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भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के बाद गन्ने की 10 नई किस्में जारी की हैं

गन्ना किसानों के लिए 10 उन्नत किस्में बाजार में उपलब्ध की गई हैं। बतादें, कि गन्ने की इन उन्नत किस्मों की खेती आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, यूपी, हरियाणा, मध्य प्रदेश और पंजाब के किसान बड़ी सुगमता से कर सकते हैं। चलिए आज हम आपको इस लेख में गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के संबंध में विस्तार से जानकारी प्रदान करेंगे। भारत में गन्ना एक नकदी फसल है। गन्ने की खेती किसान वाणिज्यिक उद्देश्य से भी किया करते हैं। बतादें, कि किसान इससे चीनी, गुड़, शराब एवं इथेनॉल जैसे उत्पाद भी तैयार किए जाते हैं। साथ ही, गन्ने की फसल से तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर-प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों के किसानों को बेहतरीन कमाई भी होती है। किसानों द्वारा गन्ने की बुवाई अक्टूबर से नवंबर माह के आखिर तक और बसंत कालीन गन्ने की बुवाई फरवरी से मार्च माह में की जाती है। इसके अतिरिक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गन्ना फसल को एक सुरक्षित फसल माना गया है। इसकी वजह यह है, कि गन्ने की फसल पर जलवायु परिवर्तन का कोई विशेष असर नहीं पड़ता है।

भारत सरकार ने जारी की गन्ने की 10 नवीन उन्नत किस्में

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने केंद्रीय बीज समिति के परामर्श के पश्चात गन्ने की 10 नवीन किस्में जारी की हैं। इन किस्मों को जारी करने का प्रमुख लक्ष्य गन्ने की खेती करने के लिए गन्ने की उन्नत किस्मों को प्रोत्साहन देना है। इसके साथ ही गन्ना किसान ज्यादा उत्पादन के साथ बंपर आमदनी अर्जित कर सकें।

जानिए गन्ने की 10 उन्नत किस्मों के बारे में

गन्ने की ये समस्त उन्नत किस्में ओपन पोलिनेटेड मतलब कि देसी किस्में हैं। इन किस्मों के बीजों की उपलब्धता या पैदावार इन्हीं के जरिए से हो जाती है। इसके लिए सबसे बेहतर पौधे का चुनाव करके इन बीजों का उत्पादन किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन किस्मों के बीजों का एक फायदा यह भी है, कि इन सभी किस्मों का स्वाद इनके हाइब्रिड किस्मों से काफी अच्छा होता है। आइए अब जानते हैं गन्ने की इन 10 उन्नत किस्मों के बारे में।

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इक्षु -15 (सीओएलके 16466)

इक्षु -15 (सीओएलके 16466) किस्म से बेहतरीन उत्पादन हांसिल होगा। यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

राजेंद्र गन्ना-5 (सीओपी 11438)

गन्ने की यह किस्म उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम के लिए अनुमोदित की गई है।

गन्ना कंपनी 18009

यह किस्म केवल तमिलनाडु राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

सीओए 17321

गन्ना की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश राज्य के लिए अनुमोदित की गई है।

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सीओ 11015 (अतुल्य)

यह किस्म बाकी किस्मों की तुलना में ज्यादा उत्पादन देती है। क्योंकि इसमें कल्लों की संख्या ज्यादा निकलती है। गन्ने की यह उन्नत किस्म आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की जलवायु के अनुकूल है।

सीओ 14005 (अरुणिमा)

गन्ने की उन्नत किस्म Co 14005 (Arunima) की खेती तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

फुले गन्ना 13007 (एमएस 14082)

गन्ने की उन्नत किस्म Phule Sugarcane 13007 (MS 14082) की खेती तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक में बड़ी सहजता से की जा सकती है।

इक्षु -10 (सीओएलके 14201)

गन्ने की Ikshu-10 (CoLK 14201) किस्म को आईसीएआर के द्वारा विकसित किया गया है। बतादें, कि किस्म के अंदर भी लाल सड़न रोग प्रतिरोध की क्षमता है। यह किस्म राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य), उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र), पंजाब, हरियाणा की जलवायु के अनुरूप है।

इक्षु -14 (सीओएलके 15206) (एलजी 07584)

गन्ने की Ikshu-14 (CoLK 15206) (LG 07584) किस्म की खेती पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश (पश्चिमी और मध्य) और उत्तराखंड (उत्तर पश्चिम क्षेत्र) के किसान खेती कर सकते हैं।

सीओ 16030 (करन 16)

गन्ने की किस्म Co-16030, जिसको Karan-16 के नाम से भी जाना जाता है। इस किस्म को गन्ना प्रजनन संस्थान, करनाल के वैज्ञानिकों की ओर से विकसित किया गया है। यह किस्म उच्च उत्पादन और लाल सड़न रोग प्रतिरोध का एक बेहतरीन संयोजन है। इस किस्म का उत्पादन उत्तराखंड, मध्य और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में बड़ी आसानी से किया जा सकता है।
सरकार के प्रोत्साहन से हरियाणा के मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती की तरफ बढ़ी रुची

सरकार के प्रोत्साहन से हरियाणा के मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती की तरफ बढ़ी रुची

मोरनी क्षेत्र के कृषकों के लिए मशरूम की खेती वरदान सिद्ध होते दिख रही है। यहां के युवा भी मशरूम की खेती में अपनी तकदीर चमकाते दिखाई नजर रहे हैं। हरियाणा सरकार मशरूम की खेती के लिए अनुदान देकर कृषकों का होसला बुलंद कर रही है। पंचकूला जनपद के मोरनी इलाके के कृषकों के लिए मशरूम की खेती वरदान सिद्ध हो रही है। यहां के अधिकांश बेरोजगार युवा सरकार से अनुदान हांसिल कर मशरूम की खेती मे अपनी तकदीर चमका रहे हैं। मोरनी क्षेत्र के कृषकों के लिए सर्वाधिक मुनाफा इस खेती से हांसिल हो रहा है। यहां पर पहले किसान परंपरागत ढंग से खेती किया करते थे, जिसमें सरसों, तिल, गेंहू, टमाटर और मक्का के अतिरिक्त बाकी नकदी फसलें उगाई जाती थी। मगर जंगली जानवरों के  भय की वजह से ज्यादातर किसान इन फसलों को उगाना बंद करके मशरूम की खेती पर ज्यादा ध्यान देने लगे। हरियाणा सरकार भी अनुदान देकर कृषकों के हौसलों को बुलंद कर रही है। 

खेती के लिए सबसे उपयुक्त समय कौन-सा होता है 

मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती के लिए अनुकूल वक्त दिसंबर के प्रथम हफ्ते से शुरू होकर मार्च के आखिर तक होता है। इसी से जागरूक होकर मोरनी गांव के बहलों निवासी युद्ध सिंह परमार कौशिक ने मशरूम की खेती आरंभ कर दी, जिसमें उन्हें काफी शानदार मुनाफा मिलने की आशा है। हरियाणा के मोरनी क्षेत्र में मशरूम की खेती के लिए अनुकूल वातावरण है। इस काम को करने के लिए अधिक भूमि की आवश्यकता नहीं होती। किसान इसको छोटे से कमरे से भी चालू कर सकते हैं। इसके पश्चात सरकार द्वारा अनुदान लेकर बड़ा व्यवसाय भी आरंभ कर सकते हैं। 

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मशरूम उत्पादन का शानदार तरीका

कम्पोस्ट को निर्मित करने के लिए धान की पुआल को भिगोकर एक दिन पश्चात इसमें डीएपी, यूरिया, पोटाश, गेहूं का चोकर, जिप्सम तथा कार्बोफ्यूडोरन मिलाकर इसे सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। करीब डेढ़ माह के उपरांत कम्पोस्ट तैयार होता है। वर्तमान में गोबर की खाद और मिट्टी को बराबर मिलाकर लगभग डेढ़ इंच मोटी परत बिछाकर उस पर कम्पोस्ट की दो-तीन इंच मोटी परत चढ़ाई जाती है। इसमें नमी स्थिर बनी रहे, इसलिए स्प्रे से मशरूम पर दिन में दो से तीन बार छिड़काव किया जाता है। इसके ऊपर एक-दो इंच कम्पोस्ट की परत और चढ़ाई जाती है। इस प्रकार से मशरूम का उत्पादन आरंभ हो जाता है। 

सरकार कितना अनुदान प्रदान कर रही है 

सरकार ने मशरूम उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए जिन तीन योजनाओं पर अनुदान देने का निर्णय किया है, उसमें मशरूम उत्पादन इकाई, मशरूम स्पॉन इकाई और मशरूम कंपोस्ट उत्पादन इकाई शम्मिलित है। इन तीनों योजनाओं की समकुल लागत 55 लाख रुपये है। इसपर कृषकों को 50 प्रतिशत मतलब 27.50 लाख रुपये का अनुदान प्रदान किया जाता है। यदि किसान भिन्न-भिन्न योजनाओं का फायदा लेना चाहें तो इसकी भी छूट है। किसान किसी भी योजना का आसानी से चयन कर सकते हैं।
Mungfali Ki Kheti: मूंगफली की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

