तथा 2.5 ट्राइकोडर्मा को नम गोबर की खाद के साथ बुवाई से पूर्व खेत में डालना अच्छा होता है।

पाले सें बचाव इस तरह करें

अरंडी की फसल के लिए पाला सबसे अधिक हानिकारक है। किसान भाइयों को पाला से फसल को बचाने के लिए भी इंतजाम करना चाहिये। जब भी पाला पड़ने की संभावना दिखाई दे तभी किसान भाइयों को एक लीटर गंधक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रतिहेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करा चाहिये। यदि पाला पड़ जाये और फसल उसकी चपेट में आ जाये तो 10 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से यूरिया के साथ छिड़काव करें। फसल को बचाया जा सकता है।

कब और कैसे करें कटाई

अरंडी की फसल को पूरा पकने का इंतजार नहीं करना चाहिये। जब पत्ते व उनके डंठल पीले या भूरे दिखने लगें तभी कटाई कर लेनी चाहिये क्योंकि फसल के पकने पर दाने चिटक कर गिर जाते हैं। इसलिये पहले ही इनकी कटाई करना लाभदायक रहेगा। अरंडी की फसल में पहली तुड़ाई 100 दिनों के आसपास की जानी चाहिये। इसके बाद हर माह आवश्यकतानुसार तुड़ाई करना सही रहता है।

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पैदावार

अरंडी की फसल सिंचित क्षेत्र में अच्छे प्रबंधन के साथ की जाये तो प्रतिहेक्टेयर इसकी पैदावार 30 से 35 क्विंटल तक हो सकती है जबकि  असिंचित क्षेत्र में 15 से 23 क्विंटल तक प्रतिहेक्टेयर पैदावार मिल सकती है।
अदरक की खेती के लिए जलवायु, मृदा, उर्वरक, लागत और आय की जानकारी

अदरक की खेती के लिए जलवायु, मृदा, उर्वरक, लागत और आय की जानकारी

भारत में ऐसा कोई रसोई घर नहीं जहां आपको साग पात्र में अदरक की मौजूदगी ना मिले। क्योंकि अदरक का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए भी किया जाता है। 

साथ ही, अदरक एक विशेष महत्वपूर्ण औषधीय फसल है, जो सेहत के लिए अत्यंत फायदेमंद मानी जाती है। अदरक में कैल्शियम, मैंगनीज, फॉस्फोरस, जिंक और विटामिन सी सहित बहुत सारे औषधीय गुण विघमान होते हैं। 

अदरक का इस्तेमाल औषोधिक दवाई के तोर पर भी किया जाता है। बाजार में अदरक से निर्मित सोंठ की कीमत इससे अधिक होती है। 

भारतीय बाजार में वर्षभर अदरक की मांग बनी रहती है, जिससे किसान इसकी खेती से अच्छा-खासा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं। 

अदरक की खेती के लिए उपयुक्त मृदा एवं जलवायु

अदरक की खेती के लिए बलुई दोमट मृदा को सर्वोत्तम माना जाता है। इस मिट्टी में इसकी फसल का शानदार विकास होता है। साथ ही, किसानों को अधिक उपज भी प्राप्त होती है। 

अदरक की खेती के लिए मृदा का pH स्तर 6.0 से 7.5 के मध्य उपयुक्त माना जाता है। अदरक के पौधों के लिए 25 से 35 सेल्सियस का तापमान सबसे अच्छा माना जाता है। 

इसके पौधों को अच्छी-खासी नमी और सही सिंचाई की आवश्यकता होती है। अदरक को बोने का कार्य मार्च-अप्रैल में किया जाता है और इसका उत्पादन अक्टूबर-नवंबर के दौरान होता है, जब इसके पौधे पूर्णतय विकसित हो जाते हैं।

अदरक की खेती में गोबर की खाद का प्रयोग  

अदरक के खेत से शानदार उत्पादन अर्जित करने के लिए कृषकों को इसके खेत में गोबर खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसके खेत में कृषकों को सड़े गोबर की खाद, नीम की खली और वर्मी कम्पोस्ट को डाल कर अच्छे से खेत की मृदा में मिला देना चाहिए। 

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इसके पश्चात मिट्टी को एकसार कर देना चाहिए। अब किसानों को इसे छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर लेना है और खेतों में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 2 से 3 क्विंटल बीजदर से बुवाई करनी है। दक्षिण भारत में अदरक की बुवाई मार्च-अप्रैल के माह में की जाती है और इसके बाद एक सिंचाई की जाती है। 

अदरक की खेती से किसान लाखों कमा सकते हैं 

अदरक के बीज की बुवाई के 8 से 9 महीने के पश्चात इसकी फसल पूर्णतय पककर तैयार हो जाती है। अदरक की फसल जब सही ढ़ंग से पककर तैयार हो जाती है, तब इसके पौधों का विकास होना बाधित हो जाता है 

