आधुनिक चिकित्सा पद्धति में जिन रोगों को लाइलाज माना जाता है, उनमें से कई रोग सामान्य सी जड़ी बूटियों से ठीक हो जाते हैं। गांव के बड़े बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि अनेक तरह की छोटी मोटी सर्जरी गांव के पुराने हज्जाम ही किया करते थे।
भारतीय चिकित्सा पद्धति विश्व के अन्य देशों की सभ्यता के अपूर्ण विकसित होने के समय से ही चमत्कारिक औषधियां के प्रयोग से भरपूर रही है। इसी तरह की 9 वनस्पतियों के मिश्रण से तैयार योग यानी काढ़ा कोविड-19 से लड़ने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है।
इस क्लॉथ का उपयोग करने वाले लोगों की मानें तो उन्हें वजन कम करने के अलावा और कई तरह के लाभ हो रहे है ंं। स्वामी रामदेव द्वारा तैयार कोरोनिल पर लोग सवाल उठा रहे हैं, वहीं भारतीय चिकित्सा पद्धति की समृद्धि संस्कृति यह बताती है कि आयुर्वेद हर लाइलाज समस्या का नाश कर सकता है।
जरूरत इस बात की है कि नवीन लाइलाज रोगों पर इनके गुण धर्मों के अनुसार इनका उपयोग और अनुसंधान किया जाए। किस धातु को हानि रहित करने के लिए दर्जनों वनस्पतियों का काढ़ा किस आधार पर चुना जाए।उसी प्रकार किसी धातु का भस्म किस प्रकार प्राप्त किया जाए यह जानना भी सरल नहीं है।
यह जानना भी दुर्गम है कि कौन से पौधे का कौन सा भाग शरीर के किस अंग पर क्या प्रभाव डालेगा। हर्बल औषधियों की यह खूबी होती है कि वह अपना हानिकारक दुष्प्रभाव नहीं छोड़तीं।
बात कोविड-19 से लड़ने यानी शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रयोग में आने वाले काढ़े को नौ तत्वों से बनाया गया है। इसे पतंजलि के अलावा अनेक फार्मेशियां बना रहे हैं।
लाखों-करोड़ों लोग इसका दैनिक रूप से उपयोग भी कर रहे हैं। इन लोगों को घर की रसोई में मौजूद रहने वाली चीजों से बनने वाले काढ़े के आश्चर्यजनक परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं।
काढ़े में मौजूद 9 तत्व
कोविड-19 जैसी समस्या के दौर में रोगों से लड़ने की क्षमता बनाए रखना बेहद जरूरी है। उसके लिए आयुर्वेद में अनेक तरह की जड़ी बूटियां मौजूद हैं।
बाजार में मौजूद अनेक काढ़ों मैं 9 तत्वों का मिश्रण किया गया है। इनमें तुलसी, त्वक यानी दालचीनी, शुंठी सौंठ, मारिच काली मिर्च, मुलेठी, अश्वगंधा, गिलोय, तालीसपत्र, पिप्पली शामिल हैं। इनकी सुरक्षा की पहचान प्रभाव और गुण धर्म के विषय में जानते हैं।
बरबरी तुलसी तीन प्रकार की होती है। यह तीक्ष्ण, गर्म, कड़वी, रुचिकर, अग्नि वर्धक, क्रमि एवं ज्वर नाशक होती है। यह है एवं खून से जुड़े रोगों में उपयोगी है। पित्त, कफ, वात रोग, धवल रोग , खुजली जलन, वमन,कुष्ठ और विष के विकारों को यह नष्ट करती है, इसके बीज तृषा, दाह और सूजन को दूर करते हैं।
इसकी जड़ें बच्चों की आंतों की खराबी को दूर करती हैं। श्री रस को शहद के साथ मिलाने से खांसी ठीक होती है। इसके पत्तों का रस दाद पर लगाने से बिच्छू के काटे हुए स्थान पर लगाने से लाभ होता है। इसके पत्तों और शाखाओं का काढ़ा जरवल स्नायुशूल और जुकाम में लाभदायक माना जाता है।