Mungfali Ki Kheti: मूंगफली की खेती से संबंधित विस्तृत जानकारी

आज हम आपको इस लेख में मूंगफली की खेती के बारे में विस्तृत जानकारी देने वाले हैं। परंपरागत फसलों के तुलनात्मक मूंगफली को ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल माना जाता है। यदि किसान मूंगफली की खेती वैज्ञानिक ढंग से करते हैं, तो वह इस फसल से ज्यादा उत्पादन उठाकर बेहतरीन मुनाफा कमा सकते हैं। बतादें, कि खरीफ सीजन के फसल चक्र में मूंगफली की खेती का नाम सर्वप्रथम आता है। भारत के कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में प्रमुख तौर पर मूंगफली की खेती की जाती है। 

मूंगफली की खेती

यदि आप मूंगफली का उत्पादन करके बेहतरीन पैदावार से ज्यादा मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं, तो मूंगफली की खेती कब और कैसे करनी चाहिए,
मूंगफली की बुवाई का समुचित समय क्या है? मूंगफली की उन्नत किस्म कौन सी है? मूंगफली हेतु बेहतर खाद व उर्वरक आदि से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी आपको होनी ही चाहिए। तब ही आप मूंगफली की उन्नत खेती कर सकेंगे। मूंगफली की उन्नत खेती करने के इच्छुक किसानों को इस लेख को आखिर तक अवश्य होंगे। 

मूंगफली की खेती किस इलाके में की जाती है

मूंगफली को तिलहनी फसलों की श्रेणी में रखा गया है, जो ऊष्णकटबंधीय इलाकों में बड़ी ही सुगमता से उत्पादित की जा सकती हैं। जो किसान मूंगफली की खेती करने की योजना बना रहे हैं, उनको इस लेख को ध्यानपूर्वक पूरा पढ़ना चाहिए। इस लेख में किसानों को मूंगफली की उन्नत खेती किस प्रकार करें? इस विषय में विस्तृत रूप से जानकारी दी जाएगी। 

मूंगफली की खेती के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु कौन-सी है

मूंगफली की खेती करने के लिए अर्ध-उष्ण जलवायु सबसे बेहतर मानी जाती है। इसकी खेती से बेहतरीन उत्पादन पाने के लिए 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की जरुरत होती है। मूंगफली फसल के लिए 50 से 100 सेंटीमीटर बारिश सर्वोत्तम मानी जाती है।

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मूंगफली की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

मूंगफली की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है। परंतु, मूंगफली की फसल से बेहतरीन पैदावार लेने के लिए बेहतरीन जल निकासी और कैल्शियम एवं जैव पदार्थो से युक्त बलुई दोमट मृदा सबसे उपयुक्त मानी गई है। इसकी खेती के लिए मृदा पीएच मानक 6 से 7 के मध्य होना आवश्यक है। 

मूंगफली फसल के लिए खेत की तैयारी

मूंगफली की खेती के लिए प्रथम जुताई मृदा पलटने वाले हल कर खेत को कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें। जिससे कि उसमें उपस्थित पुराने अवशेषों, खरपतवार एवं कीटों का खत्मा हो जाये। खेत की आखिरी जुताई करके मृदा को भुरभुरी बनाकर खेत को पाटा लगाकर समतल कर लें। खेत की अंतिम जुताई के दौरान 120 कि.ग्रा./एकड़ जिप्सम/फास्फोजिप्सम उपयोग करें। दीमक एवं अन्य कीड़ों से संरक्षण के लिए किनलफोस 25 किग्रा एवं निम की खली 400 किग्रा प्रति हैक्टेयर खेत में डालें। 

भारत के अंदर मूंगफली की खेती के लिए विभिन्न किस्में मौजूद हैं, जो कि निम्नलिखित हैं।

फैलने वाली वैरायटी:- आर जी-382 (दुर्गा), एम-13, एम ए-10, आर एस-1 और एम-335, चित्रा इत्यादि। 

मध्यम फैलने वाली वैरायटी:- आर जी-425, गिरनार-2, आर एस बी-87, एच एन जी-10 और आर जी-138, इत्यादि।

झुमका वैरायटी:- ए के-12 व 24, टी जी-37ए, आर जी-141, डी ए जी-24, जी जी-2 और जे एल-24 इत्यादि। 

मूंगफली के बीज की क्या दर होनी चाहिए

मूंगफली की गुच्छेदार प्रजातियों के लिए 100 कि.ग्रा. और फैलने वाली प्रजातियों के लिए 80 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर की दर से जरुरी होता है।  

मूंगफली के बीज को किस प्रकार उपचारित किया जाए

मूंगफली के बीज का समुचित ढंग से अंकुरण करने के लिए बीज को उपचारित अवश्य कर लें। कार्बोक्सिन 37.5% + थाइरम 37.5 % की 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से या 1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम + ट्राइकाडर्मा विरिडी 4 ग्रा./कि.ग्रा. के अनुरूप बीज को उपचारित किया जाए। 

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मूंगफली की बुआई किस प्रकार से की जाए

मूंगफली की बुवाई के लिए सबसे अच्छा समय जून के द्वितीय सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह में की जा सकती है। मूंगफली का बीजारोपण रेज्ड बेड विधि द्वारा करना चाहिए। इस विधि के अनुरूप बुवाई करने पर 5 कतारों के उपरांत एक-एक कतार खाली छोड़ते हैं। झुमका किस्म:- झुमका वैरायटी के लिए कतार से कतार का फासला 30 से.मी. एवं पौधे से पौधे की फासला 10 से.मी. आवश्यक होता है। विस्तार किस्मों के लिए:- विस्तार किस्मों के लिए कतार से कतार का फासला 45 से.मी. वहीं पौधे से पौधे का फासला 15 सें.मी. रखें। बीज को 3 से 5 से.मी. की गहराई में ही बोयें। 

मूंगफली की खेती में खरपतवार नियंत्रण

मूंगफली फसल में सत्यानाशी, कोकावा, दूधघास, मोथा, लकासा, जंगली चौलाइ, बनचरी, हिरनखुरी, कोकावा और गोखरू आदि खरपतवार प्रमुख रूप से उग जाते हैं। इनकी रोकथाम करने के लिए 30 और 45 दिन पर निदाई-गुड़ाई करें, जिससे कि खरपतवार नियंत्रण मूंगफली की जड़ों का फैलाव अच्छा होने के साथ मृदा के अंदर वायु का संचार भी हो जाता है। 

मूंगफली की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन

जायद की फसल के लिए सिचाई – बतादें कि प्रथम सिंचाई बुवाई के 10-15 दिन उपरांत, दूसरी सिंचाई बुवाई के 30-35 दिन के उपरांत एवं तीसरी फूल एवं सुई निर्माण के वक्त, चौथी सिचाई 50-75 दिन उपरांत मतलब फली बनने के समय तो वहीं पांचवी सिचाई फलियों की प्रगति के दौरान (75-90 दिन बाद) करनी जरूरी होती है। यदि मूंगफली की बुवाई वर्षाकाल में करी है, तब वर्षा के आधार पर सिंचाई की जाए। 

मूंगफली की फसल में लगने वाले कीट

रस चूसक/ पत्ती सुरंगक/ चेपा/ टिक्का/ रोजेट/फुदका/ थ्रिप्स/ दीमक/सफेद लट/बिहार रोमिल इल्ली और मूंगफली का माहू इत्यादि इसकी फसल में विशेष तौर पर लगने वाले कीट और रोग हैं। 

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मूंगफली की खुदाई हेतु सबसे अच्छा समय कौन-सा होता है

आपकी जानकारी के लिए बतादें कि मूंगफली के पौधों की पत्तियों का रंग पीला होने लग जाए। फलियों के अंदर के टेनिन का रंग उड़ जाए और बीज का खोल रंगीन हो जाने के उपरांत खुदाई करें। खुदाई के दौरान खेत में हल्की नमी होनी चाहिए। बतादें, कि भंडारण और अंकुरण क्षमता स्थिर बनाये रखने के लिए खुदाई के उपरांत सावधानीपूर्वक मूंगफली को सुखाना चाहिए। मूंगफली का भंडारण करने से पूर्व यह जाँच कर लें कि मूंगफली के दानो में नमी की मात्रा 8 से 10% प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। 

मूंगफली की खेती में कितना खर्च और कितनी आय होती है

मूंगफली की खेती को बेहतरीन पैदावार देने वाली फसल मानी जाती है। इसकी खेती करने में लगभग 1-2 लाख रुपए तक की लागात आ जाती है। यदि किसानों के हित में सभी कुछ ठीक रहा तो प्रति हेक्टेयर तकरीबन 5-6 लाख की आमदनी की जा सकती है।

