किसान भाइयों को अपने खेती से अधिक मुनाफा कमाने के लिए पारंपरिक तौर तरीकों को छोड़कर लाभकारी फसलों की तरफ ध्यान देना जरूरी है। आज हम एक ऐसी ही फसल के बारे में बात करने वाले हैं।
दरअसल, हम बात करेंगे विभिन्न कार्यों में उपयोग होने वाली खस की खेती के विषय में। हमारे देश के अंदर गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसकी सर्वाधिक खेती की जा रही है।
खस के तेल से महंगे इत्र, सौन्दर्य प्रसाधन की वस्तुएं, दवाएं, गर्मियों में बिछाने के लिए चटाइयां, कूलर की खस, खिडकियों के पर्दें, हस्तशिल्प की वस्तुएं निर्मित की जाती हैं।
यह अपनी इन्हीं सब उपयोगिताओं की वजह से काफी ज्यादा महंगा बिकता है। इसकी कीमत 30000 रुपए लीटर से 60000 रुपए लीटर के बीच होती है।
जानकारी के लिए बतादें, कि आमतौर पर खस की कई किस्में हैं। लेकिन, उत्तम श्रेणी में हाइब्रिड-16, सीमैप के एस, पूसा हाइब्रिड-8 सुगंध आदि को रखा गया है, जिनसे अधिक मात्रा में तेल निकाला जा सकता है।
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खस को वेटीवर भी कहा जाता है। इसकी प्रवृत्ति काफी कड़ी होती है। इसकी वजह से यह नदी नालों के पास पाई जाती है।
इसकी खेती के लिए किसी विशेष मिट्टी की जरूरत नहीं होती। बंजर भूमि में भी फसल उग जाती है।
खस की बुवाई नवंबर से फरवरी महीने तक की जा सकती है। वैसे तो इसकी खेती के लिए कोई विशेष तैयारी करने की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु, अगर खेत में काफी झाड़ियाँ या घास है, तो उनकी सफाई करनी बेहद आवश्यक है।
खेत को साफ करने के बाद अच्छी फसल के लिए दो तीन बार जुताई भी कर देनी चाहिए। आखिरी बार जुताई करने से पहले खेत में 5 टन गोबर से निर्मित खाद के साथ प्रति एकड़ के हिसाब से 16-16 किलोग्राम नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फोरस डाल देना चाहिए।
खस की बुवाई के लिए सर्व प्रथम स्लीपर्स का निर्माण किया जाता है। पामारोजा घास या अन्य घासों के जैसे ही इनकी बुवाई भी स्लिप्स के माध्यम से की जाती है।
कम उपजाऊ या हल्की मिट्टी वाले इलाकों पर इन्हें 30x30 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाया जाना चाहिए। वहीं, ज्यादा उपजाऊ जमीन में 60x60 सेंटीमीटर की दूरी पर फसल लगाईं जानी चाहिए।
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जानकारी के लिए बतादें, कि खस को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु, गर्मियों के दिनों में खेत में नमी बरकरार रखने के लिए सिंचाई की जा सकती है।
इस फसल के लिए हल्की सिंचाई ही सबसे अच्छी होती है।
खस की जड़ें काफी ज्यादा सुगंधित होती है। इसीलिए इसको मवेशियों से कोई खतरा नहीं रहता है। वहीँ, रोग की बात करें तो इन्हें कोई खास बीमारी नहीं लगती।
बस कभी-कभी जड़ों में दीमक या कीटों का संकट हो सकता है, जिससे बचने के लिए कृषि विशेषज्ञों से दवाई पूछकर छिडकाव कर सकते हैं।
फसल लगाने के 18 से 24 महीने के बाद जड़ों की खुदाई की जा सकती है। लेकिन इसके पहले तनों की कटाई की जानी चाहिए, ताकि पौधा की और अच्छी प्रकार से वृद्धि कर सके।
काटें हुए तनों का उपयोग जानवरों के चारे के रूप में अथवा इंधन के रूप में किया जा सकता है। खुदाई नवंबर से फरवरी के महीने में की जाती है।
ठण्ड के मौसम में खुदाई करना काफी अच्छा माना जाता है, ताकि अच्छी गुणवत्ता वाला तेल मिल सके।
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जड़ों को काटकर पिपरमिंट के जैसे पिरोकर उनसे तेल निकाला जाता है। इसके बाद कटी हुई जड़ों को आसवन विधि से जलाकर भी तेल निकाला जाता है।
यह तेल अधिक शुद्ध होता है, इसीलिए इसकी कीमत भी अच्छी होती है। जड़ों की पिराई के समय भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
जड़ें एक दो दिन पुरानी हो तो उन्हें पानी में भिगोकर रखें, जिसके बाद आसवन विधि से तेल निकालें।