इस की पौध जून माह में तैयार करके खेती की जाती है। कोविड-19 के प्रभाव के चलते और गाड़ी में उपयोग के कारण वर्तमान में तुलसी के पत्ते भी ₹200 किलो तक बिक रहे हैं। इसकी खेती में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता। इसके पत्ते लकड़ी और बीच सभी औषधि कंठी माला आदि मैं प्रयुक्त होते हैं।
यह चरपरी , कफ,वात तथा मलबन्ध को तोड़ने वाली, वीर्य वर्धक स्वर्ग को उत्तम करने वाली है।वमन,श्वास,शूल, हृदय रोग, उदय तथा वात रोग नाशक है। सौंठ अदरक को सुखाकर बनाई जाती है।
यह रेतीली भूमि में उगाई जाती है। अदरक का रस शहद और नमक थोड़ा गुनगुना करके कान में डालने से दर्द बंद हो जाता है। सोंठ और गेरू को पानी में मिलाकर पीसकर आंखों पर इसका लेप लगाने से नेत्र रोग दूर होते हैं।
सौंठ का प्रयोग दाढ़ का दर्द, बवासीर की दवा, जुकाम की दवा, क्षय रोग की दवा, कफ जम जाने पर, दमा की दवा एवं गर्भ स्त्राव रोकने की दवा बनाने में होता है।
अदरक की खेती देश के अनेक राज्यों में बहुतायत में होती है। अदरक की बिजाई दक्षिण भारत में अप्रैल से मई के महीने के बीच की जाती है वही मध्य एवं उत्तर भारत में 15 से 30 मई तक किस की बुवाई का उचित समय माना जाता है
यह वनस्पति हिमालय, सीलोन और मलाया प्रायद्वीप में पैदा होती है। दालचीनी के नाम से बाजार में चार विभिन्न प्रकार के वृक्षों की छाल बिकती है। यह कामोद्दीपक, क्रमिनाशक,पौष्टिक और वात ,पित्त, प्यास, गले का सूखना, वायु नलियों का प्रदाह, खुजली, हृदय तथा गुदा से जुड़ी बीमारियों में लाभदायक है।
इसका तेल रक्त स्राव रोधक, पेट के अफरा को दूर करने वाला और अरुचि, बमन और दस्तों को रोकने मैं कारगर है।
लता जाति की इस वनस्पति की खेती त्रावणकोर और मलावर की उपजाऊ भूमि में बहुतायत में होती है।यहां के लोग इस लता के छोटे-छोटे टुकड़े करके पेड़ों की जड़ के पास रोप देते हैं ।
यह लताएं पौधों पर चढ़ जाती हैं और 3 साल बाद फल लगने लगते हैं। काली मिर्च अग्नि को दीपन करने वाली, कफ वात नाशक, गर्म पिक जनक, रुखी तथा दमा, फूल और कर्मियों का नाश करने वाली होती है।
इसका क्वार्ट्ज सांप बिच्छू एवं अफीम के जहर पर भी प्रभाव कारी है।काली मिर्च को घी में मिलाकर खाने से अनेक तरह के नेत्र रोग दूर होते हैं।
एक काली मिर्च को सुई की नोक में चोकर मोमबत्ती की लौ में गर्म करें और उसके धुए को नाक के रास्ते मस्तिष्क की ओर खींचने से छींक और मस्तिष्क का दर्द बंद होता है।
काली मिर्च को दही के साथ घिसकर आंखों में आंजने से रतौंधी रात में न दिखने की समस्या दूर होती है। इसके अलावा भी काली मिर्च का अनेक चीजों के साथ अनेक प्रयोग और रोगों के निदान में किया जाता है।
यह शीतल ,स्वादिष्ट नेत्रों के लिए हितकारी है । बाल तथा वर्ण को उत्तम करने वाली केश तथा स्वर के लिए भी हितकर है। रक्त विकार वमन तथा क्षय नाशक है।
मुलेठी का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से शुक्र वृद्धि एवं वाजीकरण होता है। गला खराब होने पर पान के साथ मुलेठी का सेवन श्रेयस्कर रहता है।