और इसकी फसलें पीली पड़कर सूखने लग जाती हैं। किसान अदरक की खेती करके प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 150 से 200 क्विंटल तक का उत्पादन हांसिल कर सकते हैं।

 बाजारों में इसका एक किलोग्राम बीज लगभग 40 रुपये या इससे ज्यादा रहता है। किसान इसकी खेती कर सुगमता से 3.5 से 4 लाख तक की आमदनी कर सकते हैं। 

गेंदा है औषधीय गुणों से भरपूर जाने सम्पूर्ण जानकारी

गेंदा है औषधीय गुणों से भरपूर जाने सम्पूर्ण जानकारी

गेंदे का फूल सुगंध के साथ साथ बहुत सी बीमारियों में भी फायदेमंद होता है। आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे गेंदे के औषिधीय गुणों के बारे में। 

गेंदा बहुत सी बीमारियों में सहायक होता है इसीलिए इसका उपयोग आयुर्वेद में भी किया जाता है। गेंदे के फूल में मिनरल्स, विटामिन बी, विटामिन ए और एंटीऑक्सीडेंट भी पाए जाते है जो बहुत सी बीमारियों से लड़ने में सहायक होते है। 

भारत जैसे राज्य में गेंदे के फूल का बहुत बड़ा महत्व है इसका उपयोग धार्मिक कार्यों के अलावा शादी वगेरा में भी बड़े स्तर पर किये जाते है। आपको जानकार हैरानी होगी गेंदे का फूल बहुत से बीमारियों से लड़ने में भी सहायक है।  

इसके बहुत से औषधीय गुण है जो शरीर के अंदर बहुत सी बीमारियों से लड़ने में सहायक होता है। इसके अलावा गेंदे के फूल का उपयोग मुर्गियों के भोजन के लिए भी किया जाता है, इससे मुर्गी के अंडे की गुणवत्ता में वृद्धि होती है और अंडा आकर्षक भी बनता है। 

गेंदा के फूल से मिलने वाले औषिधीय  गुण 

गेंदा के फूल से मिलने वाले औषधीय गुण बहुत है, जो शरीर के अंदर बहुत सी बीमारियों से लड़ने में सहायक होते है आइये बात करते है गेंदे के फूल से मिलने वाले औषधीय गुणों के बारे में। 

  1. गेंदे की हरी पत्तियों को तोड़कर यदि उसका रस कान में डाला जाए तो कान के दर्द में राहत मिलती है। गेंदे का रस कान में होने वाले दर्द के लिए काफी उपयोगी है। 
  2. गेंदे की पत्तियां रोगाणु रोधी का भी काम करती है। यदि गेंदे की पत्तियों का रस निचोड़ कर खुजली, दिनाय या फोड़ा पर लगाए जाए तो इससे ठीक हो जाता है। 
  3. अपरस की बीमारी( यानी शरीर पर लाल चिकत्ते पड जाना ) में यह रस काफी लाभदायक होता है। 
  4. अंदरूनी चोट या मोच आने पर भी गेंदे की पत्तियों का रस निकाल कर मालिस करने पर यह काफी असरदार होता है। 
  5. यदि गेंदे की पत्तियों का रस निकालकर कटी हुए जगहों या फिर जिस जगह से रक्त बह रहा हो वहा पर लगाने से रक्त को रोका जा सकता है। 
  6. गेंदे के फूल से आरक को निकाल कर पीने से खून साफ़ होता है। 
  7. खूनी बबासीर के लिए इसे काफी उपयोगी माना जाता है। ताजे फूलों का रस निकाल कर पीने से खूनी बबासीर में आराम मिलता है। 

गेंदा की खेती के लिए कैसी भूमि होनी चाहिए ?

गेंदा की खेती के लिए उचित जल निकास वाली भूमि बेहतर मानी जाती है। गेंदे की खेती के लिए मटियार, दोमट और बलुआर मिट्टी को उचित माना जाता है। 

गेंदा की खेती के लिए भूमि की तैयारी 

भूमि की कम से कम 3 से 4 बार जुताई करें, जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाए और भूमि को समतल बना ले। मिट्टी भुरभुरी होने पर खेत में क्यारियां बना दे। 

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गेंदा की व्यावसायिक किस्में कौन सी है ?