मटर की खेती का उचित समय

मटर की खेती का उचित समय

मटर की खेती कई इलाकों में हरी सब्जी के लिए तो कई इलाकों में पकाने के लिए की जाती है। देश के विभिन्न राज्यों में मटर की खेती बखूबी की जाती है।

मिट्टी

मटर की खेती के लिए ब्लू दोमट मिट्टी सर्वाधिक श्रेष्ठ रहती है।

बुवाई का समय

मटर की खेती मटर की बुवाई के लिए अक्टूबर-नवंबर का माह उपयुक्त रहता है।

किस्में:-

अगेती किस्में

अगेता 6,आर्किल, पंत सब्जी मटर 3,आजाद p3 अगेती किस्मों की बिजाई के लिए 150 से 160 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए एवं इनसे उत्पादन 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।

पछेती किस्म

आजाद p1,बोनविले,जवाहर मटर एक इत्यादि। मध्य एवं पछेती किस्मों के लिए बीज दर 100 से 120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए। उत्पादन 60 से 125 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक मिलता है। इसके अलावा jm6, प्रकाश, केपी mr400,आईपीएफडी 99-13 किस्में भी कई राज्य में प्रचलित हैं और उत्पादन के लिहाज से काफी अच्छी है।

खाद एवं उर्वरक

मटर की खेती के बारे में जानकारी

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200 कुंटल साड़ी गोबर की खाद खेत तैयारी के समय मिट्टी में भली-भांति मिला देनी चाहिए।अच्छी फसल के लिए नाइट्रोजन 40 से 50 किलोग्राम ,फास्फोरस 50 किलोग्राम तथा पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि मैं मिलानी चाहिए। पूरा फास्फोरस और पोटाश तथा आधा नत्रजन बुवाई के समय जमीन में आखिरी जोत में मिलाएं। शेष नाइट्रोजन बुवाई के 25 दिन बाद फसल में बुर्क़ाव करें।

बुवाई की विधि

मटर की खेती की बुवाई सब्जी वाली मटर को 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर पंक्तियों में बोना चाहिए।

सिंचाई

मटर कम पनी चाहने वाली फसल है लेकिन इसकी बुवाई पलेवा करके करनी चाहिए। बुवाई के समय पर्याप्त नमी खेत में होनी चाहिए। मटर की फसल में फूल की अवस्था पर एवं फली में दाना पढ़ने की अवस्था पर खेत में उचित नहीं होनी अत्यंत आवश्यक है लेकिन इस बात का ध्यान रहे कि पानी खेत में खड़ा ना रहे।

खरपतवार नियंत्रण

फसल की प्रारंभिक अवस्था में हल्की निराई गुड़ाई कर के खेत तक सपरिवार निकाल देना चाहिए अन्यथा की दशा में फसल का उत्पादन काफी हद तक प्रभावित होने की संभावना बनी रहती है। खरपतवार के पौधे मुख्य फसल के आहार का तेजी से अवशोषण कर लेते हैं।
तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

रंगबिरंगी तितली किसके मन को नहीं भाती, लेकिन हम बात कर रहे हैं, प्रमुख दलहनी फसलों में से एक तितली मटर के बारे में। आमतौर पर इसे अपराजिता (butterfly pea, blue pea, Aprajita, Cordofan pea, Blue Tea Flowers or Asian pigeonwings) भी कहा जाता है। 

इंसान और पशुओं के लिए गुणकारी

बहुउद्देशीय दलहनी कुल के पौधोंं में से एक तितली मटर यानी अपराजिता की पहचान उसके औषधीय गुणों के कारण भी दुनिया भर में है। इंसान और पशुओं तक के लिए गुणकारी इस फसल की खेती को बढ़ावा देकर, किसान भाई अपनी कमाई को कई तरीके से बढ़ा सकते हैं। 

ब्लू टी की तैयारी

तितली मटर के फूल की चाय (Butterfly pea flower tea)

बात औषधीय गुणों की हो रही है तो आपको बता दें कि, चिकित्सीय तत्वों से भरपूर अपरजिता यानी तितली मटर के फूलों से अब ब्लू टी बनाने की दिशा में भी काम किया जा रहा है।

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ब्लू टी से ब्लड शुगर कंट्रोल

जी हां परीक्षणों के मुताबिक तितली मटर (अपराजिता) के फूलों से बनी चाय की चुस्की, मधुमेह यानी कि डायबिटीज पीड़ितों के लिए मददगार होगी। जांच परीक्षणों के मुताबिक इसके तत्व ब्लड शुगर लेवल को कम करते हैं।

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पशुओं का पोषक चारा

इंसान के स्वास्थ्य के लिए मददगार इसके औषधीय गुणों के अलावा तितली मटर (अपराजिता) का उपयोग पशु चारे में भी उपयोगी है। चारे के रूप में इसका उपयोग भूसा आदि अन्य पशु आहार की अपेक्षा ज्यादा पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं पाचन शील माना जाता है। तितली मटर (अपराजिता) के पौधे का तना बहुत पतला साथ ही मुलायम होता है। इसकी पत्तियां चौड़ी और अधिक संख्या में होने से पशु आहार के लिए इसे उत्तम माना गया है।

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अनुभवों के मुताबिक अपेक्षाकृत रूप से दूसरी दलहनी फसलों की तुलना में इसकी कटाई या चराई के बाद अल्प अवधि में ही इसके पौधों में पुनर्विकास शुरू हो जाता है। 

एशिया और अफ्रीका में उत्पत्ति :

तितली मटर (अपराजिता) की खेती की उत्पत्ति का मूल स्थान मूलतः एशिया के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र एवं अफ्रीका में माना गया है। इसकी खेती की बात करें तो मुख्य रूप से अमेरिका, अफीका, आस्ट्रेलिया, चीन और भारत में इसकी किसानी का प्रचलन है। 

मददगार जलवायु

  • इसकी खेती मुख्यतः प्रतिकूल जलवायु क्षेत्रों में प्रचलित है। मध्यम खारी मृदा इलाकों में इसका पर्याप्त पोषण होता है।
  • तितली मटर प्रतिकूल जलवायु जैसे–सुखा, गर्मी एवं सर्दी में भी विकसित हो सकती है।
  • ऐसी मिट्टी, जिनका पी–एच मान 4.7 से 8.5 के मध्य रहता है में यह भली तरह विकसित होने में कारगर है।
  • मध्यम खारी मिट्टी के लिए भी यह मित्रवत है।
  • हालांकि जलमग्न स्थिति के प्रति यह बहुत संवेदनशील है। इसकी वृद्धि के लिए 32 डिग्री सेल्सियस तापमान सेहतकारी माना जाता है।

तितली मटर के बीज की अहमियत :

कहावत तो सुनी होगी आपने, बोए बीज बबूल के तो फल कहां से होए। ठीक इसी तरह तितली मटर (अपराजिता) की उन्नत फसल के लिए भी बीज अति महत्वपूर्ण है। कृषक वर्ग को इसका बीज चुनते समय अधिक उत्पादन एवं रोग प्रतिरोध क्षमता का विशेष तौर पर ध्यान रखना चाहिए।

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तितली मटर की कुछ उन्नत किस्में :

तितली मटर की उन्नत किस्मों की बात करें तो काजरी–466, 752, 1433, जबकि आईजीएफआरआई की 23–1, 12–1, 40 –1 के साथ ही जेजीसीटी–2013–3 (बुंदेलक्लाइटोरिया -1), आईएलसीटी–249 एवं आईएलसीटी-278 इत्यादि किस्में उन्नत प्रजाति में शामिल हैं। 

तितली मटर की बुवाई के मानक :

अनुमानित तौर पर शुद्ध फसल के लिए बीज दर 20 से 25 किलोग्राम मानी गई है। मिश्रित फसल के लिए 10 से 15 किलोग्राम, जबकि 4 से 5 किलोग्राम बीज स्थायी चरागाह के लिए एवं 8 से 10 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर अल्पावधि चरण चरागाह के लिए आदर्श पैमाना माना गया है। तय मान से बुवाई 20–25 × 08 – 10 सेमी की दूरी एवं ढ़ाई से तीन सेमी की गहराई पर करनी चाहिए। कृषि वैज्ञानिक उपचारित बीजों की भी सलाह देते हैं। अधिक पैदावार के लिए गर्मी में सिंचाई का प्रबंधन अनिवार्य है। 

तितली मटर की कटाई का उचित प्रबंधन :

मटर के पके फल खेत में न गिर जाएं इसलिए तितली मटर की कटाई समय रहते कर लेना चाहिए। हालांकि इस बात का ध्यान भी रखना अनिवार्य है कि मटर की फसल परिपक्व हो चुकी हो। जड़ बेहतर रूप से जम जाए इसलिए पहले साल इससे केवल एक कटाई लेने की सलाह जानकार देते हैं।

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तितली मटर के उत्पादन का पैमाना :

उपज बरानी की दशा में स्थितियां अनुकूल रहने पर लगभग 1 से 3 टन सूखा चारा और 100 से 150 किलो बीज प्रति हेक्टेयर मिल सकता है। इतनी बड़ी ही सिंचित जमीन पर सूखा चारा 8 से 10 टन, जबकि बीज पांच सौ से छह सौ किलो तक उपज सकता है। 

पोषक तत्वों से भरपूर खुराक :

तितली मटर में प्रोटीन की मात्रा 19-23 फीसदी तक मानी गई है। क्रूड फ़ाइबर 29-38, एनडीफ 42-54 फीसदी तो फ़ाइबर 21-29 प्रतिशत पाया जाता है। पाचन शक्ति इसकी 60-75 फीसदी तक होती है।

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती सामान्य तौर पर सर्दी में होने वाली फसल है। मटर की खेती से एक अच्छा मुनाफा तो मिलता ही है। साथ ही, यह खेत की उर्वराशक्ति को भी बढ़ाता है। इसमें उपस्थित राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। अगर मटर की अगेती किस्मों की खेती की जाए तो ज्यादा उत्पादन के साथ भूरपूर मुनाफा भी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रुप में उपयोग किया जाता है. यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होती है. पकने के बाद इसकी सुखी फलियों से दाल बनाई जाती है.

