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भविष्य की फसल है मक्का

भविष्य की फसल है मक्का

मक्का भविष्य की फसल है। हम यह बात इसलिए भी कह रहे हैं क्योंकि मक्का में पोषक तत्वों की मौजूदगी गेहूं से कहीं अधिक है। इसकी उपज भी साल में दो बार ली जा सकती है। इसके अलावा मनुष्य के लिए खाद्यान्न के साथ पशुओं के लिए पोषक चारा भी इससे मिल जाता है। इसकी खेती के लिए यदि सही तरीके अपनाए जाएं तो उपज 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है। खरीफ में पैदा होने वाली मक्का के अच्छे उत्पादन के लिए जरूरी बिंदुओं हम प्रकाश डाल रहे हैं। 

कैसे करें खेती

makka ki kheti 

 मक्का की खेती के लिए बालवीर 2 मठ भूमि उपयुक्त रहती है। ऐसे खेत का चयन करें जिसमें से पानी निकल जाता हो। खेत को भैरव और कल्टीवेटर से दो-दो बार जोत कर पाटा लगाना चाहिए।अच्छी पैदावार के लिए आखरी जुताई में उर्वरकों का प्रयोग करें। 

कितना उर्वरक डालें

makka urvarak


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उर्वरकों का प्रयोग करने से पहले खेतों की मिट्टी की जांच करा लेनी चाहिए ताकि हमें पता चल सके कि हमारे खेत में किन-किन तत्वों की कितनी कमी है। यदि मृदा परीक्षण नहीं हुआ है तो देर से पकने वाली शंकर एवं संकुल पर जातियों के लिए 120, 60, 60 व शीघ्र पकने वाली प्रजातियों हेतु 100, 60,40 तथा देशी प्रजातियों के लिए 60, 30, 30 किलोग्राम नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश की क्रमशः मात्रा का प्रयोग करें। अच्छी फसल के लिए सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग अवश्य करें। उसकी मात्रा 10 टन प्रति हेक्टेयर खेत में डालनी चाहिए। उक्त कभी कल उर्वरकों में से नाइट्रोजन को पानी लगाने के बाद के लिए आधी मात्रा में बचा लेना चाहिए बाकी उर्वरकों को मिट्टी में मिला दें। 

कब करें बिजाई

makka ki buwai 

देर से पकने वाली मक्का मई से मध्य जून तक कभी भी बोई जा सकती है। इसकी बिजाई मशीन से लाइनों में उचित दूरी पर करनी चाहिए ताकि भविष्य में निराई गुड़ाई उर्वरक प्रबंधन आदि में आसानी रहे। प्रति किलोग्राम बीज को ढ़ाई ग्राम थीरम, 2 ग्राम कार्बन्जिडाजिम या 3 ग्राम ट्राइकोडरमा से उपचारित करके ही बोना चाहिए। उपचारित करने के लिए उक्त तीनों दवाओं में से किसी एक को लेकर बीज पर हल्के से पानी के छींटे देकर हाथों में दस्ताने पहनकर हर दाने पर लपेट देना चाहिए।


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बिजाई व बीज दर

बिजाई करते समय ताना साडे 3 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरा ना डालें लाइनों की दूरी 45 सेंटीमीटर अगेती किस्मों के लिए एवं देर से पकने वाली किस्मों के लिए 60 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। अगेती किस्मों में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर मध्यम व देरी से पकने वाली प्रजातियों को 25 सेंटीमीटर दूरी पर लगाना चाहिए। देसी एवं छोटे दाने वाली किस्मों के लिए बीज 16 से 18 किलोग्राम एवं हाइब्रिड किस्म का बीज 20 से 22 किलोग्राम तथा सामान्य संकुल किस्मौं का 18 से 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर प्रयोग में लाना चाहिए। 

भूमि का उपचार जरूरी

makka ki kheti 

 जिन क्षेत्र में फफूंदी जनित बीमारियों की समस्या है उन क्षेत्रों में जमीन की गहरी जुताई तेज गर्मियों में एक एक हफ्ते के अंतराल पर करें ताकि मिट्टी पलट के सिक जाए। इसके अलावा सड़े हुए गोबर की खाद में ट्राइकोडरमा मिलाकर एक हफ्ते छांव में रखकर उसे भी खेत में बुरक कर तुरंत मिट्टी में मिला देना चाहिए। दीमक के प्रकोप वाले इलाकों में क्लोरो पायरी फास 20 ईसी की  ढाई लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर 20 किलोग्राम बालों में मिलाकर प्रत्येक के किधर से मिट्टी में मिला दें।

आलू की फसल को झुलसा रोग से बचाने का रामबाण उपाय

आलू की फसल को झुलसा रोग से बचाने का रामबाण उपाय

भारत में बदले मौसम के तेवर रबी फसलों से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े होते हैं। आलू की फसल झुलसा रोग के मामले में काफी संवेदनशील है। बतादें, कि कोहरा, बादल और बूंदाबांदी मौसम के बदले मिजाज में आलू की फसल झुलसा रोग के प्रति संवेदनशील होती है। आलू की खेती में लगने वाली ज्यादा लागत एवं रोग से संभावित भारी नुकसान के मद्देनजर कृषक रोकथाम के उपाय करें। आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि बारिश, बादल और तापमान में आई अप्रत्याशित गिरावट एवं कोहरे के कारण महज आलू की ही नहीं बल्कि अन्य फसलों जैसे कि टमाटर, लहसुन और प्याज की फसल को भी नुकसान संभव है। बढ़वार रुकने के साथ-साथ रोगों के प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ जाती है। वर्तमान में आलू की फसल पछेती झुलसा (लेट ब्लाइट) के प्रति संवेदनशील है। इसका प्रकोप ऊपर की पत्तियों से चालू होता है। प्रारंभिक समय में किनारे की पत्तियां काली होती हैं। तीव्रता से इसका संक्रमण संपूर्ण पत्तियों और तने से होकर कंद तक पहुंच जाता है। ये अगैती झुलसा से ज्यादा खतरनाक है। समय रहते इसकी रोकथाम ना होने पर 2-3 दिन में पूरी फसल चौपट हो सकती है।

झुलसा रोग की इस तरह रोकथाम करें 

किसान मैंकोजेब के साथ कार्बेडाजिम का छिड़काव करें। प्रति लीटर पानी में दवा का अनुपात 2.5 से 3 ग्राम तक रखें। पहले रक्षात्मक छिड़काव के पश्चात आवश्यकता हो तो दो सप्ताह के पश्चात दूसरा भी छिड़काव करें।