  1. अफ्रीकन गेंदा: गेंदे की इस किस्म के पौधे शाखाओ से 1 मीटर तक ऊँचे रहते है। इस किस्म के फूल गोलाकार, पीले और नारंगी रंग में बहुगुणी पंखुड़ियों वाले होते है। इस किस्म में कुछ पौधों की ऊंचाई 20 सेंटीमीटर भी होती है। इसके अलावा इस किस्म के बड़े फूलों का व्यास 7 से 8 सेंटीमीटर होता है। व्यवसाय के दृष्टिकोण से उगाये जाने वाले गेंदे के फूल प्रभेद-पूसा ऑरेंज, अफ़्रीकी येलो और पूसा वसंतु है। 
  2. फ्रांसीसी गेंदा: इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 25 से 30 सेंटीमीटर तक होती है। गेंदे की इस किस्म में बहुत फूल आते है, पूरा पौधा फूलों से ढका हुआ होता है। इस प्रजाति की कुछ उन्नत किस्में है: कपिड येलो, बटन स्कोच, बोलेरो और  रेड ब्रोकेट। 

खाद और उर्वरक का उपयोग 

गेंदे के खेत में जुताई से पहले 200 क्विंटल खाद डाले। खाद डालने के बाद खेत की अच्छे से जुताई करें ताकि खाद अच्छे से मिट्टी में मिल जाए। 

उसके बाद खेत में  120 किलो नत्रजन, 80 किलो फॉस्फोरस, 70 किलो पोटाश खेत में प्रति एकड़ के हिसाब से डालें। इसके बाद आखिरी बार जुताई करते वक्त फॉस्फोरस और पोटाश की मात्रा को खेत में डाल दे।  इसके बाद नत्रजन की आधी मात्रा को पौधों की रुपाई के बाद 30 या 40 दिन के अंदर उपयोग करें। 

जीरे की खेती कैसे की जाती है?

जीरे की खेती कैसे की जाती है?

जीरा एक मसाला फसल है, जिसकी खेती मसाले के रूप में की जाती है। यह जीरा देखने में बिल्कुल सोंफ की तरह ही होता है, किन्तु यह रंग में थोड़ा अलग होता है | जीरे का उपयोग कई तरह के व्यंजनों में खुशबु उत्पन्न करने के लिए करते है।  

इसके अलावा इसे खाने में कई तरह से उपयोग में लाते है, जिसमे से कुछ लोग इससे पॉउडर या भूनकर खाने में इस्तेमाल करते है। जीरे का सेवन करने से पेट संबंधित कई बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है। जीरे का पौधा शुष्क जलवायु वाला होता है, तथा इसके पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है भारत में जीरे की खेती सबसे अधिक राजस्थान और गुजरात में की जाती है, यहाँ पर पूरे देश का कुल 80% जीरा उत्पादित किया जाता है, जिसमे 28% जीरे का उत्पादन अकेले राजस्थान राज्य में होता है, इसके पश्चिमी क्षेत्र में राज्य का कुल 80% जीरा उत्पादन होता है | वही पड़ोसी राज्य गुजरात में राजस्थान की अपेक्षा अधिक पैदावार होती है | वर्तमान समय में जीरे की उन्नत किस्मो को ऊगा कर उत्पादन क्षमता को 25% से 50% तक बढ़ाया जा सकता है | अधिकतर किसान भाई जीरे की उन्नत किस्मो को उगाकर अच्छा लाभ भी कमा रहे है | यदि आप भी जीरे की खेती करना चाहते है, तो इस लेख में आपको जीरा की खेती कैसे करें (Cumin Farming in Hindi) तथा जीरा का भाव इसके बारे में जानकारी दी जा रही है।   

जीरे की खेती के लिए मिटटी की आवश्यकता                     

जीरे की अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है | इसकी खेती में भूमि उचित जल निकासी वाली होनी चाहिए, तथा भूमि का P.H. मान भी सामान्य होना चाहिए | जीरे की फसल रबी की फसल के साथ की जाती है, इसलिए इसके पौधे सर्द जलवायु में अच्छे से वृद्धि करते है | इसके पौधों को सामान्य बारिश की आवश्यकता होती है, तथा अधिक गर्म जलवायु इसके पौधों के लिए उपयुक्त नहीं होती है | जीरे के पौधों को रोपाई के पश्चात् 25 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है, तथा पौधों की वृद्धि के समय 20 डिग्री तापमान उचित होता है | इसके पौधे अधिकतम 30 डिग्री तथा न्यूनतम 20 डिग्री तापमान को आसानी से सहन कर सकते है |

जीरे की किस्में 

वर्तमान समय में जीरे की कई तरह की उन्नत किस्मो को तैयार किया गया है, जो अलग-अलग जलवायु के हिसाब से अधिक पैदावार देने के लिए उगाई जाती है। आर. जेड. 19 , जी. सी. 4 , आर. जेड. 209 , जी.सी. 1

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जीरे की बुवाई के लिए भूमि की तैयारी        

जीरे की फसल करने से पहले उसके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लिया जाता है। इसके लिए सबसे पहले खेत की मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर दी जाती है। जुताई के बाद खेत को कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है। इसके बाद खेत में प्राकृतिक खाद के तौर पर 10 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद डालकर जुताई कर दी जाती है, इससे खेत की मिट्टी में खाद अच्छी तरह से मिल जाती है।  खाद को मिट्टी में मिलाने के बाद दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है। जुताई के बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है। 

