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कृषि वैज्ञानिक कपास की इन किस्मों की बुवाई करने की सलाह दे रहे हैं

कृषि वैज्ञानिक कपास की इन किस्मों की बुवाई करने की सलाह दे रहे हैं

वर्तमान में गेहूं की फसल की कटाई हो चुकी है। साथ ही, कपास की बुवाई (cotton sowing) का वक्त प्रारंभ हो गया है। अब ऐसी स्थिति में जो किसान गेहूं के पश्चात कपास की खेती (cotton cultivation) करना चाहते हैं, उनके लिए कपास की बुवाई की कई बेहतरीन किस्में हैं, जो बेहतर उत्पादन प्रदान कर सकती हैं। 

कृषि वैज्ञानिकों ने अमेरिकन कपास या नरमा की खेती करने वाले कृषकों के लिए सलाह भी जारी कर दी है। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों की तरफ से कपास की अनुशंसित किस्में लगाने की सलाह दी जा रही है। 

इसके साथ इसकी बुवाई में ध्यान रखने वाली आवश्यक बातों के विषय में भी बताया जा रहा है। विभाग की तरफ से राजस्थान के कृषकों को 20 मई तक कपास की बिजाई करने के लिए कहा जा रहा है, जिससे कि कपास में गुलाबी सुंडी का प्रकोप न हो सके। इसके साथ ही कपास की उन्नत किस्मों के विषय में भी बताया जा रहा है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 2818 किस्म 

RS of Narma (Cotton) 2818 नरमा आर.एस किस्म से 31 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज हांसिल की जा सकती है। इसके रेशे की लंबाई 27.36 मिलीमीटर, मजबूती 29.38 ग्राम टेक्स आंकी गई है। 

टिंडे का औसत भार 3.2 ग्राम होता है। बिनौलों में 17.85 प्रतिशत तेल की मात्रा पाई जाती है। इसकी ओटाई 34.6 प्रतिशत आंकी गई है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 2827 किस्म 

RS of Narma (Cotton) 2827 नरमा (कपास) की आर.एस- 2827 किस्म से औसत 30.5 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है। 

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इसके रेशे की लंबाई 27.22 मिलीमीटर व मजबूती 28.86 ग्राम व टेक्स आंकी गई है। इसके टिंडे का औसत वजन 3.3 ग्राम होता है। इसके बिनौले में तेल की मात्रा 17.2 फीसद होती है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 2013 किस्म

RS of Narma (Cotton) 2013 नरमा (कपास) की आरएस 2013 किस्म की ऊंचाई 125 से 130 सेमी होती है। इसकी पत्तियां मध्यम आकार की व हल्के हरे रंग की होती हैं। 

इसके फूलों की पखुड़ियों का रंग पीला होता है। यह किस्म 165 से 170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म में गुलाबी सुड़ी द्वारा हानि अन्य किस्मों की अपेक्षा कम होती है। 

यह किस्म पत्ती मरोड़ विषाणु बीमारी के प्रति भी अवरोधी है। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 23 से 24 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

नरमा (कपास) की आरएसटी 9 किस्म 

RST 9 variety of Narma (cotton) नरमा (कपास) की आरएसटी 9 किस्म के पौधे की ऊंचाई 130 से 140 सेमी तक होती है। इसकी पत्तियां हल्के रंग की होती हैं और फूल का रंग हल्का पीला होता है। 

इसमें चार से छह एकांक्षी शाखाएं होती हैं। इसके टिंडे का आकार मध्यम है, जिसका औसत वजन 3.5 ग्राम होता है। यह किस्म 160 से 200 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

तेला (जेसिड) रोग से इस किस्म में कम हानि होती है। इस किस्म की ओटाई का प्रतिशत भी अन्य अनुमोदित किस्मों से अधिक है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 810 किस्म

RS of Narma (Cotton) 810 नरमा (कपास) की आर.एस. 810 किस्म के पौधे की ऊंचाई 125 से 130 सेमी होती है। इसके फूलों का रंग पीला होता है। इसके टिंडे का आकार छोटा करीब 2.50 से 3.50 ग्राम होता है। 

इसके रेशे की लंबाई 24 से 25 मिलीमीटर व ओटाई क्षमता 33 से 34 फीसद होती है। यह किस्म 165 से 175 दिन में पककर तैयार हो जाती है। 

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यह किस्म पत्ती मोड़क रोग की प्रतिरोधी है। इस किस्म से लगभग 23 से 24 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज हांसिल की जा सकती है।

नरमा (कपास) की आर.एस. 875 किस्म

RS of Narma (Cotton) 875 नरमा (कपास) की आर.एस. 875 किस्म के पौधों की ऊंचाई 100 से 110 सेमी होती है। इसकी पत्तियां चौड़ी व गहरे हरे रंग की होती हैं। इसमें शून्य यानी जीरो से एक एकांक्षी शाखाएं पाई जाती हैं। 

इसके टिंडे का आकार मध्यम होता है और औसत वजन 3.5 ग्राम होता है। इसके रेशे की लंबाई 27 मिलीमीटर होती है। इसमें तेल की मात्रा 23 प्रतिशत पाई जाती है, जो कि अन्य अनुमोदित किस्मों से ज्यादा है। 

इस किस्म की फसल 150 से 160 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इससे उसी खेत में सामान्य समय पर गेहूं की बुवाई भी की जा सकती है।

बीकानेरी नरमा

बीकानेरी नरमा  (Bikaneri Narma) किस्म के पौधे की ऊंचाई लगभग 135 से 165 सेमी होती है। इसकी पत्तियां छोटी, हल्के हरे रंग की होती है और फूल छोटे और हल्के पीले रंग के होते हैं। 

इसमें चार से छह एकांक्षी शाखाएं पाई जाती हैं। इसके टिंडे का आकार मध्यम और औसत वजन 2 ग्राम होता है। इसकी फसल 160 से 200 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म में तेला (जेसिड) से अपेक्षाकृत कम हानि होती है।

मरू विकास (राज, एच.एच. 6) 

Desert Development (Kings, HH 6) नरमा (कपास) की मरू विकास (राज, एच.एच. 6) के पौधों की ऊंचाई 100 से 110 सेमी. और पत्तियां चौड़े आकार की होती हैं। इसका रंग हरे रंग का होता है। 

इसमें शून्य यानी जीरो से एक एकांक्षी शाखाएं पाई जाती हैं। इसके टिंडे का आकार मध्यम और औसत वजन 3.5 ग्राम होता है। इसके रेशे की लंबाई 27 मिलीमीटर होती है। 

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इसमे तेल की मात्रा 23 प्रतिशत पाई जाती है। इस किस्म की फसल 150 से 160 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इससे उसी खेत में सामान्य समय पर गेहूं की बुवाई कर सकते हैं।

नरमा कपास की उन्नत किस्मों की बुवाई का तरीका 

नरमा कपास की उन्नत किस्मों की बुवाई के लिए 4 किलोग्राम प्रति बीघा की दर से बीज की जरूरत पड़ती है। बुवाई के दौरान पंक्ति से पंक्ति का फासला 67.50 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे का फासला लगभग 30 सेंटीमीटर रखना चाहिए।

नरमा की बुवाई का समय 15 अप्रैल से 15 मई तक माना जाता है। लेकिन किसान मई के अंत तक इसकी बिजाई कर सकते हैं।

कपास की खेती में लगने वाले कीटों से जुड़ी जानकारी

कपास की खेती में लगने वाले कीटों से जुड़ी जानकारी

कपास संपूर्ण भारत के कृषकों के लिए एक नकदी फसल मानी जाती है। इसकी खेती सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में भी की जाती है। लेकिन कपास के उत्पादन में भारत का स्थान सबसे पहले आता है। 

चूँकि कपास एक नकदी फसल है, इस वजह से इसकी खेती किसानों की अर्थव्यवस्था में भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

विगत कुछ वर्षों में कपास फसल के उत्पादन और कीमत में काफी बढ़ोतरी देखी गई है। कपास की फसल से जहाँ एक तरफ किसान अधिक आय प्राप्त करते हैं, तो वहीं दूसरी ओर किसानों को अपनी फसल से कीटों एवं रोगों की वजह से काफी हानि भी झेलनी पड़ती है। 