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माहू का नियंत्रण कैसे करें 

आज के मौसम में सब्जियों के साथ-साथ सरसों में भी माहू और इससे होने वाले विषाणु जनित रोगों के संक्रमण की संभावना होती है। प्रकोप होने पर पत्तियां मुड़कर मोटी और कड़ी हो जाती हैं। पौध का विकास और बढ़वार रुक जाता है एवं पैदावार प्रभावित हो जाती है। इसके नियंत्रण के लिए मेटासिस्टाक्स 1.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में मिश्रित कर छिड़काव करें। पाले से संरक्षण करने के लिए खेत में नमी बनाए रखें। आप मैंकोजेब का भी छिड़काव कर सकते हैं।

सब्जियों की अन्य फसलों पर भी मौसम का असर होगा 

अगर मौसम खराब रहा तो ऐसे में प्याज, लहसुन का विकास रुक जाता है। अधिकतर प्याज की रोपाई हो चुकी है अथवा नर्सरी में है। यदि प्याज की रोपाई करनी है, तो बेसल ड्रेसिंग में बाकी उर्वरकों के साथ प्रति एकड़ 10 किग्रा गंधक का भी इस्तेमाल करें। इफ्को का बेंटानाइट सल्फर एक शानदार उत्पाद है। नर्सरी में यदि गलन की दिक्कत है, तो मैंकोजेब, कार्बेडाजिम एवं सल्फर का छिड़काव करें। विशेषज्ञों के मुताबिक 18:18:18 (घुलनशील उर्वरक) का छिड़काव भी बेहतर बढ़वार में मददगार है। कम तापमान के चलते लहसुन के कंद छोटे हो सकते हैं। इसके लिए 13:0: 45 का छिड़काव करें। एक लीटर पानी में 10 ग्राम खाद डालें। इसमें 6 मिलीग्राम स्टीकर मिलाने से नतीजे बेहतर होंगे। सब्जियों में ऐसे मौसम में आए फल-फूल गिर जाते हैं। ये बने रहें इसके लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिड़काव करें।
मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून सीजन में तेजी से बढ़ने वाली ये 5 अच्छी फसलें

मानसून का मौसम किसान भाइयों के लिए कुदरती वरदान के समान होता है। मानसून के मौसम होने वाली बरसात से उन स्थानों पर भी फसल उगाई जा सकती है, जहां पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। पहाड़ी और पठारी इलाकों में सिंचाई के साधन नही होते हैं। इन स्थानों पर मानसून की कुछ ऐसी फसले उगाई जा सकतीं हैं जो कम पानी में होतीं हों। इस तरह की फसलों में दलहन की फसलें प्रमुख हैं। इसके अलावा कुछ फसलें ऐसी भी हैं जो अधिक पानी में भी उगाई जा सकतीं हैं। वो फसलें केवल मानसून में ही की जा सकतीं हैं। आइए जानते हैं कि कौन-कौन सी फसलें मानसून के दौरान ली जा सकतीं हैं।

मानसून सीजन में बढ़ने वाली 5 फसलें:

1.गन्ना की फसल

गन्ना कॉमर्शियल फसल है, इसे नकदी फसल भी कहा जाता है। गन्ने  की फसल के लिए 32 से 38 डिग्री सेल्सियस का तापमान होना चाहिये। ऐसा मौसम मानसून में ही होता है। गन्ने की फसल के लिए पानी की भी काफी आवश्यकता होती है। उसके लिए मानसून से होने वाली बरसात से पानी मिल जाता है। मानसून में तैयार होकर यह फसल सर्दियों की शुरुआत में कटने के लिए तैयार हो जाती है। फसल पकने के लिए लगभग 15 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है। गन्ने की फसल केवल मानसून में ही ली जा सकती है। इसकी फसल तैयार होने के लिए उमस भरी गर्मी और बरसात का मौसम जरूरी होता है। गन्ने की फसल पश्चिमोत्तर भारत, समुद्री किनारे वाले राज्य, मध्य भारत और मध्य उत्तर और पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में अधिक होती है। सबसे अधिक गन्ने का उत्पादन तमिलनाडु राज्य  में होता है। देश में 80 प्रतिशत चीनी का उत्पादन गन्ने से ही किया जाता  है। इसके अतिरिक्त अल्कोहल, गुड़, एथेनाल आदि भी व्यावसायिक स्तर पर बनाया जाता है।  चीनी की अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मांग को देखते हुए किसानों के लिए यह फसल अत्यंत लाभकारी होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=XeAxwmy6F0I&t[/embed]

2. चावल यानी धान की फसल

भारत चावल की पैदावार का बहुत बड़ा उत्पादक देश है। देश की कृषि भूमि की एक तिहाई भूमि में चावल यानी धान की खेती की जाती है। चावल की पैदावार का आधा हिस्सा भारत में ही उपयोग किया जाता है। भारत के लगभग सभी राज्यों में चावल की खेती की जाती है। चावलों का विदेशों में निर्यात भी किया जाता है। चावल की खेती मानसून में ही की जाती है क्योंकि इसकी खेती के लिए 25 डिग्री सेल्सियश के आसपास तापमान की आवश्यकता होती है और कम से कम 100 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून से पानी मिलने के कारण इसकी खेती में लागत भी कम आती है। भारत के अधिकांश राज्यों व तटवर्ती क्षेत्रों में चावल की खेती की जाती है। भारत में धान की खेती पारंपरिक तरीकों से की जाती है। इससे यहां पर चावल की पैदावार अच्छी होती है। पूरे भारत में तीन राज्यों  पंजाब,पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक चावल की खेती की जाती है। पर्वतीय इलाकों में होने वाले बासमती चावलों की क्वालिटी सबसे अच्छी मानी जाती है। इन चावलों का विदेशों को निर्यात किया जाता है। इनमें देहरादून का बासमती चावल विदेशों में प्रसिद्ध है। इसके अलावा पंजाब और हरियाणा में भी चावल केवल निर्यात के लिए उगाया जाता है क्योंकि यहां के लोग अधिकांश गेहूं को ही खाने मे इस्तेमाल करते हैं। चावल के निर्यात से पंजाब और हरियाणा के किसानों को काफी आय प्राप्त होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=QceRgfaLAOA&t[/embed]