फसल में उर्वरक और खाद प्रबंधन 

पलेव के बाद खेत की आखरी जुताई के समय 65 किलो डी.ए.पी. और 9 किलो यूरिया का छिड़काव खेत में करना होता है | इसके बाद खेत में रोटावेटर लगाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर दिया जाता है | मिट्टी के भुरभुरा हो जाने के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है| इससे खेत में जलभराव की समस्या नहीं उत्पन्न होती है | इसके अतिरिक्त 20 से 25 KG यूरिया  की मात्रा को पौधों के विकास के समय तीसरी सिंचाई के दौरान पौधों को देना होता है |

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जीरे की बुवाई के लिए बीज दर                

जीरे के बीजों की रोपाई बीज के रूप में की जाती है| इसके लिए छिड़काव और ड्रिल तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है | ड्रिल विधि द्वारा रोपाई करने के लिए एक एकड़ के खेत में 8 से 10 KG बीजो की आवश्यकता होती है | वही छिड़काव विधि द्वारा बीजो की रोपाई के लिए एक एकड़ के खेत में 12 KG बीज की आवश्यकता होती है | बीजो को खेत में लगाने से पूर्व उन्हें कार्बनडाजिम की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है | छिड़काव विधि के माध्यम से रोपाई के लिए खेत में 5 फ़ीट की दूरी रखते हुए क्यारियों को तैयार कर लिया जाता है |

बीज की बुवाई 

इन क्यारियों में बीजो का छिड़काव कर उन्हें हाथ या दंताली से दबा दिया जाता है| इससे बीज एक से डेढ़ CM नीचे दब जाता है | इसके अलावा यदि आप ड्रिल विधि द्वारा बीजो की रोपाई करना चाहते है, तो उसके लिए आपको खेत में पंक्तियो को तैयार कर लेना होता है, तथा प्रत्येक पंक्ति के मध्य एक फ़ीट की दूरी रखी जाती है | पंक्तियों में बीजो की रोपाई 10 से 15 CM की दूरी पर की जाती है | चूंकि जीरे की फसल रबी की फसल के साथ लगाई जाती है, इसलिए इसके बीजो को नवंबर माह के अंत तक लगाना उचित होता है। 

फसल में सिचांई प्रबंधन  

जीरे के पौधों को सिंचाई की सामान्य जरुरत होती है।  इसकी प्रारंभिक सिंचाई बीज रोपाई के तुरंत बाद कर दी जाती है, तथा प्रारंभिक सिंचाई को पानी के धीमे बहाव के साथ करना होता है, ताकि बीज पानी के तेज बहाव से बहकर किनारे न आ जाये। इसके पौधों को अधिकतर 5 से 7 सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई के बाद बाकी की सिंचाई को 10 से 12 दिन के अंतराल में करना होता है |

फसल में खरपतवार नियंत्रण 

जीरे के खेत में खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक और प्राकृतिक दोनों ही विधियों का इस्तेमाल किया जाता है। रासायनिक विधि में आक्साडायर्जिल की उचित मात्रा को पानी के साथ मिलाकर घोल बना लिया जाता है, जिसे बीज रोपाई के तत्पश्चात खेत में छिड़क दिया जाता है| प्राकृतिक विधि में पौधों की निराई-गुड़ाई की जाती है। इसकी पहली गुड़ाई बीज रोपाई के तक़रीबन 20 दिन बाद की जाती है, तथा बाकी की गुड़ाई को 15 दिन के अंतराल में करना होता है। इसके पौधों को अधिकतम दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। 

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फसल की उपज 

जीरे की उन्नत किस्में बीज रोपाई के तक़रीबन 100 से 120 दिन पश्चात् पैदावार देने के लिए तैयार हो जाती है। जब इसके पौधों में लगे बीजो का रंग हल्का भूरा दिखाई देने लगे उस दौरान पुष्प छत्रक को काटकर एकत्रित कर खेत में ही सूखा लिया जाता है। इसके बाद सूखे हुए पुष्प छत्रक से मशीन द्वारा दानो को निकल लिया जाता है। उन्नत किस्मो के आधार पर जीरे के एक हेक्टेयर के खेत से लगभग 7 से 8 क्विंटल की पैदावार प्राप्त हो जाती है।  जीरा का बाज़ारी भाव 200 रूपए प्रति किलो तक होता है, जिस हिसाब से किसान भाई जीरे की एक बार की फसल से 40 से 50 हज़ार तक की कमाई कर अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 

बकरी पालन व्यवसाय में है पैसा ही पैसा

बकरी पालन व्यवसाय में है पैसा ही पैसा

बकरी पालन के आधुनिक तरीके को अपना कर आप मोटा मुनाफा कमा सकते हैं। जरूरत सिर्फ इतनी है, कि आप चीजों को बारीकी से समझें और एक रणनीति बना कर ही काम करें। 

पेशेंस हर बिजनेस की जरूरत है, अतः उसे न खोएं, बकरी पालन एक बिजनेस है और आप इससे बढ़िया मुनाफा कमा सकते हैं।