जी हाँ, अधिकांश तोर पर मौसम में ज्यादा नमी और अनियमितता की वजह से फसल में कई तरह के कीटों का आक्रमण हो जाता है, जो फसलों को काफी हानि पहुंचाते हैं। 

साथ ही, किसानों की मेहनत और आमदनी को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए यदि आपने भी अपने खेतों में कपास की खेती की है एवं उसमें किसी भी प्रकार के कीटों के हमले का सामना कर रहे हैं, तो आप इस लेख में बताए गए सुझाव के अनुरूप अपनी कपास की फसल को बचाकर रख सकते हैं।  

कपास की फसल में लगने वाले विभिन्न कीट

1- अमेरिकन बॉलवॉर्म/ अमेरिकन सुंडी 

  • वैज्ञानिक नाम: हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा
  • कीट की प्रभावित करने वाली अवस्था – लार्वा 
  • कीट के आक्रमण की अवस्था – सभी अवस्था में 

लक्षण 

लार्वा पत्तियों, फूलों और छोटे बीजकोषों को खाते हैं। लार्वा पहले पत्तियों को खाते हैं, फिर उनके सिर अंततः उनके शरीर को एक वर्ग में अंदर की ओर धकेल देते हैं या बाकी को बाहर छोड़ देते हैं। 

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क्षतिग्रस्त बीजकोषों के आधार पर बड़े गोलाकार छेद नजर आते हैं और छेदों के अंदर मल भरा हुआ होता है। एक अकेला लार्वा 30 से 40 फलदार रूपों या बीजकोषों को समाप्त कर सकता है। बोल्स और प्रभावित हिस्से टूटकर गिर जाते हैं। 

ऐसी परिस्थितियाँ जो अमेरिकन बॉलवर्म द्वारा कपास की फसल में संक्रमण को बढ़ावा देती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में निरंतर फसल और मोनोक्रॉपिंग तथा फसल के अवशेषों की उपस्थिति व अत्यधिक नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक का उपयोग।  

2- पिंक बॉलवॉर्म / गुलाबी सुंडी:

  • वैज्ञानिक नाम – पेक्टिनोफोरो गॉसिपिएला
  • कीट की प्रभावित करने वाली अवस्था – लार्वा 
  • कीट के आक्रमण की अवस्था – फसल की मध्य अवस्था से लेकर अंत अवस्था तक 

लक्षण  

  • यह कीट कपास के बीजकोषों को खाने के अलावा, लार्वा फूलों की कलियों और फूलों को भी खा जाते हैं।
  • “गुलाबी फूल” गुलाबी बॉलवॉर्म के हमले का खास लक्षण है।
  • लार्वा का मल उन छिद्रों में भर जाता है।
  • यह कीट कपास के बीजों को लिंट के जरिए से बीजकोषों में छेद करके खाता है।
  • संक्रमित कलियाँ और अपरिपक्व बीजकोष काफी शीघ्रता से गिर जाते हैं।
  • ऐसी परिस्थितियाँ जो पिंक बॉलवर्म द्वारा कपास की फसल में संक्रमण को बढ़ावा देती हैं। जैसे कि बार-बार सिंचाई करना, उर्वरकों का अत्यधिक प्रयोग करना, मोनोक्रॉपिंग करना और कृषि संबंधी प्रथाओं में विलंभ होना।

मूंगफली फसल में कीट और रोग नियंत्रण

मूंगफली फसल में कीट और रोग नियंत्रण

मूंगफली में उपज हानि करने वाले प्रमुख कीट एफिड्स, जैसिड, थ्रिप्स, सफेद मक्खी, लीफ माइनर, व्हाइट ग्रब, आर्मी वार्म और हेलियोथिस आदि है। 

एफिड्स, जैसिड्स, थ्रिप्स और व्हाइट फ्लाई जैसे प्रमुख रस चूसने वाले कीटों को नियंत्रण करने के लिए  फॉस्फैमिडोन 0.03% या डाइमेथोएट 0.03% या मिथाइल-ओ डेमेटॉन 0.025% का 10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करे। 

लाइट ट्रैप लीफ माइनर के पतंगों को आकर्षित करता है, जिन्हें इकट्ठा किया जाता है और फिर नष्ट कर दिया जाता है।

डाइक्लोरवोस 0.05% या मोनोक्रोटोफॉस 0.04% के छिड़काव से भी इन कीड़ों को नियंत्रित किया जा सकता है या क्विनालफॉस 0.05% या एंडोसल्फान 0.07% या कार्बेरिल 0.2% Dust 15 दिन के अंतराल पर डालने से कीटों की अच्छी रोकथाम की जा सकती है|  

स्पोडोप्टेरा और हेलियोथिस आदत में नैक्टरल हैं और इसलिए नियंत्रण के उपाय होने चाहिए या तो सुबह के समय या देर शाम के समय या अधिमानतः रात के दौरान लिया जाता है। 

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इन कीटों को नियंत्रित करने के लिए क्लोरपाइरीफॉस 0.05% या एंडोसल्फान 0.07% या मोनोक्रोटोफॉस 0.05% या क्विनालफॉस 0.05% का छिड़काव करें। प्रारंभिक लार्वा चरण में इन कीटनाशकों को प्रयोग करके कीटों को  प्रभावी ढंग से नियंत्रित किया जाता है। 

जिन क्षेत्रों में सफेद सूंडी की समस्या बहुत गंभीर है, वहां की मिट्टी में की गर्मी  में गहरी जुताई करनी की आवश्यकता है। फसल की बुवाई  से पहले लगभग 10 सेंटीमीटर गहरे कूंड़ों में फोरेट 10% दाने 10 से 15 किग्रा/एकड़ की दर से डालें।

मूंगफली की फसल में रोग नियंत्रण 

मूंगफली पर लगने वाले महत्वपूर्ण रोग टिक्का, तना सड़न, जंग, पत्ती के धब्बे हैं।  कार्बेन्डाजिम 0.05% + मैंकोजेब 0.2% का छिड़काव करके टिक्का और जंग को नियंत्रित किया जा सकता है। 

बड नेक्रोसिस एक वायरस के कारण होता है लेकिन कोई नियंत्रण उपाय नहीं सुझाया जाता है, हालांकि, थ्रिप्स वायरस को प्रसारित करने के लिए जिम्मेदार हैं, इसको प्रणालीगत कीटनाशक छिड़काव करके नियंत्रित किया जाना चाहिए |

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम के उपाय

धान की खेती भारत में खरीफ के मौसम में बड़े पैमाने पर की जाती है। भारत में धान की बुवाई बड़े क्षेत्र में की जाती है। अन्य देशों में धान की उपज में वृद्धि हो रही है जो की हमरे देश में बहुत कम है। 


धान की उपज कई कारकों से प्रभावित होती है जिन में से सबसे बाद कारक है इसमें लगने वाले खतरनाक रोग, फसल में रोगों के प्रभाव के कारण उपज आधी से भी कम होती है। 


इसलिए आज के इस लेख में हम आपके लिए धान के रोगों से संबंधित सम्पूर्ण जानकारी लेके आए है, जिससे की आप समय रहते इन रोगों को पहचान कर इनका उपचार कर सकते है।

 

धान की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनका नियंत्रण 

भूरा धब्बा रोग

ये रोग हेलमिनथोस्पोरियम ओरायजी जीवाणु के कारण होता है जो की फसल की उपज को बहुत प्रभावित करता है। इस रोग के लक्षण पौधे के सभी ऊपरी भागो पर देखने को मिलते है । 


तनों पत्तियों एवं बालियों पर बहुत सारे अण्डाकार स्लेटी धब्बे दिखाई देते है जो बाद में भूरे हो जाते है। इस रोग में आपस में धब्बे मिलकर बड़े धब्बे बना लेते है। रोग का अधिक प्रकोप होने पर पौधे उकठकर मर जाते है। 


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पौधे के विकास के साथ में बालियों का विकास भी रूक जाता है और बालियों में दाने नहीं बनते है। फसल की किसी भी अवस्था में यह रोग हो सकता है। रोग से प्रभावित पौधों में दाने की गुणवत्ता कम हो जाती है जिससे फसल का रेट भी अच्छा नहीं लगता है।     


भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण के उपाय         

  • इस रोग की जड़ को ख़तम करने के लिए केवल प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग करें।  
  • खेत में पूर्स्च्छ खेती करें।
  • फसल चक्र अपनाए।  
  • रोपण की तिथि में बदलाव करें।  
  • उचित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग करें।      
  • उपयुक्त जल प्रबंधन करें।      
  • पोटाश की कमी की पूर्ति के लिए पोटाश युक्त उर्वरकों का उपयोग करें।
  • भूरा धब्बा रोग के नियंत्रण के थाईरम 2.5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें या कार्बेंडाजिम 1.5 ग्रा./ कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें।                               
  • मेनेकोजेब 0.25 प्रतिशत की दर से 10 से 15 दिन के अंतराल में लक्षण दिखते ही छिड़काव करें।                      

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट (जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस)

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग को हिंदी में जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस रोग के नाम से जाना जाता है जो की जेन्थोमोनस केम्पेस्ट्रिस जीवाणु के कारण होता है। इस रोग में पत्तियों पर पानीदार धब्बे बनते है। 

धब्बों के आसपास चिपचिपी बूंदे जमा होती है। रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियां पीला से नांरगी भूरी हो जाती है। छोटे धब्बे मिलकर पत्तियों की सतह पर बड़े धब्बे बन जाते है। ये रोग फसल को विकराल रूप में प्रभावित करता है। 

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग के लक्षण दो भागों में दिखाई देते है। क्रेसिक फेस और ब्लाइट फेस इन दोनों में लक्षण अलग अलग होते है। क्रेसिक भाग पौधे की प्रांरभिक अवस्था में मुरझााकर सुख जाते है। 

बाद की अवस्था में ब्लाइट फेस के लक्षण दिखते है जो पत्ती के ऊपर और किनारे में दिखाई पड़ते है, ये धीरे धीरे बढ़कर बड़े एवं लम्बे धब्बे बन जाते है। जैसे - जैसे रोग आगे बढ़ता है, जल्दी ही धब्बे पीले से सफेद हो जाते है।         

बेक्टीरियल लीफ ब्लाइट रोग के नियंत्रण के उपाय        

  • सबसे पहले बुवाई के लिए रोग मुक्त बीजों का उपयोग करें इससे ही इस रोग का रोकथाम किया जा सकता है। 
  • इस रोग को खड़ी फसल में नियंत्रित करने के लिए 5 ग्राम स्ट्रेपटोसाइक्लीन 500 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से रोग की शुरूवात में छिड़काव करें। 
  • अच्छा नियंत्रण प्राप्त करने के लिए बाद में 09-12 दिन के अंतराल से छिड़काव फिर से दोहराए।

खैरा रोग 

धान की फसल में ये रोग भी बहुत नुकसान करता है जिस कारण से फसल की उपज की  कम हो जाती है। इस रोग की क्षति की बात करे तो ये रोग मुख्य रूप से  जस्ते की कमी से होता है। 


इस रोग के लक्षण नर्सरी में ही दिखाई देने लग जाते है। इस रोग के सबसे पहले लक्षण नर्सरी में पौधे का पीला पड़ना है। रोग से संक्रमित पौधे पर पत्तों के बीच वाली शिरा के पास पीलापन दिखाई देता है। जिससे की पौधों की बढ़वार रूक जाती है। संक्रमण अधिक होने पर पौधे सुख जाते है।    


खैरा रोग के नियंत्रण के उपाय  

  • नर्सरी के पौधों को बोने से पहले 1 से 2 मिनट तक जिंक सल्फेट के 0.2 प्रतिशत घोल में भिगाए।
  • रोग की रोकथाम के लिए  बीज को बोने से पहले रात भर जिंक सल्फेट के 0.4 प्रतिशत घोल में भिगाए। या जिंक सल्फेट 5 कि.ग्रा. और चूना 2.5 कि.ग्रा. का छिड़काव करें।   
  • जिंक सल्फेट 5 कि.ग्रा. और चूना 2.5 कि.ग्रा. का पहला छिड़काव नर्सरी में बोने के 10 दिन बाद करें।दूसरा छिड़काव बोनी के 20 दिन बाद करे और
  • तीसरा छिड़काव रोपणी के 15 से 30 दिन बाद करें।

फाल्स स्मट या आभासी कंडवा रोग 

ये रोग यूसलीगनीओइड विरेन्स जीवाणु से होता है। धान की फसल का ये सबसे घातक रोग माना जाता है। रोग फूल आने के बाद में दिखता है। इस रोग में बालियों में दाने हरे काले हो जाते है। 


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संक्रमित दाने छिद्र युक्त चुर्ण से ढके रहते है। हवा से उड़कर यह स्वस्थ फूलों को भी संक्रमित कर देते है। अधिक संक्रमण होने पर सारे दाने खराब हो जाते है। 


फाल्स स्मट या आभासी कंडवा रोग के नियंत्रण के उपाय     

  • इस रोग को पूरी तरह से नियंत्रित करने के लिए दो से तीन साल के लिए फसल चक्र अपनाए।          
  • गहरी जुताई से भूमि में गिरे स्केलोरेशिया नष्ट हो जाते है।
  • संक्रमित दाने एवं पौधों को नष्ट करें, संक्रमित पौधों से बीज न इकटठा करें।    
  • प्रोपेकोनोज़ोल ( टिल्ट) 1 मि.ली. प्रति लीटर या क्लोरोथोलोनिल 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से फूल निकलने समय छिड़काव करें।
  • दूसरा छिड़काव फूल पूरी तरह से आने के बाद करें।
  • पोटाश उर्वरकों को डाले। 

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

ज्वार की खेती में बीजोपचार और इसमें लगने वाले कीट व रोगों की रोकथाम से जुड़ी जानकारी

रबी की फसलों की कटाई प्रबंधन का कार्य कर किसान भाई अब गर्मियों में अपने पशुओं के चारे के लिए ज्वार की बुवाई की तैयारी में हैं। 

अब ऐसे में आपकी जानकारी के लिए बतादें कि बेहतर फसल उत्पादन के लिए सही बीज मात्रा के साथ सही दूरी पर बुआई करना बहुत जरूरी होता है। 

बीज की मात्रा उसके आकार, अंकुरण प्रतिशत, बुवाई का तरीका और समय, बुआई के समय जमीन पर मौजूद नमी की मात्रा पर निर्भर करती है। 

बतादें, कि एक हेक्टेयर भूमि पर ज्वार की बुवाई के लिए 12 से 15 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन, हरे चारे के रूप में बुवाई के लिए 20 से 30 किलोग्राम बीजों की आवश्यकता पड़ती है। 

ज्वार के बीजों की बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए। बीजोपचार के लिए कार्बण्डाजिम (बॉविस्टीन) 2 ग्राम और एप्रोन 35 एस डी 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

इसके अलावा बीज को जैविक खाद एजोस्पाइरीलम व पी एस बी से भी उपचारित करने से 15 से 20 फीसद अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

इस प्रकार ज्वार के बीजों की बुवाई करने से मिलेगी अच्छी उपज ?

ज्वार के बीजों की बुवाई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीकों से की जाती है। बुआई के लिए कतार के कतार का फासला 45 सेंटीमीटर रखें और बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर तक गहरा बोयें। 

अगर बीज ज्यादा गहराई पर बोया गया हो, तो बीज का जमाव सही तरीके से नहीं होता है। क्योंकि, जमीन की उपरी परत सूखने पर काफी सख्त हो जाती है। कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडो में या सीडड्रिल के जरिए की जा सकती है।

सीडड्रिल (Seed drill) के माध्यम से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी पर एवं समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन उपरांत अंकुरित हो जाता है। 

छिड़काव विधि से रोपाई के समय पहले से एकसार तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की मदद से खेत की हल्की जुताई कर लें। जुताई हलों के पीछे हल्का पाटा लगाकर करें। इससे ज्वार के बीज मृदा में अन्दर ही दब जाते हैं। जिससे बीजों का अंकुरण भी काफी अच्छे से होता है।  

ज्वार की फसल में खरपतवार नियंत्रण कैसे करें ?