3. कपास की फसल

कपास की खेती भी मानसून के सीजन में की जाती है। कपास को सूती धागों के लिए बहुमूल्य माना जाता है और इसके बीज को बिनौला कहते हैं। जिसके तेल का व्यावसायिक प्रयोग होता है। कपास मानसून पर आधारित कटिबंधीय और उष्ण कटिबंधीय फसल है। कपास के व्यापार को देखते हुए विश्व में इसे सफेद सोना के नाम से जानते हैं। कपास के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा बड़ा देश है। कपास की खेती के लिए 21 से 30 डिग्री सेल्सियश तापमान और 51 से 100 सेमी तक वर्षा की जरूरत होती है। मानसून के दौरान 75 प्रतिशत वर्षा हो जाये तो कपास की फसल मानसून के दौरान ही तैयार हो जाती है।  कपास की खेती से तीन तरह के रेशे वाली रुई प्राप्त होती है। उसी के आधार पर कपास की कीमत बाजार में लगायी जाती है। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक,तमिलनाडु और उड़ीसा राज्यों में सबसे अधिक कपास की खेती होती है। एक अनुमान के अनुसार पिछले सीजन में गुजरात में सबसे अधिक कपास का उत्पादन हुआ था। अमेरिका भारतीय कपास का सबसे बड़ा आयातक है। कपास का व्यावसायिक इस्तेमाल होने के कारण इसकी खेती से बहुत अधिक आय होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=nuY7GkZJ4LY[/embed]

4.मक्का की फसल

मक्का की खेती पूरे विश्व में की जाती है। हमारे देश में मक्का को खरीफ की फसल के रूप में जाना जाता है लेकिन अब इसकी खेती साल में तीन बार की जाती है। वैसे मक्का की खेती की अगैती फसल की बुवाई मई माह में की जाती है। जबकि पारम्परिक सीजन वाली मक्के की बुवाई जुलाई माह में की जाती है। मक्का की खेती के लिए उष्ण जलवायु सबसे उपयुक्त रहती है। गर्म मौसम की फसल है और मक्का की फसल के अंकुरण के लिए रात-दिन अच्छा तापमान होना चाहिये। मक्के की फसल के लिए शुरू के दिनों में भूमि ंमें अच्छी नमी भी होनी चाहिए। फसल के उगाने के लिए 30 डिग्री सेल्सियश का तापमान जरूरी है। इसके विकास के लिए लगभग तीन से चार माह तक इसी तरह का मौसम चाहिये। मक्का की खेती के लिए प्रत्येक 15 दिन में पानी की आवश्यकता होती है।मक्का के अंकुरण से लेकर फसल की पकाई तक कम से कम 6 बार पानी यानी सिंचाई की आवश्यकता होती है  अर्थात मक्का को 60 से 120 सेमी वर्षा की आवश्यकता होती है। मानसून सीजन में यदि पानी सही समय पर बरसता रहता है तो कोई बात नहीं वरना सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। अन्यथा मक्का की फसल कमजोर हो जायेगी। भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक में सबसे अधिक मक्का की खेती होती है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, जम्मू कश्मीर और हिमाचल में भी इसकी खेती की जाती है।

5.सोयाबीन की फसल

सोयाबीन ऐसा कृषि पदार्थ है, जिसका कई प्रकार से उपयोग किया जाता है। साधारण तौर पर सोयाबीन को दलहन की फसल माना जाता है। लेकिन इसका तिलहन के रूप में बहुत अधिक प्रयोग होने के कारण इसका व्यापारिक महत्व अधिक है। यहां तक कि इसकी खल से सोया बड़ी तैयार की जाती है, जिसे सब्जी के रूप में प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। सोयाबीन में प्रोटीन, कार्बोहाइडेट और वसा अधिक होने के कारण शाकाहारी मनुष्यों के लिए यह बहुत ही फायदे वाला होता है। इसलिये सोयाबीन की बाजार में डिमांड बहुत अधिक है। इस कारण इसकी खेती करना लाभदायक है। सोयाबीन की खेती मानसून के दौरान ही होती है। इसकी बुवाई जुलाई के अन्तिम सप्ताह में सबसे उपयुक्त होती है। इसकी फसल उष्ण जलवायु यानी उमस व गर्मी तथा नमी वाले मौसम में की जाती है। इसकी फसल के लिए 30-32 डिग्री सेल्सियश तापमान की आवश्यकता होती है और फसल पकने के समय 15 डिग्री सेल्सियश के तापमान की जरूरत होती है।  इस फसल के लिए 600 से 850 मिलीमीटर तक वर्षा चाहिये। पकने के समय कम तापमान की आवश्यकता होती है। [embed]https://www.youtube.com/watch?v=AUGeKmt9NZc&t[/embed]
किसान कुलविंदर परंपरागत खेती की बजाए खरबूजे की खेती शुरू कर बना मालामाल

किसान कुलविंदर परंपरागत खेती की बजाए खरबूजे की खेती शुरू कर बना मालामाल

पंजाब के इस किसान ने अपने घर की परंपरागत खेती छोड़कर खरबूज की खेती करना शुरू किया है। आज वह लोगों के लिए एक नजीर बन चुके हैं। 

पंजाब के मानसा जनपद के रहने वाले एस. कुलविंदर सिंह ने अपनी बीए की पढाई समाप्त करने के उपरांत खेती करने के बारे में सोचा। उन्होंने पारंपरिक खेती को छोड़ खरबूजे की खेती चालू की और आज उनका खरबूजे का व्यवसाय एक बड़े पैमाने पर पहुंच गया है।

कृषि की तकनीक के विषय में जाना

आपको बतादें, कि शुरुआती दौर में कुलविंदर सिंह पारंपरिक फसलों का ही उत्पादन किया करते थे। परंतु, वक्त के साथ उन्होंने विगत 6-7 वर्षों से सब्जी की खेती की तरफ अपना रुख किया। 

इसके पश्चात उन्होंने खरबूजे की खेती आरंभ की। खरबूज की खेती के संबंध में बहुत सारी तकनीकी जानकारियां वह कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के विशेषज्ञों और प्रगतिशील किसानों के जरिए से लिया करते थे।

पारंपरिक फसलों के मुकाबले अधिक फायदा मिला

कुलविंदर ने सर्वप्रथम वर्ष 2021 में अपने एक एकड़ के खेत में खरबूजे की खेती आरंभ की। तरबूज की खेती की शुरुआत में उन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 

इस फसल में कभी पीला धब्बा रोग तो कभी फल मक्खी का आकस्मिक आक्रमण हो जाता था। हालांकि, इन चुनौतियों के बावजूद भी खरबूजे की खेती से उनको पारंपरिक फसलों के मुकाबले अधिक मुनाफा मिला। 