मटर की खेती

मटर की खेती सब्जी फसल के लिए की जाती है। यह कम समयांतराल में ज्यादा पैदावार देने वाली फसल है, जिसे व्यापारिक दलहनी फसल भी कहा जाता है। मटर में राइजोबियम जीवाणु विघमान होता है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में मददगार होता है। इस वजह से
मटर की खेती भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भी की जाती है। मटर के दानों को सुखाकर दीर्घकाल तक ताजा हरे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मटर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और आयरन आदि की पर्याप्त मात्रा मौजूद होती है। इसलिए मटर का सेवन करना मानव शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। मटर को मुख्यतः सब्जी बनाकर खाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह एक द्विबीजपत्री पौधा होता है, जिसकी लंबाई लगभग एक मीटर तक होती है। इसके पौधों पर दाने फलियों में निकलते हैं। भारत में मटर की खेती कच्चे के रूप में फलियों को बेचने तथा दानो को पकाकर बेचने के लिए की जाती है, ताकि किसान भाई ज्यादा मुनाफा उठा सकें। अगर आप भी मटर की खेती से अच्छी आमदनी करना चाहते है, तो इस लेख में हम आपको मटर की खेती कैसे करें और इसकी उन्नत प्रजातियों के बारे में बताऐंगे।

मटर उत्पादन के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

मटर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मृदा में की जा सकती है। परंतु, गहरी दोमट मृदा में मटर की खेती कर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त क्षारीय गुण वाली भूमि को मटर की खेती के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 बीच होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मटर की खेती का उचित समय समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु मटर की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। क्योंकि ठंडी जलवायु में इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करते हैं तथा सर्दियों में पड़ने वाले पाले को भी इसका पौधा सहजता से सह लेता है। मटर के पौधों को ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं पड़ती और ज्यादा गर्म जलवायु भी पौधों के लिए अनुकूल नहीं होती है। सामान्य तापमान में मटर के पौधे बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं, किन्तु पौधों पर फलियों को बनने के लिए कम तापमान की जरूरत होती है। मटर का पौधा न्यूनतम 5 डिग्री और अधिकतम 25 डिग्री तापमान को सहन कर सकता है।

मटर की उन्नत प्रजातियां

आर्केल

आर्केल किस्म की मटर को तैयार होने में 55 से 60 दिन का वक्त लग जाता है। इसका पौधा अधिकतम डेढ़ फीट तक उगता है, जिसके बीज झुर्रीदार होते हैं। मटर की यह प्रजाति हरी फलियों और उत्पादन के लिए उगाई जाती है। इसकी एक फली में 6 से 8 दाने मिल जाते हैं।

लिंकन

लिंकन किस्म की मटर के पौधे कम लम्बाई वाले होते हैं, जो बीज रोपाई के 80 से 90 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देते हैं। मटर की इस किस्म में पौधों पर लगने वाली फलियाँ हरी और सिरे की ऊपरी सतह से मुड़ी हुई होती है। साथ ही, इसकी एक फली से 8 से 10 दाने प्राप्त हो जाते हैं। जो स्वाद में बेहद ही अधिक मीठे होते हैं। यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार की गयी है। यह भी पढ़ें: सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

बोनविले

बोनविले मटर की यह किस्म बीज रोपाई के लगभग 60 से 70 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देती है। इसमें निकलने वाला पौधा आकार में सामान्य होता है, जिसमें हल्के हरे रंग की फलियों में गहरे हरे रंग के बीज निकलते हैं। यह बीज स्वाद में मीठे होते हैं। बोनविले प्रजाति के पौधे एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 100 से 120 क्विंटल की उपज दे देते है, जिसके पके हुए दानो का उत्पादन लगभग 12 से 15 क्विंटल होता है।

मालवीय मटर – 2

मटर की यह प्रजाति पूर्वी मैदानों में ज्यादा पैदावार देने के लिए तैयार की गयी है। इस प्रजाति को तैयार होने में 120 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। इसके पौधे सफेद फफूंद और रतुआ रोग रहित होते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के आसपास होता है।

पंजाब 89

पंजाब 89 प्रजाति में फलियां जोड़े के रूप में लगती हैं। मटर की यह किस्म 80 से 90 दिन बाद प्रथम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसमें निकलने वाली फलियां गहरे रंग की होती हैं तथा इन फलियों में 55 फीसद दानों की मात्रा पाई जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा प्रभात

मटर की यह एक उन्नत क़िस्म है, जो कम समय में उत्पादन देने के लिए तैयार की गई है | इस क़िस्म को विशेषकर भारत के उत्तर और पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है। यह क़िस्म बीज रोपाई के 100 से 110 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाती है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 40 से 50 क्विंटल की पैदावार दे देती है। यह भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

पंत 157

यह एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 125 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। मटर की इस प्रजाति में पौधों पर चूर्णी फफूंदी और फली छेदक रोग नहीं लगता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 क्विंटल तक की पैदावार दे देती है।

वी एल 7

यह एक अगेती किस्म है, जिसके पौधे कम ठंड में सहजता से विकास करते हैं। इस किस्म के पौधे 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों में निकलने वाली फलियां हल्के हरे और दानों का रंग भी हल्का हरा ही पाया जाता है। इसके साथ पौधों पर चूर्णिल आसिता का असर देखने को नहीं मिलता है। इस किस्म के पौधे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 से 80 क्विंटल की उपज दे देते हैं।

मटर उत्पादन के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार करें

मटर उत्पादन करने के लिए भुरभुरी मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से खेत की मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए खेत की सबसे पहले गहरी जुताई कर दी जाती है। दरअसल, ऐसा करने से खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय नष्ट हो जाते हैं। खेत की जुताई के उपरांत उसे कुछ वक्त के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है, इससे खेत की मृदा में सही ढ़ंग से धूप लग जाती है। पहली जुताई के उपरांत खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना पड़ता है।

मटर के पौधों की सिंचाई कब और कितनी करें

मटर के बीजों को नमी युक्त भूमि की आवश्यकता होती है, इसके लिए बीज रोपाई के शीघ्र उपरांत उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है। इसके बीज नम भूमि में बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं। मटर के पौधों की पहली सिंचाई के पश्चात दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के समयांतराल में करना होता है। तो वहीं उसके उपरांत की सिंचाई 20 दिन के उपरांत की जाती है।

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण किस प्रकार करें

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का उपयोग किया जाता है। इसके लिए बीज रोपाई के उपरांत लिन्यूरान की समुचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अगर आप प्राकृतिक विधि का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है। इसके पौधों को सिर्फ दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। साथ ही, हर एक गुड़ाई 15 दिन के समयांतराल में करनी होती है।
सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

सोयाबीन की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि सोयाबीन की खेती ज्यादा हल्की, हल्की एवं रेतीली जमीन को छोड़कर हर तरह की जमीन पर सहजता से की जा सकती है। लेकिन, जल की निकासी वाली चिकनी दोमट मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये ज्यादा अच्छी होती है। ऐसे खेत जिनमें पानी टिकता हो, उनमें सोयाबीन न बोऐं। ग्रीष्मकालीन जुताई 3 साल में कम से कम एक बार जरुर करनी चाहिये। बारिश शुरू होने पर 2 या 3 बार बखर और पाटा चलाकर भूमि को तैयार करलें। इससे नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की समस्त अवस्थायें खत्म हो जाऐंगी। ढेला रहित एवं भुरभुरी मृदा वाली भूमि सोयाबीन के लिये उपयुक्त होती है। खेत के अंदर जलभराव से सोयाबीन की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्यादा उपज के लिये खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था करना जरूरी होता है। जहां तक संभव हो अंतिम बखरनी और पाटा वक्त से करें, जिससे अंकुरित खरपतवार का खात्मा हो सकें। साथ ही, मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) तैयार कर सोयाबीन की बिजाई करें। अगर हम सोयाबीन की खेती के सन्दर्भ में बीज दर की बात करें, तो छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़, मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़, बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़ 