यदि ज्वार की खेती हरे चारे के तोर पर की गई है, तो इसके पौधों को खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता नहीं पड़ती। हालाँकि, अच्छी उपज पाने के लिए इसके पौधों में खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए। 

ज्वार की खेती में खरपतवार नियंत्रण प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही ढ़ंग से किया जाता है। रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के तुरंत बाद एट्राजिन की उचित मात्रा का स्प्रे कर देना चाहिए। 

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वहीं, प्राकृतिक ढ़ंग से खरपतवार नियंत्रण के लिए इसके बीजों की रोपाई के 20 से 25 दिन पश्चात एक बार पौधों की गुड़ाई कर देनी चाहिए। 

ज्वार की कटाई कब की जाती है ?

ज्वार की फसल बुवाई के पश्चात 90 से 120 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई के उपरांत फसल से इसके पके हुए भुट्टे को काटकर दाने के लिए अलग निकाल लिया जाता है। ज्वार की खेती से औसत उत्पादन आठ से 10 क्विंटल प्रति एकड़ हो जाता है। 

ज्वार की उन्नत किस्में और वैज्ञानिक विधि से उन्नत खेती से अच्छी फसल में 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ दाने की उपज हो सकती है। बतादें, कि दाना निकाल लेने के उपरांत करीब 100 से 150 क्विंटल प्रति एकड़ सूखा पौैष्टिक चारा भी उत्पादित होता है। 

ज्वार के दानों का बाजार भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल तक होता है। इससे किसान भाई को ज्वार की फसल से 60 हजार रूपये तक की आमदनी प्रति एकड़ खेत से हो सकती है। साथ ही, पशुओं के लिए चारे की बेहतरीन व्यवस्था भी हो जाती है। 

ज्वार की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोग और कीट व रोकथाम 

ज्वार की फसल में कई तरह के कीट और रोग होने की संभावना रहती है। समय रहते अगर ध्यान नहीं दिया गया तो इनके प्रकोप से फसलों की पैदावार औसत से कम हो सकती है। ज्वार की फसल में होने वाले प्रमुख रोग निम्नलिखित हैं।

तना छेदक मक्खी : इन मक्खियों का आकार घरेलू मक्खियों की अपेक्षा में काफी बड़ा होता है। यह पत्तियों के नीचे अंडा देती हैं। इन अंडों में से निकलने वाली इल्लियां तनों में छेद करके उसे अंदर से खाकर खोखला बना देती हैं। 

इससे पौधे सूखने लगते हैं। इससे बचने के लिए बुवाई से पूर्व प्रति एकड़ भूमि में 4 से 6 किलोग्राम फोरेट 10% प्रतिशत कीट नाशक का उपयोग करें।

ज्वार का भूरा फफूंद : इसे ग्रे मोल्ड भी कहा जाता है। यह रोग ज्वार की संकर किस्मों और शीघ्र पकने वाली किस्मों में ज्यादा पाया जाता है। इस रोग के प्रारम्भ में बालियों पर सफेद रंग की फफूंद नजर आने लगती है। इससे बचाव के लिए प्रति एकड़ भूमि में 800 ग्राम मैन्कोजेब का छिड़काव करें।

सूत्रकृमि : इससे ग्रसित पौधों की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इसके साथ ही जड़ में गांठें बनने लगती हैं और पौधों का विकास बाधित हो जाता है। 

रोग बढ़ने पर पौधे सूखने लगते हैं। इस रोग से बचाव के लिए गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करें। प्रति किलोग्राम बीज को 120 ग्राम कार्बोसल्फान 25% प्रतिशत से उपचारित करें।

ज्वार का माइट : यह पत्तियों की निचली सतह पर जाल बनाते हैं और पत्तियों का रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे ग्रसित पत्तियां लाल रंग की हो कर सूखने लगती हैं। इससे बचने के लिए प्रति एकड़ जमीन में 400 मिलीग्राम डाइमेथोएट 30 ई.सी. का स्प्रे करें।

मूंगफली (Peanut) के कीट एवं रोग (pests and diseases)

मूंगफली (Peanut) के कीट एवं रोग (pests and diseases)

मूंगफली में रोग बहुत लगते हैं। इनमें प्रमुख रूप से बीज से पैदा होेने वाले रोगों की संख्या ज्यादा है। फसल को रोग मुक्त रखने के लिए कुछ चीजों का ध्यान रखना आवश्यक है। 

मई—जून की गर्मी में खेत की दो तीन गहरी जुताई करेंं। हर जुताई के मध्य एक हफ्ते का अंतर रहे। फसल लगाने से पूर्व खेत में 50 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में एक किलोग्राम ट्राईकोडर्मा मिलाकर एक हफ्ते छांव में रखें। 

बाद में इसे जुताई से पूर्व खेत में बुरक दें। बीज का उपचार किसी भी प्रभावी फफूंदनाशक कार्बन्डाजिम, बाबस्टीन आदि की उचित मात्रा से करें। 

खेत में सिंचाई का पानी कहीं जमा न हो इस तरह का समतलीकरण करें। इन उपायों से रोग की 70 प्रतिशत संभावना नहीं रहती। 

बीज का सड़न रोग (seed rot disease)

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कुछ रोग उत्पन्न करने वाले कवक बीज उगने लगता है उस समय इस पर आक्रमण करते हैं। इससे बीज पत्रों, बीज पत्राधरों एवं तनों पर गोल हल्के भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। 

बाद में ये धब्बे मुलायम हो जाते हैं तथा पौधे सड़ने लगते हैं और फिर सड़कर गिर जाते हैं। बचाव हेतु प्रमाणित एवं  2.5 ग्राम थाइरम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर उपचार करके बोएं। 

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रोजेट रोग

रोजेट (गुच्छरोग)

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विषाणुजनित यह रोग पौधों में बोनापन लाता है। उनकी बढ़वार रुक जाती है। रोग को फैलने से रोकने के लिए संक्रमित पौधों को जैसे ही खेत में दिखाई दें, उखाड़कर फेंक देना चाहिए। इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 3 लीटर पानी में घोल कर छिड़केंं। 

टिक्का रोग

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यह गंभीर रोग है। आरम्भ में पौधे के नीचे वाली पत्तियों के ऊपरी सतह पर गहरे भूरे रंग के छोटे-छोटे गोलाकार धब्बे दिखाई पड़ते हैं इसके प्रभाव से खेत में केवल तने ही शेष रह जाते हैं।  

रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 को 2 किलोग्राम एक हजार लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से दस दिनों के अन्तर पर दो-तीन छिड़काव करने चाहिए। 

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कीट नियंत्रण

रोमिन इल्ली पत्तियों को खाकर पौधों को अंगविहीन करती है। पूर्ण विकसित इल्लियों पर घने भूरे बाल होते हैं। इसकी रोकथाम के लिए क्विनलफास 1 लीटर कीटनाशी दवा को 700-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। 

मूंगफली का माहू कीट सामान्य रूप से छोटा एवं भूरे रंग का होता है। यह बहुत बड़ी संख्या में एकत्र होकर पौधों का रस चूसते हैं। साथ ही वाइरस जनित रोग के फैलाने में सहायक भी होती है। 

इसके नियंत्रण के लिए इस रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव कर देना चाहिए। 

लीफ माइनर moongfuli

लीफ माइनर के प्रकोप होने पर पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके गिडार पत्तियों में अन्दर ही अन्दर हरे भाग को खाते रहते हैं और पत्तियों पर सफेद धारियॉं सी बन जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मि.ली. को 1 लीटर पानी में घोल छिड़काव करें।

सफेद लट

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मूंगफली को बहुत ही क्षति पहुँचाने वाला बहुभोजी कीट है। मादा कीट मई-जून के महीनें में जमीन के अन्दर अण्डे देती है। इनमें से 8-10 दिनों के बाद लट निकल आते हैं।  

क्लोरोपायरिफास से बीजोपचार प्रारंभिक अवस्था में पौधों को सफेद लट से बचाता है। अधिक प्रकोप होने पर खेत में क्लोरोपायरिफास का प्रयोग करें । 

इसकी रोकथाम फोरेट की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टर खेत में बुवाई से पहले भुरक कर की जा सकती है। सिंचित क्षेत्रों में औसत उपज 20-25 क्विण्टल प्रति हैक्टेयर होती है। 