इस वजह से उन्होंने खरबूजे की खेती को सुचारू रखने का सोचा। प्रथम बार के कड़वे अनुभव के उपरांत उनको दूसरी बार बेहद अच्छी सफलता अर्जित हई।

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कृषि विशेषज्ञों की सलाहनुसार ही किया उत्पादन

वह आज खरबूज की खेती आधा एकड़ से चालू कर अपने 17 एकड़ की कुल भूमि पर आधुनिक तकनीक अपनाकर खेती कर लोगों के सामने सफलता की एक कहानी रच दी। इ

सके चलते उन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा निर्मित पीएयू फल मक्खी जाल का उपयोग किया और पीले धब्बे की बीमारी को नियंत्रण के लिए प्रचंड सिंचाई से दूरी बनाई। 

वह वक्त-वक्त पर अपनी उपज को बेहतर करने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के विशेषज्ञों से सलाह भी लेते रहते हैं।

कुलविंदर खरबूज की खेती से मोटा मुनाफा उठा रहे हैं

कुलविंदर ने अपने गांव में खरबूजे की अच्छी मार्केटिंग के लिए समीपवर्ती गांवों के किसानों को भी खरबूजे की खेती करने के लिए बढ़ोत्तरी की। 

खरबूजे की खेती का रकबा अच्छा होने की वजह से व्यापारी सीधे उनके खेतों से फसल की खरीदारी करने लगे और सभी कृषकों को आमदनी भी अच्छी होने लगी। 

कुलविंदर के मुताबिक, आज वह खरबूजे की खेती से प्रति एकड़ 80 से 90 हजार रुपये की आमदनी कर रहे हैं।

आलू की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आलू की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आलू की फसल को सब्जियों का राजा माना है। आलू तकरीबन हर सब्जी का आधार माना जाता है। इस वजह से आलू को दुनिया में चौथी सबसे महत्वपूर्ण सब्जी माना जाता है। गेंहू, मक्का और धान के उपरांत आलू की ही सबसे ज्यादा खेती होती है। आलू का काफी बड़े पैमाने पर उत्पादन भी होता है। भारत के आलू उत्पादक किसानों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ये हैं, कि आलू के उत्पादन काल में जितनी लागत आती है उसकी तुलना में उन्हें मुनाफा नहीं मिल पाता है। इस समस्या से निपटने का उपाय उत्पादन की मात्रा को बढ़ाकर लागत को कम करना है। इसके लिए किसान भाइयों को ज्यादा उत्पादन देने वाली किस्मों का चयन करना चाहिए। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से आलू की उन किस्मों के विषय में जानकारी देंगे। जो किस्में कम लागत में ज्यादा उत्पादन देती हैं। आलू उत्पादक किसानों के लिए यह लेख काफी फायदेमंद साबित होगा।

आलू की खेती के लिए उपयुक्त समयावधि

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि आलू की अगेती बुआई का समय 15-25 सितंबर का होता है। वहीं, आलू की बुवाई का उचित समय 15-25 अक्टूबर तक का माना गया है। इसकी पछेती बुआई का समय 15 नवंबर से 25 दिसंबर के बीच का रहता हैं।

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आलू की प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार हैं

आलू की अगेती किस्मों के अंतर्गत कुफरी अशोका, कुफरी जवाहर, कुफरी अलंकार, कुफरी पुखराज, कुफरी चंद्रमुखी इत्यादि हैं। साथ ही, आलू की मध्यम समय वाली प्रजातियों में कुफरी सतलुज, कुफरी सदाबहार, कुफरी बहार और कुफरी लालिमा आदि हैं। इसके अतिरिक्त कुफरी सिंधुरी कुफरी फ्ऱाईसोना और कुफरी बादशाह इसकी देर से पकने वाली प्रजातियां हैं।

कम समयावधि में अधिक उपज देने वाली कुफरी किस्में इस प्रकार हैं

आलू की कई किस्म होती है और इनका औसत उत्पादन 152 क्विंटल प्रति हेक्टेयर माना जाता है। परंतु, कुफरी किस्म का उत्पादन इससे भी काफी अधिक होता है। ये कुफरी किस्में 70 से 135 दिन के समयांतराल पर तैयार हो जाती हैं। इन कुफरी किस्मों से 152 से 400 क्विंटल तक का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। आलू की ये कुफरी किस्में कुछ इस तरह से हैं।

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कुफरी चंद्र मुखी

यह किस्म 80 से 90 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 200 से 250 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

कुफरी नवताल जी 2524

आलू की यह किस्म फसल को 75 से 85 दिनों में तैयार कर देती है, जिससे प्रति हेक्टेयर 200 से 250 क्विंटल पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

कुफरी ज्योति

आलू की इस किस्म से फसल 80 से 150 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। इस किस्म से 150 से 250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

कुफरी लालिमा

आलू की इस किस्म से फसल मात्र 90 से 100 दिन में ही तैयार हो जाती है। यह किस्म अगेती झुलसा के लिए मध्यम अवरोधी भी है।

कुफरी शीलमान

आलू की खेती की यह किस्म 100 से 130 दिनों में पककर तैयार होती है। इससे 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

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कुफरी स्वर्ण

आलू की यह किस्म फसल को 110 दिन में तैयार कर देती है। इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 300 क्विंटल तक आलू की पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

कुफरी सिंदूरी

आलू की यह किस्म फसल को 120 से 125 दिनों में तैयार कर देती है। इस किस्म से आलू की प्रति हेक्टेयर 300 से 400 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

कुफरी देवा

आलू की यह किस्म 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इससे प्रति हेक्टेयर 300 से 400 क्विंटल तक उत्पादन अर्जित किया जा सकता है।

आलू की संकर किस्में

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यह किस्म 135 दिन में फसल को तैयार करती है। इससे प्रति हेक्टेयर 250 से 300 क्विंटल पैदावार मिल सकती है। इसको यूपी, हरियाणा, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात और मध्य प्रदेश के लिए अधिक उपयोगी माना गया है।

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कुफरी अलंकार

आलू की ये किस्म केंद्रीय आलू अनुसंधान शिमला द्वारा कई विकसित की गई है। इस किस्म से फसल 70 दिन में तैयार हो जाती है। इससे प्रति हैक्टेयर 200-250 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है। बता दें कि यह किस्म पछेती अंगमारी रोग के लिए कुछ हद तक प्रतिरोधी है।

कुफरी जवाहर जेएच 222

आलू की यह किस्म फसल को 90 से 110 दिन में तैयार कर देती है। यह किस्म अगेता झुलसा और फोम रोग के लिए प्रतिरोधी है। इससे प्रति हेक्टेयर 250 से 300 क्विंटल पैदावार प्राप्त हो सकती है।