गरीबों की गाय

पहले बकरी को गरीब किसानों की गाय कहा जाता था। जानते हैं क्यों क्योंकि बकरी कम चारा खाकर भी बढ़िया दूध देती थी, जिसे किसान और उसका परिवार पीता था। 

गाय जैसे बड़े जानवर को पालने की कूवत हर किसान में नहीं होती थी। खास कर वैसे किसान, जो किसी और की खेती करते थे। 

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आधुनिक बकरी पालन

अब दौर बदल गया है, अब बकरियों की फार्मिंग होने लगी है। नस्ल के आधार पर क्लोनिंग विधि से बकरियां पैदा की जाती हैं। देसी और फार्मिंग की बकरी, दोनों में फर्क होता है। यहां हम देसी की नहीं, फार्मिंग गोट्स की बात कर रहे हैं। 

जरूरी क्या है

बकरी पालन के लिए कुछ चीजें जरूरी हैं, पहला है, नस्ल का चुनाव, दूसरा है शेड का निर्माण, तीसरा है चारे की व्यवस्था, चौथा है बाजार की व्यवस्था और पांचवां या सबसे जरूरी चीज है, फंड का ऐरेन्जमेंट। ये पांच फंडे क्लीयर हैं, तो बकरी पालन में कोई दिक्कत नहीं जाएगी। 

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नस्ल या ब्रीड का चयन

अगर आप बकरी पालने का मूड बना ही चुके हैं, तो कुछ ब्रीडों के बारे में जान लें, जो आने वाले दिनों में आपके लिए फायदे का सौदा होगा। 

आप अगर पश्चिम बंगाल और असम में बकरी पालन करना चाहते हैं, तो आपके लिए ब्लैक बेंगार ब्रीड ठीक रहेगा। लेकिन, अगर आप यूपी, बिहार और राजस्थान में बकरी पालन करना चाहते हैं, तो बरबरी बेस्ट ब्रीड है। 

ऐसे ही देश के अलग-अलग हिस्सों में आप बीटल, सिरोही जैसे ब्रीड को ले सकते हैं। इन बकरियों का ब्रीड बेहतरीन है। ये दूध भी बढ़िया देती हैं, इनका दूध गाढ़ा होता है और बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिए आदर्श माना जाता है। 

ट्रेनिंग कहां लें

आप बकरी पालन करना तो चाहते हैं, लेकिन आपको उसकी एबीसी भी पता नहीं है। तो चिंता न करें, एक फोन घुमाएं नंबर है 0565-2763320 यह नंबर केंद्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, मथुरा, यूपी का है। यह संस्थान आपको हर चीज की जानकारी दे देगा। अगर आप जाकर ट्रेनिंग लेना चाहते हैं, तो उसकी भी व्यवस्था है। 

शेड का निर्माण

इसका शेड आप अपनी जरूरत के हिसाब से बना सकते हैं, जैसे, शुरुआत में आपको अगर 20 बकरियां पालनी हैं, तो आप 20 गुणे 20 फुट का इलाका भी चूज कर सकते हैं। 

उस पर एसबेस्डस शीट लगा कर छवा दें, बकरियां सीधी होती हैं। उनको आप जहां भी रखेंगे, वो वहीं रह जाएंगी, उन्हें किसी ए सी की जरूरत नहीं होती। 

भोजन

बकरियों को हरा चारा चाहिए, आप उन्हें जंगल में चरने के लिए छोड़ सकते हैं, आपको अलग से चारे की व्यवस्था नहीं करनी होगी। लेकिन, आप अगर जंगल से दूर हैं, तो आपको उनके लिए हरे चारे की व्यवस्था करनी होगी। 

हरे चारे के इतर बकरियां शाकाहारी इंसानों वाले हर भोजन को बड़े प्यार से खा लेती हैं, उसके लिए आपको टेंशन नहीं लेने का। 

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कितने दिनों में तैयार होती हैं बकरियां

एक बकरी का नन्हा बच्चा/बच्ची 10 माह में तैयार हो जाता है, आपको जो मेहनत करनी है, वह 10 माह में ही करनी है। इन 10 माह में वह इस लायक हो जाएगा कि परिवार बढ़ा ले, दूध देना शुरू कर दे। 

बाजार

आपकी बकरी का नस्ल ही आपके पास ग्राहक लेकर आएगा, आपको किसी मार्केटिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इसलिए नस्ल का चयन ठीक से करें। 

फंड की व्यवस्था

आपके पास किसान क्रेडिट कार्ड है, तो उससे लोन ले सकते हैं। बकरी पालन को उसमें ऐड किया जा चुका है। केसीसी (किसान क्रेडिट कार्ड) नहीं है तो आप किसी भी बैंक से लोन ले सकते हैं। 

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कोई बीमारी नहीं

अमूमन बकरियों में कोई बीमारी नहीं होती, ये खुद को साफ रखती हैं। हां, अब कोरोना टाइप की ही कोई बीमारी आ जाए तो क्या कहा जा सकता है, इसके लिए आपको राय दी जाती है, कि आप हर बकरी का बीमा करवा लें। खराब हालात में बीमा आपकी बेहद मदद करेगा।