इसकी लकड़ी लगातार चूसने से शारीरिक कमजोरी दूर होती है। यह अच्छा माउथ फ्रेशनर ही नहीं संगीतज्ञ हूं के गले की मिठास को बनाए रखने में भी काम आती है।
यह भारतवर्ष में सर्वोपरि पाया जाता है। इसकी जड़ का विभिन्न औषधियों में तरह-तरह से प्रयोग होता है। यह वनस्पति वात, कफ, सूजन , श्वेत कुष्ठ, बल कारक एवं वीर्य वर्धक होती है।
सफेद मूसली, विधारा आदि धातु वर्धक औषधियों के साथ अश्वगंधा का सेवन दूध के साथ करने से बाल बढ़ता है। इसके चूर्ण का सेवन 3 से 6 मासे तक रजोधर्म के प्रारंभ में देने से महिलाओं को गर्भधारण में आसानी रहती है।
यह पौधों पर पनपने वाली लता है। पौधौं पर विकसित होने के बाद जमीन से उसका संपर्क कट जाए तब भी वह पनपती रहती है। नीम के पौधे पर चढ़ी गिलोय को ज्यादा लाभकारी माना जाता है।
इसी तरह आंवला पर चढ़ी गिलोय का असम अलग होता है। आयुर्वेद के अनुसार यह है मलरोधक,फलकारक, अग्नि दीपक, हृदय को हितकारी, आयु वर्धक, प्रमेह,जरवल,दाह, रक्तशोधक, वमन,वात, कामला,पाण्डुरोग,आंव,कोढ़,कफ,पित्त आदि में लाभकारी है।
जो गिलोय नमी वाले पौधों पर चढ़ती है वह पुराने बुखार में बेहद लाभकारी है। हर किस्म के ताप को नष्ट करती है। दिल जिगर और मेदें की जलन को मिटाती है।
यह भूख बढ़ाती है और काम इंद्रियों को ताकत देती है। मिश्री के साथ लेने से पित्त को जलाती है। इसका काढ़ा सैकड़ों रोगों का नाश करता है। कोरोना के चलते बाजार में बढ़ी मांग में इसकी कीमतों को भी आसमान में पहुंचा दिया है।
के पौधे की जड़ का काढ़ा पागल कुत्ते द्वारा काटे गए व्यक्तियों को दिया जाता है। इसके पत्ते मिर्गी रोग में भी काम आते हैं। खांसी, दमा श्वसन रोग में भी इसके पत्तों का उपयोग होता है।
इस काढ़े का प्रयोग कोविड-19 के कोहराम के बीच हजारों लोगों ने किया है। इनमें से कुछ के अनुभव हम आपके साथ साझा कर रहे हैं। वेटरनरी विश्वविद्यालय मथुरा के डेयरी विभाग के डॉ प्रवीण कुमार खुद इस काढ़े का सेवन कर रहे हैं।
कानपुर में रहने वाले अपने माता-पिता के लिए भी उन्होंने एक दर्जन पैकेट भिजवाए हैं। उन्हें इस काढ़े से कई तरह की समस्याओं से मुक्ति 20 दिन में ही मिलने लगी है।
कई अन्य लोगों ने इस काढ़े के लगातार प्रयोग से 20 दिन में 2 किलो वजन कम होने की पुष्टि की है। कई लोगों ने यहां तक दावा किया कि जब से उन्होंने काढ़े का प्रयोग शुरू किया है वह कई तरह की गोलियां लेना छोड़ चुके हैं।
मथुरा के पार्षद राजेश सिंह पिंटू गुणकारी काढ़े का अपने समूचे परिवार में तो प्रयोग कर रहे हैं कई दर्जन लोगों को उन्होंने काढ़े गिफ्ट किए हैं।
समाज में काढ़े का प्रचलन बढ़ाने के लिए अनेक लोगों ने सैकड़ों सैकड़ों की तादात में काढ़े के पैकेट का वितरण किया है। उत्तर प्रदेश के मथुरा में यह काढ़ा पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली स्थित परिसर में बनाया जा रहा है। कामधेनु गौशाला फार्मेसी के 200 ग्राम के पैकेट का मूल्य ₹40 रखा है।