आलू मोटी लागत और कमाई वाली फसल है। अच्छी उपज के लिए किसानों को सर्व प्रथम जिस जमीन में आलू लगाना है उसमें खेत की तैयारी के समय गोबर की कम्पोस्ट खाद मिला लेनी चाहिए। यह काम भी बुबाई से कमसे कम 15 दिन पूर्व करें। यदि संभव होतो खाद को मिलाकर खेत में सिंचाई कर दें। उर्वरकों का प्रयोग मृदा जांच के आधार पर करने से लागात को काफी कम किया जा सकता है और मुनाफे को बढ़ाया जा सकता है। आलू में चूंकि कंद बनते हैं, लिहाजा बलुई दोमट मिट्टी में कंद का विकास ठीक होता है। जुताई एवं पाटा लगाने का काम सतत रूप से करने से मिट्टी भुरभुरी हो जाएगी।
आलू की अच्छी पैरावार के लिए उर्वरक संस्तुत मात्रा में ही डालें। यदि मृदा परीक्षण नहीं कराया है तो 180 किलोग्राम नत्रजन, 80 किलोग्राम फास्फोरस, 100 किलोग्राम पोटास, 15 किलोग्राम शूूक्ष्म पोषक तत्व एवं 10 किलोग्राम जिंक सल्फेट को जुताई में मिला दें। जिंक और फास्फोरस को एक साथ न डालें अन्यथा कीमती फास्फोरस बेकार हो जाएगा।
अगेती फसल की बिजाई 15 सितंबर के आसपास हो जाती है लेकिन समय से बिजाई के लिए 15 अक्टूर से माह के अंत तक बुवाई हो सकती है। बुवाई में जल्दबाजी या देरी भी उत्पादन को प्रभावित करती है। बीज दर 40 से 50 ग्राम वजन, ज्यादा आंखों वाले अधिकतम 4 सेण्टीमीटर आकार वाले आलू को बीज के लिए प्रयोग में लाया जाता है। एक हैक्टेयर के लिए 30 से 35 कुंतल बीज की जरूरत होती है।
आलू के लिए आलू को ही बीज के रूप में बोने की परंपरा चली आ रही है लेकिन टीपीएस यानी टू्र पोटेटो सीड से भी आलू लगाया जा सकता है। इस विधि में बेहद बारीक बीज की नर्सरी डालकर पौध तैयार होती है। बाद में इसे रोपा जाता है। आलू के झौरों पर सीधे बीज बुवान करके भी आलू के भारी भरकम बीज के लदान आदि से बचा जा सकता है। साथ ही नर्सरी जनित रोगों का आसानी से नियंत्रण हो सकता है लेकिन इस दिशा में काम आगे नहीं बढ़ पाया है। बीजोपचार आलू में कई तरह के रोगों का संक्रमण होता है। फसल को इससे बचाने के लिए किसानों को चाहिए कि वह बीज विश्वसनीय स्थान से खरीदें। इसके अलावा बीज को कोल्ड से लाने के बाद कमसे कम सात दिन छांव में रखें। इसके बाद उसे पक्के फर्श पर फैलाकर स्प्रेे मशीन से दो से तीन बार आलू को पलट पलट कर किसी अच्छे फफूंदी नाशक का छिड़काव पानी में घोलकर करें। हर दवा के पैकिट पर प्रयोग की विधि एवं मात्रा लिखी होती है। कार्बन्डाजिम, बाबस्टीन जैसे रसायनों की अलग अलग मात्रा प्रयोग में लाई जाती है लिहाजा जो दवा प्रयोग में लाई जा रही है उसे उसी अनुपात में घोल बनाकर प्रयोग किया जाए। बुवाई के लिए आधुनिक मशीनें ही हर जगह प्रयोग में लाई जा रही हैं। उनमें आलू डालने व कूंड की दूरी एक समान रहती है। आलू लगाते समय यदि खेत में नमी कम है तो बुबाई के दूसरे दिन बेहद हल्की सिंचाई करने से अंकुरण अच्छा होता है। टपक सिंचाई के खेती करते समय कूंडों के बीच का फासला बढ़ाया जाता है ताकि आकार मोटा हो और उत्पादन में इजाफा हो।
