कुक्कुट पालन मौर्य साम्राज्य का एक बड़ा उद्योग था। 19वीं शताब्दी से ही इसे वाणिज्यिक उद्योग माना जाता था। विभिन्न प्रकार की मुर्गियों की नस्लों का पालन करके कुक्कुट के अंडे और चिकन बनाए जाते हैं।
मुर्गी पालन भी किसानों को फसलों के विविधिकरण और मिश्रित खेती में फायदेमंद है। यदि मुर्गियों में बीमारी नहीं आती हैं और मुर्गियों का अच्छा मूल्य मिलता है तो यह व्यवसाय परिवार के पालन-पोषण में काफी मदद कर सकता है।
अगर आप भी मुर्गी पालन करने के बारे में सोच रहे हैं और मुर्गियों की नस्लों के बारे में पता करना चाहते हैं तो आप सही जगह आए हैं इस लेख में हम आपको मुर्गियों की प्रमुख नस्लों के बारे में जानकारी देंगे जिससे की आपको नस्ल का सही से ज्ञान होगा।
भारत में कई प्रकार की मुर्गियों की नस्लों का पालन किया जाता हैं, इन मुर्गियों की नस्लों से जुडी सम्पूर्ण जानकारी निम्नलिखित दी गई हैं:
कड़कनाथ नस्ल का मूल नाम "कलामासी" है, जिसका मतलब "काले मांस वाला पक्षी" है। यह नस्ल मुख्य रूप से मध्य प्रदेश में पाई जाती है।
इसका मांस अन्य नस्लों की तुलना में अधिक प्रोटीन युक्त होता है और औषधि निर्माण में भी उपयोग किया जाता है।
कड़कनाथ मुर्गियां प्रति वर्ष लगभग 80 अंडे देती हैं। इस नस्ल की प्रमुख किस्में जेट ब्लैक, पेंसिल्ड और गोल्डन हैं।
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यह नस्ल राजस्थान, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है। भारत के बाहर, ईरान में भी इसे अलग नाम से जाना जाता है। इसका मांस बहुत ही उत्तम होता है।
इस नस्ल के मुर्गे विवादास्पद स्वभाव के कारण लड़ाई के लिए उपयोग किए जाते हैं। इनका वजन 3 से 4 किलोग्राम तक होता है।
इनके शरीर पर चमकदार पंख और लंबे पैर होते हैं। हालांकि, इस नस्ल की मुर्गियां अंडे नहीं देती हैं।
ग्रामप्रिया नस्ल को भारत सरकार ने हैदराबाद स्थित अनुसंधान परियोजना के तहत विकसित किया है। इसे विशेष रूप से ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों के लिए बनाया गया है।
12 सप्ताह में इनका वजन 1.5 से 2 किलोग्राम तक हो जाता है। यह नस्ल प्रति वर्ष 210–225 अंडे देती है। इनके अंडे भूरे रंग के होते हैं और वजन 57 से 60 ग्राम तक होता है।
स्वरनाथ नस्ल को कर्नाटक पशु चिकित्सा और मत्स्य विज्ञान विश्वविद्यालय, बंगलुरु ने विकसित किया है। इसे घर के पीछे पाला जा सकता है।
ये 22-23 सप्ताह में पूरी तरह परिपक्व हो जाती हैं और इनका वजन 3-4 किलोग्राम होता है। यह नस्ल प्रति वर्ष 180-190 अंडे देती है।
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झारसीम नस्ल झारखंड की दोहरे उद्देश्य वाली मूल नस्ल है। इसका नाम स्थानीय भाषा से लिया गया है। यह कम पोषण में भी जीवित रहती है और तेज़ी से बढ़ती है।
यह नस्ल 180 दिनों में पहला अंडा देती है और प्रति वर्ष 165-170 अंडे देती है। अंडे का वजन लगभग 55 ग्राम होता है। पूरी तरह परिपक्व होने पर इस नस्ल का वजन 1.5-2 किलोग्राम तक होता है।
कामरूप नस्ल को ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ने असम में विकसित किया है। यह नस्ल तीन अन्य नस्लों – असम लोकल (25%), रंगीन ब्रोइलर (25%), और ढेलम लाल (50%) के क्रॉस से बनी है।
40 सप्ताह में इसके नर का वजन 1.8-2.2 किलोग्राम तक होता है। यह नस्ल प्रति वर्ष 118-130 अंडे देती है, जिनका वजन लगभग 52 ग्राम होता है।
चिटगोंग नस्ल को मलय चिकन भी कहा जाता है। यह नस्ल अपने लंबे पैर और गर्दन के लिए जानी जाती है।
इसके मुर्गे का वजन 4.5-5 किलोग्राम तक और ऊंचाई 2.5 फीट तक होती है। यह नस्ल प्रति वर्ष 70-120 अंडे दे सकती है।
केरी श्यामा नस्ल कड़कनाथ और कैरी लाल का क्रॉस है। इसके गहरे रंग के कारण जनजातीय समुदाय इसे औषधीय उपयोग में प्राथमिकता देते हैं।
यह मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में पाई जाती है। यह नस्ल 24 सप्ताह में परिपक्व हो जाती है।
मादा का वजन 1.2 किलोग्राम और नर का 1.5 किलोग्राम तक होता है। यह नस्ल प्रति वर्ष लगभग 85 अंडे देती है।
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झारसीम नस्ल झारखंड की दोहरे उद्देश्य वाली मूल नस्ल है। इसका नाम स्थानीय भाषा से लिया गया है। यह कम पोषण में भी जीवित रहती है और तेज़ी से बढ़ती है।
यह नस्ल 180 दिनों में पहला अंडा देती है और प्रति वर्ष 165-170 अंडे देती है। अंडे का वजन लगभग 55 ग्राम होता है। पूरी तरह परिपक्व होने पर इस नस्ल का वजन 1.5-2 किलोग्राम तक होता है।