केला की खेती के लिए आवश्यक है कि तापक्रम 13-40 डिग्री सेल्सियस के मध्य हो। जाडो में न्यूनतम तापमान जब 10 डिग्री सेल्सियस के नीचे चला जाता है तब केला के पौधे के अंदर प्रवाह हो रहे द्रव्य का प्रवाह रुक जाता है,जिससे केला के पौधे का विकास रूक जाता है एवम् कई तरह के विकार दिखाई देने लगते है जिनमें मुख्य थ्रोट चॉकिंग है। केला में फूल निकलते समय कम तापमान से सामने होने पर , गुच्छा (बंच) आभासी तना ( स्यूडोस्टेम) से बाहर ठीक से आने में असमर्थ हो जाता है। इसके लिए रासायनिक कारण भी "चोक" का कारण बन सकते है जैसे,कैल्शियम और बोरान की कमी भी इसी तरह के लक्षणों का कारण हो सकते है। पुष्पक्रम का आगे का हिस्सा बाहर आ जाता है और आधार (बेसल) भाग आभासी तने में फंस जाता है। इसलिए, इसे गले का चोक (थ्रोट चॉकिग) कहा जाता है। गुच्छा (बंच) को परिपक्वता होने में कभी कभी 5-6 महीने लग जाते है।ऐसे पौधे जिनमें फलों का गुच्छा उभरने में या बाहर आने में विफल रहता है, या असामान्य रूप से मुड़ जाता है। केले की खेती में ठंड की वजह से पौधों के स्वास्थ्य और उत्पादकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। केले, उष्णकटिबंधीय पौधे होने के कारण, कम तापमान के संपर्क में आने पर ठंड से नुकसान की आशंका अधिक हो जाती है। ठंड की वजह से पौधों की वृद्धि, विकास और समग्र उपज प्रभावित होती है। केले की खेती में ठंड से होने वाली क्षति को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिए, कारणों, लक्षणों को समझना और निवारक और सुधारात्मक उपायों को लागू करना आवश्यक है।
दस डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर केले संवेदनशील होते हैं। पाला केले के पौधों को नुकसान पहुंचाता है, पत्तियों और तनों को प्रभावित करता है। ठंडी हवा पौधे से गर्मी के नुकसान की दर को बढ़ाकर ठंड के तनाव को बढ़ा देती है।
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उचित छंटाई: नई वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए क्षतिग्रस्त या मृत पत्तियों को हटाते रहे।
उर्वरक: ठंड के तनाव के खिलाफ पौधों को मजबूत करने के लिए इष्टतम पोषक तत्व स्तर बनाए रखें।
जल प्रबंधन: अत्यधिक पानी भरने से बचें, क्योंकि जल जमाव वाली मिट्टी ठंड से होने वाले नुकसान को बढ़ा सकती है।यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि केला एक ऐसी फसल है जिसे पानी की पर्याप्त आपूर्ति की आवश्यकता होती है, इसे पूरे वर्ष में (कम से कम 10 सेमी प्रति माह) इष्टतम रूप से वितरित किया जाना है। जाड़े के मौसम में केला के खेत की मिट्टी का हमेशा नम रहना आवश्यक है।
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पौधों के स्वास्थ्य की निगरानी: नियमित रूप से पौधों की पुनर्प्राप्ति प्रगति का आकलन करें। पोषक तत्वों को बढ़ावा: रिकवरी को बढ़ावा देने के लिए पोटेशियम और फास्फोरस से भरपूर उर्वरक का प्रयोग करें। जाडा शुरू होने के पूर्व केला के बागान कि हल्की जुताई गुड़ाई करके उर्वरकों की संस्तुति मात्रा का 1/4 हिस्सा देने से भी इस विकार की उग्रता में भारी कमी आती है। धैर्य: पौधों को प्राकृतिक रूप से ठीक होने के लिए पर्याप्त समय दें। बिहार की कृषि जलवायु में हमने देखा है की जाड़े में केला के बाग जले से दिखाई देने लगते है लेकिन मार्च अप्रैल आते आते हमारे बाग पुनः अच्छे दिखने लगते है।
शीत-प्रतिरोधी किस्में: बढ़ी हुई शीत-प्रतिरोधी केले की किस्मों का विकास और खेती करें। हमने देखा है की केला की लंबी प्रजातियां बौनी प्रजातियों की तुलना में जाड़े के प्रति अधिक सहनशील होती है
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मौसम का पूर्वानुमान: ठंड के मौसम का अनुमान लगाने और तैयारी करने के लिए उन्नत मौसम पूर्वानुमान का उपयोग करें। बिहार में टिशू कल्चर केला को लगने का सर्वोत्तम समय मई से सितंबर है।इसके बाद लगाने से इसकी खेती पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है।इसको लगने का सबसे बड़ा सिद्धांत यह है कि कभी भी केला में फूल जाड़े में नहीं आना चाहिए क्योंकि जाड़े मै अत्यन्त ठंडक की वजह से बंच की बढ़वार अच्छी नहीं होती है या कभी कभी बंच ठीक से आभासी तने से बाहर नहीं आ पाता है। उत्तक संवर्धन से तैयार केला मै फूल 9वे महीने में आने लगता है जबकि सकर से लगाए केले में बंच 10-11वे महीने में आता है। जेनेटिक इंजीनियरिंग: केले में ठंड सहनशीलता बढ़ाने के लिए आनुवंशिक संशोधनों पर शोध करने की आवश्यकता है।
केले की खेती में ठंड से होने वाले नुकसान के प्रभावी प्रबंधन में निवारक, सुधारात्मक और अनुसंधान-आधारित रणनीतियों का संयोजन शामिल है। किसानों को केले की फसल को ठंड के तनाव के हानिकारक प्रभावों से बचाने के लिए साइट चयन, कल्चरल(कृषि)उपाय और तकनीकी प्रगति पर विचार करते हुए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इन उपायों को लागू करके, उत्पादक ठंडे तापमान वाले क्षेत्रों में केले की खेती की स्थिरता और लचीलापन सुनिश्चित कर सकते हैं।