लागत 30 हजार प्रति हैक्टेयर खर्चने पर लाभा 40 हजार तक का होता है। यह रेट 30 रुपए प्रति किलोग्राम रहने पर प्राप्त होता है।

मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

मूंगफली की फसल को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कीट व रोगों की इस प्रकार रोकथाम करें

मूंगफली भारत की प्रमुख तिलहनी फसलों में से एक है। इसकी सबसे ज्यादा खेती तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और आंध्र प्रदेश में की जाती है। बतादें, कि मूंगफली की फसल में विभिन्न प्रकार के कीट और रोग लगते हैं। 

इन रोगों एवं कीटों पर काबू करना काफी आवश्यक होता है। मूंगफली भारत की मुख्य तिलहनी फसलों में से एक है। इसकी सबसे ज्यादा खेती तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और आंध्र प्रदेश में होती है। 

इनके आलावा अन्य राज्यों जैसे- राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी इसकी खेती होती है। बतादें, कि मूंगफली की बुवाई प्रायः मॉनसून शुरू होने के साथ ही हो जाती है। 

उत्तर भारत में यह वक्त सामान्य रूप से 15 जून से 15 जुलाई के बीच का होता है। मूंगफली की खेती के लिए समुचित जल निकास वाली भुरभुरी दोमट और बलुई दोमट मिट्टी उत्तम होती है। 

साथ ही, मूंगफली की फसल में खरपतवार पर रोक लगाने के अलावा कीटों और रोगों पर नियंत्रण पाना भी अत्यंत आवश्यक होता है। क्योंकि, फसल में खरपतवार, कीट और रोगों का अधिक प्रभाव होने से फसल पर काफी दुष्प्रभाव पड़ता है।

मूंगफली की फसल को प्रभावित करने वाले कीट

मूंगफली की फसल में सामान्यतः सफेद लट, बिहार रोमिल इल्ली, मूंगफली का माहू व दीमक लगते हैं। मध्य प्रदेश कृषि विभाग के मुताबिक, सफेद लट की समस्या वाले क्षेत्रों में बुवाई से पहले फोरेट 10जी या कार्बोफ्यूरान 3जी 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें। 

इसके अतिरिक्त दीमक के प्रकोप को रोकने के लिए क्लोरोपायरीफॉस दवा की 3 लीटर मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें।

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साथ ही, रस चूसक कीटों (माहू, थ्रिप्स व सफेद मक्खी) के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. प्रति लीटर अथवा डायमिथोएट 30 ई.सी. का 2 मि.ली. प्रति लीटर के मान से 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रयोग करें। 

इसी प्रकार पत्ती सुरंगक कीट के नियंत्रण के लिए क्यूनॉलफॉस 25 ई.सी. का एक लीटर प्रति हेक्टेयर का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

मूंगफली की फसल को प्रभावित करने वाल रोग व नियंत्रण

मूंगफली की फसल में प्रमुख रूप से टिक्का, कॉलर एवं तना गलन व रोजेट रोग का प्रकोप होता है। टिक्का के लक्षण दिखते ही इसकी रोकथाम के लिए डायथेन एम-45 का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

साथ ही, छिड़काव 10-12 दिन के अंतर पर पुनः करें। वहीं रोजेट वायरस जनित रोग हैं, इसके विस्तार को रोकने के लिए फसल पर इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी के मान से घोल बनाकर स्प्रे करना चाहिए।

मूंगफली की अच्छी पैदावार के लिए सफेद लट कीट की रोकथाम बेहद जरूरी है

मूंगफली की अच्छी पैदावार के लिए सफेद लट कीट की रोकथाम बेहद जरूरी है

मूंगफली की खेती से किसान भाई सिर्फ तभी पैदावार हांसिल कर सकते हैं। जब वह मूंगफली की फसल में सफेद लट के रोग से निजात पा सकें। सफेद लट मृदा में पाए जाने वाले बहुभक्षी कीट हैं। इनको जड़ लट के तौर पर भी जाना जाता है। बतादें, कि सफेद लट कीट अपना भोजन मृदा में मौजूद ऑर्गेनिक पदार्थ और पौधों की जड़ों से अर्जित करते हैं। मूंगफली के अतिरिक्त सफेद लट आलू, अखरोट, तम्बाकू एवं विभिन्न अन्य तिलहन, दालें और सब्जी की फसलें अमरूद, गन्ना, नारियल, सुपारी की जड़ों पर आक्रमण कर अपना भोजन अर्जित करते हैं। सफेद लट मूंगफली की फसल को 20-80 प्रतिशत तक हानि पहुँचा सकती हैं।

सफेद लट का प्रकोप किस समय ज्यादा होता है

सामान्य तौर पर सफेद लट साल भर मौजूद रहते हैं। परंतु, इनकी सक्रियता बरसात के मौसम के समय अधिक नजर आती है। मानसून की प्रथम बारिश मई के मध्य अथवा जून माह में वयस्क लट संभोग के लिए बड़ी तादात में बाहर आते हैं। खेत में व उसके आसपास मौजूद रहने वाली मादाएं प्रातः काल जल्दी मिट्टी में वापिस आती हैं। साथ ही, अंडे देना चालू कर देती हैं। पुनः अपने बचे हुए जीवन चक्र के लिए मिट्टी में लौट जाते हैं। आगामी मानसूनी बारिश तक तकरीबन एक मीटर की गहराई पर मृदा निष्क्रिय स्थिति में रहती है। 

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मूंगफली के खेत में सफेद लट संक्रमण के लक्षण

यह कीट भूमिगत है, इसलिए इस कीट से होने वाली हानि को सामान्य तौर पर दरकिनार कर दिया जाता है। संक्रमित पौधा पीला पड़ता दिखाई देने के साथ-साथ मुरझाया हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसे में आखिर में पौधा सूख जाता है, जिसको बड़ी सहजता से जमीन से निकाला जा सकता है। भारी संक्रमण में पौधे मर जाते हैं। साथ ही, मरे हुए पौधे खेतों के भीतर पेचो में दिखाई देते हैं। सफेद लट पौधों की जड़ों को भी खाकर समाप्त कर देते हैं। लटों की वजह से मूंगफली की पैदावार में भारी हानि होती है। वयस्क लट रात में सर्व प्रथम पत्तियों में छेद करते हैं। उसके उपरांत सिर्फ मध्य पत्ती की मध्य शिरा को छोड़कर पूरी पत्ती को चट कर जाते हैं।

मूंगफली के खेत में सफेद लट कीट प्रबंधन

बतादें, कि यदि किसी इलाके में सफेद लटों का आक्रमण है, तो वहां इसका प्रबंधन एक अकेले किसान की कोशिशों से संभव नहीं है। इसके लिए समुदायिक रूप से सभी किसान भाइयों को रोकथाम के उपाय करने पड़ेंगे। सफेद लट का प्रबंधन सामुदायिक दृष्टिकोण के जरिए से करना ही संभव होता है। 

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सफेद लट का वयस्क प्रबंधन

  • प्रथम बारिश होने के उपरांत एक लाइट ट्रैप/हेक्टेयर की दर से लगाएं।
  • लट संभावित इलाकों में खेतों के आस-पास के वृक्षों की कटाई कर दें। साथ ही, जो झाड़ियां खेत के पास है उन्हें काट के खत्म कर दें।
  • सूर्यास्त के दौरान वृक्षों और झाड़ियों पर कीटनाशकों जैसे कि इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल @ 1.5 मिली/लीटर अथवा मोनोक्रोटोफॉस 36 एसएल @ 1.6 मिली/लीटर का छिड़काव करें।
  • पेड़ों के पास गिरे हुए लटों को एकत्रित करके उनको समाप्त कर दें।