आलू की नवीन किस्में

आलू की नई किस्मों में कुफरी चिप्सोना-2, कुफरी गिरिराज, कुफरी चिप्सोना-1 और कुफरी आनंद आदि अच्छी किस्में मानी गई हैं।

आलू का बीज किस तरह और कहाँ से उपलब्ध होगा

किसान आलू प्रौद्योगिकी केंद्र शामगढ़ जिला करनाल से आलू की तीन किस्मों का बीज खरीद सकते हैं। यहां से किसानों को आलू की कुफरी, पुखराज, कुफरी चिपसोना-1, कुफरी ख्याती का बीज मिल सकता है। टीशु कल्चर द्वारा आलू बीज उत्पादन किया जाता है। इस विधि द्वारा विषाणु रहित आलू का बीज उत्पादन किया जा सकता है। वार्षिक एक लाख सूक्ष्म पौधों का उत्पादन होता है। नेट हाउस में 5-6 लाख मिनी ट्यूबर की पैदावार होती है। सीपीआरआई शिमला एवं अंतर्राष्ट्रीय आलू केंद्र लीमा, पेरू के साथ नवीन किस्मों का परीक्षण किया जाता है।

वैज्ञानिक ढ़ंग से आलू की खेती में बुवाई की विधि

सबसे पहले ट्रैक्टर एवं कल्टीवेटर की मदद से खेत की बेहतर ढ़ंग से जुताई। साथ ही, पाटा लगाकर खेत को एकसार बना लें। इसके उपरांत आलू प्लांटनर की सहायता से आलू के बीजों की बुवाई करें। बतादें, कि यह आलू बोने की एक सटीक मशीन है, जिसे वैश्विक पार्टनर डेल्फ की सहायता से डिजाइन और तैयार किया गया है। इसका हाई लेवल सिंगुलेशन आलू के बीज को नुकसान नहीं होने देता है। यह एक स्थान पर एक ही बीज डालता है। इसके इस्तेमाल से आलू की गुणवत्तापूर्ण और शानदार पैदावार होती है।

आलू की सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई का उपयोग करें

आलू में हल्की सिंचाई की जरूरत होती है। इस वजह से किसानों को आलू की खेती में स्प्रिंकलर एवं ड्रिप सिंचाई का इस्तेमाल करना चाहिए। आलू की प्रथम सिंचाई ज्यादातर पौधे उग जाने के बाद करें। वहीं, दूसरी सिंचाई उसके 15 दिन पश्चात आलू बनने या फूलने की अवस्था में करनी चाहिए। कंदमूल बनने और फूलने के समय पानी की कमी का उत्पादन पर काफी बुरा असर पड़ता है। इन अवस्थाओं में सिंचाई 10 से 12 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। आलू की खेती के दौरान खेत में सिंचाई के दौरान इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नालियों में मेढों की ऊंचाई के तीन चौथाई से ज्यादा ऊंचा पानी नहीं भरना चाहिए।

आलू की कटाई संबंधित जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि भिन्न-भिन्न किस्मों के बीजों वाली फसल 70 से 135 दिन में पूरी तरह से पक जाती है। पकी हुई आलू की फसल की खुदाई उस वक्त करनी चाहिए, जब आलू के कंदों के छिलके कठोर हो जाऐं। किसानों के लिए आलू की खुदाई के लिए पोटैटो डिग्गर एक महत्वपूर्ण उपकरण होता है। किसान भाई इसकी मदद से आलू की खुदाई कम समय में काफी सुगमता से कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त इसकी मदद से आलू बिना कोई कट लगे ये जमीन से बाहर आ जाता है। इतना ही नहीं यह भूमि से सहजता से आलू को बाहर तो करता ही है, साथ में लगी मिट्टी को भी झाड़ देता है। इस तरह बेहतरीन गुणवत्ता के आलू बाहर निकल आते हैं। एक सटीक गहराई निर्धारित करते हुए इस यंत्र को ट्रैक्टर के साथ उपयोग किया जा सकता है।

आलू की जैविक खेती और उपयोग होने वाले कृषि यंत्र

भारत में आलू की जैविक खेती भी की जाती है। जैविक उत्पादों की बढ़ती मांग की वजह से किसानों की आलू की जैविक खेती में दिलचस्पी बढ़ रही है। सामान्य तौर पर किसान सही जानकारी के अभाव में आलू की जैविक खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त नहीं कर पाते हैं। आलू की जैविक खेती में आलू की बिजाई और आलू में उर्वरक का खास ध्यान रखा जाए तो अधिक उत्पादन की संभावना है। आलू की खेती में कृषि यंत्र जैसे कि ट्रैक्टर, कल्टीवेटर, आलू प्लांटनर, पोटैटो डिग्गर यंत्र वहीं सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई यंत्र का उपयोग किया जाता है।
किसानों को अच्छा मुनाफा दिलाने वाले पीपली के पौधे को कैसे उगाया जाता है

किसानों को अच्छा मुनाफा दिलाने वाले पीपली के पौधे को कैसे उगाया जाता है

समय के बदलने के साथ-साथ भारतीय किसानों की सोच और खेती करने का तरीका भी बदला है। वर्तमान में किसान भाई पारंपरिक खेती के अतिरिक्त बहुत सारी फसलों में भी हाथ आजमा रहे हैं। 

वह अब धान, ज्वार, सरसों की फसल के साथ साथ और भी कई तरह के पौधों को उगा रहे हैं। इनमें बहुत सारे औषधीय पौधे भी हैं। भारत में अब इनका चलन भी काफी ज्यादा बढ़ गया है। 

पीपली इनमें से एक औषधीय पौधा है, जिसकी खेती से किसान भाइयों को तगड़ी आय हो रही है। आगे इस लेख में जानेंगे पीपली की खेती से होने वाले मुनाफे के बारे में।

पीपली की खेती कैसे करें?