सोयाबीन की खेती में बीजोपचार

सोयाबीन के अंकुरण को बीज एवं मृदा जनित रोग काफी प्रभावित करते हैं। इनको नियंत्रित करने हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। या फिर ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बिजाई करें।

कल्चर का इस्तेमाल

आपकी जानकारी के लिए फफूंदनाशक ओषधियों से बीजोपचार के बाद बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए और जल्दी बुवाई करनी चाहिये। याद रहे कि फफूंद नाशक ओषधि और कल्चर को एक साथ नहीं मिलाऐं। 

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सोयाबीन की बिजाई हेतु समुचित वक्त और तरीका

सोयाबीन की बिजाई हेतु जून के आखिरी सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक की समयावधि सबसे उपयुक्त है। बिजाई के दौरान अच्छे अंकुरण के लिए जमीन में 10 सेमी गहराई तक समुचित नमी होनी चाहिये। जुलाई के पहले सप्ताह के बाद बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत अधिक कर देनी चाहिए। कतारों से कतारों का फासला 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) और 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये होता है। 20 कतारों के पश्चात एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण हेतु रिक्त छोड़ देना चाहिए। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहराई पर ही बोयें। सोयाबीन एक नकदी फसल है, जिसको किसान बाजार में बेचकर तुरंत धन अर्जित कर सकते हैं। 

सोयाबीन की फसल के साथ अंतरवर्तीय फसलें कौन-कौन सी हैं

सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के तौर पर अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें अच्छी मानी जाती हैं। 

समन्वित पोषण प्रबंधन कैसे करें

बतादें, कि बेहतर ढ़ंग से सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ आखिरी बखरनी के दौरान खेत में बेहतर ढ़ंग से मिला दें। साथ ही, बिजाई के दौरान 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ के अनरूप दें। यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर कम-ज्यादा की जा सकती है। नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के इस्तेमाल को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में तकरीबन 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। वहीं, गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मृदाओं में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 5 से 6 फसलें लेने के उपरांत इस्तेमाल करना चाहिये। 

सोयाबीन की खेती में खरपतवार प्रबंधन कैसे करें

फसल के शुरूआती 30 से 40 दिनों तक खरपतवार को काबू करना बेहद जरूरी होता है। तो वहीं बतर आने पर डोरा अथवा कुल्फा चलाकर खरपतवार की रोकथाम करें एवं दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन उपरांत करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को समाप्त करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ और घास कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के उपयोग में बिजाई के पहले फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को बेहतर ढ़ंग से बखर चलाकर मिला दें। बिजाई के पश्चात और अंकुरण के पहले एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर जल में मिलाकर फ्लैटफेन अथवा फ्लैटजेट नोजल की मदद से सारे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों की जगह पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बिजाई के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों हेतु मृदा में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना काफी जरूरी है। 

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सोयाबीन की खेती में सिंचाई किस तरह करें

सोयाबीन खरीफ मौसम की फसल होने की वजह से आमतौर पर सोयाबीन को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। फलियों में दाना भरण के दौरान मतलब कि सितंबर माह में अगर खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन की बेहतरीन पैदावार लेने के लिए फायदेमंद है। 

सोयाबीन की फसल में लगने वाले कीट

सोयाबीन की फसल में बीज और छोटे पौधे को हानि पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को दुष्प्रभावित करने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का संक्रमण होता है। कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक उपज में गिरावट आ जाती है। इन कीटों की रोकथाम करने के उपाय निम्नलिखित हैं: 

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कृषिगत स्तर पर कीटों की रोकथाम

खेती के स्तर पर यदि हम कीट नियंत्रण की बात करें तो खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना। मानसून की वर्षा के पूर्व बिजाई ना करना अति आवश्यक बातें हैं। साथ ही, मानसून आगमन के बाद बिजाई शीघ्रता से संपन्न करें। खेत नींदा रहित ही रखें। सोयाबीन की फसल के साथ ज्वार या मक्का की अंतरवर्तीय फसल करें। खेतों को फसल अवशेषों से पूर्णतय मुक्त रखें और मेढ़ों को बिल्कुल साफ रखें। 

रासायनिक स्तर पर कीटों की रोकथाम

सोयाबीन की बिजाई के दौरान थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से शुरूआती कीटों की रोकथाम होती है। वहीं, अंकुरण की शुरुआत होते ही नीले भृंग कीट की रोकथाम के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें। विभिन्न तरह की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों एवं फलों को खाके खत्म कर देती हैं। इन कीटों की रोकथाम करने के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर जल में घोल कर छिड़काव करें। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला हिस्सा चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों एवं फलियों को खाकर खत्म कर देती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। सोयाबीन की फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली तकरीबन एक साथ ही आक्रमण करते हैं। अत: पहला छिड़काव 25 से 30 दिन पर और दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर जरूर करें। 

जैविक तौर पर कीट नियंत्रण

कीटों की शुरुआती अवस्था में जैविक कीट पर काबू करने के लिए बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिनों के उपरांत छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर जल में घोल बनाके प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशकों को परिवर्तित कर डालना फायदेमंद होता है। गर्डल बीटल प्रभावित इलाकों में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगाऐं। निंदाई के दौरान प्रभावित टहनियां तोड़कर बर्बाद कर दें। कटाई के उपरांत बंडलों को प्रत्यक्ष तौर पर गहाई स्थल पर ले जाएं। तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें। 

सोयाबीन की फसल की कटाई और गहाई

ज्यादातर पत्तियों के सूख कर झड़ जाने की स्थिति में और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरा होने पर फसल की कटाई हेतु तैयार हो जाती है। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के तकरीबन 10 दिन उपरांत चटकना शुरू हो जाती है। कटाई के उपरांत गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना जरूरी है। बतादें, कि फसल कटाई के उपरांत जब फसल पूर्णतय सूख जाए तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई बैलों, थ्रेसर, ट्रेक्टर तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक मुमकिन हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण को हानि न पहुँचे।

करेले की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

करेले की खेती से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

हरदोई के किसान का कहना है, कि 1 एकड़ भूमि पर करेले की खेती करने पर तकरीबन ₹30000 तक का खर्चा आता है। किसान को बेहतरीन मुनाफे के साथ करीब ₹300000 प्रति एकड़ का लाभ होता है। 

 करेले की खेती से किसान शीघ्र अमीर बन सकते है। किसानों की सफलता की यह कहानी, बाकी किसानों को भी करेले की खेती की ओर आकर्षित कर रही है। 

असल में उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद के किसान करेले की खेती से अच्छा-खासा लाभ अर्जित कर रहे हैं। परंतु, करेले की खेती से फायदा कमाने की कहानी की पटकथा के पीछे खेत तैयार करने की महत्वपूर्ण भूमिका है। 

आईए जानते हैं, कि करेले की खेती करने वाले किसानों की सफलता की कहानी और उन्होंने किस प्रकार खेत तैयार किए, जिससे करेले की खेती से वह मोटा मुनाफा कमाने में सफल हो पाए।

जाल निर्मित कर करेले की खेती की शुरुआत की

हरदोई जनपद के किसान आजकल खेत में जाल बनाकर करेले की खेती कर रहे हैं, जिससे किसानों को करेले की खेती में लाखों का मुनाफा अर्जित हो रहा है। हरदोई के ऐसे ही एक किसान संदीप वर्मा हैं, जो कि गांव विरुइजोर के निवासी हैं।

वह बहुत वर्षों से करेले की खेती करते आ रहे है, उनका कहना है, कि उनके पिताजी भी सब्जियों की खेती किया करते थे। 

सब्जी की खेती गर्मी एवं बरसात के दिनों में बेहद मुनाफा देती है। साथ ही, यह खेती सप्ताह अथवा 15 दिन में किसान की जेब में रुपए पहुंचाती रहती है।

संदीप की देखी-देखा रिश्तेदारों ने भी की करेले की खेती शुरू

किसान संदीप वर्मा का कहना है, कि करेले की फसल की उत्तम पैदावार के लिए 35 डिग्री तक का तापमान उपयुक्त माना जाता है। साथ ही, बीजों के गुणवत्तापूर्ण जमाव के लिए 30 डिग्री तक का तापमान उपयुक्त होता है। 

किसान ने बताया है, कि उनकी करेले की खेती की कमाई को देखी देखा फिलहाल उनके रिश्तेदार भी करेले की फसल उगाने लग गए हैं, जिससे उनको भी लाभ हाेने लगा है।

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करेला की खेती में कितनी पैदावार होती है