सफेद लट कीट प्रबंधन

  • यदि जल की उपलब्धता है, तो अगेती बुवाई करें।
  • किसान भाई बेहतर तरीके से विघटित जैविक खाद का इस्तेमाल करें।
  • किसान भाई प्यूपा को प्रचंड धूप के संपर्क में लाने हेतु गर्मियों में गहरी जुताई करें।
  • छोटे पक्षियों को संरक्षित करने पर अधिक ध्यान दें, क्योंकि यह इन सफेद लट का शिकार करते हैं।
  • बुवाई से पूर्व मृदा में कार्बोफ्यूरान 3 सीजी @ 33.0 किग्रा/हेक्टेयर अथवा फोरेट 10 सीजी @ 25.0 किग्रा/हेक्टेयर मिलाएं।
  • सफेद लट संक्रमित खेतों में बुवाई वाली रेखाओं में कीटनाशकों जैसे कि थियामेथोक्सम 25 डब्ल्यूएस @ 1.9 लीटर/हेक्टेयर अथवा फिप्रोनिल 5 एफएस का @ 2.0 लीटर/हे. का उपयोग करें।
  • संभावित इलाकों में बीज उपचार के लिए बिजाई से पूर्व क्लोरपायरीफॉस 20EC @ 6.5-12.0 मिली/किग्रा अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL @ 2.0 मिली/किग्रा से बीज का उपचार करें।
  • खेतों में वयस्क सफेद लट नजर आने पर फसलों की जड़ों में क्लोरपायरीफॉस 20 ईसी@ 4.0 लीटर/हेक्टेयर अथवा क्विनालफॉस 25 ईसी @ 3.2 से लीटर/हेक्टेयर छिड़काव करें।

 सोयाबीन की फसल को प्रभावित करने वाले रोग व उनकी रोकथाम

सोयाबीन की फसल को प्रभावित करने वाले रोग व उनकी रोकथाम

सोयाबीन की बुवाई जून के प्रथम सप्ताह से शुरू हो जाती है। ऐसे में सोयाबीन की बंपर पैदावार लेने के लिए किसानों को इसकी उन्नत किस्में और बुवाई के सही तरीके की जानकारी होना बेहद जरूरी है। 

सोयाबीन के किसानों को अच्छे भाव मिलते हैं। क्योंकि सोयाबीन से तेल निकाला जाता है। इसके अलावा सोयाबीन से सोया बड़ी, सोया दूध, सोया पनीर आदि चीजें बनाई जाती है।

बतादें, कि सोयाबीन तिलहनी फसलों में आता है और इसकी खेती देश के कई राज्यों में होती है। विशेषकर मध्यप्रदेश में इसकी खेती प्रमुखता से की जाती है। 

सोयाबीन का भारत में 12 मिलियन टन उत्पादन होता है। यह भारत में खरीफ की फसल है। भारत में सबसे ज्यादा सोयाबीन मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान में उत्पादित होती है। 

मध्य प्रदेश का सोयाबीन उत्पादन में 45 प्रतिशत जबकि महाराष्ट्र का 40 प्रतिशत हिस्सा है। इसके अलावा बिहार में किसान इसकी खेती कर रहे है। मध्यप्रदेश के इंदौर में सोयाबीन रिसर्च सेंटर है।

बैक्टेरियल ब्लाइट / Bacterial blight 

इस रोग के कारण बीजों पर उभरे हुए या धंसे हुए घाव विकसित हो सकते हैं और वे सिकुड़े हुए और बदरंग हो सकते हैं। रोग के कारण पत्तियों पर छोटे, कोणीय, पारभासी, पानी से लथपथ, पीले से हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। 

नई पत्तियाँ सबसे अधिक संक्रमित होती हैं और नष्ट हो जाती हैं। कोणीय घाव बड़े होते हैं और विलीन होकर बड़े, अनियमित मृत क्षेत्र बनाते हैं।

अधिक संक्रमण के कारण निचली पत्तियों का जल्दी झड़ाव हो सकता है और तनों और डंठलों पर बड़े, काले घाव विकसित हो जाते हैं। 

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • रोग को नियंत्रण करने के लिए गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें। 
  • बुवाई के लिए स्वस्थ/प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें।
  • संक्रमित फसल अवशेषों को नष्ट कर दें। 
  • खड़ी फसल में रोग के नियंत्रण के लिए 250 पीपीएम (2.5 ग्राम/10 किग्रा बीज) की दर से स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से बीज उपचार करें। 
  • इसके आलावा 250 पीपीएम (2.5 ग्राम/10 लीटर पानी) की दर से स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के साथ 2 ग्राम/लीटर की दर से किसी भी तांबे के कवकनाशी का उपयोग करें। 

सर्कोस्पोरा लीफ ब्लाइट / Cercospora leaf blight 

संक्रमित पत्तियां चमड़े जैसी, गहरे, लाल बैंगनी रंग की दिखाई देती हैं।

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गंभीर संक्रमण से पत्ती के ऊतकों में तेजी से क्लोरोसिस और परिगलन होता है, जिसके परिणामस्वरूप पत्तियां गिर जाती हैं।

डंठलों और तनों पर घाव थोड़े धंसे हुए, लाल बैंगनी रंग के होते हैं ।

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • बुवाई के लिए स्वस्थ/प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें।
  • बीज उपचार थिरम + कार्बेन्डाजियम (2:1) @ 3 ग्राम/किग्रा बीज से करें।
  • मैंकोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम/लीटर या कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम/लीटर का उपयोग करें। 

ड्राई रूट रोट / Dry root rot 

यह रोग तब होता है जब पौधे नमी के तनाव में होते हैं या नेमाटोड के हमले के कारण या मिट्टी के संघनन के कारण या पोषक तत्वों की कमी के कारण होते हैं। यह सोयाबीन के पौधे का सबसे आम बेसल तना और जड़ रोग है।

निचली पत्तियाँ हरितहीन हो जाती हैं और मुरझाकर सूखने लगती हैं।

रोगग्रस्त ऊतकों का रंग आमतौर पर भूरा हो जाता है। स्क्लेरोटिया काले पाउडर जैसे दिखते हैं इसलिए इस बीमारी को चारकोल रोट के नाम से जाना जाता है। 

जड़ों का काला पड़ना और टूटना सबसे आम लक्षण है। कवक शुष्क परिस्थितियों में मिट्टी और फसल के मलबे में जीवित रहता है। 

शुष्क परिस्थितियाँ, अपेक्षाकृत कम मिट्टी की नमी और पोषक तत्व और 25o C से 35o C तक का तापमान इस रोग के लिए अनुकूल है।

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • रोग को नियंत्रण में रखने के लिए ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई करें।
  • फसल का संतुलित उर्वरकीकरण सुनिश्चित करें।
  • खेत को अच्छी तरह से सूखा रखें। 
  • पिछले वर्ष की संक्रमित पराली को नष्ट कर दें।
  • टी. विराइड 4 ग्राम/किग्रा या पी. फ्लोरोसेंस 10 ग्राम/किलो बीज या कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम/किलो बीज से बीजोपचार करें।
  • कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम/लीटर या पी. फ्लोरेसेंस/टी. विराइड 2.5 किग्रा/हेक्टेयर के साथ 50 किग्रा एफवाईएम के साथ स्पॉट ड्रेंचिंग करें।

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अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट / Alternaria leaf spot

इस रोग से संक्रमित पौधों की फलियों में बीज छोटे एवं सिकुड़े हो जाते हैं और बीज पर गहरे, अनियमित, फैले हुए धँसे हुए क्षेत्र बन जाते हैं। 

पत्तों पर संकेंद्रित छल्लों के साथ भूरे, परिगलित धब्बों का दिखना, जो आपस में जुड़कर बड़े परिगलित क्षेत्रों का निर्माण करते हैं। मौसम के अंत में संक्रमित पत्तियाँ सूख जाती हैं और समय से पहले गिर जाती हैं। 

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • बुवाई के लिए स्वस्थ/प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें। 
  • कटाई के बाद खेतों से फसल अवशेषों को नष्ट करें। 
  • रोग नियंत्रण के लिए बीज उपचार थिरम + कार्बेन्डाजियम (2:1) @ 3 ग्राम/किग्रा बीज से करें। 
  • कड़ी फसल में रोग नियंत्रण के लिए मैंकोजेब या कॉपर कवकनाशी 2.5 ग्राम/लीटर या कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम/लीटर का उपयोग करें। 

पॉड ब्लाइट / Anthracnose/pod blight 

इस रोग से संक्रमित बीज सिकुड़े हुए, फफूंदयुक्त और भूरे रंग के हो जाते हैं। बीजपत्रों पर लक्षण गहरे भूरे रंग के धंसे हुए कैंकर के रूप में दिखाई देते हैं। 