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

बकरियों पर पड़ रहे लंपी वायरस के प्रभाव को इस तरह रोकें

लंपी वायरस एक संक्रामक रोग है। यह पशुओं के लार के माध्यम से फैलता है। लंपी वायरस गाय बकरी आदि जैसे दूध देने वाले पशुओं पर प्रकोप ड़ालता है। इस वायरस के प्रकोप से बकरियों के शरीर पर गहरी गांठें हो जाती हैं। साथ ही, यह बड़ी होकर घाव के स्वरूप में परिवर्तित हो जाती हैं। इसको सामान्य भाषा में गांठदार त्वचा रोग के नाम से भी जाना जाता है। बकरियों के अंदर यह बीमारी होने से उनका वजन काफी घटने लगता है। सिर्फ यही नहीं बकरियों के दूध देने की क्षमता भी कम होनी शुरू हो जाती है। 

लंपी वायरस के क्या-क्या लक्षण होते हैं

इस रोग की वजह से बकरियों को बुखार आना शुरू हो जाता है। आंखों से पानी निकलना, लार बहना, शरीर पर गांठें आना, पशु का वजन कम होना, भूख न लगना एवं शरीर पर घाव बनना इत्यादि जैसे लक्षण होते हैं। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि लंपी रोग केवल जानवरों में होता है। यह लंपी वायरस गोटपॉक्स एवं शिपपॉक्स फैमिली का होता है। इन कीड़ों में खून चूसने की क्षमता काफी अधिक होती है।

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लंपी वायरस से बकरियों के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इस वायरस की चपेट में आने के पश्चात बकरियों में इसका संक्रमण 14 दिन के अंदर दिखने लगता है। जानवर को तीव्र बुखार, शरीर पर गहरे धब्बे एवं खून में थक्के पड़ने लगते हैं। इस वजह से बकरियों का वजन कम होने लग जाता है। साथ ही, इनकी दूध देने की क्षमता भी काफी कम होने लगती है। दरअसल, इसके साथ-साथ पशु के मुंह से लार आनी शुरू हो जाती है। गर्भवती बकरियों का गर्भपात होने का भी खतरा बढ़ जाता है। 

लंपी वायरस की शुरुआत किस देश से हुई है

विश्व में पहली बार लंपी वायरस को अफ्रीका महाद्वीप के जाम्बिया देश के अंदर पाया गया था। हाल ही में यह पहली बार 2019 में चीन में सामने आया था। भारत में भी यह 2019 में ही आया था। भारत में पिछले दो सालों से इसके काफी सारे मामले सामने आ रहे हैं। 

बकरियों का दूध पीयें या नहीं

लंपी वायरस मच्छर, मक्खी, दूषित भोजन एवं संक्रमित पाशुओं के लार के माध्यम से ही फैलता है। इस वायरस को लेकर लोगों के भीतर यह भय व्याप्त हो गया है, कि क्या इस वायरस से पीड़ित पशुओं के दूध का सेवन करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि पशुओं के दूध का उपयोग किया जा सकता है। परंतु, आपको दूध को काफी अच्छी तरह से उबाल लेना चाहिए। इससे दूध में विघमान वायरस पूर्णतय समाप्त हो जाए।

लघु और सीमांत किसानों को अब सुगमता से मिला ऋण

लघु और सीमांत किसानों को अब सुगमता से मिला ऋण

भारत के लघु कृषकों को वर्तमान में आसानी से कर्जा मिल पाऐगा। बतादें, कि मोदी सरकार शीघ्र ही एक नया प्रोग्राम लॉन्च करने जा रही है, जिसके अंतर्गत ऋण और इससे जुड़ी सेवाओं के लिए एआरडीबी से जुड़े छोटे और सीमांत किसानों को फायदा होगा। देश के लघु कृषकों के लिए केंद्र सरकार शीघ्र ही नवीन योजना जारी करने जा रही है। दरअसल, केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह शीघ्र ही कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (Rural Development Banks) और सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार (Registrar of Cooperative Societies) लिए कम्प्यूटरीकरण परियोजना का आरंभ करने जा रही है। 

आधिकारिक बयान के मुताबिक, अमित शाह राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में एआरडीबी और आरसीएस की कम्प्यूटरीकरण परियोजना को लागू करेंगे। इस कार्यक्रम का आयोजन सहकारिता मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (NCDC) की मदद से किया जा रहा है। राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (ARDBs) और सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार (RCSs) कार्यालयों का कम्प्यूटरीकरण मंत्रालय द्वारा उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। 