किसान संदीप वर्मा ने बताया है, कि वह आर्का हरित नामक करेले के बीज को लगभग 2 वर्षों से बो रहे हैं। इस बीज से निकलने वाले पेड़ से प्रत्येक बेल में करीब 50 फल तक अर्जित होते हैं। 

संदीप का कहना है, कि आर्का हरित करेले के बीज से निकलने वाला करेला बेहद लंबा एवं तकरीबन 100 ग्राम तक का होता है। करेला की 1 एकड़ भूमि में 50 क्विंटल तक की अच्छी पैदावार इससे अर्जित की जा सकती है।

विशेष बात यह है, कि इस करेला के फल में अत्यधिक बीज नहीं पाए जाते। इस वजह से इसको सब्जी के लिए बड़े शहरों में ज्यादा पसंद किया जाता है। 

किसान का कहना है, कि गर्म वातावरण करेले की खेती के लिए बेहद बेहतरीन माना गया है। खेत में समुचित जल निकासी की समुचित व्यवस्था के साथ इसे बलुई दोमट मृदा में आसानी से किया जा सकता है।

करेले की बुवाई इन दिनों में की जानी चाहिए

करेले की बिजाई करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय बारिश के दिनों में मई-जुलाई का पहला हफ्ता वहीं सर्दियों में जनवरी-फरवरी माना जाता है। 

किसान का कहना है, कि खेत की तैयारी करने के दौरान खेत में गोबर की खाद डालने के पश्चात कल्टीवेटर से कटवा कर उसकी बेहतरीन ढ़ंग से जुताई करके मृदा को भुरभुरा बनाते हुए उसमें पाटा लगवा कर एकसार कर लें। बुआई से पूर्व खेत में नालियां तैयार कर लें। 

साथ ही, इस बात का खास ख्याल रखें कि खेत में जलभराव की स्थिति ना बने मृदा को एकसार बनाते हुए खेत में दोनों ओर की नाली निर्मित की जाती हैं। 

साथ ही, खरपतवार को भी खेत से बाहर निकाल कर आग लगा दी जाती है अथवा उसको गहरी मृदा में दबा दिया जाता है।

करेले की बिजाई इस तरह करें

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि 1 एकड़ भूमि में करेला की बुवाई हेतु तकरीबन 600 ग्राम बीज पर्याप्त होता है। करेले के बीजों की बुवाई करने के लिए 2 से 3 इंच की गहराई पर बोया जाता है। 

साथ ही, नाली से नाली का फासला तकरीबन 2 मीटर और पौधों का फासला करीब 70 सेंटीमीटर होता है। बेल निकलने के पश्चात मचान पर उसे सही ढंग से चढ़ा दिया जाता है। 

करेले की पौध को बिमारियों एवं कीटों से बचाने के लिए किसान विशेषज्ञों से सलाह मशवरा कर के कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं।

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किसान कुल खर्चे का 10 गुना मुनाफा उठा रहे हैं

किसान का कहना है, कि 1 एकड़ खेत में तकरीबन ₹30000 तक की लागत आसानी से आ जाती है। साथ ही, किसान को बेहतरीन मुनाफे के साथ करीब ₹300000 प्रति एकड़ का लाभ होता है। 

हरदोई के जिला उद्यान अधिकारी सुरेश कुमार का कहना है, कि जनपद में किसान करेले की खेती से काफी मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। किसानों को खेती के संबंध में समयानुसार उपयोगी जानकारी दी जा रही है। 

इसके साथ ही किसानों को अच्छे बीज एवं अनुदान भी प्रदान किए जा रहे हैं। किसानों के खेत में पहुँचकर किसानों की फसलों का निरीक्षण भी किया जा रहा है, इससे उनको अच्छे खरपतवार एवं कीट नियंत्रण से जुड़ी जानकारी प्रदान की जा रही है। 

हरदोई की जिला उद्यान अधिकारी सुरेश कुमार ने बताया कि हरदोई का करेला लखनऊ, कानपुर, शाहजहांपुर के अतिरिक्त दिल्ली, मध्य प्रदेश व बिहार तक पहुँच रहा है। इससे किसान को उसकी करेले की फसल का समुचित भाव अर्जित हो रहा है।

करेले बोने की इस शानदार विधि से किसान कर रहा लाखों का मुनाफा

करेले बोने की इस शानदार विधि से किसान कर रहा लाखों का मुनाफा

आजकल हर क्षेत्र में काफी आधुनिकीकरण देखने को मिला है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए करेला की खेती बेहद शानदार सिद्ध हो सकती है। 

दरअसल, जो करेला की खेती से प्रतिवर्ष 20 से 25 लाख रुपये की शानदार आमदनी कर रहे हैं। हम जिस सफल किसान की हम बात कर रहे हैं, वह उत्तर प्रदेश के कानुपर जनपद के सरसौल ब्लॉक के महुआ गांव के युवा किसान जितेंद्र सिंह है। 

यह पिछले 4 वर्षों से अपने खेत में करेले की उन्नत किस्मों की खेती (Cultivation of Varieties of bitter gourd) करते चले आ रहे हैं।

किसान जितेंद्र सिंह के अनुसार, पहले इनके इलाके के कृषक आवारा और जंगली जानवरों की वजह से अपनी फसलों की सुरक्षा व बचाव नहीं कर पाते हैं। 

क्योंकि, किसान अपने खेत में जिस भी फसलों की खेती करते थे, जानवर उन्हें चट कर जाते थे। ऐसे में युवा किसान जिंतेद्र सिंह ने अपने खेत में करेले की खेती करने के विषय में सोचा। क्योंकि, करेला खाने में काफी कड़वा होता है, जिसके कारण जानवर इसे नहीं खाते हैं।

करेला की खेती से संबंधित कुछ विशेष बातें इस प्रकार हैं ?  

किसानों के लिए करेला की खेती (Bitter Gourd Cultivation) से अच्छा मुनाफा पाने के लिए इसकी खेती जायद और खरीफ सीजन में करें। साथ ही, इसकी खेती के लिए बलुई दोमट या दोमट मिट्टी उपयुक्त मानी जाती है।

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किसान करेले की बुवाई (Sowing of Bitter Gourd) को दो सुगम तरीकों से कर सकते हैं। एक तो सीधे बीज के माध्यम से और दूसरा नर्सरी विधि के माध्यम से किसान करेले की बिजाई कर सकते हैं। 

गर आप करेले की खेती (Karele ki kheti) नदियों के किनारे वाले जमीन के हिस्से पर करते हैं, तो आप करेल की अच्छी पैदावार प्राप्त कर सकते हैं।

करेले की उन्नत किस्में इस प्रकार हैं ?

करेले की खेती से शानदार उपज हांसिल करने के लिए कृषकों को करेले की उन्नत किस्मों (Varieties of Bitter Gourd) को खेत में रोपना चाहिए। वैसे तो बाजार में करेले की विभिन्न किस्में उपलब्ध हैं। 

परंतु, आज हम कुछ विशेष किस्मों के बारे में बताऐंगे, जैसे कि- हिसार सलेक्शन, कोयम्बटूर लौंग, अर्का हरित, पूसा हाइब्रिड-2, पूसा औषधि, पूसा दो मौसमी, पंजाब करेला-1, पंजाब-14, सोलन हरा और सोलन सफ़ेद, प्रिया को-1, एस डी यू- 1, कल्याणपुर सोना, पूसा शंकर-1, कल्याणपुर बारहमासी, काशी सुफल, काशी उर्वशी पूसा विशेष आदि करेला की उन्नत किस्में हैं। 

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किसान किस विधि से करेले की खेती कर रहा है ?

युवा किसान जितेंद्र सिंह अपने खेत में करेले की खेती ‘मचान विधि’ (Scaffolding Method) से करते हैं। इससे उन्हें काफी अधिक उत्पादन मिलती है। 

करेले के पौधे को मचान बनाकर उस पर चढ़ा देते हैं, जिससे बेल निरंतर विकास करती जाती है और मचान के तारों पर फैल जाती है। उन्होंने बताया कि उन्होंने खेत में मचान बनाने के लिए तार और लकड़ी अथवा बांस का इस्तेमाल किया जाता है। 

यह मचान काफी ऊंचा होता है। तुड़ाई के दौरान इसमें से बड़ी ही सुगमता से गुजरा जा सकता है। करेले की बेलें जितनी अधिक फैलती हैं उससे उतनी ही अधिक उपज हांसिल होती है। 

वे बीघा भर जमीन से से ही 50 क्विंटल तक उत्पादन उठा लेते हैं। उनका कहना है, कि मचान बनाने से न तो करेले के पौधे में गलन लगती है और ना ही बेलों को क्षति पहुँचती है।

करेले की खेती से कितनी आय की जा सकती है ?

