एक रिक्शा चलाने वाले ने परिवार के लिए जरूरी दूध लेना बंद कर दिया। कारण यह है कि उसके पास कमाई का दूसरा जरिया नहीं है। अब उसके पास काम नहीं रहा। घर का खर्चा उसके नाबालिग बेटे द्वारा किराना की दुकान पर काम करने के एवज में मिलने वाली पांच हजार की पगार से चल रहा है। अनेक दिहाड़ी मजदूर इसी तरह के हालात से जूझ रहे हैं। नोटबंदी के बाद से अस्थिर अर्थव्यवस्था के बिगड़ने की वजह कोरोनावायरस बन गया वहीं कोरोना को फैलाने की वजह जमाती।
अब राशन वितरण और 500 रुपए के लिए बैंकों के बाहर भीड़ जमा होने लगी है। अब 70 के दशक का वह दौर नहीं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की अन्न संकट से उवरने के लिए एक समय निराहार रहने की अपील पर पूरा देश एकजुट हो गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपील पर भी पूरा जन समर्थन मिला लेकिन अब केवल राशन और थोड़ी सी धनराशि से काम नहीं चलने वाला। तकरीबन हर बालिग के हाथ में मोबाइल है।
ज्यादातर घरों में टीवी है। बाइक से भी बेहद कम परिवार अछूते हैं। बगैर काम धाम के बाकी की जरूरतों को पूरा करना बेहद गंभीर हो गया है। हर दिन कमाने खाने वाले आटो, रिक्सा चालक, दिहाड़ी मजदूर और फसलों की बेकदरी झेल रहे किसान लॉकडाउन के दौर में बेहद परेशान हैं। देश की अर्थव्यवस्था को लम्बे समय से नजर लग गई है। सरकार इसे काबू करने मेें नाकाम ही साबित हुई है।
भारत कृषि प्रधान देश है। परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से करीब 80 फीसदी लोग खेती से जुड़े हैं। लॉकडाउन के दौरान भी किसान और खेती का कोरोबार अनेक लोगों के घरों में चूल्हे जल रहे हैं। अनेक लोगों ने गेहूं की कटाई कर साल भर के लिए अन्न का जुगाड़ बना लिया। वहीं कई लोगों ने को भूसा, ढुलाई जैसे काम करके रोजगार मिला। हर घर तक सब्जी, फल, दूध जैसी जरूरी चीजें भी किसान ही उगाते या देते हैं। इन सभी चीजों का प्रचुर उत्पादन किसान कर रहे हैं। कई जगहों पर तो उन्हें इनकी उचित कीमत भी नहीं मिल पा रही है।