प्रमुख रूप से पीपली का पौधा छोटी पीपली और बड़ी पीपली 2 प्रकार का होता है। पीपली की खेती करने के लिए इसकी बेहतर किस्म का चयन करना अत्यंत आवश्यक होता है। 

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सामान्य तौर पर किसान नानसारी चिमाथी और विश्वम किस्मों के पौधे की खेती करना ज्यादा उचित समझते हैं। पीपली की खेती के लिए लाल मिट्टी, बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त रहती हैं। 

ध्यान रहे कि पीपली की खेती वाली जमीन पर पानी के निकलने के लिए ड्रेनेज व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए। अधिकांश पीपली की खेती दक्षिण के हिस्सों में की जाती है, जिनमें तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं।

पीपली के पौधे की जीवन अवधि कितनी होती है

पीपली की खेती करने के दौरान उसके लिए उपयुक्त मात्रा में सिंचाई की सुविधा होनी चाहिए। इसके साथ-साथ नमी वाली जलवायु होनी चाहिए। इसे फरवरी या मार्च के महीने में लगाना चाहिए। 

खेत में बेहतर तरीके से जुताई करने के पश्चात खाद और पोटाश फास्फोरस डालने के बाद आप पीपली के पौधे को लगा सकते हैं। धूप से पीपली का पौधा बर्बाद हो सकता है। 

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इसके लिए आपको वहां छांव करने की आवश्यकता पड़ सकती है। पीपली का पौधा लगाने के पश्चात 5 से 6 साल तक रहता है, जिससे आप मुनाफा कमा सकते हैं।

पीपली का पौधा कई बीमारियों के लिए रामबाण

पीपली के पौधे की रोपाई के पश्चात ही लगभग 6 महीने के अंदर उसमें फूल आने शुरू हो जाते हैं। जैसे ही फूल काले पड़ जाएं। उन्हें तोड़ लेना चाहिए और सूखने के बाद वह बेचने के लायक हो जाते हैं. 

एक हेक्टेयर की बात करें तो इसमें 4 से 6 क्विंटल की उपज होती है. जिससे आपको अच्छा खासा मुनाफा हो सकता है। मेडिकल के क्षेत्र में पीपली का पौधा काफी काम आता है। सर्दी, खांसी, जुकाम, अस्थमा, पीलिया इन बीमारियों में यह पौधा अत्यंत कारगर साबित होता है।   

इस फूल की खेती कर किसान हो सकते हैं करोड़पति, इस रोग से लड़ने में भी सहायक

इस फूल की खेती कर किसान हो सकते हैं करोड़पति, इस रोग से लड़ने में भी सहायक

कैमोमाइल फूल में निकोटीन नहीं होता है, यह पेट से जुड़े रोगों से लड़ने में काफी सहायक है। इसके अतिरिक्त इन फूलों का प्रयोग सौंदर्य उत्पाद निर्माण हेतु किया जाता है। कैमोमाइल फूल की खेती किसानों के अच्छे दिन ला सकती है। देश में करीब समस्त प्रदेश फूलों की खेती अच्छे खासे अनुपात में करते हैं क्योंकि फूलों के उत्पादन से किसानों को बेहतर लाभ अर्जित होता है। भारत के फूलों की मांग देश-विदेशों में भी काफी होती है। राज्य सरकारें भी फूलों की खेती को प्रोत्साहित करने हेतु विभिन्न प्रकार का अनुदान प्रदान कर रही हैं। अब हम बात करेंगे एक ऐसे फूल के बारे में जिसकी खेती किसानों को मालामाल कर सकती है। इस फूल की विशेषता यह है, कि इस फूल की खेती करने में बेहद कम लागत लगती है, जबकि आमंदनी अच्छी खासी होती है। इसी कारण से इस फूल की खेती को अद्भुत व जादुई व्यापार भी बोलते हैं। मतलब इसमें हानि होने का जोखिम काफी कम होता है।


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बतादें कि जिस फूल के बारे में हम बता रहे हैं, उस फूल का नाम है कैमोमाइल फूल इसका उत्पादन कर बेचने से किसान काफी लाभ उठा सकते हैं। उत्तर प्रदेश राज्य के जनपद हमीरपुर में व बुंदेलखंड में इस फूल का उत्पादन अच्छे खासे पैमाने पर हो रहा है, निश्चित रूप से वहां के कृषकों की आय में भी वृद्धि हुई है। फायदा देख अन्य भी बहुत सारे किसान कैमोमाइल फूल की खेती करना शुरू कर रहे हैं। इस जादुई फूल का उपयोग होम्योपैथिक व आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में किया जाता है। औषधियाँ बनाने के लिए इन फूलों को दवा बनाने वाली निजी कंपनियों द्वारा खरीदा जाता है।

कैमोमाइल फूल किस रोग में काम आता है

न्यूज वेबसाइट मनी कंट्रोल के अनुसार, कैमोमाइल फूल में निकोटीन नहीं होता है। यह पेट से संबंधित रोगों के लिए बहुत लाभकारी है। इसके अतिरिक्त भी इन फूलों का उपयोग सौंदर्य उत्पादों के निर्माण में होता है। स्थानीय किसानों ने बताया है, कि इस फूल के उत्पादन करने के आरंभ से किसानों की किस्मत बदल गई है। कम लागत में अधिक मुनाफा अर्जित हो रहा है, किसानों के मुताबिक आयुर्वेद कंपनी में जादुई फूलों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ गयी है। अब फायदा देखते हुए बहुत से किसानों ने इस फूल की खेती शुरू कर दी है।

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जल्द ही करोड़पति बन सकते हैं

कैमोमाइल फूल की विशेषता यह है, कि इसे बंजर भूमि पर भी उत्पादित किया जा सकता है। इसकी वजह इस फूल के उत्पादन में जल खपत का कम होना है। साथ ही, एक एकड़ में इसकी खेती कर आप ५ क्विंटल कैमोमाइल फूल अर्जित कर सकते हैं, वहीं एक हेक्टेयर में करीब १२ क्विंटल जादुई फूल पैदा होते हैं। किसानों के अनुसार, इस फूल की खेती में आने वाले खर्च से ५-६ गुना अधिक आय प्राप्त हो सकती है। इसकी फसल तैयार होने में ६ महीने का समय लगता है। यानी किसान ६ माह में लाखों की आमंदनी कर सकते हैं। यदि आप इस कैरोमाइल फूल का उत्पादन आरंभ करते हैं, तो शीघ्र ही करोड़पति भी बन सकते हैं।
मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का की खेती के लिए मृदा एवं जलवायु और रोग व उनके उपचार की विस्तृत जानकारी

मक्का का उपयोग हर क्षेत्र में समय के साथ-साथ बढ़ता चला जा रहा है। अब चाहे वह खाने में हो अथवा औद्योगिक छेत्र में। मक्के की रोटी से लेकर भुट्टे सेंककर, मधु मक्का के कॉर्नफलेक्स, पॉपकार्न आदि के तौर पर होता है। 

वर्तमान में मक्का का इस्तेमाल कार्ड आइल, बायोफयूल हेतु भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का इस्तेमाल मुर्गी एवं पशु आहार के तौर पर किया जाता है। 