करेले की खेती से काफी शानदार उत्पादन करने के लिए किसान को इसकी उन्नत किस्मों की खेती करनी चाहिए। जैसे कि उपरोक्त में बताया गया है, कि युवा किसान जितेंद्र सिंह पहले अपने खेत में कद्दू, लौकी और मिर्ची की खेती किया करते थे, 

जिसे निराश्रित पशु ज्यादा क्षति पहुंचाते थे। इसलिए उन्होंने करेले की खेती करने का निर्णय लिया है। वहीं, आज के समय में किसान जितेंद्र 15 एकड़ में करेले की खेती कर रहे हैं और शानदार मुनाफा उठा रहे हैं। 

जितेंद्र के मुताबिक, उनका करेला सामान्य तौर पर 20 से 25 रुपये किलो के भाव पर आसानी से बिक जाता है। साथ ही, बहुत बार करेला 30 रुपये किलो के हिसाब से भी बिक जाता है। अधिकांश व्यापारी खेत से ही करेला खरीदकर ले जाते हैं। 

उन्होंने यह भी बताया कि एक एकड़ खेत में बीज, उर्वरक, मचान तैयार करने के साथ-साथ अन्य कार्यों में 40 हजार रुपये की लागत आती है। वहीं, इससे उन्हें 1.5 लाख रूपये की आमदनी सरलता से हो जाती है। 

जितेंद्र सिंह तकरीबन 15 एकड़ में खेती करते हैं। ऐसे में यदि हिसाब-किताब लगाया जाए, तो वह एक सीजन में करेले की खेती से तकरीबन 15-20 लाख रुपये की आय कर लेते हैं। 

ग्रीष्मकालीन करेले की उन्नत किस्मों की जानकारी

ग्रीष्मकालीन करेले की उन्नत किस्मों की जानकारी

किसान अधिक मुनाफा पाने के लिए अपने खेत में सीजन के अनुसार फसल को उगाते हैं। ज्यादातर यह देखा गया है, कि गर्मियों के मौसम में बाजार में सब्जियों की मांग काफी अधिक बढ़ जाती है। 

क्योंकि, गर्मियों का सीजन ऐसा होता है कि इसमें सब्जियों की आवक बहुत कम हो जाती है, जिसका असर बाजार में देखने को मिलता है। मंडियों में सब्जियों के भाव काफी ज्यादा हो जाते हैं। 

ऐसी स्थिति में किसान अपने खेत में सब्जियों की खेती कर शानदार मुनाफा कमा सकते हैं। इसके लिए वह अपने खेत में टिंडा, खीरा, ककड़ी, करेले, भिंडी, तोरई और घीया की खेती कर सकते हैं। 

किसान भाइयों के लिए करेले की खेती सबसे लाभदायक खेती में से एक है। क्योंकि, इसकी खेती को एक साल में दो बार आसानी से किया जा सकता है।

करेले को अन्य और क्या नाम से जाना जाता है ? 

करेला अपने कड़वेपन और कुदरती गुणों की वजह से बाजार में जाना जाता है। बतादें, कि यह सब्जी सेहत के लिए भी लाभकारी सब्जियों में से एक है। 

भारत में इसे अलग-अलग नामों से जाना-पहचाना जाता है, जैसे कि- कारवेल्लक कारवेल्लिका करेल करेली तथा करेला आदि लेकिन इनमें से करेला नाम सर्वाधिक लोकप्रिय है।

करेले की खेती के लिए किस विधि का इस्तेमाल करें ? 

करेले की खेती के लिए जाल विधि सबसे उत्तम मानी जाती है, क्योंकि इसकी विधि से करेले की फसल से अधिक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं। किसान इस विधि में अपने पूरे खेत में जाल बनाकर करेले की बेल को फैला देता है। 

इस विधि से फसल पशुओं के द्वारा नष्ट नहीं होती है और साथ ही बेल वाली सब्जी होने के कारण यह जाल में अच्छे से फैल जाती है। 

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इस विधि की सबसे शानदार बात यह है, कि किसान इसे नीचे क्यारियों के खाली स्थानों पर धनिया और मैथी जैसी अतिरिक्त सब्जियों को उगा सकते हैं।

ग्रीनहाउस और पॉली हाउस विधि से क्या लाभ होगा ?

ग्रीनहाउस और पॉली हाउस दोनों विधियों के माध्यम से किसान किसी भी समय अपने खेत में करेले की खेती से मुनाफा प्राप्त हांसिल कर सकते हैं। 

यदि देखा जाए तो आज के वक्त में ऐसी नवीन प्रजातियां भी बाजार में उपस्थित हैं, जिनको किसान सर्दी गर्मी और बारिश हर तरह के मौसम में उगा सकते हैं।

करेला की प्रमुख उन्नत किस्में कौन-सी हैं ?

आपकी जानकारी के लिए बतादें, कि फैजाबाद स्माल, सुपर कटाई, सफेद लांग, ऑल सीजन, जोनपुरी, झलारी, हिरकारी, भाग्य सुरूचि, मेघा – एफ 1, वरून – 1 पूनम, तीजारावी, अमन नं.- 24, नन्हा क्र.- 13, पूसा संकर 1, पी.वी.आई.जी. 1, आर.एच.बी.बी.जी. 4, के.बी.जी.16, फैजाबादी बारह मासी, अर्का हरित, पूसा 2 मौसमी कोयम्बटूर लौंग, सी 16, पूसा विशेष, कल्याणपुर बारह मासी, हिसार सेलेक्शन आदि करेले की प्रमुख किस्में हैं।

करेले की खेती के लिए भूमि की तैयारी 

किसान भाई करेले की बेहतरीन उपज हांसिल करने के लिए इसकी खेती बलुई दोमट मृदा में करनी चाहिए। इसके साथ ही बेहतर जल निकासी वाली जमीन का चयन करें। 

इस बात का भी खास ख्याल रखें कि खेत में जलभराव वाली परिस्थिति ना बनने पाए। ऐसा करने से करेले की खेती को सबसे ज्यादा हानि पहुंचती है। 

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करेले की खेती में बीज बुवाई का भी विशेष ध्यान रखें। इसके लिए खेत में बीजों को 2 से 3 इंच गहराई पर ही बोएं। साथ ही, नालियों की दूरी करीब 2 मीटर व पौधों की दूरी 70 सेंटीमीटर तक रखें।

करेले की खेती में लागत और मुनाफा कितना है ?

अगर आप अपने खेत के 1 एकड़ में करेले की खेती करना शुरू करते हैं तो आपको करीबन 30 हजार रुपए तक खर्च करने पड़ेंगे। 

खेत में ऊपर बताई गई तकनीकों का इस्तेमाल करें तो आप प्रति एकड़ लगभग 3 लाख रुपए तक का मुनाफा प्राप्त कर सकते हैं। आप अपनी लागत से 10 गुना ज्यादा मुनाफा प्राप्त कर सकते हैं।

करेले की खेती करने का सही तरीका जानें

करेले की खेती करने का सही तरीका जानें

किसान करेले की खेती कर तगड़ा मुनाफा कमा सकते है, जानिये किस प्रकार करें करेले की खेती। सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने के अलावा सब्जियों और फलों की खेती पर भी अधिक जोर दिया जा रहा है। 

किसानों की आय बढ़ाने हेतु सरकार द्वारा किसानों को खेती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। ताकि किसान खेती कर मुनाफा कमा सके और कृषि क्षेत्र का विकास किया जा सके। 

करेले के उत्पादन के लिए किस प्रकार की मिट्टी होनी चाहिए ?

करेले की खेती के लिए उपजाऊ मिट्टी की आवश्यकता होती है, इसके लिए बलुई दोमट मिट्टी को बेहतर माना जाता है। करेले की अधिक उपज के लिए अच्छे जल निकास वाली भूमि होनी चाहिए। 

इस मिट्टी के अलावा नदी किनारे की जलोढ़ मिट्टी को भी बेहतर माना जाता है। किसान उपाऊ मिट्टी में करेले की खेती करके अच्छा मुनाफा कमा सकता है। 

करेले के उत्पादन के लिए उचित तापमान 

करेले की खेती के लिए ज्यादा तापमान की आवश्यकता नहीं रहती है। करेले के बेहतर उत्पादन के लिए नमी का होना आवश्यक है। 

करेले की खेती के लिए उचित तापमान 20 से 40 डिग्री सेंटीग्रेट होना चाहिए। करेले का उत्पादन नमी वाली भूमि में अक्सर बेहतर होता है। 

करेले की उन्नत किस्में 

किसान बेहतर और अधिक उत्पादन के लिए करेले की इन किस्मों का चयन कर सकते है। करेले की उन्नत किस्मों में सम्मिलित है, पूसा औषधि, अर्का हरित, पूसा हाइब्रिड-2, हिसार सलेक्शन, कोयम्बटूर लौंग, बारहमासी, पूसा विशेष, पंजाब करेला-1, पूसा दो मौसमी, सोलन सफ़ेद, सोलन हरा, एस डी यू- 1, प्रिया को-1, कल्याणपुर सोना और पूसा शंकर-1। 