एनसीडीसी की मदद से सहकारिता मंत्रालय द्वारा आयोजित

यह कार्यक्रम एनसीडीसी (राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम) के सहयोग से सहकारिता मंत्रालय द्वारा आयोजित किया जा रहा है। योजना के अंतर्गत राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (ARDBs) और सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार (RCSs) कार्यालयों का पूर्णतय कंप्यूटरीकरण  किया जाएगा, जो सहकारिता मंत्रालय द्वारा उठाया गया एक अहम कदम है। बयान में कहा गया है, कि इस परियोजना के जरिए सहकारी क्षेत्र का आधुनिकीकरण और दक्षता बढ़ाई जाऐगी। जहां संपूर्ण सहकारी तंत्र को एक डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाया जाऐगा। 

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एआरडीबी की 1,851 इकाइयों को कंप्यूटरीकृत करने का कार्य जारी 

बयान में कहा गया है, कि 13 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में एआरडीबी की 1,851 इकाइयों को कंप्यूटरीकृत किया जाएगा। साथ ही, इन्हें राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) के साथ जोड़ा जाऐगा। इसके जरिए सामान्य तौर पर इस्तेमाल होने वाले एक सामान्य राष्ट्रीय सॉफ्टवेयर पर आधारित होंगे। यह पहल कॉमन अकाउंटिंग सिस्टम (सीएएस) और मैनेजमेंट इन्फॉर्मेशन सिस्टम (एमआईएस) के द्वारा व्यावसायिक प्रक्रियाओं को मानकीकृत करके एआरडीबी में कार्य संचालन क्षमता, जवाबदेही और पारदर्शिता को प्रोत्साहित करेंगे। इस कदम से प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसायटीज (पैक्स) के जरिए छोटे और सीमित कृषकों को एकड़ और संबंधित सेवाओं के लिए एआरडीबी से लाभ मिलेगा। 

सतावर की खेती से बदली तकदीर

सतावर की खेती से बदली तकदीर

उत्तर प्रदेश के कासगंज में जन्मे श्याम चरण उपाध्याय अच्छी खासी नौकरी छोड़कर किसान बन गए। किसानी यूंतो कांटों भरी डगर ही होती है लेकिन उन्होंने इसके लिए कांटों वाली सतावर की खेती को ही चुना। सीमैप लखनऊ से प्रशिक्षण प्राप्त कर उन्होंने एक दशक पूर्व खेती शुरू की और पहले ही साल एक एकड़ की सतावर को पांच लाख में बेच दिया। उनकी शुरूआत और जानकारी ठीक ठाक होने के कारण वह सफलता की सीढिंयां चढ़ते गए। आज वह एक सैकड़ा किसानों के लिए मार्ग दर्शक का काम कर रहे हैं। उन्होंने एक फार्मर प्रोड्यूशर कंपनी बनाई है। मेडी एरोमा एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी प्राईवेट लिमिटेड नामक इस किसान कंपनी में 517 सदस्य हैं। विषमुक्त खेती, रोग मुक्त जीवन के मंत्र पर काम करने वाले उपाध्याय आज अपनी अलग पहचान बना चुके हैं। कासंगज की पटियाली तहसील के बहोरा गांव में जन्मे श्याम चरण उपाध्याय रीसेंट इंश्योरेंस कंपनी में एक्जीक्यूटिव आफीसर थे। उन्हें वेतन भी 50 हजार के पार मिलता था लेकिन उनकी आत्मा गांव में बसी थी। वह नौकरी के दौरान भी गांव से अपना मोह नहीं छोड़ पाए। उन्होंने यहां  2007 तक काम किया। इसके बाद नौकरी छोड़कर गांव चले आए। गांव आकर उन्होंने खेती में कुछ लीक से हटकर करने का मन बनाया। उन्होंने परंपरागत खेती के अलावा कुछ नया करने की धुन को साकार करने की दिशा में काम शुरू कर दिया। इस काम में उनकी मदद उनकी शिक्षा बायो से बीएससी एवं बाराबंकी के जेपी श्रीवास्तव ने की। वह ओषधीय पौधों की खेती का गुड़ा भाग लगाकर मन पक्का कर चुके थे। सगंधीय पौध संस्थान, सीमैप लखनउू से प्रशिक्षण प्राप्त कर वक काम में जुट गए।

क्या है सतावर की खेती का गणित

श्री उपाध्याय ने बाताया कि एक एकड में सतावर के 11 हजार पौधे लगते हैं। हर पौधे में गीली जड़ दो से पांच किलोग्राम निकलती है। सूखने के बाद यह न्यूनतम 15 प्रतिशत बजनी रहने पर भी 300 ग्राम प्रति पौधे के हिसाब से बैठ जाती है। उनकी एक एकड़ जमीन में उन्हें करीब 30 कुंतल सूखी सतावर प्राप्त हुई। सतावर की कीमत 200 से 500 रुपए प्रति किलोग्राम तक बिक जाती है। उन्होंने पहले साल अपनी पूूरी फसल एक औषधीय फसलों की खरीद करने वाले को पांच लाख में बेच दी। खुदाई से लेकर प्रोसेसिंग का सारा जिम्मा उन्हीं का था।