भुट्टे तोड़ने के उपरांत शेष बची हुई कड़वी पशुओं के चारे के तौर पर उपयोग की जाती है। औद्योगिक दृष्टिकोण से मक्का प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट, पेन्ट्स, स्याही, लोशन, स्टार्च, कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने के उपयोग में लिया जाता है। 

बिना परागित मक्का के भुट्टों को बेबीकार्न मक्का कहा जाता है। जिसका इस्तेमाल सब्जी एवं सलाद के तौर पर किया जाता है। बेबीकार्न पौष्टिक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण साबित होता है।

मक्का की खेती करने हेतु कैसी जमीन होनी चाहिए

सामान्यतः
मक्के की खेती को विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, इसके लिए दोमट मृदा अथवा बुलई मटियार वायु संचार एवं जल की निकासी की उत्तम व्यवस्था के सहित 6 से 7.5 पीएच मान वाली मृदा अनुकूल मानी गई है।

मक्का की खेती हेतु कौन-सी मृदा उपयुक्त होती है

मक्के की फसल के लिए खेत की तैयारी जून के माह से ही शुरू करनी चाहिए। मक्के की फसल के लिए गहरी जुताई करना काफी फायदेमंद होता है। 

खरीफ की फसल के लिए 15-20 सेमी गहरी जुताई करने के उपरांत पाटा लगाना चाहिए। जिससे खेत में नमी बनी रहती है। इस प्रकार से जुताई करने का प्रमुख ध्येय खेत की मृदा को भुरभुरी करना होता है। 

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फसल से बेहतरीन उत्पादन लेने के लिए मृदा की तैयारी करना उसका प्रथम पड़ाव होता है। जिससे प्रत्येक फसल को गुजरना पड़ता है।

मक्का की फसल के लिए खेत की तैयारी के दौरान 5 से 8 टन बेहतरीन ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे डालनी चाहिए। 

भूमि परीक्षण करने के बाद जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 किलो जिंक सल्फेट बारिश से पहले खेत में डाल कर खेत की बेहतर ढ़ंग से जुताई करें। रबी के मौसम में आपको खेत की दो वक्त जुताई करनी पड़ेगी।

मक्के की खेती को प्रभवित करने वाले कीट और रोग तथा उनका इलाज

मक्का कार्बोहाईड्रेट का सबसे अच्छा स्रोत होने साथ-साथ एक स्वादिष्ट फसल भी है, जिसके कारण इसमें कीट संक्रमण भी अधिक होता है। मक्का की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों के विषय में चर्चा करते हैं।

गुलाबी तनाबेधक कीट

इस कीट का संक्रमण होने से पौधे के बीच के हिस्से में हानि पहुँचती है, जिसके परिणामस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है। इस वजह से पौधे पर दाने नहीं आते है।

मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट

इस तरह के कीट पौधे की जड़ों को छोड़कर सभी हिस्सों को बुरी तरह प्रभावित करते है। इस कीट की इल्ली सबसे पहले तने में छेद करती है। इसके संक्रमण से पौधा छोटा हो जाता है और उस पौधे में दाने नहीं आते हैं। आरंभिक स्थिति में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है। इसे पौधे के निचले भाग की दुर्गंध से पहचाना जा सकता है।

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उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है

तनाछेदक की रोकथाम करने के लिये अंकुरण के 15 दिन के उपरांत फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे अथवा कार्बोरिल 50 फीसद डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना उपयुक्त होता है। इसके 15 दिनों के उपरांत 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों पर डाल दें।

मक्का में लगने वाले मुख्य रोग

1. डाउनी मिल्डयू :- इस रोग का संक्रमण मक्का बुवाई के 2-3 सप्ताह के उपरांत होना शुरू हो जाता है। बतादें, कि सबसे पहले पर्णहरिम का ह्रास होने की वजह से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती हैं, प्रभावित भाग सफेद रूई की भांति दिखाई देने लगता है, पौधे की बढ़वार बाधित हो जाती है। 

उपचार :- डायथेन एम-45 दवा को पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव जरूर करना चाहिए। 

2. पत्तियों का झुलसा रोग :- पत्तियों पर लंबे नाव के आकार के भूरे धब्बे निर्मित होते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़ते हुए ऊपर की पत्तियों पर फैलना शुरू हो जाते हैं। नीचे की पत्तियां रोग के चलते पूर्णतया सूख जाती हैं। 

उपचार :- रोग के लक्षण नजर पड़ते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए। 

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3. तना सड़न :- पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण शुरू होता है। इससे विगलन के हालात उत्पन्न होते हैं एवं पौधे के सड़े हुए हिस्से से दुर्गंध आनी शुरू होने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर के सूख जाती हैं। साथ ही, पौधे भी कमजोर होकर नीचे गिर जाती है। 

उपचार :- 150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों में देना चाहिये।

मक्का की फसल की कटाई और गहाई कब करें

फसल समयावधि पूरी होने के बाद मतलब कि चारे वाली फसल की बुवाई के 60-65 दिन उपरांत, दाने वाली देशी किस्म की बुवाई के 75-85 दिन बाद, एवं संकर एवं संकुल किस्म की बुवाई के 90-115 दिन पश्चात तथा दाने मे करीब 25 प्रतिशत तक नमी हाने पर कटाई हो जानी चाहिए। 

 मक्का की फसल की कटाई के पश्चात गहाई सबसे महत्वपूर्ण काम है। मक्का के दाने निकालने हेतु सेलर का इस्तेमाल किया जाता है। सेलर न होने की हालत में थ्रेशर के अंदर सूखे भुट्टे डालकर गहाई कर सकते हैं।

स्वास्थ्यवर्धक मुलेठी की खेती करना किसान भाइयों के लिए काफी बड़े मुनाफे का सौदा है

स्वास्थ्यवर्धक मुलेठी की खेती करना किसान भाइयों के लिए काफी बड़े मुनाफे का सौदा है

कृषक भाई मुलेठी की खेती कर काफी मोटा मुनाफा हांसिल कर सकते हैं। आप इसकी खेती कैसे कर सकते हैं, इसकी जानकारी नीचे दी गई है। हमारे भारत में प्राचीन काल से ही औषधीय पौधों की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। इन पौधों की खेती कर किसान भाई काफी हद तक अच्छा मुनाफा भी अर्जित करते हैं। इनकी खेती करने से बंजर पड़ी जमीन का भी उपयोग हो जाता है। आज हम आपको जानकारी देंगे कि आप कैसे मुलेठी की खेती कर बेहतरीन मुनाफा प्राप्त कर सकते हैं। मुलेठी की खेती के लिए राजस्थान की जलवायु काफी अच्छी मानी जाती है। मुलेठी की जड़ से झाड़ी और मोटा तना निर्मित होने में लगभग तीन वर्ष का समय लग जाता है। साथ ही, कटाई के उपरांत 1 हैक्टेयर में मुलेठी की खेती करके 4000 किलो तक पैदावार की जा सकती है।