रोग की प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों, तनों और फलियों पर अनियमित भूरे रंग के घाव दिखाई देते हैं। उन्नत चरणों में, संक्रमित ऊतक कवक के काले फलने वाले पिंडों से ढके होते हैं।

उच्च आर्द्रता के तहत, पत्तियों पर शिरा परिगलन, पत्ती का लुढ़कना, डंठलों पर कैंकर, समय से पहले पत्ते गिरना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। 

रोग नियंत्रण के उपाय 

  • बुवाई के लिए स्वस्थ या प्रमाणित बीजों का प्रयोग करें।
  • कटाई के तुरंत बाद खेत की साफ जुताई करके पौधों के अवशेषों को पूरी तरह हटा दें।
  • पिछले वर्ष की संक्रमित पराली को नष्ट कर दें।
  • खेत को अच्छी तरह से सूखा रखें। 
  • बीज के उचित नियंत्रण के लिए थाइरम या कैप्टान या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम/किग्रा से बीजोपचार करें। 
  • खड़ी फसल में स्प्रे के रूप में मैंकोजेब 2.5 ग्राम/लीटर या कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम/लीटर का उपयोग करें।

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

कहीं आप की गेहूं की फसल भी इस रोग से प्रभावित तो नहीं हो रही, लक्षणों पर जरूर दें ध्यान

उत्तर भारत में पिछले कुछ दिनों से बारिश हो रही है। इस बार इसको गेहूं की फसल के लिए अच्छा माना जाता है। लेकिन अगर बारिश ज्यादा होती है, तो यह कभी-कभी गेहूं की फसल में रतुआ रोग का कारण भी बन जाती है। इस बीमारी से फसल की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और कभी-कभी पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

रतुआ रोग का सबसे बड़ा कारण है नमी

गेहूं की फसल में यह बीमारी ज्यादातर इसी मौसम में देखने को मिलती हैं।
रतुआ रोग में पत्तियां पीली, भूरी या फिर काले रंग के धब्बों से भर जाती हैं। पत्तों पर छोटे-छोटे धब्बे बन जाते हैं। जिसमें आपको पीला चूर्ण देखने को मिलता है। हाथ लगाते ही पता पूरी तरह से पीला होकर जुड़ जाता है।

पत्तियां पीली पड़ने का कारण केवल रतुआ रोग नहीं

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है, कि रतुआ रोग गेहूं की फसल को प्रभावित करता है और उसकी पत्तियां पीली कर देता है। लेकिन जरूरी नहीं कि हमेशा पत्तियां पीली होने का कारण यही रोग हो। बहुत बार किसानों को लगता है, कि उनकी फसल में किसी ना किसी तरह का रोग हो गया है। इसलिए फसल की पत्तियों पर असर हो रहा है। बहुत बार गेहूं की फसल की पत्तियां पोषण की कमी के कारण भी रंग बदलने लगती हैं।
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आप इस बात का पता इस तरह से लगा सकते हैं, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में रतुआ रोग है और आप उसकी पत्तियों को हाथ लगाते हैं। तो आपके हाथों पर एक चिपचिपा पदार्थ लग जाता है। जबकि पोषण की कमी के कारण पत्तियों में हुए बदलाव में ऐसा कुछ नहीं देखने को मिलता है।

मार्च आने तक सभी लक्षणों पर ध्यान दें और करें बचाव

कृषि विशेषज्ञों का मानना है, कि अगर आपकी गेहूं की फसल में पोषण की कमी है या फिर उसमें रतुआ रोग है। तो दिसंबर से मार्च के बीच में आपको यह लक्षण दिखाई देने लगते हैं। इन महीनों में उत्तर भारत में तापमान 10 डिग्री से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। जो इस रोग के लिए एकदम सही माना गया है। हरियाणा की बात की जाए तो यहां पर अंबाला और यमुनानगर दोनों ही जिलों में इस रोग के काफी ज्यादा मामले सामने आए हैं।
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आप कुछ तरीके अपनाकर इन दोनों ही चीजों से अपनी फसल का बचाव कर सकते हैं। बचाव के लिए प्रोपकोनाजोल 200 मिलीलीटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। अगर आपको लग रहा है, कि आप की फसल में बीमारी ज्यादा है तो आप एक बार फिर से छिड़काव कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को यह सलामी दी जा रही है, कि वह फसल को उगाने के लिए उत्तम क्वालिटी के बीज इस्तेमाल करें। ताकि फसल रोग से प्रभावित ना हो।
किसानों को 81 क्विंटल तक उपज देने की क्षमता रखती हैं गेंहू की ये 5 उन्नत किस्में

किसानों को 81 क्विंटल तक उपज देने की क्षमता रखती हैं गेंहू की ये 5 उन्नत किस्में

भारतीय कृषि वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्में श्रीराम 303 गेहूं की किस्म, GW 322 किस्म, पूसा तेजस 8759 किस्म, श्री राम सुपर 111 गेहूं और HI 8498 किस्म प्रति हेक्टेयर 81 क्विंटल तक उत्पादन देने में सक्षम हैं। साथ ही, यह समस्त किस्में 100 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। गेहूं की खेती से ज्यादा मुनाफा पाने के लिए कृषकों को गेहूं की उन्नत किस्मों का चुनाव करना चाहिए। जिससे कि किसान कम वक्त में ही ज्यादा से ज्यादा उपज हाँसिल कर उसे बाजार में बेच सकें। साथ ही, कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा भी समयानुसार फसलों की नवीन-नवीन किस्मों को तैयार किया जाता है। इसी कड़ी में आज हम देश के कृषकों के लिए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित की गई गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्मों की जानकारी लेकर आए हैं। जो 100 से 120 दिन में पक जाती हैं। साथ ही, ये किस्में 81 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती हैं। गेहूं की जिन टॉप पांच उन्नत किस्मों के बारे में हम चर्चा कर रहे हैं। वह श्रीराम 303 गेहूं की किस्म, GW 322 किस्म, पूसा तेजस 8759 किस्म, श्रीराम सुपर 111 गेहूं और HI 8498 किस्म हैं।

गेहूं की टॉप पांच उन्नत किस्में इस प्रकार हैं

HI 8498 किस्म

गेहूं की HI 8498 किस्म को जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित की गई है। इससे किसान प्रति हेक्टेयर 77 क्विंटल तक उत्पादन हांसिल कर सकते हैं। साथ ही, यह प्रजाति 125-130 दिन में पूर्णतय पककर तैयार हो जाती है।

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श्रीराम 303 गेहूं की किस्म

गेहूं की यह किस्म खेत में 156 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। इसका औसतन पैदावार तकरीबन 81.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक किसानों को मिलती है। गेहूं की यह श्रीराम 303 गेहूं की किस्म पीला, भूरा और काला रतुआ रोधी किस्म है।


 

GW 322 किस्म

गेहूं की यह किस्म 3-4 बार सिंचाई के अंतर्गत ही पक जाती है। गेहूं की GW 322 किस्म से भारत के किसान लगभग 60-65 क्विंटल उपज हांसिल कर सकते हैं। इस किस्म की संपूर्ण फसल लगभग 115-125 दिन की समयावधि में बेहतर ढ़ंग से पककर तैयार हो जाती है।

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पूसा तेजस 8759 किस्म

गेहूं की पूसा तेजस किस्म 110 से 115 दिनों के समयांतराल में पककर तैयार हो जाती है। बतादें, कि गेहूं की यह किस्म जबलपुर के कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई गई है। इसे किसान प्रति हेक्टेयर तकरीबन 70 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।


 

श्री राम सुपर 111 गेहूं

गेहूं की यह उन्नत किस्म किसानों के लिए अत्यंत फायदेमंद है। क्योंकि यह किस्म बंजर भूमि पर भी सुगमता से उत्पादित की जा सकती है। गेहूं की श्रीराम सुपर 111 गेहूं से किसान प्रति हेक्टेयर लगभग 80 क्विंटल तक उपज हांसिल कर सकते हैं। साथ ही, इस प्रजाति से किसान बंजर भूमि पर तकरीबन 30 क्विंटल/हेक्टेयर तक उपज हांसिल कर सकते हैं। गेहूं की यह प्रजाति 105 दिनों के अंदर पक कर तैयार हो जाती है।

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

केले की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व पोटाश की कमी के लक्षण और उसे प्रबंधित करने की तकनीक

पोटाश, जिसे पोटेशियम (K) के रूप में भी जाना जाता है, केला सहित सभी पौधों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक आवश्यक मैक्रोन्यूट्रिएंट्स में से एक है। पोटेशियम पौधों के भीतर विभिन्न शारीरिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जैसे प्रकाश संश्लेषण, एंजाइम सक्रियण, ऑस्मोरग्यूलेशन और पोषक तत्व ग्रहण। केले के पौधों में पोटाश की कमी से उनकी वृद्धि, फल विकास और समग्र उत्पादकता पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आइए जानते है केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रमुख लक्षणों के बारे में एवं उसे प्रबंधित करने के विभिन्न रणनीतियों के बारे में....