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किसान इस औषधीय फसल से कम समय में अधिक लाभ उठा सकते हैं
इसके बाद उन्होंने खस बटीवर, पामारोजा, सतावर, स्टीविया, अश्वगंधा, केमोमाइल, लेमनग्रास आदि की खेती कर रहे हैं। किसी भी औषधीय फसल को लगाने से पूर्व वह बाजार की मांग का विशेष ध्यान रखते हैं। बाजार में जिन चीजों की मांग ठीक ठाक हो उन्हें ही वह प्राथमिकता से लगाते हैं।  अब वह कृषक शसक्तीकरण परियोजना में अन्य किसानों को जोड रहे हैं। बंजर में चमन खिलाएंगे श्री उपाध्याय का सपना है कि धान-गेहूं फसल चक्र के चलते जमीन खराब हो रही है। बंजर होते खेतों से भी वह किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं। बंजर में खस अच्छी लगती है। वह किसानों को खस की खेती करना सिखा रहे हैं। इससे उनकी आय होगी। साथ ही खेती की जमीन भी धीरे धीरे सुधर जाएगी। वह बताते हैं कि ज्यातार किसान जिस खेती को करते हैं उससे अच्छी आय नहीं हो सकता। इस लिए किसानों को लीक से हटकर नई खेती को अपनाना चाहिए। पहली बार में इसे ज्यादा न करें। बाजार आदि की पूरी जानकारी होने के बाद ही काम को धीरे धीरे बढ़ाएं।
किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने के फायदे

किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने के फायदे

खेती के लिए किसान किसी बैंक से या वही के किसी सेठ से पैसे उधार पे लेते है, और बैंक या सेठ पैसे के साथ ब्याज भी बहुत ज्यादा रख देता है. 

बाद में जअब पैसे वापस करने होते है तो बहुत ज्यादा ब्याज की वजह से किसान जितना कमाते है उतना उनका उधर चुकाने में चला जाता है. जिस वजह से सरकार ने किसानों के लिए सस्ते लोन लेने के लिए और साहूकारों के कर्ज से बचने के लिए किसान क्रेडिट कार्ड किसानों के लिए बनवाया है. 

3 लाख तक का कर्ज 9 प्रतिशत की ब्याज दर पे मिलता है . जिसमे सरकार 2 प्रतिशत तक की सब्सिडी और अगर आपने अपने लोन के पैसे निर्धारित समय पर वापस कर दिए तो ब्याज में 3% की और छूट मिल जाएगी. 

इस तरह तो सिर्फ 4% ब्याज दर पे 3 लाख का लोन किसान क्रेडिट कार्ड से मिलेगा. किसान क्रेडिट कार्ड से 1.60 लाख तक का लोन किसान बिना कोई गारंटी दिखाए ले सकता है.

किसान क्रेडिट कार्ड कैसे बनवाए

किसान क्रेडिट कार्ड बनवाना बहुत आसान है. इसे बनवाने से आपको खेती के लिए सस्ते दरों पर लोन मिल जाएगा. अगर आप पीएम किसान सम्मान निधि योजना के लाभार्थी है तो आप केसीसी आसानी से बनवा सकते है.  

पीएम किसान की अधिकारिक वेबसाइट  में आप जाकर किसान क्रेडिट फॉर्म को डाउनलोड कर प्रिंट निकलवा ले फिर उसमे जो भी डिटेल्स हो भरने को कही हो वो भर दे. इसमें आवेदक का आधार कार्ड और पैन कार्ड की फोटो कॉपी लगाइए. 

और साथ ही किसान की पासपोर्ट साइज फोटो. साथ ही साथ एक एफिडेविट भी होना चाहिए जिसमे लिखा हो कि," मैने किसी और बैंक से लोन नहीं लिया है और न ही मेरा किसी बैंक में बकाया है". 

नजदीक के किसी बैंक में इस फॉर्म को जमा करवा दे. यदि बैंक को आपका आवेदन सही लगता है तो वो आपका 14 दिन के अंदर आपका कार्ड बन जाएगा.

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आप किसी नजदीकी कॉमन सर्विस सेंटर जाकर भी इसके लिए अप्लाई कर सके है. इसमें पट्टेदार व बटाईदार भी इसका लाभ उठा सकते हैं. यहां से किसान केसीसी आसानी से बनावा सकते है. समय पर मूलधन और ब्याज जमा कर आप इसका अधिक लाभ उठा सकते है. 

किसानों का काम सरकार ने किया आसान

पहले किसानों के लगभग 5 हजार रूपए क्रेडिट कार्ड बनवाने पर प्रॉसेसिंग फीस के रूप में लग जाते थे. परंतु अब 3 लाख रुपए तक के लोन के लिए कोई भी बैंक अप्लीकेंट से प्रोसेसिंग फीस, वेरिफिकेशन, लेजर फाॅलियों चार्ज और सर्विस टैक्स नहीं मांग सकता है.