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मुलेठी की खेती किस तरह की जाती है

  • खेत की मृदा को मजबूत बनाने के लिए 2-3 गहरी जुताई करें।
  • अंतिम जुताई से पहले खेत में दस से पंद्रह गाड़ी गोबर की सड़ी खाद, आठ किलो नाइट्रोजन एवं सोलह किलो फास्फोरस का मिश्रण मिला दें।
  • खेतों में रोपाई से पूर्व जड़ों को बेहतर ढ़ंग से तैयार कर लें, जो फसल में कीड़ों एवं बीमारियों को रोकता है।
  • रोपाई करने से पूर्व 8-9 इंच लंबे, दो या तीन आंखों वाले टुकड़ों को काटकर तीन अथवा चार हिस्सों को मिट्टी में दबा दें।
  • कतारों में मुलेठी रोपें एवं रोपाई के शीघ्र उपरांत हल्की सिंचाई करें।
  • पौधे की बढ़वार होने तक मृदा को पर्याप्त नमी में रखें।
  • खेत में निराई-गुड़ाई करते रहें एवं खरपतवारों को देखते रहें।
  • मुलेठी की फसल को बीमारियों एवं कीड़ों से संरक्षित रखने के लिए जैविक कीटनाशकों का स्प्रे करें।

मुलेठी से क्या-क्या फायदे होते हैं

इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने में कारगर मुलेठी में एंटी ऑक्सीडेंट गुण पाए जाते हैं, जो इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने में मदद करते हैं। इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने के लिए आप मुलेठी की चाय पी सकते हैं या इसका सेवन शहद और घी के साथ कर सकते हैं।

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पाचन तंत्र के लिए काफी फायदेमंद होती है। मुलेठी पाचन तंत्र को बेहतर बनाता है। यह कब्ज, पेट में जलन और सूजन की समस्या को कम करने में सहायक माना जाता है। खांसी को कम करने में सहायक होती है। सर्दियों के मौसम में खांसी की समस्या आम है, इससे राहत पाने के लिए आप मुलेठी के टुकड़े को चूस सकते हैं। ये खांसी से राहत दिलाने में मददगार है। हिचकियों से सहूलियत दिलाने में गुणकारी हिचकियों से राहत पाने हेतु आप मुलेठी के टुकड़े को कैंडी की भांति चूस सकते हैं। यह हिचकियों को दूर करने में काफी सहायक होता है। मुलेठी बालों को मजबूत बनाने के लिए भी काफी गुणकारी मानी जाती है। इसके इस्तेमाल से आप बालों को सुंदर एवं घना बना सकते हैं। इसके लिए मुलेठी पाउडर पानी में भिगो लें। साथ ही, इसे स्कैल्प पर लगाएं। इसके उपयोग से आप बालों को स्वस्थ रख सकते हैं।
इस राज्य में गेंदे की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए 70% प्रतिशत अनुदान

इस राज्य में गेंदे की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए 70% प्रतिशत अनुदान

बिहार सरकार की तरफ से किसानों के लिए कई सारी योजनाऐं चलाई जा रही हैं। सरकार गेंदे के फूलों की खेती करने के लिए अनुदान प्रदान कर रही है। सरकार की तरफ से कृषकों को इस फूल की खेती करने के लिए 70 फीसद तक का अनुदान भी दिया जा रहा है। गेंदे के फूल का उपयोग पूजा पाठ से लेकर सजावट के कार्यों में किया जाता है। ये फूल दिखने में काफी ज्यादा खूबसूरत होता है। इस फूल की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए बिहार राज्य की सरकार कृषकों को अनुदान प्रदान कर रही है। बिहार सरकार ने गेंदे के फूलों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए एक नवीन योजना तैयार की है। इसके अंतर्गत गेंदे के फूलों की खेती के लिए सरकार की तरफ से 70 फीसद तक अनुदान दिया जा रहा है। गेंदे के फूलों की खेती काफी फायदेमंद है। इन फूलों की हर वक्त मांग बनी रहती है। इन फूलों को स्वागत समारोह, शादी-विवाह, धार्मिक अनुष्ठानों एवं सजावट में इस्तेमाल किया जाता है।

बिहार सरकार 70 प्रतिशत तक अनुदान प्रदान करेगी

बिहार सरकार का कहना है, कि किसानों को गेंदे के फूलों की खेती से ज्यादा धनराशि मिलेगी। इसके साथ ही इससे प्रदेश में लोगों को कार्य भी मिलेगा।किसान इस योजना के अंतर्गत एक एकड़ में गेंदे के फूलों की खेती करने के लिए 40,000 रुपये खर्च करेंगे। सरकार 28,000 रुपये अथवा 70 प्रतिशत खर्चा अनुदान के तौर पर प्रदान करेगी।

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बिहार में बढ़ेगा फूलों की खेती का रकबा

किसानों को इस योजना का फायदा प्राप्त करने के लिए संबंधित जनपद के उद्यान विभाग/कृषि विभाग में आवेदन करना पड़ेगा। कृषकों को आवेदन के साथ-साथ भूमि पट्टा, खाद, बीज और अन्य सामग्री की खरीद का दस्तावेज जमा करना होगा। सरकार का यह मानना है, कि बिहार में गेंदे के फूलों की खेती इस योजना से बढ़ेगी। इससे कृषकों की आमदनी में काफी बढ़ोतरी होगी और राज्य में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। 

ध्यान रखने योग्य बातें

गेंदे के फूलों की खेती के लिए दोमट मृदा सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसकी खेती के लिए 6-8 घंटे की धूप आवश्यक है। गेंदे के फूल की खेती करने के लिए प्रति एकड़ के अनुरूप लगभग 10 टन खाद की आवश्यकता होती है। साथ ही, गेंदे के फूलों की खेती के लिए प्रति एकड़ 100 किलोग्राम यूरिया, 50 किलोग्राम डीएपी एवं 50 किलोग्राम पोटाश की भी आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त गेंदे के फूल की खेती के लिए सिंचाई की उत्तम व्यवस्था भी होनी चाहिए।