केले के पौधों में पोटाश की कमी के लक्षण

केले के पौधों में पोटेशियम की कमी कई प्रकार के लक्षणों के माध्यम से प्रकट होती है जो पौधे के विभिन्न भागों को प्रभावित करते हैं। समय पर निदान और प्रभावी प्रबंधन के लिए इन लक्षणों को समझना महत्वपूर्ण है। केले के पौधों में पोटाश की कमी के कुछ सामान्य लक्षण इस प्रकार हैं:

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पत्ती पर पोटाश के कमी के लक्षण

पत्ती के किनारों का भूरा होना: पुरानी पत्तियों के किनारे भूरे हो जाते हैं और सूख जाते हैं, इस स्थिति को पत्ती झुलसना कहा जाता है। पत्तियों का मुड़ना: पत्तियाँ ऊपर या नीचे की ओर मुड़ जाती हैं, जिससे उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। शिराओं के बीच पीलापन: शिराओं के बीच पत्ती के ऊतकों का पीला पड़ना, जिसे इंटरवेनल क्लोरोसिस कहा जाता है, एक सामान्य लक्षण है। पत्ती परिगलन: गंभीर मामलों में, पत्तियों पर नेक्रोटिक (मृत) धब्बे दिखाई दे सकते हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषक गतिविधि कम हो जाती है।

फल पर पोटाश के कमी के लक्षण

फलों का आकार कम होना: पोटाश की कमी से फलों का आकार छोटा हो जाता है, जिससे केले के बाजार मूल्य पर असर पड़ता है। असमान पकना: फल समान रूप से नहीं पकते हैं, जिससे व्यावसायिक उत्पादकों के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

तना और गुच्छा पर पोटाश के कमी के लक्षण

रुका हुआ विकास: केले के पौधे की समग्र वृद्धि रुक ​​सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उपज कम हो जाती है। छोटे गुच्छे: पोटाश की कमी से फलों के गुच्छे छोटे और पतले हो जाते हैं।

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जड़ पर पोटाश की कमी के लक्षण

कमजोर कोशिका भित्ति के कारण जड़ें कम सशक्त होती हैं और रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।

केले के पौधों में पोटाश की कमी का प्रबंधन

केले के पौधों में पोटाश की कमी के प्रबंधन में पोटेशियम के अवशोषण और उपयोग में सुधार के लिए मिट्टी और पत्तियों पर पोटेशियम के प्रयोग के साथ-साथ अन्य कृषि कार्य का संयोजन शामिल है। पोटाश की कमी को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए यहां कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं, जैसे:

मृदा परीक्षण

मिट्टी में पोटेशियम के स्तर का आकलन करने के लिए मिट्टी परीक्षण करके शुरुआत करें। इससे कमी की गंभीरता को निर्धारित करने और उचित पोटेशियम उर्वरक प्रयोग करने के संबंध में सही मार्गदर्शन मिलेगा।

उर्वरक अनुप्रयोग

मिट्टी परीक्षण की सिफारिशों के आधार पर पोटेशियम युक्त उर्वरक, जैसे पोटेशियम सल्फेट (K2SO4) या पोटेशियम क्लोराइड (KCl) का प्रयोग करें। रोपण के दौरान या केला के विकास के दौरान साइड-ड्रेसिंग के माध्यम से मिट्टी में पोटेशियम उर्वरकों को शामिल करें। मिट्टी के पीएच की निगरानी करें, क्योंकि अत्यधिक अम्लीय या क्षारीय मिट्टी पोटेशियम की मात्रा को कम कर सकती है। यदि आवश्यक हो तो पीएच स्तर समायोजित करें।

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पत्तियों पर छिड़काव करें

गंभीर कमी के मामलों में, पत्तों पर पोटेशियम का छिड़काव त्वरित उपाय है। पत्तियों को जलने से बचाने के लिए पोटेशियम नाइट्रेट या पोटेशियम सल्फेट को पानी में घोलकर सुबह या दोपहर के समय लगाएं। मिट्टी की नमी को संरक्षित करने और मिट्टी के तापमान को लगातार बनाए रखने के लिए केले के पौधों के चारों ओर जैविक गीली घास लगाएं। इससे जड़ों द्वारा पोटेशियम अवशोषण में सुधार होता है।

संतुलित पोषण

सुनिश्चित करें कि पोषक तत्वों के असंतुलन को रोकने के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्व, जैसे नाइट्रोजन (एन) और फास्फोरस (पी), भी पर्याप्त मात्रा में मौजूद हो।आम तौर पर (प्रजाति एवं मिट्टी के अनुसार भिन्न भिन्न भी हो सकती है ), केले को मिट्टी और किस्म के आधार पर 150-200 ग्राम नत्रजन ( एन), 40-60 ग्राम फास्फोरस ( पी2ओ5) और 200-300 ग्राम पोटाश (के2ओ) प्रति पौधे प्रति फसल की आवश्यकता होती है। फूल आने के समय (प्रजनन चरण) में एक-चौथाई नत्रजन(N) और एक-तिहाई पोटाश (K2O) का प्रयोग लाभकारी पाया गया है। फूल आने के समय में नत्रजन का प्रयोग पत्तियों की उम्र बढ़ने में देरी करता है और गुच्छों के वजन में सुधार लाता है और एक तिहाई पोटाश का प्रयोग करने से फिंगर फिलिंग बेहतर होती है। ऊत्तक संवर्धन द्वारा तैयार केले के पौधे से खेती करने में नाइट्रोजन एवं पोटैशियम की कुल मात्रा को पांच भागों में विभाजित करके प्रयोग करने से अधिकतम लाभ मिलता है जैसे प्रथम रोपण के समय,दूसरा रोपण के 45 दिन बाद , तृतीय-90 दिन बाद, चौथा-135 दिन बाद; 5वीं-180 दिन बाद। फास्फोरस उर्वरक की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय या गड्ढे भरते समय डालनी चाहिए।

जल प्रबंधन

पानी के तनाव से बचने के लिए उचित सिंचाई करें, क्योंकि सूखे की स्थिति पोटेशियम की कमी को बढ़ा सकती है।

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फसल चक्र

मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के जोखिम को कम करने के लिए केले की फसल को अन्य पौधों के साथ बदलें।

रोग एवं कीट नियंत्रण

किसी भी बीमारी या कीट संक्रमण का तुरंत समाधान करें, क्योंकि वे पौधे पर दबाव डाल सकते हैं और पोषक तत्व ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न करते हैं।

कटाई छंटाई और मृत पत्तियों को हटाना

स्वस्थ, पोटेशियम-कुशल पर्णसमूह के विकास को बढ़ावा देने के लिए नियमित रूप से क्षतिग्रस्त या मृत पत्तियों की छंटाई करें।

निगरानी और समायोजन

पोटेशियम उपचारों के प्रति पौधे की प्रतिक्रिया की लगातार निगरानी करें और तदनुसार उर्वरक प्रयोगों को समायोजित करें। अंत में कह सकते है की केले के पौधों में पोटेशियम की कमी से विकास, फल की गुणवत्ता और उपज पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस कमी को दूर करने और स्वस्थ और उत्पादक केले की फसल सुनिश्चित करने के लिए मिट्टी परीक्षण, उर्वरक प्रयोग और कृषि कार्यों सहित समय पर निदान और उचित प्रबंधन आवश्यक हैं। इन रणनीतियों को लागू करके, केला उत्पादक पोटेशियम पोषण को अनुकूलित करते हैं और बेहतर समग्र पौध स्वास्थ्य और फल उत्पादन प्राप्त करते हैं।