करेले की बुवाई का उचित समय 

करेले की बुवाई क्षेत्रों के अनुसार अलग अलग समय पर की जाती है। मैदानी क्षेत्रों में करेले की बुवाई जून से जुलाई के बीच में की जाती है। 

ऐसे ही गर्मी के मौसम में करेले की बुवाई जनवरी से मार्च के बीच में की जाती है और जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी बुवाई मार्च से जून के बीच तक की जाती है। 

करेले की बुवाई का तरीका जानें 

करेले के बीजो की बुवाई का सही तरीका इस प्रकार है। करेले के बीजो की बुवाई दो प्रकार से की जा सकती है एक तो बीजो को सीधा खेत में बो कर और दूसरा करेले की नर्सरी तैयार करके भी करेले की बुवाई की जा सकती है। 

  1. करेले की बुवाई से पहले खेत की अच्छे से जुताई कर ले। खेत की जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाकर खेत को समतल बना ले। 
  2. खेत में बनाई गई प्रत्येक क्यारी 2 फ़ीट की दूरी पर होनी चाहिए। 
  3. क्यारियों में बेजो की रोपाई करते वक्त बीज से बीज की दूरी 1 से 1.5 मीटर होनी चाहिए। 
  4. करेले के बीज को बोते समय , बीज को  2 से 2 .5 सेमी गहरायी पर बोना चाहिए। 
  5. बुवाई के एक दिन पहले बीज को पानी में भिगोकर रखे उसके बाद बीज को अच्छे से सूखा लेने के बाद उसकी बुवाई करनी चाहिए। 

करेले के खेत में सिंचाई कब करें 

करेले की खेती में वैसे सिंचाई की कम ही आवश्यकता होती है। करेले के खेत में समय समय पर हल्की सिंचाई करें और खेत में नमी का स्तर बने रहने दे। 

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जिस खेत में करेले की बुवाई का कार्य किया गया है वह अच्छे जल निकास वाली होनी चाहिए।  खेत में पानी का ठहराव नहीं होना चाहिए। खेत में पानी के रुकने से फसल खराब भी हो सकती है। 

करेले की फसल में कब करें नराई - गुड़ाई 

खेत में निराई गुड़ाई की आवश्यकता शुरुआत में होती है। करेले की फसल में खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए समय समय पर नराई गुड़ाई करनी चाहिए। 

फसल में पहला पानी लगने के बाद खेत में अनावश्यक पौधे उगने लगते है जो फसल की उर्वरकता को कम कर देते है। ऐसे में समय पर ही खेत में से खरपतवार को उखाड़ कर खेत से दूर फेंक देना चाहिए। 

करेले की फसल कितने दिन में तैयार हो जाती है 

करेले की फसल को तैयार होने में ज्यादा समय नहीं लगता है। करेले की फसल बुवाई के 60 से 70 दिन बाद ही पककर तैयार हो जाती है। 

करेले के फल की तुड़ाई सुबह के वक्त करें, फलों को तोड़ते वक्त याद रहे डंठल की लम्बाई 2 सेंटीमीटर से अधिक होनी चाहिए इससे फल लम्बे समय तक ताजा बना रहता है।

जायद में खीरे की इन टॉप पांच किस्मों की खेती से मिलेगा अच्छा मुनाफा

जायद में खीरे की इन टॉप पांच किस्मों की खेती से मिलेगा अच्छा मुनाफा

किसान भाइयों अब जायद का सीजन आने वाला है। किसान अनाज, दलहन, तिलहन फसलों की खेती की जगह कम वक्त में पकने वाली सब्जियों की खेती से भी अच्छी आमदनी कर सकते हैं।

सब्जी की खेती की मुख्य बात यह है, कि इसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। दीर्घकालीन फसलों की तुलना में किसान सब्जी की खेती से मोटा मुनाफा उठा सकते हैं। 

वर्तमान में बहुत सारे किसान परंपरागत फसलों के साथ ही सब्जियों की खेती कर अपनी आय बढ़ा रहे हैं। अब ऐसी स्थिति में आप भी फरवरी-मार्च के जायद सीजन में खीरे की खेती करके काफी ज्यादा मुनाफा अर्जित कर सकते हैं।

खीरे की बाजार मांग काफी अच्छी है और इसके भाव भी बाजार में काफी अच्छे मिल जाते हैं। अगर खीरे की उन्नत किस्मों का उत्पादन किया जाए तो इस फसल से काफी शानदार लाभ हांसिल किया जा सकता है।

खीरे की स्वर्ण पूर्णिमा किस्म 

खीरे की स्वर्ण पूर्णिमा किस्म की विशेषता यह है, कि इस प्रजाति के फल लंबे, सीधे, हल्के हरे और ठोस होते हैं। खीरे की यह प्रजाति मध्यम अवधि में तैयार हो जाती है। 

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इसकी बुवाई के लगभग 45 से 50 दिन में इसकी फसल पककर तैयार हो जाती है। किसान इसके फलों की आसानी से तुड़ाई कर सकते हैं। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 200 से 225 क्विंटल तक उपज अर्जित की जा सकती है।

खीरे की पूसा संयोग किस्म 

यह खीरे की हाइब्रिड किस्म है। इसके फल करीब 22 से 30 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। इसका रंग हरा होता है। इसमें पीले कांटे भी पाए जाते हैं। इनका गुदा कुरकुरा होता है। खीरे की यह किस्म करीब 50 दिन में तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। इस किस्म की खेती से प्रति हैक्टेयर 200 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

पंत संकर खीरा- 1 किस्म 

यह खीरे की संकर किस्म है। इसके फल मध्यम आकार के होते हैं। इसके फलों की लंबाई तकरीबन 20 सेंटीमीटर की होती है ओर इसका रंग हरा होता है। यह किस्म बुवाई के लगभग 50 दिन उपरांत ही तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है। खीरे की इस प्रजाति से प्रति हैक्टेयर 300 से 350 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

खीरे की स्वर्ण शीतल किस्म 

खीरे की इस प्रजाति के फल मध्यम आकार के होते हैं। इनका रंग हरा और फल ठोस होता है। इस किस्म से प्रति हैक्टेयर 300 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है। खीरे की यह किस्म चूर्णी फफूंदी और श्याम वर्ण रोग के प्रति अत्यंत सहनशील मानी जाती है।

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खीरे की स्वर्ण पूर्णा किस्म 

यह किस्म मध्यम आकार की किस्म है। इसके फल ठोस होते हैं। इस किस्म की खास बात यह है, कि यह किस्म चूर्णी फफूंदी रोग की प्रतिरोधक क्षमता रखती है। इसकी खेती से प्रति हैक्टेयर 350 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

खीरे की उन्नत किस्मों की बुवाई की प्रक्रिया 

खीरे की उन्नत किस्मों को बुवाई के लिए कार्य में लेना चाहिए। इसके बीजों की बुवाई से पूर्व इन्हें उपचारित कर लेना चाहिए, जिससे कि फसल में कीट-रोग का संक्रमण ना हो। 

बीजों को उपचारित करने के लिए बीज को चौड़े मुंह वाले मटका में लेना चाहिए। इसमें 2.5 ग्राम थाइरम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाकर घोल बना लें। अब इस घोल से बीजों को उपचारित करें। 

इसके बाद बीजों को छाया में सूखने के लिए रख दें, जब बीज सूख जाए तब इसकी बुवाई करें। खीरे के बीजों की बुवाई थाला के चारों ओर 2-4 बीज 2 से 3 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए। 

इसके अलावा नाली विधि से भी खीरे की बुवाई की जा सकती है। इसमें खीरे के बीजों की बुवाई के लिए 60 सेंटीमीटर चौड़ी नालियां बनाई जाती है। इसके किनारे पर खीरे के बीजों की बुवाई की जाती है। 

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दो नालियों के बीच में 2.5 सेंटीमीटर की दूरी रखी जाती है। इसके अलावा एक बेल से दूसरे बेल के नीचे की दूरी 60 सेमी रखी जाती है। ग्रीष्म ऋतु की फसल के लिए बीजों की बुवाई व बीजों को उपचारित करने से पहले उन्हें 12 घंटे पानी में भिगोकर रखना चाहिए। 

इसके बाद बीजों को दवा से उपचारित करने के बाद इसकी बुवाई करनी चाहिए। बीज की कतार से कतार की दूरी 1 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 50 सेमी रखनी चाहिए। 

किसान खीरे की खेती से कितना कमा सकते हैं ?  

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, एक एकड़ जमीन में खीरे की खेती करके 400 क्विंटल तक उपज प्राप्त की जा सकती है। सामान्य तौर पर बाजार में खीरे का भाव 20 से 40 रुपए प्रति किलोग्राम के मध्य होता है। 

ऐसे में खीरे की खेती से एक सीजन में तकरीबन प्रति एकड़ 20 से 25 हजार की लागत लगाकर इससे तकरीबन 80 से एक लाख रुपए तक की आमदनी आसानी से की जा सकती है।