आलू में मुख्य काम समय से सिंचाई का होता है। आलू में यदि समय से पानी नहीं लगता तो उत्पादन बेहद कम हो सकता है क्योंकि आल में ज्यादातर पानी ही होता है। पहली सिंचाई 7 से 10 दिन, दूसरी सिंचाई 12 से 15 दिन, तीसरी सिंचाई 22 से 25 दिन बाद शाखाएं बनते समय करें। इसकी समय उर्वरक का बुरकाव करें।
इसके लिए चुनिंदा दवा बाजार में आती हैं। यदि मजदूर मिलने की समस्या न हो तो खुरपी से खरतवारों को निकालने के साथ हल्की मिट्टी चढ़ाने का काम भी साथ के साथ किया जा सकता है।
आलू में कई रोग लगते हैं। इनमें मुुख्य रोग अगेती और पछेती झुलसा रोग होते हंै। झुलसा पत्तियों, डंठलों एवं कंद तीनों को प्रभावित करता है। कत्थई एवं काले धब्बे पौधे और कंद पर बन जाते हैं। रोग के लक्षण दिखने के साथ ही मैन्कोजेब 0.2 प्रतिशत को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के अनुपात में घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़कना चाहिए। भयंकर प्रकोप की दशा में मेटालेक्सिल युक्त किसी भी दवा का 0.25 प्रतिशत घोल का पैकेट पर अंकित मात्रा के अनुपात में छिड़काव करें।
इस रोग का दुष्प्रभाव उत्पादन पर तो नहीं होता लेकिन कंद बदरंग हो जाता है और उसकी कीमत बेहर कम हो जाती है। कंदों पर धब्बे बन जाते हैं। यह रोग बीज जनित है लिहाजा बीजोपचार भण्डारण एवं बुवाई से पूर्व करना जरूरी है। आलू के खेत में दोबारा आलू न लगाएं। फसल बदल कर बोएं।
माहू आलू की फसल को प्रत्यक्ष रूप से नुकसान नहीं पहंुचाता। फसल पर जैसे ही माहू का प्रभाव ज्याद दिखे तो डंठलों को काट देना चाहिए। यदि फसल देरी से लगाई गई है और मालू का प्रभाव पांच प्रतिशत से ज्यादा है तो नीम आयल 0.15 प्रतिशत एवं डाईमेथोेेयेट 30 प्रतिशत की एक लीटर मात्रा का एक हजार लीटर में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। पात फुुदका भी आलू की फसल को प्रभावित करता है। यह हरे रंग की टिड्डी नुमा होता है। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 40 ईसी की 1.2 लीटर या मिथायल आक्सीडेमेटान 25 ईसी की एक लीटर मात्रा को एक हजार लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। विषाणु जनित रोगों को पहचानने के लिए यदि पत्तों पर हरे पीले रंग के धब्बे पड़ जाएं और पत्ते मुड़कर छोटे हो जाएं तो समझ लेना चाहिए कि बीमारी विषाणु जनित है। प्रारंभ में रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़कर फेंक दें। इसके अलावा डाईमिथोेयेट 30 ईसी की एक लीटर मात्रा को एक हजार लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें। खुदाई के लिए 80 दिन बाद फसल के पत्तों का रंग बदलने लगता है। भण्डारण के लिए खुदाई से 10 दिन पूर्व डंठलों को काट दिया जाता है। कच्चा आलू बेचने के लिए छिलका थोड़ा पक्का होने पर खुदाई की जा सकती है। इस श्रेणी का आलू साथ के साथ मण्डी भेज दिया जाता है।